हरतालिका (तीज) व्रत कथा

हरतालिका (तीज) व्रत कथा

हरतालिका तीज का यह व्रत भाद्रपद (भादों)मास के शुक्लपक्ष में तृतीया को किया जाता है। तृतीया तिथि को यह व्रत होने के कारण इसे तीजा के नाम से जाना जाता है। कुँवारी कन्या इसे इच्छित उत्तम सुयोग्य वर पाने और विवाहित स्त्रियाँ सुहाग की रक्षा,दीर्घायु और पति की सुख के लिए करती है। इस व्रत में भगवान शिव माँ पार्वती की बालू से या मिट्टी से मूर्ति (पार्थिव लिंग)बना कर विधिवत् पूजन कर शिव- पार्वती के स्तोत्रों या शिव चालीसा आदि का पाठ कर हरतालिका (तीज) व्रत कथा का श्रवण करें।
हरतालिका (तीज) व्रत कथा Hartalika Teej Vrat

हरतालिका (तीज) व्रत कथा 

Hartalika Teej Vrat

हरतालिका (तीज) व्रत कथा पूजन विधि

हरतालिका (तीज) व्रत धारण करने वाली स्त्रियां भादो महीने(भाद्रपद) की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन ब्रह्म  मुहूर्त में जागें, नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, उसके पश्चात तिल तथा आंवला के चूर्ण के साथ स्नान करें। फिर पवित्र स्थान में आटे से चौक पूर कर केले का मण्डप बनाकर शिव पार्वती की पार्थिव-प्रतिमा (बालू(रेत) या मिट्‌टी की मूर्ति) बनाकर स्थापित करें। तत्पश्चात नवीन वस्त्र धारण करके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर देशकालादि के उच्चारण के साथ हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि मैं आज तीज के दिन शिव पार्वती का पूजन करूंगी इसके अनन्तर ''श्री गणेशाय नमः'' उच्चारण करते हुए गणेश जी का पूजन करें। ''कलशाभ्यो नमः'' से वरुणादि देवों का आवाहन करके कलश पूजन करें। चन्दनादि समर्पण करें, कलशमुद्रा दिखावें घन्टा बजावें, गन्ध अक्षतादि द्वारा घंटा को नमस्कार करें, दीपक को नमस्कार कर पुष्पाक्षतादि से पूजन करें, हाथ में जल लेकर पूजन सामग्री तथा अपने ऊपर जल छिड़कें। इन्द्र आदि अष्ट लोकपालों का आवाहन एवं पूजन करें, इसके बाद अर्ध्य, पाद्य, गंगा-जल से आचमन करायें। शंकर-पार्वती को गंगाजल, दूध, मधु, दधि और घृत से स्नान कराकर फिर शुद्ध जल से स्नान करावें। इसके उपरान्त हरेक वस्तु अर्पण के लिए 'ओउम नमः शिवाय' कहती जाय और पूजन करें। अक्षत, पुष्प, धूप तथा दीपक दिखावें। फिर नैवेद्य चढाकर आचमन करावें, अनन्तर हाथों के लिए उबटन अर्पण करें। इस प्रकार के पंचोपचार पूजन से श्री शिव हरितालिका की प्रसन्नता के लिए ही कथन करें। फिर उत्तर की ओर निर्माल्य का विसर्जन करके श्री शिव हरितालिका की जयजयकार महा-अभिषेक करें। इसके बाद सुन्दर वस्त्र समर्पण करें, यज्ञोपवीत धारण करावें। चन्दन अर्पित करें, अक्षत चढावें। सप्तधान्य समर्पण करें। हल्दी चढ़ावें, कुंकुम मांगलिक सिन्दूर आदि अर्पण करें। ताड पत्र (भोजपत्र) कंठ माला आदि समर्पण करें। सुगन्धित पुष्प अर्पण करें, धूप देवें, दीप दिखावें, नैवेद्य चढावें। फिर मध्य में जल से हाथ धुलाने के लिए जल छोडें और चन्दन लगावें। नारियल तथा ऋतु फल अर्पण करें। ताम्बूल (सुपारी) चढावें। दक्षिणा द्रव्य चढावें। भूषणादि चढावें। फिर दीपारती उतारें। कपूर की आरती करें। पुष्पांजलि चढावें। इसके बाद परिक्रमा करें। और 'ओउम नमः शिवाय' इस मंत्र से नमस्कार करें। फिर तीन अर्ध्य देवें। इसके बाद संकल्प द्वारा ब्राह्‌मण आचार्य का वायन वस्त्रादि द्वारा पूजन करें। पूजा के पश्चात अन्न, वस्त्र, फल दक्षिणा युक्तपात्र हरितालिका देवता के प्रसन्नार्थ ब्राह्मण को दान करें उसमें 'न मम' कहना आवश्यक है, इससे देवता प्रसन्न होते हैं। दान लेने वाला संकल्प लेकर वस्तुओं के ग्रहण करने की स्वीकृति देवे, इसके बाद विसर्जन करें। विसर्जन में अक्षत एवं जल छिडकें।
हरतालिका पूजा का आरम्भ

हरतालिका पूजा का आरम्भ नित्य क्रिया से निवृत्त होकर आचमन कर देश, काल, ऋतु, मास, पक्ष तिथि आदि का उच्चारण करते हुए संकल्प करे

ॐ अद्येत्यादिदेशकालौ स्मृत्वा- सर्वपापक्षयपूर्वक सप्तजन्मराज्याति-सौभाग्याऽवैधव्य पुत्रपौत्रादि-वृद्धि-सकल- भोगान्तरशिवलोक-महिमत्वकामनया सोपवास- हरितालिकाव्रतनिमित्तं यथाशक्ति- जागरणपूर्वक उमामहेश्वर-पूजनमहं करिष्ये।

निम्न क्रमानुसार पूजन करें-

ध्यानम्

मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय॥

आवाहनम्

आगच्छ देवि सर्वेशे सर्वदेवाश्च संस्तुते।

अतस्त्वां पूजयिष्यामि प्रसन्ना भव पार्वति॥

आसनम्

शिवे शिवप्रिये देवि मङ्गले च जगन्मये।

शिवे कल्याणदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते॥

पाद्यम्

शिवरूपे नमस्तेऽस्तु शिवाय सततं नमः।

शिवप्रीतियुता नित्यं पाद्यं मे प्रतिगृह्यताम्॥

अर्घ्यम्

संसारतापविच्छेदं कुरु मे सिहवाहिनि।

सर्वकामप्रदे देवि अर्घ्यं मे प्रतिगृह्यताम्॥

आचमनम्

राज्यसौभाग्यदे देवि प्रसन्ना भव पार्वती।

मन्त्रेणानेन देवि त्वं पूजिताऽसि महेश्वरि॥

लोकानां तुष्टिकर्त्री च मुक्तिदा च सदा नृणाम्।

वाञ्छितं देहि मे नित्यं दुरितं च विनाशय॥

पञ्जचामृतस्नान

पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं पयो दधिघृतं मधु।

शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥

शुद्धजलस्नानम्

मन्दाकिनी गोमती च कावेरी च सरस्वती।

कृष्णा च तुङ्गभद्रा च सर्वाः स्नानार्थमागताः॥

वस्त्रम्

वस्त्रयुग्मं गृहाणेदं देवि देवस्य वल्लभे ।

सर्वसिद्धिप्रदे देवि मङ्गलं कुरु मे सदा॥

चन्दनम्

चन्दनेन सुगन्धेन कर्पूरागुरुकुङ्कुमैः।

लेपयेत् सर्वगात्राणि प्रीयतां च हरप्रिये॥

अक्षतान्

रंजिते कुंकुमेनैव अक्षतैश्च सुशोभनैः।

पूजयेद्विधिना देवि सुप्रसन्ना च पार्वतीम्॥

पुष्पम्

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।

मया दत्तानि पूजायाः पुष्पाणि प्रतिगृह्यताम्॥

धूपम्

चन्दनागरुकस्तूरी कुंकुमाढ्या मनोहराः।

भक्त्या दत्ता मया देवि धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥

दीपम्

त्वं ज्योतिः सर्वदेवानां तेजसां तेज उत्तमम्।

आत्मज्योतिः परं धाम दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम्॥

नैवेद्यम्

नैवेद्यं गृह्यतां देवि भक्तिं मे निश्चलां कुरु।

ईप्सितं च वरं देहि परत्र च परां गतिम्॥

फलम्

इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव।

येन मे सफलं कर्म भवेज्जन्मनि जन्मनि॥

ताम्बूलम्

पूगीफलं महद् दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।

कर्पूरेण समायुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्॥

दक्षिणा

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः।

अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे।

प्रार्थना

सौभाग्यं चाप्यवैधव्यं पुत्र-पौत्रादिकं सुखम्।

बहुपुण्यफलं सर्वमतः शान्तिं च देहि मे॥

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदीश्वरी।

पूजिताऽसि महादेवि सम्पूर्णं च वदस्व मे॥

हरतालिका तीज व्रत संस्कृत श्लोक सहित कथा

 (पूजन करने के बाद हरतालिका तीज व्रत कथा सुनें)

सूत उवाच

मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥

सूतजी कहते हैं- मन्दार की माला से जिन (पार्वती जी) का केशपाश अलंकृत और मुण्डों की माला से जिन (शिव जी) की जटा अलंकृत है, जो (पार्वतीजी) दिव्य वस्त्र धारण की हैं और जो (शिवजी) दिगम्बर (नग्न) हैं, ऐसी श्रीपार्वतीजी तथा शिवजी को प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥

कैलासशिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शङ्करम् ।

गुह्याद् गुह्यतरं गुह्यं कथयस्व महेश्वर ॥ २ ॥

रमणीक कैलास पर्वत के शिखर पर बैठी हुई श्री पार्वती जी कहती हैं- हे महेश्वर! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइये ॥ २ ॥

सर्वेषां सर्वधर्माणामल्पायासं महत्फलम् ।

प्रसन्नोऽसि मया नाथ तथ्यं ब्रूहि ममाग्रतः ॥ ३ ॥

जो सब धर्मों से सरल हो, जिसमें परिश्रम भी कम करना पड़े, लेकिन फल अधिक मिले। हे नाथ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो यह विधान बताइये ॥ ३॥

केन त्वं हि मया प्राप्तस्तपोदानव्रतादिना ।

अनादिमध्य-निधनो भर्ता चैव जगत्प्रभुः॥४॥

हे प्रभो! किस तप, व्रत या दान से आदि, मध्य और अन्त रहित आप जैसे महाप्रभु हमको प्राप्त हुए हैं ॥ ४ ॥

ईश्वर उवाच-

शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तवाग्रे व्रतमुत्तमम्।

यद्गोप्यं मम सर्वस्वं कथयामि तव प्रिये ॥ ५ ॥

शिवजी बोले हे देवि! सुनो, मैं तुमको एक व्रत जो मेरा सर्वस्व और छिपाने योग्य है, लेकिन तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥५॥

यथा चोडुगणे चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च।

वर्णानां च यथा विप्रो देवानां विष्णुरेव च ॥ ६ ॥

जैसे-नक्षत्रों से चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान् ॥ ६ ॥

नदीनां च यथा गंगा पुराणानां च भारतम्।

वेदानां च यथा साम इन्द्रियाणां मनो यथा॥ ७ ॥

नदियों में गंगा, पुराणों महाभारत, वेदों में सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है ॥७॥

पुराणानां वेदसर्वस्वं आगमेन यथोदितम्।

एकाग्रेण शृणुष्वैतद्यथा दृष्टं पुरा व्रतम् ॥ ८ ॥

सब पुराण और वेदों का सर्वस्व जिस तरह कहा गया है, मैं तुम्हें एक प्राचीन व्रत बतलाता हूँ, एकाग्र मन से सुनो ॥८॥

येन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं मम ।

तत्सर्वं कथयिष्येऽहं त्वं मम प्रेयसी यतः॥ ९ ॥

जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊँगा, क्योंकि तुम मेरी प्रेयसी हो ॥ ९ ॥

भाद्रे मासि सिते पक्षे तृतीया हस्तसंयुते।

तदनुष्ठानमात्रेण सर्वपापात् प्रमुच्यते ॥ १० ॥

भाद्रपद मास में हस्त नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उसका अनुष्ठान मात्र करने से स्त्रियाँ सब पापों से मुक्त हो जाती हैं ॥ १० ॥

शृणु देवि त्वया पूर्वं यद् व्रतं चरितं मम ।

तत्सर्वं कथयिष्यामि यथा वृत्तं हिमालये ॥ ११ ॥

हे देवि! तुमने आज से बहुत दिनों पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था, यह वृत्तान्त मैं तुमसे कहूँगा ॥ ११ ॥

पार्वत्युवाच

कथं कृतं मया नाथ व्रतानामुत्तमं व्रतम् ।

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्सकाशान्महेश्वर ॥ १२ ॥

पार्वतीजी ने पूछा हे नाथ! मैंने क्यों यह व्रत किया था, यह सब आपके मुख से सुनना चाहती हूँ ॥ १२ ॥

शिव उवाच

अस्ति तत्र महान्दिव्यो हिमवान्वै नगेश्वरः।

नानाभूमिसमाकीर्णो नाना- द्रुमसमाकुलः ॥ १३ ॥

शिवजी ने कहा- भारतवर्ष के उत्तर की ओर एक बड़ा रमणीक और पर्वतों में श्रेष्ठ हिमवान् नामक पर्वत है। उसके आस-पास तरह-तरह की भूमियाँ हैं, तरह-तरह के वृक्ष उस पर लगे हुए हैं ॥ १३ ॥

नानापक्षिसमायुक्तो नानामृगविचित्रतः।

यत्र देवाः सगन्धर्वाः सिद्धचारणगुह्यकाः ॥ १४ ॥

विचरन्ति सदा हृष्टागन्धर्वा गीततत्पराः।

स्फटिकैः काञ्चनं शृङ्गं मणिवैदूर्यभूषितम् ॥ १५ ॥

नाना प्रकार के पक्षी और अनेक प्रकार के पशु उस पर निवास करते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्वों के साथ बहुत से देवता, सिद्ध, चारण, पक्षीगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्व गाते हैं, अप्सरायें नाचती हैं। उस पर्वतराज के कितने ही शिखर ऐसे हैं कि जिनमें स्फटिक, रत्न और वैदूर्यमणि आदि की खानें भरी हैं॥ १४-१५ ॥

भुजैर्लिखन्निवाकाशं सुहृदो मन्दिरं यथा।

हिमेन पूरितं सर्वं गंगाध्वनिविनोदितः ॥ १६ ॥

यह पर्वत ऊँचा तो इतना अधिक है कि मित्र के घर की तरह समझ कर आकाश का स्पर्श किये रहता है। उसके समस्त शिखर सदैव हिम (बर्फ) से आच्छादित रहते हैं और गङ्गा-जल की ध्वनि सदा सुनाई देती रहती है॥१६॥

पार्वति त्वं यथा बाल्ये परमाचरती तपः।

अब्दद्वादशकं देवि धूम्रपानमधोमुखी ॥ १७ ॥

हे पार्वती! तुमने बाल्यकाल में उसी पर्वत पर तपस्या की थी। बारह वर्ष तक तुम उलटी टँगकर केवल धुआँ पीकर रहीं ॥ १७ ॥

संवत्सरचतुःषष्टि पक्वपर्णाशनं कृतम्।

माघमासे जले मग्ना वैशाखे चाग्निसेविनी ॥ १८ ॥

चौंसठ वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर रहीं। माघ मास में तुम जल मैं बैठी रहतीं और वैशाख की दुपहरिया में पंचाग्नि तापती थीं ॥ १८ ॥

श्रावणे च बहिर्वासा अन्नपानविवर्जिता।

दृष्ट्वा तातेन तत्कष्टं चिन्तया दुःखितोऽभवत् ॥ १९ ॥

श्रावण के महीने में जल बरसता तो तुम भूखी-प्यासी रहकर मैदान में बैठी रहती थीं। तुम्हारे पिता इस तरह के कष्ट सहन को देख कर बड़े दुःखी हुए ॥ १९ ॥

कस्मै देया मया कन्या एवं चिन्तातुरोऽभवत् ।

तदैवावसरे प्राप्तो ब्रह्मपुत्रस्तु धर्मवित् ॥ २० ॥

वे चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी कन्या किसको दूँ, उसी समय देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुँचे ॥ २० ॥

नारदो मुनिशार्दूलः शैलपुत्री दिदृक्षया।

दत्वाऽर्घ्यविष्टरं पाद्यं नारदं प्रोक्तवान् गिरिः॥ २१॥

मुनिश्रेष्ठ नारद जी उस समय तुम्हें देखने गये थे, नारदजी को देखकर गिरि ने अर्घ्य-पाद्य, आसन आदि देकर उनकी पूजा की और कहा ॥ २१ ॥

हिमवानुवाच

किमर्थमागतः स्वामिन्! वदस्व मुनिसत्तम।

महाभागेन संप्राप्तः त्वदागमनमुत्तमम् ॥ २२ ॥

हिमवान ने कहा हे स्वामिन्! आप किस लिए आये हैं। मेरा अहो भाग्य है, आपका आगमन मेरे लिए अच्छा है ॥ २२ ॥

नारद उवाच

शृणु शैलेन्द्र मद्वाक्यं विष्णुना प्रेषितोऽस्म्यहम् ।

योग्यं योग्याय दातव्यं कन्यारत्नमिदं त्वया ॥ २३ ॥

नारदजी ने कहा- हे पर्वतराज ! सुनो, मैं भगवान विष्णु का भेजा हुआ आपके पास आया हूँ। आपको चाहिए कि यह कन्यारत्न किसी योग्य वर को दें ॥ २३ ॥

वासुदेवसमो नास्ति ब्रह्मशक्रशिवादिषु।

तस्माद् देया त्वया कन्या अत्रार्थे सम्मतं मम ॥ २४ ॥

भगवान श्री हरि के समान योग्य वर ब्रह्मा जी, इन्द्र और शिव इनमें से कोई नहीं है। इसलिये मैं यही कहूँगा कि आप अपनी कन्या भगवान विष्णु को ही दें ॥ २४ ॥

हिमवानुवाच

वासुदेवः स्वयं देव कन्यां प्रार्थयते यदि ।

तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौर- वात् ॥ २५ ॥

हिमवान् ने कहा- भगवान् विष्णु स्वयं मेरी कन्या ले रहे हैं और आप यह सन्देश लेकर आये हैं, तो मैं उन्हें अपनी कन्या दूँगा ॥ २५ ॥

इत्येवं कथितं श्रुत्वा नभस्यन्तर्दधे मुनिः।

ययौ पीताम्बरधरं शंखचक्रगदा-धरम् ॥ २६ ॥

हिमवान् की इतनी बात सुनकर मुनिराज नारद आकाश में विलीन हो गये। वे पीताम्बर, शङ्ख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु के पास पहुँचे ॥ २६ ॥

नारद उवाच-

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा मुनीन्द्रस्तमभाषत।

शृणु देव भवत्कार्यं विवाहो निश्चितस्तव ॥२७॥

वहाँ हाथ जोड़कर नारदजी ने भगवान् विष्णु से कहा- हे देव! सुनिये, मैंने अपना विवाह पक्का करा दिया ॥ २७॥

हिमवांस्तु ततो गौरीमुवाच वचनं मुदा ।

दत्तासि त्वं मया पुत्रि! देवाय गरुडध्वजे ॥ २८॥

उधर हिमवान् ने पार्वती के पास जाकर कहा कि हे पुत्री! मैंने तुम्हें भगवान विष्णु को दे दिया ॥ २८ ॥

श्रुत्वा वाक्यं पितुर्देवी गता च सखिमन्दिरम्।

भूमौ पतित्वा त्वं तत्र विललापातिदुःखिता॥ २९॥

तब पिता की बात सुनकर तुम बिना उत्तर दिये ही अपनी सखी के घर चली गयीं। वहीं जमीन पर पड़कर तुम बड़ी दुःखी होती हुई विलाप करने लगीं ॥ २९ ॥

सख्युवाच-

विलपन्तीं तदा दृष्ट्वा सखी-वचनमब्रवीत्।

किमर्थं दुःखिता देवि कथयस्व ममाग्रतः ॥ ३० ॥

तुमको इस तरह विलाप करते देख एक सखी ने पास आकर कहा- देवि, तुम क्यों इतनी दुःखी है, इसका कारण बताओ ॥ ३० ॥

यद्भवत्याभिलषितं करिष्येऽहं न संशयः।

पार्वत्युवाच-

सखि शृणु मम प्रीत्या मनोऽभिलषितं मम ॥ ३१ ॥

महादेवं च भर्तारं करिष्येऽहं न संशयः।

एतन्मे चिन्तितं कार्यं तातेन कृतमन्यथा ॥ ३२ ॥

तुम्हारी जो कुछ इच्छा होगी मैं यथाशक्ति उसको पूरा करने की चेष्टा करूँगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पार्वती बोलीं- मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो। मैं एकमात्र शिवजी को अपना पति बनाना चाहती हूँ, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मेरे इस विचार को पिताजी ने ठुकरा दिया है ॥ ३१-३२ ॥

तस्माद् देहपरित्यागं करिष्येऽहं न संशयः।

पार्वत्या वचनं श्रुत्वा सखीवचनमब्रवीत् ॥ ३३ ॥

इससे मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी। पार्वती की इस बात को सुन कर सखियों ने कहा ॥ ३३ ॥

सख्युवाच

पिता यत्र न जानाति गमिष्यामि हि तद्वनम् ।

इत्येवं सम्मतं कृत्वा नीतासि त्वं महद्वनम् ॥ ३४ ॥

शरीर का त्याग न करो, चलो किसी ऐसे वन को चलें जहाँ पिता को पता न लगे। ऐसी सलाह कर तुम वैसे वन में जा पहुँचीं ॥ ३४ ॥

पिता निरीक्षयामास हिमवांस्तु गृहे गृहे।

केन नीताऽस्ति मे पुत्री देवदानवकिन्नराः ॥ ३५ ॥

उधर तुम्हारे पिता घर-घर तुम्हें खोजने लगे। दूतों द्वारा भी समाचार लेने लगे कि कौन देवता या किन्नर मेरी पुत्री को हर ले गया है ॥ ३५ ॥

नारदाग्रे कृते सत्यं दास्ये च गरुडध्वजे ।

इत्येवं चिन्तयाविष्टो मूर्च्छितोऽपि गतापहः ॥ ३६ ॥

उन्होंने मन-ही-मन कहा- मैं नारद जी के आगे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि अपनी पुत्री भगवान् विष्णु को दूँगा। ऐसा सोचते-सोचते हिमवान मूर्च्छित हो गये ॥ ३६ ॥

हाहा कृत्वा प्रधावन्तो लोकास्ते गिरिपुङ्गवम्।

ऊचुर्गिरिवरं सर्वे मूर्च्छाहितुं गिरे! वद ॥ ३७ ॥

गिरिराज को मूर्च्छित देखकर सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े। जब होश हुआ तो सब पूछने लगे कि गिरिराज! आप अपनी मूर्च्छा का कारण बताइये ॥ ३७ ॥

दुःखस्य हेतुं शृणुत कन्यारत्नं हृतं मम।

दंष्ट्रा वा कालसर्पेण सिंहव्याघ्रेण वा हता ॥ ३८ ॥

हिमवान् ने कहा- आप लोग मेरे दुःख का कारण सुनें, न मालूम कौन मेरी कन्या को हर ले गया है। ऐसा नहीं हुआ तो उसे किसी काले साँप ने काट लिया या सिंह खा गये होंगे ॥ ३८ ॥

न जाने क्व गता पुत्री केन दुष्टेन वा हृता ।

चकम्पे शोकसन्तप्तो वातेनेव महातरुः ॥ ३९ ॥

हाय! हाय! मेरी बेटी कहाँ गयी? किसी दुष्ट ने मेरी पुत्री को मार डाला। ऐसा कह वे वायु के झोंके से काँपते हुए वृक्ष के समान काँपने लगे ॥ ३९॥

गिरिर्वनाद्वनं तातस्त्वदालोकनकारणात्।

सिंहव्याघ्रैश्च भल्लैश्च रोहिभिश्च महावनम् ॥ ४० ॥

इसके बाद हिमवान् तुम्हें वन-वन खोजने लगे। वह वन भी सिंह, भालू, हिंसक जन्तुओं से बड़ा भयानक हो रहा था ॥ ४० ॥

त्वं चापि विपिने घोरे व्रजन्ती सखिभिः सह।

तत्र दृष्ट्वा नदी रम्यां तत्तीरे च महागुहाम् ॥ ४१ ॥

तुम भी अपनी सखियों के साथ उस भयानक वन में चलतीं-चलतीं एक ऐसे स्थान जा पहुँची जहाँ एक नदी बह रही थी, उसके रमणीय तट पर एक बड़ी-सी कन्दरा थी ॥ ४१ ॥

तां प्रविश्य सखी सार्द्धमन्नभोगविवर्जिता ।

संस्थाप्य बालुकालिङ्गं पार्वत्या सहितं मम ॥ ४२॥

तुमने उसी कन्दरा में आश्रम बना लिया और मेरी एक बालुकामयी प्रतिमा बनाकर अपनी सखियों के साथ निराहार रहकर मेरी आराधना करने लगीं ॥ ४२ ॥

भाद्रशुक्ल तृतीयायां त्वमर्चन्ति तु हस्तभे ।

तत्र वाद्येन गीतेन रात्रौ जागरणं कृतम् ॥ ४३ ॥

व्रतराजप्रभावेण आसनं चलितं मम ।

संप्राप्तोऽहं तदा तत्र यत्र त्वं सखिभिः सह ॥ ४४ ॥

जब भाद्रपद शुक्ल पक्ष की हस्तयुक्त तृतीया तिथि प्राप्त हुई तब तुमने मेरा विधिवत पूजन किया और रात भर जागकर गीत-वाद्यादि से मुझे प्रसन्न करने में बिताया। उस व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा। जिससे मैं तत्काल उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ पर तुम अपनी सखियों के साथ रहती थी ॥ ४३-४४ ॥

प्रसन्नोऽस्मि मया प्रोक्तं वरं ब्रूहि वरानने।

यदि देव प्रसन्नोऽसि भर्त्ता भव महेश्वर ॥ ४५ ॥

तथेत्युक्त्वा तु संप्राप्तः कैलासः पुनरेव च।

ततः प्रभाते प्रतिमां नद्यां कृत्वा विसर्जनम्॥ ४६ ॥

वहाँ पहुँचकर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, बोलो क्या चाहती हो? तुमने कहा मेरे देवता! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे पति बनें। मेरे तथास्तुकहकर कैलास पर्वत पर वापस आने पर तुमने वह प्रतिमा नदी में प्रवाहित कर दी ॥ ४५-४६ ॥

पारणं तु कृतं तत्र सख्या सह त्वया शुभे।

हिमवानपि तं देशमाजगाम घनं वनम् ॥ ४७ ॥

और सखियों के साथ उस महाव्रत का पारण किया। हिमवान् भी तब तक उस वन में तुम्हें खोजते हुए आ पहुँचे ॥ ४७ ॥

चतुराशां निरीक्षस्तु विकलः पतितो भुवि।

दृष्ट्वा तत्र नदीतीरे प्रसुप्तं कन्यकाद्वयम्॥४८॥

चारों दिशाओं में तुम्हारी खोज करते-करते वे व्याकुल हो चुके थे। इसलिए तुम्हारे आश्रम के समीप पहुँचते ही गिर पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने नदी के तट पर दो कन्यायें देखीं ॥ ४८ ॥

उत्थाप्योत्संगमारोप्य रोदनं कृतवान् गिरिः

सिंहव्याघ्रादिभिर्युक्तं किमर्थं वनमागता॥ ४९ ॥

देखते ही उन्होंने तुम्हें छाती से लगा लिया और विलख कर रोने लगे। फिर पूछा- पुत्री! तुम सिंह, व्याघ्र आदि जन्तुओं से भरे इस वन में क्यों आ पहुँची? ॥ ४९ ॥

पार्वत्युवाच

शृणु तात मया पूर्वं दत्ता स्वात्मा तु शंकरे।

तदन्यथा कृतं तात तेनाहं वनमागता ॥ ५० ॥

पार्वती ने उत्तर दिया- हे पिताजी, मैंने पहले ही अपने-आपको शिवजी के हाथों सौंप दिया था, आपने मेरी बात टाल दी इससे मैं यहाँ चली आयी ॥ ५० ॥

तथोत्युक्त्वा तु हिमवान् नीतासि त्वं गृहं प्रति।

यथाप्रयुक्तमस्माकं कृत्वां वैवाहिकीं क्रियाम् ॥ ५१ ॥

तेन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं प्रिये।

तदादि व्रतराजस्तु कस्याग्रे न न्यवेदयन् ॥५२॥

हिमवान् ने सान्त्वना दिया कि हे पुत्री! मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करूँगा। तुम्हें अपने साथ ले घर आये और मेरे साथ तुम्हारा विवाह कर दिया। इसीसे तुमने मेरा अर्धासन पाया है। तब से आज तक किसी के सामने मुझे यह व्रत प्रकट करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।। ५१-५२॥

व्रतराजस्य नामेदं शृणु देवि यथा भवेत् ।

आलिभिर्हरिता यस्मात्तस्मात्सा हरितालिका ॥ ५३ ॥

हे देवि! मैं यह बताता हूँ कि इस व्रत का हरतालिका नाम क्यों पड़ा? तुमको सखियाँ हर ले गयी थीं, इसीसे हरितालिका नाम पड़ा ॥ ५३ ॥

पार्वत्युवाच

नामेदं कथितं नाथ विधिं वद मम प्रभो।

किं पुण्यं किं फलं चास्य केन वा क्रियते व्रतम् ॥ ५४॥

पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो! आपने नाम तो बताया, अब हरतालिका व्रत की विधि भी बतायें। इसका क्या पुण्य है, क्या फल है, यह व्रत कौन करे? ॥ ५४ ॥

ईश्वर उवाच

शृणु देवि विधिं वक्ष्ये नराणां व्रतमुत्तमम्।

कर्तव्यं तु प्रयत्नेन यदि सौभाग्यमिच्छति ॥ ५५ ॥

श्री शिव जी पार्वतीजी से कहते हैं- हे देवि! मैं स्त्री जाति की भलाई के लिए यह उत्तम व्रत बतला चुका हूँ। जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती हो वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे ॥ ५५ ॥

तोरणादि प्रकर्त्तव्यं कदलीस्तम्भमण्डितम्।

आच्छाद्य पटवस्त्रेण नानावर्णविचित्रितम्॥ ५६ ॥

पहले केले के खम्भे आदि से सुशोभित एक सुन्दर मण्डप बनावे। उसमें रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों से तोरण लगाकर ॥ ५६ ॥

चन्दनादि सुगन्धेन लेपयेद् गृहमण्डपम्।

शंखभेरीमृदङ्गांश्च वादयेत् बहुभिर्जनैः ॥ ५७ ॥

नानामङ्गलसञ्चारैः कर्तव्यं मम सद्मनि।

स्थापयेत्प्रतिमां तत्र पार्वत्या सहिता मम ॥ ५८ ॥

चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से वह मण्डप लिपवावे, फिर शंख, भेरी, मृदंग आदि बजाते हुए बहुत से लोग एकत्रित होकर तरह-तरह के मङ्गलाचार कहते हुए उस मण्डप में पार्वतीजी तथा शिवजी की प्रतिमा स्थापित करें ॥ ५७-५८ ॥

पूजयेद् बहुभिः पुष्पैर्गन्धैर्धूपैर्मनोहरैः।

नानाप्रकारैर्नैवैद्यैरुपोष्य जागरणं निशि ॥ ५९ ॥

उस रोज दिन भर उपवास कर बहुत से सुगन्धित फूल, गन्ध और मनोहर धूप, नाना प्रकार के नैवेद्य आदि एकत्र कर मेरी पूजा करें और रात भर जागरण करें॥५९॥

नारिकेलैः पुङ्गफलैर्जम्बीरैः सलवङ्गकैः ।

बीजपूरैस्तु नारंगैः फलैरन्यैर्विशेषतः ॥ ६० ॥

ऊपर जो वस्तुएँ गिनाई गई हैं उनके अतिरिक्त नारियल, सुपारी, जमीरी नीबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि जो-जो फल प्राप्त हो सकें उन्हें इकट्ठा कर लें ॥ ६० ॥

ऋतुदेशोद्भवैश्चैव फलैश्च कुसुमैरपि।

धूपदीपादिभिश्चैव मन्त्रेणानेन पूजयेत् ॥ ६१ ॥

उस ऋतु में जो फल तथा फूल मिल सके विशेष रूप से रखें। इसके बाद धूप, दीपादि से पूजन कर प्रार्थना करें ॥ ६१ ॥

शिवायै शिवरूपिण्यै मङ्गलायै महेश्वरी।

शिवे सर्वार्थदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते ॥ ६२ ॥

हे शिवे! शिवरूपिणि, हे मंगले! सब अर्थों को देने वाली हे देवि! हे शिवरूपे! आपको नमस्कार है ॥ ६२ ॥

शिवरूपे नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः।

नमस्ते ब्रह्मरूपिण्ये जगद्धात्र्यै नमो नमः ॥ ६३ ॥

हे शिवरूपे! आपको सदा के लिए नमस्कार है, हे ब्रह्मरूपिणि! आपको नमस्कार है, हे जगद्धात्री! आपको नमस्कार है ॥ ६३ ॥

संसार-भय-संत्रस्तस्त्राहि मां सिंहवाहिनि।

येन कामेन भो देवि पूजितासि महेश्वरी ॥ ६४ ॥

हे सिंहवाहिनी! संसार के भय से भयभीत मुझ दीन की रक्षा करो। इस कामना की पूर्ति के लिये मैंने आपकी पूजा की है ॥ ६४ ॥

राज्यसौभाग्यं मे देहि प्रसन्ना भव पार्वती ।

मन्त्रेणानेन भो देवि पूजयेदुमया सह ॥ ६५ ॥

हे पार्वती! मुझे राज्य और सौभाग्य दें, मुझ पर प्रसन्न हों। इन्हीं मन्त्रों से पार्वती जी तथा शिव जी की पूजा करें ॥ ६५ ॥

कथां श्रुत्वा विधानेन दद्याद्वस्त्रादिकं तथा ।

ब्राह्मणाय प्रदातव्यं वस्त्रधेनुहिरण्यकम्॥ ६६ ॥

तदनन्तर विधिपूर्वक हरतालिका तीज व्रत कथा सुनें और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण आदि दें ॥ ६६ ॥

कृत्वैवं चैकचित्तेन दम्पतीभ्यां सहैव तु ।

सङ्कल्पस्तु ततः कुर्याद्वस्त्ररत्नादिकं च यत् ॥ ६७ ॥

इस तरह एकचित्त होकर स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ पूजन करें। फिर वस्त्र आदि जो कुछ हो उसका संकल्प करें ॥ ६७ ॥

एवं या कुरुते देवि! सर्वपापैः प्रमुच्यते।

सप्तजन्म भवेद्राज्यं सौभाग्यसुखदायकम् ॥ ६८ ॥

हे देवि! जो स्त्री इस प्रकार पूजन करती है वह सब पापों से छूट जाती है और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य प्राप्त होता है ॥ ६८ ॥

तृतीयायां तु या नारी अन्नाहारं समाचरेत्।

सप्तजन्म भवेद्वन्ध्या वैधव्यं च पुनः पुनः ॥ ६९ ॥

जो स्त्री तृतीया तिथि का व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, तो वह सात जन्म तक बन्ध्या रहती है और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है ॥ ६९ ॥

दारिद्र्यं पुत्रशोकं च कर्कशा दुःखभागिनी ।

सा पतिता नरके घोरे नोपवासं करोति या ॥ ७० ॥

वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, स्वभाव की लड़ाकी, सदा दुःख भोगने वाली होती है और उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है ॥ ७० ॥

अन्नाहारात् सूकरी स्यात्फलभक्षेण मर्कटी।

जलौका जलपानेन क्षीरा हारेण सर्पिणी ॥ ७१ ॥

मांसाहाराद्भवेद् व्याघ्री मार्जारी दधिभक्षणात्।

मिष्ठान्नात् पिपीलिका जन्म मक्षिका सर्वभक्षणात् ॥७२॥

तीज को अन्न खाने से सूकरी, फल खाने से बंदरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से साँपिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी और सब खाने से मक्खी होती है ॥ ७१-७२ ॥

निद्रावशेनाजगरी कुक्कुटी पतिवञ्चनात्।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन व्रतं कुर्युः सदा स्त्रियः॥७३॥

उस रोज सोने से अजगरी और पति को धोखा देने से मुर्गी होती है, इसलिए हर स्त्रियाँ व्रत अवश्य करें ॥ ७३ ॥

काञ्चनं राजतं ताम्रं यथा वंशस्य भाजनम्।

दापयेदन्नं विप्राय पारणं तदनन्तरम्॥७४॥

दूसरे दिन सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा बाँस के पात्र में अन्न भरकर ब्राह्मण को दान दें और पारण करें ॥ ७४ ॥

एवं विधिं या कुरुते च नारी, मया निभं सा लभते च स्वामिनम्।

विनाशकाले तव तुल्यरूपं, सायुज्यभुक्तिं लभते च मुक्तिम्॥७५॥

जो स्त्री इस प्रकार व्रत करती है, वह मेरे समान पति पाती है और जब वह मरने लगती है, तो तुम्हारे समान उसका रूप हो जाता है। उसे सब प्रकार के सांसारिक भोग और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है ॥ ७५ ॥

अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।

कथाश्रवणमात्रेण तत्फलं प्राप्यते नरः ॥ ७६ ॥

इस हरतालिका तीज व्रत कथा मात्र सुन लेने से प्राणी को एक हजार अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है ॥ ७६ ॥

एतत्ते कथितं देवि! व्रतानां व्रतमुत्तमम्।

यत्कृत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नाऽत्र संशयः ॥ ७७ ॥

हे देवि, मैंने यह सब व्रतों में उत्तम व्रत बतलाया, जिसके करने से प्राणी सब पापों से छूट जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं ॥ ७७ ॥

॥ हरतालिका व्रत कथा समाप्त ॥

अथ हरतालिका व्रत कथासार हिंदी में

सूतजी बोले- श्री पार्वतीजी के घुंघराले केश मन्दार(कल्पवृक्ष) के फूलों से ढंके हुए हैं और जो सुन्दर एवं नये वस्त्रों को धारण करने वाली हैं, तथा कपालों की माला से जिसका मस्तक शोभायमान है और दिगम्बर रूपधारी शंकर भगवान हैं उनको नमस्कार है। कैलाश पर्वत की सुन्दर विशाल चोटी पर विराजमान भगवान शंकर से गौरी जी ने पूछा - हे प्रभो! आप मुझे गुप्त से गुप्त किसी व्रत की कथा सुनाइये। हे स्वामिन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसा व्रत बताने की कृपा करें जो सभी धर्मों का सार हो और जिसके करने में थोड़ा परिश्रम हो और फल भी विशेष प्राप्त हो जाय। यह भी बताने की कृपा करें कि मैं आपकी पत्नी किस व्रत के प्रभाव से हुई हूं। हे जगत के स्वामिन! आदि मध्य अन्त से रहित हैं आप। मेरे पति किस दान अथवा पुण्य के प्रभाव से हुए हैं?

शंकर जी बोले - हे देवि! सुनो मैं तुमसे वह उत्तम व्रत कहता हूं जो परम गोपनीय एवं मेरा सर्वस्व है। वह व्रत जैसे कि ताराओं में चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य , वर्णों में ब्राह्मण, सभी देवताओं में विष्णु, नदियों में जैसे गंगा, पुराणों में जैसे महाभारत, वेदों में सामवेद, इन्द्रियों में मन, जैसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं। वैसे पुराण वेदों का सर्वस्व ही इस व्रत को शास्त्रों ने कहा है, उसे एकाग्र मन से श्रवण करो। इसी व्रत के प्रभाव से ही तुमने मेरा अर्धासन प्राप्त किया है तुम मेरी परम प्रिया हो इसी कारण वह सारा व्रत मैं तुम्हें सुनाता हूं। भादों का महीना हो, शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि हो, हस्त नक्षत्र हो, उसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से मनुष्यों के सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं। हे देवि! सुनो, जिस महान व्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर धारण किया था वह सबका सब पूरा वृतान्त मुझसे श्रवण करो।

श्रीपार्वती जी बोलीं- भगवन! वह सर्वोत्तम व्रत मैंने किस प्रकार किया था यह सब हे परमेश्वर! मैं आपसे सुनना चाहती हूं।

शिवजी बोले-हिमालय नामक एक उत्तम महान पर्वत है। नाना प्रकार की भूमि तथा वृक्षों से वह शोभायमान है। अनेकों प्रकार के पक्षी वहां अपनी मधुर बोलियों से उसे शोभायमान कर रहे हैं एवं चित्र-विचित्र मृगादिक पशु वहां विचरते हैं। देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण एवं गुह्यक प्रसन्न होकर वहां घूमते रहते हैं। गन्धर्वजन गायन करने में मग्न रहते हैं। नाना प्रकार की वैडूर्य मणियों तथा सोने की ऊंची ऊंची चोटियों रूपी भुजाओं से यानी आकाश पर लिखता हुआ दिखाई देता है। उसका आकाश से स्पर्श इस प्रकार से है जैसे कोई अपने मित्र के मन्दिर को छू रहा हो। वह बर्फ से ढका रहता है, गंगा नदी की ध्वनि से वह सदा शब्दायमान रहता है। हे पार्वती! तुमने वहीं बाल्यावस्था में बारह वर्ष तक कठोर तप किया अधोमुख होकर केवल धूम्रपान किया। फिर चौसठ वर्ष पर्यन्त पके पके पत्ते खाये। माघ महीने में जल में खड़ी हो तप किया और वैशाख में अग्नि का सेवन किया। सावन में अन्न पान का त्याग कर दिया, एकदम बाहर मैदान में जाकर तप किया।

तुम्हारे पिताजी तुम्हें इस प्रकार के कष्टों में देखकर घोर चिन्ता से व्याकुल हो गये। उन्होंने विचार किया कि यह कन्या किसको दी जाय। उस समय ब्रह्मा जी के पुत्र परम धर्मात्मा श्रेष्ठ मुनि, श्री नारद जी तुम्हें देखने के लिए वहां आ गये। उन्हें अर्ध्य आसन देकर हिमालय ने उनसे कहा। हे श्रेष्ठ मुनि! आपका आना शुभ हो, बड़े भाग्य से ही आप जैसे ऋषियों का आगमन होता है, कहिये आपका शुभागमन किस कारण से हुआ।

श्री नारद मुनि बोले- हे पर्वतराज! सुनिये मुझे स्वयं विष्णु भगवान ने आपके पास भेजा है। आपकी यह कन्या रत्न है, किसी योग्य व्यक्ति को समर्पण करना उत्तम है। संसार में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर इत्यादिक देवताओं में वासुदेव श्रेष्ठ माने जाते हैं उन्हें ही अपनी कन्या देना उत्तम है, मेरी तो यही सम्मति है। हिमालय बोले - देवाधिदेव! वासुदेव यदि स्वयं ही जब कन्या के लिए प्रार्थना कर रहे हैं और आपके आगमन का भी यही प्रयोजन है तो अपनी कन्या उन्हें दूंगा। यह सुन कर नारद जी वहां से अन्तर्ध्यान होकर शंख, चक्र, गदा, पद्‌मधारी श्री विष्णु जी के पास पहुंचे।

नारद जी बोले- हे देव! आपका विवाह निश्चित हो गया है। इतना कहकर देवर्षि नारद तो चले आये और इधर हिमालय राज ने अपनी पुत्री गौरी से प्रसन्न होकर कहा- हे पुत्री! तुम्हें गरुणध्वज वासुदेव जी के प्रति देने का विचार कर लिया है। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर पार्वती अपनी सखी के घर गयीं और अत्यन्त दुःखित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं और विलाप करने लगीं। उन्हें इस प्रकार दुखित हो विलाप करते सखी ने देखा और पूछने लगी। हे देवि! तुम्हें क्या दुःख हुआ है मुझसे कहो। और तुम्हे जिस प्रकार से भी सुख हो मैं निश्चय ही वही उपाय करूंगी। पार्वती जी बोली- सखी! मुझे प्रसन्न करना चाहती हो तो मेरी अभिलाषा सुन। हे सखि! मैं कुछ और चाहती हूं और मेरे पिता कुछ और करना चाहते हैं। मैं तो अपना पति श्री महादेवजी को वर चुकी हूं, मेरे पिताजी इसके विपरीत करना चाहते हैं। इसलिए हे प्यारी सखी! मैं अब अपनी देह त्याग कर दूंगी।

तब पार्वती के ऐसे वचन सुन कर सखी ने कहा- पार्वती! तुम घबराओं नही हम दोनों यहां से निकलकर ऐसे वन में पहुंच जायेंगी जिसे तुम्हारे पिता जान ही नहीं सकेंगे। इस प्रकार आपस में राय करके श्री पार्वती जी को वह घोर वन में ले गई। तब पिता हिमालयराज ने अपनी पुत्री को घर में न देखकर इधर-उधर खोज किया, घर-घर ढूढ़ा किन्तु वह न मिली, तो विचार करने लगे। मेरी पुत्री को देव, दानव, किन्नरों में से कौन ले गया। मैंने नारद के आगे विष्णु जी के प्रति कन्या देने की प्रतिज्ञा की थी अब मैं क्या दूंगा। इस प्रकार की चिन्ता करते करते वे मूर्छित होकर गिर पडे। तब उनकी ऐसी अवस्था सुनकर हाहाकार करते हुए लोग हिमालयराज के पास पहुंचे और मूर्छा का कारण पूछने लगे। हिमालय बोले- किसी दुष्टात्मा ने मेरी कन्या का अपहरण कर लिया है अथवा किसी काल सर्प ने उसे काट लिया है या सिंह व्याघ्र ने उसे मार डाला है। पता नहीं मेरी कन्या कहां चली गयी, किस दुष्ट ने उसे हर लिया। ऐसा कहते-कहते शोक से संतप्त होकर हिमालय राज वायु से कम्पायमान महा-वृक्ष के समान कांपने लगे।

तुम्हारे पिता ने सिंह, व्याघ्र, भल्लूक आदि हिंसक पशुओं से भरे हुए एक वन से दूसरे वन में जा जा कर तुम्हें ढूढ़ने का बहुत प्रयत्न किया।

इधर अपनी सखियों के साथ एक घोर वन में तुम भी जा पहुंची, वहां एक सुन्दर नदी बह रही थी और उसके तट पर एक बडी गुफा थी, जिसे तुमने देखा। तब अपनी सखियों के साथ तुमने उस गुफा में प्रवेश किया। खाना, पीना त्याग करके वहां तुमने मेरी पार्वती युक्त बालुका लिंग स्थापित किया। उस दिन भादों मास की तृतीया थी साथ में हस्त नक्षत्र था। मेरी अर्चना तुमने बडे प्रेम से आरम्भ की, बाजों तथा गीतों के साथ रात को जागरण भी किया। इस प्रकार तुम्हारा परम श्रेष्ठ व्रत हुआ। उसी व्रत के प्रभाव से मेरा आसन हिल गया, तब तत्काल ही मैं प्रकट हो गया, जहां तुम सखियों के साथ थी। मैंने दर्शन देकर कहा कि - हे वरानने! वर मांगो। तब तुम बोली- हे देव महेश्वर! यदि आप प्रसन्न हों तो मेरे स्वामी बनिये। तब मैंने 'तथास्तु' कहा- फिर वहां से अन्तर्धान होकर कैलाश पहुंचा। इधर जब प्रातःकाल हुआ तब तुमने मेरी लिंग मूर्ति का नदी में विसर्जन किया। अपनी सखियों के साथ वन से प्राप्त कंद मूल फल आदि से तुमने पारण किया। हे सुन्दरी! उसी स्थान पर सखियों के साथ तुम सो गई।

हिमालय राज तुम्हारे पिता भी उस घोर वन में आ पहुंचे, अपना खाना पीना त्यागकर वन में चारों ओर तुम्हें ढूढ़ने लगे। नदी के किनारे दो कन्याओं को सोता हुआ उन्होंने देख लिया और पहचान लिया। फिर तो तुम्हें उठाकर गोदी में लेकर तुमसे कहने लगे- हे पुत्री! सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं से पूर्ण इस घोर वन में क्यों आई? तब श्री पार्वती जी बोली- पिता जी! सुनिये, आप मुझे विष्णु को देना चाहते थे, आप की यह बात मुझे अच्छी न लगी, इससे मैं वन में चली आयी। यदि आप मेरा विवाह शंकरजी के साथ करें तो मैं घर चलूंगी नहीं तो यहीं रहने का मैंने निश्चय कर लिया है।

तब तुम्हारे पिता ने कहा कि एवमस्तु मैं शंकर के साथ ही तुम्हारा विवाह करूंगा। उनके ऐसा कहने पर ही तब तुम घर में आई, तुम्हारे पिता जी ने तब विवाह विधि से तुमको मुझे समर्पित कर दिया। हे पार्वती! उसी व्रत का प्रभाव है जिससे तुम्हारे सौभाग्य की वृद्धि हो गई। अभी तक किसी के सम्मुख मैंने इस व्रतराज का वर्णन नहीं किया। हे देवि! इस व्रतराज का नाम भी अब श्रवण कीजिए। क्योंकि तुम अपनी सखियों के साथ ही इस व्रत के प्रभाव से हरी गई, इस कारण इस व्रत का नाम हरितालिका हुआ।

पार्वती जी बोली- हे प्रभो! आपने इसका नाम तो कहा, कृपा करके इसकी विधि भी कहिये। इसके करने से कौन सा फल मिलता है, कौन सा पुण्य लाभ होता है और किस प्रकार से कौन इस व्रत को करे।

ईश्वर बोले- हे देवि! सुनो यह व्रत सौभाग्यवर्धक है, जिसको सौभाग्य की इच्छा हो, वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे। सबसे प्रथम वेदी की रचना करे उसमें ४ केले के खंभ रोपित करे, चारो ओर बन्दनवार बांधे, ऊपर वस्त्र बांधे विविध रंगों के और भी वस्त्र लगावे। उस मंडप के नीचे की भूमि को अनेको चंदनादिक सुगन्धित जल द्वारा लीपे, शंख, मृदंग आदि बाजे बजवाये। वह मंडप मेरा मंदिर है इसलिए नाना प्रकार के मंगलगीत वहां होने चाहिए। शुद्ध रेती का मेरा लिंग श्रीपार्वती के साथ ही वहां स्थापित करे। बहुत से पुष्पों के द्वारा गन्ध, धूप आदि से मेरा पूजन करे फिर नाना प्रकार के मिष्ठान्नादि और नैवेद्य समर्पित करें और रात को जागरण करे। नारियल सुपारियां मुसम्मियां, नीबू, बकुल, बीजपुर नारंगियां एवं और भी ऋतु अनुसार बहुत से फल, उस ऋतु में होने वाले नाना प्रकार के कन्द मूल सुगन्धित धूप दीप आदि सब लेकर इन मंत्रों द्वारा पूजन करके चढ़ावें।

मंत्र इस प्रकार है- शिव, शांत, पंचमुखी, शूली, नंदी, भृंगी, महाकाल, गणों से युक्त शम्भु आपको नमस्कार है। शिवा, शिवप्रिया, प्रकृति सृष्टि हेतु, श्री पार्वती, सर्वमंगला रूपा, शिवरूपा, जगतरूपा आपको नमस्कार है। हे शिवे नित्य कल्याणकारिणी, जगदम्बे, शिवस्वरूपे आपको बारम्बार नमस्कार है। आप ब्रह्मचारिणी हो, जगत की धात्री सिंहवाहिनी हो, आप को नमस्कार है। संसार के भय संताप से मेरी रक्षा कीजिए। हे महेश्वरि पार्वती जी। जिस कामना के लिए आपकी पूजा की है, हमारी वह कामना पूर्ण कीजिए। राज्य, सौभाग्य एवं सम्पत्ति प्रदान करें।

शंकर जी बोले- हे देवि! इन मंत्रों तथा प्रार्थनाओं द्वारा मेरे साथ तुम्हारी पूजा करे और विधिपूर्वक कथा श्रवण करे, फिर बहुत सा अन्नदान करे। यथाशक्ति वस्त्र, स्वर्ण, गाय ब्राह्मणों को दे एवं अन्य ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा दे, स्त्रियों को भूषण आदि प्रदान करे। हे देवि! जो स्त्री अपने पति के साथ भक्तियुक्त चित्त से सर्वश्रेष्ठ व्रत को सुनती तथा करती है उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। सात जन्मों तक उसे राज्य की प्राप्ति होती है, सौभाग्य की वृद्धि होती है और जो नारी भादों के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन व्रत नहीं धारण करती आहार कर लेती है वह सात जन्मों तक बन्ध्या रहती है एवं जन्म-जन्म तक विधवा हो जाती है, दरिद्रता पाकर अनेक कष्ट उठाती है उसे पुत्रशोक छोड़ता ही नहीं। और जो उपवास नहीं करती वह घोर नरक में पडती है, अन्न के आहार करने से उसे शूकरी का जन्म मिलता है। फल खाने से बानरी होती है। जल पीने से जोंक होती है। दुग्ध के आहार से सर्पिणी होती है। मांसाहार से व्याघ्री होती है। दही खाने से बिल्ली होती है। मिठाई खा लेने पर चीटीं होती है। सभी वस्तुएं खा लेने पर मक्खी हो जाती है। सो जाने पर अजगरी का जन्म पाती है। पति के साथ ठगी करने पर मुर्गी होती है। शिवजी बोले- इसी कारण सभी स्त्रियों को प्रयत्न पूर्वक सदा यह व्रत करते रहना चाहिए, चांदी सोने, तांबे एवं बांस से बने अथवा मिट्‌टी के पात्र में अन्न रखे, फिर फल, वस्त्र दक्षिणा आदि यह सब श्रद्धापूर्वक विद्वान श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान करें। उनके अनन्तर पारण अर्थात भोजन करें। हे देवि! जो स्त्री इस प्रकार सदा व्रत किया करती है वह तुम्हारे समान ही अपने पति के साथ इस पृथ्वी पर अनेक भोगों को प्राप्त करके सानन्द विहार करती है और अन्त में शिव का सान्निध्य प्राप्त करती है। इसकी कथा श्रवण करने से हजार अश्वमेध एवं सौ वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। श्री शिव जी बोले - हे देवि! इस प्रकार मैंने आपको इस सर्वश्रेष्ठ व्रत का माहात्म्य सुनाया है, जिसके अनुष्ठान मात्र से करोडों यज्ञ का पुण्य फल प्राप्त होता है।

हरतालिका(तीज) व्रत कथा की सामग्री

केला,केले के खम्भे, दूध, सुहाग पिटारी, गंगा जल, दही, तरकी, चूड़ी, अक्षत, घी, बिछिया, माला-फूल, शक्कर, कंघी, गंगा-मृत्तिका, शहद, शीशा, चन्दन, कलश, मौली-धागा, केशर, दीपक, सुरमा, फल, पान, मिस्सी, धूप, कपूर, सुपारी, आलता(महावर), बिन्दी, वस्त्र, सिंदूर, पकवान, यज्ञोपवीत, रोली और मिठाई।

हरतालिका तीज व्रत कथा एवं पूजा विधी समाप्त।

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