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एकदंत गणेशजी की कथा
एकदंत गणेशजी की कथा
भगवान् एकदन्त परात्पर ब्रह्म
गणेश्वर ही हैं, जो समस्त संसार के सर्ग,
पालन और जय के एकमात्र कारण हैं । उनका एकाक्षरी मन्त्र 'गं' है।
‘एकशब्दात्मिका माया, तस्याः सर्वसमुद्भवम् ।
दंतः सत्ताधरस्तत्र मायाचालक उच्यते
।।’
उनका एकदन्त नाम दो विशेषताओं से
युक्त है,
क्योंकि वह एक और दन्त दो पदों से बना है। एक शब्द माया सूचक है। वह
माया देह रूपिणी और विलासवती है तथा 'दन्त' शब्द सत्तास्वरूप होने से परमात्मा का सूचक है । वस्तुतः गणेशजी माया के
धारक और स्वयं सत्तामात्र से स्थित रहते हैं । इसलिए वेदवादी विद्वज्जन उन
परमात्मा स्वरूप को 'एकदन्त' कहते हैं।'
“एकदन्त'
गणेशजी का ध्यान- १
"एकदन्तं चतुर्बाहुं
गजवक्त्रं महोदरम् ।
सिद्धि-बुद्धि-समायुक्तं
मूषकारूढमेव व ॥
नाभिशेष पाशहस्तं परशुं कमलं शुभम्
।
अभयं दधतं चैव प्रसन्नवदनाम्बुजम् ।
भक्तेभ्यो वरदं नित्यमभक्तानां
निषूदनम् ॥"
'उस गणेश्वर के एक दाँत, चार बाहुएँ हैं, मुख हाथी के समान और बड़ा है । वे
सदैव सिद्धि-बुद्धि से सम्पन्न और मूषक की स्वारी करने वाले हैं। उनकी नाभि में
शेषनाग और हाथों में पाश, परशु, सुन्दर
कमल और अभय मुद्रा सुशोभित हैं । उनका मुख-कमल सदैव प्रसन्नता से खिला हुआ रहता है
। वे भक्तों को सदा वर प्रदान करने वाले और अभक्तों का विनाश करने वाले हैं।
“एकदन्त' गणेशजी
का ध्यान- २
एकदन्तं महाकायं तप्तकांचनसंनिभम्।
लम्बोदरं विशालाक्षं वन्देऽहं
गणनायकम्।।
मुंजकृष्णाजिनधरं नागयज्ञोपवीतिनम्।
बालेन्दुकलिकामौलिं वन्देऽहं
गणनायकम्।। (पद्मपुराण, सृष्टि. ६६।२-३)
अर्थात्-मैं विशालकाय,
तपाये हुए स्वर्ण-सदृश्य प्रकाश वाले, लम्बोदर,
बड़ी-बड़ी आंखों वाले, एकदन्त श्रीगणनायक की
वन्दना करता हूँ। जिन्होंने मौंजीमेखला, कृष्ण-मृगचर्म तथा
नाग-यज्ञोपवीत धारण कर रखे हैं, जिनके मौलिदेश में बालचन्द्र
सुशोभित हो रहा है, मैं उन गणनायक की वन्दना करता हूँ।
श्रीगणेश 'एकदन्त' क्यों कहे जाते हैं?
श्रीगणेश को 'एकदन्त' क्यों कहा जाता है-इसके सम्बन्ध में पुराणों
की कुछ कथा निम्न है-
एकदंत गणेशजी की कथा १
चतुर्थी-व्रत एवं एकदंत गणेशजी की
यह कथा भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – २२
में वर्णित है भगवान एकदंत गणेशजी की कथा इस प्रकार से है –
सुमन्तु मुनि ने कहा –
राजन् ! तृतीया-कल्प का वर्णन करने के अनन्तर अब मैं चतुर्थी-कल्प
का वर्णन करता हूँ । चतुर्थी-तिथि में सदा निराहार रहकर व्रत करना चाहिये ।
ब्राह्मण को तिल का दान देकर स्वयं भी तिल का भोजन करना चाहिये । इस प्रकार व्रत
करते हुए दो वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् विनायक प्रसन्न होकर व्रती को अभीष्ट फल
प्रदान करते हैं । उसका भाग्योदय हो जाता है और वह अपार धन-सम्पत्ति का स्वामी हो
जाता है तथा परलोक में भी अपने पुण्य-फलों का उपभोग करता है । पुण्य समाप्त होने
के पश्चात् इस लोक में पुनः आकर वह दीर्घायु, कान्तिमान्,
बुद्धिमान्, धृतिमान, वक्ता,
भाग्यवान्, अभीष्ट कार्यों तथा असाध्य-कार्यों
को भी क्षण-भर में ही सिद्ध कर लेने वाला और हाथी, घोड़े,
रथ, पत्नी-पुत्र से युक्त हो सात जन्मों तक
राजा होता हैं । राजा शतानीक ने पूछा – मुने ! गणेशजी ने
किसके लिये विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें
विघ्नविनायक कहा गया । आप विघ्नेश तथा उनके द्वारा विघ्न उत्पन्न करने के कारण को
मुझे बताने का कष्ट करें । सुमन्तु मुनि बोले – राजन् ! एक
बार अपने लक्षण-शास्त्र के अनुसार स्वामि-कार्तिकेय ने पुरुषों और स्त्रियों के श्रेष्ठ
लक्षणों की रचना की, उस समय गणेशजी ने विघ्न किया । इस पर
कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश का एक दाँत उखाड़ लिया और उन्हें मारने
के लिये उद्धत हो उठे । उस समय भगवान शङ्कर ने उनको रोककर पूछा कि तुम्हारे क्रोध
का क्या कारण हैं ? कार्तिकेय ने कहा – पिताजी ! मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था,
उसमे इसने विघ्न किया, जिससे स्त्रियों के
लक्षण मैं नहीं बना सका । इस कारण मुझे क्रोध हो आया । यह सुनकर महादेव जी ने
कार्तिकेय के क्रोध को शांत किया और हँसते हुए उन्होंने पूछा । शङ्कर बोले –
पुत्र ! तुम पुरुष के लक्षण जानते हो तो बताओ, मुझमें पुरुष के कौन-से लक्षण हैं ? कार्तिकेय ने
कहा – महाराज ! आप में ऐसा लक्षण हैं कि संसार में आप ‘कपाली’ के नाम से प्रसिद्ध होंगे । पुत्र का यह वचन
सुनकर महादेवजी को क्रोध हो आया और उन्होंने उनके उस लक्षण-ग्रन्थ को उठाकर समुद्र
में फेंक दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये । बाद में शिवजी ने समुद्र को बुलाकर कहा
कि तुम स्त्रियों के आभूषण-स्वरुप विलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो
पुरुष-लक्षण के विषय में कहा है उसको कहो । समुद्र ने कहा – जो
मेरे द्वारा पुरुष-लक्षण का शास्त्र कहा जायगा, वह मेरे ही
नाम ‘सामुद्रिक शास्त्र’ से प्रसिद्ध
होगा । स्वामिन् ! आपने जो आज्ञा मुझे दी हैं, वह निश्चित ही
पूरी होगी । शङ्करजी ने पुनः कहा – कार्तिकेय ! इस समय तुमने
जो गणेश का दाँत उखाड़ लिया है उसे दे दो । निश्चय ही जो कुछ यह हुआ है, होना ही था । दैवयोग से यह गणेश के बिना सम्भव नहीं था, इसलिये उनके द्वारा यह विघ्न उपस्थित किया गया । यदि तुम्हें लक्षण की
अपेक्षा हो तो समुद्र से ग्रहण कर लो, किंतु स्त्री-पुरुषों
का यह श्रेष्ठ लक्षण-शास्त्र ‘सामुद्र-शास्त्र’ इस नाम से ही प्रसिद्ध होगा । गणेश को तुम दाँत-युक्त कर दो । कार्तिकेय
ने भगवान् देवदेवेश्वर से कहा – आपके कहने से मैं दाँत तो
विनायक के हाथ में दे देता हूँ, किंतु इन्हें इस दाँत को
सदैव धारण करना पड़ेगा । यदि इस दाँत को फेंककर ये इधर-उधर घूमेंगे तो यह फेंका गया
दाँत इन्हें भस्म कर देगा । ऐसा कहकर कार्तिकेय ने उनके हाथ में दाँत दे दिया ।
भगवान् देवदेवेश्वर ने गणेश को कार्तिकेय की इस बात को मानने के लिये सहमत कर लिया
। सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! आज भी भगवान् शंकर के पुत्र
विघ्नकर्ता महात्मा विनायक की प्रतिमा हाथ में दाँत लिये देखी जा सकती हैं ।
देवताओं की यह रहस्यपूर्ण बात मैंने आपसे कहीं । इसको देवता भी नहीं जान पाये थे ।
पृथ्वी पर इस रहस्य को जानना तो दुर्लभ ही है । प्रसन्न होकर मैंने इस रहस्य को
आपसे तो कह दिया है, किंतु गणेश की यह अमृत-कथा चतुर्थी तिथि
के संयोग पर ही कहनी चाहिये । जो विद्वान् हो, उसे चाहिये कि
वह इस कथा को वेदपारङ्गत श्रेष्ठ द्विजों, अपनी क्षत्रियोचित
वृत्ति में लगे हुये क्षत्रियों, वैश्यों और गुणवान् शूद्रों
को सुनाये । जो इस चतुर्थी व्रत का पालन करता हैं, उसके लिये
इस लोक तथा परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता । उसकी दुर्गति नहीं होती और न कही
वह पराजित होता है । भरतश्रेष्ठ ! निर्विघ्न-रूपसे वह सभी कार्यों को सम्पन्न कर
लेता हैं, इसमें संदेह नहीं है । उसे ऋद्धि-वृद्धि-ऐश्वर्य
भी प्राप्त हो जाता है ।
एकदंत गणेशजी की कथा २
ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड में
श्रीगणेश को 'एकदन्त' क्यों
कहा जाता है-इसके सम्बन्ध में एक कथा है।
भृगुवंशी जमदग्नि ऋषि और रेणुका के
पुत्र परशुराम ने जब पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया,
तब वे अपने गुरुदेव भगवान भूतनाथ शिव के चरणों में प्रणाम करने और
गुरुपत्नी अम्बा पार्वती तथा दोनों गुरुपुत्रों-कार्तिकेय तथा गणेश को देखने की
लालसा से कैलास पहुँचे। कैलाशपुरी का भ्रमण करके उन्होंने गजमुख गणेश से कहा-'मैं अपने गुरु शूलपाणि शिव का दर्शन करना चाहता हूँ।'
उस समय भगवान शंकर जगदम्बा पार्वती
के साथ अंत:पुर में शयन कर रहे थे। जब रेणुकानन्दन परशुराम शंकरजी को प्रणाम करने
के लिए अंत:पुर में जाने लगे तब गणपतिजी ने उन्हें समझाया कि इस समय वे अंदर न
जाएं पर परशुरामजी अपनी हठ पर अड़े रहे और उन्होंने अनेकों युक्तियों से उस समय
अपना अंदर जाना निर्दोष बतलाया पर बुद्धिविशारद गणेश ने उनको अंदर जाने से रोक
दिया।
इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से
रहित करने वाले रेणुकानन्दन परशुराम कुपित हो गए और श्रीगणेश और परशुरामजी-दोनों
में केवल वाग्युद्ध ही नहीं, मल्लयुद्ध भी
होने लगा। तब परशुरामजी ने फरसा उठा लिया। उमापुत्र गणेश ने अपनी सूंड को लम्बा कर
परशुरामजी को उसमें लपेट लिया और चारों तरफ घुमाते हुए उन्हें समस्त लोकों के
दर्शन करा दिए।
भृगुनन्दन परशुराम ने अपने इष्ट
भगवान श्रीकृष्ण और गुरु शंकर द्वारा प्रदत्त स्तोत्र व कवच का स्मरण कर अपने अमोघ
फरसे को गौरीनन्दन श्रीगणेश पर चला दिया। शिव की शक्ति के प्रभाव से वह परशु गणेश
के बांये दांत को काटकर पुन: रेणुकानन्दन परशुराम के हाथ में लौट आया।
बुद्धिविनायक गणेश का दांत टूटकर
भयंकर शब्द करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। रक्त से सना दांत देखकर स्कन्द,
वीरभद्र व सभी गण कांप उठे। उस भयंकर ध्वनि को सुनकर भगवान शिव व
पार्वती की निद्रा भंग हो गई और वे अंत:पुर से बाहर आए। उन्होंने श्रीगणेश का मुख
रक्त से सराबोर देखा। स्कन्दकुमार द्वारा सारा वृतान्त सुनाए जाने पर सती पार्वती
को क्रोध आ गया। उन्होंने परशुरामजी से कहा-'तुमने करुणासागर
गुरु और अमोघ फरसा पाकर पहले क्षत्रिय-जाति पर परीक्षा की, अब
गुरु-पुत्र पर परीक्षा की है। कहां तो वेदों में 'गुरु को
दक्षिणा देना' कहा है और तुमने तो गुरुपुत्र के दांत को ही
तोड़ डाला। श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ यह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान
है। अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएं हैं। इसी से इनकी अग्रपूजा होती है।
जितेन्द्रिय पुरुषों में श्रेष्ठ गणेश तुम्हारे जैसे लाखों को मारने की शक्ति रखता
है; परन्तु वह मक्खी पर भी हाथ नहीं उठाता।'
ऐसा कहकर पार्वतीजी क्रोधवश
परशुरामजी को मारने के लिए उद्यत हो गयीं। तब परशुरामजी ने अपने गुरु शिव को
प्रणामकर इष्टदेव श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तभी वहां भगवान विष्णु वामन रूप से
प्रकट हो गये और पार्वतीजी को समझाते हुए बोले-'तुम जगज्जननी हो। तुम्हारे लिए जैसे गणेश और कार्तिकेय हैं, वैसे ही भृगुवंशी परशुराम भी पुत्र के समान हैं। इनके प्रति तुम्हारे और
शंकरजी के मन में भेदभाव नहीं है। पुत्र के साथ पुत्र का विवाद तो दैवदोष से घटित
हुआ है। दैव को मिटाने में कौन समर्थ हो सकता है? तुम्हारे
पुत्र का 'एकदन्त' नाम वेदों में
विख्यात है।
लगभग एकदंत गणेशजी की यही कथा को
श्री गणेश पुराण में भी कहा गया है जो संक्षिप्त इस प्रकार है-
एकदंत गणेशजी की कथा ३
एकदंत गणेशजी की दूसरी कथा हमें
गशेण पुराण के चतुर्थ खंड में मिलती है कि एक बार शिवजी की तरह ही गणेशजी ने कैलाश
पर्वत पर जाने से परशुरामजी को रोक दिया था। उस समय परशुराम कार्तवीर्य अर्जुन का
वध करके कैलाश पर शिव के दर्शन की अभिलाषा से गए हुए थे। वे शिव के परम भक्त थे।
गणेशजी के रोकने पर परशुरामजी गणेशजी से युद्ध करने लगे। गणेशजी ने उन्हें धूल
चटा दी तब मजबूर होकर उन्होंने शिव के दिए हुए फरसे का उन पर प्रयोग किया जिसके
चलते गणेशजी का बायां दांत टूट गया। तभी से वह एकदंत कहलाने लगे।
इसके अतिरिक्त भी एकदंत गणेशजी की
और कथाएँ मिलाती है जो निम्न है-
एकदंत गणेशजी की कथा ४
कहते हैं कि एक बार गजमुखासुर नामकर
अनुसार को वरदान प्राप्त था कि वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता।
इसीलिए वह ऋषि मुनियों को परेशान करता रहता था। ऋषि मुनियों ने जब प्रार्थना की तो
गणेशजी ने इससे युद्ध किया और इस दौरान असुर को वश में करने के लिए गणेश जी को
अपना एक दांत स्वयं ही तोड़ना पड़ा था।
एकदंत गणेशजी की कथा ५
महर्षि वेद व्यासजी ने गणेशजी से महाभारत लिखने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि इस शर्त पर लिखूंगा कि आप बीच में ही बोलना ना रोगेंगे। तब महर्षि ने भी एक शर्त की आप जो भी लिखेंगे वह उसे समझकर ही लिखेंगे। गणेशजी भी शर्त मान गए। अब दोनों ने काम शुरू किया और महाभारत के लेखन का काम प्रारंभ हुआ। महर्षि के तेजी से बोलने के कारण कुछ देर लिखने के बाद अचानक से गणेशजी की कलम टूट गई। अब अपने काम में बाधा को दूर करने के लिए उन्होंने अपने एक दांत को तोड़ दिया और स्याही में डूबाकर महाभारत की कथा लिखने लगे।
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