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क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ३

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ३   

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ३ में सर्वरोगविनाशक पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन की विधि को कहा गया है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ३

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः तृतीयः पटलः

Kriyoddish mahatantraraj Patal 3

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ३   

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज तृतीय पटल

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज तीसरा पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ तृतीयः पटलः

सर्वरोगविनाशाय पार्थिवशिवलिङ्गपूजनप्रकरणम्

अतः परं महेशानि पूजनं पार्थिवं शिवम् ।

विशेषतः सर्वरोगे त्र्यम्बकस्य प्रपूजनम् ।। १ ।।

हे महेशानि! अब पार्थिव शिवपूजन की विधि कहता हूँ। विशेष रूप से सभी रोगों में त्र्यम्बक (भगवान् शिव) का पूजन करना चाहिये ॥ १ ॥

यत्कृत्वा सर्वतः शान्तिर्भवेद्देवि न संशयः ।

ततः प्रयोगं सर्वेषां वश्यादीनां च कारयेत् ।। २ ।।

हे देवि! पार्थिव शिवपूजन करने से सभी रोगों की शान्ति होती है, इसमें संशय नहीं है। इस प्रयोग में समस्त वश्यादिकों का प्रयोग करना चाहिए ॥ २ ॥

विधानं तत्र वक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ॥ ३ ॥

हे कमलानने! अब मैं पार्थिवपूजन का विधान कहता हूँ; श्रवण करो ॥ ३ ॥

शिवपूजाविधानम्

मृदा लिङ्गं विनिर्माय शततोलकमानया ।

तत्रानीय मृतं मुण्डं स्थापयित्वा ममार्चनम् ॥४ ॥

सौ तोले का मिट्टी का शिवलिङ्ग निर्मित कर एवं मृत पुरुष के कपाल में स्थापना कर मेरी पूजा करनी चाहिये ॥ ४ ॥

पूर्वमग्निं च संस्थाप्य यज्ञस्थानं चतुर्विधम् ।

उत्तरे दक्षिणे वापि पूर्वे च पश्चिमे तथा ।।५।।

पूर्व में अग्नि की स्थापना कर यज्ञस्थानीय चारों दिशाओं में हवन करे। पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण दिशा में हवन करे ॥५॥

सर्वकामेषु होतव्यमन्यथा निष्फलं भवेत् ।

सभी प्रकार की कामनाओं में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण- इन चारो दिशाओं में हवन करना चाहिये। इन दिशाओं में हवन न करने से समस्त कर्म विफल हो जाते हैं।

घटं संस्थाप्य मम पूजां यथाशक्ति कुर्यात् । ततो वह्निस्थापनम् । मुण्डस्थापनम् । नरमहिषमार्जारमुण्डत्रयम् । अथवा नृमुण्डत्रयम्। एकमुण्डं वा तदुपरि मां सम्पूज्य गन्धोदकैः स्नापयित्वा वितस्तिमितधरातले पोथयित्वा तस्योपरि वेदीं कल्पयेत् । तत्रैव भूतनाथादीन् चतुर्दिक्षु समर्चयेत् । पूर्वे ॐ भूतनाथाय नमः इति पाद्यादिभिः पूजयित्वा बलिं दद्यात्। एवं दक्षिणे श्मशानाधिपाय। पश्चिमे कालभैरवाय। उत्तरे च ईशानाय । वेदीमध्ये 'हाँ' प्रेतबीजं विलिख्य तत्रैव भारतीं पूजयेत् ।

सर्वप्रथम घट स्थापन कर यथाशक्ति मेरा पूजन करने के पश्चात् अग्निपूजन करे। तत्पश्चात् मुण्डस्थापन करे। नर, महिष, मार्जार इन तीनों के मुण्ड को स्थापित करे अथवा इनमें से एक के भी न मिलने पर नरमुण्ड को स्थापित करे। उस मुण्ड के ऊपर पार्थिव शिवजी का पूजन कर गन्धोदक आदि से उन्हें स्नान कराये। विस्ति (बित्ता) परिमाण में भूमि को खोदकर उसमें उस पार्थिव प्रतिमा को गाड़ कर वहीं पर वेदी का निर्माण करे तथा भूतनाथादिकों का चारो दिशाओं में विधिवत् पूजन करे। ॐ भूतनाथाय नमः इस मन्त्र से पाद्यादि प्रदान कर पूर्व दिशा में पूजन करे। ॐ नमः श्मशानाधिपाय इस नाममन्त्र से पूर्व विधानपूर्वक दक्षिण दिशा में पूजन कर बलि प्रदान करे। ईशानाय नमः इस मन्त्र से उत्तर दिशा में बलि प्रदान करे तथा कालभैरवाय नमः इस मन्त्र से पश्चिम दिशा में बलि प्रदान करे। वेदी के मध्य में हौं इस प्रेत बीज को लिखकर वहीं पर सरस्वती का पूजन करे।

पुष्पाञ्जलिः

रे वीर शव देवेश मुण्डरूप जगत्पते ।

दयां कुरु महाभाग सिद्धिदो भव मज्जपे ।। ६ ।।

इति पुष्पाञ्जलित्रयंभव मदत्त्वा आग्नेय्यां ह्रीं नमः नैर्ऋत्यां ह्रीं चण्डिकायै नमः । वायव्यां ह्रीं भद्रकाल्यै नमः । ईशाने ह्रीं दयामय्यै नमः ।

श्मशानवासिनो ये ये देवादेवाश्च भैरवाः ।

दयां कुर्वन्तु ते सर्वे सिद्धिदाश्च भवन्तु मे ।।७।।

अनेन प्रणवाद्येन पुष्पाञ्जलित्रयं क्षिपेत् ।

ततः स्थानं तु संस्पृश्य वश्यो भव वदेदिति ।।८।।

रे वीर शव ! देवेश ! मुण्डरूप ! जगत्पते! महाभाग ! दया करो एवं मेरे इस जपविधान में सिद्धि प्रदान करो- इस प्रकार कह कर तीन पुष्पांजलि प्रदान करे तथा इन बीजमन्त्रों का उच्चारण करे। आग्नेय्यां ह्रीं नमः । नैर्ऋत्यां ह्रीं चण्डिकायै नमः । वायव्यां ह्रीं भद्रकाल्प्यै नमः । ईशाने ह्रीं दयामय्यै नमः । जो-जो श्मशानवासी देव अथवा अदेव भैरव हैं वे सब मेरे ऊपर कृपा करके मुझे सिद्धि प्रदान करें। इस प्रकार प्रणवादि से तीन पुष्पांजलि प्रदान करे तथा स्थान को स्पर्श कर कहे कि वश्यो भव अर्थात् मेरे वश में हो जाओ ॥ ६-८ ॥

ततः स्नानं तत्र लिङ्गं संस्थाप्य परमेश्वरि ।

स्नानं तु पञ्चगव्येन दधिदुग्धादिकं तथा ।। ९ ।।

अथवा परमेशानि शर्करामधुना युतम् ।

पञ्चामृतैस्ततः स्नानं कारयेत्परमेश्वरि ।। १० ।।

ईशानाय प्रथमं स्नानं वामदेवाय द्वितीयकम् ।

तृतीये सद्योजाताय चतुर्थे च पिनाकधृक् ।। ११ ।।

पञ्चमं देवदेवेशं पूजयेत्पार्थिवं शिवम् ।

अधुना मूलमन्त्रेण शर्करया गायत्रिकंपरम् ।

ततो जीवन्यासं कृत्वा न्यासादिकं ततः परम् । । १२ । ।

हे परमेश्वर ! इसके पश्चात् लिङ्ग को स्थापित कर दही, दुग्ध आदि पञ्चगव्य से स्नान कराये। हे परमेशानि! अथवा मधु (शहद) मिश्रित शर्करा से ही स्नान कराये। हे परमेश्वरि! तत्पश्चात् पञ्चामृत से स्नान कराये। 'ईशानाय' इस मन्त्र से प्रथम स्नान, वामदेवाय' इस मन्त्र से दूसरा स्नान, सद्योजाताय' इस मन्त्र से तीसरा स्नान, 'पिनाकधृक्' इस मन्त्र से चौथा स्नान और 'देवदेवेश' इस मन्त्र से पाँचवाँ स्नान कराये। पार्थिव श्रीशिव जी का पूजन करे। तत्पश्चात् मूलमन्त्र अथवा गायत्री मन्त्र द्वारा शर्करा से स्नान कराये। तदुपरान्त जीवन्यास करन्यासादि करे ।।९-१२ ।।

ध्यानं शृणु महादेव! स्नेहेन कथितं मया ।। १३ ।।

हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो

द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहन्तं परम् ।

अङ्के न्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं

स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे ।। १४ ।।

पुनर्ध्यात्वा तु सम्पूज्य अङ्गन्यासं ततः परम् ।

हे देवि! अब मैं तुम्हारे स्नेहवश ध्यान को कहता हूँ, सुनो। दोनों हाथों से दो अमृत के कलशों से अमृतरस को अपने सिर पर छिड़कते हुये एवं दोनों हाथों में अमृतकलश को धारण किये हुये, मृगाक्षवलय को धारण हुये दोनों हस्तकमल के मणिबन्ध में अमृतकलश में रखा हैं, जिनके मुकुट में नवीन चन्द्र शोभित हैं, ऐसे कैलाशपति भगवान् शिवजी त्रिनेत्रधारी का हम भजन करते हैं। इसके पश्चात् ध्यान-पूजन कर अंगन्यास करे ।। १३-१४ ।।

अङ्गन्यासः

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं हृदयाय नमः ।

त्रयम्बकं यजामहे सुगधिं पुष्टिवर्द्धनं शिरसे स्वाहा ।

भर्गोदेवस्य धीमहि शिखायै वषट् ।

उर्वारुकमिव बन्धानात् कवचाय हुम् ।

धियो यो नः प्रयोदयात् नेत्रत्रयाय वौषट् ।

मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् अस्त्राय फट् । ।

एवं करन्यासः । ।

इसी प्रकार से करन्यास भी करे ।।

ततः षोडशोपचारै: पूजा

जपापराजिता कृष्णबिल्वपत्रं च पिप्पलम् ।। १५ ।।

करवीरमपामार्ग प्रत्येकं जुहुयाच्छिवे ।

अष्टाधिकशतेनैव पूजयेत् ।। १६ ।।

हे शिवे! जपा, अपराजिता, कृष्णबिल्वपत्र पीपल, करवीर ( कनेर) और अपामार्ग प्रत्येक से १०८ आहुतियाँ देकर पूजन करे ॥ १५-१६ ॥

अतः परं महेशानि! मधु देयं विशेषतः ।

गुडार्द्रकरसेनैव सुरास्तु ब्राह्मणस्य तु ।।१७।।

नारिकेलोदकं चैव कांस्ये तु क्षत्रियस्य च ।

शूद्रस्य ताम्रपात्रे तु मधुयुक्तं निवेदयेत् ।। १८ ।।

अथवा सार्षपं तैलमाज्येन होमयेद्विजः ।

जुहुयात्सर्वकर्माणि कथितानि महेश्वरि ! ।। १९ ।।

हे महेशानि! इसके पश्चात् विशेष रूप से मधु प्रदान करे। गुड़ एवं अदरख के रस में मिश्रित करके सुरा ब्राह्मण को, नारियल का जल कांस्यपात्र में क्षत्रिय को, कांस्यपात्र में मधु वैश्य को तथा शूद्र को ताम्रपत्र में मधु प्रदान करे। अथवा ब्राह्मण सरसों के तेल एवं घृत से समस्त हवनकार्यों को सम्पन्न करे। हे महेश्वरि ! यह परम गोपनीय विषय तुम्हारे प्रेमवश ही मैंने कहा है ॥१७- १९॥

मन्त्रः

मत्रं शृणु महादेवि ! कथितं तव श्रद्धया ।।२०।।

मन्त्र - हे महादेवि ! मन्त्र का श्रवण करो। मैं तुम्हारी श्रद्धा के कारण ही इसे कहता हूँ ॥२०॥

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं भर्गो देवस्य धीमहि उर्वारुकमिव बन्धनाद् धियो यो नः प्रचोदयात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।

स्थानभेदकम्

शून्यागारे नदीतीरे पर्वते वा चतुष्पथे ।

बिल्वमूले श्मशाने वा निर्जने च प्रपूजयेत् ।। २१ ।।

अणिमाद्यष्टशक्तिं च वन्ध्या वा

मृतवत्सा वा बद्धो वा राजशत्रुके ।

सर्वशान्तिकरं देवि पूजनं त्र्यंबके शिवे ।

अत एव कथितं मे च सत्यं सत्यं वरानने ।। २२ ।।

जनशून्यस्थान, नदीतट, पर्वत, चौराहा, बेलवृक्ष की जड़, श्मशान अथवा निर्जन स्थान में अणिमादि आठ शक्तियों की पूजा करे। वंध्या, मृतवत्सा का इस पूजन से दोषनिवारण होता है तथा राजभय व शत्रुभय दूर होता है। हे शिवे! हे देवि ! शिव का यह पूजन समस्त प्रकार की शान्ति को देने वाला है। हे वरानने! मैंने यह निश्चय ही सत्य कहा है ।। २१-२२॥

इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे देवीश्वर-संवादे तृतीयः पटलः ।। ३ ।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में देवी-ईश्वरसंवादात्म तृतीय पटल पूर्ण हुआ ।। ३ ।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 4

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