पितृ पुरुष स्तोत्र
श्रीमार्कण्डेय पुराण अध्याय ९६
श्लोक १३-४८ में वर्णित यह चमत्कारी पितृ पुरुष स्तोत्र या पितृस्त्रोत या पितृ
स्तवन या पितृ स्तुति या पितृ रक्षा स्त्रोत दिया गया है । इसका नियमित पाठ करने
से पितृदोष समाप्त होकर मनोकामनाओं की पूर्ति होता है और भी अनेक इस स्तोत्र के
फायदें हैं जिसे की पितृस्तोत्र पूर्व भाग में दिया गया है ।
पितृ-स्तोत्रम्
पितृ पुरुष स्तोत्रम्
पितृस्तोत्र
पितृ स्तवन
पितृ स्तुति
पितृ रक्षा स्त्रोत
रूचिरूवाच
नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धे ये
वसन्त्यधिदेवताः ।
देवैरपि हि तर्प्यंते ये च
श्राद्धैः स्वधोत्तरैः ।।1।।
रुचि बोले- मैं उन पितरों को प्रणाम
करता हूँ जो श्राद्ध में 'देवता होकर निवास
करते हैं और जिनका कि श्राद्धों में देवता भी स्वधा कहकर तर्पण करते हैं।
नमस्येऽहं पितृन्स्वर्गे ये
तर्प्यन्ते महर्षिभिः ।
श्राद्धेर्मनोमयैर्भक्तया
भुक्ति-मुक्तिमभीप्सुभिः ।।2।।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जिनका कि स्वर्ग में भुक्ति और मुक्ति की इच्छा करनेवाले महर्षि लोग भक्ति पूर्वक
श्राद्धों से तर्पण करते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन्स्वर्गे सिद्धाः
संतर्पयन्ति यान् ।
श्राद्धेषु दिव्यैः सकलै
रूपहारैरनुत्तमैः ।।3।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनको कि स्वर्ग में सिद्ध लोग श्राद्धों में दिव्य और उत्तम उपहारों से तृप्त
करते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन्भक्तया
येऽर्च्यन्ते गुह्यकैरपि ।
तन्मयत्वेन
वांछिद्भिर्ऋद्धिमात्यंतिकीं पराम् ।।4।।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जिनको ऋद्धि की इच्छा करते हुए परम एकाग्र चित्त होकर गुह्यक भी भक्ति पूर्वक
पूजते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन्मर्त्यैरच्यन्ते
भुवि ये सदा ।
श्राद्धेषु श्रद्धयाभीष्ट
लोक-प्राप्ति-प्रदायिनः ।।5।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनकी कि पृथ्वी पर मनुष्य लोग सदैव अभीष्ट लोकों की प्राप्ति की इच्छा से श्रद्धा
पूर्वक श्राद्धों में अर्चना करते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन् विप्रैरर्च्यन्ते
भुवि ये सदा।
वाञ्छिताभीष्ट-लाभाय
प्राजापत्य-प्रदायिनः ।।6।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जो कि ब्रह्मलोक को प्राप्त कराते हैं और जिनको कि पृथ्वी पर अभीष्ट साधन के लिये
ब्राह्मण लोग पूजते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन् ये वै
तर्प्यन्तेऽरण्यवासिभिः ।
वन्यैः
श्राद्धैर्यताहारैस्तपोनिर्धूतकिल्बिषैः ।।7।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनको कि वनवासी, निष्पाप तपस्वी और
यताहारी लोग श्राद्ध करके वन के फूलों से पूजते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन्
विप्रैर्नैष्ठिकब्रह्मचारिभिः ।
ये संयतात्मभिर्नित्यं संतर्प्यन्ते
समाधिभिः ।।8।।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जिनको कि निष्ठा व्रत वाले ब्राह्मण और जितेन्द्रिय लोग समाधियों से सदा तृप्त
करते हैं।
नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धै
राजन्यास्तर्पयंति यान् ।
कव्यैरशेषैर्विधिवल्लोकत्रय फलप्रदान्
।।9।।
मैं उन त्रिलोकी का फल देनेवाले
पितरों को प्रणाम करता हूँ जिनको क्षत्रिय लोग अशेष कव्य पदार्थों से विधि पूर्वक
श्राद्ध करके तृप्त करते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन्वैष्यैरर्च्यन्ते
भुवि ये सदा ।
स्वकर्माभिरतैर्नित्यं
पुष्पधूपान्नवारिभिः ।।10।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनको अपने कामों में लगे हुए वैश्य लोग पृथ्वी पर सदा पुष्प धूप,
अन्न, जल आदि से तृप्त करते हैं ।
नमस्येऽहं पितुन् श्राद्धैर्ये
शूद्रैरपि च भक्तितः ।
संतृप्यन्ते जगत्यत्र नाम्ना
ज्ञाताः सुकालिनः ।।11।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जो इस संसार में सुकाली नाम से प्रसिद्ध हैं और जिनको कि शूद्र लोग भक्तिपूर्वक
श्राद्धों में तृप्त करते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैः पाताले
ये महासुरैः ।
संतर्प्यन्ते स्वधाहारैस्त्यक्त दम्भमदैः
सदा ।।12।।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जिनको कि: पाताल में महान राक्षस लोग दम्भ और मद छोड़ कर स्वधा कहकर श्राद्धा से
तृप्त करते है ।
नमस्येऽहं पितृन्
श्राद्धैरर्च्यन्ते ये रसातले ।
भोगैरशेषैर्विधिवन्नागैः
कामानभीप्सुभिः ।।13।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनको कि रसातल में अनेक कामनाओं की इच्छानों से नाग लोग विधि पूर्वक अनेक भोगों
से पूजते हैं ।
नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैः सर्पैः संतर्पितान्
सदा ।
तत्रैव
विधिवन्मंत्रभोगसंपत्समन्वितैः।।14।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जिनको कि वहाँ रसातल में ही सर्प सदा मन्त्र, भोग
और सम्पत्तियों से विधिवत् तृप्त किया करते हैं ।
पितृन्नमस्ये निवसन्ति साक्षाद्ये
देवलोके च तथांतरिक्षे।
महीतले ये च सूरादिपूज्यास्ते मे
प्रयच्छन्तु मयोपनीतम्।।15।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करताहूँ जो
कि देवलोक आकाश और पृथ्वीतल पर रहते है और जो कि देवता आदिकों से पूजित है। वे
पितर मेरे अर्पण किये हुए जल को ग्रहण करें।
पितृन्नमस्ये परमात्मभूता ये वै
विमाने निवसंति मूर्त्ताः।
यजन्ति
यानस्तमलैर्मनोभिर्यौगीश्वराः क्लेश-विमुक्ति-हेतून्।।16।।
मैं परमात्मा स्वरूप उन पितरों को
प्रणाम करता हूँ जो विमानों पर चढ़कर अन्तरिक्ष में निवास करते हैं और जिनको कष्ट
से मुक्ति पाने के अभिप्राय से योगीश्वर' विगल
चित्त से पूजते हैं ।
पितृन्नमस्ये दिवि ये च मूर्त्ताः
स्वधाभुजः काम्यफलाभिसंधौ।
प्रदानशक्ताः सकलेप्सितानां
विमुक्तिदा येऽनभिसंहितेषु।।17।।
मैं उन पितरों को नमस्कार करता हूँ
जो कि स्वर्ग में रहते हैं और स्वधाभोजी हैं तथा जो कामना वालों की इच्छा पूरी
करते और निष्काम लोगों को मुक्ति प्रदान करते हैं ।
तृप्यंतु तेऽस्मिन् पितरः समस्ता
इच्छावतां ये प्रदिशंति कामान्।
सुरत्वमिन्द्रत्वमतोधिकंवा सुतान्
पशून् स्वानि बलं गृहाणि।।18।।
इससे वे सव पितर तृप्त हों जो कि
इच्छा करने वालों की सव इच्छायें पूर्ण करते हैं और देवत्व,
इन्द्रत्व तथा इससे भी अधिक, ब्रह्मत्व तथा
पुत्र, पशु बल और गृह आदि प्रदान करते हैं।
सोमस्य ये रष्मिषुयेऽर्कबिम्बे
शुक्ले विमाने च सदा वसन्ति।
तृप्यंतु
तेऽस्मिन्पितरोऽन्नतोयैर्गंधादिना पुष्टिमितो व्रजंतु।।19।।
वे पितर जो चन्द्रमा की किरणों और
सूर्य की ज्योति में तथा श्वेत विमानों में सदैव निवास करते हैं इन अन्न,
जल, गन्ध आदि से तृप्त होकर पुष्ट हों ।
येषां हुतेऽग्नौ हविषा च तृप्तिर्ये
भुञ्जते विप्र-शरीर-भाजः।
ये पिंडदानेन मुदं प्रयांति
तृप्यन्तु तेऽस्मिन् पितरोन्नतोयैः।।20।।
जो पितर अग्नि में हविष्य प्रदान
करने से तृप्त होते हैं तथा जो ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर भोजन करते हैं और
जो पिण्ड दान से प्रसन्न होते हैं वे पितृ लोग इन अन्न और जलों से सन्तुष्ट हो ।
ये खड्गमांसेन सुरैरभीष्टैः
कृष्णैस्तिलैर्दिव्यमनोहररैश्च।
कालेनशाकेन महर्षि वर्यैः
संप्रीणितास्ते मुदमत्र यान्तु।।21।।
जो पितर गेंडे के मांस से अथवा
देवताओं के दिये हुए काले तिलों से अथवा दिव्य मुहूर्त में महर्षियों के दिये हुए
शाक से प्रसन्न होते हैं वे यहाँ मुझ पर प्रसन्न हों ।
कव्यान्यशेषाणि च यान्यभीष्टान्यतीव
तेषां ममरार्चितानाम्।
तेषां तु सान्निध्यमिहास्तु
पुष्पगंधान्नभोज्येषु मया कृतेषु।।22।।
जो पितर लोग देवताओं से पूजित होकर
अशेष कव्यों को अभीष्ट मानते हैं वे मेरे सान्निध्य से पुष्प,
गन्ध तथा अन्न आदि को ग्रहण करें ।
दिनेदिने ये प्रतिगृह्णतेर्श्ष्चां
मासान्तपूज्या भुवि येऽष्टकासु।
येवत्सरान्तेऽभ्युदये च पूज्याः
प्रयान्तु ते मे पितरोऽत्र तृप्तिम्।23।।
जो पितर लोग नित्य-प्रति अर्ध्य
ग्रहण करते हैं तथा पृथ्वी पर जिनकी अभ्युदय काल में अष्टका,
मासान्त और वर्ष के अन्त की पूजा होती है, वे
पितर यहाँ तृप्ति को प्राप्त हो ।
पूज्याद्विजानां कुमुदेंदुभासो ये
क्षत्रियाणां च नवार्कवर्णाः।
तथा विशां ये कनकावदाता नीलीनिभाः
शूद्रजनस्य ये च।।24।।
जो पितर लोग चन्द्रमा के समान
प्रकाशित होकर ब्राह्मणों से, बाल सूर्य की
तरह ज्योतिष्मान् होकर क्षत्रियों से,
सुवर्ण के समान कान्तियुक्त होकर वैश्यों से और श्यामवर्ण
होकर शूद्रों से पूजित है ।
तेऽस्मिन् समस्ता मम
पूष्पगंधधूपान्नतोयादि निवेदनेन।
तथाग्निहोमेन च यांतु तृप्तिं सदा
पितृभ्यः प्रणतोऽस्मि तेभ्यः।।25।।
वे सब मेरे पुष्प,
गन्ध, धूप, अन्न,
जल आदि के निवेदन से तथा अग्नि में होम करने से तृप्त हों, मैं उन पितरों को सदा प्रणाम करता हूँ ।
ये देव पूर्वाण्यतितृप्तिहेतोरश्नंति कव्यानि
शुभाहुतानि।
तृप्ताश्चयेभूतिसृजो भवंति
तृप्यन्तु तेस्मिन् प्रणतोस्मि तेभ्यः।।26।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जो अग्नि में हवन किये हुए कव्य को खाते हैं और जो तृप्त होकर ऐश्वर्य प्रदान करते
हैं ।
रक्षांसि
भुतान्यसुरांस्तथोग्रान्निर्णाशयन्तस्त्व शिवं प्रजानाम्।
आद्याः
सुराणाममरेशपूज्यास्तृप्यन्तु तेऽस्मिन् प्रणतोऽस्मि तेभ्यः।।27।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ
जो राक्षसों, भूतों और प्रचण्ड दैत्यों का
नाश करके प्रजा का कल्याण करते हैं। जो पितर कि देवताओं के पूर्ववर्ती और उनसे
पूज्य हैं वे तृप्त हों ।
अग्निश्वात्ता बर्हिषदा आज्यपाः
सोमपास्तथा।
व्रजन्तु तृप्तिं श्राद्धेऽस्मिन्
पितरस्तर्पितामया।28।।
वे पितर जो कि अग्निष्वात्ता,
वहिर्षद आज्यपा और सोमपा है वे इस श्राद्ध में मुझसे तर्पित होकर
तृप्ति को प्राप्त हो ।
अग्निष्वात्ताः पितृगणाः प्राचीं
रक्षन्तु मे दिशम्।
तथा बर्हिषदः पान्तु याम्यां
पितरस्तथा।।29।।
अग्निष्वाता पितर जो बहिर्षद कहलाते
हैं मेरी दक्षिण दिशा में रक्षा करें ।
प्रतीचीमाज्यपास्तद्वदुदीचीमपि
सोमपाः।
रक्षोभूतपिशाचेभ्यस्तथैवासुरदोषतः।।30।।
आज्यपा पितर पश्चिम दिशा में,
तथा सोमपा उत्तर दिशा में राक्षस, भूत,
पिशाच तथा असुरों से मेरी रक्षा करें।
सर्वतश्चाधिपस्तेषां यमो रक्षां
करोतु मे।
विश्वो विश्वभुगाराध्यो धर्म्यो
धन्यः शुभाननः।
भूतिदो भूतिकृद्भूतिः पितृणां ये
गणा नव।। 31।।
उन सब पितरों के स्वामी यमराज मेरी
रक्षा करें। विश्व, विश्वभुक्, आराध्य, धर्म, धन्य, शुभानन, भूतिद, भूतिकृत् और
भूति पितरों के ये नौ गण ।
कल्याणः कल्पतां कर्त्ता कल्पः
कल्पतराश्रयः।
कल्पताहेतुरनघः षडिमे ते गणाः
स्मृताः।32।।
कल्याण,
कल्यताकर्ता, कल्य, कल्यतराश्रय,
कल्याण हेतु और अवध, ये छहों गण।
वरो वरेण्यो वरदः
पुष्टिदस्तुष्टिदस्तथा ।
विश्वपाता तथा धाता सप्तैवैते
गणास्तथा ।। 33।।
वर वरेण्य,
वरद, पुष्टिदु तुष्टिद, विश्वपाता
तथा धाता ये पितरों के सात गण ।
महान् महात्मा महितो
महिमावान्महाबलः।
गणाः पंचतथैवेते पितृणां
पापनाशनाः।। 34।।
महान, महात्मा महित, महिमावान् और महावल ये पापनाशक पितरों
के पाँच गण ।
सुखदो धनदश्चान्यो धर्मदोऽन्यश्च
भूतिदः।
पितृणां कथ्यते चैतत्तथा
गणचतुष्टयम्।। 35।।
सुखद, धनद, धर्म और भूतिद ये पितरों के चार गण ।
एकत्रिंशत् पितृगणा
यैर्व्याप्तमखिलं जगत् ।
ते मेऽनुतृप्तास्तुष्यंतु यच्छन्तु
च सदा हितम्।। 36।।
इस प्रकार इकत्तीस पितृगणों से
सम्पूर्ण जगत व्याप्त' है। ये सब पितरगण
तृप्त होकर के सदा मेरी रक्षा करें ।
इति श्रीमार्कण्डेय पुराण रुचिकृत पितृ पुरुष स्तोत्र नाम अध्याय ९६ समाप्त।
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