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गणेशगीता अध्याय ३

गणेशगीता अध्याय ३ 

गणेशगीता के अध्याय १ में साङ्ख्ययोग तथा अध्याय २ कर्मयोग को कहा गया है और अब अध्याय ३ में विज्ञानप्रतिपादन को बतलाया गया है।

गणेशगीता अध्याय ३

गणेशगीता तीसरा अध्याय

Ganesh geeta chapter 3

गणेश गीता अध्याय ३  

गणेशगीता

गणेशगीता तृतीयोऽध्यायः ज्ञानयोगः

॥ श्रीगणेशगीता ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

॥ ज्ञानयोगः ॥

श्रीगजानन उवाच

पुरा सर्गादिसमये त्रैगुण्यं त्रितनूरुहम् ।

निर्माय चैनमवदं विष्णवे योगमुत्तमम् ॥१ ॥

श्रीगणेशजी बोले- पूर्वकाल में सृष्टि उत्पन्न करने के समय तीन गुणों से युक्त तीन शरीर में रहनेवाले उत्तम योग का निर्माण करके मैंने विष्णु से इसका वर्णन किया था ॥ १ ॥

अर्यम्णे सोऽब्रवीत्सोऽपि मनवे निजसूनवे ।

ततः परम्परायातं विदुरेनं महर्षयः ॥२ ॥

विष्णु ने यही योग सूर्य से कहा । सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा। इसके उपरान्त परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को महर्षिगण जानते रहे ॥ २ ॥

कालेन बहुना चायं नष्टः स्याच्चरमे युगे ।

अश्रद्धेयो ह्यविश्वास्यो विगीतव्यश्च भूमिप ॥३ ॥

हे राजन् ! कलियुग में यह बहुत काल बीत जाने से नष्ट हो गया तथा इसे श्रद्धा- विश्वास के अयोग्य तथा निन्दनीय समझा गया ॥ ३ ॥

एवं पुरातनं योगं श्रुतवानसि मन्मुखात् ।

गुह्याद्गुह्यतरं वेदरहस्यं परमं शुभम् ॥४ ॥

अब फिर तुमने मेरे मुख से इस पुरातन योग को सुना है, यह गुप्त- से- गुप्त, अत्यन्त कल्याणकारक और सम्पूर्ण वेदों का सार है ॥ ४ ॥

वरेण्य उवाच

सांप्रतं चावतीर्णोऽसि गर्भतस्त्वं गजानन ।

प्रोक्तवान्कथमेतं त्वं विष्णवे योगमुत्तमम् ॥५ ॥

राजा वरेण्य बोले- हे गजानन ! आप तो इस समय गर्भ से उत्पन्न हुए हैं, फिर आपने विष्णु से यह उत्तम योग किस प्रकार से वर्णन किया ? ॥ ५ ॥

गणेश उवाच

अनेकानि च ते जन्मान्यतीतानि ममापि च ।

संस्मरे तानि सर्वाणि न स्मृतिस्तव वर्तते ॥६ ॥

गणेशजी बोले - [ हे राजन्!] मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत चुके हैं, मैं उन सबको जानता हूँ, परंतु तुम नहीं जानते ॥ ६ ॥

मत्त एव महाबाहो जाता विष्ण्वादयः सुराः ।

मय्येव च लयं यान्ति प्रलयेषु युगे युगे ॥७ ॥

हे महाबाहो ! मुझसे ही विष्णु आदि देवता उत्पन्न हुए हैं और युग-युग में प्रलय के समय मुझमें ही लय हो जाते हैं ॥ ७ ॥

अहमेव परो ब्रह्म महारुद्रोऽहमेव च  ।

अहमेव जगत्सर्वं स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥८ ॥

मैं ही श्रेष्ठ ब्रह्मा हूँ, मैं ही महारुद्र हूँ, मैं ही स्थावर-जंगमरूप सम्पूर्ण जगत् हूँ ॥ ८ ॥

अजोऽव्ययोऽहं भूतात्माऽनादिरीश्वर एव च ।

आस्थाय त्रिगुणां मायां भवामि बहुयोनिषु ॥९ ॥

मैं अजन्मा, अविनाशी तथा सभी जीवों का आत्मा अनादि ईश्वर हूँ और त्रिगुणात्मक माया में स्थित होकर मैं ही अनेक अवतार धारण करता हूँ ॥ ९ ॥

अधर्मोपचयो धर्मापचयो हि यदा भवेत् ।

साधून्संरक्षितुं दुष्टांस्ताडितुं संभवाम्यहम् ॥१० ॥

जिस समय अधर्म की वृद्धि और धर्म की हानि होती है, उस समय साधुओं की रक्षा और दुष्टों को मारने के लिये मैं अवतार लेता हूँ ॥ १० ॥

उच्छिद्याधर्मनिचयं धर्मं संस्थापयामि च ।

हन्मि दुष्टांश्च दैत्यांश्च नानालीलाकरो मुदा ॥११ ॥

मैं अधर्म समूह को नष्टकर धर्म का स्थापन करता हूँ और अनेक प्रकार की लीलाकर आनन्द से दुष्टों तथा दैत्यों का वध करता हूँ ॥ ११ ॥

वर्णाश्रमान्मुनीन्साधून्पालये बहुरूपधृक् ।

एवं यो वेत्ति संभूतिर्मम दिव्या युगे युगे ॥१२ ॥

तत्तत्कर्म च वीर्यं च मम रूपं समासतः ।

त्यक्ताहंममताबुद्धिं न पुनर्भूः स जायते ॥१३ ॥

अनेक रूप धारणकर मैं वर्ण, आश्रम, मुनि और साधुओं का पालन करता हूँ, इस प्रकार से जो युग-युग में मेरी दिव्य विभूति को, मेरे कर्म, वीर्य और रूप को जानता है तथा अहंकार और ममताबुद्धि का त्याग कर देता है, वह मुक्त हो जाता है ॥ १२-१३ ॥

निरीहा निर्भियोरोषा मत्परा मद्व्यपाश्रयाः ।

विज्ञानतपसा शुद्धा अनेके मामुपागताः ॥१४ ॥

इच्छारहित, निर्भय, क्रोधहीन, मुझमें ही आश्रित, मेरी ही उपासना करनेवाले विज्ञान और तपस्या से शुद्ध होकर अनेक प्राणी मुझको प्राप्त हो गये हैं ॥ १४ ॥

येन येन हि भावेन संसेवन्ते नरोत्तमाः ।

तथा तथा फलं तेभ्यः प्रयच्छाम्यव्ययः स्फुटम् ॥१५ ॥

श्रेष्ठजन जिस-जिस भाव से मेरा सेवन करते हैं, मैं अविनश्वर उनको वैसा फल निश्चय ही देता हूँ ॥ १५ ॥

जनाः स्युरितरे राजन्मम मार्गानुयायिनः ।

तथैव व्यवहारं ते स्वेषु चान्येषु कुर्वते ॥१६ ॥

हे राजन् ! जिस प्रकार से दूसरे लोग भी मेरे अनुयायी हो जायँ, इसी प्रकार का व्यवहार वे अपने तथा दूसरे मनुष्यों में करते हैं ॥ १६ ॥

कुर्वन्ति देवताप्रीतिं काङ्क्षन्तः कर्मणां फलम् ।

प्राप्नुबंतीह ते लोके शीघ्रं सिद्धिं हि कर्मजाम् ॥१७ ॥

जो कर्मों के फल प्राप्त होने की इच्छा से देवोपासना करते हैं, उन-उन कर्मों के अनुसार उनको शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है ॥ १७ ॥

चत्वारो हि मया वर्णा रजःसत्त्वतमोंऽशतः ।

कर्मांशतश्च संसृष्टा मृत्युलोके मयानघ ॥१८ ॥

हे पापरहित ! मृत्युलोक में मैंने चारों वर्णों को सत्त्व, रज, तम- इन गुणों से और कर्मों के अंश से उत्पन्न किया है ॥ १८ ॥

कर्तारमपि तेषां मामकर्तारं विदुर्बुधाः ।

अनादिमीश्वरं नित्यमलिप्तं कर्मजैर्गुणैः ॥१९ ॥

यद्यपि मैं इनका कर्ता हूँ, परंतु पण्डितजन मुझे अकर्ता जानते हैं। वे मुझे अनादि, ईश्वर, नित्य और कर्मों के गुणों से अलिप्त मानते हैं ॥ १९ ॥

निरीहं योऽभिजानाति कर्म बध्नाति नैव तम् ।

चक्रुः कर्माणि बुद्ध्यैवं पूर्वं पूर्वं मुमुक्षवः ॥२० ॥

जो मुझे इच्छारहित जानता है, उसको कर्मबन्धन नहीं होता । ऐसा जानकर पूर्व में मुमुक्षुजन कर्म करते थे॥२०॥

वासनासहितादाद्यात्संसारकारणाद्दृढात् ।

अज्ञानबन्धनाज्जन्तुर्बुद्ध्वायं मुच्यतेऽखिलात् ॥२१ ॥

वासना जो कि संसार का मूल और दृढ़ कारण है, और वही अज्ञान का बन्धन है, इसे जानकर प्राणी सबसे मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥

तदकर्म च कर्मापि कथयाम्यधुना तव ।

यत्र मौनं गता मोहादृषयो बुद्धिशालिनः ॥२२ ॥

क्या कर्म और क्या अकर्म है, यह मैं अब तुमसे कहता हूँ । इसके जानने में बुद्धिमान् ऋषिगण भी मोह को प्राप्त होकर मौन रह गये हैं ॥ २२॥

तत्त्वं मुमुक्षुणा ज्ञेयं कर्माकर्मविकर्मणाम् ।

त्रिविधानीह कर्माणि सुनिम्नैषां गतिः प्रिय ॥२३ ॥

हे प्रिय ! कर्म, अकर्म और विकर्म का तत्त्व मुक्ति की इच्छा करनेवालों को जानना आवश्यक है, वे तीनों ही कर्म हैं। इनकी गति जानना महाकठिन है ॥ २३ ॥

क्रियायामक्रियाज्ञानमक्रियायां क्रियामतिः ।

यस्य स्यात्स हि मर्त्येऽस्मिँल्लोके मुक्तोऽखिलार्थकृत् ॥२४ ॥

क्रिया में अक्रिया का ज्ञान और अक्रिया में क्रिया की बुद्धि जिसकी होती है, वही इस लोक में सभी कर्मों का करनेवाला होकर भी मुक्त हो जाता है ॥ २४ ॥

कर्मांकुरवियोगेन यः कर्माण्यारभेन्नरः ।

तत्त्वदर्शननिर्दग्धक्रियमाहुर्बुधा बुधम् ॥२५ ॥

जो कर्मों के अंकुर से रहित अर्थात् संकल्प और कामनारहित कर्म करते हैं, तत्त्व के जानने से उस बुद्धिमान्‌ की सारी क्रियाएँ दग्ध हो जाती हैं, ऐसा पण्डितजन कहते हैं ॥ २५ ॥

फलतृष्णां विहाय स्यात्सदा तृप्तो विसाधनः ।

उद्युक्तोऽपि क्रियां कर्तुं किंचिन्नैव करोति सः ॥२६ ॥

जो फल की इच्छा को छोड़कर साधनहीन होकर भी सदा तृप्त रहते हैं। यदि वे कर्म करने में लगे हों तो भी वे कुछ नहीं करते हैं ॥ २६ ॥

निरीहो निगृहीतात्मा परित्यक्तपरिग्रहः ।

केवलं वै गृहं कर्माचरन्नायाति पातकम् ॥२७ ॥

जो इच्छारहित, आत्मजित् एवं सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग किये हैं, ऐसे प्राणी यदि घर में रहकर कर्म भी करें तो उन्हें कुछ पातक नहीं लगता ॥ २७ ॥

अद्वन्द्वोऽमत्सरो भूत्वा सिद्ध्यसिद्ध्योः समश्च यः ।

यथाप्राप्त्येह संतुष्टः कुर्वन्कर्म न बद्ध्यते ॥२८ ॥

जो द्वन्द्व और ईर्ष्याहीन होकर सिद्धि-असिद्धि में समान दृष्टि रखते हुए जो कुछ प्राप्ति हो, उसी में सन्तुष्ट रहते हैं, ऐसे प्राणी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होते ॥ २८ ॥

अखिलैर्विषयैर्मुक्तो ज्ञानविज्ञानवानपि ।

यज्ञार्थं तस्य सकलं कृतं कर्म विलीयते ॥२९ ॥

सम्पूर्ण विषयों से मुक्त और ज्ञान-विज्ञानयुक्त प्राणी के सारे कर्म यज्ञ ही हैं और उसकी सारी क्रियाएँ विलीन हो जाती हैं ॥ २९ ॥

अहमग्निर्हविर्होता हुतं यन्मयि चार्पितम् ।

ब्रह्माप्तव्यं च तेनाथ ब्रह्मण्येव यतो रतः ॥३० ॥

अग्नि, होम का द्रव्य, हवन करनेवाले और जो आहुति मुझे अर्पण की जाती है वह, सब मैं ही हूँ। इसे ब्रह्मस्वरूप से देखकर जो हवन करता है, वह ब्रह्म को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह ब्रह्म में ही लगा है ॥ ३० ॥

योगिनः केचिदपरे दिष्टं यज्ञं वदन्ति च ।

ब्रह्माग्निरेव यज्ञो वै इति केचन मेनिरे ॥३१ ॥

कोई योगी देवयजन को यज्ञ कहते हैं, दूसरे ब्रह्मरूप अग्नि में करनेको यज्ञ मानते हैं ॥ ३१ ॥

संयमाग्नौ परे भूप इन्द्रियाण्युपजुह्वति ।

खाग्निष्वन्ये तद्विषयांश्छब्दादीनुपजुह्वति ॥३२ ॥

हे राजन् ! कोई योगी संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं, कोई इन्द्रियरूपी अग्नि में शब्दादि विषयों की आहुति देते हैं ॥ ३२ ॥

प्राणानामिन्द्रियाणां च परे कर्माणि कृत्स्नशः ।

निजात्मरतिरूपेऽग्नौ ज्ञानदीप्ते प्रजुह्वति ॥३३ ॥

कोई दूसरे ज्ञान में जलती हुई वैराग्यरूपी अग्नि में सम्पूर्ण इन्द्रिय, कर्म और प्राणों का हवन करते हैं ॥ ३३ ॥

द्रव्येण तपसा वापि स्वाध्यायेनापि केचन ।

तीव्रव्रतेन यतिनो ज्ञानेनापि यजन्ति माम् ॥३४ ॥

कोई द्रव्ययज्ञ का अनुष्ठान कर, कोई तपस्या से, कोई स्वाध्याय से, कोई महात्मा तीव्र व्रत से और कोई ज्ञान से मेरा यजन करते हैं ॥ ३४ ॥

प्राणेऽपानं तथा प्राणमपाने प्रक्षिपन्ति ये ।

रुद्ध्वा गतीश्चोभयस्ते प्राणायामपरायणाः ॥३५ ॥

जो पूरक से प्राणवायु में अपान को और रेचक से प्राण का अपान में हवन करते हैं और कुम्भक के अनुष्ठान से प्राणापान की गति को रोक लेते हैं, वे प्राणायाम में परायण होते हैं ॥ ३५ ॥

जित्वा प्राणान्प्राणगतीरुपजुह्वति तेषु च ।

एवं नानायज्ञरता यज्ञध्वंसितपातकाः ॥३६ ॥

नित्यं ब्रह्म प्रयान्त्येते यज्ञशिष्टामृताशिनः ।

अयज्ञकारिणो लोको नायमन्यः कुतो भवेत् ॥३७ ॥

दूसरे नियताहार होकर पाँचों प्राणों में पाँचों प्राणों की आहुति देते हैं, इस प्रकार अनेक प्रकार के यज्ञों में निरत योगी यज्ञ द्वारा पापों का नाश करते हैं। अन्य दूसरे नित्य ही यज्ञ से बचे अमृत पदार्थ का भोजनकर नित्य ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवालों को तो यह लोक भी नहीं मिलता, परलोक कहाँ मिलेगा ? ॥ ३६-३७ ॥

कायिकादित्रिधाभूतान्यज्ञान्वेदे प्रतिष्ठितान् ।

ज्ञात्वा तानखिलान्भूप मोक्ष्यसेऽखिलबन्धनात् ॥३८ ॥

हे राजन्! वेदों में मन, वचन, कर्म के बहुत प्रकार के यज्ञ वर्णित हैं, उन्हें पूर्णतया जानकर तुम सारे बन्धनों से मुक्त हो जाओगे ॥ ३८ ॥

सर्वेषां भूप यज्ञानां ज्ञानयज्ञः परो मतः ।

अखिलं लीयते कर्म ज्ञाने मोक्षस्य साधने ॥३९ ॥

हे राजन् ! सब यज्ञों में ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। मोक्षसाधक ज्ञानयज्ञ में सब कर्म क्षीण हो जाते हैं ॥ ३९ ॥

तज्ज्ञेयं पुरुषव्याघ्र प्रश्नेन नतितः सताम् ।

शुश्रूषया वदिष्यन्ति संतस्तत्त्वविशारदाः ॥४० ॥

हे पुरुषश्रेष्ठ! उस ज्ञानयज्ञ को सत्पुरुषों की सेवा और प्रश्न से प्राप्त करो। तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानीजन तुम्हें शुश्रूषा से उसको कहेंगे ॥ ४० ॥

नानासंगाञ्जनः कुर्वन्नैकं साधुसमागमम् ।

करोति तेन संसारे बन्धनं समुपैति सः ॥४१ ॥

जो मनुष्य अनेक प्रकार की संगति करता है, पर किसी साधु की संगति नहीं करता, वह संसार में बन्धन को प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥

सत्संगाद्गुणसंभूतिरापदां लय एव च ।

स्वहितं प्राप्यते सर्वैरिह लोके परत्र च ॥४२ ॥

सत्संग से गुणों की प्राप्ति और आपदा का नाश होता है तथा लोक और परलोक में अपना कल्याण प्राप्त होता है ॥ ४२ ॥

इतरत्सुलभं राजन्सत्संगोऽतीव दुर्लभः ।

यज्ज्ञात्वा पुनर्वेधमेति ज्ञेयं ततस्ततः ॥४३ ॥

हे राजन् ! अन्य सब तो सुलभ है, परंतु सत्संग बड़ा दुर्लभ है। जिसके जानने से फिर संसार के बन्धन में नहीं आना होता, उसे जानना आवश्यक है ॥ ४३ ॥

ततः सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येवाभिपश्यति ।

अतिपापरतो जंतुस्ततस्तस्मात्प्रमुच्यते ॥४४ ॥

सत्संग से ज्ञान मिलने पर यह सब प्राणियों को अपने में ही देखता है। इससे अतिपापी प्राणी भी मुक्त हो जाता है ॥४४॥

द्विविधान्यपि कर्माणि ज्ञानाग्निर्दहति क्षणात् ।

प्रसिद्धोऽग्निर्यथा सर्वं भस्मतां नयति क्षणात् ॥४५ ॥

जिस प्रकार से प्रचण्ड जलती अग्नि सबको क्षण में भस्म कर देती है, इसी प्रकार ज्ञानाग्नि में पाप-पुण्य दोनों प्रकार के कर्म सद्यः नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥

न ज्ञानसमतामेति पवित्रमितरन्नृप ।

आत्मन्येवावगच्छन्ति योगात्कालेन योगिनः ॥४६ ॥

हे राजन्! ज्ञान के समान और कोई वस्तु पवित्र नहीं है, योगसिद्ध महात्मा उस ज्ञान को यथासमय स्वयं ही प्राप्त करते हैं ॥ ४६ ॥

भक्तिमानिन्द्रियजयी तत्परो ज्ञानमाप्नुयात् ।

लब्ध्वा तत्परमं मोक्षं स्वल्पकालेन यात्यसौ ॥४७ ॥

इन्द्रियों को वश में करनेवाला भक्तिमान्, तत्पर पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त होने से थोड़े समय में ही वह मुक्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ ४७ ॥

भक्तिहीनोऽश्रद्दधानः सर्वत्र संशयी तु यः ।

तस्य शं नापि विज्ञानमिह लोकोऽथ वा परः ॥४८ ॥

जो भक्तिहीन, श्रद्धारहित और सर्वत्र संदिग्धचित्तवाला है, उसे कल्याण की प्राप्ति नहीं होती, न ज्ञान होता है तथा उसका इहलोक और परलोक नष्ट हो जाता है ॥ ४८ ॥

आत्मज्ञानरतं ज्ञाननाशिताखिलसंशयम् ।

योगास्ताखिलकर्माणं बध्नन्ति भूप तानि न ॥४९ ॥

हे राजन्! जो आत्मज्ञान में रत हैं, जिन्होंने ज्ञान से सभी सन्देह दूर कर लिये हैं तथा योग में स्थित होकर जिनके कर्म क्षीण हो गये हैं, वे बन्धनमें नहीं पड़ते ॥ ४९ ॥

ज्ञानखड्गप्रहारेण संभूतामज्ञतां बलात् ।

छित्वान्तःसंशयं तस्माद्योगयुक्तो भवेन्नरः ॥५० ॥

इस कारण ज्ञानरूपी खड्ग से मन के अज्ञान तथा संशय को बलपूर्वक काटकर मनुष्य को योग का आश्रय लेना उचित है ॥ ५० ॥

॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां ज्ञानयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 4

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