अगस्त्य संहिता अध्याय १३
अगस्त्य संहिता के इस १३ वें अध्याय
में पूजा के पात्रों को यथास्थान रखकर शंखपात्र में सामान्यार्ध्य-स्थापन की विधि
प्रारम्भ में बतलायी गयी है कि शंख को आधार पर रखकर सूर्य,
चन्द्र और अग्नि के बीज मन्त्र से तीनों मण्डलों की पूजा कर के शंख
जल में अंकुश मुद्रा से तीर्थों का आवाहन कर, शंखमुद्रा,
चक्रमुद्रा, गरुड़मुद्रा, सुरभिमुद्रा आदि का प्रदर्शन कर देव का अभिषेक करें और उसी जल से यजमान
अपने शरीर एवं अन्य सामग्रियों को पवित्र करें। आगे पाद्य, अर्घ्य,
आचमन आदि की स्थापना, स्नपन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि का
विस्तृत वर्णन है ।
अगस्त्यसंहिता अध्याय १३
Agastya samhita chapter 13
अगस्त्य संहिता त्रयोदश अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता तेरहवाँ अध्याय
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
अगस्त्य उवाच
सुतीक्ष्ण पात्राण्यासाद्य ततः
पूजार्थमादरात् ।
शङ्खमस्त्रेण संशोध्य सदाधारे निधाय
च । ।1।।
पूजयेदग्निसूर्येन्दुबीजैस्तत्तत्कलान्वितैः
।
तत्तत्कलानां संख्या च दश द्वादश
षोडश ।।2।।
अगस्त्य बोले- हे सुतीक्ष्ण
पूजा-पात्रों को एकत्रित कर पूजा के लिए आदर पूर्वक शंख को अस्त्र-मन्त्र से शोधित
कर से सुन्दर आधार पर रखकर कलाओं के साथ अग्निबीज (रं) सूर्यबीज (सं) एवं
चन्द्रबीज (सं) से पूजा करें। उनकी कलाएँ क्रमशः दस, बारह एवं सोलह हैं ।
आधारशङ्खतीर्थेषु
तत्तन्मण्डलमर्चयेत् ।
तीर्थावाहनमन्त्रैश्च
तीर्थान्यावाह्य पूजयेत् ।।3।।
गन्धपुष्पाक्षतैर्धूपैर्दीपाद्यैरति
भक्तितः ।
शङ्ख पाणितलं दत्त्वा जपेन्मन्त्रं
षडक्षरम् ।।4।।
आधार शंख के जल में उन उन मण्डलों
की पूजा करें। तीर्थावाहन मन्त्रों से तीर्थों का आवहन कर गन्ध,
पुष्प, अक्षत, धूप,
दीप आदि से अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा करें। इसके बाद शंख के ऊपर
तलहत्थी रखकर षडक्षर मन्त्र का जप करें।
चिन्मयं चिन्तयेत्तीर्थमानीयाङ्कशमुद्रया
।
ब्रह्माण्डोदरतीर्थाभ्यां
धेनुमुद्रां प्रदर्श्य च ।।5।।
शङ्खमुद्रां चक्रमुद्रां
गरुडाख्याञ्च दर्शयेत् ।
ब्रह्माण्ड के उदर से तथा पवित्र
तीर्थों से अंकुश मुद्रा के द्वारा तीर्थों का धेनु- मुद्रा दिखाकर शंखमुद्रा,
चक्रमुद्रा और दिखावें ।
गरुडमुद्रा परमीकृत्य यत्नेन पावनं
तद्विचिन्तयेत् ।।6।।
देवस्य मूर्ध्नि तत्सिञ्चेत्
पूजाद्रव्येषु चात्मनः ।
इस प्रकार यत्न पूर्वक अमृतीकरण कर
उस शंख जल को परम पवित्र मानें और उसे देवता के मस्तक पर,
पूजा सामग्रियों पर तथा अपने ऊपर छिड़कें ।
अवेक्षणं प्रोक्षणञ्च वीक्षणं ताडनं
तथा । । 7 ।।
अर्चनं चैव सर्वेषां पावनत्वं
प्रकल्पयेत् ।
पूतमेवाखिलं पूजायोग्यं भवति
सार्थकम् ।।8।।
उस शंखजल के दर्शन की क्रिया में प्रोक्षणमुद्रा
दिखाकर तथा पुनः दर्शन में ताड़न मुद्रा दिखावें किन्तु दोनों क्रियाओं में अर्चन
मुद्रा दिखाकर उसकी पवित्रता की कल्पना करें।
अर्घ्यपाद्यप्रदानार्थं मधुपर्कार्थमप्यथ
।
तथैवाचमनार्थञ्च न्यसेत्
पात्रचतुष्टयम् ।।9।।
आत्मनः पुरतः शङ्ख पूर्वतः साधयेत्ततः
।
अर्घ्यपात्रे पाद्यपात्रे सम्पूर्य'
सलिलं शुभम् ।। 10 ।।
तथार्घ्यपात्रे दातव्याः
गन्धपुष्पयवाक्षताः ।
कुशाग्रतिदूर्वाश्च
सर्षपाश्चार्थसिद्धये ।। 11 ।।
अर्घ्य,
पाद्य, मधुपर्क एवं आचमन समर्पण के लिए चार
पात्र स्थापित करें। अपने सामने में शंख को पूर्व दिशा से रखें । अर्घ्यपात्र और
पाद्यपात्र में पवित्र जल भरकर अर्घ्य पात्र में चन्दन, पुष्प,
यव, अक्षत, कुश का अगला भाग,
तिल, दूर्वा और सरसो कामनाओं की पूर्ति के लिए
डालें ।
पाद्यपात्रे प्रदातव्यं श्यामाकं
दूर्वमेव च ।
अब्जं च विष्णुक्रान्तां च पाद्यसिद्ध्यै
प्रयोजयेत् ।। 12 ।।
पाद्यपात्र में साँवा,
दूर्वा, कमल एवं अपराजिता ये पाद्य के प्रयोजन
के लिए डालें ।
तथाचमनपात्रेऽपि दद्याज्जातीफलं
मुने ।
लवङ्गमपि कङ्कोलं शस्तमाचमनीयकम् ।।
13 ।।
दध्ना च मधुसर्पिभ्यां मधुपर्को
भविष्यति ।
आचमनपात्र में जायफल,
लौंग, कंकोल डालें जो आचमन के लिए प्रशस्त
हैं। दही, मधु और घृत मिलकर मधुपर्क बनता है ।
स्नानं पुरुषसूक्तेन शुद्धशङ्खोदकेन
च ।। 14 ।।
क्षीरदध्याज्यमधुभिः खण्डेन च पृथक्
पृथक् ।
नारिकेरोदकेनापि तथान्यच्च
फलाम्बुना ।15।।
शुद्ध शंख जल से,
दूध, दही, घी, मधु और शर्करा से पृथक् पुरुषसूक्त स्नान कराना चाहिए। अथवा नारियल के जल
से तथा अन्य फलों के रस से ।
स्नानं प्रकुर्वन्ति ये नराः
राममूर्द्धनि ।
शताश्वमेधजं पुण्यं बिन्दुना
बिन्दुना शतम् ।।16।।
क्षीरं दशगुणं दध्ना घृतञ्चैव
दशोत्तरम् ।
घृताद् दशगुणं क्षौद्रं
क्षौद्राद्दशगुणोत्तरम् ।।17।।
जो मनुष्य श्रीराम की मूर्द्धा पर
दूध से अभिषेक करते हैं, वे प्रत्येक बूँद
से सौ सौ अश्वमेध यज्ञ के फल को प्राप्त करते हैं। दही से अभिषेक की अपेक्षा दुग्धाभिषेक
दश गुणा फलदायी है तथा घृताभिषेक सौ गुणा । घृताभिषेक का दशगुणा मधु - अभिषेक का
फल है।
गन्धद्रव्यैश्च बहुभिस्तथा
गन्धोदकेन च ।
ऐक्षवेणोदकेनापि कर्पूरादिसुगन्धिना
।। 18।।
कदलीपनसाम्रोत्थजलेनापि सुगन्धिना ।
शतं सहस्रमयुतं भक्त्या चाप्यभिषेचयेत्
।।19।।
चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों से
चन्दन मिश्रित जल से अभिषेक करना चाहिए । ईख का रस, कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थ से अथवा केला, कटहल,
आम आदि के सुगन्धित रस से सौ बार, हजार बार और
दस हजार बार भक्तिपूर्वक अभिषेक करना चाहिए।
शङ्खं सम्पूर्य्य तेनैव सपुष्पेण
रघूत्तमम् ।
सकृष्णागरुधुपेन धूपयेदन्तरात्मना
।। 201
ततः शुद्धजलेनैव स्नापयेत्
तमनन्यधीः ।
राज्यार्थी राज्यसिद्ध्यर्थमैवं
वत्सरमादरात् ।। 21।।
एवमेवाभिषिञ्चेत राजा भवति नान्यथा
।
शंख को उन रसों से भरकर उसमें फूल
डालकर अभिषेक करें। गुग्गुल का धूप बीच बीच में हृदय से अर्पित करे। तब शुद्ध जल
से राज्य की कामना से एकाग्र होकर स्नान कराएँ। इस प्रकार,
राज्यसिद्धि के लिए आदरपूर्वक एक वर्ष तक अभिषेक करे, तो वह राजा होता है, इसमें सन्देह नहीं ।
दत्वाप्याचमनीयं च वाससी परिधापयेत्
।। 22 ।।
ततो भूषणदानञ्च सोत्तरीयेण वाससा ।
यज्ञोपवीतं दत्वा च
दद्याच्चन्दनमादरात् ।। 23 ।।
इसके बाद आचमन समर्पित कर जोड़ा
वस्त्र पहनावें । तब आभूषण आदि देकर दुपट्टा के साथ वस्त्र चढ़ावें । फिर
यज्ञोपवीत देकर आदरपूर्वक चन्दन दें।
पुष्पाणि पुष्पमाल्यानि विविधानि
समर्पयेत् ।
धूपं दीपञ्च नैवद्यं ताम्बूलं च
प्रदक्षिणम् ।। 24।।
नमस्कारञ्च पूजायामुपचास्तु षोडश ।
अनेक प्रकार के पुष्प और
पुष्पमालाएँ समर्पित करें। तब धूप, दीप,
नैवेद्य देकर प्रदक्षिणा (चार बार परिक्रमा) करें। पूजा के क्रम में
अन्त में प्रणाम करें; ये षोडश उपचार हैं।
आवाहनादिकाश्चैव तथैकादश पञ्चधा । ।
25।।
भवन्त्येवोपचारास्तैः पूजां
कुर्यादहर्निशम् ।
आवाहन आदि एकादशोपचार और पञ्चोपचार
भी होते हैं । इनसे भी दिन रात पूजा करें ।
स्नानाद्यैरपि गन्धाद्यैः शक्त्या
भक्त्योपकल्पितैः ।। 26 ।।
द्वारपीठामरानादौ अभ्यचैव पुनस्ततः
।
राममाराध्य विधिना सर्वैरप्युपचारकैः
।।27 ।।
अङ्गावरणदेवाश्च सम्पूज्यान्यायुधानि
च ।
स्नान आदि से तथा चन्दन आदि से
सामर्थ्यानुसार भक्तिपूर्वक द्वार और पीठ के देवताओं की पूजा करके ही विधिपूर्वक
सभी उपचारों से श्रीराम की पूजा कर अंग देवताओं तथा आवरण की पूजा कर,
श्रीराम के सभी शस्त्रास्त्रों की पूजा करें।
एवं सम्यक् समाराध्य
साङ्गावरणवाहनम् ।।28।।
स्तोतव्यमपि यत्नेन रामं
शश्वत्प्रणम्य च ।
यवस्था अपि मन्त्रैश्च सम्यक्
पूज्या प्रयत्नतः ।। 29।।
इस प्रकार प्रतिदिन अंगदवताओं,
आवरण देवताओं तथा वाहनों के साथ श्रीराम की पूजा कर बार बार प्रणाम
कर श्रीराम की स्तुति करें तथा यन्त्र पर अवस्थित देवताओं की पूजा मन्त्रों से
अच्छी तरह करें।
एवमेव यजेदग्नौ होमादावपि राघवम् ।
तर्पणादावपि जलेप्येवमाराध्य
तर्पयेत् ।।30 ।।
इसी प्रकार होम आदि में भी पहले
श्रीराम की पूजा अग्नि में करें। तर्पण आदि के क्रम में भी जल में इसी प्रकार पूजा
कर तर्पण करें।
शालग्रामशिलायां च तुलसीदलकल्पिता ।
पूजा श्रीरामचन्द्रस्य
कोटिकोटिगुणाधिका ।। 31 ।।
प्रतिमायां च यन्त्रे वा भूमावग्नौ
विवस्वति ।
तले वा हृदये वापि विधायाराधयेद्
रहः ।। 32 ।।
शालग्राम की शिला पर तुलसीदल से
श्रीराम की पूजा करोड़ो करोड़ गुणा फल देती है। प्रतिमा पर अथवा यन्त्र पर भूमि पर
अथवा अग्नि में, सूर्य में, हाथ की तलहत्थी पर अथवा अपने हृदय में श्री राम की पूजा एकान्त में करें।
कालेनैवोपचाराणां पूजयेत्तुलसीदलैः
।
घण्टां च वादयेद् दद्याद्
देवायाचमनीयकम् ।।33।।
मध्ये मध्ये च तद्वच्च नत्वा नत्वा
समर्पयेत् ।
समयानुसार सभी उपचारों के स्थान में
तुलसीदल डालें; घंटा बजावें तथा देवता को
आचमनीय समर्पित करें। बीच बीच में उन अर्घ्य वस्तु को नमन कर समर्पित करें।
मुकुलैः पतितैश्चैव खण्डितैः
शोषितैरपि ।।34 ।।
अनर्हेरपि पुष्पैश्च दलैः पत्रैश्च
नार्चयेत् ।
मुरझाए हुए,
गिरे हुए, टूटे हुए, सूखे
हुए तथा पूजा के अयोग्य पुष्प,पत्र और दल से पूजा न करें।
येन केनापि पुष्पेण पत्रेणापि फलेन
वा ।।35।।
यतः कुतश्चिदानीय यत्रकुत्रोद्भवेन
च ।
भवार्थं जीवितार्थं च नोऽर्चयेद्
गर्हितस्थले ।।36 ।।
जिस किसी भी फूल,
पत्र एवं फल से जो इधर उधर जन्में हों और इधर उधर से अर्थात्
अपवित्र स्थान से लाये गये हों, उनसे अशुभ स्थान में
सांसारिक सुख और जीवन के लिए पूजा नहीं करनी चाहिए।
गंगायां गोप्रदानेन
दिव्यवर्षशतत्रयम् ।
तत्फलं प्राप्यते
नित्यमाराध्याप्नोति तद्धरिम् ।।37 ।।
गंगा के तट पर गोदान करने से जो तीन
सौ दिव्य वर्ष तक स्वर्गवास का फल मिलता है वही फल उसे भी मिलता है जो प्रतिदिन
श्री हरि की पूजा करें।
पत्रं पुष्पं फलं वापि
रामाराधनसाधनम् ।
दाराधितं यो वै तस्य पुण्यफलं शृणु ।।38।।
कुरुक्षेत्रे च गंगायां प्रयागे
पुरुषोत्तमे ।
गोसहस्रप्रदानेन यत्पुण्यं
समवाप्यते ।। 39 ।।
तदेतदखिलं पुण्यं प्राप्नोत्येव न
संशयः ।
समग्रमसमग्रं वा यो दद्यात् पूजितं
हरिम् ।।40।।
कदाचिदपि नित्यं वा पत्रपुष्पादिकं
बहून् ।
किं तीर्थसेवया
दानैरन्यैर्बहुभिरीरितैः ।। 41 ।।
आराधनासमर्थश्चेद् दद्यादर्चनसाधनम्
।
श्रीराम की आराधना के साधन पत्र,
पुष्प, फल आदि जो दान करते हैं उनके पुण्य का
फल सुनें । कुरुक्षेत्र, गंगा के तट, प्रयाग
क्षेत्र और पुरुषोत्तम क्षेत्र में हजारों गाय दान करने का फल जो मिलता है,
वही समग्र फल वह भी प्राप्त करता है, वही
समग्र फल वह भी प्राप्त करता है। पूजा की सभी वस्तुएँ अथवा कुछ वस्तुएँ जो
प्रतिदिन अथवा कभी कभी अथवा अधिक मात्रा में पत्र-पुष्प आदि जो दान करते हैं,
उनके लिए अन्य स्थलों पर विहित दान और तीर्थ में निवास करना सब
व्यर्थ है। स्वयं आराधना करने में जो असमर्थ हों वे आराधना के साधनों का दान करें
।
प्रदातुं वै नरान् कोऽस्ति
कुर्यादर्चनदर्शनम् ।।42।।
निस्ताराय तदेवालं भवाब्धेः
मुनिसत्तम ।
नैकं च यस्य विद्येत सोऽधो यात्येव
नान्यथा ।। 43 ।।
अथवा मनुष्य को दान करने में भी भला
कौन समर्थ है! इसलिए आराधना का दर्शन ही करना चाहिए। संसार के समुद्र में पार
लगाने के लिए वही पर्याप्त है। इनमें से जो एक भी नहीं करते उनका अध: पतन निश्चित
है ।
नियमव्यतिरेकेण यः कुर्याद्
देवतार्चनम् ।
किञ्चिदप्यस्य न फलं भस्मनीव हुतं
मुने ।।44 ।।
योऽर्चयेद् विधिवद् भक्त्या
परानीतैश्च साधनैः ।
पूजा फलार्द्धमेवास्य न समग्रफलं
लभेत् ।। 45।।
नियमों के विपरीत जो देवता की
अर्चना करते हैं, उन्हें राख में हवन
करने के समान कुछ भी फल नहीं होता है। जो विधानों के अनुसार भक्तिपूर्वक दूसरे के
द्वारा लाये गये साधनों से पूजा करते हैं उन्हें आधा फल ही मिलता है; पूरा नहीं।
यस्तु भक्त्या प्रयत्नेन स्वयं
सम्पाद्य चाखिलम् ।
साधनं चार्चयेद् विद्वान्
समग्रफलभाग् भवेत् ।।46।।
यो धनव्ययमायासमविचार्यार्च्चयेद्
हरिम् ।
स्वयं सम्पाद्य तत्सर्वं सवरं
तत्फलं लभेत् ।।47।।
जो भक्तिपूर्वक स्वयं यत्न करके सभी
सामग्रियों की व्यवस्था कर अर्चन करते हैं, उन्हें
समग्र फल की प्राप्ति होती है। जो धन का व्यय और प्रयत्न दोनों की परवाह किए विना
श्रीहरि की आराधना स्वयं साधन जुटाकर करते हैं तथा उन्हें नैवेद्य आदि अर्पित करते
हैं, वे वर के साथ सम्पूर्ण फल पाते हैं।
स्वयमानीय चोत्पाद्य पूजोपकरणानि यः
।
पूजयेत्तद्विधेयं स्यादुत्तमं
प्रार्थदं हरिम् ।।48।।
स्वयं लाकर और स्वयं उगाकर पूजा
सामग्रियों से श्रीहरि की पूजा करते हैं वह उत्तम विधि है इससे अच्छी प्रकार
प्रयोजनों की सिद्धि होती है।
कलत्रपुत्रशिष्यादि'
तत्तत् सम्पादितं च यत् ।
मध्यमं चार्चनं तेन तैः सार्द्धं
तत्फलं लभेत् ।।49 ।।
पत्नी,
पुत्र, शिष्य आदि के द्वारा व्यवस्था किए जाने
पर मध्यम प्रकार की पूजा होती है उससे आधा फल मिलता है।
अन्यैः सम्पाद्य यद्दत्तं
क्रयक्रीतेन तेन वा ।
गौणमाराधितं तेन पादमात्रफलं लभेत् ।।50।।
दूसरे के द्वारा व्यवस्था कर दान की
गयी सामग्रियों से अथवा खरीदकर की गयी पूजा तुच्छ होती है इससे चौथाई फल ही मिलता
है।
परारोपितवृक्षेभ्यः पुष्पाण्यानीय
वार्चयेत् ।
अविज्ञाप्यैव तैर्यस्तु निष्फलं
तस्य पूजनम् ।। 51 ।।
दूसरे के द्वारा लगाये गये वृक्ष से
विना सूचना दिये हुए फूल लाकर जो पूजा करते हैं वह निष्फल होती है।
राममाराध्य संस्थाप्य सन्निरुध्य च
मुद्रया ।
प्रतिष्ठाप्यार्चयेद् विष्णुं न च
तन्निष्फलं भवेत् ।। 52 ।।
मुद्रा के द्वारा श्रीराम का आराधना
स्थापन एवं सन्निरौधन कर प्रतिष्ठित कर विष्णु की पूजा करते हैं तो वह निष्फल नहीं
होता ।
ततो'
मुद्रान्तराण्येव दर्शयेच्चैव सादरम् ।
प्रसाद्य सम्मुखीकृत्य सन्निधाप्य च
पूजयेत् ।।53 ।।
सकलीकृत्य प्राणास्तु
तदानीमिन्द्रियाण्यपि ।
यद्येवं पूजयेद्रामं भुक्तिं
मुक्तिं च विन्दति ।। 54 ।।
इसके बाद आदरपूर्वक दूसरी मुद्राएँ
भी दिखावें । प्रसादजी, सम्मुखीकरणी और
सन्निधापनी मुद्रा दिखाकर पूजा करें। उनके प्राण को सकलीकरण कर उनकी इन्द्रियों का
भी सकलीकरण करें। यदि इस प्रकार श्रीराम की पूजा करें तो भुक्ति और मुक्ति दोनों
प्राप्त करते हैं।
इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये
रामपूजाविधिर्नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 14

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