किरातार्जुनीयम् तृतीय सर्ग
किरातार्जुनीयम् तृतीय सर्ग-भारवि
अपने अर्थ-गौरव (गहन भाव-सम्पदा) के लिए जाने जाते हैं—‘उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्’। इस अर्थ-गौरव से
मेल खाती एक विदग्ध भाषा और अभिव्यक्ति-कौशल उनकी सम्पदा है। राजनीति और
व्यवहार-नीति सहित जीवन के विविध आयामों में उनकी असाधारण पैठ है। आदर्श और
व्यवहार के द्वंद्व तथा यथार्थ जीवन के अतिरेकों के समाहार से अर्जित संतुलन उनके
लेखन को ‘समस्तलोकरंजक’ बनाता है।
लेकिन भारवि मूलत: जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों के कवि हैं, उनका सामना करते हैं और उनके खुरदुरे यथार्थ के बीच संगति बिठाने का
प्रयास करते हैं। किरातार्जुनीयम् के पहले सर्ग में द्रौपदी और दूसरे में भीम
द्वारा युधिष्ठिर को दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के लिए उकसाने और
युधिष्ठिर द्वारा उसे अनीतिपूर्ण बताकर अस्वीकार कर देने के क्रम में भारवि ने
राजनीति के दो छोरों के बीच के द्वंद्व पर बहुत सार्थक विमर्श प्रस्तुत किया है। तीसरे
सर्ग में व्यास कौरव पक्ष के भीष्म, द्रोण, कर्ण-जैसे धुरंधरों को पांडवों द्वारा अजेय बताते हुए 13 साल की अवधि में
हर तरह से शक्ति-संवर्धन करने और भविष्य के अवश्यम्भावी युद्ध की तैयारी के लिए
उसका उपयोग करने की सलाह देते हैं। इसके लिये वे अर्जुन को उच्च कोटि के
शस्त्रास्त्र हेतु तपस्या से इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रेरित करते हैं और
अपने साथ लाए एक यक्ष को भी छोड़ जाते हैं जो अर्जुन को इंद्र की तपस्या के लिए
उपयुक्त स्थान तक ले जाएगा।
किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्
किरातार्जुनीयम् तृतीय सर्ग
किरातार्जुनीयम् सर्ग ३
किरातार्जुनीये तृतीयः सर्गः
ततः
शरच्चन्द्रकराभिरामैरुत्सर्पिभिः प्रांशुं इवांशुजालैः ।
बिभ्राणं आनीलरुचं
पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तं इवाम्बुवाहं ।। ३.१ ।।
प्रसादलक्ष्मीं दधतं समग्रां
वपुःप्रकर्षेण जनातिगेन ।
प्रसह्य चेतःसु समासजन्तं
असंस्तुतानां अपि भावं आर्द्रं ।। ३.२ ।।
अनुद्धताकारतया विविक्तां तन्वन्तं
अन्तःकरणस्य वृत्तिं ।
माधुर्यविस्रम्भविशेषभाजा
कृतोपसम्भाषं इवेक्षितेन ।। ३.३ ।।
धर्मात्मजो धर्मनिबन्धिनीनां
प्रसूतिं एनःप्रणुदां श्रुतीनां ।
हेतुं तदभ्यागमने परीप्सुः
सुखोपविष्टं मुनिं आबभाषे ।। ३.४ ।।
अर्थ: (मुनिवर वेदव्यास के आदेश से
आसन पर बैठ जाने के) अनन्तर शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आनन्ददायी,
ऊपर फैलते हुए प्रभापुञ्ज से मानो उन्नत से, श्यामल
शरीर पर पीले वर्ण की जटा धारण करने के कारण मानो बिजली से युक्त मेघ की भांति,
प्रसन्नता की सम्पूर्ण शोभा से समलङ्कृत, लोकोत्तर
शरीर-सौन्दर्य के कारण अपरिचित लोगों के चित्त में भी अपने सम्बन्ध में उच्च भाव
पैदा करनेवाले, अपनी शान्त आकृति से अन्तःकरण की (स्वच्छ
पवित्र) भावनाओं को प्रकट करते हुए, अपनी अति स्वाभाविक
सौम्यता तथा विश्वासदायकता से युक्त अवलोकन के कारण मानो (पहले ही से) सम्भाषण
किये हुए की तरह एवं अग्निहोत्र आदि धर्म के प्रतिपादक तथा पापों के विनाशकारी
वेदों के व्याख्याता व्यास जी से, जो सुखपूर्वक आसन पर विराजमान(हो चुके) थे, उनके
आगमन का कारण जानने के लिए, धर्मराज युधिष्ठिर ने (यह)
निवेदन किया ।
टिप्पणी: तीनों श्लोकों के सब
विशेषण व्यासजी के लोकोत्तर व्यक्तित्व से सम्बन्धित हैं । अलौकिक सौन्दर्य के
कारण लोगों में उच्च भाव पैदा होना स्वाभाविक है । प्रथम श्लोक में दो
उत्प्रेक्षाएँ हैं । द्वितीय में काव्यलिङ्ग तथा तृतीया में भी उत्प्रेक्षा अलंकार
है । चतुर्थ में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग है ।
अनाप्तपुण्योपचयैर्दुरापा फलस्य
निर्धूतरजाः सवित्री ।
तुल्या भवद्दर्शनसम्पदेषा
वृष्टेर्दिवो वीतबलाहकायाः ।। ३.५ ।।
अर्थ: पुन्यपुञ्ज सञ्चित न करनेवाले
लोगों के लिए दुलभ, अभिलाषाओं को सफल
करनेवाली, रजोगुणरहित यह आपके (मङ्गलदायी) दर्शन की सम्पत्ति
बादलों से विहीन आकाश की वर्षा के समान (आनन्ददायिनी) है ।
टिप्पणी: बिना बादल की वृष्टि के
समान यह आपका अप्रत्याशित शुभ दर्शन हमारे लिए सर्वथा किसी न किसी कल्याण का सूचक
है ।
उपमा अलङ्कार
अद्य क्रियाः कामदुघाः क्रतूनां
सत्याशिषः सम्प्रति भूमिदेवाः ।
आ संसृतेरस्मि जगत्सु
जातस्त्वय्यागते यद्बहुमानपात्रं ।। ३.६ ।।
अर्थ: आज के दिन मेरे किये हुए
यज्ञों के अनुष्ठान फल देने वाले बन गए । इस समय भूमि के देवता ब्राह्मणों के
आशीर्वचन सत्य हुए । आपके इस आगमन से (आज मैं) जब से इस सृष्टि की रचना हुई है तब
से आज तक संसार भर में सब से अधिक सम्मान का भाजन बन गया हूँ ।
टिप्पणी: सम्पूर्ण सत्कर्मों के
पुण्य प्रभाव से ही आपका यह मंगलदायी दर्शन हुआ है । मुझसे बढ़कर इस सृष्टि में कोई
दूसरा भाग्यशाली व्यक्ति आज तक नहीं हुआ ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
श्रियं विकर्षत्यपहन्त्यघानि श्रेयः
परिस्नौति तनोति कीर्तिम् ।
संदर्शनं लोकगुरोरमोघं
तवात्मयोनेरिव किं न धत्ते ।। ३.७ ।।
अर्थ: ब्रह्मा के समान जगत्पूज्य आप
का यह अमोघ (कभी व्यर्थ न होने वाला) पुण्यदर्शन लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला है,
पापों का विनाशक है, कल्याण का जनक है तथा यश
की विस्तारक है । वह क्या नहीं कर सकता है ।
टिप्पणी: अर्थात उससे संसार में
मनुष्य के सभी मनोरथ पूरे होते हैं ।
पूर्वार्द्धमें समुच्चय अलङ्कार है
तथा उत्तरार्द्ध में उपमा एवं अर्थापत्ति अलङ्कार
च्योतन्मयूखेऽपि हिमद्युतौ मे
ननिर्वृतं निर्वृतिमेति चक्षुः ।
समुज्झितज्ञातिवियोगखेदं
त्वत्संनिधावुच्छ्वसतीव चेतः ।। ३.८ ।।
अर्थ: अमृत परिस्रवण करनेवाली
किरणों से युक्त हिमांशु चन्द्रमा में भी शान्ति न प्राप्त करनेवाले मेरे नेत्र
आपके (इस) दर्शन से तृप्त हो रहे हैं तथा मेरा चित्त छूटे हुए बन्धु-बान्धवों के
वियोग-जनित दुःख को भूल कर मानो पुनः जीवित सा हो रहा है ।
टिप्पणी: आपके इस पुण्यदर्शन से
मेरे नेत्र सन्तुष्ट हो गए और मेरा मन नूतन उत्साह से भर गया ।
पूर्वार्द्ध में विशेषोक्ति और
उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा अलङ्कार
निरास्पदं प्रश्नकुतूहलित्वं अस्मास्वधीनं
किमु निःस्पृहाणाम् ।
तथापि कल्याणकरीं गिरं ते मां
श्रोतुमिच्छा मुखरीकरोति ।। ३.९ ।।
अर्थ: (आप के आगमन के प्रयोजन का)
प्रश्न पूछने का मेरा जो कौतुहल था वह शान्त हो गया, क्योंकि आप जैसे निस्पृह वीतराग महापुरुषों का हम लोगों के अधीन है ही
क्या ? किन्तु फिर भी आपकी मंगलकारिणी वाणी को सुनने की
इच्छा मुझे मुखर (बोलने को विवश) कर रही है ।
इत्युक्तवानुक्तिविशेषरम्यं मनः
समाधाय जयोपपत्तौ ।
उदारचेता गिरं इत्युदारां
द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः ।। ३.१० ।।
अर्थ: उक्त प्रकार की सुन्दर
विचित्र उक्तियों से मनोहर वाणी बोलने वाले उदारचेता महाराज युधिष्ठिर से,
उनकी विजय की अभिलाषा में चित्त लगा कर महर्षि द्वैपायन इस प्रकार
की उदार वाणी में बोले ।
चिचीषतां जन्मवतां अलघ्वीं
यशोवतंसां उभयत्र भूतिं ।
अभ्यर्हिता बन्धुषु तुल्यरूपा
वृत्तिर्विशेषेण तपोधनानां ।। ३.११ ।।
अर्थ: गम्भीर,
कीर्ति को विभूषित करनेवाले, इस लोक तथा परलोक
में सुखदायी कल्याण की इच्छा रखनेवाले शरीरधारी को (भी) अपने कुटुम्बियों के प्रति
समान व्यवहार करना उचित है और तपस्वियों के लिए तो यह समान व्यवहार विशेष रूप से
उचित है ।
टिप्पणी: संसार में समस्त शरीरधारी
को अपने कुटुम्बी-जनों के लिए समान व्यवहार करना उचित है किन्तु तपस्वी को तो
विशेष रूप से सम-व्यवहार करना ही चाहिए, उसे
किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।
तथाऽपि निघ्नं नृप तावकीनैः
प्रह्वीकृतं मे हृदयं गुणौघैः ।
वीतस्पृहाणां अपि मुक्तिभाजां
भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः ।। ३.१२ ।।
अर्थ: किन्तु ऐसा होते हुए भी हे
राजन ! तुम्हारे उत्तम गुणों के समूहों से आकृष्ट मेरा ह्रदय तुम्हारे वश में हो
गया है । (यदि यह कहो कि तपस्वी के ह्रदय में यह पक्षपात क्यों हो गया है तो) वीतराग
मुमुक्षुओं के ह्रदय में भी सज्जनों के प्रति पक्षपात हो ही जाता है ।
टिप्पणी: सज्जनों के प्रति पक्षपात
करने से मुमुक्षु तपस्वियों का तप खण्डित नहीं होता, यह तो स्वाभाविक धर्म है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
सुता न यूयं किं उ तस्य राज्ञः
सुयोधनं वा न गुणैरतीताः ।
यस्त्यक्तवान्वः स वृथा बलाद्वा
मोहं विधत्ते विषयाभिलाषः ।। ३.१३ ।।
अर्थ: आप लोग क्या उस राजा
धृतराष्ट्र के पुत्र नहीं हैं? क्या अपने
उत्तम गुणों से आप लोगों ने दुर्योधन को पीछे नहीं छोड़ दिया है ? जो उसने बिना किसी कारण के ही आप लोगों को छोड़ दिया है । अथवा (यह सच है
कि) विषयों कि अभिलाषा (मनुष्य को) बलपूर्वक अविवेकी ही बना देती है ।
टिप्पणी: अर्थात धृतराष्ट्र कि
विषयाभिलाषा ही उसके अविवेक का कारण है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
जहातु नैनं कथं अर्थसिद्धिः संशय्य
कर्णादिषु तिष्ठते यः ।
असाद्युयोगा हि जयान्तरायाः
प्रमाथिनीनां विपदां पदानि ।। ३.१४ ।।
अर्थ: जो कर्ण प्रभृति दुष्ट
मन्त्रियों पर सन्देहजनक कार्यों के निर्णयार्थ निर्भर रहता है,
उस धृतराष्ट्र को प्रयोजनों की सिद्धियां क्यों न छोड़े । क्योंकि
दुष्टों का सम्पर्क विजय का द्योतक (ही नहीं होता, प्रत्युत)
ध्वंस करने वाली विपत्तियों का आधार (भी) होता है ।
टिप्पणी: दुष्टों की सङ्गति न केवल
विजय में ही बाधा डालती है, प्रत्युत वह
अनर्थकारिणी भी होती है । ऐसे दुष्टों के सम्पर्क से धृतराष्ट्र का अवश्य विनाश हो
जाएगा ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।
पथश्च्युतायां समितौ रिपूणां
धर्म्यां दधानेन धुरं चिराय ।
त्वया विपत्स्वप्यविपत्ति रम्यं
आविष्कृतं प्रेम परं गुणेषु ।। ३.१५ ।।
अर्थ: शत्रुओं के पथ से भ्रष्ट
शत्रुओं की सभा में चिरकाल तक धर्म के साथ अपना कर्त्तव्य पूरा करके आपने
विपत्तियों में भी अविपत्ति अर्थात सुख-शान्ति के समय शोभा देनेवाले सात्विक गुणों
के साथ ऊँचा प्रेम प्रदर्शित किया है ।
टिप्पणी: असहनीय कष्टों को भी आपने
सुख के साथ बिताकर अच्छा ही किया है ।
विरोधाभास अलङ्कार ।
विधाय विध्वंसनं आत्मनीनं
शमैकवृत्तेर्भवतश्छलेन ।
प्रकाशितत्वन्मतिशीलसाराः कृतोपकारा
इव विद्विषस्ते ।। ३.१६ ।।
अर्थ: शान्ति के प्रमुख उपासक आप के
साथ छाल करके उन शत्रुओं ने अपना ही विनाश किया है और ऐसा करके उन्होंने आपकी
सद्बुद्धि एवं शील सदाचरण का परिचय देते हुए मानो आपका उपकार ही किया है ।
टिप्पणी: ऐसा करके उन्होंने अपनी
दुर्जनता तथा आपकी सज्जनता का अच्छा प्रचार किया है । चन्दन की भांति सज्जनों की
विपत्ति भी उनके गुणों का प्रकाशन ही करती है ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।
लभ्या धरित्री तव विक्रमेण
ज्यायांश्च वीर्यास्त्रबलैर्विपक्षः ।
अतः प्रकर्षाय विधिर्विधेयः
प्रकर्षतन्त्रा हि रणे जयश्रीः ।। ३.१७ ।।
अर्थ: तुम पराक्रम के द्वारा (ही)
पृथ्वी को प्राप्त कर सकते हो । तुम्हारा शत्रु पराक्रम और अस्त्रबल में तुमसे
बढ़ा-चढ़ा है । इसलिए तुम्हें भी अपने उत्कर्ष के लिए उपाय करना होगा,
क्योंकि युद्ध में विजयश्री उत्कर्ष के ही अधीन रहती है ।
टिप्पणी: बलवान एवं पराक्रमी ही रण
में विजयी होते हैं, बलहीन और आलसी नहीं
।
काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास की
ससृष्टि ।
त्रिःसप्तकृत्वो जगतीपतीनां हन्ता
गुरुर्यस्य स जामदग्न्यः ।
वीर्यावधूतः स्म तदा विवेद प्रकर्षं
आधारवशं गुणानां ।। ३.१८ ।।
अर्थ: इक्कीस बार धरती के राजाओं का
जो संहार करनेवाला है, वह धनुर्वेद का
शिक्षक सुप्रसिद्ध जमदग्नि का पुत्र परशुराम जिस(भीष्म) के पराक्रम से पराजित हो
गया और यह जान सका कि गुणों का उत्कर्ष पात्र के अनुसार ही होता है ।
टिप्पणी: जमदग्नि के पुत्र परशुराम
ने अपने पिता के वैर का बदला चुकाने के लिए समस्त भूमण्डल के क्षत्रिय राजाओं का
इक्कीस बार विनाश कर दिया था, यह सुप्रसिद्ध
पौराणिक कथा है । वही परशुराम भीष्म के धनुर्विद्या के आचार्य थे, किन्तु अम्बिका-स्वयंवर के समय उन्हें अपने ही शिष्य भीष्म से पराजित हो
जाने पर यह स्वीकार करना पड़ा कि गुणों का विकास पात्र के अनुसार होता है । किसी
साधारण पात्र में पड़कर वही गुण अविकसित अथवा अधविकसित होता है और किसी विशेष पात्र
में पड़कर वह पूर्व की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में विकसित होता है ।
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
यस्मिन्ननैश्वर्यकृतव्यलीकः पराभवं
प्राप्त इवान्तकोऽपि ।
धुन्वन्धनुः कस्य रणे न कुर्यान्मनो
भयैकप्रवणं स भीष्मः ।। ३.१९ ।।
अर्थ: जिन महापराक्रमी(भीष्म) के
सम्बन्ध में अपने ऐश्वर्य की विफलता के कारण दुःखी होकर मृत्यु का देवता यमराज भी
मानो पराजित सा हो गया है, वही भीष्म रणभूमि
में अपने धनुष को कँपाते हुए किस वीर के मन को नितान्त भयभीत नहीं बना देंगे ।
टिप्पणी: भीष्म स्वेच्छामृत्यु थे,
यमराज का भी उन्हें भय नहीं था । तब फिर उनके धनुष को देखकर कौन ऐसा
वीर था जो भयभीत न होता ?
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार
सृजन्तं आजाविषुसंहतीर्वः सहेत
कोपज्वलितं गुरुं कः ।
परिस्फुरल्लोलशिखाग्रजिह्वं
जगज्जिघत्सन्तं इवान्तवह्निं ।। ३.२० ।।
अर्थ: अपने विकट बाणों के समूहों को
बरसाते हुए, क्रोध से जाज्वल्यमान, जीभ की भांति भयङ्कर लपटें छोड़ते हुए मानो समूचे संसार को खा जाने के लिए
उद्यत प्रलय काल की अग्नि की तरह रणभूमि में स्थित द्रोणाचार्य को, आप की ओर कौन ऐसा वीर है जो सहन कर सकेगा ?
टिप्पणी: अर्थात आप के पक्ष में ऐसा
कोई वीर नहीं है, जो रणभूमि में
क्रुद्ध द्रोणाचार्य का सामना कर सके।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्यं
राधेयं आराधितजामदग्न्यं ।
असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु जायेत मृत्योरपि
पक्षपातः ।। ३.२१ ।।
अर्थ: अपने क्रोध से दूसरों के
धैर्य को दूर करने वाले परशुराम के शिष्य राधसुत कर्ण को देखकर मृत्यु को भी
अपरिचित भय से हठात् परिचय हो जाता है ।
टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मृत्यु
भी कर्ण से डरती है तो दूसरों की बात ही क्या ?
अतिशयोक्ति अलङ्कार
यया समासादितसाधनेन सुदुश्चरां
आचरता तपस्यां ।
एते दुरापं समवाप्य वीर्यं
उन्मीलितारः कपिकेतनेन ।। ३.२२ ।।
महत्त्वयोगाय महामहिम्नां आराधनीं
तां नृप देवतानां ।
दातुं प्रदानोचित भूरिधाम्नीं
उपागतः सिद्धिं इवास्मि विद्यां ।। ३.२३ ।।
अर्थ: जिस विद्या के द्वारा अत्यन्त
कठोर तपस्या करके पाशुपत-अस्त्र रुपी साधन प्राप्त करने वाले अर्जुन दूसरों के लिए
दुर्लभ तेज प्राप्त कर इन सब (भीष्म आदि) का विनाश करेंगे । हे उचित दान के पात्र
राजन ! उसी महनीय महिमा से समन्वित, देवताओं
के लिए भी आराध्य तथा परम शक्तिशालिनी विद्या को सिद्धि की भांति उत्कर्ष प्राप्ति
के निमित्त मैं(अर्जुन को) देने के लिए यहाँ आया हूँ ।
टिप्पणी: इस विद्या से शिव की
प्रसन्नता से प्राप्त पाशुपत अस्त्र के द्वारा अर्जुन उन भीष्म आदि का संहार
करेंगे । पूर्व श्लोक में वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग तथा दुसरे में उपमा अलङ्कार
इत्युक्तवन्तं व्रज साधयेति
प्रमाणयन्वाक्यं अजातशत्रोः ।
प्रसेदिवांसं तं उपाससाद
वसन्निवान्ते विनयेन जिष्णुः ।। ३.२४ ।।
अर्थ: इस प्रकार के बातें करते हुए
सुप्रसन्न वेदव्यास जी के समीप अर्जुन राजा युधिष्ठिर के इस वाक्य - "जाओ और
(इस सिद्धि की) साधना करो।" को स्वीकार करते हुए छात्र की भांति सविनय
उपस्थित हो गए ।
टिप्पणी: उपमा अलङ्कार
निर्याय विद्या+थ
दिनादिरम्याद्बिम्बादिवार्कस्य मुखान्महर्षेः ।
पार्थाननं वह्निकणावदाता दीप्तिः
स्फुरत्पद्मं इवाभिपेदे ।। ३.२५ ।।
अर्थ: तदनन्तर चिंगारी की भांति
उज्जवल वह विद्या, प्रातः काल के
मनोहर सूर्य मण्डल के समान महर्षि वेदव्यास के मुख से निकलकर (सूर्य की) किरणों से
विक्सित होनेवाले कमल के समान अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हो गयी ।
टिप्पणी: प्रातः काल में
सूर्य-मण्डल से निकली हुई किरणें जैसे कमल में प्रवेश करती हैं वैसा ही वेदव्यास
के मुख से निकली हुई वह विद्या अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हुई ।
उपमा अलङ्कार
योगं च तं योग्यतमाय तस्मै
तपःप्रभावाद्विततार सद्यः ।
येनास्य तत्त्वेषु कृतेऽवभासे
समुन्मिमीलेव चिराय चक्षुः ।। ३.२६ ।।
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास ने परम योग्य
अर्जुन को वह योग विद्या अपने तपबल के प्रभाव से शीघ्र ही प्रदान कर दी,
जिसके द्वारा प्रकृति महदादि चौबीस पदार्थों का साक्षात्कार हो जाने
का कारण अर्जुन के नेत्र चिरकाल के लिए माना खुले हुए से हो गए ।
टिप्पणी: अंधे को द्रष्टिलाभ के
समान अर्जुन को कोई नूतन ज्ञान प्राप्त हो गया, जिससे
उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों आँखें खुल गयी हों ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।
आकारं आशंसितभूरिलाभं दधानं
अन्तःकरणानुरूपं ।
नियोजयिष्यन्विजयोदये तं तपःसमाधौ
मुनिरित्युवाच ।। ३.२७ ।।
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास महाभाग्य के
सूचक एवं अन्तः करण के अनुरूप आकार(आकृति) धारण करनेवाले अर्जुन को विजय लाभ
दिलानेवाली तपस्या के नियमों में नियुक्त करने की इच्छा से इस प्रकार बोले ।
टिप्पणी: पदार्थहेतुक काव्यलिंग
अलङ्कार ।
अनेन योगेन विवृद्धतेजा निजां
परस्मै पदवीं अयच्छन् ।
समाचराचारं उपात्तशस्त्रो जपोपवासाभिषवैर्मुनीनां
।। ३.२८ ।।
अर्थ: इस योगविद्या से तुम्हारा तेज
बहुत बढ़ जायेगा और इस प्रकार अपनी साधना के पथ को दूसरों से छिपा कर,
सदा शस्त्रास्त्र धारण कर, स्वाध्याय, उपवास, स्नानादि मुनियों के सदाचरणों का पालन करना।
टिप्पणी: अर्थात मुनियों की तरह तपस्या
में रत रहना किन्तु हथियार तब भी धारण किये रहना, इससे तुम्हारी तेजस्विता बहुत बढ़ जायेगी ।
करिष्यसे यत्र सुदुश्चराणि
प्रसत्तये गोत्रभिदस्तपांसि ।
शिलोच्चयं चारुशिलोच्चयं तं एष
क्षणान्नेष्यति गुह्यकस्त्वां ।। ३.२९ ।।
अर्थ: जिस पर्वत पर इन्द्र की
प्रसन्नता के लिए तुमको घोर तपस्या करनी है उस पर रमणीय शिखरों से युक्त पर्वत पर
तुमको यह यक्ष क्षणभर में पहुंचा देगा ।
इति ब्रुवाणेन महेन्द्रसूनुं
महर्षिणा तेन तिरोबभूवे ।
तं राजराजानुचरोऽस्य
साक्षात्प्रदेशं आदेशं इवाधितस्थौ ।। ३.३० ।।
अर्थ: इस प्रकार की बातें इन्द्रपुत्र
अर्जुन से कहकर वे महर्षि वेदव्यास (वहीं) अन्तर्हित हो गए । तदनन्तर कुबेर का
सेवक वह यक्ष मानो मुनिवर के प्रत्यक्ष आदेश की भांति,
उस अर्जुन के निवास-स्थल पर पहुँच गया ।
कृतानतिर्व्याहृतसान्त्ववादे
जातस्पृहः पुण्यजनः स जिष्णौ ।
इयाय सख्याविव सम्प्रसादं
विश्वासयत्याशु सतां हि योगः ।। ३.३१ ।।
अर्थ: उस यक्ष ने(आते ही) प्रणाम
किया,
तथा प्रिय वचन बोलनेवाले अर्जुन में अनुराग प्रकट करते हुए मित्र की
भांति विश्वास प्राप्त किया ।
(क्यों न ऐसा होता) क्योंकि
सज्जनों की सङ्गति शीघ्र ही विश्वास पैदा करती है ।
टिप्पणी: तात्पर्य है कि यक्ष के
आने के साथ ही अर्जुन को प्रणाम किया तथा उनसे अपनी मैत्री मान ली ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
अथोष्णभासेव
सुमेरुकुञ्जान्विहीयमानानुदयाय तेन ।
बृहद्द्युतीन्दुःखकृतात्मलाभं तमः
शनैः पाण्डुसुतान्प्रपेदे ।। ३.३२ ।।
अर्थ: (यक्ष के आने तथा प्रणामादि
के) अनन्तर भगवान् भास्कर द्वारा उदय के लिए छोड़े गए परम प्रकाशमान सुमेरु के
कुञ्जों कि भांति अर्जुन द्वारा अपने अभ्युदय के लिए छोड़े गए परम तेजस्वी
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आदि को, दुःख के साथ
अपना प्रसार प्राप्त करनेवाले अन्धकार ने धीरे धीरे व्याप्त कर लिया ।
टिप्पणी: जिस प्रकार सूर्य उदय के
लिए जब सुमेरु के कुञ्जोंको छोड़ देता है तो उन्हें अन्धकार घेर लेता है उसी प्रकार
अपने अभ्युदय के लिए जब अर्जुन ने पाण्डवों को छोड़ दिया तो उन्हें शोकान्धकार ने
घेर लिया ।
श्लेषानुप्राणित उपमा अलङ्कार
असंशयालोचितकार्यनुन्नः प्रेम्णा
समानीय विभज्यमानः ।
तुल्याद्विभागादिव
तन्मनोभिर्दुःखातिभारोऽपि लघुः स मेने ।। ३.३३ ।।
अर्थ: बिना सन्देह के सम्यक विचार
किये गए भविष्य के कार्यक्रमों के कारण दूर किये गए तथा पारस्परिक स्नेह से विभक्त
दुःख का वह अत्यन्त भारी बोझा भी युधिष्ठिर आदि चारों भाइयों के चित्तों से मानो
बराबर-बराबर बंटकर हल्का मान लिया गया ।
टिप्पणी: अर्थात चारों भाइयों ने
पारस्परिक स्नेह से अर्जुन के वियोगजनित शोक के भार को काम करके भविष्य के
कार्यक्रमों पर विचार किया ।
हेतूत्प्रेक्षा अलङ्कार
धैर्येण विश्वास्यतया
महर्षेस्तीव्रादरातिप्रभवाच्च मन्योः ।
वीर्यं च विद्वत्सु सुते मघोनः स
तेषु न स्थानं अवाप शोकः ।। ३.३४ ।।
अर्थ: अपने स्वाभाविक धैर्य से,
इस कार्य के प्रवर्त्तक महर्षि वेदव्यास कि बातों में अडिग विश्वास
करने के कारण तथा दुर्योधन आदि शत्रुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले तीव्र क्रोध के
कारण इन्द्रपुत्र अर्जुन के पराक्रम को जाननेवाले उन युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को वह
शोक आक्रान्त नहीं कर सका ।
टिप्पणी: अर्थात युधिष्ठिर आदि चरों
पंडाओं को अर्जुन के वियोग का दुःख इन उपर्युक्त कारणों से अधिक नहीं सता सका ।
हेतु अलङ्कार
तान्भूरिधाम्नश्चतुरोऽपि दूरं विहाय
यामानिव वासरस्य ।
एकौघभूतं तदशर्म कृष्णां विभावरीं
ध्वान्तं इव प्रपेदे ।। ३.३५ ।।
अर्थ: उस अर्जुन वियोगजनित शोक ने
उन चारों परम तेजस्वी युधिष्ठिर प्रभृति पाण्डवों को,
परम प्रकाशमान दिन के चारों प्रहरों के तरह दूर से छोड़ कर, एकराशि होकर कृष्णपक्ष की रात्रि के अन्धकार की तरह द्रौपदी को घेर लिया ।
टिप्पणी: जिस प्रकार से अन्धकार दिन
के चारों प्रहरों को छोड़कर कृष्णपक्ष की रात्रि को ही घेरता है उसी प्रकार से
अर्जुन के वियोग का वह शोक चारों पाण्डवों को छोड़कर द्रौपदी पर छा गया ।
उपमा अलङ्कार
तुषारलेखाकुलितोत्पलाभे पर्यश्रुणी
मङ्गलभङ्गभीरुः ।
अगूढभावापि विलोकने सा न लोचने
मीलयितुं विषेहे ।। ३.३६ ।।
अर्थ: द्रौपदी यद्यपि अर्जुन को
देखने के लिए स्पष्ट रूप में इच्छुक थी तथापि अमङ्गल के भय से वह हिमकण से युक्त
कमल के समान, आंसुओं से भरे हुए अपने नेत्रों
को मूंदने में समर्थ न हो सकी ।
टिप्पणी: अर्जुन के वियोग की गहरी
व्यथा से द्रौपदी की आँखों में आंसू भरे हुए थे, जिससे वह ठीक तरह से अर्जुन को देख नहीं पाती थी । और चाहती थी ह्रदय भर
कर देखना, किन्तु ऐसा तब तक नहीं हो सकता था जब तक नेत्र
आंसुओं से स्वच्छ न हो । यदि वह आंसू गिराती तो अमङ्गल होता, क्योंकि यात्रा के समय स्त्री के आंसू अपशकुन के सूचक होते हैं, अतः वह जैसी की तैसी रही । उस समय उसके नेत्र हिमकण से युक्त कमल पात्र के
समान सुशोभित हो रहे थे ।
उपमा और काव्यलिङ्ग अलङ्कार
अकृत्रिमप्रेमरसाभिरामं रामार्पितं
दृष्टिविलोभि दृष्टं ।
मनःप्रसादाञ्जलिना निकामं जग्राह
पाथेयं इवेन्द्रसूनुः ।। ३.३७ ।।
अर्थ: इन्द्रपुत्र ने सहज प्रेमरस
से मनोहर,
पत्नी द्वारा समर्पित, दृष्टी को लुभानेवाले
उसके अवलोकन को अपने प्रसन्न मनरूपी अञ्जलि से यथेष्ट रूप से ग्रहण किया ।
टिप्पणी: जिस प्रकार से कोई पथिक
सहज प्रेम से अपनी प्रियतमा द्वारा दिए गए मधुर पाथेय को अञ्जलि में ग्रहण करता है,
उसी प्रकार से सहज स्नेह से मनोहर नेत्रानन्ददायी द्रौपदी के दर्शन
को अर्जुन ने अञ्जलि के समान अपने प्रसन्न मन से ग्रहण किया ।
उपमा अलङ्कार
धैर्यावसादेन हृतप्रसादा
वन्यद्विपेनेव निदाघसिन्धुः ।
निरुद्धबाष्पोदयसन्नकण्ठं उवाच
कृच्छ्रादिति राजपुत्री ।। ३.३८ ।।
अर्थ: जङ्गली हाथी द्वारा गंदली की
गयी ग्रीष्म की नदी की भांति, धैर्य के
छूटने से उदास राजपुत्री, वाष्प के रुक जाने से गदगद कण्ठ
द्वारा बड़ी कठिनाई से यह बोली ।
मग्नां द्विषच्छद्मनि पङ्कभूते
सम्भवानां भूतिं इवोद्धरिष्यन् ।
आधिद्विषां आ तपसां
प्रसिद्धेरस्मद्विना मा भृशं उन्मनीभूः ।। ३.३९ ।।
अर्थ: कीचड के समान शत्रुओं के
कपट-व्यवहार में डूबी हम सब की सम्पत्ति के योग्यतम उद्धारकर्ता तुम ही हो,
अतः मन की व्यथा को दूर करनेवाली साधना की सफलता-पर्यन्त तुम हम
लोगों के बिना अत्यन्त व्यथित मत होना ।
टिप्पणी: शत्रु के कपट से नष्ट हम
सब की योग्यता को तुम ही पहले जैसी बना सकते हो । अतः जब तक तपस्या का फल न मिल
जाय तब तक तुम्हें अत्यन्त उदास या व्यथित नहीं होना चाहिए ।
उपमा अलङ्कार
यशोऽधिगन्तुं सुखलिप्सया वा
मनुष्यसंख्यां अतिवर्तितुं वा ।
निरुत्सुकानां अभियोग्गभाजां
समुत्सुकेवाङ्कं उपैति सिद्धिः ।। ३.४० ।।
अर्थ: उज्जवल कीर्ति पाने के लिए,
सुख प्राप्ति के लिए अथवा साधारण मनुष्यों से ऊपर उठकर कोई असाधारण
काम करने के लिए उद्यत होनेवाले एवं कभी अनुत्साहित न होनेवाले लोगों को अनुरक्ता
स्त्री की भांति सफलता स्वयमेव प्राप्त होती है ।
टिप्पणी: जिस प्रकार प्रेमी में
अनुरक्त रमणी उसके अंक में स्वयमेव आ बैठती है उसी प्रकार सफलता भी उस मनुष्य के
समीप स्वयमेव आती है जो उपर्युक्त प्रकार से कठिन से कठिन कार्य करने के लिए सदैव
उद्यत रहते हैं ।
उपमा अलङ्कार
*नीचे के चारों श्लोकों में
द्रौपदी शत्रुओं द्वारा किये गए अपमान का स्मरण दिलाते हुए तपस्या की आवश्यकता
दिखाकर अर्जुन के क्रोध को भड़काती है । इन चारों श्लोकों का कर्ता और क्रियापद एक
ही में है ।
लोकं विधात्रा विहितस्य गोप्तुं
क्षत्त्रस्य मुष्णन्वसु जैत्रं ओजः ।
तेजस्विताया
विजयैकवृत्तेर्निघ्नन्प्रियं प्राणं इवाभिमानं ।। ३.४१ ।।
व्रीडानतैराप्तजनोपनीतः संशय्य
कृच्छ्रेण नृपैः प्रपन्नः ।
वितानभूतं विततं पृथिव्यां यशः
समूहन्निव दिग्विकीर्णं ।। ३.४२ ।।
वीर्यावदानेषु
कृतावमर्षस्तन्वन्नभूतां इव सम्प्रतीतिं ।
कुर्वन्प्रयामक्षयं आयतीनां
अर्कत्विषां अह्न इवावशेषः ।। ३.४३ ।।
प्रसह्य योऽस्मासु परैः प्रयुक्तः
स्मर्तुं न शक्यः किं उताधिकर्तुं ।
नवीकरिष्यत्युपशुष्यदार्द्रः स
त्वद्विना मे हृदयं निकारः ।। ३.४४ ।।
अर्थ: ब्रह्मा द्वारा लोक-रक्षा के
निमित्त बनाये गए क्षत्रियों के विजयशील तेजरूपी धन का अपहरण करता हुआ,
एकमात्र विजय-प्राप्ति ही जिनकी वृत्ति है, ऐसे
तेजस्वियों के प्रिय प्राणों की भांति अभिमान को खण्डित करता हुआ, परिचित लोगों द्वारा कहे जाने पर सन्देहयुक्त किन्तु लज्जा से नीचे मुख
किये हुए राजाओं द्वारा बड़ी कठिनाई से कहे जाने पर किसी प्रकार विश्वास योग्य
पृथ्वी पर सभी दिशाओं में फैले हुए हमारे यश को मानो संकुचित सा करता हुआ, पहले के पराक्रमपूर्ण कार्यों को करने के कारण प्राप्त प्रसिद्धि को मानो
झूठा-सा सिद्ध करता हुआ, दिन के चौथे पहर द्वारा सूर्य की
कान्ति के समान भविष्य की प्रतिष्ठा को नष्ट करता हुआ, शत्रुओं
द्वारा हम पर हठपूर्वक किया गया, जो स्मरण करने योग्य भी
नहीं हो, उसके अनुभव की बात क्या कही जाय, वही मेरा केशाकर्षण रूप अपमान तुम्हारे न रहने पर ताजा(गीला) होकर,
तुम्हारी विरह-गाथा में सूखते हुए मेरे ह्रदय को फिर गीला कर देगा ।
टिप्पणी: चारों श्लोकों में दिए गए
सभी विशेषण 'विकार' शब्द
के लिए ही हैं । द्रौपदी अर्जुन के क्रोध को उद्दीप्त करने के लिए ही इस प्रकार की
बातें कह रही है । प्रथम श्लोक का तात्पर्य यह है कि तेजस्वी पुरुष की मानहानि ही
उनकी मृत्यु के समान है । इसमें उपमा अलङ्कार है । द्वितीय श्लोक का तात्पर्य है
कि शत्रुओं से पराजित लोग कभी यश के भागी नहीं होते । इसमें काव्यलिङ्ग और उत्प्रेक्षा
अलङ्कार है। तृतीय श्लोक का तात्पर्य यह है कि शत्रुओं द्वारा अपमानित व्यक्ति को
चिरकाल तक कहीं प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होती । इसमें उत्प्रेक्षा और उपमा की
ससृष्टि है । चतुर्थ श्लोक का तात्पर्य है कि मेरा वह अपमान अब तुम्हारे यहाँ न
रहने पर मुझे और भी सताएगा । इसमें समासोक्ति अलङ्कार है ।
प्राप्तोऽभिमानव्यसनादसह्यं दन्तीव
दन्तव्यसनाद्विकारं ।
द्विषत्प्रतापान्तरितोरुतेजाः
शरद्घनाकीर्ण इवादिरह्नः ।। ३.४५ ।।
अर्थ: अभिमान अर्थात अपनी
मान-मर्यादा के नष्ट हो जाने से (इस समय) आप दांतों के टूट जाने से कुरूप हाथी कि
भांति असह्य कुरूपता को प्राप्त हो गए हैं । शत्रुओं के प्रताप से आप का तेज मलिन
हो गया है अतः आप शरद ऋतु के मेघों से छिपे हुए प्रभात कि भांति दिखाई पड़ रहे हैं
।
टिप्पणी: अर्थात शत्रुओं के प्रताप
से आप का तेज बिलकुल नष्ट हो गया है । दन्तविहीन हाथी के समान मानमर्यादाविहीन आप
का जीवन कृरूप हो गया है । उपमा अलङ्कार
सव्रीडमन्दैरिव
निष्क्रियत्वान्नात्यर्थं अस्त्रैरवभासमानः ।
यशःक्षयक्षीणजलार्णवाभस्त्वं अन्यं
आकारं इवाभिपन्नः ।। ३.४६ ।।
अर्थ: उपयोग में न आने के कारण मानो
सञ्चित एवं कुटिल अस्त्रों से (इस समय आप) अत्यन्त शोभायमान नहीं हो रहे हैं,
प्रत्युत यश के नष्ट होने से जलहीन समुद्र के समान आप मानो किसी
भिन्न ही आकृति को प्राप्त हो गए हैं ।
टिप्पणी: उपमा एवं उत्प्रेक्षा
अलङ्कार
दुःशासनामर्षरजोविकीर्णैरेभिर्विनार्थैरिव
भाग्यनाथैः ।
केशैः कदर्थीकृतवीर्यसारः कच्चित्स
एवासि धनंजयस्त्वं ।। ३.४७ ।।
अर्थ: दुःशासन के आकर्षण रूप धूलि
से धूसरित, मानो असहायों के समान भाग्य के
भरोसे रहने वाले इन मेरे केशों से, जिनके बल और पराक्रम का
तिरस्कार हो चुका है, तुम क्या वही अर्जुन हो ?
टिप्पणी: अर्थात यदि तुम वही अर्जुन
हो तो मुझे भरोसा है कि तुम अब हमारी वैसी उपेक्षा न करोगे और इन्हें फिर पूर्ववत
ससम्माननीय कर दोगे ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
स क्षत्त्रियस्त्राणसहः सतां
यस्तत्कार्मुकं कर्मसु यस्य शक्तिः ।
वहन्द्वयीं यद्यफलेऽर्थजाते
करोत्यसंस्कारहतां इवोक्तिं ।। ३.४८ ।।
अर्थ: जो सत्पुरुषों कि रक्षा करने
में समर्थ है, वही क्षत्रिय है । जिसमें कर्म
करने अर्थात रणक्षेत्र में शक्ति दिखने कि क्षमता है उसी को कार्मुक अर्थात धनुष
कहते हैं । ऐसी स्थिति में इन दोनों शब्दों को (मण्डप और कुशल शब्दों के समान
अवयवार्थ शून्य) केवल जातिमात्र में प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य इन्हें मानो
अव्युत्पत्ति दूषित अर्थात व्याकरण विरुद्ध वाणी के समान (प्रयोग) करता है ।
टिप्पणी: व्याकरण प्रक्रिया कि रीति
से प्रकृत्यर्थ और प्रत्ययार्थ मिलकर क्षत्रिय और कार्मुक शब्द से ऐसी ही अर्थ कि
प्रतीति कराते हैं । यदि कोई क्षत्रिय सत्पुरुषों कि रक्षा करने में असमर्थ है तथा
धनुष रणभूमि में पराक्रम दिखाने वाला नहीं है तो वे केवल जातिबोधक शब्द हैं जैसे 'मण्डप' और 'कुशल' शब्द हैं । तुम यदि यथार्थ में क्षत्रिय शब्द के अधिकारी हो और तुम्हारा
धनुष शक्तिशाली है तो मेरे अपमान का बदला चुकाकर अपना कलङ्क दूर करो ।
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
वीतौजसः सन्निधिमात्रशेषा भवत्कृतां
भूतिं अपेक्षमाणाः ।
समानदुःखा इव नस्त्वदीयाः सरूपतां
पार्थ गुणा भजन्ते ।। ३.४९ ।।
अर्थ: हे अर्जुन ! कान्तिविहीन,
अस्तित्वमात्र शेष, आपके द्वारा संभव अभ्युदय
की अपेक्षा रखने वाले आपके शौर्यादि गुण मानो समान दुःखभोगी के समान हमारी
समानधर्मिता प्राप्त कर रहे हैं ।
टिप्पणी: जैसे हम लोग कान्तिविहीन
हैं,
प्राणमात्र धारण किये हैं और आपके अभ्युदयाकांक्षी हैं, वैसे ही आपके शौर्यादि गुण भी इस समय हो गए हैं ।
उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित उपमा
अलङ्कार
आक्षिप्यमाणं रिपुभिः
प्रमादान्नागैरिवालूनसटं मृगेन्द्रं ।
त्वां धूरियं योग्यतयाधिरूढा
दीप्त्या दिनश्रीरिव तिग्मरश्मिं ।। ३.५० ।।
अर्थ: हाथियों द्वारा जिसके गर्दन
के बाल नोच लिए गए हैं - ऐसे सिंह की भांति, अपनी
असावधानी के कारण शत्रुओं द्वारा अपमानित आपके ऊपर, योग्य
समझकर यह कार्यभार उसी प्रकार से आरूढ़ हो रहा है ।
करोति योऽशेषजनातिरिक्तां सम्भावनां
अर्थवतीं क्रियाभिः ।
संसत्सु जाते पुरुषाधिकारे न पूरणी
तं समुपैति संख्या ।। ३.५१ ।।
अर्थ: जो मनुष्य सर्व-साधारण से ऊपर
उठकर अधिक योग्यता वाले कार्य को अपने प्रयत्नों से सफल करता है,
उसी को सभा में सर्वश्रेष्ठ अथवा सर्वश्रेष्ठ पुरुष माना जाता है ।
प्रियेषु यैः पार्थ
विनोपपत्तेर्विचिन्त्यमानैः क्लमं एति चेतः ।
तव प्रयातस्य जयाय तेषां
क्रियादघानां मघवा विघातं ।। ३.५२ ।।
अर्थ: हे अर्जुन ! प्रियजनों के विषय
में जो दुःख बिना किसी कारन के ही, चिन्तन
किये जाने मात्र से तुम्हारे चित्त को खिन्न कर देने वाले हैं, विजयार्थ प्रस्थित तुम्हारे उन (सब) दुखों को देवराज इन्द्र नष्ट करें ।
टिप्पणी: द्रौपदी के कथन का
तात्पर्य यह है कि हम लोगों के कल्याण के सम्बन्ध में आपके चित्त में जो आशंकाएं
हों वह इन्द्र कि कृपा से दूर हो जाएँ, अर्थात
आप वहां पहुंचकर हम सब कि चिन्ता न करें, अन्यथा आपकी
विजयअभिलषा में बाधा पहुंचेगी ।
मा गाश्चिरायैकचरः प्रमादं
वसन्नसम्बाधशिवेऽपि देशे ।
मात्सर्यरागोपहतात्मनां हि स्खलन्ति
साधुष्वपि मानसानि ।। ३.५३ ।।
अर्थ: (उस) निर्जन और विघ्नबाधा से
रहित स्थान में भी चिरकाल तक अकेले निवास करते हुए तुम कोई असावधानी मत करना,
क्योंकि रागद्वेष से दूषित स्वभाव वाले व्यक्तियों के चित्त
महापुरुषों के सम्बन्ध में भी विकृत हो जाते हैं ।
टिप्पणी: रागद्वेष से दूषित लोग
महापुरुषों के सम्बन्ध में भी जब विकृत धारणाएं बना लेते हैं तो उस निर्जन देश में
यद्यपि कोई विघ्नबाधा नहीं आएगी तथापि असहाय होने के कारण कोई असावधानी मत करना,
क्योंकि अकेले में चित्त विक्षुब्ध होना स्वाभाविक है ।
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार
तदाशु कुर्वन्वचनं महर्षेर्मनोरथान्नः
सफलीकुरुष्व ।
प्रत्यागतं त्वास्मि कृतार्थं एव
स्तनोपपीडं परिरब्धुकामा ।। ३.५४ ।।
अर्थ: इसलिए शीघ्र ही महर्षि
वेदव्यास जी के आदेश का पालन करते हुए तुम हम लोगों के मनोरथ को सफल बनाओ । कार्य
पूरा करके वापस लौट कर आने पर ही तुम्हें गाढ़ा आलिङ्गन करने की मैं अभिलाषी हूँ ।
टिप्पणी: कार्यसिद्धि के पूर्व इस
समय तुम्हें मेरा आलिङ्गन करना भी उचित नहीं है ।
अर्थापत्ति अलङ्कार
उदीरितां तां इति याज्ञसेन्या
नवीकृतोद्ग्राहितविप्रकारां ।
आसाद्य वाचं स भृशं दिदीपे काष्ठां
उदीचीं इव तिग्मरश्मिः ।। ३.५५ ।।
अर्थ: राजा यज्ञसेन की कन्या
द्रौपदी की इस प्रकार कही गयी उन बातों को सुनकर, जिसने शत्रुओं के अपकार को फिर से नूतन रूप देकर ह्रदय में जमा दिया,
अर्जुन उत्तर दिशा में प्राप्त सूर्य की तरह अत्यन्त जल उठे ।
टिप्पणी: उत्तर दिशा (उत्तरायण) में
पहुँच कर सूर्य जिस प्रकार से अत्यन्त दीप्त हो जाते हैं,
उसी प्रकार से द्रौपदी की बातें सुनकर अर्जुन अत्यन्त क्रोध से जल
उठे ।
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग और उपमा
अलङ्कार
अथाभिपश्यन्निव विद्विषः पुरः
पुरोधसारोपितहेतिसंहतिः ।
बभार रम्योऽपि वपुः स भीषणं गतः
क्रियां मन्त्र इवाभिचारिकीं ।। ३.५६ ।।
अर्थ: तदनन्तर शत्रुओं को सामने
उपस्थित की तरह देखते हुए, पुरोहित (धौम्य)
द्वारा मंत्रोच्चारण सहित उपस्थापित शस्त्रों से युक्त अर्जुन ने रम्याकृति होते
हुए भी दूसरों के मारण अनुष्ठान में प्रयुक्त मन्त्र के समान, अति भयङ्कर स्वरुप धारण कर लिया ।
अविलङ्घ्यविकर्षणं परैः
प्रथितज्यारवकर्म कार्मुकं ।
अगतावरिदृष्टिगोचरं
शितनिस्त्रिंशयुजौ महेषुधी ।। ३.५७ ।।
यशसेव तिरोदधन्मुहुर्महसा
गोत्रभिदायुधक्षतीः ।
कवचं च सरत्नं
उद्वहञ्ज्वलितज्योतिरिवान्तरं दिवः ।। ३.५८ ।।
अकलाधिपभृत्यदर्शितं शिवं
उर्वीधरवर्त्म सम्प्रयान् ।
हृदयानि समाविवेश स क्षणं
उद्बाष्पदृशां तपोभृतां ।। ३.५९ ।।
अर्थ: शत्रुओं द्वारा जिसका खींचा
जाना कभी व्यर्थ नहीं होता, जिसकी प्रत्यंचा को
खींचने का कार्य प्रसिद्ध है । (ऐसे गाण्डीव धनुष तथा) जो शत्रु की दृष्टी में
नहीं आते थे तथा तेज़ तलवार से युक्त थे (ऐसे दो तरकस धारण किये हुए) देवराज इन्द्र
के वज्र-प्रहार के चिन्हों को मानो अपने तेज से मूर्तिमान यश की भांति बारम्बार
आच्छादित करनेवाले तथा रक्तयुक्त होने के कारण मानो उज्जवल नक्षत्रों से युक्त
आकाश के मध्य भाग की भांति सुशोभित कवच को धारण किये हुए, अर्जुन
ने अल्कापति कुबेर के सेवक उस यक्ष द्वारा दिखाए गए निर्बाध हिमवान पर्वत के मार्ग
पर जाते हुए क्षणभर के लिए, वियोग से दुखित होने के कारण
अश्रु से भरे नेत्रों वाले उन (द्वैतवन निवासी) तपस्वियों के चित्त में प्रवेश कर
लिया ।(अर्थात उनको अपने वियोग से खिन्न कर दिया)
टिप्पणी: अपने उत्कृष्ट गाण्डीव
धनुष,
तेज़ तलवार से युक्त दो तरकस तथा रत्नजड़ित देदीप्यमान कवच को धारण कर
अर्जुन हिमालय की ओर यक्ष के साथ चल पड़े। उस समय उन्हें इस प्रकार जाते देखकर
द्वैतवानवासी तपस्वियों का मन खिन्न हो गया।
द्वितीय श्लोक में उपमा और
उत्प्रेक्षा अलङ्कार
तृतीय श्लोक में पदार्थहेतुक
काव्यलिङ्ग अलङ्कार
अनुजगुरथ दिव्यं दुन्दुभिध्वानं
आशाः सुरकुसुमनिपातैर्व्य्ॐनि लक्ष्मीर्वितेने ।
प्रियं इव कथयिष्यन्नालिलिङ्ग
स्फुरन्तीं भुवं अनिभृतवेलावीचिबाहुः पयोधिः ।। ३.६० ।।
अर्थ: तदनन्तर (तपस्या के लिए
अर्जुन के चले जाने के पश्चात) दिशाएं आकाश में दिव्या दुदुम्भियों की आवाज़ करने
लगीं,
पारिजात आदि देव-कुसुमों की वृष्टि से आकाश-मण्डल में विचित्र शोभा
हो गयी और तट पर पहुंचनेवाली चञ्चल- तरङ्गरुपी भुजाओं से समुद्र भी मानो
हर्षातिरेक से भरी पृथ्वी को प्रिय सन्देश सुनाते हुए की भांति आलिङ्गन करने लगा ।
टिप्पणी: अर्थात सर्वत्र शुभ-शकुन
होने लगे । दिशा, आकाश, समुद्र और पृथ्वी - सब आनन्द से भर गए । समुद्र पृथ्वी को वह शुभ सन्देश
सुनाने लगा कि अब शीघ्र ही तुम्हारा असह्य भार उतरने वाला है क्योंकि अन्यायियों के
विनाशार्थ ही अर्जुन तपस्या करने जा रहे हैं । उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति
।। इति भारविकृतौ महाकाव्ये
किरातार्जुनीये तृतीयः सर्गः ।।
किरातार्जुनीयम् तृतीयः सर्गः (सर्ग
३) समाप्त ।।
आगे जारी-पढ़ें................... किरातार्जुनीयम् सर्ग ४ ।।
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