मयमतम् अध्याय २२
मयमतम् अध्याय २२
चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधान - इस अध्याय में चतुर्भूमि देवालय के पाँच भेद —
सुभद्रक, श्रीविशाल, भद्रकोष्ठ,
जयावह तथा भद्रकूट वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त कपोतपञ्जर, पुनः भद्रकूट, मनोहर, आवन्तिक
एवं सुखावह का वर्णन है। चार तल के अतिरिक्त पाँच तल, छ: से
ग्यारह तल, बारह तल, खण्डहर्म्य तथा
कूटकोष्ठादि का वर्णन प्राप्त होता है।
मयमतम् अध्याय २२
Mayamatam chapter 22
मयमतम् द्वाविंशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र बाईसवां
अध्याय
मयमत अध्याय २२ – चतुर्भूभूमि व बहुभूमि विधान
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ द्वाविंशोऽध्यायः
(चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधानम्)
पञ्चमानं चतुर्भौमं वक्ष्ये
संक्षेपतः क्रमात् ।
त्रिचतुष्पङ्क्तिहस्तादिद्विहस्तविवर्धनात्
॥१॥
एकद्वाविंशदन्तं तु व्यासं तुङ्गं
तु पूर्ववत् ।
चार तल से लेकर बहुतलों के देवालयों
का विधान - चार तल वाले भवन (देवालय) के पाँच प्रकार के प्रमाणों का संक्षेप में
क्रमानुसार वर्णन कर रहा हूँ । इसका व्यास तेरह या चौदह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो
हाथ बढ़ाते हुये इक्कीस या बाईस हाथ तक जाता है एवं भवन की ऊँचाई पूर्वोक्त नियम के
अनुसार रक्खी जाती है ॥१॥
मयमत अध्याय २२ – सुभद्रकम्
विस्तारोत्सेधमानाभ्यां भागान्
वक्ष्यामि हर्म्यके ॥२॥
त्रयोदशकरव्यासमष्टधा विभजेत् समम्
।
एकांशं कूटविस्तारं शालायामं
द्विभागिकम् ॥३॥
भागेन पञ्जरव्यासमूर्ध्वे तु
पुनरष्टधा ।
प्राग्वदेव सभाशालापञ्जराणामुपर्यपि
॥४॥
विस्तार एवं ऊँचाई के प्रमाण से भवन
के भागों की चर्चा कर रहा हूँ । तेरह हस्त के व्यास को बराबर-बराबर आठ भागों में
बाँटना चाहिये । एक भाग से कूट का विस्तार, दो
भाग से शाला का विस्तार एवं एक भाग से पञ्जर का विस्तार करना चाहिये । उसके ऊपर
(दूसरे तल) को भी आठ भागों में बाँटना चाहिये । सभाकक्ष, शाला
एवं पञ्जर के ऊपर पूर्ववर्णित (कूटादि) का निर्माण करना चाहिये ॥२-४॥
ऊर्ध्वे षड्भागिके भागमेकं कूटस्य
विस्तृतम् ।
द्विभागं कोष्ठकायामं नीडं
भागार्धमिष्यते ॥५॥
ऊपरी भाग (तीसरी मञ्जिल) के छः भाग
करने चाहिये । एक भाग से कूट का विस्तार, दो
भाग से कोष्ठक की लम्बाई एवं आधे भाग से नीड़ का माप करना चाहिये ॥५॥
तदूर्ध्वे गुणाभागेंऽशं मधे दण्डेन
निर्गमम् ।
उत्सेधं विभजेद् विद्वान्
नवत्रिंशतिसंख्यया ॥६॥
उसके ऊपर (के तल) के तीन भाग करना
चाहिये । मध्य का भाग एक अंश (आधा) रखना चाहिये एवं निर्गम का माप एक दण्ड रखना
चाहिये । बुद्धिमान स्थपति को ऊँचाई के उन्तालीस भाग करने चाहिये ॥६॥
सार्धद्व्यंशमधिष्ठानं पञ्चांशं
पाददैर्घ्यकम् ।
तदर्धं प्रस्तरोत्सेधं
सत्रिपादयुगांशकम् ॥७॥
ऊर्ध्वभूम्यङ्घ्रिकोत्सेधं
सपादद्व्यंशमञ्चकम् ।
जङ्घा तद्द्विगुणा चोर्ध्वे
द्व्यंशेन प्रस्तरोदयम् ॥८॥
पादाधिकचतुर्भागमुपरिस्तम्भतुङ्गकम्
।
स्यात् सत्रिभागपादेन प्रस्तरं
वेदिकांशकम् ॥९॥
गलोच्चमश्विनीभागं सार्धवेदैस्तु
मूर्धनि ।
शेषभाग शिखामानमाहोमं चतुरस्त्रकम्
॥१०॥
(प्रथम तल में) ढ़ाई भाग से अधिष्ठान, पाँच भाग से
स्तम्भ की लम्बाई (प्रथम तल के भवन की ऊँचाई), (द्वितीय तल
में) इसके आधे माप की प्रस्तर की ऊँचाई एवं पौने पाँच भाग से (तल की) स्तम्भ की
ऊँचाई रखनी चाहिये । (तीसरे तल में) सवा दो बाग से मञ्चक और उसके दुगुने प्रमाण से
जङ्घा होनी चाहिये । इसके ऊपर (चौथे तल में) दो भाग से प्रस्तर एवं सवा चार भाग से
स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । इसके ऊपर सवा एक भाग से प्रस्तर, एक भाग से वेदिका, गल की ऊँचाई दो भाग से, शिखर सवा चार भाग से तथा शेष भाग से शिखा का प्रमाण रखना चाहिये । पूरा
भवन भूतल से चौकोर होता है ॥७-१०॥
रविसंख्या भवेत् सौष्ठी कोष्ठं
तावत्तु पञ्जरम् ।
शिखरे वेदनास्यः स्युश्चाल्पनास्या
विभूषितम् ॥११॥
स्वस्तिकाकारसंयुक्तं नासिकाभिरलङ्कृतम्
।
प्राग्वदेव तलं चाधः
स्तम्भालङ्कारतोरणम् ॥१२॥
सर्वालङ्कारसंयुक्तमेतद्धर्म्यं
सुभद्रकम् ।
इस भवन में बारह सौष्ठी,
बारह कोष्ठं एवं पञ्जर शिखर पर चार नासी होनी चाहिये एवं
अल्पनासियों से अलङ्कृत होना चाहिये । तल के नीचे (अधिष्ठान) पूर्ववर्णित नियम के
अनुसार होना चाहिये तथा स्तम्भ, अलङ्करण एवं तोरण निर्मित
होना चाहिये । सभी अलङ्करणों से युक्त इस भवन (देवालय) की संज्ञा 'सुभद्रक' होती है । ॥११-१२॥
मयमत अध्याय २२ – श्रीविशालम्
सर्वं प्राग्वत्कूटकोष्ठादियुक्त्या
मध्ये मध्ये मस्तकं मण्डलाभम् ।
वृत्ताकारं स्यात् सभानां
शिरस्तद्विस्तारार्धेनान्वितं गर्भगेहम् ॥१३॥
शेषं
त्र्यंशेनावृतावासपिण्डिस्तत्तुल्यं तद्बाह्यतोऽन्धारहारम् ।
नानाधिष्ठानाङ्घ्रिवेद्यादियोगं
नाम्नेदं स्याच्छ्रीविशालं सुह्रष्टम् ॥१४॥
जिस देवालय के (कोणों पर तथा मध्य
में) कूट एवं कोष्ठ आदि हो तथा बीच-बीच में भवन की छत गोलाई लिये हो,
कोणकोष्ठ भी मण्डलाकार हो, गर्भगृह भवन के
विस्तार के आधे पर (मध्य) स्थित हो, भीतर की भित्ति की मोटाई
शेष का तृतीयांश हो तथा यही माप बाहर की भित्ति (अन्धार हार) का होना चाहिये । इस
भवन के अनुरूप विविध प्रकार के अधिष्ठान स्तम्भ एवं वेदि आदि होते है एवं इस
देवालय की संज्ञा 'श्रीविशाल' होती है
॥१३-१४॥
मयमत अध्याय २२ – भद्रकोष्ठम्
पञ्चदशकरव्यासं नवधा विभजेत्
क्रमात् ॥१५॥
गर्भगेहं त्रिभागैकं गृहपिण्ड्यस्तदंशकम्
।
अंशेन परितोऽलिन्द्रं खण्डहर्म्यं
तथांशकम् ॥१६॥
भवन के पन्द्रह हाथ के व्यास को नौ
भागों में बाँटना चाहिये । तीन भाग से गर्भगूह की चौड़ाई रखनी चाहिये । भीतरी
भित्ति की मोटाई के लिये एक भाग एवं चारो ओर अलिन्द की चौड़ाई के लिये एक भाग तथा
खण्डहर्म्यक के लिये एक भाग रखना चाहिये ॥१५-१६॥
सभा शाला तथा नीडं भागेनैकेन
विस्तरात् ।
विस्तारत्रिगुणायामा
स्वव्याससमनिर्गमा ॥१७॥
शालामध्ये महानासी भागतत्या
विनिर्गता ।
सभाकोष्ठकनीदानामन्तरेऽर्धेन हारकम्
॥१८॥
सभा, शाला एवं नीड की चौड़ाई एक-एक अंश से रखनी चाहिये । इनकी लम्बाई चौड़ाई की
तीन गुनी होनी चाहिये । इनकी चौड़ाई के माप से इनका निर्गम निर्मित करना चाहिये ।
शाला के मध्य भाग में महानासी निर्मित होनी चाहिये, जिसकी
चौड़ाइ एवं गहराई एक भाग माप की हो । सभा, कोष्ठक एवं नीडों
के मध्य आधे भाग से हारक (हारामार्ग) निर्मित होना चाहिये ॥१७-१८॥
तदुपर्यष्टभागेन विभजेत् कूटमंशकम्
।
कोष्ठकस्य तु विस्तारं तदेव
द्विगुणायतम् ॥१९॥
कूटशालान्तरे नीडमंशेन परिकल्पयेत्
।
तदूर्ध्वे रसभागे तु कूटमंशेन
कोष्ठकम् ॥२०॥
ऊपरी (दूसरे) तल की चौड़ाई को आठ
भागों में बाँटना चाहिये । एक भाग से कूट एवं एक भाग से कोष्ठक रखना चाहिये ।
कोष्ठक की लम्बाई विस्तार की दुगुनी होनी चाहिये । कूट एवं शाला के मध्य में एक
भाग से नीड की रचना करनी चाहिये । उसके ऊपर (तृतीय बल) के छः भाग करने चाहिये एवं
कूट तथा कोष्ठक का निर्माण एक भाग से करना चाहिये ॥१९-२०॥
विस्तारद्विगुणायाममन्तरेऽर्धेन
पञ्जरम् ।
ऊर्ध्वभूमे चतुर्भागे मध्ये दण्डेन
निर्गमम् ॥२१॥
अष्टास्त्रं कर्णकूटं स्यात्
कोष्ठकं क्रकरीकृतम् ।
महाशिखरमष्टास्त्रमष्टनास्या
विभूषितम् ॥२२॥
कूटकोष्ठकनीडानां संख्यायां
पूर्ववत् ततिः ।
अस्याप्युत्सेधभागं च पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ॥२३॥
भद्रकोष्ठमिदं नाम्ना वेदभौमं
दिवौकसाम् ।
(कूट एवं कोष्ठक की) लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । इनके मध्य में
आधे भाग से पञ्जर होना चाहिये । इसके ऊपरी भाग के चार भाग होने चाहिये । मध्य भाग
में एक दण्ड का निर्गम होना चाहिये । कर्णकूट अष्टकोण हों एवं कोष्ठक क्रकरी
(दिशाओं में कोण) हो । महाशिखर अष्टकोण हो तथा आठ नासियों से अलङ्कृत हो । कूट,
कोष्ठक एवं नीड की संख्या, विस्तार एवं ऊँचाई
आदि के माप पूर्वोक्त रीति से होने चाहिये । चार तल वाला यह देवलय 'भद्रकोष्ठ' संज्ञक होता है ॥२१-२३॥
मयमत अध्याय २२ – जयावहम्
सप्तदशकरव्यासं दशभागैर्विभाजयेत्
॥२४॥
नालीगृहं चतुर्भागमंशेनान्धारिका
भवेत्
अलिन्द्रमंशमंशेन परितः
खण्डहर्म्यकम् ॥२५॥
सत्रह हाथ के व्यास को दश भागों में
बाँटना चाहिये । चार भाग से नालीगृह (गर्भगृह), एक
भाग से अन्धारिका (भीतरी भित्ति), एक भाग से अलिन्द एवं एक
भाग से चारो ओर खण्ड-हर्म्यक का निर्माण करना चाहिये ॥२४-२५॥
कूट कोष्ठं च नीडं च भागेन
परिकल्पयेत् ।
कोष्ठायामं द्विभागं स्याच्छेषं
हारा सपञ्जरम् ॥२६॥
कूट, कोष्ठ एवं नीड की रचना एक-एक भाग से करनी चाहिये । कोष्ठ की लम्बाई चौड़ाई
की दुगुनी हो एवं शेष भाग से पञ्जरयुक्त हारा का निर्माण करना चाहिये ॥२६॥
जलस्थलं विहायोर्ध्वे
वसुभागैर्विभाजिते ।
भागेन कूटविस्तार कोष्ठकं
द्विगुणायतम् ॥२७॥
हारान्तरे तथांशेन लम्बपञ्जरमीरितम्
।
तदुर्ध्वे रसभागे तु भागं
सौष्ठिकविस्तृतम् ॥२८॥
इसके ऊपर (दूसरे तल) जलस्थान को छोड़
कर आठ भाग करना चाहिये । एक भाग से कूट की चौड़ाई रखनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई
चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । हारा के मध्य में एक भाग से लम्ब पञ्जर (लटकती हुई
सजावटी आकृति) होनी चाहिये । इसके ऊपर (तीसरे तल पर) छः भाग करने चाहिये । एक भाग
से सौष्ठिक का विस्तार करना चाहिये ॥२७-२८॥
द्विभागं कोष्ठकायामं हारायां
क्षुद्रपञ्जरम् ।
तदूर्ध्वे तु त्रिभागेन मध्ये
दण्डेन निर्गमम् ॥२९॥
कोष्ठक की लम्बा (चौड़ाई की) दुगुनी
होनी चाहिये । हारामार्ग में क्षुद्र-पञ्जर होना चाहिये । उसके ऊपर (चतुर्थ तल पर)
के तीन भाग होने चाहिये । मध्य भाग में एक दण्ड का निर्गम निर्मित होना चाहिये
॥२९॥
चतुरस्त्रमधिष्ठानमष्टास्त्रं
गलमस्तकम् ।
त्रिचतुष्कोष्ठकं तावत् सौष्ठिकं
चाष्टपञ्जरम् ॥३०॥
लम्बपञ्जरमष्टौ हि क्षुद्रनीडं
द्विरष्टकम् ।
गलनास्यष्टसंयुक्तं कोष्ठकं
किञ्चिदुन्नतम् ॥३१॥
नानामसूरकस्तम्भवेदीजालकतोरणम् ।
नानालङ्कारसंयुक्तं
नानाचित्रैर्विचित्रितम् ॥३२॥
सोपपीठमधिष्ठानं केवलं वा मसूरकम् ।
स्वस्तिकाकारसंयुक्तं नासिकाभिरलङ्कृतम्
॥३३॥
इस भवन (देवालय) का अधिष्ठान चौकोर
होना चाहिये एवं गल तथा मस्तक आठ कोण का होना चाहिये । बारह कोष्ठक,
बारह सौष्ठिक एवं आठ पञ्जर होना चाहिये । आठ लम्बपञ्जर एवं सोलह
क्षुद्रनीड होना चाहिये । गल पर आठ नासी हों एवं कोष्ठक कुछ ऊँचे हो । विभिन्न
प्रकार के मसूरक, स्तम्भ, वेदी,
जालक (झरोखा, रोशनदान) एवं तोरण हों । नाना
प्रकार के अलङ्करणों एवं विभिन्न प्रकार के अङ्कनों से युक्त हो । अधिष्ठान उपपीठ
से युक्त हो या केवल मसूरक हो । स्वस्तिक की आकृति निर्मित हो एवं नासिकाओं से
सुसज्जित हो । ऊँचे भाग की संरचना पूर्व-वर्णित विधि से हो । इस देवालय को 'जयावह' संज्ञा दी गई है ॥३०-३३॥
मयमत अध्याय २२ – भद्रकूट
पूर्ववत् तुङ्गभागं स्यादेतन्नाम्ना
जयावहम् ।
नवपङ्क्तिकरव्यासे दशभागविभाजिते
॥३४॥
गर्भगेहं चतुर्भागं
गृहपिण्डस्तदंशके ।
अन्धारमंशमंशेन परितः खण्डहर्म्यकम्
॥३५॥
कूटकोष्ठकनीडानां तारमंशेन योजयेत्
।
कोष्ठकं द्विगुणायामं हारा
भागसमन्विता ॥३६॥
उन्नीस हाथ की चौड़ाई को दश भागों
में बाँटा जाता है । चार भाग से गर्भगृह, एक
भाग से भित्ति की मोटाई, एक भाग से अन्धार, एक भाग स चारो ओर खण्डहर्म्यक, एक-एक भाग से कूट,
कोष्ठक एवं नीड की चौड़ाई रखनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई चौड़ाई की
दुगुनी होनी चाहिये तथा एक भाग से हारा-मार्ग की रचना होनी चाहिये ॥३४-३६॥
मयमत अध्याय २२ –कपोतपञ्जरम्
पञ्चांशे सौष्ठिकव्यासे मध्ये
द्व्यंशेन विस्तरम् ।
एकभागविनिष्क्रान्तयुग्मस्तम्भसमन्वितम्
॥३७॥
सोपपीठमधिष्ठानं समञ्चं सवितर्दिकम्
।
सकन्धरशिरोयुक्तं
सर्वालङ्कारसंयुतम् ॥३८॥
पादुकोत्तरयोर्मध्ये
नवांशेनोपपीठकम् ।
मसूरकं द्विभागोच्चं द्विगुणं स्तम्भदैर्घ्यकम्
॥३९॥
सार्धांशं प्रस्तरोत्सेधमर्धांशं
वेदिकोदयम् ।
उत्तरादिकपोतान्तं गलोदयमितीरितम्
॥४०॥
सौष्ठिक का व्यस मध्य में पाँच में
से दो भाग से निर्मित होना चाहिये । एक भाग से विनिष्क्रान्त का निर्माण होना
चाहिये,
जो दो स्तम्भों से युक्त हो । यह उपपीठ, अधिष्ठान,
मञ्च, वितर्दिक, कन्धर
एवं शिरोभाग से युक्त हो तथा सभी अलङ्करणों से युक्त हो । पादुक से उत्तर के मध्य
नौ भाग से उपपीठ, दो भाग ऊँचा मसूरक, उनका
दुगुना ऊँचा स्तम्भ, आधे भाग से प्रस्तर की ऊँचाई, आधे भाग से वेदिका तथा उत्तर से प्रारम्भ कर कपोत तक गल का निर्माण करना
चाहिये ॥३७-४०॥
पञ्जराकृतिसंयुक्तं कपोत्तात्तु
विनिर्गतम् ।
यथाशोभं यथायुक्ति तथा
शक्तिध्वजान्वितम् ॥४१॥
'कपोतपञ्जरं ह्येतत्
प्रासादे सार्वदेशिके ।
हारायां वाऽथ शालायां मध्ये मध्ये
तु योजयेत् ॥४२॥
पञ्जर की आकृति से युक्त एवंकपोत से
विनिर्गत (कपोतपञ्जर) होता है । जिस प्रकार अच्छा लगे एवं ठीक हो,
उस प्रकार शक्ति-ध्वज से युक्त होना चाहिये । यह कपोतपञ्जर सभी
प्रकार के देवालय के अनुकूल होता है । इसे हारा के या शाला के मध्य में निर्मित
करना चाहिये ॥४१-४२॥
मयमत अध्याय २२ –पुनः
भद्रकूटम्
कूटकोष्ठकनीडं चैवान्तरप्रस्तरान्वितम्
।
जलस्थल
विहायोर्ध्वभूमावष्टांशसौष्ठिकम् ॥४३॥
द्विगुणं कोष्ठकायामं तयोर्मध्ये तु
पञ्जरम् ।
तदुर्ध्वे रसभागे तु सौष्ठिकोष्ठं
तु पूर्ववत् ॥४४॥
विजयस्य यथा प्रोक्तं शेषमुर्ध्वे
तु योजयेत् ।
कूटकोष्ठादि सर्वाङ्गं पूर्ववत्
संख्यया विदुः ॥४५॥
महानीडं द्विरष्टौ स्यान्नाम्नेदं
भद्रकूटम् ।
कूट, कोष्ठक एवं नीड अन्तर-प्रस्तर से युक्त होते है । इसके ऊपर जल-स्थल को छोड़
कर आठ भाग बचते है । एक भाग से सौष्ठिक का निर्माण होना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई
(चौड़ाई की)दुगुनी होनी चाहिये । उनके मध्य में पञ्जर होना चाहिये । उसके ऊपर छः
भाग करना चाहिये । सौष्ठिक एवं कोष्ठ पहले की भाँति होने चाहिये । इसके ऊपरी भाग
में जो योजना 'विजय' के लिये कही गयी
है, वही यहाँ भी होनी चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अङ्गों
की संख्या पूर्व-वर्णित होनी चाहिये । महानीड की संख्या सोलह होनी चाहिये । इस
देवालय की संज्ञा 'भद्रकूट' होती है
॥४३-४५॥
मयमत अध्याय २२ –मनोहरम्
तदेवान्यदलङ्कारं शालामध्ये
सभद्रकम् ॥४६॥
वृत्तग्रीवाशिरोयुक्तमेतन्नाम्ना मनोहरम्
।
यदि भवन के अलङ्करण भिन्न हों एवं
शालाओं के मध्य में भद्रक हों, ग्रीवा एवं
शिरोभाग गोलाई लिये हों तो इस देवालय का नाम 'मनोहर' होता है ॥४६॥
मयमत अध्याय २२ –आवन्तिकम्
तदेवान्यदलङ्कारं वेदास्त्रं कन्धरं
शिरः ॥४७॥
नानाम्सूरकस्तम्भवेदिकाद्यैरलङ्कृतम्
।
नाम्नावन्तिकमित्युक्तं
शम्भोर्मनिरमुत्तमम् ॥४८॥
यदि अलङ्करण भिन्न हों,
कन्धर एवं शिरोभाग चौकोर हो, विभिन्न प्रकार
के मसूरक, स्तम्भ एवं वेदिका आदि से अलङ्कृत हो तो इस
देवालय की संज्ञा 'आवन्तिक' होती है ।
यह भवन शिव-मन्दिर के लिये उपयुक्त होता है ॥४७-४८॥
मयमत अध्याय २२ –सुखावहम्
त्रिःसप्तहस्तविपुले चतुरंशनाली
धर्मांशकेंऽशमभितो गृहपिण्डिमानम् ।
अन्धारमंशमभितोंऽशकमङ्गहारं
कूटं च नीडमथ कोष्ठकमंशतारम् ॥४९॥
शालायतं द्विगुणमंशकतारहारं
वातायनैर्मकरतोरणकैर्विचित्रम् ।
त्यक्त्वा जलस्थलमुपर्यपि चाष्टभागे
कूटं च नीडमथ कोष्ठकमंशतत्या ॥५०॥
यदि विस्तार इक्कीस हाथ हो तो उसके
दश भाग करने चाहिये । चार भाग से नाली (गर्भगृह), एक भाग से चारो ओर भीतरी भित्ति की मोटाई, एक भाग से
अन्धार, उसके चारो ओर एक भाग से हारामार्ग का विस्तार तथा एक
भाग से कूट, नीड एवं कोष्ठक का विस्तार रखना चाहिये । शाला
की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । हारा-मार्ग की चौड़ाई एक भाग से रखनी
चाहिये । वातायन (खिड़की, झरोखा) एवं मकर-तोरण से सज्जा करनी
चाहिये । इसके ऊपरी भाग में जल-भाग को छोड़ कर आठ भाग करना चाहिये । कूट, नीड एवं कोष्ठक का विस्तार एक भाग से रखना चाहिये ॥४९-५०॥
शालायतं द्विगुणमूर्ध्वतले षडंशे
सौष्ठ्यंशमंशविपुलं द्विगुणायतं
स्यात् ।
कोष्ठं च नीडविपुलं हि तदर्धभागं
चोर्ध्वं युगांशिनयनांशकमध्यभद्रम्
॥५१॥
शाला की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी
होती है । उसके ऊपर (के तल के) छः भाग होते है । सौष्ठी की चौड़ाई एक भाग से एवं
उसकी लम्बाई उसके दुगुनी होती है । कोष्ठ एवं नीड की चौड़ाई आधे भाग से होनी चाहिये
। उसके ऊपर के (तल के) चार भाग होने चाहिये एवं दो भाग से मध्य-भद्र की रचना करनी
चाहिये ॥५१॥
दण्डे निर्गममुपर्यपि भद्रनीडं
सार्धं द्विदण्डविपुलं गलनासिकं च ।
वृत्ताभकन्धरवितर्दिकमस्तकं स्या-
दष्टार्धनासिकमदभ्रमथाल्पमष्टौ ॥५२॥
दण्ड-प्रमाण से निर्गम होना चाहिये
। इसके ऊपर भद्रनीड निर्मित होना चाहिये । गल एवं नासिक ढ़ाई दण्ड चौड़ा होना चाहिये
। कन्धर,
वितर्दिक एवं मस्तक गोलाई लिये होना चाहिये । आठ अर्धनासिक एवं आठ
अल्पनासिक होना चाहिये ॥५२॥
कूटं च नीडमथ कोष्ठकमुन्नतंस्या-
दादौ तले तदपि मध्यममञ्चयुक्तम् ।
शालोन्नतं ह्युपरि
चोन्नतमूर्ध्वकूटं
वृत्ताभमत्र वसुपट्टशिरस्तु मध्ये
॥५३॥
वेदास्त्रकूटशिखरं ह्यथ मूलभूमौ
नासाल्पकं ह्युपरि वेधविहीनबन्धम् ।
नानामसूरकसहाङ्घ्रिकशोभिताङ्गं
नाम्ना सुखावहमिदं सुरमन्दिरं
स्यात् ॥५४॥
प्रथम तल में कूट,
नीड एवं कोष्ठक मध्यम मञ्च (प्रस्तर) से युक्त एवं ऊँचे हो । इसके
ऊपर शाला (मध्य कोष्ठ) उन्नत हो, इसके ऊपर ऊँचा ऊर्ध्व-कूट
हो, जो गोलाई लिये हो । मध्य में शीर्ष-भाग आठ पट्टो वाला हो
। प्रथम तल मेंकूट का शिखर चौकोर हो एवं वहाँ ऊपर विना किसी खुले स्थान के
अल्प-नास होना चाहिये । विभिन्न प्रकार के मसूरक, स्तम्भ एवं
अलङ्करणों से युक्त इस देवालय की संज्ञा 'सुखावह' होती है ॥५३-५४॥
मयमत अध्याय २२ –पञ्चभूमिविधानम्
।
सत्रिपादयुगलार्धपञ्चकैद्वर्यर्धसाङ्घ्रिशरसार्धनेत्रकैः
।
पञ्चभागिकसभागनेत्रकैस्त्र्यङ्घ्रिवेदनयनार्धवेदकैः
॥५५॥
त्र्यङ्घ्रिकांशकशिवाद्विपादगङ्गाश्विनीभिरुदये
षडष्टके ।
कुट्टिमं चरणमञ्चपादकं प्रस्तरं
तलिपमञ्चमङ्घ्रिकम् ॥५६॥
प्रस्तरं तलिमपञ्चवेदिकं कन्धरं
शिखरकुम्भकं क्रमात् ।
पञ्चभौममुदितं विशालके नन्दपङ्क्तिभिरथेन्द्रियांशकैः
॥५७॥
पाँच तल के देवालय का विधान - पाँच
तल के देवालय की ऊँचाई को अड़तालीस बराबर भागों में बाँटना चाहिये । पौने तीन भाग
से कुट्टिम, साढ़े पाँच भाग से चरण (स्तम्भ,
द्वितीय तल की ऊँचाई), ढ़ाई भाग से मञ्च,
सवा पाँच भाग से पादक (स्तम्भ, द्वितीय तल की
ऊँचाई) ढाई भाग से प्रस्तर, पाँच भाग से तलिप (तृतीय तल की
ऊँचाई), सवा दो भाग से मञ्च, पौने पाँच
भाग से अङिघ्र (स्तम्भ, चतुर्थ तल की ऊँचाई), दो भाग से प्रस्तर, सवा चार भाग से तलिप (स्तम्भ,
पाँचवे तल की ऊँचाई) पौने दो भाग से मञ्च, एक
भाग से वेदिका, दो भाग से कन्धर, सवा
चार भाग से शिखर एवं दो भाग से कुम्भ की रचना करनी चाहिये । पाँच तल के देवालय की
चौड़ाई को नौ, दश या ग्यारह बराबर भागों मे बाँटना चाहिये ।
॥५५-५७॥
मयमत अध्याय २२ –षडाद्यैकादशभूम्यन्तविधानम्
उच्छ्रये तदधः षड्भिर्गुणांशैरङ्घ्रिकं
तलम् ।
षड्भौममेवमुद्दिष्टं ताराभागं तथा
भवेत् ॥५८॥
(पूर्ववर्णित पाँच तल से ऊपर तल
में) निचले तल से ऊपर ऊँचाई में छः भाग से अङिघ्र (स्तम्भ, तल
की ऊँचाई) एवं तीन भाग से तल (अधिष्ठान) निर्मित करना चाहिये । इसकी चौड़ाई
पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये ॥५८॥
तदधः सार्धषड्भागैः सपादगुणभागकैः
।
स्तम्भं मसूरकं कुर्यात्तारे
रुद्रार्कभागतः ॥५९॥
(सातवें तल के लिये) निचले तल के ऊपर ऊँचाई में साढ़े छः भाग से स्तम्भ एवं
मसूरक सवा तीन भाग से निर्मित करना चाहिये तथा विस्तार को ग्यारह या बारह भाग से
रखना चाहिये । सात तल वाला यह विमान प्रत्येक स्थान एवं अवसर के लिये उपयुक्त करना
होता है ॥५९॥
सप्तभौममिदं प्रोक्तं विमानं
सार्वदेशिकम् ।
तदधो मुनिभिः सार्धगुणांशैः
स्तम्भकुट्टिमम् ॥६०॥
धर्मरुद्रार्कभागैस्तु
सत्रयोदशभागिकैः ।
अष्टभौमं वदन्यस्मिन्नेवं प्राज्ञा
मुनीश्वराः ॥६१॥
उसके ऊपरी तल में सात भाग से स्तम्भ
एवं साढ़े तीन भाग से कुट्टिम रखना चाहिये । इसकी चौड़ाई को दश,
ग्यारह, बारह या तेरह भाग में बाँटना चाहिये ।
आठ तल के मन्दिर के निर्माण के विषय में मुनियों का विचार इस प्रकार वर्णित है ।
॥६०-६१॥
तदधः सार्धसप्तांशैः सत्रिपादगुणांशकैः
।
स्तम्भं च तलकं कुर्यात्तारेंऽशं
तत्र पूर्ववत् ॥६२॥
उसके ऊपरी तल (नौ तल) में निचले तल
से ऊपर साढ़े सात भाग से स्तम्भ एवं पौने चार भाग से तल (अधिष्ठान) बनाना चाहिये ।
तल का विस्तार पूर्ववत् होना चाहिये । इस प्रकार नौ तल का मन्दिर निर्मित होता है
। अब दशवें तल का वर्णन किया जा रहा है ॥६२॥
एवं नवतलं प्रोक्तं दशभौममथोच्यते ।
तदधोऽष्टयुगांशैस्तु पादं मसूरकं
भवेत् ॥६३॥
(दसवें तल के लिये) निचले तल के ऊपर आठ भाग से पाद (स्तम्भ, तल की ऊँचाई) एवं चार भाग से मसूरक होता है । चौड़ाई पूर्वोक्त रीति से या
चौदह भाग में बाँटनी चाहिये ॥६३॥
तारे पूर्वोक्तभागैस्तु
मनुभागैरथापि वा ।
तदधः सार्धवस्वंशै सपादयुगभागिकैः
॥६४॥
स्तम्भं मसूरकं कुर्यात्तारे
तद्वच्च पक्षकैः ।
तथा द्विरष्टभागैस्तु
सप्तदशांशकैस्तु वा ॥६५॥
एकादशतलं प्रोक्तं द्वादशं
क्षममुच्यते ।
इसके ऊपरी तल (ग्यारह तल) में निचले
तल के ऊपर साढ़े आठ भाग से स्तम्भ एवं सवा चार से मसूरक निर्मित करना चाहिये ।
चौड़ाई पूर्ववर्णित अथवा पन्द्रह, सोलह या सत्रह
भागों में बाँटनी चाहिये । इस प्रकार ग्यारह तल का देवालय निर्मित होता है । अब
बारह तल के देवालय का वर्णन किया जा रहा है ॥६४-६५॥
मयमत अध्याय २२ –द्वादशतलविधानम्
तदधो नन्दनन्दार्धभागैः स्तम्भं
मसूरकम् ॥६६॥
तारे द्विरष्टभागादि
यावर्दकद्वयांशकम् ।
गृहपिण्ड्यलिन्द्रहारा
गर्भागाराद्बहिः क्रमात् ॥६७॥
हर्म्यस्यावधिकं यावन्नीयते
तावदंशकैः ।
द्वित्रिवेदेषु षड्भागैः
प्रागुक्तांशैस्तु वा गृहम् ॥६८॥
बारह तल के देवालय का विधान - (बारह
तल के देवालय के लिये) निचले तल (की भूमि) के नौ भाग करने चाहिये । साढ़े चार भाग
से मसूरक होने चाहिये । चौड़ाई को सोलह से चौबीस भागों में बाँटना चाहिये । गर्भगृह
से लेकर भवन की सीमा तक क्रमशः गृहपिण्दि (भित्ति), अलिन्द्र एवं हारामार्ग को उनके भाग के अनुसार रखना चाहिये । गर्भगृह दो,
तीन, चार या छः भाग से या पूर्वोक्त भाग से
निर्मित करना चाहिये ॥६६-६८॥
एकार्धेनाथवलिन्द्र शेषं कुड्येषु
योजयेत् ।
केचित् त्रिर्नवभिर्भागैर्वदन्ति
द्वादशावनौ ॥६९॥
षट्कुड्यं पञ्चसालिन्द्रं बहिः
कूटादिशोभितम् ।
कूटं कोष्ठं च नीडं च
क्षुद्रशालेभतुण्डकम् ॥७०॥
अलिन्द्र की संरचना एक या डेढ़ भाग
से करनी चाहिये एवं शेष भाग से भित्ति निर्मित होनी चाहिये । कुछ विद्वानों के
अनुसार बारहवें तल के सत्ताईस भाग करने चाहिये । छः भाग से भित्ति एवं पाँच भाग से
अलिन्द्र निर्मित होना चाहिये । बाहरी भाग में कूटादि से अलङ्करण होना चाहिये ।
वहाँ कूट,
कोष्ठ, नीड, क्षुद्र-शाल
एवं गजशुण्ड निर्मित होना चाहिये ॥६९-७०॥
यथाशोभमलङ्कारं तथा युञ्जीत
बुद्धिमान् ।
युग्महस्तैरयुग्मैर्वा
योजयेदेवमिच्छया ॥७१॥
इन अलङ्करणों को इस प्रकार निर्मित
करना चाहिये, जिससे वे सुन्दर लगें । इन्हे
सम-हस्तप्रमाण से या विषम-हस्तप्रमाण से निर्मित करना चाहिये ॥७१॥
युग्मांशे द्व्यंशकं वाऽपि
कूटव्यासं द्विरायतम् ।
शालायाश्चतुरंशैर्वा युग्मे
युग्मांशकैर्विदुः ॥७२॥
नानाभागैरलङ्कारैरन्यैरुक्तं
मुनीश्वरैः ।
तथा वा तत्र युञ्जीयात्प्राज्ञः
शिल्पिषु बुद्धिमान् ॥७३॥
यदि प्रमाण सम संख्या में हों तो
कूट का व्यास दो भाग से एवं चौड़ाई उसके दुगुनी रखनी चाहिये । अथवा शाला (कूट) की
चौड़ाई चार भाग से रखनी चाहिये । सम संख्या का माप होने पर सभी भागों का माप सम
संख्या में होना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियों ने विभिन्न भागों एवं अलङ्करणो का वर्णन
किया है । बुद्धिमान शिल्पी को उन स्थानों पर उसी विधि से निर्माण करना चाहिये
॥७२-७३॥
मयमत अध्याय २२ –खण्डहर्म्यम्
तलमेकं भवेद् ग्रासं खण्डहर्म्यं
चतुःस्थले ।
द्वितलं पञ्चषट्सप्तभूमावेव
विधीयते ॥७४॥
त्रितलं चाष्टभूमे तु नन्दपङ्क्तितले
तथा ।
पञ्चभौमं चतुर्भौमं द्वादशैकादशे
तले ॥७५॥
खण्डहर्म्य में यदि देवालय चार तल
का हो तो प्रथम तल की ऊँचाई पर ग्रास (निर्माण का एक विशिष्ट अङ्ग) होना चाहिये ।
यदि भवन पाँच, छः या सात तल का हो तो दूसरे तल
की ऊँचाई पर; यदि भवन आठ, नौ या दश तल
का हो तो तीसरे तल पर; यदि ग्यारह तल का भवन हो तो ग्रास
चौथे तल पर तथा बारह तल वाले भवन में पाँचवें तल पर निर्मित होना चाहिये ॥७४-७५॥
मयमत अध्याय २२ –कूटकोष्ठादि
मूलतः कूटकोष्ठादीन् यः कर्तुं
सम्यगीहते ।
तले तले विभागांश्च यथायुक्त्या
प्रयोजयेत् ॥७६॥
कूटकोष्ठादिसर्वाङ्गमुपर्युपरि
पूर्ववत् ।
कूटकोष्ठकनीडाद्यैर्भेदैराख्या
यथोदिता ॥७७॥
जो व्यक्ति प्रथम तल से कूट-कोष्ठ
आदि का उचित रीति से निर्माण करना चाहता है, उसे
प्रत्येक तल का विभाग नियमानुसार करना चाहिये । प्रत्येक ऊपरी तल में कूट-कोष्ठ
आदि अङ्गों को पहले जिस प्रकार कहा गया है, उसी ढंग से
निर्मित करना चाहिये । कूट, कोष्ठ एवं नीड आदि भेदों का
वर्णन पहले किया जा चुका है ॥७६-७७॥
पूर्वं तैर्भेअकैर्युक्तस्याख्या
धाम्नस्तथा भवेत् ।
आद्वादशतलादेवं युञ्जीयाद् द्वितलादितः
॥७८॥
कर्णे मध्ये तर्योमध्ये कूटं कोष्ठं
च पञ्जरम् ।
कर्तव्यं मानसूत्रात्तु तेषां
निर्गममुच्यते ॥७९॥
(कूटादि) भेदों का जिस भवन में जिस प्रकार प्रयोग करना चाहिये, उसका वर्णन पहले किया जा चुका है । इनका प्रयोग दूसरे तल से प्रारम्भ कर
बारह तलपर्यन्त करना चाहिये । भवन के कर्ण (कोने) पर कूट, मध्य
भाग में कोष्ठ एवं कूट तथा कोष्ठ के मध्य में पञ्जर का निर्माण करना चाहिये । उनके
निर्गम का निर्माण मानसूत्र से करना चाहिये ॥७८-७९॥
स्वव्यासार्धं तथार्धार्धं दण्डं वा
द्वित्रिदण्डकम् ।
अन्तर्विन्यासदेशं तु मानसूत्रं न
योजयेत् ॥८०॥
ऋजुसूत्रप्रमाणान्तं तद्भङ्गे
विपदां पदम् ।
तस्मात् कूटादिसर्वाङ्गं
मानसूत्राद् बहिर्नयेत् ॥८१॥
निर्गमों का माप (उस तल) की चौड़ाई
का आधा अथवा उसका भी आधा (चौड़ाई का चौथाई भाग) रखना चाहिये या उनका माप एक,
दो अथवा तीन दण्ड होना चहिये । इसके भीतरी भाग केमाप के लिये
मानसूत्र का प्रयोग नही करना चाहिये । ऋजुसूत्र माप के अन्त तक होता है । इसका बीच
में भङ्ग होना विपत्तिकारक होता है; इसलिये कूट आदि सभी
अङ्गों का निर्माण मानसूत्र से हटकर करना चाहिये ॥८०-८१॥
चतुरस्त्रं तु वस्वस्त्रं
षोडशास्त्रं तु वर्तुलम् ।
मस्तकं स्तूपिकोपेतं कूटं कर्णयुतं
मतम् ॥८२॥
मध्यनासिसमोपेतमर्धकोटिसमन्वितम् ।
मुखपट्टिकयोपेतं शक्तिध्वजसमायुतम्
॥८३॥
कर्ण पर निर्मित कूट का शीर्ष चौकोर,
अष्टकोण, षोडशकोण अथवा गोलाकार एवं स्तूपिका
से युक्त होता है । इसके मध्य भाग में नासि एवं अर्धकोटि निर्मित होता है । यह
मुखपट्टिका एवं शक्तिध्वज से युक्त होता है ॥८२-८३॥
अनेकस्थूपिकोपेतं कोष्ठकं मध्यमे
भवेत् ।
हस्तिपृष्ठनिभं पृष्ठे शालाकारं
मुखं मुखे ॥८४॥
पञ्जरं विहितं कूटकोष्ठयोरन्तरे
बुधैः ।
पार्श्ववक्त्रं तदेवेष्टं
हस्तितुण्डं समण्डितम् ॥८५॥
अनेक स्तूपिकाओं से युक्त कोष्ठ
मध्य में होना चाहिये । इसका पिछला भाग हाथी के पीठ की समान एवं अग्र भाग शाला के
आकार का होना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ मध्यपञ्जर होना चाहिये । इसका मुख पार्श्व
में होना चाहिये एवं गज-शुण्ड से सुसज्जित होना चाहिये ॥८४-८५॥
एष जातिक्रमः प्रोक्तः
कर्णकोष्ठसमन्वितम् ।
मध्ये कूटं तयोर्मध्ये
क्षुद्रकोष्ठादिशोभितम् ॥८६॥
छन्दमेतत् समुद्दिष्टं कूटं वा
कोष्ठकं तु वा ।
अन्तरप्रस्तरोपेतनिम्नं वोन्नतमेव
वा ॥८७॥
विकल्पमिति निर्दिष्टमाभासं
तद्विमिश्रितम् ।
क्षुद्राल्पमध्यमोत्कृष्टं
हर्म्याणामेवमीरितम् ॥८८॥
जात्यादिभेदकैर्युक्तं विमानं
सम्पदां पदम् ।
विपरीते विनाशाय भवेदेवेति निश्चयः
॥८९॥
'जाति' (भवन
का प्रकारविशेष) का वर्णन इस प्रकार किया गया । (छन्दभवन में) भवन के कर्ण (कोणों)
पर कोष्ठ, मध्य भाग में कूट तथा इन दोनों के मध्य में
क्षूद्रकोष्ठ आदि निर्मित हो तो उसे 'छन्द' कहा जाता है । (विकल्प भवन में) कूट या कोष्ठ अन्तर-प्रस्तर से युक्त हो,
ऊँचे या नीचे हों तो उस भवन को 'विकल्प'
कहा जाता है । 'आभास' भवन
में इन दोनों व्यवस्थाओं के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता है । यह छोटे,
मध्यम एवं उत्तम श्रेणी के भवनों के अनुकूल होता है । 'जाति' आदि भेदों से युक्त देवालय सम्पत्ति प्रदान
करते है । इसके विपरीत रीति से निर्मित देवालय विनाश के कारण बनते है ॥८६-८९॥
षडष्टास्त्रे च वृत्ते च
द्व्यस्त्रवृत्ते च तत् क्रमत् ।
पञ्चाष्टनवपङ्क्त्यंशे
व्यासैकांशेन बाह्यतः ॥९०॥
वर्तयेत्तु तदाकृत्या
कोटिच्छेदार्थमीरितम् ।
चतुरस्त्रस्य नाहेन योजयेत्तु समं
यथा ॥९१॥
तया वर्तनया तेषां मानं
सम्पूर्णमिष्यते ।
मानं धाम्नस्तु सम्पूर्णं
जगत्सम्पूर्णता भवेत् ॥९२॥
(कूट आदि के) षट्कोण, अष्टकोण, वृत्ताकार, द्व्यस्त्रवृत्ताकर (दो कोण एवं अगले सिर
पर गोलाई) होने पर उनके व्यास के क्रमशः पाँच, आठ, नौ एवं दश भाग करने चाहिये एवं एक भाग से उसके बाहर उसी की आकृति का घेरा
बनाना चाहिये । यहाँ कोटि के छेद के लिये स्थान रक्खा जाता है । चौकोर के घेरे को
इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे माप सम बना रहे । उनकी वर्तनी
से उनका (कूटादि का) मान पूर्ण होता है । यदि भवन का मान पूर्ण होताहै तो संसार
सम्पूर्णता को प्राप्त होता है (अर्थात् गृहकर्ता को समृद्धि एवं पूर्णता इस संसार
में प्राप्त होती है) ॥९०-९२॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कुर्यात्
संलक्ष्य बुद्धिमान् ।
एवं संक्षेपतः प्रोक्तं प्रासादानां
तु लक्षणम् ॥९३॥
एकादिद्विदशान्तं ह्युदयविपुलभागं
करैस्तारमानं
चोत्सेधं कूटकोष्ठाद्यवयवकरणं
नाहभेदं क्रमेण ।
प्रोक्तं संक्षिप्य सम्यङ्
मुनिभिरवितथैर्ब्रह्मपूर्वैर्यथोक्तं
नानाभेदैर्विमानं प्रियतरमनघं
तैतलानां मयेन ॥९४॥
इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति को
प्रत्येक अङ्ग का निर्माण अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिये । इस प्रकार मन्दिरों
का लक्षण संक्षेप में वर्णित किया गया । एक तल से लेकर बारह तल तक के भवन की ऊँचाई
एवं चौड़ाई हस्त-मान से वर्णित की गई है । कूट एवं कोष्ठ आदि अङ्गों के भेदों का
क्रमानुसार वर्णन किया गया । देवों के प्रिय एवं पवित्र विमानों एवं उअनेक विभिन्न
भेदों का दोषहीन वर्णन जिस प्रकार प्राचीन ऋषियों ने किया,
जिसका प्रथमतः ब्रह्मा ने उपदेश दिया, उसे
संक्षिप्त करके मय ने यहाँ प्रस्तुत किया ॥९३-९४॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे चतुर्भूम्यादिबहुभूमि
विधानो नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 23
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