अगस्त्य संहिता अध्याय १२

अगस्त्य संहिता अध्याय १२                

अगस्त्य संहिता के इस १२ वें अध्याय में मातृका - न्यास का क्रम बतलाया गया है। '' से '' तक के 52 वर्ण को अनुस्वार के साथ शरीर के प्रत्येक अंग में नियोजित करना मातृकान्यास है। इसी में केशवकीर्त्यादि न्यास भी वर्णित है। साधक अपने शरीर में बीजाक्षरों और देवताओं को व्यस्त कर देवत्व प्राप्त कर लेता है तथा उसका यह पांचभौतिक शरीर पवित्र हो जाता है। इस सम्पूर्ण अध्याय में शरीर के विभिन्न न्यासों का निरूपण किया गया है।

अगस्त्य संहिता अध्याय १२

अगस्त्यसंहिता अध्याय १२           

Agastya samhita chapter 12

अगस्त्य संहिता द्वादश अध्याय

अगस्त्य संहिता

अगस्त्यसंहिता बारहवाँ अध्याय

अथ द्वादशोऽध्यायः

अथातो मातृकान्यासक्रमोऽत्र परिपठ्यते ।

नियम्यासून् ऋषिच्छन्दो देवताबीजपोषिताः ।। 1 ।।

शिरोवदनहृद्गुह्यपादेषुन्यास उच्यते ।

कराङ्गुलीनां रेखासु स्वरैकैकं प्रविन्यसेत् ।। 2 ।।

अब यहाँ मातृकान्यास की विधि बतलायी जा रही है। प्राण वायु को नियमित कर ऋषि, छन्द, देवता और बीज का न्यास शिर, मुख, हृदय, गुह्य एवं पैरों में किया जाता है। हाथ की अंगुलियों की प्रत्येक रेखा पर एक एक स्वर का न्यास होता है।

विन्यसेत्प्रणवं पाणितलयोः पृष्ठयोरपि ।

ह्रस्वदीर्घस्वरान्ताद्याः कादयः पञ्चपञ्चका: ।।3।।

आमश्चाद्यं तयोर्यादिक्षान्तश्च दशवर्णकः ।

अङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीनां च तथैव तलपृष्ठयोः।।4।।

सबसे पहले दोनों हाथों तथा पैरों के तल और उसके पीछे न्यास ॐकार से करें । ह्रस्व एवं दीर्घ स्वर वर्ण प्रारम्भ में लगाकर '' से '' तक पच्चीस वर्णों का तथा '' से 'क्ष' तक दश वर्णों से अंगुष्ठा से प्रारम्भ कर दोनों हाथों की अंगुलियों तथा करतल और करपृष्ठ में इस प्रकार न्यास करें-

अं आं कं खं गं घं ङं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

इं ईं चं छं जं झं ञं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।

उं ऊं टं ठं डं ढं णं मध्यमाभ्यां वषट् ।

ऋं ऋॄं तं थं दं धं नं अनामिकाभ्यां हुम् ।

पं फं बं भं मं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।

एं ऐं यं रं लं वं करतलाभ्यां फट् ।

ओं औं शं षं सं हं हौं क्षं करपृष्ठाभ्यां फट् ।

न्यासस्ततः षडङ्गानां भवत्येवं प्रकल्पना ।

हृदि मूर्ध्नि शिखायां च सर्वाङ्गे नेत्रयोरपि ।।5।।

दिवस्त्रं च नमः स्वाहा वषट् वौषडप्यथा ।

अस्त्राय फडित्येवं षडङ्गानाञ्च पल्लवम् ।।6।।

तत्तत् स्थाने चतुर्थ्यन्ते तत्तत् पल्लवयोगतः ।

तत्तदङ्गतो न्यासस्तत्तदङ्गो नियोज्यते ।।7।।

तब षडङ्गन्यास की विधि इस प्रकार करनी चाहिए। हृदय, शिर, शिखा, सर्वाङ्ग और दोनों नेत्रों में। दिशाओं में अस्त्र (फट्), नमः स्वाहा, वषट् तथा वौषट् तथा अस्त्राय फट् से षडङ्गन्यास का विस्तार किया जाता है। इसके बाद अपने बीजों का विस्तार उन अंगों के चतुर्थ्यन्त पद से उन अंगों का विनियोग होता है। जैसे- हृदयाय नमः, शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्, सर्वाङ्गे वौषट्, नेत्रयोः वौषट्, दिक्षु अस्त्राय फट् ।

अथान्तर्मातृकान्यासः कण्ठन्नाभिगुह्यके ।

पायौ भ्रूमध्यके पद्मे षोडशद्वादशच्छदम् ।।8।।

दशपत्रे च षट्पत्रे चतुःपत्रे द्विपत्रके ।

पञ्चाशद्वर्णविन्यासः पत्रसंख्याक्रमाद् भवेत् ।।9।।

एकैकवर्णमेकैकपत्रान्ते विन्यसेन्मुने ।

इसके बाद अन्तर्मातृकान्यास कण्ठ, हृदय, नाभि, लिंगमूल, गुदा एवं भ्रूमध्य में होता है। क्रमशः षोडशदल कमल, द्वादशदल कमल, दशदलकमल, "षड्दलकमल स्वरूप यन्त्र, चतुर्दल कमल तथा द्विदल कमल में दलों की संख्या में पचासों वर्णों का न्यास करना चाहिए। एक एक वर्ण को एक एक दल पर न्यास करें। जैसे-

अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋॄं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अं: षोडशदलकमलाय कण्ठाय नमः ।

कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं द्वादशदलकमलाय हृदयाय स्वाहा ।

डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं दशदलकमलाय नाभये वषट् ।

बं भं मं यं रं लं षड्दलकमलाय लिङ्गमूलाय वौषट् ।

वं शं षं सं चतुर्दलकमलाय मूलाधाराये गुदायै वौषट् ।

हं क्षं द्विदलकमलाय भ्रूमध्याय फट् ।

एवमन्तः प्रविन्यस्य मनसातो बहिर्न्यसेत् ।।10।।

शिरोवदनवृत्ते च चक्षुश्रोत्रयुगेऽपि च ।

नासाकपोलयुगलं तथोष्ठाधरयोरपि ।।11।।

ऊर्ध्वा दन्तपङ्क्तौ च मूर्द्धास्ये षोडशस्वरान् ।

कचवर्गे द्वयं बाह्वोः पञ्चसन्धिस्थले न्यसेत् ।।12।।

टवर्गद्वयं पादे सन्ध्यग्रेऽपि तथा न्यसेत् ।

पवर्गं पार्श्वयुगले पृष्ठनाभ्युदरेऽपि च ।। 13 ।।

हृदोर्मूलककुत्कक्षे हृदयादिकरद्वयोः ।

जठराननयोश्चैव व्यापकं विनियोजयेत् ।।14।।

पञ्चाशद्वर्णविन्यासः क्रमेणैवं विधीयते ।

इस प्रकार अन्तर्मातृका न्यास कर मन ही मन बहिर्मातृकान्यास करें । शिर, मुखवृत्त, दोनों नेत्रों और कानों में, दोनों नाकों और दोनों गालों, अधर एवं ओष्ठ, ऊर्ध्वदन्त पंक्ति, अधोदन्त पंक्ति, मूर्द्धा एवं मुख इन सोलह अंगों में सोलह स्वरों का न्यास करें। इसके बाद क वर्ग एवं च वर्ग से क्रमशः दक्षिण और वाम बाहु के पाँच सन्धि स्थलों (बाहुमूल, कूर्पर, मणिबन्ध, अंगुलिमूल एवं अंगुल्यग्र) में न्यास करें। इस प्रकार ट वर्ग एवं त वर्ग से दक्षिण एवं वामपाद के पाँच सन्धिस्थलों (पादमूल, कूर्पर, मणिबन्ध, पादमूल एवं पादमुलाग्र ) पर न्यास करें। प वर्ग से क्रमशः दक्षिणपार्श्व, वामपार्श्व, पृष्ठ, नाभि एवं उदर में न्यास करें। हृदय, दक्षिण बाहुमूल, ककुत्, वामबाहुमूल, हृदादिदक्षकर, हृदादिवामकर, हृदादिमुख में क्रमशः य से क्ष तक वर्णों का न्यास करें। पचास मातृकावर्णों का इस प्रकार न्यास विहित है।

ॐ माद्यन्तो नमोंतो वा सबिन्दुर्बिन्दुवर्जितः ।।15।।

मायालक्ष्मीकामबीजपूर्वो न्यस्तव्य उच्यते ।

केशवाय च कीर्त्यै च तथा नारायणाय च ।।16।।

कान्त्यै तथा माधवाय तुष्ट्यै नम इति न्यसेत् ।

गोविन्दाय च तुष्ट्यै च विष्णुर्धृत्यै वदेत् ततः ।।17।।

मधुसूदनाय शान्त्यै च त्रिविक्रमाय क्रियायै च ।

वामनाय च पुष्ट्यै च श्रीधराय वदेत्तदा ।।18।।

मेधायै हृषीकेशाय हृष्ट्यै चापि नमस्तथा ।

पद्मनाभाय श्रद्धायै तथा दामोदराय च ।।19।।

लज्जायै वासुदेवाय लक्ष्म्यै संकर्षणाय च ।

सरस्वत्यै प्रद्युम्नाय प्रीत्यै नम इतीरयेत् ।।20 ।।

अनिरुद्धाय रत्यै च स्वरान्ते प्रवदेदथ ।

मातृकान्यास में आदि और अन्त में ॐ लगाकर अथवा आदि में ॐ और अन्त में नमः लगाकर, बिन्दु सहित अथवा बिन्दु रहित माया बीज (ह्रीं) लक्ष्मीबीज (श्री) एवं कामबीज (क्लीं) आदि में जोड़कर न्यास करें।

1.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं केशवाय कीर्त्यै नमः ।

2.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं आं नारायणाय कान्त्यै नमः ।

3.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं इं माधवाय तुष्ट्यै नमः ।

4.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईं गोविन्दाय पुष्ट्यै नमः ।

5.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं उं विष्णवे धृत्यै नमः ।

6.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऊं मधुसूदनाय शान्त्यै नमः ।

7.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋं त्रिविक्रमाय क्रियायै नमः ।

8.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऋॄं वामनाय पुष्ट्यै नमः ।

9.    ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लृं श्रीधराय मेधायै नमः ।

10. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं लॄं हृषीकेशाय हृष्ट्यै नमः ।

11. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं एं पद्मनाभाय श्रद्धायै नमः ।

12. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं दामोदराय लज्जायै नमः ।

13. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ओं वासुदेवाय लक्ष्म्यै नमः ।

14. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं औं संकर्षणाय सरस्वत्यै नमः ।

15. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अं प्रद्युम्नाय प्रीत्यै नमः ।

16. ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अः अनिरुद्धाय रत्यै नमः ।

ये स्वर मातृकाओं के अन्त में बोलें।

यहाँ श्लोक संख्या 18 में 'वामनायं' के बाद 'दयायै' शब्द '' पाण्डुलिपि में है। ध्यातव्य है कि यहाँ विष्णु के 16 रूपों के साथ षोडशमातृकाओं का उल्लेख हुआ है। 'पुष्टि' को छोड़कर शेष 15 मातृकाएँ स्पष्ट हैं, अतः यहाँ 'पुष्टयै च' पाठ माना जाना चाहिए।

चक्रिणे विजयायै च गदिने शार्ङ्गिणे तथा ।। 21 ।।

दुर्गायै च प्रभायै च [ सत्यायै] खड्गिने [तथा] ।

[ शंखिने च चण्डायै नमो तदनन्तरं वदेत् ] ।। 22 ।।

हलिने च तथा वाण्यै नमो मुसलिने वदेत् ।

विलासिन्यै शूलिने च जयायै तदनन्तरम् ।। 23 ।।

पाशिने विरजायै च तथा चाङ्कुशिने वदेत् ।

विश्वायै च मुकुन्दाय विमंदायै नमस्ततः ।। 24।।

नन्दजाय सुनन्दायै नन्दिने स्मृतये नमः ।

नराय ऋद्ध्यै तद्वच्च नरकजिते तथा वदेत् ।। 25 ।।

समृद्ध्यै हरये शुद्ध्यै कृष्णाय तुष्ट्यै तथा । 

सत्याय मत्यै सात्विताय सत्यै नमो वदेत् ।। 26 ।।

शौरये च क्षमायै च शूराय परमायै नमः ।

जनार्दनाय चोमायै ततः स्याद् भूधराय च ।। 27 ।।

क्लेदिन्यै च विश्वमूर्त्यै क्लिन्नायै तदनन्तरम् ।

वैकुण्ठाय नमस्तद्वद् वसुदायै नमस्ततः ।। 28।।

पुरुषोत्तमाय वसुधायै बलिनेऽपराजितायै ।

तथा बलानुजाय परायणायै नम इतीरयेत् ।।29।।

वृषभाय च सूक्ष्मायै वृषाय सन्ध्यायै नमः ।

हंसाय च प्रज्ञायै वराहाय प्रभायै तथा ।।30 ।।

विमलाय निशायै च नृसिंहाय तदन्तरम् ।

अमोघायै नमस्तद्वद् वैष्णवीं मातृकां न्यसेत् ।। 31 ।।

क्रमेण कामबीजं च मातृकाक्षरमेव च ।

केशवं चापि कीर्तिं च नमोऽन्तं विन्यसेत् पुनः ।।32 ।।

शिरोवदनवृत्तादिस्थानेष्वेवं विधिः स्मृतः ।

1.    ॐ क्लीं कं चक्रिणे विजयायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

2.    ॐ क्लीं खं गदिने दुर्गायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

3.    ॐ क्लीं गं शार्ङ्गिणे प्रभायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

4.    ॐ क्लीं घं खड्गिने सत्यायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

5.    ॐ क्लीं ङं शङ्खिने चण्डायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

6.    ॐ क्लीं चं हलिने वाण्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

7.    ॐ क्लीं छं मुसलिने विलासिन्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

8.    ॐ क्लीं जं शूलिने जयायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

9.    ॐ क्लीं झं पाशिने विरजायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

10. ॐ क्लीं ञं अङ्कुशिने विश्वायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

11. ॐ क्लीं टं मुकुन्दाय विमदायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

12. ॐ क्लीं ठं नन्दजाय सुनन्दायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

13. ॐ क्लीं डं नन्दिने स्मृतये केशवाय कीर्त्यै नमः ।

14. ॐ क्लीं ढं नराय ऋद्ध्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

15. ॐ क्लीं णं नरकजिते समृद्धौ केशवाय कीर्त्यै नमः ।

16. ॐ क्लीं तं हरये शुद्धौ केशवाय कीर्त्यै नमः ।

17. ॐ क्लीं थं कृष्णाय तुष्ट्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

18. ॐ क्लीं दं सत्याय मत्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

19. ॐ क्लीं धं सात्विताय सत्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

20. ॐ क्लीं नं शौरये क्षमायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

21. ॐ क्लीं पं शूराय परमायै केशवाय कीर्त्यै नमः।

22. ॐ क्लीं फं जनार्दनाय उमायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

23. ॐ क्लीं बं भूधराय क्लेदिन्यै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

24. ॐ क्लीं भं विश्वमूर्तये क्लिन्नायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

25. ॐ क्लीं मं वैकुण्ठाय वसुदायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

26. ॐ क्लीं यं पुरुषोत्तमाय वसुधायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

27. ॐ क्लीं रं बलिने अपराजितायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

28. ॐ क्लीं लं बलानुजाय परायणायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

29. ॐ क्लीं वं वृषद्धाय च सूक्ष्मायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

30. ॐ क्लीं शं वृषाय सन्ध्यायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

31. ॐ क्लीं षं हंसाय च केशवाय कीर्त्यै प्रज्ञायै नमः ।

32. ॐ क्लीं सं वराहाय प्रभायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

33. ॐ क्लीं हं विमलाय निशायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

34. ॐ क्लीं क्षं नृसिंहाय अमोघायै केशवाय कीर्त्यै नमः ।

इस प्रकार वैष्णव मन्त्रों से मातृकान्यास करें। क्रम से कामबीज ( क्लीं ) एवं मातृका के अक्षर बोलकर केशवाय कीर्त्यै नमः यह जोड़कर न्यास करें। शिर, मुखवृत्त आदि स्थानों में यह विधि कही गयी है ।

(केशवादिन्यास के स्थल पर मूल '' पाण्डुलिपि का वाचन कष्टसाध्य होने के कारण पाठोद्धार के लिए म. म. गोविन्द ठाकुर ( 14वीं शती) कृत पूजा- प्रदीप शवादिन्यास का सहयोग लिया गया है, जो परम्परा की दृष्टि से प्रामाणिक है तथा पाण्डुलिपि '' के अनुरूप है। ये सम्पादित अंश कोष्ठ के अन्तर्गत हैं। बंगाल से प्रकाशित प्रति घ. में यह केशवादिन्यास बहुधा भिन्न है, अतः इसे पृथक् उद्धृत किया जा रहा है-

[ चक्रिणे दयायै च गदिने शार्ङ्गिणे तथा ।। 21 ।।

दुर्गायै च प्रभायै च खड्गिने विन्यसेदथ ।

सत्यायै शङ्खिने चैव चण्डायै च नमो नमः ।। 22।।

हलिने वाण्यै दद्याच्च तथा मुषलिने वदेत् ।

विलासिन्यै शूलिने विजयायै तदनन्तरम् ।। 23 ।।

पाशिने विरजायै च तथा चाङ्कुशिने वदेत् ।

विश्वायै च मुकुन्दाय विनदायै नमस्ततः ।। 24।।

नन्दजाय सुनन्दायै नन्दिने स्मृतये नमः ।

नराय ऋद्ध्यै च तथा तद्वन्नरकजिते तथा ।। 25।।

समृद्ध्यै हरये शुद्ध्यै कृष्णाय बुद्धये तथा ।

सत्याय भुक्त्यै सात्वताय मत्यै नम इतीरयेत् ।। 26 ।।

शौराय च क्षमायै च शूराय रमायै नमः।

क्लेदिन्यै च विश्वमूर्त्यै क्लिन्नायै तदनन्तरम् ।

जनार्दनाय चोमायै ततः स्याद् भूधराय च ।। 27 ।।

वैकुण्ठाय नमस्तद्वद् वसुदायै नमस्ततः ।

पुरुषोत्तमाय वसुधायै बलिने परायै ततः ।। 28 ।।

बलानुजाय परायणायै नम इतीरयेत् ।

महाबलाय सूक्ष्मायै नमः स्यात्तदनन्तरम् ।

वृषघ्नाय सन्ध्यायै वृषाय प्रज्ञायै नमः ।। 29 ।।

हंसाय च प्रभायै वराहाय निशायै तथा ।

विमलाय अमोघायै नृसिंहाय तदन्तरम् ।

विद्युतायै नमस्तद्वद् वैष्णवीं मातृकां न्यसेत् ।।30।।

क्रमेण कामबीजञ्च मातृकाक्षरमेव च । ]

ॐकारं कामबीजं च मातृकाक्षरमेव च ।।33।।

एकं देवं तथा शक्तिमेकां नम इति क्रमः ।

ॐकार, कामबीज, मातृकाक्षर इसके बाद एक देव एक शक्ति तथा इसके बाद नमः बोलें यहीं क्रम है।

केशवादिरयं न्यासो न्यासमात्रेण देहिनाम् ।।34।।

अच्युतत्वं ददात्येव सत्यं सत्यं न संशयः ।

यह केशवादि न्यास कहलाता है। केवल इस न्यास से प्राणयों को अच्युतत्व मिल जाता है, यह सत्य है, इसमें सन्देह नहीं।

सुतीक्ष्ण तत्त्वं वक्ष्यामि तत्त्वन्यासमतः शृणु ।। 35।।

यत्तत्वन्यासमात्रेण तत्त्वमेव प्रजायते ।

मादयः प्रतिलोमेन कान्ताः स्युस्तत्त्वसंज्ञया ।। 36 ।।

हे सुतीक्ष्ण! अब मैं तत्त्व को बतलाता हूँ । इसलिए तत्त्वन्यास सुनो। केवल तत्त्वन्यास से तत्त्व उत्पन्न होता है। मकार से प्रारम्भ कर '' से अन्त कर किया गया न्यास तत्त्वन्यास कहलाता है ।

नमः पराय पूर्वन्तु प्रणवान्ते व्यवस्थिताः ।

जीवः प्राणाश्च बुद्धिश्चाहंकारो मनस्तथा ।। 37।।

सर्वाङ्गे हृदि विन्यस्य श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यपि ।

मूर्ध्नि घ्राणे च हृदयेऽप्युपस्थे पादयोरपि ।। 38 ।।

'नमः पराय' इस मन्त्र को सबसे पहले प्रणव के बाद जोड़कर जीव, प्राण, बुद्धि, अहंकार एवं मन को सर्वाङ्ग एवं हृदय में न्यास कर श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियों को भी मूर्द्धा, घ्राण, हृदय, उपस्थ एवं दोनों पैरों में न्यास करें।

श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वा च प्राणरूपाणि देहिनाम् ।

ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चापि तत्तत्स्थाने न्यसेत् पुनः ।। 39 ।।

वाक्पाणिपायुपादाश्च कर्माख्यानि ह्युपस्थकम् ।

तथैव तत्तत् स्थानेषु तत्तदेव प्रविन्यसेत् ।।40।।

दोनों कान, त्वचा, दोनों आँखें, जीभ, और नासिका, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है तथा वाणी, दोनों हाथ, दोनों पैर, गुदा, और जननेन्द्रिय, ये पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। उन उन स्थानों में न्यास करें। इसी क्रम से उन उन स्थानों उन उन तत्त्वों का न्यास करें।

शिरोमुखे च हृदये तथा गुह्येपि पादयोः ।

आकाशानि तेजांसि सलिलं पृथिवी तथा ।। 42 ।।

विन्यसेत् पूर्ववञ्चैव न्यासविद्भिरुदीरितम् ।

शिर, मुख, हृदय, गुह्य एवं दोनों पैरों में क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल एवं पृथिवी का न्यास पूर्ववत् मन्त्र के साथ न्यास के ज्ञानियों के द्वारा कही गयी विधि से करें ।

सहौ शरौ च यश्चापि षश्च लश्च वलावपि ।।43 ।।

क्षौं चेति दश वर्णाश्च प्रणवान्ते च पूर्ववत् ।

स एवं ह, श एवं र, , , , , ल तथा क्षौं ये दश वर्ण हैं, जो पूर्वोक्त विधि से प्रणव ॐकार के बाद लगाये जायेंगे ।

हृत्पद्मे सोमसूर्याग्निस्वकलायुक्तमण्डलम् ।।44।।

त्रयं हृद्येव विन्यस्य वासुदेवादयस्तथा ।

परमेष्ठी च पुरुषो विश्वस्यापि निवर्तकः ।।45।।

नारायणी नृसिंहश्च सर्वकोपाख्यपूर्वकौ ।

मूर्द्धास्ये हृदि गुह्ये च पादयोर्व्यापकं तथा ।।46।।

तदात्मने नम इति तत्तत्स्थाने न्यसेत् ततः ।

हृदय रूपी कमल में, अपनी कलाओं के साथ सोममण्डल, सूर्यमण्डल एवं अग्निमण्डल की कल्पना कर इन तीनों का हृदय में ही न्यास करें और वासुदेवादि न्यास करें। वासुदेव, परमेष्ठी, पुरुष, विश्वनिवर्तक, नारायण और नृसिंह, ये छह देव हैं। यहाँ दोनों प्रकार के न्यासों में कोप-मन्त्र (हुम्) को पूर्व में व्यवहार करें। इसमें 'तदात्मने नमः' यह योग कर मूर्द्धा, मुख, हृदय, गुह्य, दोनों पैर एवं सर्वांग में न्यास करें। जैसे-

1.    ॐ हुं वासुदेवाय मूर्द्धात्मने नमः इति मूर्ध्नि ।

2.    ॐ हुं परमेष्ठिने मुखात्मने नमः इति मुखे ।

3.    ॐ हुं पुरुषाय हृदयात्मने नमः इति हृदि ।

4.    ॐ हुं विश्वनिवर्तकाय गुह्यात्मने इति गुह्ये ।

5.    ॐ हुं नारायणाय पादात्मने इति पादयोः ।

6.    ॐ हुं नृसिंहाय सर्वाङ्गात्मने नमः इति सर्वाङ्गे ।

अतत्त्वस्याप्यपूज्यस्य तत्प्राप्तेर्हेतुना' पुनः ।। 47।।

तत्त्वन्यासमिदं प्राहुर्व्यासं तत्त्वविदो बुधाः।

जो तत्व नहीं है और पूज्य भी नहीं है उसकी प्राप्ति के लिए कारण के साथ उन तत्त्वों के न्यास को मनीषियों ने तत्त्व - न्यास कहा है।

यः कुर्यात् तत्त्वविन्यासं स एव भवति ध्रुवम् ।।48 ।।

तदात्मनानुप्रविश्य भगवानिह तिष्ठति ।

यतः स एव तत्त्वानि तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।49 ।।

जो तत्त्वविन्यास करता है, वह तत्त्व ही हो जाता है। इन स्थानों में आत्मस्वरूप में प्रवेश कर भगवान् अवस्थित होते हैं; क्योंकि तत्त्व वही है, जिसमें सब कुछ अवस्थित है।

तन्मूर्तिपञ्जरं न्यासस्तस्य तन्मूर्तिसिद्धये ।

आकर्णयैकचित्तः सन् यतोऽस्ति न फलान्तरम् ।।50 ।।

भगवान् मूर्तिरूपी शरीर का यह न्यास उनके स्वरूप की सिद्धि के लिए एकाग्र होकर सुनो; क्योंकि इससे अधिक फल कही भी नहीं है ।

नमो भगवते ब्रूयाद् वासुदेवाय इत्यथ ।

ॐ आदिरस्य मन्त्रस्य आदायैकाक्षरं ततः ।। 51।।

एकैकमक्षरं तद्वत् श्रीरामाख्यमनोरपि ।

द्विरावृत्याक्षरादानं विष्णोर्द्वादशनामसु ।। 52।।

नामैकैकमुपादाय सूर्यस्यापि च नामसु ।

सबसे पहले ॐ नमो भगवते कहें। इसके बाद वासुदेवाय कहें। फिर इस मन्त्र के ॐकारसहित इस मन्त्र के एक एक अक्षर लें। इसी प्रकार श्रीराम के षडक्षर मन्त्र दो-दो बार लेकर विष्णु के बारह नामों में से एक-एक नाम जोड़कर फिर सूर्य के बारह नामों में से भी एक-एक नाम लगाकर मन्त्र बनायें ।

ओमन्तश्च स्वरस्तद्वद् वासुदेवाक्षरं ततः ।। 53।।

श्रीराममन्त्रवर्णश्च ततः स्युः केशवादयः ।

धात्रादयो नमोऽन्तोयं न्यस्तव्यो न्यासयोगतः ।।54।।

इस मन्त्र में सबसे पहले ॐकार, तब स्वर वर्ण, तब उसी प्रकार वासुदेव-मन्त्र के वर्ण, तब श्रीराममन्त्र के वर्ण तब केशव आदि बारह नाम, तब धाता आदि सूर्य के नाम तब अन्त में नमः लगाकर न्यास के योग से अङ्गन्यास करें।

ललाटे नाभिहृदये कण्ठपाश्र्वशकन्धरे ।

पार्श्वन्तरांशे स्कन्धे च पृष्ठे ककुदि च क्रमात् ।।55।।

इस मन्त्रों को क्रमशः ललाट, नाभि, हृदय, कण्ठ, पार्श्वभाग, कन्धर, वामपार्श्व, दक्षिणपार्श्व, स्कन्ध, पृष्ठ, ककुत् में न्यास करें।

केशवस्य ततो ब्रूयान्नारायण इति स्वयम् ।

माधवश्चैव गोविन्दो विष्णुश्च मधुसूदनः ।। 56।।

त्रिविक्रमो वामनश्च श्रीधरो नवमः स्मृतः ।

हृषीकेशः पद्मनाभस्तथा दामोदरः प्रभुः ।। 57 ।।

विष्णोर्द्वादशनामानि चेमानि मुनिसत्तम ।

मुनिश्रेष्ठ! भगवान् विष्णु के ये बारह नाम हैं- केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर ।

धातार्यमा च मित्र: वरुणो हंसो भगस्तथा ।।58।।

विवश्वदिन्द्रः पूषा च पर्जन्यः दशमः स्मृतः ।

त्वष्टा च विष्णुरित्येवं नामानि द्वादशात्मनः ।।59।।

तन्मूर्तिपंजरन्यासोऽभिहितः परमेष्ठिना ।

द्वादशात्मन् सूर्य के ये बारह नाम हैं- धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, हंस, भग, विवस्वान्, इन्द्र, पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा, विष्णु। इस प्रकार मूर्तिपंजर - न्यास ब्रह्मा ने कहा है । इस न्यास के मन्त्र इस प्रकार बनते हैं-

1.    ॐ अ ॐ ॐ केशवाय द्वादशात्मने नमः । इति ललाटे

2.    ॐ आ न रा नारायणाय धात्रे नमः । इति नाभौ

3.    ॐ इ मो मा माधवाय अर्यम्णे नमः । इति हृदये

4.    ॐ ई भ य गोविन्दाय मित्राय नमः । इति कण्ठे

5.    ॐ उ ग न विष्णवे वरुणाय नमः । इति श्वासे

6.    ॐ ऊ व मः मधुसूदनाय शोभगाय नमः । इति प्रश्वासे

7.    ॐ ॠ ते ॐ त्रिविक्रमाय विवस्वते नमः । इति कन्धरे

8.    ॐ लृ वा रा वामनाय इन्द्राय नमः । इति ललाटे वामपार्श्वे

9.    ॐ ए सु मा श्रीधराय पूषणे नमः । इति ललाटे दक्षिणपार्श्वे

10. ॐ ऐ दे य हषीकेशाय पर्जन्याय नमः । इति ललाटे स्कन्धे

11. ॐ ओ वा न पद्मनाभाय त्वष्ट्रे नमः । इति ललाटे पृष्ठे

12. ॐ औ य मः दामोदराय विष्णवे नमः । इति ललाटे ककुदि

शिरोभ्रूमध्यहृदयनाभिगुह्यपदस्थले ।

मूलमन्त्राक्षरैन्यसं षडङ्गमपि विन्यसेत् ।।60।।

इसके अतिरिक्त मूलमन्त्र के अक्षरों से शिर, भ्रूमध्य, हृदय, नाभि, गुदा एवं दोनों पैरों में षडङ्गन्यास भी करें। जैसे-

1.    ॐ नमः पराय इति शिरसि ।

2.    रा नमः पराय भ्रूमध्ये ।

3.    मा नमः पराय हृदये ।

4.    य नमः पराय नाभौ ।

5.    न नमः पराय गुदायाम् ।

6.    मः नमः पराय पादयोः ।

एवं विन्यस्य विधिवत् साक्षान्नारायणो भवेत् ।। 61।।

जरारोगाभिचाराद्या: - प्रलयं यान्ति नान्यथा ।

भूतप्रेतपिशाचाश्च तथैव ब्रह्मराक्षसाः ।।62।।

कूष्माण्डाश्चैव डाकिन्यो नैव द्रष्टुमपि क्षमाः ।

य एवं विन्यसेद्धीमान् रामः साक्षात् स्वयं भवेत् ।।63।।

नातः परतरं किञ्चित् पावनं पुण्यमस्ति हि ।

इस प्रकार का न्यास कर वह साधक प्रत्यक्ष नारायणस्वरूप हो जाता है । बुढ़ापा, रोग, दूसरे के द्वारा किये गये अभिचार आदि नष्ट हो जाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, कूष्माण्ड, डाकिनी आदि तो उसे देखने में भी समर्थ नहीं होते हैं। जो बुद्धिमान् इस प्रकार न्यास करते हैं, वे साक्षात् श्रीराम-स्वरूप हो जाते हैं। इससे अधिक पवित्र पुण्य कुछ भी नहीं है।

इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये शरीरन्यासे द्वादशोऽध्यायः ।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 13

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