Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2021
(800)
-
▼
September
(91)
- सत्यनारायण व्रत कथा भविष्यपुराण
- और्ध्वदैहिक स्तोत्र
- मूर्तिरहस्यम्
- वैकृतिकं रहस्यम्
- प्राधानिकं रहस्यम्
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 13
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 12
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 11
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 10
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 9
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 8
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 7
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 6
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 5
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 4
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 3
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 2
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 1
- स्तोत्र संग्रह
- दकारादि श्रीदुर्गा सहस्रनाम व नामावली स्तोत्र
- श्रीराधा परिहार स्तोत्रम्
- श्रीराधिकातापनीयोपनिषत्
- श्रीराधा स्तोत्र
- श्रीराधा कवचम्
- सरस्वती स्तोत्र
- श्रीराधाकवचम्
- पितृ सूक्त
- पितृ पुरुष स्तोत्र
- रघुवंशम् सर्ग 7
- श्रीराधा स्तोत्रम्
- श्रीराधास्तोत्रम्
- श्रीराधाष्टोत्तर शतनाम व शतनामावलि स्तोत्रम्
- श्रीराधोपनिषत्
- रोगघ्न उपनिषद्
- सूर्य सूक्त
- ऋग्वेदीय सूर्य सूक्त
- भ्रमर गीत
- गोपी गीत
- प्रणय गीत
- युगलगीत
- वेणुगीत
- श्रीगणेशकीलकस्तोत्रम्
- श्रीगणपतिस्तोत्रम् समन्त्रकम्
- श्रीगणपति स्तोत्र
- गणपतिस्तोत्रम्
- गणपति मङ्गल मालिका स्तोत्र
- विनायक स्तुति
- विनायक स्तुति
- मयूरेश्वर स्तोत्र
- मयूरेश स्तोत्रम्
- गणनायक अष्टकम्
- कीलक स्तोत्र
- अर्गला स्तोत्र
- दीपदुर्गा कवचम्
- गणेश लक्ष्मी स्तोत्र
- अक्ष्युपनिषत्
- अनंत चतुर्दशी व्रत
- संकटनाशन गणेश स्तोत्र
- षट्पदी स्तोत्र
- गणेशनामाष्टक स्तोत्र
- एकदंत गणेशजी की कथा
- ऋषि पंचमी व्रत
- हरतालिका (तीज) व्रत कथा
- श्री गणेश द्वादश नाम स्तोत्र
- श्रीगणपति गकाराष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्
- श्रीविनायकस्तोत्रम्
- गकारादि श्रीगणपतिसहस्रनामस्तोत्रम्
- गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र
- श्रीविष्णु स्तुति
- आत्मोपदेश
- किरातार्जुनीयम् सर्ग ६
- किरातार्जुनीयम् पञ्चम सर्ग
- किरातार्जुनीयम् चतुर्थ सर्ग
- किरातार्जुनीयम् तृतीय सर्ग
- किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग
- किरातार्जुनीयम् प्रथमः सर्गः
- गणपतिसूक्त
- त्रैलोक्यमोहन एकाक्षरगणपति कवचम्
- एकदंत गणेश स्तोत्र
- श्रीललितोपनिषत्
- मदालसा
- वैराग्य शतकम्
- नीति शतकम्
- श्रृंगार शतकं भर्तृहरिविरचितम्
- संसारमोहन गणेशकवचम्
- विनायकाष्टकम्
- एकार्णगणेशत्रिशती
- ऋणहर गणेश स्तोत्रम्
- सन्तान गणपति स्तोत्रम्
- सिद्धिविनायक स्तोत्रम्
- अक्षमालिकोपनिषत्
-
▼
September
(91)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
ऋग्वेदीय सूर्य सूक्त
इस ऋग्वेदीय ‘सूर्य सूक्त ‘ ( १ / ११५ )— के
ऋषि ‘कुत्स आङ्गिरस’ हैं, देवता सूर्य हैं और छन्द त्रिष्टुप् है । इस सूक्त के देवता सूर्य
सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं, जगत् की
आत्मा हैं और प्राणि-मात्र को सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले देव हैं, देवमण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, क्योंकि ये जीवमात्र के लिये प्रत्यक्षगोचर हैं । ये सभी के लिये आरोग्य
प्रदान करनेवाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं, अतः समस्त
प्राणिधारियों के लिये स्तवनीत हैं, वन्दनीय हैं —
ऋग्वेदीय सूर्यसूक्तम् स्वर सहित
आङ्गिरसः कुत्स ऋषिः,
सूर्योदेवता, निचृत् त्रिष्तुप् (१,२,६) ,
विराट् त्रिष्टुप् (३),
त्रिष्टुप्छन्दः (४,५), धैवतः
स्वरः ।
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒
चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः ।
आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी
अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥ १.११५.०१
सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒
मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात् ।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑
वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥ १.११५.०२
भ॒द्रा अश्वा॑ ह॒रितः॒ सूर्य॑स्य चि॒त्रा
एत॑ग्वा अनु॒माद्या॑सः ।
न॒म॒स्यन्तो॑ दि॒व आ पृ॒ष्ठम॑स्थुः॒
परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति स॒द्यः ॥ १.११५.०३
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं
म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार ।
य॒देदयु॑क्त ह॒रितः॑
स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥ १.११५.०४
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒
सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑ ।
अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑
कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥ १.११५.०५
अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒
निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो
मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥ १.११५.०६
ऋग्वेदीय सूर्यसूक्त स्वर रहित
चित्रं देवानामुदगादनीकं
चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य
आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ १ ॥
सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो
न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते
प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा
एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि
द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं
मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री
वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो
रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः
कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः
पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः
सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥
ऋग्वेदीय सूर्य सूक्त भावार्थ सहित
चित्रं देवानामुदगादनीकं
चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य
आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ १ ॥
‘प्रकाशमान रश्मियों का समूह अथवा
राशि-राशि देवगण सूर्यमण्डल के रुप में उदित हो रहे हैं । ये मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक
ज्योतिर्मय नेत्र हैं । इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी
और अन्तरिक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है । इस मण्डल
में जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक
परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं’ ।
सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो
न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते
प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥
‘सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान
उषादेवी के पीछे-पीछे चलते है, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग
सुन्दरी युवती का अनुगमन करे । जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करने के लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने
कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करते हैं । सूर्य कल्याणरुप हैं और उनकी आराधना से —
कर्तव्य-कर्म के पालन से कल्याण की प्राप्ति होती हैं’ ।
भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा
एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि
द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥
‘सूर्य का यह रश्मि मण्डल अश्व के
समान उन्हें सर्वत्र पहुँचानेवाला, चित्र-विचित्र एवं
कल्याण-रुप है । यह प्रतिदिन तथा अपने पथ पर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय
है । यह सबको नमन की प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोक के ऊपर निवास करता है । यह
तत्काल द्युलोक और पृथ्वी का परिभ्रमण कर लेता है’ ।
तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं
मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री
वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥
‘सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्य का
यह ईश्वरत्व और महत्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किन्तु
अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्म को ज्यों-का-त्यों छोड़कर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणों
को इस लोक से अपने-आप में समेट लेते हैं । साथ ही उसी समय अपने किरणों और घोड़ों
को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं । उसी समय रात्रि
अन्धकार के आवरण से सबको आवृत्त कर देती है’ ।
तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो
रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः
कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥
‘प्रेरक सूर्य प्रातःकाल मित्र,
वरुण और समग्र सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिये प्राची के
आकाशीय क्षितिज में अपना प्रकाशक रुप प्रकट करते हैं । इनकी रसभोजी रश्मियाँ अथवा
हरे घोड़े बलशाली रात्रिकालीन अन्धकार के निवारण में समर्थ विलक्षण तेज धारण करते
हैं । उन्हीं के अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अन्धकार की सृष्टि होती है’
।
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः
पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः
सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥
‘हे प्रकाशमान सूर्य रश्मियों !
आज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो । न केवल
पाप से ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख-दारिद्र्य है, सबसे हमारी रक्षा करो । जो कुछ हमने कहा है; मित्र,
वरुण, अदिति, सिन्धु,
पृथ्वी और द्युलोक के अधिष्ठातृ-देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें ।
इति ऋग्वेदीय सूर्य सूक्त ॥
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: