आत्मोपदेश

आत्मोपदेश

शरीर,मन,आत्मा और उससे परे तत्व अर्थात् परमात्मा का उपदेश इस आत्मोपदेश में किया गया है ।

आत्मोपदेश

आत्मोपदेश

शास्त्रप्रतिष्ठा गुरुवाक्यनिष्ठा

सदात्मदृष्टिः परितोषपुष्टिः ।

चतस्र एता निवसन्ति यत्र

स वर्तमानोऽपि न लिप्यतेऽघैः ॥ १॥

शास्त्रों का भली प्रकार ज्ञान हो और गुरु के वाक्य में निष्ठा हो; सदा जगत् को आत्मा रूप से ही देखता हो और अटल सन्तोष हो, ये चार बातें जिसमें मौजूद हो वह कर्म करता प्रतीत होवे तो भी उसको पाप का स्पर्श नहीं होता ।

उद्देश्यभेदेन विधेयभेदे

शास्त्राण्यनेकानि भवन्ति तावत् ।

तत्रास्ति कैराद्रियमाणमेव

विभावनीयं परमार्थसिद्ध्यै ॥ २॥

भिन्न-२ उद्देश को लेकर भिन्न-२ उपदेश होता है और इसी प्रकार से नाना शास्त्रों की उत्पत्ति हुई है, इसलिये आस्तिक पुरुष को चाहिये कि अपने परमार्थ की सिद्धिकाल में उन सबकी ओर आदर भाव रखे ।

व्याख्यावलेनाभिनिवेशभाजा

प्रमेयभेदो बहुधाभ्युदेति ।

तत्रास्ति मात्सर्यकलङ्कमुक्ता

 मुक्तावदाता धिषणा प्रमाणम् ॥ ३॥

अनुराग से युक्त होकर विद्वत्ता के बल व्याख्या करने से ही तत्त्व के ज्ञान में मत भेद उदय होता है । ऐसे समय जिसकी बुद्धि मत्सर के दूषण से रहित, समान और शुद्ध हो वही प्रमाण है ।

तर्कोऽप्रतिष्ठो श्रुतयो विभिन्ना

नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां

महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ ४॥

तर्क से तो पदार्थ का ज्ञान ही नहीं होता, श्रुतियों का आपस मे विरोध देखा जाता है, कोई एक भी ऐसा मुनि है नहीं, जिसका वचन हम सर्वथा प्रमाण मान सकें और धर्म तत्त्व तो अत्यन्त गूढ है, ऐसी अवस्था मे महापुरुष जिस मार्ग से चलते हों, उसी मार्ग से जाना यही ठीक है ।

अनेकशास्त्रार्थविमर्शनेन

तत्तन्महाव्यक्तिनिदर्शनेन ।

त्रैकालिकज्ञानविकस्वरेषु

महाजनत्वं गुरुषूपदिष्टम् ॥ ५॥

नाना शास्त्रों को अच्छी तरह से पढ लेने से तथा उनमें जिसको महाव्यक्ति बताया है उससे (यह जान पडता है कि) तीनों काल का ज्ञान रखने वाले गुरुओं को ही महाजन बतलाया गया है ।

यदेकतत्पुत्रकलत्रमित्र-

विद्वेप्युदासीनचराचरं हि ।

तन्नामरूपाख्यविकारवर्जं

ब्रह्मेति वेदान्तविदो विदन्ति ॥ ६॥

जो (परब्रह्म) एक है वही पुत्र, स्त्री, मित्र, शत्रु, उदासीन तथा सब चर और स्थिर जगत् रूप से भासता है वही नाम रूप के विकार से रहित ऐसा ब्रह्मा है, ऐसा वेदान्त के जानने वाले कहते है ।

तदात्मरत्नं न बहुश्रुतेन

न वा तपोराशिबलेन लभ्यम् ।

प्रकाशते तत्तु गुरूपदिष्ट-

ज्ञानेन जन्मान्तरखण्डकेन ॥ ७॥

वह आत्मा रूपी रत्न, विद्वत्ता चा पाण्डित्य प्राप्त करने से नहीं लाभ होता और बहुत तप करके उसके बल से भी आत्म ज्ञान नहीं होता; परन्तु श्रीगुरु के उपदेश से उत्पन्न हुए ज्ञान से वह आत्म तत्त्व प्रकट होता है जिससे फिर जन्म नहीं होता ।    

जात्या गुणेन क्रियया च सम्यक्         

गतप्रमादो विदधद्विधेयम् ।    

लभेत यत्तेन सदैव तुष्यन्         

यतेत भाग्यार्पित कार्यकायः ॥ ८॥

जन्म, गुण और कर्म के अनुसार, प्रमाद न करते हुए विहित कर्म ठीक-२ किया करे । जो कुछ प्राप्त हो उसी मे सदा सन्तुष्ट रहकर देह को प्रारब्ध के ऊपर छोडकर  (आत्म प्राप्ति के लिये) यत्न किया करे ।

निष्काम चित्तेन किलैकतानः         

परामृशन्वस्तु गुरूपदिष्टम् ।    

उदारभावो रचयेत सौख्यं         

परं परेषामपि किं स्वनिष्ठम् ॥ ९॥

निष्काम चित्त से एकाग्रता पूर्वक गुरु के उपदेश के अनुसार उदार बुद्धि वाला पुरुष पर से भी पर ऐसे आत्मा में रहे हुए सुख की भावना करे ।

इति आत्मोपदेश सम्पूर्णम् ।

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