Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2024
(491)
-
▼
December
(38)
- भिक्षुगीता
- माहेश्वरतन्त्र पटल २
- अग्निपुराण अध्याय २४८
- अग्निपुराण अध्याय २४७
- अग्निपुराण अध्याय २४६
- तन्त्र
- अग्निपुराण अध्याय २४५
- गणेश गीता अध्याय ११
- गणेशगीता अध्याय १०
- गणेशगीता अध्याय ९
- गणेशगीता अध्याय ८
- गणेशगीता अध्याय ७
- गणेशगीता अध्याय ६
- माहेश्वरतन्त्र पटल १
- शिव स्तोत्र
- गणेशगीता अध्याय ५
- गणेशगीता अध्याय ४
- गणेशगीता अध्याय ३
- गणेशगीता अध्याय २
- गणेशगीता
- अग्निपुराण अध्याय २४४
- अग्निपुराण अध्याय २४३
- लक्ष्मी सूक्त
- संकष्टनामाष्टक
- नर्मदा स्तुति
- श्रीयमुनाष्टक
- यमुनाष्टक
- गंगा स्तुति
- गंगा दशहरा स्तोत्र
- मणिकर्णिकाष्टक
- गायत्री स्तुति
- काशी स्तुति
- श्रीराधा अष्टक
- शार्व शिव स्तोत्र
- रामगीता
- जीवन्मुक्त गीता
- गीता सार
- अग्निपुराण अध्याय ३८३
-
▼
December
(38)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
माहेश्वरतन्त्र पटल २
माहेश्वरतन्त्र के पटल २ में तत्त्व
चिन्तन की महिमा, विष्णु प्रोक्त अद्भुत रहस्य को बताने का शिव से आग्रह, शिव
द्वारा वैकुण्ठ की कथा का कथन, विष्णु द्वारा
ध्यान मग्न होना, लक्ष्मी द्वारा ध्येय तत्त्व की जिज्ञासा, सखियों
द्वारा प्रेयसी लक्ष्मी के ध्यान की बात कहना, भक्तों का
ध्यान करते हुए एक ही समय में प्रेयसी का ध्यान कैसे?, विष्णु
का स्वरूप कथन, ध्यान में ध्येय तत्त्व का लक्ष्मी जी का भगवान् विष्णु से प्रश्न,
विष्णु का अपने में ही विराट् रूप का कथन, विष्णु द्वारा लक्ष्मी के
ही ध्यान, लक्ष्मी द्वारा सन्देह, विष्णु द्वारा परम तत्त्व
के गोपन का कथन, लक्ष्मीजी का क्रोधाविष्ट होना का वर्णन है
।
माहेश्वरतन्त्र पटल २
Maheshvar tantra Patal 2
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल २
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र द्वितीय पटल
अथ द्वितीयं पटलम्
श्री पार्वत्युवाच
भगवन् देव देवेश लोकनाथ जगत्प्रभो ।
धन्यास्म्यनुगृहीतास्मि सकलं जीवितं
मम ॥ १॥
श्री पार्वती ने कहा- हे भगवन्,
हे देवों के देव हे ईश्वर, हे लोकनाथ, हे जगत् के स्वामिन्, मैं धन्य हूँ, मैं अनुगृहीत हूँ, मेरा जीवन सफल हुआ ॥ १॥
वाक्यपीयूषवर्षेण शीतलीकृतमानसा ।
न जानामि परं
श्रेयस्तत्वज्ञानकथादृते ॥ २ ॥
आपके वाक्य रूपी अमृत की वर्षा से
मेरा मानस शीतल हो गया। मैं कथा को छोड़कर कल्याणकारक तत्वज्ञान को नहीं जानती ॥२॥
किमायुषा च दीर्घेण पाषाणस्येव
दुर्मतेः ।
क्षणं वे यस्य नो लग्नं चेतो वा
तत्त्वचिन्तने ॥ ३ ॥
उस दीर्घ जीवन से क्या लाभ जिसका
पाषाण की तरह दुर्मति युक्त चित्त क्षणमात्र भी तत्व चिन्तन में न लगा ?
॥ ३ ॥
यज्ञदानतपस्तीर्थव्रतानि नियमा यमाः
।
न तुलामभिगच्छन्ति स्वात्मतत्वै
कचिन्तया ॥ ४ ॥
यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, नियम और यम आदि मात्र आत्म तत्त्व के चिन्तन के
साथ नहीं तोले जा सकते ।। ४ ।।
आत्मतत्वैक शुद्धयर्था (र्थं)
यज्ञादीनामनुष्ठितिः ।
शुद्ध मनसि तत्वस्य स्फुरणं भवति
प्रिय ॥ ५ ॥
आत्म तत्व के शुद्धि के लिए ही यज्ञ
आदि का अनुष्ठान है। हे प्रिय ! शुद्ध मन में ही तत्व का स्फुरण होता है ।।५।।
तदेव यदि वा लब्धमनायासेन कुत्रचित्
।
दैवाद्वा गुरुतोषाद्वा साधनैर्वापि
शङ्कर ॥ ६ ॥
किन्तु तस्यावशिष्टं वा साधनं
स्वात्मदं परम् ।
तस्मान्महत्तरमिदं सर्वतस्तत्व
चिन्तनम् ॥ ७ ॥
यदि वह [ स्फुरण) अनायास कहीं
प्राप्त हो जाय, अथवा देव कृपा से या गुरु की
संतुष्टि से किंवा साधनों से भी प्राप्त हो जाय तो हे कल्याण करने वाले, उसके लिए अवशिष्ट ही क्या रहा अथवा उसे स्वात्मद श्रेष्ठ साधन से क्या लाभ?
अत:- सभी प्रकार से यह तत्व-चिन्तन ही सबसे बड़ा है ।। ६-७ ।।
श्रुतं मया महेशान पुनर्ब्रूहि यथातथम्
।
प्रष्टव्यं बहुधा भाति तथाप्येकं
वदेश्वर ।। ८ ।।
हे महेश,
यद्यपि मैने इसे सुना है फिर भी जैसा हो वैसा ही मुझसे पुनः कहें यह
बहुत प्रकार से प्रष्टव्य है किन्तु एक को ही हे ईश्वर मुझसे कहें ।। ८ ।।
क्रमयोगेन तच्चापि पुनः पृच्छे
कृपानिधे ।
पद्मायै हरिणा नोक्तं यद्रहस्यं
महाद्भुतम् ।
तदत्र संशयो जातो तद्भवान्
छेत्तुमर्हति ॥ ९ ॥
हे कृपानिधि ! पुनः क्रम से मैं वह
पूँछती हूँ कि लक्ष्मी से भी भगवान् विष्णु ने जिस महान एवं अद्भुत रहस्य को न कहा
हो। उसमें मुझे संशय उत्पन्न हुआ है। उसके भेदन में आप समर्थ हैं ।। ९ ।।
या लक्ष्मीः परमा शक्तिः नित्यं
तत्सहचारिणी ।
तत्प्राणवल्लभा साध्वी किं तया
पृष्ठमुत्तमम् ॥ १० ॥
जो लक्ष्मी परम शक्ति हैं और भगवान्
की सहचारिणी हैं, उनकी प्राणवल्लभा
एवं साध्वी हैं उनके द्वारा उत्तम ज्ञान क्या पूछा गया था ? ।।
१० ।।
किं रहस्यं किमध्यात्म्यं यन्नोक्तं
हरिणा स्वयम् ।
तदत्र ब्रूहि भगवन् प्रवक्तुं यदि
मन्यसे ॥। ११ ॥
वह कौन सा रहस्य है,
या कौन सा अध्यात्म है जो स्वयं भगवान् विष्णु उनसे नहीं कहा। उसे
हे भगवन्, यहाँ हमें बतावें यदि मुझे बताने के योग्य आप
समझते हों तो ।। ११ ।।
न मे त्वत्तः परं किञ्चित्
प्राणादप्यधिको भवान् ।
तथाप्यहं तवैवास्मि यन्मेर्द्ध वपुराहितम्
॥ १२ ॥
आपसे बढ़कर मेरे लिए कोई श्रेष्ठ
नहीं है और आप तो मुझे प्राण से भी अधिक प्रिय है इसलिए मैं आपकी ही हूँ क्योंकि
[अर्धनारीश्वर मूर्ति में ] मेरा अपना अर्ध भाग है ।। १२ ।।
न त्वया तद्रहः कार्यं तेन
गुप्तमिति प्रभो ।
इत्युक्त्वा
शिवपादाब्जप्रणताभूत्पुनः पुनः ॥ १३ ॥
हे प्रभो ! तुम्हें हमसे छिपाकर कोई
कार्य नहीं करना चाहिए। यह कहकर भगवान् शिव के चरण कमलों में वह बार-बार प्रणत हुई
॥ १३ ॥
शिव उवाच
अहो धन्यासि धन्यासि धन्यासि
भुवनत्रये ।
न त्वया सदृशीं पश्येत्प्रयसीं
प्राणवल्लभाम् ॥ १४ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- अहो धन्य हो,
धन्य हो, तीनों लोकों में तुम धन्य हो।
तुम्हारे समान प्राणों से प्रिय प्रेयसी को हमने नहीं देखा ।। १४ ।।
त्वद्वागमृत तृप्तोऽहं प्रजल्पामि
शृणुष्व तत् ।
एकदा खलु वैकुण्ठे
विष्णुरेकान्तसंस्थितः ।। १५ ।।
सन्नियम्येन्द्रियगणं मनसा
बुद्धिसारथिः ।
किञ्चिद्दध्यौ महातेजाः
प्रमोदभरनिर्वृतः ॥ १६ ॥
तुम्हारी वाणी रूपी अमृत से मैं
तृप्त हूँ । अब मैं जो कहता हूँ उसे सुनो- एक बार वैकुण्ठ में भगवान् विष्णु अकेले
बैठे थे। बुद्धि रूपी सारथी से मन और इन्द्रियों का नियमन कर प्रमोद पूरित हो उन
महान् तेज वाले ने कुछ ध्यान किया ।। १५-१६ ।।
गलद्वाष्पाम्बु पूर्णाक्षः पुलकाङ्कितविग्रहः
।
स्तिमितोद इवाम्भोधिः स्मृत्वा
लीलारसाम्बुधिम् ॥ १७ ॥
प्राणेन्द्रियमनश्चेष्टा निमग्ना
ध्यानवर्त्मनि ।
अन्तःप्रमोदभरितो बहि:
सम्वेदनाक्षमः ।। १८ ।।
अश्रुपूरित चक्षु से उनके आँसू नीचे
गिरने लगे । उनका शरीर पुलकित हो गया। आनन्द समुद्र के समान लीला रस रूप समुद्र को
स्मरण करके प्राणेन्द्रिय और मन की चेष्टा को ध्यान मार्ग में निमग्न करके अन्तः
करण में प्रमोद से पूरित होकर बाहरी संवेदन से रहित हो गए ।। १७-१८ ।।
केवलेन शरीरेण स्थित इत्यद्भुतं च
यत् ।
क्रीडन्ती सखिभिः सार्द्धं
तत्राभूद्भार्गवी हि सा ॥ १९ ॥
यह अद्भुत था कि मात्र शरीर से ही
वे स्थित थे । सखियों के साथ क्रीडा करती हुई लक्ष्मी जी वहीं थीं ।।१९।।
ध्यानवर्त्मनि संलीनप्राणेन्द्रियमनोमतिम्
।
प्रध्वस्तवाह्यविज्ञानं दृष्ट्वा
विस्मितमानसा ॥ २० ॥
प्राण,
इन्द्रिय, मन और बुद्धि सभी को ध्यानमार्ग में
सम्यक् रूप से तल्लीन और बाह्य विज्ञान को प्रकृष्ट रूप से ध्वस्त देखकर वह
अत्यन्त आश्चर्य चकित हुई ॥ २० ॥
कोऽसौ त्रिलोकगुरुणा ध्यायते
स्थिरचेतसा
न चास्मादपरं लोके ध्येयं पश्यामि
किञ्चन ॥ २१ ॥
त्रैलोक्य के स्वामी भी स्थिर चित्त
होकर किसका ध्यान कर रहे हैं। मेरे विचार से हमसे बढ़कर इस लोक में कोई अन्य ध्यान
करने योग्य नहीं है ॥ २१ ॥
ब्रह्मणो वापि रुद्रस्य कारणं दैवतं
च यः ।
यस्यावतारचरितं गायन्ते नारदादयः ॥
२२ ॥
ब्रह्मा और भगवान् रुद्र के भी जो [
विष्णु ] देव कारण हैं और जिसके चौबीसों अवतार के चरितों का गान नारद आदि
महर्षियों के द्वारा किया जाता है ।। २२ ।
यत्पदं प्राप्तुमिच्छन्तो
वानप्रस्थं यतिव्रतम् ।
चरन्ति ब्राह्मणाः शुद्धा
धृतविद्यातपोवृताः ॥ २३ ॥
वानप्रस्थ आश्रम के व्रती सन्यासी
भी जिसके धाम की प्राप्ति की इच्छा करते हैं। पवित्रात्मा धर्मं युक्त,
विद्या एवं तप से आवृत ब्राह्मण जन भी जिनका [ यज्ञ-यागादिक द्वारा
] यजन करते हैं ।। २३ ।।
न यत्समोऽन्यो लोकेऽस्मिन् ह्यधिकस्तु
कुतो भवेत् ।
यदुन्मेषाज्जगज्जातं यन्नमेषात्प्रलीयते
॥ २४ ॥
जिनके समान इस लोक में कोई भी नहीं
है तो उनसे अधिक कैसे होगा ? फिर जिसके पलक
के आक्षेप मात्र से ही जगत् की उत्पत्ति
होती है और पलक निक्षेप मात्र से ही प्रलय हो जाता है ।। २४ ।।
यस्मिन् चित्तं समाधाय योगिनो
ज्ञाननिर्मलम् ।
अविद्यां हृदयग्रन्थिमुन्मुञ्चन्ति
गतक्लमाः ।। २५ ।।
जिन विष्णु में चित समाहित करके
ज्ञान के प्रकाश से निर्मल योगीजन भी अज्ञान रूप हृदय की ग्रन्थि को बिना श्रम के
ही खोलते हैं ।। २५ ।।
यस्य चेतस्ययं देवो वर्त्ततेऽसौ
कृतार्थकः ।
सोऽयं हरिः परानन्दः कस्मिंश्चित्तं
दधात्यहो ॥ २६ ॥
जिसके चित्त में ये देव होते हैं वह
कृतार्थ हो जाता है । आनन्द की पराकाष्ठा वाले बही भगवान् विष्णु अपने चित्त में,
अहो ! किसका ध्यान कर रहे हैं ? ॥२६॥
इत्येवं सन्दिहाना सा सखीनां पुरतः
स्थिता ।
सस्मितं जगदे सख्या कयाचित्परया
मुदा ॥ २७ ॥
इस प्रकार सन्देह में पड़ी हुई
सखियों के सामने स्थिर लक्ष्मी से किसी सखी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसते हुए कहा
।। २७ ।।
सख्युवाच
अयं त्रिलोकेश गुरुः कमन्यं
ध्यातुमर्हति ।
देवासुरनरा नागा गन्धर्वाप्सरसां गणाः
॥ २८ ॥
सिद्धा योगेश्वरा रुद्रा आदित्या
वसवस्तथा ।
मरुद्गणाः सोमपाश्च पितरश्चापि
चारणाः ।। २९ ।।
यं पूजयन्ति सततं भक्तिप्रवणचेतसः ।
न तस्मात् त्रिषु लोकेषु ह्यस्य
पूज्यतमो भवेत् ॥ ३० ॥
सखी ने कहा- ये त्रैलोक्य के भी
स्वामी और किस दूसरे का ध्यान करेगें क्योंकि देव, असुर, मानवमात्र, नाग, गन्धर्व, अप्सराओं के समूह सिद्ध, योगेश्वर, रुद्र, आदित्यगण
[अष्ट] वसु, मरुद्गण और (इन्द्र, ऋभु
आदि) सोमपायी देव तथा पितर और चारण भी जिसका सतत भक्तिभाव से पूजन करते हैं। अतः
तीनों लोकों में श्रेष्ठ इनका पूजनीय कोई नहीं हो सकता ।। २८-३० ।।
त्वामेकां ध्यायते चित्ते प्रेयसीं
प्राणवल्लभाम् ।
प्रतिव्रतां पतिप्राणां प्राणनाथो
रहो गतः ॥ ३१ ॥
अपनी प्रेयसी एवं प्राणवल्लभा
तुम्हारा ही ध्यान कर रहे हैं । प्राणनाथ भगवान् हरि एकान्त स्थान में तुम
पतिव्रता एवं पति को ही प्राण समझने वाली का ही वह ध्यान कर रहे हैं ।। ३१ ।।
धन्यासि कृतकृत्यासि यत्त्वया
हरिरीश्वरः ।
शुद्धभावेन सततं सेवया च प्रसादितः
।। ३२ ।।
तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो जो कि सर्व समर्थ हरि भी तुम्हारी शुद्ध भाव से की गई सतत
सेवा से प्रसन्न हैं।।३२।।
क्षणं तद्विरहं सोढुमशक्तो
मिलितेक्षणः ।
रहः स्थितः स्वहृदये त्वन्मूतिं
ध्यायते हरिः ॥ ३३ ॥
क्षणभर भी तुम्हारा विरह सहने में
असमर्थ होकर निमीलित नेत्रों से एकान्त स्थान में वह त्रैलोक्यनाथ हरि अपने हृदय
में तुम्हारे विग्रह का ध्यान कर रहे हैं ।। ३३ ।।
तस्माद्धन्याः स्त्रियो लोके याः
पतिप्रेमभाजनम् ।
इति हासच्छलेनोक्ता मेने वितथमेव सा
।। ३४ ।।
इसलिए लोक में वे स्त्रियां धन्य
हैं,
जो अपने पति के प्रेम का भाजन हो जायें। इस प्रकार 'हंसी के व्याज से उस सखी ने कहा है' ऐसा उन लक्ष्मी
ने सोंच कर उसे असत्य ही माना ।। ३४ ।।
रमोवाच
अहो सखि यदीत्थं त्वं निरर्थकमिदं
वचः ।
न मां स्मरति देवेशो ध्यानमार्गे
कदाचन ॥ ३५ ॥
रमा ने कहा- अहो सखि ! तुम्हारा इस
प्रकार का जो यह कथन है वह निरर्थक है । देवताओं के ईश,
कभी भी ध्यान मार्ग में मेरा स्मरण नहीं करते ॥ ३५ ॥
मयि विरक्तः सततमकिञ्चनजनप्रियः ।
कथं मां ध्यायते चित्ते विरहं सोढ़ुमक्षमः
॥ ३६ ॥
वह सदैव मुझसे विरक्त रहकर अकिंचन [दरिद्र
] जन को ही चाहते हैं । फिर विरह में असमर्थ हो चित्त में मेरा ध्यान क्यों वे करने
लगे ?
।। ३६ ।।
अकुण्ठित महाबाधा प्रसादादस्य सन्ततम्
।
जानामि सकले लोके भजतो मां दृढव्रतान्
॥ ३७ ॥
इनकी प्रसन्नता से सदैव महान् बाधा
हट जाती है और मैं जानती हूँ कि समस्त संसार में मुझे दृढव्रतीजन भजते रहते हैं ।।
३७ ।।
ये चापि त्रिषु लोकेषु यत्र
कुत्रापि संस्थिताः ।
भजन्ते तानहं भक्तान् हृदि पश्यामि
सन्ततम् ॥ ३८ ॥
तीनों लोकों में जो जहाँ कहीं भी
रहें उन भक्त जनों का ही वे हृदय में भजन करते रहते हैं ऐसा मैं सदैव देखती हूँ ॥३८॥
तदा कथं तु हरिणा चित्ते ध्यातापि
तं सखि ।
न वेद्मि सर्वभावज्ञा
सर्वलोकान्तरस्थिता ।। ३९ ।
अतः चित्त में उनका ध्यान करने पर
भी,
हे सखि ! श्रीहरि मेरा ध्यान कैसे करेंगे। सभी भावों के ज्ञाता और
सभी लोकों में स्थित लोगों को मैं नहीं जानती हूँ ।। ३९ ।।
तस्मान्न मां न च विधि न रुद्रमपि
शङ्करम् ।
नान्यं वा प्राणसदृशं भक्तं वा
ध्यायतीश्वरः ॥ ४० ॥
इसलिए वे न तो मुझे और न तो ब्रह्मा
और न रुद्र या शङ्कर का ही ध्यान कर रहे हैं । वह ईश्वर तो और को नहीं अपितु प्राण
के तुल्य भक्तों का ही ध्यान कर हैं ॥ ४० ॥
को वेदास्य परं चित्ते निहितः
कश्चिदीश्वरः ।
तस्मात्प्रबुध्यमानेऽस्मिन् सर्वं
पृच्छाम्यसंशयम् ॥ ४१ ॥
फिर इनके चित्त में कौन ईश्वर निहित
है इसे कौन जान सकता है ? इसलिए इनके जगने पर
इस विषय में सब कुछ निःसन्देह रूप से पूँछ लूंगी ।। ४१ ।।
इत्युक्त्वा सखिवर्गेण कुतूहलसमन्विता
।
पुरः तस्थौ परेशस्य
प्रबद्धकरसम्पुटा ।। ४२ ।।
इस प्रकार कहकर सखियों के साथ
कुतूहल युक्त मन से वह परमेश्वर भगवान् विष्णु के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं ॥
४२ ॥
तावदेव हरिः साक्षान्मुक्तध्यानो
ददर्श, ताम् ।
बद्धहस्ताञ्जलिपुटां सखीमण्डलमध्यगाम्
।। ४३ ।।
तभी श्रीहरि ने ध्यान से निवृत्त
होकर हाथ जोड़े हुए सखियों के मण्डल के मध्य उन्हें साक्षात् रूप से सामने देखा ।।४३॥
विरोचयन्तीं प्रभया
दिव्यालङ्कारभूषिताम् ।
मणिकुण्डलनिर्भान्ति कपोलविमलप्रभाम्
॥ ४४ ॥
वे सभी दिव्य आलङ्कारिक आभूषणों से
विभूषित हो अपने प्रभा से दीप्तिमान थीं । मणिजटित कुण्डल कर्णों में पहनने से
विमल कपोल की प्रभा को धारण कर रही थीं ॥ ४४ ॥
सुनासां सुदतीं सुभ्रं
चिबुकोद्देशशोभिताम् ।
कम्बुकण्ठीं हृदि
भ्राजन्मणिहारमनोहराम् ॥ ४५ ॥
उनकी नाक सुघड़ और सुन्दर
दन्तपंक्ति थी। उनकी भौहें सुन्दर और चिबुक ( ठोढ़ी) बड़ी ही सुन्दर होने से
सुशोभित थी। उनके कण्ठ कम्बु ( सुराही ) के आकार के गोल थे। उनके वक्षस्थल पर
मणियों की मनोहर माला शोभा पा रही थी ।। ४५ ।।
काञ्चीकापरुचिरां वलयाङ्गदनूपुराम्
।
त्रिलोकीदेवतां साक्षाद्विनयावनतेक्षणाम्
॥ ४६ ॥
दृष्ट्वा प्रबोधमापन्नं हरि
कमललोचनम् ।
शीर्णा स्पृशन्ती चरणं प्रोवाच
विनयान्विता ॥ ४७ ॥
कमर में बंधी छोटे-छोटे घुंघुरुओं
से युक्त करधनी शोभा पा रही थी। उनकी बाहों में कंकण एवं बाजूबन्द बंधे थे और
पैरों में नूपुर बज रहे थे। साक्षात् रूप से विनयावनत चितवन वाली त्रिलोक की देवता
लक्ष्मी ने उन कमल लोचन श्री हरि को ध्यान से निवृत्त देखकर अत्यन्त विनय से शिर
से चरणस्पर्श करके कहा ।। ४६-४७ ॥
रमोवाच
अहो देवेश भगवन् भक्तवत्सल भूधर ।
कृपां कुरु जगन्नाथ सन्देहं
विनिवारय ॥ ४८ ॥
रमा ने कहा- हे देवेश,
भगवन् भक्तवत्सल, हे पृथ्वी के पालक, हे जगन्नाथ मेरे ऊपर कृपा करिए और मेरा सन्देह निवारण करिए ।। ४८ ।।
त्वमेकः सर्वलोकानां स्रष्टा
हर्त्ता च पालकः ।
दैवतं सर्वदेवानां न त्वया न समोऽधिकः
।। ४९ ।।
वस्तुतः तुम्हीं सभी लोकों के
सृष्टिकर्ता और संहारकर्ता हो एवं पालक भी देवों के भी देव हो । तुम्हारे समान या
तुमसे अधिक कोई और नहीं है ।। ४९ ।।
किं ध्यायसि रहः स्थित्वा
विलीनीकरणाशयः ।
तद्ध्यानानन्दसन्दोहपुलकाङ्क तनुर्भृशम्
॥ ५० ॥
फिर आप एकान्त में स्थित होकर
इन्द्रिय और उसके विषयों को विलीन करके किसका ध्यान करते हैं ?
वह कौन है जिनके ध्यान में आप आनन्दातिरेक से अत्यन्त रोमान्चित गात
हो जाते हैं ।। ५० ।।
अस्मिन् खिद्यति मच्चित्तं
त्वत्तोऽप्यपरशङ्कया ।
तं ब्रूहि करुणासिन्धो यथाहं प्रकृतिं
व्रजे ॥ ५१ ॥
अन्यान्य शङ्काओं से मेरा चित्त इस
विषय में विषादग्रस्त हो रहा है। अतः हे करुणा के समुद्र ! आप उसे कहिए जिससे हम
प्रकृतिस्थ हो जायँ ॥ ५१ ॥
इत्युक्तो रमया देव्या हरिरात्मा
शरीरिणा ।
गिरा मधुरया वाचा रमणी रमयन्निव ।।
५२ ।।
इस प्रकार रमादेवी के कहने पर
शरीरियों के आत्मा श्रीहरि ने मधुर वाणी में मानो रमणी का रमण करते हुए से बोले ।।
५२ ।।
श्रीभगवानुवाच
अहो कल्याणि वचनं वदामि शृणु
साम्प्रतम् ।
अहं लोकगुरुः साक्षान्न मे
ध्येयोऽस्ति कश्चन ।
अहमात्माखिलाधारो ब्रह्मरुद्रेन्द्रवन्दितः
॥ ५३ ॥
श्री भगवान् विष्णु ने कहा- हे
कल्याणि ! अब मैं कहता हूँ । तुम सुनो। मैं साक्षात् रूप से इस लोक का गुरु हूँ।
मेरे लिए कोई भी ध्यान के योग्य नहीं है। ब्रह्मा, रुद्र एवं इन्द्र से वन्दित मैं ही अखिल विश्व का आधार एवं आत्मा हूँ ।।
५३ ।।
विश्वस्मिन्विततं पश्य मामेव सचराचरे
।
विश्वं मयि ततं पश्य
किमन्यज्ज्ञातुमिच्छसि ॥ ५४ ॥
मुझमें ही सम्पूर्ण चराचर जगत् फैला
हुआ है। तुम उसे देखो। मुझमें ही जब तुम सम्पूर्ण विश्व को देख सकती हो फिर तुम और
क्या जानना चाहती हो ॥ ५४ ॥
तस्य मे विश्वजीवस्य शक्तिस्त्वं
समधर्मिणी ।
आद्याखिलाधारमयी मदानन्दमयी शुभा ।।
५५ ।।
उस मेरे विराट् स्वरूप में विद्यमान
जीव की तुम समधर्म वाली मेरी शक्ति हो। तुम आद्या शक्ति हो । अखिल विश्व की
आधारमयी हो और मेरे लिए शुभ एवं आनन्दमयी हो ।। ५५ ।।
तां त्वां ब्रह्मादयो देवा ऋषयोऽथ
धृतव्रताः ।
इन्द्रादयस्तु दिक्पाला मुनयो
नारदादयः ।। ५६ ।।
भजन्तोऽपि न ते सुभ्रु
प्रसादकणिकास्पृशः ।
सा त्वं मे हृदये लीना
परमानन्दरूपिणी ।। ५७ ।।
ब्रह्मा आदि देव,
ऋषिगण और व्रतधारी महात्मा, इन्द्र आदि देवगण,
दिक्पाल और नारद आदि मुनिजन तुम्हारा भजन करके भी, हे सुन्दर भोहों वाली ! तुम्हारी प्रसन्नता के मात्र एक कण का भी स्पर्श
नहीं कर पाते हैं । परम आनन्दरूपिणी वह तुम मेरे हृदय में लीन हो ॥। ५६-५७ ।।
यदा त्वां नैव पश्यामि जगदान्ध्यं
विभाति मे ।
दृष्टायां त्वयि देवेशि सम्यक्
पश्याम्यहं पुनः ॥ ५८ ॥
जब मैं तुम्हें नहीं देखता हूँ तो
मुझे सम्पूर्ण जगत् अन्धकार युक्त ही दिखता है । हे देवेशि ! तुम्हें देख लेने पर
पुनः मैं अच्छी प्रकार से देखने लग जाता हूँ ॥ ५८ ॥
त्वं गता सखिभिः सार्धं पुष्पावचय
हेतवे ।
तावत्ते विरहं सोढुमशक्तोऽहं वरानने
।। ५९ ।।
हे सुन्दर मुख वाली ! जब तुम सखियों
के साथ फूल तोड़ने गई थी, तब भी मैं तुम्हारा
विरह न सह सका ।।५९।।
त्वच्चित्तो रहसि स्थित्त्वा
त्वत्प्राणस्त्वन्मनाः प्रिये ।
त्वामेव हृदये
ध्यायन्निमीलितविलोचनः ॥ ६० ॥
अत: हे प्रिये ! तुम्हें अपने चित्त
में रखकर,
तुम्हारे प्राण से प्राण मिलाकर, तुम्हारे में
ही आसक्त मन वाला होकर और तुम्हारा ही अपने हृदय में ध्यान करते हुए अपने नेत्रों
को निमिलित कर लिया था ।। ६० ॥
ललने ललितं रूपं त्वदीयं
सुरदुर्लभम् ।
ध्यायामि ध्यानयोगेन तावत्त्वं
समुपागता ।। ६१ ॥
हे ललने ! तुम्हारा ललित रूप देवों
को भी दुर्लभ है। अतः ज्यों मैं ध्यानयोग के द्वारा तुम्हारा ध्यान किया तभी तुम आ
गई ।। ६१ ।।
इत्येवं ते मया प्रोक्तं सत्यं
जानीहि सुव्रते ।
इसलिए हे सुन्दर [पति] व्रत को धारण
करने वाली । इसे ही सत्य समझो जिसे मैंने तुमसे कहा है ।
श्रीलक्ष्मीरुवाच
देवेश त्वत्प्रसादेन सर्वेषां हृदि
चेष्टितम् ।
जानामि सकलं नाथ यथाकर्म यथारुचि ।।
६२ ।।
श्री लक्ष्मी ने कहा- हे देवेश !
आपके प्रसाद से मैं सभी के हृदय में हुई चेष्टाओं को कर्मानुसार और रुचि के अनुसार,
हे नाथ सब कुछ मैं जानती हूँ ॥ ६२ ॥
अहं हृदि त्वया ध्याता विरहेणापि
माधव ।
त्वय्येव निवसाम्येव त्वदन्तःकरणैक्षिणी
॥ ६३ ॥
हे माधव ! विरह होने पर भी मैं आपके
हृदय में ध्यान की गई। मैं तो आप में ही निवास करती हूँ। मैं तो आपके अन्तःकरण की
दृष्टा हूँ ।। ६३ ।।
अहो चित्रमिदं भाति
त्वदन्तःस्थाप्यहं प्रभो!
न जानामि त्वदन्तःस्थं
आत्मानमिवसन्मतिः ॥ ६४ ॥
हे प्रभो ! तुम्हारे हृदय में रहकर
भी मुझे यह विचित्र सा लग रहा है कि आपके अन्तःकरण की बात स्वयं की अपनी बुद्धि से
मैं नहीं जानती हूँ ॥ ६४ ॥
न प्रतारयितुं योग्या भक्ता तेतीव
बल्लभा ।
भक्तप्रतारकं लोके कथमन्यो भजिष्यते
॥ ६५ ॥
'तुम्हारे अत्यन्त प्रिय भक्त
प्रतारण (छोड़ने) के योग्य नहीं हैं। भक्तों को छोड़ कर इस लोक में दूसरे का आप
क्यों भजन करेंगे ।। ६५ ।।
त्रिलोक्यां यदि वा कश्चित् भक्तं
ध्यायसि दुर्गतम् ।
त्वदिच्छयैव तदुःखं सर्वं विलयमेति
च ॥ ६६ ॥
त्रिलोक में यदि किसी दुर्गति युक्त
भक्त का आप ध्यान करते हैं तो आपकी इच्छा मात्र से ही उसका सभी दुःख कट जाता है ॥
६६ ॥
तस्मात्त्वदन्यो वै
कश्चिदीश्वरस्त्वनुमीयते ।
तं वै वदस्व देवेश यद्यहं तव वल्लभा
॥ ६७ ॥
इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आपसे
अन्य कोई आपका ईश्वर है जिसका आप ध्यान करते हैं । हे देवेश ! यदि मैं आपकी प्रिया
हूँ तो आप उन्हें बतायें ।। ६७ ।।
न चान्यो मे प्रियतमो नेश्वरो वा
भवत्परः ।
परं वेदितुमिच्छामि कौतुकेन
समन्विता ॥ ६८ ॥
मेरा तो आपसे अन्य कोई और प्रियतम
या आपको छोड़कर दूसरा ईश्वर नहीं है। इसलिए मेरा मन कौतूहल युक्त हो जानने की
इच्छा करता है ।। ६८ ।।
विष्णुरुवाच
न कौतुकं त्वया कार्यं मदुक्त्या
निर्वृति व्रज ।
न चाग्रहं प्रकुर्वन्ति विद्वांसः
साधवो जनाः ।। ६९ ।।
भगवान् विष्णु ने कहा- तुम्हें और
कुतुहल नहीं करना चाहिए। मेरी पूर्वोक्त बात से ही कुतूहल की निवृत्ति करो। फिर
विद्वान् और साधुजन भी इस बारे में कोई आग्रह नहीं करते हैं ।। ६९ ।।
देव्याग्रहवतां पुंसां न धर्मार्थो
न कामना ।
प्रसिध्यन्ति कदाचिद्वा बुद्धेः
फलमनाग्रहः ॥ ७० ॥
हे देवि ! आग्रह करने वालों के लिए
न धर्म है, न अर्थ है और न कामना ही है ।
क्योंकि बिना आग्रह के ही कभी कभी बुद्धि से ही फल की सिद्धि हो जाती है ।। ७० ।।
प्रार्थितं तु शिरो देयं
पशुद्रविणसम्पदः ।
राज्यं कोशो मही दुर्गं तथान्यदपि
सुन्दरि ॥ ७१ ॥
धन भी,
सम्पति भी, पशु भी और प्रार्थना करने पर शिर
भी उसे दिया जा सकता है । हे सुन्दरि ! राज्य, खजाना,
पृथ्वी, किला या अन्य कुछ भी उसे दिया जा सकता
है ।। ७१ ।।
धनैः प्राणैः शरीरैश्च
त्यक्षद्भिर्नोपकुर्वते ।
ते यास्यन्ति स्वयं त्यक्त्वा
कालवेगेन कर्षिताः ॥ ७२ ॥
किन्तु धनों,
प्राणों और शरीरों के त्याग करने वालों का उपकार उससे नहीं होता ।
क्योंकि काल की गति से कर्षित होकर ये तो स्वयं ही [भौतिक वस्तुओं को ] त्याग कर
चले जाते हैं ।। ७२ ।।
याचकाशा हता येन हतं तेन चराचरम् ।
तस्मात्प्राणादिकं सर्वं याचते
देयमेव हि ।। ७३ ।।
अतः याचक (मांगने) की आशा
(प्रवृत्ति) जिसके द्वारा नष्ट कर दी गई है। उसके द्वारा चराचर जगत् नष्ट कर दिया
गया है । इसलिए मांगने वालों को प्राण आदि सभी कुछ देना ही चाहिए ।। ७३ ।।
अदेयं तु परं तत्वं लोकातीतं यतो हि
तत् ।
तस्माद्दुराग्रहं त्यक्त्वा
प्रसन्नेनान्तरात्मना ॥ ७४ ॥
वर्तितव्यं त्वया भद्र
मत्प्रसादपरीप्सया ।
इत्युक्ता सा तदा लक्ष्मीर्विष्णुना
प्रभविष्णुना ।
ईषत्कोपसमाविष्टा कषायीभूतलोचना ।।
७५ ।।
जो नहीं देने योग्य है वह है 'परम तत्व'। क्योंकि वह लोक से अतीत की वस्तु है ।
इसलिए अपने दुराग्रह का त्याग करके प्रसन्न मन से तुम्हें, हे
भद्रे ! मेरे प्रसाद की इच्छा से मेरा अनुवर्तन करना चाहिए। इस प्रकार शक्तिसम्पन्न
भगवान् विष्णु के द्वारा अनुवर्तित वह लक्ष्मी तब अन्यमनस्क भाव से कुछ
क्रोधाविष्ट हो गई ।। ७४-७५ ।।
आत्मानमात्मना धृत्वा प्रोवाच वचनं
पुनः ।
स्त्रीपुंसो देह भागाभ्यामेकमेव
वपुः स्मृतम् ।। ७६ ।।
अपने को अपने में ही समाहित करके
पुनः उन्होंने कहा- स्त्री और पुरुष दोनों का शरीर तो विद्वानों के द्वारा एक ही
कहा गया है ।। ७६ ।।
कथं पश्यसि भेदेन मामेकतनुरूपिणीम्
।
पुरातनैश्च कविभिर्दाम्पत्ये प्रेम
रूपितम् ॥ ७७ ॥
तो आप मुझे एक अलग शरीर के रूप में
क्यों देख रहे हैं? पुरातन कवियों द्वारा
भी दाम्पत्य जीवन में प्रेम का निरूपण ही किया गया है ।। ७७ ।।
तन्नाशितं त्वयैकेन प्रेमरीतिविदापि
भोः ।
पत्युः प्रेमबहिर्भूतां धिक्
स्त्रियं विमतां गृहे ।
पतिश्चापि शठस्तस्या यः
साध्वीमप्युपेक्षते ॥ ७८ ॥
आपके द्वारा प्रेम की रीति के
जानकार होने पर भी फिर उसे क्यों तिरस्कृत कर दिया गया?
पति के हृदय में जिस स्त्री के लिए प्रेम न हो उसे धिक्कार है । फिर
वह पति भी शठ है जो अपनी सती-साध्वी स्त्री की उपेक्षा करता है ।। ७८ ।।
तस्माद्देवाल्पपुण्याहं कथं
प्राप्स्यामि चेप्सितम् ।
आप्रसादं च भवतः करिष्ये तप उल्बणम्
।। ७९ ।।
अल्प पुण्य वाली मैं कैसे अपने
अभीष्ट को प्राप्त करूंगी? अत: आपको जब तक मैं
प्रसन्न न कर लूं तब तक मैं कठोर तपस्या करूंगी ।। ७९ ।।
येन प्रसन्नो भगवान् उपदेश्यति
तत्पदम् ।
इत्युक्त्वा भगवत्पादं प्रणम्य च
मुहुर्मुहुः ।
प्रदक्षिणीकृत्य ययौ कुण्ठात्तपसे
रमा ॥ ८० ॥
जिससे प्रसन्न होकर आप भगवान् उस
परम पद को उपदिष्ट करते हैं । इस प्रकार कहकर बारम्बार भगवान् के चरण का स्पर्श
करके और उनकी प्रदक्षिणा करके लक्ष्मी जी वैकुण्ठ से तपस्या के लिए कहीं और चली
गई।।८०।।
सामभिर्विविधैश्वापि वचनैश्व
नयान्वितैः ।
निवार्यमाणापि रमा न न्यवर्तत
निश्चयात् ॥ ८१ ॥
अन्ततः विविध सान्त्वना सौर नीति
समन्वित वचनों के द्वारा निवारित की गई भी लक्ष्मी ने अपने निश्चय को नहीं छोड़ा ।।
८१ ।।
॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्रे
माहेश्वरतन्त्रे ज्ञानखण्डे शिवोमासंवादे द्वितीयं पटलम् ।। २ ।।
इस प्रकार श्री नारद पाचरात्र आगम
गत 'माहेश्वर तन्त्र' के ज्ञान खण्ड में भगवान् शङ्कर और
माँ जगदम्बा पार्वती के मध्य संवाद के द्वितीय पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। २ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 3
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: