श्रीराधोपनिषत्
राधोपनिषद
श्रीराधोपनिषत्
[ भगवत्स्वरूपा श्रीराधिकाजी की
महिमा तथा उनका स्वरूप ]
“ओमथोर्ध्व मन्थिन
ऋषयः सनकाद्या भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपासित्वोचुः देव कः परमो देवः,
का वा तच्छक्तयः,
तासु च का वरीयसी भवतीति सृष्टिहेतुभूता च केति ।
ऊर्ध्वरेता बालब्रह्मचारी सनकादि
ऋषियों ने भगवान ब्रह्माजी की उपासना करके उनसे पूछा —
‘हे देव ! परम देवता कौन हैं ?उनकी शक्तियाँ
कौन-कौन हैं ?उन शक्तियों में सबसे श्रेष्ठ, सृष्टि की हेतुभूता कौन शक्ति है ?’
स होवाच —
हे पुत्रकाः शृणुतेदं ह वाव
गुह्याद् गुह्यतरमप्रकाश्यं यस्मै कस्मै न देयम् ।
सनकादिक के प्रश्न को सुनकर
श्रीब्रह्माजी बोले — ‘पुत्रो ! सुनो;
यह गुह्यों में भी गुह्यतर-अत्यन्त गुप्त रहस्य है, जिस किसी के सामने प्रकट करने योग्य नहीं है और देने योग्य भी नहीं है ।
स्निग्धाय ब्रह्मवादिने गुरुभक्ताय
देयमन्यथा दातुर्महदघम्भवतीति ।
जिनके हृदय में रस हो,
जो ब्रह्मवादी हों, गुरुभक्त हों उन्हीं को
इसे बताना है; नहीं तो किसी अनधिकारी को देने से महापाप होगा
!
कृष्णो ह वै हरिः परमो देवः
षड्विधैश्वर्यपरिपूर्णो भगवान् गोपीगोपसेव्यो वृन्दाराधितो वृन्दावनाधिनाथः,
स एक एवेश्वरः ।
भगवान् हरि श्रीकृष्ण ही परम देव
हैं,
वे (ऐश्वर्य, यश, श्री,
धर्म, ज्ञान और वैराग्य — इन) छहों ऐश्वर्यों से परिपूर्ण भगवान् हैं । गोप-गोपियाँ उनका सेवन करती
हैं, वृन्दा (तुलसीजी) उनकी आराधना करती हैं, वे भगवान् ही वृन्दावन के स्वामी हैं, वे ही एकमात्र
परमेश्वर हैं ।
तस्य ह वै
द्वैततनुर्नारायणोऽखिलब्रह्माण्डाधिपतिरेकोंऽशः प्रकृतेः प्राचीनो नित्यः ।
उन्हीं के एक रूप हैं —
अखिल ब्रह्माण्डों के अधिपति नारायण, जो
उन्हीं के अंश हैं, वे प्रकृति से भी प्राचीन और नित्य हैं ।
एवं हि तस्य शक्तयस्त्वनेकधा ।
आह्लादिनीसंधिनीज्ञानेच्छाक्रियाद्या
बहुविधाः शक्तयः ।
उन श्रीकृष्ण की ह्लादिनी,
संधिनी, ज्ञान, इच्छा,
क्रिया आदि बहुत प्रकार की शक्तियाँ हैं ।
तास्वाह्लादिनी वरीयसी
परमान्तरङ्गभूता राधा ।
कृष्णेन आराध्यत इति राधा,
कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका गान्धर्वेति व्यपदिश्यत इति ।
इनमें आह्लादिनी सबसे श्रेष्ठ है । यही
परम अन्तरंगभूता ‘श्रीराधा’ हैं, जो श्रीकृष्ण के द्वारा आराधिता हैं । श्रीराधा
भी श्रीकृष्ण का सदा समाराधन करती हैं, अतः वे ‘राधिका’ कहलाती हैं । इनको ‘गान्धर्वा’
भी कहते हैं।
अस्या एव कायव्यूहरूपा गोप्यो
महिष्यः श्रीश्चेति ।
समस्त गोपियाँ,
पटरानियाँ और लक्ष्मीजी इन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं ।
येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनैकः
क्रीडनार्थं द्विधाभूत् ।
ये श्रीराधा और रस-सागर श्रीकृष्ण
एक ही शरीर हैं, लीला के लिये ये दो बन गये हैं
।
एषा वै हरेः सर्वेश्वरी सर्वविद्या
सनातनी कृष्णप्राणाधिदेवी चेति विविक्ते वेदाः स्तुवन्ति,
यस्या गतिं ब्रह्मभागा वदन्ति ।
ये श्रीराधा भगवान् श्रीहरि की
सम्पूर्ण ईश्वरी हैं. सम्पूर्ण सनातनी विद्या हैं, श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं । एकान्त में चारों वेद
इनकी स्तुति करते हैं ।
महिमास्याः स्वायुर्मानेनापि कालेन
वक्तुं न चोत्सहे ।
सैव यस्य प्रसीदति तस्य
करतलावकलितम्परमं धामेति ।
एतामवज्ञाय यः
कृष्णमाराधयितुमिच्छति स मूढतमो मूढतमश्चेति ।
ब्रह्मवेत्ता जिनके परमपद का
प्रतिपादन करते हैं । इनकी महिमा का मैं (ब्रह्मा) अपनी समस्त आयु में भी वर्णन
नहीं कर सकता । जिन पर इनकी कृपा होती है, परमधाम
उनके करतलगत हो जाता है । इन राधिका को न जानकर जो श्रीकृष्ण की आराधना करना चाहता
है, वह मूढ़तम है — महामूर्ख है ।
अथ हैतानि नामानि गायन्ति श्रुतयः —
श्रुतियाँ इनके इन नामों का गान
करती हैं —
राधा रासेश्वरी रम्या
कृष्णमन्त्राधिदेवता ।
सर्वाद्या सर्ववन्द्या च
वृन्दावनविहारिणी ॥
वृन्दाराध्या रमाशेषगोपीमण्डलपूजिता
।
सत्या सत्यपरा सत्यभामा
श्रीकृष्णवल्लभा ॥
वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी
।
गान्धर्वा राधिकारम्या रुक्मिणी
परमेश्वरी ॥
परात्परतरा पूर्णा
पूर्णचन्द्रनिभानना ।
भुक्तिमुक्तिप्रदा नित्यं
भवव्याधिविनाशिनी ॥
इत्येतानि नामानि यः पठेत् स
जीवन्मुक्तो भवति ।
इत्याह
हिरण्यगर्भो भगवानिति ।
१. राधा,
२. रासेश्वरी, ३. रम्या, ४. कृष्णमन्त्राधिदेवता, ५. सर्वाद्या, ६. सर्ववन्द्या, ७. वृन्दावनविहारिणी, ८, वृन्दाराध्या, ९, रमा, १०. अशेषगोपीमण्डलपूजिता, ११, सत्या, १२. सत्यपरा,
१३. सत्यभामा, १४. श्रीकृष्णवल्लभा, १५, वृषभानुसुता, १६. गोपी,
१७. मूलप्रकृति, १८. ईश्वरी, १९. गान्धर्वा, २०, राधिका,
२१, आरम्या, २२.
रुक्मिणी, २३. परमेश्वरी, २४.
परात्परतरा, २५. पूर्णा, २६.
पूर्णचन्द्रनिभानना, २७, भुक्तिमुक्तिप्रदा,
२८. भवव्याधिविनाशिनी ॥ इन [अट्ठाईस] नामों का जो पाठ करता है,
वह जीवन्मुक्त हो जाता है — ऐसा भगवान्
श्रीब्रह्माजी ने कहा है । [यह तो आह्लादिनी शक्ति का वर्णन हुआ।]
संधिनी तु
धामभूषणशय्यासनादिमित्रभृत्यादिरूपेण परिणता
मृत्युलोकावतरणकाले मातृपितृरूपेण
चासीदित्यनेकावतारकारणा ।
इनकी संधिनी शक्ति (श्रीवृन्दावन
धाम,
भूषण, शय्या तथा आसन आदि एवं मित्रसेवक आदि के
रूप में परिणत होती है और इस मर्त्यलोक में अवतार लेने के समय वही माता-पिता के
रूप में प्रकट होती है । यही अनेक अवतारों की कारणभूता है ।
ज्ञानशक्तिस्तु क्षेत्रज्ञशक्तिरिति
।
ज्ञान शक्ति ही क्षेत्रज्ञशक्ति है
।
इच्छान्तर्भूता माया
सत्त्वरजस्तमोमयी बहिरङ्गा जगत्कारणभूता सैवाविद्यारूपेण जीवबन्धनभूता ।
इच्छा शक्ति के अन्तर्भूत माया है ।
यह सत्त्व रज-तमोमयी है और बहिरंगा है, यही
जगत् की कारणभूता है । यही अविद्यारूप से जीव के बन्धन में हेतु हैं ।
क्रियाशक्तिस्तु लीलाशक्तिरिति ।
क्रियाशक्ति ही लीलाशक्ति है ।
य इमामुपनिषदमधीते सोऽव्रती व्रती
भवति,
स
वायुपूतो भवति, स सर्वपूतो भवति,
राधाकृष्णप्रियो भवति,
स यावच्चक्षुः पातं पङ्क्तीः पुनाति ॐ तत्सत् ॥”
जो इस उपनिषद् को पढ़ता है,
वह अव्रती भी व्रती हो जाता है । वह वायु की भाँति पवित्र एवं वायु
की भाँति पवित्र करनेवाला तथा सब ओर पवित्र एवं सबको पवित्र करनेवाला हो जाता है ।
वह श्रीराधा-कृष्ण को प्रिय होता है और जहाँ तक उसकी दृष्टि पड़ती है, वहाँ तकं सबको पवित्र कर देता है । ॐ तत्सत् ॥
॥ इति ऋग्वेदीया श्रीराधोपनिषत् ॥
॥ इस प्रकार ऋग्वेदीय श्रीराधोपनिषत् समाप्त हुआ ॥
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