मयमतम् अध्याय २१
मयमतम् अध्याय २१ त्रिभूमिविधान -
इसके अन्तर्गत त्रितल भवन के पाँच भेद, स्वस्तिक,
विमलाकृति, हस्तिपृष्ठ, मुखमण्डप
पुनः हस्तिपृष्ठ, स्तम्भतोरण, पुन:
हस्तिपृष्ठ, भद्रकोष्ठ, वृत्तकूट,
सुमङ्गल, गान्धार, श्रीभोग,
कूटकोष्ठादि, धामभेद, नालीगृह
(गर्भगृह), वेदिका, तोरणादि-विधान एवं
सोपान वर्णित हैं।
मयमतम् अध्याय २१
Mayamatam chapter 21
मयमतम् एकविंशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र इक्कीसवां
अध्याय
मयमत अध्याय २१- त्रिभूमिविधान
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ एकविंशोऽध्यायः
(त्रिभूमिविधानम्)
त्रितलं पञ्चधामानं संक्षेपाद्
वक्ष्यतेऽधुना
सप्ताष्टहस्तमारभ्य
द्विद्विहस्तविवर्धनात् ॥१॥
तीन तल वाले भवन का विधान - तीन तल
वाले भवन के पाँच प्रकार के प्रमाण को अब संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । सात
या आठ हाथ से प्ररम्भ कर्पन्द्रह या सोलह हाथपर्यन्त दो-दो हाथ क्रमशः वृद्धि करते
हुये इसे ले जाना चाहिये । यह इनका व्यास है । उँचाई पूर्ववर्णित नियम के अनुसार
होनी चाहिये ॥१॥
मयमत अध्याय २१- स्वस्तिकम्
सप्तष्टानन्दहस्ते तु
सप्ताष्टांशैर्विभाजिते ॥२॥
भागेन कूटविस्तारं
कोष्ठद्वित्रिगुणायतम् ।
लम्बपञ्जरमर्धांशं हाराभागं तु
तत्समम् ॥३॥
यदि (भूतल की चौड़ाई) सात,
आठ या नौ हाथ हो तो उसके सात या आठ भाग करने चाहिये । इसके एक बाग
से ऊट की चौड़ाई, दो या तीन भाग से कोष्ठ (मध्य में स्थित
कोष्ठ या कूट) की चौड़ाई, आधे भाग से लम्ब पञ्जर (हारा संज्ञक
मार्ग के ऊपर लटकती आक्रुति ) एवं इसी के बराबर प्रमाण का हारा संज्ञक मार्ग या
गलियारा होना चाहिये ॥२-३॥
ऊर्ध्वभूमौ षडंशेंऽशं कूटं
तद्द्विगुणायतम् ।
कोष्ठकं चान्तरे हारं भागेनैव
प्रकल्पयेत् ॥४॥
ऊपरी तल (द्वितीय तल) के छः भाग
करना चाहिये । एक भाग से कूट एवं उसका दुगुना चौड़ा कोष्ठक एवं मध्य में एक भाग से
हारा का निर्माण करना चाहिये ॥४॥
ऊर्ध्वभूमौ त्रिभागेन मध्ये भद्रं
विधीयते ।
दण्डं सार्धं द्विदण्डं वा भद्रं
तत् कारयेद् बुधः ॥५॥
उसके ऊपरी तल (तृतीय तल) के मध्य
भाग में भद्र का निर्माण होना चाहिये । बुद्धिमान् (स्थपति) को भद्र का माप एक
दण्ड,
डेढ़ दण्ड या दो दण्ड रखना चाहिये ॥५॥
विमानोच्चे विशेषेण
चतुर्विंशतिभाजिते ।
पाशगङ्गाश्विनीभिस्तु
सत्रिपादगुणांशकैः ॥६॥
सार्धांशैः सार्धबन्धांशैः
सपादांशार्धकांशकैः ।
सार्धत्रिभिस्तु भागेन योजयेत्तु
विचक्षणः ॥७॥
धरातलमधः स्तम्भञ्चमङ्घ्रिकमञ्चकम्
।
तलिपं प्रस्तरं वेदीकन्धरं शिखरं
घटम् ॥८॥
देवालय की सम्पूर्ण ऊँचाई को चौबीस
भागों में विभक्त करना चाहिये । तीन भाग से धरातल (अधिष्ठान),
चार भाग से अधःस्तम्भ (प्रथम तल की ऊँचाई), दो
भाग से मञ्च, पौने चार भाग से (द्वितीय तल का) अङिघ्रक
(स्तम्भ), डेढ़ भाग से मञ्चक, साढ़े तीन
भाग से तलिप (तृतीय मंजिल का स्तम्भ अथवा ऊँचाई), सवा भाग से
प्रस्तर, आधे भाग से वेदी एवं गल, साढ़े
तीन भाग से शिखर एवं एक बाग से घट का निर्माण करना चाहिये ॥६-८॥
कूटं नीडं कोष्ठकं चाष्टकं
तद्वेदास्त्राभं जन्मतः स्थूपिकान्तम् ।
ऊर्ध्वे भूमावल्पनीडं
द्विरष्टाविष्टं ह्यस्मिन् षण्णवत्यल्पनासम् ॥९॥
नानाधिष्ठानाङ्घ्रिवेद्यादियोगं
मुर्धन्यष्टार्धं तथादभ्रानासम् ।
कोष्ठं कूटादुन्नतं चेत्समं च
शम्भोर्वासं स्वस्तिकं तत्त्रिभौमम् ॥१०॥
देवालय मे आठ कूट (कोण के कोष्ठ),
आठ नीड (कूट एवं कोष्ठ के मध्य के कोष्ठ) एवं आठ कोष्ठक (मध्य
कोष्ठ) होना चाहिये । इन्हे जन्म (प्रारम्भ) से स्तूपिकापर्यन्त चौकोर बनाना
चाहिये । ऊपरी तल पर सोलह अल्पनीड (छोटे कोष्ठ) एवं छियानबे अल्पनास का निर्माण
करना चाहिये । अधिष्ठान, स्तम्भ एवं वेदिका आदि की आकृति विभिन्न
प्रकार की हो सकती है । शीर्षभाग पर आठ अभ्रनास (सजावटी खिड़कीयाँ) होती है । कोष्ठ
कूट से उन्नत हों एवं आपस में समान ऊँचाई के हों, तो वह
देवालय शम्भु का वास होता है एवं यह तीन तल का देवालय 'स्वस्तिक'
संज्ञक होता है ॥९-१०॥
मयमत अध्याय २१- विमलाकृतिकम्
तारे सप्तनवांशे तु भाग
सौष्ठिकविस्तृतम् ।
शालाभागं तथा द्व्यंशं हाराभागेन
कल्पयेत् ॥११॥
देवालय की चौड़ाई के सात या नौ भाग
करने पर सौष्ठिक (कोण के कोष्ठों) को एक भाग चौड़ा, शाला (मध्य का लम्बा कोष्ठ) एक या दो भाग चौड़ा तथा हारा-मार्ग को एक भाग
से निर्मित करना चाहिये ॥११॥
अष्टकूटं तु तत्कोष्थं द्वादशैव
विधीयते ।
अष्टौ नीडानि विंशत्तु
शतमत्राल्पनासिकम् ॥१२॥
(इस देवालय में) आठ कूट, बारह कोष्ठ, आठ नीड तथा एक सौ बीच अल्पनासिक होना चाहिये ॥१२॥
अष्टास्त्रं मस्तकं वेदी कन्धरं
चाष्टनासिकम् ।
विमलाकृतिकं नाम्ना शम्भोर्वासं
सनातनम् ॥१३॥
मस्तक,
वेदी एवं कन्धर अष्टकोण एवं आठ नासिक होना चाहिये । 'विमलाकृतिक' नामक यह देवालय भगवान् शिव के
निवासयोग्य होता है ॥१३॥
हस्तनवसप्तततिसप्तनवभागं
भागततिकूटवसुकं तु रविकोष्ठम् ।
ऊर्ध्ववसुपञ्जरमथाष्टगलनासं
विंशतिशतानु विमलाकृति विमानम् ॥१४॥
जब चौड़ाई सात या नौ हाथ हो तो उसके
सात या नौ भाग करने चाहिये । कूट की चौड़ाई एक भाग हो एवं इनकी संख्या आठ हो । बारह
कोष्ठ हों, आठ ऊर्ध्वपञ्जर हो, आठ गलनास हो तथा एक सौ बीस (सजावटी आकृति हो) तो उस विमान (देवालय) की
संज्ञा 'विमलाकृति' होती है ॥१४॥
मयमत अध्याय २१- हस्तिपृष्ठम्
एकादशकरं व्यासमष्टभागैर्विभाजयेत्
।
तच्चतुर्भागमाधिक्यमायतं
वृत्तमिष्यते ॥१५॥
ग्यारह हाथ के विस्तार को आठ भाग
में विभक्त करना चाहिये । लम्बाई को विस्तार से चार भाग अधिक रखना चाहिये तथा (एक
ओर) वृत्ताकार (एवं एक ओर दो कोण) होना चाहिये ॥१५॥
द्व्यस्त्रवृत्तमधिष्ठानं तद्वत्
कन्धरमस्तकम् ।
तद्विस्तारार्धमानेन वर्तुलं
वर्तनीयकम् ॥१६॥
अधिष्ठान दो कोण (एक सिरे पर एवं
दूसरे सिर पर) वृत्ताकार होना चाहिये । इसी प्रकार कन्धर एवं मस्तक (शिखर) होना
चाहिये । विस्तार के आधे प्रमाण से वृत्ताकृति निर्मित करना चाहिये ॥१६॥
अस्त्रात् पार्श्वे च पृष्ठं च
कुर्यादर्कद्वयांशकम् ।
कूटकोष्ठकनीडानां विस्तारं
भागमिष्यते ॥१७॥
कोष्ठकं द्विगुणायामं हारा भागेन
योजिता ।
कोण (एवं भुजा) के बगल एवं पृष्ठ
भाग के बारह भाग दो बार करना चाहिये । कूट, कोष्ठक
एवं नीड के विस्तार का निर्माण एक भाग से करना चाहिये । कोष्ठक को दुगुना लम्बा
तथा हारामार्ग (की चौड़ाई) एक भाग से निर्मित करनी चाहिये ॥१७॥
मयमत अध्याय २१- मुखमण्डपम्
समं त्रिपादमर्धं वा
मुखमण्डपमिष्यते ॥१८॥
मण्डपोर्ध्वं यथा हर्म्यं
तथालङ्कारमीरितम् ।
कूटकोष्ठादिसंयुक्तं मण्डपं
सर्वहर्म्यके ॥१९॥
मुख-मण्डप का प्रमाण भवन के बराबर,
तीन चौथाई या आधा होना चाहिये । मण्डप के ऊपर उसी प्रकार का अलङ्करण
होना चाहिये, जिस प्रकार भवन के ऊपर होता है । सभी भवनों
(देवालयों) में मण्डप को कूट एवं कोष्ठ आदि से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥१८-१९॥
त्रिवर्गसहितं वाऽपि
तोरणाद्यैर्विचित्रतम् ।
मण्डपं समसूत्रं चेदन्तरालं तु
निम्नकम् ॥२०॥
अथवा त्रिवर्गसहित भवन (अर्थात् कूट
आदि से रहित तीन वर्ग वाले भवन) को तोरण आदि से सजाना चाहिये । यदि मण्डप प्रधान
भवन के बराबर हो तो अन्तराल नीचा होना चाहिये ॥२०॥
कूटकोष्ठादि सर्वाङ्गं मानसूत्राद्
बहिर्गतम् ।
स्वव्यासार्धं तदर्धार्धं दण्डं
सार्धद्विदण्डकम् ॥२१॥
द्विदण्डार्धं त्रिदण्डं वा
मानसूत्राद् बहिर्गतम् ।
एवं युञ्जीत हर्म्यं तु
सम्पदामास्पदं सदा ॥२२॥
कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अवयव
मान-सूत्र से बाहर की ओर निकले होते है । ये भाग अपने चौड़ाई के आधे अथवा उसके आधे,
एक दण्ड, डेढ़ दण्ड, ढ़ाई
दण्ड, तीन दण्डपर्यन्त मानसूत्र से बाहर निकले होते है । जिस
भवन में इस विधि से कूटादि अङ्गों का निर्माण होता है, वह
सदैव सम्पत्ति प्रदान करता है । एक सीधी रेखा (ऋजु सूत्र ) से इसका प्रमाण लेना
चाहिये । ऋजुसूत्र का टूटना विपत्ति प्रदान करता है । ॥२१-२२॥
ऋजुसूत्रं प्रमाणान्तं तद्भङ्गं
विपदां पदम् ।
षड्भागं स्यात्तदूर्ध्वे तु
पृष्ठतस्तस्य पार्श्वयोः ॥२३॥
कृत्वार्कद्विगुणांशं तु
कूटकोष्ठादि पूर्ववत् ।
ऊर्ध्वभौमं चतुर्भागं
यथायुक्तिवशान्नयेत् ॥२४॥
ऊर्ध्व-तल ( की चौड़ाई) को छः भाग मे
बाँटना चाहिये । उसके पृष्ठ-भाग के दोनों पार्श्वो को बारह-बारह भाग मे बाँटना
चाहिये । ऊपरी तल के चार भाग करने चाहिये । चौकोर भाग पर पहले के समान यथोचित रीति
से कूट एवं कोष्ठ आदि का निर्माण करना चाहिये ॥२३-२४॥
मस्तके पुरतो
नेत्रशालावक्त्रसमन्वितम् ।
गर्भकूटोपसम्पन्नं क्षुद्रनास्यङ्घ्रिसंयुतम्
॥२५॥
भवन के शीर्ष भाग में सामने की ओर
नेत्रशाला (नेत्र के आकार का प्रकोष्ठ) एवं वक्त्र (मुखभाग) निर्मित करना चाहिये
तथा क्षुद्रनासी एवं स्तम्भ से युक्त गर्भकूट का निर्माण करना चाहिये ॥२५॥
कूटकोष्ठादिसंयुक्तं
यथालङ्कारमाचरेत् ।
शिखरे दश नास्यः स्युस्तिस्त्रः
पादसमन्विताः ॥२६॥
कूट एवं कोष्ठ आदि का निर्माण इस
प्रकार करना चाहिये, जिससे भवन सुन्दर
लगे । शिखर भाग पर तीस नासिकायें निर्मित होनी चाहिये ॥२६॥
अष्टकूटं तथा कोष्ठं नीडं द्वादश चैव
हि ।
हारायां क्षुद्रनीडं
स्यादर्कद्विगुणसंख्यया ॥२७॥
भवन पर आठ कूट एवं आठ कोष्ट तथा
बारह नीड होना चाहिये । हारा-मार्ग पर बारह क्षुद्रनीडों का निर्माण होना चाहिये
॥२७॥
नानामसूरकस्तम्भवेदिकाद्यैरलङ्कृतम्
।
सोपपीठमधिष्ठानं केवलं वा मसूरकम्
॥२८॥
हस्तिपृष्ठमिदं नाम्ना सर्वदेवेषु
योग्यकम् ।
विभिन्न प्रकार के मसुरक (अधिष्ठान),
स्तम्भ एवं वेदिका आदि से भवन को अलङ्कृत करना चाहिये । अधिष्ठान
उपपीठ से युक्त हो अथवा केवल अधिष्ठान हो । यह 'हस्तिपृष्ठ'
नामक भवन सभी देवों केलिये अनुकूल होता है ॥२८॥
मयमत अध्याय २१- स्तम्भतोरणम्
पादोच्चत्रिद्विभागोच्चं पादं
सर्वाङ्गसंयुतम् ॥२९॥
पोतिकारहितं वीरकाण्डोपरि समण्डितम्
।
उत्तरं वाजनं साब्जक्षेपणं
निम्नवाजनम् ॥३०॥
स्तम्भ की ऊँचाई के दो तिहाई भाग के
बराबर (स्तम्भतोरण) की ऊँचाई रखनी चाहिये एवं इसके सभी अङ्गों का निर्माण करना
चाहिये । इसे पोतिकाविहीन तथा वीरकाण्ड के ऊपर मण्डि से युक्त,
उत्तर-वाजन, अब्ज-क्षेपण (पट्टिका पर निर्मित
पद्मपुष्प) एवं निम्न-वाजन से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥२९-३०॥
तदूर्ध्वे झषकाण्डं
स्यान्नानापत्रैर्विचित्रितम् ।
तोरणाकृतिसंयुक्तं मृणाल्यन्वितकन्धरम्
॥३१॥
उसके ऊपर झष-काण्ड (मछली की आकृति
वाली गोलाई-युक्त पट्टिका) विभिन्न प्रकार के पत्रों से सुसज्जित होना चाहिये ।
इसे तोरण की आकृति से युक्त एवं कन्धर पर कमल की नाल अङ्कित होनी चाहिये । सभी
अलङ्करणों से युक्त 'स्तम्भतोरण' का वर्णन किया गया है ॥३१॥
सर्वालङ्कारसंयुक्तं
स्तम्भतोरणमीरितम् ।
पादान्तरे वा हारायां
कर्णप्रासादमध्यमे ।
शालामध्येऽन्तराले तु कुर्यात्
सर्वेषु धामसु ॥३२॥
दो स्तम्भों के मध्य में,
हारा-मार्ग पर, कर्ण-प्रासाद के मध्य भाग में,
शाला (कोष्ठ) के मध्य के अन्तराल पर सभी भवनों में (स्तम्भ-तोरण का
प्रयोग करना चाहिये) ॥३२॥
स्तम्भे सर्वाङ्गयुक्ते समतलमुभयोः
पार्श्वयोर्वीरकाण्ड-
स्याग्रे न्यस्तोत्तरं वाजनमुपरि
दलं क्षेपणं तोरणाग्रम् ।
नक्रैः पत्रादिभिर्यद् विरचितमथ तद्
धाम्नि वा मण्डपे वा
शालायामन्यवस्तुष्वभिमतमयुतस्तम्भयुक्
तोरणं स्यात् ॥३३॥
सभी अवयवों से युक्त दोनों पार्श्वो
में स्थित स्तम्भ का तल (ऊँचाई) समान होना चाहिये । वीर-काण्ड अग्र भाग में उत्तर
एवं वाजन की स्थापना करनी चाहिये । वाजन के ऊपर दल (पुष्प-पत्र आदि) एवं क्षेपण की
स्थापना करनी चाहिये । तोरण के अग्र भाग में नक्र (मकर) एवं पत्र आदि की रचना करनी
चाहिये । इस प्रकार के तोरण की देवालय, मण्डप,
भवन या अन्य भवन में स्थापना करनी चाहिये । इसमें स्तम्भ की संख्या
अयुत (एक) होनी चाहिये ॥३३॥
मयमत अध्याय २१- पुनः
हस्तिपृष्ठम्
तदेव चतुरस्त्राभमायतं तन्मसूरकम्
॥३४॥
विस्तारमष्टभागं स्यादायामं दशभागभाक्
।
कूटकोष्ठकनीडं च भागेन परिकल्पयेत्
॥३५॥
जब मसूरक (अधिष्ठान) आयताकार हो तो
उसकी चौड़ाई के आठ भाग एवं लम्बाई के दस भाग करने चाहिये । कूट,
कोष्ठक एवं नीड की संरचना एक-एक भाग से करनी चाहिये ॥३४-३५॥
हाराभागं तु भागेन षडंशं
चोर्ध्वभूमिके ।
तदूर्ध्वे तु चतुर्भागमायामे
द्व्यंशमाधिकम् ॥३६॥
एक भाग से हारा-मार्ग बनाना चाहिये
। इसके ऊपर के तल की चौड़ाई के छः भाग होने चाहिये तथा लम्बाई को दो भाग अधिक रखना
चाहिये एवं उसके चार भाग करने चाहिये ॥३६॥
सायतं द्व्यस्त्रवृतं स्याद्
वेदिकागलमस्तकम् ।
कूटकोष्ठादि सर्वाङ्गं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ॥३७॥
वेदिका,
गल एव मस्तक आयताकार; किन्तु दो कोण वाला
वृत्ताकर (आयताकार आकृति के एक सिरे पर दो कोण हो एवं दूसरा सिरा गोलाई लिये हो)
होना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अङ्गों को पूर्ववर्णित रीति से निर्मित करना
चाहिये ॥३७॥
नानाधिष्ठानसंयुक्तं नानापादैरलङ्कृतम्
।
पादोपरि भवेन्नासी
स्वस्तिबन्धनशोभिता ॥३८॥
यथा बलं यथा योगं तथा कुर्याद्
विचक्षणः ।
एतदप्युदितं सौधं गजपृष्ठं पुरातनैः
॥३९॥
युग्मेऽप्येवं प्रयुञ्जीयात्
सर्वहर्म्यं विचक्षणः ।
विविध प्रकार के अधिष्ठानों से एवं
विभिन्न प्रकार के स्तम्भों से अलङ्कृत होना चाहिये । स्तम्भों के ऊपर
स्वस्तिबन्धन से सुशोभित नासी (सजावटी खिड़की) होनी चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को
बल के अनुरूप एवं यथोचित रीति से भवन का निर्माण करना चाहिये । प्राचीन मनीषियों
ने इस भवन (देवालय) को भी 'गजपृष्ठ' कहा है । सभी देवालयों में सम संख्या का प्रयोग प्रमाण के लिये करना
चाहिये ॥३८-३९॥
मयमत अध्याय २१- भद्रकोष्ठम्
त्रयोदशकरव्यासं नवधा विभजेत् समम्
॥४०॥
ग्र्भगेहं त्रिभागेन गृहपिड्णिस्तु
भागतः ।
अन्धारमंशमंशेन परितोऽन्धारिका
भवेत् ॥४१॥
तेरह हाथ की चौड़ाई को नौ भागों में
बाँटना चाहिये । गर्भगृह को तीन भाग से एवं गृहपिण्डी (भित्ति) एक भाग से बनानी
चाहिये । अन्धार (अलिन्द, बरामदा) को एक भाग
से तथा एक भाग से उसके चारो ओर अन्धारिका (अलिन्द के बाहर की दीवार) बनानी चाहिये
॥४०-४१॥
अंशेन सौष्ठिकं कोष्ठं विस्तारं
त्रिगुणायतम् ।
अर्धेन नीडविस्तारं शेषं
हाराङ्गमिष्यते ॥४२॥
एक भाग से सौष्ठिक एवं कोष्ठ का
विस्तर रखना चाहिये । इसकी लम्बाई चौड़ाई से तीन भाग अधिक होनी चाहिये । आधे भाग से
नीड का विस्तार तथा शेष भाग से हारामार्ग निर्मित होना चाहिये ॥४२॥
कोष्ठमध्ये त्रिदण्डेन नासी
निर्गमनान्विता ।
उपर्यपि षडंशेंऽशं कूटं
तद्द्विगुणायतम् ॥४३॥
कोष्ठकं भागतो हारा पञ्चरैरन्विता
भवेत् ।
ऊर्ध्वभागं त्रिभागेन मध्ये दण्डेन
निर्गमम् ॥४४॥
कोष्ठ के मध्य में तीन दण्ड के
प्रमाण से निर्गमन (बाहर की ओर निकला भाग) से युक्त नासी होनी चाहिये । ऊपरी तल के
छः भाग करने चाहिये । उसके एक भाग से कूट निर्मित करना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई
दुगुनी होनी चाहिये । एक भाग से पञ्जर से युक्त हारा होनी चाहिये । उसके ऊपरी भाग
(तल) के तीन भाग करने चाहिये । मध्य भाग में एक दण्ड का निर्गम होना चाहिये
॥४३-४४॥
चतुरस्त्रमधिष्ठानं वस्वस्त्रं
गलमस्तकम् ।
आदौ तले चतुष्कर्णे कूटं
वेदास्त्रमस्तकम् ॥४५॥
यदि अधिष्ठान चौकोर हो तो गल तथा
शिखर अष्टकोण होना चाहिये । प्रथम तल के चारो कोनों पर कूट होना चाहिये एवं
शिरोभाग चौकोर होना चाहिये ॥४५॥
अष्टास्त्रमुर्ध्वभूमौ तु
सौष्ठिकानां तु मस्तकम् ।
अष्टकूटं तथा नीडं कोष्ठकं तु तथैव
हि ॥४६॥
ऊपरी तल पर सौष्ठिकों (कोष्ठों) का
शीर्ष अष्टकोण होना चाहिये । इसी प्रकार आठ कूट, नीड एवं कोष्ठक होना चाहिये ॥४६॥
क्षुद्रनीडं तथाप्यष्टावष्टौ
स्युर्गलनासिकाः ।
स्वस्तिकाकारसंयुक्तं नासिकाभूषणं
भवेत् ॥४७॥
भद्रकोष्ठमिदं नाम्ना यथार्थं
परिकीर्तितम् ।
इसी प्रकार क्षुद्रनीड होना चाहिये
। गल-नासिकायें चौसठ होनी चाहिये । नासिकाओं का अलङ्करण स्वस्तिक की आकृति का होना
चाहिये । इस भवन की संज्ञा 'भद्रकोष्ठ'
उचित ही है ॥४७॥
मयमत अध्याय २१- वृत्तकूटम्
तदेव वर्तुलं
कर्णकूटमूर्ध्वोर्ध्वभूमिके ॥४८॥
मस्तकं तस्य वृत्तं
स्याच्चतुर्नासीसमन्वितम् ।
वृत्तकूटमिदं नाम्ना देवानां
सार्वदेशिकम् ॥४९॥
जब प्रत्येक ऊपरि तल में वृत्ताकर
कर्ण-कूट निर्मित हो, शिखर वृत्ताकार हो
तथा चार नासियों से युक्त हो, तो उस देवालय को 'वृत्तकूट' कहते है । यह देवालय सर्वदा देवों के
अनुकूल होता है ॥४८-४९॥
मयमत अध्याय २१- सुमङ्गलम्
तदेवाष्टांशमाधिक्यमायतं
चतुरस्त्रकम् ।
कर्णकूटं युगास्त्रं स्यादायतं
वृत्तमस्तकम् ॥५०॥
कोष्ठभद्रं विना तत्र शेषं
पूर्ववदाचरेत् ।
स्थूपित्रयसमायुक्तमेतन्नाम्ना
सुमङ्गलम् ॥५१॥
यदि देवालय चार भुजाओं वाला आयताकार
हो तथा उसकी लम्बाई चौड़ाई से आठ भाग अधिक हो, चार
भुजाओं वाला कर्णकूट हो एवं उसका शिखर वृत्तायताकार (दीर्घ-वृत्त के आकार का) हो
तथा कोष्ठभद्र न हो एवं शेष पूर्ववर्णित अवयव निर्मित हो तो तीन स्तूपिकाओं से
युक्त इस देवालय की संज्ञा 'सुमङ्गल' होती
है । ॥५०-५१॥
मयमत अध्याय २१- गान्धारम्
पञ्चदशकरव्यासं पङ्क्त्यंशेन
विभाजयेत् ।
गर्भगेहं चतुर्भागमन्धार्यंशेन
योजिता ॥५२॥
अलिन्द्रमंशमंशेन खण्डहर्म्यं बहिः
क्रमात् ।
कर्णे मध्येऽन्तरे कार्यं कूटं
कोष्ठं च पञ्जरम् ॥५३॥
देवालय का पन्द्रह हाथ व्यास होने
पर उसके पन्द्रह भाग करने चाहिये । चार भाग से गर्भगृह,
एक भाग से अन्धारी (भित्ति की मोटाई), एक भाग
से अलिन्द, एक भाग से खण्डहर्म्य, एक
भाग से कूट, एक भाग से कोष्ठ एवं एक भाग से पञ्जर निर्मित
करना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई उसकी चौड़ाई से दुगुनी होनी चाहिये, ऐसा बुद्धिमानों का मत है ॥५२-५३॥
भागेन कोष्ठकायामं द्विगुणं सम्मतं
बुधैः ।
ऊर्ध्वभूमौ रसांशे तु भागं
सौष्ठिकविस्तृतम् ॥५४॥
कोष्ठकं द्विगुणायामं हारा भागेन
योजयेत् ।
तदूर्ध्वे तु चतुर्भागं द्विभागं
मध्यनिर्गमम् ॥५५॥
ऊपरी तल के छः भाग होने चाहिये ।
सौष्ठिक की चौड़ाई एक भाग होनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई दुगुनी होनी चाहिये एवं
हारा एक भाग से होनी चाहिये । उसके ऊपर के तल का चार भाग करना चाहिये एवं दो भाग
से मध्य-निर्गम निर्मित करना चाहिये ॥५४-५५॥
दण्डं वाऽध्यर्धदण्डं वा द्विदण्डं
वा विशेषतः ।
चतुरस्त्रमधिष्ठानं तद्वत्
कन्धरमस्तकम् ॥५६॥
इसका माप एक दण्ड,
डेढ़ दण्ड या दो दण्ड होना चाहिये । अधिष्ठान चौकोर होना चाहिये एवं
इसी प्रकार कन्धर (गल) तथा शीर्ष होना चाहिये ॥५६॥
अष्टकूटं तथा नीडं कोष्ठकं तु तथैव
च ।
लम्बनीदमुपर्यष्टौ
वर्षस्थलसमन्वितम् ॥५७॥
कूटों की संख्या आठ हो एवं इसी
प्रकार नीड एवं कोष्ठक भी होना चाहिये । ऊर्ध्व भाग में वर्षस्थल (जल का स्थान) से
युक्त आठ लम्बनीड का निर्माण करना चाहिये ॥५७॥
नासिका स्वस्तिकाकार सर्वत्र
परिशोभिता ।
नानामसूरकस्तम्भवेदीजालकतोरणम् ॥५८॥
स्वस्तिक के आकार की नासिका सभी
स्थलों पर सुशोभित होती है । विभिन्न प्रकार के मसूरक (अधिष्ठान),
स्तम्भ, वेदी, जालक
(झरोखा) एवं तोरण इस भवन के अनुकूल होते है ॥५८॥
उन्नतौ कूटकोष्ठौ
चेदन्तरप्रस्तरान्वितौ ।
एतद् गान्धारमित्युक्तमष्टास्त्रं
वा गलं शिरः ॥५९॥
यदि कूट एवं कोष्ठ ऊँचे एवं
अन्तर-प्रस्तर (आधार-वेदिका) से युक्त हो, गल
एवं शिर अष्टकोण हों तो ऐसे देवालय को 'गान्धार' कहते है ॥५९॥
मयमत अध्याय २१- श्रीभोगम्
तदेव वर्तुलं वेदी कन्धरं शिखरं
भवेत् ।
शेषं पूर्ववदुद्दिष्टं नाम्ना श्रीभोगमिष्यते
॥६०॥
यदि वेदी,
कन्धर एवं शिखर गोलाकार हो तथा अन्य अङ्ग पूर्व-वर्णित विधि के
अनुसार हो तो उस देवालय की संज्ञा 'श्रीभोग' होती है ॥६०॥
मयमत अध्याय २१- कूटकोष्ठादि
वृत्ते वृत्तायते
द्व्यस्त्रवुत्तेऽष्टास्त्रे षडस्त्रके ।
कूटकोष्ठकनीडानामुपर्युपरि च
क्रमात् ॥६१॥
वृत्ताकार,
वृत्तायताकार (लम्बाई-युक्त गोलाई), दो कोण
वाले (एवं दूसरे सिरे पर) वृत्ताकार, आठ कोण एवं छः कोण वाले
भवन में प्रत्येक तल में कूट, कोष्ठक एवं नीड होना चाहिये ।
इनके ऊपर खण्ड-हर्म्यक (लम्बी सजावटी कक्ष की आकृति) भी हो, जो
कूट, कोष्ठ तथा नीडों से सुसज्जित हो ॥६१॥
कूटकौष्ठकनीडैश्च मण्डित
खण्डहर्म्यके ।
ऋजुभागविशालात्तु द्व्यस्त्रवृत्ते
तु वर्तुले ॥६२॥
भागं किञ्चिद् भवेन्न्यूनं भागं
सर्वं समं तु वा ।
अष्टांशोनदशांशोनमूर्ध्वांशं
वाऽप्यधोंऽशकात् ॥६३॥
यथा शोभाबलवाप्तिस्तथा युञ्जीत
बुद्धिमान् ।
दो कोण वाले वृत्ताकर एवं
वर्तुलाकार भवन में भीतरी भाग में सीधे भाग से कुछ कम हो सकता है या बराबर माप हो
सकता है । ऊपरी तल निचले तल से आठ या दश भाग कम हो सकता है । जिस रीति से भवन
सुन्दर लगे एवं दृढ़ हो, उस रीति का प्रयोग
बुद्धिमान स्थपति को करना चाहिये ॥६२-६३॥
मयमत अध्याय २१- पुनः
धामभेदाः
अर्पितानर्पितं चैव प्रासादं
द्विविधं भवेत् ॥६४॥
अर्पित न च
सालिन्द्रमनर्पितमलिन्द्रभाक् ।
एवमल्पक्रमं सर्वं योजयेत्तद्
विचक्षणः ॥६५॥
पुनः भवन के भेद - देवालय दो प्रकार
के होते है - अर्पित एवं अनर्पित । अर्पित देवालय में अलिन्द नही होता है एवं
अनर्पित में अलिन्द होता है । इस अल्पक्रम का प्रयोग सभी देवालयों में बुद्धिमान
स्थपति को करना चाहिये ॥६४-६५॥
मयमत अध्याय २१- नालीगृहम्
गुणशरमुनिनन्दैकादशैकाधिकाकै-
स्तिथिमुनिदशभागे हर्म्यतारे कृतेऽस्मिन्
।
शशिगुणयुगबाणैः षड्यमीनागनदैः
स्वभवनविपुलस्यार्धेन नालीगृहं
स्यात् ॥६६॥
गर्भगृह - गर्भगृह अथवा नाली-गृह का
प्रमाण देवालय का तीसरा भाग, पाँच भाग में
तीन भाग, सात में चार भाग, नौ में पाँच
भाग, ग्यारह में छः भाग, तेरह में सात
भाग, पन्द्रह में आठ भाग, सत्रह में नौ
भाग अथवा मन्दिर का आधा होना चाहिये ॥६६॥
मयमत अध्याय २१- वेदिका
हर्म्याङ्गानां कूटकोष्ठादिकानां
ग्रीवाधस्ताद् वेदिका योजनीया ।
हाराभागे वेदिकावेदिका वा नीडं वा
तत्राल्पनासं च कुर्यात् ॥६७॥
भवन के अवयवों के नीचे,
कूट एवं कोष्ठ आदि के नीचे एवं ग्रीवा के नीचे वेदिका निर्मित करनी
चाहिये । हाराभाग के नीचे वेदिका का निर्माण हो भी सकता है तथा नही भी हो सकता है
। वहाँ नीड एवं अल्प-नास का निर्माण (ऊपरी भाग में) होना चाहिये ॥६७॥
मयमत अध्याय २१- तोरणादिविधानम्
तोरणं त्रिविधं पत्रतोरणं
मकरान्वितम् ।
चित्रतोरणमित्येषां मण्डनं
त्वधुनोच्यते ॥६८॥
तोरण आदि का विधान - तोरण तीन
प्राकर के होते है - पत्र तोरण, मकर-तोरण एवं
चित्र-तोरण । अब इनकी सज्जा का वर्णन किया जा रहा है ॥६८॥
बालचन्द्रनिभं पत्रैश्चित्रितं
पत्रतोरणम् ।
द्वयोर्मकरयोर्वक्त्रस्थितमध्यमपूरितम्
॥६९॥
नानाविधलतायुक्तमेतन्मकरतोरणम् ।
उगते हुये चन्द्रमा के समान एवं
पत्रों से अलङ्कृत तोरण को 'पत्रतोरण'
कहते है । मध्य में दो मकरों के मुख पर स्थित पूरिन (शिव) हो एव
तोरण पर विविध प्रकार की लतायें निर्मित हो तो वह 'मकरतोरण'
होता है ॥६९॥
तदेव पार्श्वयोर्मध्यं पूरिमध्यं
द्वयोस्ततः ॥७०॥
नक्रतुण्डं प्रगृह्यैव
द्वयोरास्यविनिर्गतैः ।
विद्याधरैश्च भूतैश्च
सिंहैर्व्यालैश्च हंसकैः ॥७१॥
बालैः
स्तग्दामकैरन्यैर्मणिबन्धैर्विचित्रितम् ।
चित्रतोरणमेतत् स्याद् देवानां
भूभुजां वरम् ॥७२॥
(चित्रतोरण में) मध्य भाग में
पूरिन (शिव) स्थित रहते है, जिन्हे नक्र-तुण्ड (मकरों के मुख
का अग्र-भाग) दोनों ओर से पकड़े रहता है । दोनों मकर-मुखों से विद्याधर, भूत, सिंह, व्याल, हंस एवं बच्चे निकलते है जो पुष्पों की माला, अन्य
मणिबन्ध आदि आभूषणों से सुसज्जित रहते है । इस तोरण की संज्ञा 'चित्रतोरण' है तथा यह देवों एवं राजाओं के लिये
(देवालय एवं राज-भवन में) प्रशस्त होता है ॥७०-७२॥
गुहासु प्रतिमास्तासु
पार्श्वपादयुतानि च ।
तोरणान्युत्तराधस्तात् प्रयोज्यानि
विचक्षणैः ॥७३॥
इस तोरण की गुहाओं (सजावटी खिड़कियो
के भीतर का कक्षनुमा स्थान) में प्रतिमायें होती है । तोरण के दोनो पार्श्वो में
स्तम्भ होते है एवं नीचे उत्तर होते है । ॥७३॥
स्तम्भोच्चे पञ्चषट्सप्तद्व्यंशोच्चं
तोरणाग्रकम् ।
शेषं पादोदयं पादं
चतुरस्त्राष्टवृत्तयुक् ॥७४॥
कुम्भमण्ड्यादिसंयुक्तं पोतिकारहितं
तु वा ।
उत्तरं वाजनं साब्जक्षेपणं क्षुद्रवाजनम्
॥७५॥
स्तम्भ की ऊँचाई को पाँच,
छः या सात भागों में बाँटना चाहिये । दो भाग तोरण के ऊर्ध्व भाग के
लिये एवं शेष भाग स्तम्भ के लिये छोड़ना चाहिये । स्तम्भ चौकोर, अष्टकोण या वृत्ताकार होना चाहिये । यह कुम्भ एवं मण्डि से युक्त एवं
पोतिका के विना भी हो सकता है । इसके अतिरिक्त उत्तर, वाजन,
अब्ज-क्षेपण एवं क्षुद्र-वाजन निर्मित होती है ॥७४-७५॥
पोतिकापरि वा कुर्याद् वीरकाण्डस्य
चोपरि ।
उत्सन्ध्यन्तानताग्रं तु
कुर्यान्मकरविष्टरम् ॥७६॥
पोतिका के ऊपर या वीरकाण्ड के ऊपर
(स्तम्भ की) सन्धि के ऊर्ध्व भाग पर मकर-विष्टर (मकराकृति ढलान) निर्मित करना
चाहिये ॥७६॥
तुङ्गार्धं
त्रिचतुष्पञ्चदण्डतोरणविस्तृतम् ।
द्वारतुल्योन्नतं व्यासान्तरं
स्तम्भद्वयोरपि ॥७७॥
उत्तरोत्तरयुक्ताष्टमङ्गलोर्ध्वस्थनक्रवत्
।
फलकं पञ्चवक्त्रं तु तदूर्ध्वे
शूलसंयुतम् ॥७८॥
छत्रकेतुपताकाश्रीर्भेरी कुम्भं च
दीपिक ।
नन्द्यावर्तेन चाष्टौहि
सर्वेषामष्टमङ्गलम् ॥७९॥
तोरण की ऊँचाई की आधी उसकी चौड़ाई
रखनी चाहिये (अथवा) तीन, चार या पाँच दण्ड
तोरण का विस्तार रखना चाहिये । (अथवा) तोरण की ऊँचाई द्वार के बराबर हो एवं चौड़ाई
दोनों स्तम्भों के मध्यभाग के बराबर होनी चाहिये । ऊपरी भाग में मकर के आकार का
उत्तर निर्मित करना चाहिये, जिस पर अष्ट-मङ्गल पदार्थ अङ्कित
हो । फलक पर पञ्चवक्त्र (शिव) अङ्कित हो एवं ऊर्ध्व भाग में शूल निर्मित हो ।
ऊर्ध्व भाग में छत्र, ध्वज, पताका,
श्री, भेरी, कुम्भ,
दीप एवं नन्द्यावर्त आकृति (स्वस्तिक) सभी पर इन अष्टमङ्गल चिह्नो
का अङ्कन होना चाहिये । इस देवता आदि के (भवनों में) चार प्रकार के तोरणों के भेद
वर्णित है ॥७७-७९॥
एवं प्रोक्तं चतुर्भेदं देवादीनां
तु तोरणम् ।
पद्मासनोर्ध्वे कुम्भस्य तिर्यक्
चारुलताकृतिः ॥८०॥
तदूर्ध्वे
फलकोर्ध्वाब्जमिष्टकुम्भलताग्रकम् ॥८१॥
पद्मासन (पद्म-फलक) के ऊपर कुम्भ के
तिरछे (पार्श्व में) सुन्दर लता की आकृति होनी चाहिये । उसके ऊपरी फलक के ऊर्ध्व
भाग में कुम्भ की लता के अग्र भाग में पद्म-पुष्प अङ्कित होना चाहिये ॥८०-८१॥
पद्मकुम्भलतैवं
स्यादन्यदप्येवमूह्यताम् ।
तदेवोत्सन्धिकोर्ध्वे तु
वीरकाण्डसमन्वितम् ॥८२॥
स्तम्भकुम्भलतैवं स्याद्
स्तम्भतोरणविच्छिरः ।
हारायां तु प्रकर्तव्यां दैवेऽदैवे
निकेतने ॥८३॥
पद्म, कुम्भ एवं लता तथा अन्य सज्जाओं का भी अङ्कन होना चाहिये । ऊपरी जोड़ के
ऊपर वीरकाण्ड होना चाहिये । ऊर्ध्व भाग में स्तम्भकुम्भलता एवं स्तम्भतोरण होना
चाहिये । देवालय एवं उससे भिन्न (मनुष्य-आवास) में हारा-मार्ग का निर्माण करना
चाहिये ॥८२-८३॥
षडष्टदशमार्ताण्डमनुवैकारमात्रकैः ।
व्यासं तारार्धनिष्क्रान्तं
द्विद्व्यंशं वा त्रिभागिकम् ॥८४॥
वृत्ताकारसमं छन्नं तोरणाङ्घ्रिवदायतम्
।
सकन्धरं तदूर्ध्वे तु शुकनास्या
विभूषितम् ॥८५॥
'वृत्तस्फुटित' देवालयों का अलङ्करण होता है । इसकी लम्बाई तोरण के स्तम्भ के बराबर होती
है । इसकी चौड़ाई छः, आठ, दश, बारह या चौदह माप (मात्रक) की होनी चाहिये तथा निष्क्रान्त (बाहर निकला
भाग) चौड़ाई का आधा, दो तिहाई या एक तिहाई होना चाहिये । इसका
आच्छादन गोलाकार होता है । ऊर्ध्व भाग कन्धर (गल)से युक्त होता है, जिस पर 'शुकनासि' निर्मित होती
है ॥८४-८५॥
वृत्तस्फुटितमित्युक्तं द्युसदां
सद्मभूषणम् ।
तले तले तु सोपानं प्रयुञ्जीत
विचक्षणः ॥८६॥
त्रिविधं तस्य मूलं तु चतुरं
वृत्तमायतम् ।
चतुर्विधप्रकारं स्यात्त्रिखण्डं
शङ्खमण्डलम् ॥८७॥
सीढ़ी - प्रत्येक तल में बुद्धिमान
व्यक्ति को सीढ़ी का निर्माण करना चाहिये । इसका मूल (प्रारम्भ,
प्रकार) तीन प्रकार का सम्भव है - चौकोर, गोलाकार
या आयताकार । सीढ़ीयोंके चार प्रकार होते है -त्रिखण्ड, शङ्खमण्डल,
वल्ली मण्डल, एवं अर्धगोमूत्र ॥८६-८७॥
वल्लीमण्डलमत्यर्धगोमूत्रेण
समाहितम् ।
मूलादग्रं क्रमक्षीणं प्रथितं
शङ्खमण्डलम् ॥८८॥
स्याद् वल्लीमण्डलं
वृक्षारोहिवल्लीसमक्रियम् ।
अश्वपादोपरि स्थित्यारोहणं
दक्षिणाङ्घ्रिणा ॥८९॥
द्विदण्डाद्या सप्तदण्डात् सोपानस्य
विशालता ।
अश्वपादस्य विस्तारो
द्विगुणाद्यश्चतुर्गुणात् ॥९०॥
मूल (प्रारम्भ) से ऊपर तक चौड़ाई में
क्रमशः क्षीण होने वाला सोपान 'शङ्खमण्डल'
है । वल्लीमण्डल सोपान की संरचना वृक्ष पर चढ़ी हुई (गोलाई में लिपटी
हुई) लता के समान की जाती है । अश्वपाद (अश्व के खुर अथवा अर्धचन्द्र का प्रथम
सोपान पट्टी) के ऊपर से प्रारम्भ होकर दक्षिण की ओर मुड़ते हुये दो दण्ड से लेकर
सात दण्डपर्यन्त सोपान की चौड़ाई हो सकती है । अश्वपाद का विस्तार सोपान के प्रमाण
से दुगुना से लेकर चार गुना तक होता है ॥८८-९०॥
शयितव्यासपादार्धत्रिपादांशं
दृशोदयैः ।
स्थितानीभबालवृद्धसमखण्डान्यनुक्रमात्
॥९१॥
शयानफलकव्यासः षोडशाष्टादशाङ्गुलाः
।
समुद्गतं षडंशैकमेवं सोपानकल्पनम्
॥९२॥
सोपान-पट्टियों के मध्य की ऊँचाई
शयित व्यास (लेटाई गई पट्टियों की चौडाई) की चौथाई, आधी या तीन चौथाई होनी चाहिये । गज, बच्चों एवं
वृद्धो को ध्यान में रखते हुये सोपान-पट्टियों को बराबर भागों में बाँटना चाहिये
(अर्थात उनकी लम्बाई-चौड़ाई आदि पूर्व-निर्धारित प्रमाण में हो) । सोपान के बिछे
फलक का व्यास (गहराई) सोलह से अट्ठारह अङ्गुल होना चाहिये एवं ऊँचाई उसके छठे भाग
के बराबर होनी चाहिये । इस प्रकार सोपान का निर्माण करना चाहिये ॥९१-९२॥
हस्तव्यासं द्विदण्डं तत्पादव्यासं
तु बाहलम् ।
हस्ते यथाबलं योज्यं प्रविशेत्
स्थितशायिनोः ॥९३॥
हस्त की चौड़ाई दो दण्ड एवं मोटाई
उसकी चतुर्थांश होनी चाहिये । स्थित (खड़ी स्थिति) एवं शायिन (लेटी स्थिति) वाले
फलकों को हस्त में दृढतापूर्वक बैठाना चाहिये । (हस्त सीढ़ी के पार्श्व का एक अङ्ग
है ) ॥९३॥
अयुग्ममेव सोपानं
गुह्यागुह्यवशात्ततः ।
एकभक्तिविनिष्क्रान्तं मण्डपादिषु
बाह्यतः ॥९४॥
सोपानों की संख्या विषम होनी चाहिये
। ये गुप्त (भित्ति आदि में छिपी) या प्रकट हो सकती है । मण्डप आदि में बाहर की ओर
एक भित्ति (सीढ़ी का एक विशेष भाग) निकली होनी चाहिये ॥९४॥
सोपानं सर्ववर्णानां
प्रादक्षिण्याधिरोहणम् ।
प्रशस्तं विपरीतं तद् विनाशाय
भवेदिह ॥९५॥
सभी वर्ण वाले व्यक्तियों के भवन
में सीढ़ी दक्षिण (दाहिनी) की ओर घूमनी चाहिये । यह शुभ होता है । इसके विपरी
(बाँयी ओर मुड़ना) विनाशकारक होता है ॥९५॥
अधिष्ठानाधिरोहार्थं सोपानं
पार्श्वयोर्मुखम् ।
हस्तिहस्तं चाश्वपादफलकान्तं
प्रयोजयेत् ॥९६॥
अधिष्ठान पर चढ़ने के लिये निर्मित
सोपान मुख एवं दोनों पार्श्वों की ओर होना चाहिये । हस्तिहस्त (सीढ़ी का एक भाग,
सम्भवतः रेलिङ्ग) का निर्माण अश्वपाद से लेकर फलक (ऊपर फलक) तक होना
चाहिये ॥९६॥
सोपानं तदधिष्ठानस्तम्भप्रस्तरवद्
भवेत् ।
एवं विधिविशिष्टं तु सोपानं सम्पदां
पदम् ॥९७॥
अधिष्ठान का सोपान उसके
स्तम्भ-प्रस्तर के बराबर (ऊँचा) होना चाहिये । इस विधि से निर्मित सोपान
सम्पत्ति-कारक होता है ॥९७॥
एवं प्रोक्तं तैतिलानां नराणां वासे
योग्यं तोरणं चैव युक्त्या ।
सोपानं तद्भेदमाकारमस्मिन् सम्यग्
योज्यं वास्तुविद्याविधिज्ञैः ॥९८॥
इस प्रकार देवालय एवं मनुष्यों के
आवास के अनुरूप तोरण एवं सोपान के भेद एवं आकार का वर्णन किया गया। वास्तु-विद्या
के ज्ञाता को भवन के अनुसार उचित रीति से इनकी योजना बनानी चाहिये ॥९८॥
स्यान्नागरं द्राविडवेसरं च क्रमेण
वै सत्त्वरजस्तमांसि ।
महीसुरोर्वीपतिवैश्यकास्ते
हरिर्विधाता हर आधिदैवाः ॥९९॥
इस प्रकार इनके (भवन के) तीन भेद-
नागर,
द्राविड एवं वेसर होते है, जो क्रमशः सत्त्व,
रजस एवं तमस के प्रतीक है । ये (मनुष्यों में) ब्राह्मण, राजा (क्षत्रिय) एवं वैश्य के तथा (देवों में) हरि, विधाता
एवं शिव के (भवन के लिये) अनुकूल होते है ॥९९॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
त्रिभूमिविधानो नामैकविंशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 22
0 $type={blogger} :
Post a Comment