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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अग्निपुराण अध्याय २४७
अग्निपुराण
अध्याय २४७ में गृह के योग्य भूमि; चतुःषष्टिपद वास्तुमण्डल और वृक्षारोपण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २४७
अग्निपुराणम् सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 247
अग्निपुराण दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः
२४७
अग्निपुराणम् अध्यायः २४७– वास्तुलक्षणम्
अथ सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
वास्तुलक्ष्म
प्रवक्ष्यामि विप्रादीनां च भूरिह ।
श्वेता रक्ता
तथा पीता कृष्णा चैव यथाक्रमम् ।। १ ।।
घृतरक्तान्नमद्यानां
गन्धाढ्या वसतश्च च भूः ।
मधुरा च कषाया
च अम्लाद्युपरसा क्रमात् ।। २ ।।
कुशैः
शरैस्तथाकाशैर्दूर्वाभिर्या च संश्रिता ।
प्रार्च्य
विप्रांश्च निःशल्पां खातपूर्वन्तु कल्पयेत् ।। ३ ।।
अग्निदेव कहते
हैं - वसिष्ठ ! अब मैं वास्तु के लक्षणों का वर्णन करता हूँ। वास्तुशास्त्र में
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्रों के लिये क्रमशः श्वेत, रक्त, पीत
एवं काले रंग की भूमि निवास करनेयोग्य है। जिस भूमि में घृत के समान गन्ध हो वह
ब्राह्मणों के, रक्त के समान गन्ध हो वह क्षत्रियों के,
अन्न की-सी गन्ध हो वह वैश्यों के और मद्यतुल्य गन्ध हो वह शूद्रों के
वास करनेयोग्य मानी गयी है। इसी प्रकार रस में ब्राह्मण आदि के लिये क्रमशः मधुर,कषाय और अम्ल आदि स्वाद से युक्त भूमि होनी चाहिये। चारों वर्णों को
क्रमशः कुश, सरपत, कास तथा दूर्वा से
संयुक्त भूमि में घर बनाना चाहिये। पहले ब्राह्मणों का पूजन करके शल्यरहित
भूमि में खात (कुण्ड) बनावे ॥ १-३ ॥
चतुःषष्टिपदं
कृत्वा मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः ।
प्राक् तेषां
वै गृहस्वामी कथितस्तु तथार्य्यमा ।। ४ ।।
दक्षिणेन
विवस्वांश्च मित्रः पश्चिमतस्तथा ।
उदङ्महीधरश्चैव
आपवत्सौ च वह्विगे ।। ५ ।।
सावित्रश्चैव
सविता जयेन्द्रौ नैर्ऋतेऽम्बुधौ ।
रुद्रव्याधी च
वायव्ये पूर्व्वादौ कोणगाद्वहिः ।। ६ ।।
महेन्द्रश्च
रविः सत्यो भृशः पूर्व्वेऽथ दक्षिणे।
गृहक्षतोऽर्यमधृती
गन्धर्वाश्चाथ वारुणे ।। ७ ।।
पुष्पदन्तोऽसुराश्चैव
वरुणो यक्ष एव च ।
सौमेये
भल्लाटसोमौ च अदितिर्धनदस्तथा ।। ८ ।।
नागः
करग्रहश्चैशे अष्टौ दिशि दिशि स्मृताः ।
आदायन्तौ तु
तयोर्देवौ प्रोक्तावत्र गृहेश्वरौ ।। ९ ।
फिर चौंसठ
पदों से समन्वित वास्तुमण्डल का निर्माण करे। उसके मध्यभाग में चार पदों में
ब्रह्मा की स्थापना करे। उन चारों पदों के पूर्व में गृहस्वामी 'अर्यमा' बतलाये गये
हैं। दक्षिण में विवस्वान्, पश्चिम में मित्र और उत्तर दिशा में
महीधर को अङ्कित करे। ईशानकोण में आप तथा आपवत्स को, अग्निकोण
में सावित्र एवं सविता को, पश्चिम के समीपवर्ती नैर्ऋत्यकोण में
जय और इन्द्र को और वायव्यकोण में रुद्र तथा व्याधि को लिखे। पूर्व आदि दिशाओं में
कोणवर्ती देवताओं से पृथक् निम्नाङ्कित देवताओं का लेखन करे- पूर्व में महेन्द्र,
रवि, सत्य तथा भृश आदि को दक्षिण में गृहक्षत, यम, भृङ्ग तथा गन्धर्व आदि को पश्चिम में पुष्पदन्त,
असुर, वरुण और पापयक्ष्मा आदि को उत्तर दिशा में
भल्लाट, सोम, अदिति एवं धनद को तथा
ईशानकोण में नाग और करग्रह को अङ्कित करे। प्रत्येक दिशा के आठ देवता माने गये
हैं। उनमें प्रथम और अन्तिम देवता वास्तुमण्डल के गृहस्वामी कहे गये हैं॥ ४ - ९॥
पर्ज्यन्यः
प्रथमो देवो द्वितीयश्च करग्रहः ।
महेन्द्ररविसत्याश्च
भृशोऽथ गगन्न्तथा ।। १० ।।
पवनः
पूर्व्वतश्चैव अन्तरीक्षघनेस्वरौ।
आग्नेये चाथ
नैर्ऋत्ये मृगसुग्रीवकौ सुरौ ।। १० ।।
रोगो मुख्यश्च
वायव्ये दक्षिणे पुष्पवित्तदौ ।
गृहक्षतो
यसभृशौ गन्धर्वो नागपैतृकः ।। १२ ।।
आप्ये
दौवारिकसुग्रीवौ पुष्पदन्तोऽसुरो जलं ।
यक्ष्मा
रोगश्च शोषश्च उत्तरे नागराजकः । १३ ।।
मुख्यो
भल्लाटशशिनौ अदितिश्च कुवेरकः ।
नागो हुताशः
श्रेष्ठो वै शक्रसूर्य्यौ च पूर्वतः ।। १४ ।।
दक्षे
गृहक्षतः पुष्प आप्ये सुग्रीव उत्तमः ।
पुष्पदन्तो
ह्युदग्द्वारि भल्लाटः पुष्पदन्तकः ।। १५ ।।
पूर्व दिशा के
प्रथम देवता पर्जन्य हैं, दूसरे करग्रह ( जयन्त), महेन्द्र, रवि, सत्य, भृश, गगन तथा पवन हैं। कुछ लोग आग्नेयकोण में गगन एवं पवन के स्थान पर
अन्तरिक्ष और अग्रि को मानते हैं। नैर्ऋत्यकोण में मृग और सुग्रीव-इन दोनों
देवताओं को, वायव्यकोण में रोग एवं मुख्य को, दक्षिण में पूषा, वितथ, गृहक्षत,
यम, भृङ्ग, गन्धर्व,
मृग एवं पितर को स्थापित करे। वास्तुमण्डल के पश्चिम भाग में
दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, असुर, वरुण, पापयक्ष्मा और शेष
स्थित हैं। उत्तर दिशा में नागराज, मुख्य, भल्लाट, सोम, अदिति, कुबेर, नाग और अग्नि (करग्रह) सुशोभित होते हैं।
पूर्व दिशा में सूर्य और इन्द्र श्रेष्ठ हैं। दक्षिण दिशा में गृहक्षत पुण्यमय हैं,
पश्चिम दिशा में सुग्रीव उत्तम और उत्तर द्वार पर पुष्पदन्त
कल्याणप्रद है। भल्लाट को ही पुष्पदन्त कहा गया है ॥१०- १५ ॥
शिलेष्टकादिविन्यासं
मन्त्रैः प्रार्च्य सुरांश्चरेत् ।
नन्दे नन्दय
वासिष्ठे वसुभिः प्रजया सह ।। १६ ।।
जये
फार्गवदायादे प्रजानाञ्चयमावह ।
पूर्णेऽङ्गिरसदायादे
पूर्णकामं कुरुष्व मां ।। १७ ।।
भद्रे
काश्यपदायादे कुरु भद्रां मतिं मम ।
सर्ववीजसमायुक्ते
सर्वरत्नौषधैर्वृते ।। १८ ।।
रुचिरे नन्दने
नन्दे वासिष्ठे रम्यतामिह।
प्रजापतिसुते
देवि चतुरस्त्रे महीमये ।। १९ ।।
सुभगे सुव्रते
भद्रे गृहे काश्यपि रम्यतां ।
पूजिते
परमाचार्य्यैर्गन्धमाल्यैरलङ्कृते ।। २० ।।
भवभूतिकरे
देवि गृहे काश्यापि रम्यतां ।
अव्यह्ग्ये
चाक्षते पूर्णे मुनेरङ्गिरसः सुते ।। २१ ।।
इष्टके त्वं
प्रयच्छेष्टं प्रतिष्ठाङ्गारयाम्यहं ।
देशस्वामिपुरस्वामिगृहस्वामिपरिग्रहे
।। २२ ।।
मनुष्यधनहस्त्यश्वपशुवृद्धिकरी
भव ।
इन
वास्तुदेवताओं का मन्त्रों से पूजन करके आधारशिला का न्यास करे। तदनन्तर
निम्नाङ्कित मन्त्रों से नन्दा आदि देवियों का पूजन करे- वसिष्ठनन्दिनी नन्दे !
मुझे धन एवं पुत्र-पौत्रों से संयुक्त करके आनन्दित करो। भार्गवपुत्रि जये ! आपके
प्रजाभूत हमलोगों को विजय प्रदान करो। अङ्गिरसतनये पूर्णे! मेरी कामनाओं को पूर्ण
करो। कश्यपात्मजे भद्रे ! मुझे कल्याणमयी बुद्धि दो। वसिष्ठपुत्रि नन्दे ! सब
प्रकार के बीजों से युक्त एवं सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न इस मनोरम नन्दनवन में विहार
करो। प्रजापतिपुत्रि ! देवि भद्रे ! तुम उत्तम लक्षणों एवं श्रेष्ठ व्रत को धारण
करनेवाली हो; कश्यपनन्दिनि!
इस भूमिमय चतुष्कोणभवन में निवास करो। भार्गवतनये देवि! तुम सम्पूर्ण विश्व को
ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली हो; श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा पूजित
एवं गन्ध और मालाओं से अलंकृत मेरे गृह में निवास करो। अङ्गिरा ऋषि की पुत्रि
पूर्णे! तुम भी सम्पूर्ण अङ्गों से युक्त तथा क्षतिरहित मेरे घर में रमण करो।
इष्टके! मैं गृहप्रतिष्ठा करा रहा हूँ, तुम मुझे अभिलषित भोग प्रदान करो।
देशस्वामी, नगरस्वामी और गृहस्वामी के संचय में मनुष्य,
धन, हाथी-घोड़े और पशुओं की वृद्धि करो'
॥ १६-२२अ ॥
गृहव्रवेशेऽपि
तथा शिलान्यासं समाचरेत् ।। २३ ।।
उत्तरेण शुभः
प्लक्षो वचः प्राक् स्याद् गृहादितः ।
उदुम्वरश्च
याम्येन पश्चिमेऽश्वत्थ उत्तमः ।। २४ ।।
वामभागे
तथोद्यानं कुर्य्याद्वासं गृहे शुभं ।
सायं
प्रातस्तु धर्माप्तौ शीतकाले दिनान्तरे ।। २५ ।।
वर्षारात्रे
भुवः शोषे सेक्तव्या रोपितद्रुमाः ।
विड़ङ्गघृतसंयुक्तान्
सेचयेच्छीतवारिणा ।। २६ ।।
फलनाशे
कुलत्थैश्च माषैर्मुद्गैस्तिलैर्यवैः ।
घृतशीतपयःसेकः
फलपुष्पाय सर्वदा ।। २७ ।।
मत्स्याम्भसा
तु सेकेन वृद्धिर्भवति शाखिनः ।
आविकाजशकृच्चूर्णं
यवचूर्णं तिलानि च ।। २८ ।।
गोमांसमुदकञ्चेति
सप्तरात्रं निधापयेत् ।
उत्सेकं
सर्ववृक्षाणां फलपुष्पादिवृद्धिदं ।। २९ ।।
मत्स्योदकेन
शीतेन आम्राणां सेक इष्यते ।
प्रशस्तं
चाप्यशोकानां कामिनीपादताडनं ।। ३० ।।
खर्जूरनारिकेलादेर्लवणाद्भिर्विवर्द्धनं
।
विडङ्गमत्स्यमांसाद्भिः
सर्वेषां दोहदं शुभं ।। ३१ ।।
गृहप्रवेश के
समय भी इसी प्रकार शिलान्यास करना चाहिये। घर के उत्तर में प्लक्ष (पाकड़)
तथा पूर्व में वटवृक्ष शुभ होता है। दक्षिण में गूलर और पश्चिम में पीपल का वृक्ष
उत्तम माना जाता है। घर के वामपार्श्व में उद्यान बनावे। ऐसे घर में निवास करना
शुभ होता है। लगाये हुए वृक्षों को ग्रीष्मकाल में प्रातः सायं शीतऋतु मध्याह्न के
समय तथा वर्षाकाल में भूमि के सूख जाने पर सींचना चाहिये। वृक्षों को बायविडंग और
घृतमिश्रित शीतल जल से सींचे। जिन वृक्षों के फल लगने बंद हो गये हों, उनको कुलथी, उड़द,
मूंग, तिल और जौ मिले हुए जल से सींचना
चाहिये। घृतयुक्त शीतल दुग्ध के सेचन से वृक्ष सदा फल-पुष्प से युक्त रहते हैं।
मत्स्यवाले जल के सेचन से वृक्षों की वृद्धि होती है। भेड़ और बकरी की लेंड़ी का
चूर्ण, जौका चूर्ण, तिल, अन्य गोबर आदि खाद एवं जल - इन सबको सात दिन तक ढककर रखे। इसका सेचन सभी
प्रकार के वृक्षों के फल-पुष्प आदि की वृद्धि करनेवाला है। आम्रवृक्षों का शीतल जल
से सेचन उत्तम माना गया है। अशोक वृक्ष के विकास के लिये कामिनियों के चरण का
प्रहार प्रशस्त है। खजूर और नारियल आदि वृक्ष लवणयुक्त जल से वृद्धि को प्राप्त
होते हैं। बायविडंग तथा जल के द्वारा सेचन सभी वृक्षों के लिये उत्तम दोहद है । २३
- ३१ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये वास्त्वादिर्नाम सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि
आग्रेय महापुराण में 'वास्तुलक्षण-कथन' नामक दो सौ सैंतालीसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २४७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 248
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