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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गणेशनामाष्टक स्तोत्र
परशुरामजी ने पृथ्वी को क्षत्रियों
से रहित कर अपने गुरुदेव भगवान शिव और माता पार्वती से मिलाने की ईच्छा से कैलास
पहुँचे। तब शिवजी के समान उन्हें भी रोक दिया तो क्रुद्ध होकर परशुराम ने अपने अमोघ
फरसे को गणेश के बांये दांत को काट दिया जिससे माता पार्वती क्रोधवश परशुरामजी को
मारने के लिए उद्यत हो गयीं। तब परशुरामजी ने भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तभी
वहां श्रीकृष्ण प्रकट होकर पार्वतीजी को समझाते हुए गणेशजी के 'एकदन्त' नाम से विख्यात होने तथा गणेशनामाष्टक
स्तोत्र को कहा। गणेश जी का यह गणेशनामाष्टकं स्तोत्रम् ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणपतिखण्ड
अध्याय 44 में, श्रीब्रह्माण्ड महापुराण के भार्गवचरित्र अध्याय
42 में तथा गणेश पुराण के चतुर्थ खण्ड अध्याय 8 में वर्णित
है। यहाँ इस स्तोत्र का मूलपाठ भावार्थ सहित भी दिया जा रहा है।
गणेशनामाष्टकं स्तोत्रम्
ब्रह्मवैवर्त पुराण,
गणपतिखण्ड: अध्याय 44 में भगवान् विष्णु
दुर्गा से कहते हैं: ईश्वरि! सामवेद में कहे हुए अपने पुत्र के नामाष्टक स्तोत्र
को ध्यान देकर श्रवण करो। मातः! वह उत्तम स्तोत्र सम्पूर्ण विघ्नों का नाशक है।
विष्णुरुवाच
गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं
विघ्ननायकम्।
लम्बोदरं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं
गुहाग्रजम्।।
मातः! तुम्हारे पुत्र गणेश,
एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक,
लम्बोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्त्र
और गुहाग्रज– ये आठ नाम हैं।
नामाष्टार्थं च पुत्रस्य श्रृणु
मातर्हरप्रिये।
स्तोत्राणां सारभूतं च सर्वविघ्नहरं
परम्।।
इन आठों नामों का अर्थ सुनो । शिवप्रिये!
यह उत्तम स्तोत्र सभी स्तोत्रों का सारभूत और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करने
वाला है ।
ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च
निर्वाणवाचकः।
तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं
प्रणमाम्यहम्।।
‘ग’ ज्ञानार्थवाचक
और ‘ण’ निर्वाणवाचक है। इन दोनों (ग+ण)
– के जो ईश हैं; उन परब्रह्म ‘गणेश’ को मैं प्रणाम करता हूँ।
एकशब्दः प्रधानार्थो दन्तश्च
बलवाचकः।
बलं प्रधानं सर्वस्मादेकदन्तं
नमाम्यहम्।।
‘एक’ शब्द
प्रधानार्थक है और ‘दन्त’ बलवाचक है;
अतः जिनका बल सबसे बढ़कर है; उन ‘एकदन्त’ को मैं नमस्कार करता हूँ।
दीनार्थवाचको हेश्च रम्बः पालकवाचकः
।
दीनानां परिपालकं हेरम्बं
प्रणमाम्यहम्।।
‘हे’ दीनार्थवाचक
और ‘रम्ब’ पालक का वाचक है; अतः दीनों का पालन करने वाले ‘हेरम्ब’ को मैं शीश नवाता हूँ।
विपत्तिवाचको विघ्नो नायकः
खण्डनार्थकः।
विपत्खण्डनकारकं नमामि विघ्नायकम्।।
‘विघ्न’ विपत्तिवाचक
और ‘नायक’ खण्डनार्थक है, इस प्रकार जो विपत्ति के विनाशक हैं; उन ‘विघ्ननायक’ को मैं अभिवादन करता हूँ।
विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यैर्यस्य
लम्बोदरं पुरा।
पित्रा दत्तैश्च विविधैर्वन्दे
लम्बोदरं च तम्।।
पूर्वकाल में विष्णु द्वारा दिये
गये नैवेद्यों तथा पिता द्वारा समर्पित अनेक प्रकार के मिष्टान्नों के खाने से
जिनका उदर लम्बा हो गया है; उन ‘लम्बोदर’ की मैं वन्दना करता हूँ।
शूर्पाकारौ च यत्कर्णौ
विघ्नवारणकारणौ।
सम्पदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं
नमाम्यहम्।।
जिनके कर्ण शूर्पाकार,
विघ्न-निवारण के हेतु, सम्पदा के दाता और
ज्ञानरूप हैं; उन ‘शूर्पकर्ण’ को मैं सिर झुकाता हूँ।
विष्णुप्रसादपुष्पं च यन्मूर्ध्नि
मुनिदत्तकम्।
तद् गजेन्द्रवक्त्रयुक्तं गजवक्त्रं
नमाम्यहम्।।
जिनके मस्तक पर मुनि द्वारा दिया
गया विष्णु का प्रसादरूप पुष्प वर्तमान है और जो गजेन्द्र के मुख से युक्त हैं;
उन ‘गजवक्त्र’ को मैं
नमस्कार करता हूँ।
गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो
हरालये।
वन्दे गुहाग्रजं देवं
सर्वदेवाग्रपूजितम्।।
जो गुह (स्कन्द) –
से पहले जन्म लेकर शिव-भवन में आविर्भूत हुए हैं तथा समस्त देवगणों
में जिनकी अग्रपूजा होती है; उन ‘गुहाग्रज’
देव की मैं वन्दना करता हूँ।
एतन्नामाष्टकं दुर्गे नामभिः संयुतं
परम्।
पुत्रस्य पश्य वेदे च तदा कोपं तथा
कुरु।।
दुर्गे! अपने पुत्र के नामों से
संयुक्त इस उत्तम नामाष्टक स्तोत्र को पहले वेद में देख लो,
तब ऐसा क्रोध करो।
ततो विघ्नाः पलायन्ते वैनतेयाद्
यथोरगाः।
गणेश्वरप्रसादेन महाज्ञानी भवेद्
ध्रुवम्।।
जो इस नामाष्टक स्तोत्र का,
जो नाना अर्थों से संयुक्त एवं शुभकारक है, नित्य
तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह सुखी और सर्वत्र
विजयी होता है। उसके पास से विघ्न उसी प्रकार दूर भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ के निकट से साँप। गणेश्वर की कृपा से वह निश्चय ही महान ज्ञानी
हो जाता है।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्यार्थी
विपुलां स्त्रियम्।
महाजडः कवीन्द्रश्च विद्यावांश्च
भवेद् ध्रुवम्।।
पुत्रार्थी को पुत्र और भार्या की
कामनावाले को उत्तम स्त्री मिल जाती है तथा महामूर्ख निश्चय ही विद्वान और श्रेष्ठ
कवि हो जाता है।
(गणपतिखण्ड 44 । 85-98)
श्रीब्रह्माण्ड महापुराण तथा गणेश
पुराण अंतर्गत्
श्रीगणेशनामाष्टकस्तोत्रं
श्रीकृष्ण उवाच -
श्रुणु देवि महाभागे वेदोक्तं वचनं
मम ।
यच्छ्रुत्वा हर्षिता नूनं भविष्यसि
न संशयः ।
विनायकस्ते तनयो महात्मा महतां
महान् ॥
हे देवि ! आप तो महान भाग वाली हैं।
अब आप मेरे वेदों में कहे हुए वचन का श्रवण कीजिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उस
मेरे वचन को सुनकर आप निश्चय ही परम हर्षित हो जायगी। इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं
है । यह विनायक (गणेश) आपका पुत्र है और यह महान् आत्मा वाले तथा महान् पुरुषों
में भी शिरोमणि महान् पुरुषों में भी शिरोमणि महान हैं।३०।
यं कामः क्रोध उद्वेगो भयं नाविशते
कदा ।
वेदस्मृतिपुराणेषु संहितासु च
भामिनि ॥
इनके हृदय में कभी भी
काम-क्रोध-उद्वेग और भय आदि का प्रवेश नहीं हुआ करता है। हे भामिनि ! वेदों में
स्मृतियों में पुराणों में तथा संहिताओं में सर्वत्र इनके शुभमानों का वर्णन
है।३१।
नामान्यस्योपदिष्टानि सुपुण्यानि
महात्मभिः ।
यानि तानि प्रवक्ष्यामि
निखिलाघहराणि च ॥
बड़े-बड़े महात्माओं के द्वारा
सुपुण्यमय इनके नामों का उपदेश दिया गया है। वे इनके परम शुभ नाम समस्त अघों के
दूर कर देने वाले हैं। जो भी वे नाम हैं उनको मैं अभी आपको बतला दूगा ।३२।
प्रमथानां गणा यै च नानारूपा
महाबलाः ।
तेषामीशस्त्वयं यस्माद्गणेशस्तेन
कीर्त्तितः ॥ १॥
जो भी प्रमथों के गण हैं जिनके
विविध स्वरूप हैं और जो महान् बल वाले हैं। उन सबके यह गणेश स्वामी हैं। यही कारण
है कि इनका नाम 'गणेश' यह संसार में कहा जाया करता है ।३३।
भूतानि च भविष्याणि वर्तमानानि यानि
च ।
ब्रह्माण्डान्यखिलान्येव
यस्मिंल्लम्बोदरः स तु ॥ २॥
जितने भी जो भी भविष्य में होने
वाले हैं और समस्त जो भी ब्रह्माण्ड हैं जिनमें यही लम्बोदर हैं अर्थात् लम्बे
विशाल उदर वाले यही हैं ।३४।
यः शिरो देवयोगेन छिन्नं संयोजितं
पुनः ।
गजस्य शिरसा देवि तेन प्रोक्तो
गजाननः ॥ ३॥
जो भी इस समय में स्थिर है यह पहिले
एक बार देव के योग से इनका मस्तक छिन्न हो गया था और फिर उसको संयोजित किया था जो
कि एक गज के शिर से ही जोड दिया गया था। हे देवि ! इसीलिए यह गजानन नाम वाले हैं
।३५॥
चतुर्थ्यामुदितश्चन्द्रो दर्भिणा
शप्त आतुरः ।
अनेन विधृतो भाले भालचन्द्रस्ततः
स्मृतः ॥ ४॥
चतुर्थी तिथि में चन्द्रमा उदित हुआ
था और दर्भी के द्वारा इसको शाप दे दिया गया था तब यह अत्यन्त आतुर हो गया था। उस
समय में इन्हीं गणेश ने इसको अपने भाल में धारण कर लिया था। तभी से इनका नाम भाल
चन्द्र कहा गया है ।३६।
शप्तः पुरा सप्तभिस्तु मुनिभिः
सङ्क्षयं गतः ।
जातवेदा दीपितोऽभूद्येनासौ
शूर्पकर्णकः ॥ ५॥
प्राचीन काल में पहिले सात मुनियों
ने एक बार इसको शाप दे दिया था। इसी कारण से यह क्षीणता को प्राप्त हो गया था।
इनके द्वारा एक बार जातवेदा (अग्नि) दीपित किया गया था। इसी कारण से तभी से इनका
शूपकर्णक नाम हो गया था ।३७।
पुरा देवासुरे युद्धे पूजितो
दिविषद्गणैः ।
विघ्नं निवारयामास विघ्ननाशस्ततः
स्मृतः ॥ ६॥
पहिले समय में देवों और असुरों का
महान् भीषण देवासुर संग्राम हुआ था उसमें देवगणों के द्वारा इनकी बड़ी अर्चना हुई
थी। उससे परम प्रसन्न होकर इन्होंने सभी विघ्नों का निवारण कर दिया था। फिर तभी से
इनका विघ्न नाश-यह शुभ नाम पड़ गया था।३८।
अद्यायं देवि रामेण कुठारेण निपात्य
च ।
दशनं दैवतो भद्रे ह्येकदन्तः
कृतोऽमुना ॥ ७॥
हे देवि ! आज परशुराम के द्वारा
इसके ऊपर अपने कुठार का प्रहार किया गया है हे भद्रे ! इससे दैववशात इनका एक दाँत
टूटकर गिर गया है। इसीलिये इनने इसको एकदन्त कर दिया है ॥३६॥
भविष्यत्यथ पर्याये ब्रह्मणो
हरवल्लभः ।
वक्रीभविष्यत्तुण्डत्वाद्वक्रतुण्डः
स्मृतो बुधैः ॥ ८॥
हे हर ! वल्लभे ! इसके अनन्तर यह
ब्रह्मा के पर्याय में होगे । कुठार के ही प्रहार से इनका मुख कुछ वक्र सा हो गया
है तभी से बुधों के द्वारा इनको वक्रतुण्ड कहा गया है ४०।
एवं तवास्य पुत्रस्य सन्ति नामानि
पार्वती ।
स्मरणात्पापहारीणि
त्रिकालानुगतान्यपि ॥ ९॥
हे पार्वति ! इसी भांति से आपके इस पुत्र
(गणेश) के अनेक नाम हैं। जिनका तीनों कालों में अर्थात् प्रात:मध्याह्न और सायंकाल
में स्मरण करने वाले होते हैं ।४१।
अस्मात्त्रयोदशीकल्पात्पूर्वस्मिन्दशमीभवे
।
मयास्मै तु वरो दत्तः
सर्गदेवाग्रपूजने ॥ १०॥
इस त्रयोदशी कल्प से पूर्व कदमींभव
में मैंने ही इनको यह वरदान दे दिया था कि समस्त देवों के पूजन के पहिले इन्हीं का
सर्वप्रथम पूजन हुआ करेगा ।४२।
जातकर्मादिसंस्कारे
गर्भाधानादिकेऽपि च ।
यात्रायां च वणिज्यादौ युद्धे
देवार्चने शुभे ॥ ११॥
सङ्कष्टे काम्यसिद्ध्यर्थं
पूजयेद्यो गजाननम् ।
तस्य सर्वाणि कार्याणि
सिद्ध्य्न्त्येव न संशयः ॥ १२॥
जातकर्म आदि षोडश संस्कारों के
कराने के समय में तथा गर्भ के आधान आदि कर्मों में-यात्रा के करने के समय में
वाणिज्य आदि व्यसायों के करने के काल में-संग्राम के आरम्भ करने के समय में एवं
किसी भी शुभ कार्य के करने के समय में तथा सङ्कट के आ पड़ने पर और किसी भी कामना
से युक्त कार्य की सिद्धि के लिए जो भी कोई इन गजानन प्रभु का पूजन करेगा उस पुरुष
के समस्त कार्य अवश्यमेव सिद्ध हो जाया करते हैंइनमें कुछ भी संशय नहीं है ।४३-४४॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे
वायुप्रोक्ते मध्यभागे तृतीय
उपोद्धातपादे भार्गवचरिते
द्विचत्वारिंशत्तमोऽध्यायान्तर्गतं
श्रीकृष्णप्रोक्तं श्रीगणेशनामाष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ ४२॥
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