मयमतम् अध्याय १९

मयमतम् अध्याय १९        

मयमतम् अध्याय १९ एक भूमिविधान - इस अध्याय में एक तल के प्रासादों के चार प्रकार प्रमाण वर्णित हैं। इसमें मुखमण्डप, भवनों के पर्याय, गर्भगृह का प्रमाण, स्तूपिका- प्रमाण, द्वार, नाल - प्रमाण, अलंकरण, मन्दिरों के भेद एवं विमानतल के देवता वर्णित हैं।

मयमतम् अध्याय १९

मयमतम् अध्याय १९              

Mayamatam chapter 19   

मयमतम् एकोनविंशोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र उन्नीसवां अध्याय

मयमत अध्याय १९ - एकभूमिविधानम्

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथैकोनविंशोऽध्यायः

एकभौमं चतुर्मानं वक्ष्ये संक्षिप्य शास्त्रतः ।

त्रिचतुर्हस्तमारभ्य नव पङ्‍क्त्यन्तविस्तृतम् ॥१॥

एक तल का विधान - एक तल वाले भवन (देवालय) का शास्त्र के अनुसार चार प्रकार का प्रमाण संक्षेप में कहता हूँ । यह तीन हाथ से प्रारम्भ कर नौ हाथ तक एवं चार हाथ से प्रारम्भ कर दस हाथ तक विस्तृत होता है ॥१॥

तारे सप्तदशोत्सेधमध्यर्धं तत्त्रिपादकम् ।

द्विगुणं तु तदुत्सेधं शान्तिकं पौष्टिकं भवेत् ॥२॥

इनकी ऊँचाई चौड़ाई के दस भाग में सातवें भाग के बराबर, चौड़ाई का डेढ़ गुना, चौड़ाई का तीन चौथाई (अर्थात् चौड़ाई के दुगुने से चतुर्थांश कम) या चौड़ाई का दुगुना ऊँचा (ये चार प्रकार के मान) होनी चाहिये । चार प्रकार की ऊँचाई वाले भवन की संज्ञा शान्तिक, पौष्टिक, जयद एवं अद्भुत होती है ॥२॥

जयदं चाद्भुतं चैव चतुर्धोदयमीरितम् ।

चतुरं वृत्तमायामं द्व्यस्त्रवृत्तं षडस्त्रकम् ॥३॥

अष्टास्त्रमाकृतिर्ह्येषां शिखरेऽपि तथैव च ।

इन (देवालयों) की आकृति चौकोर, गोल, आयताकार, दो कोणों के साथ गोलाई लिये, षट्‌कोण तथा अष्टकोण होती है । इनका शिखर भी इनकी आकृति के अनुरूप होता है ॥३॥

मयमत अध्याय १९- मुखमण्डप

समं त्रिपादमर्धं वा मुखमण्डपमिष्यते ॥४॥

देवालय के मुखभाग पर निर्मित मण्डप का माप देवालय के समान, तीन चौथाई अथवा आधा होना चाहिये ॥४॥

समं तन्मण्डपं तस्य सान्तरालं सवेशकम् ।

युग्मस्तम्भसमायुक्तं युक्त्या सर्वाङ्गशोभितम् ॥५॥

 (देवालय के) समान मण्डप अन्तराल (मण्डप एवं मन्दिर का मध्य भाग) एवं वेशक (प्रवेश, पोर्च) से युक्त तथा सम संख्या वाले स्तम्भों से युक्त एवं सम्पूर्ण अङ्गों से अलंकृत होना चाहिये ॥५॥

सार्धहस्तं द्विहस्तं वा प्रासादस्यांशमेव वा ।

अन्तरालस्य विस्तारं द्विदण्डं तस्य वेशनम् ॥६॥

सावकाशान्तरालं चेद् द्वित्रिहस्तान्तरं तु वा ।

पार्श्वे सोपानसंयुक्तं हस्तिहस्तविभूषितम् ॥७॥

अन्तराल का विस्तार डेढ़ हाथ, दो हाथ या प्रासाद के बराबर एवं उसकी लम्बाई दो दण्ड होनी चाहिये । उसका वेशन अवकाश एवं अन्तराल से युक्त हो तो उसका माप दो या तीन हाथ का होना चाहिये । वेशन के बगल में सोपान निर्मित हो एवं वह गज के सूँड़ से सुसज्जित हो ॥६-७॥

धाम्नः कुड्यस्यार्धकं तत्समं वा

पादोनं वा भित्तिविष्कम्भमानम् ।

पार्श्वे चैतद् द्वित्रिदण्डैस्तु वेशं

कुर्यादग्रे मण्डपस्यास्य धीमान् ॥८॥

भित्तिनिष्कम्भ का मान प्रधान भवन की भित्ति के बराबर, उसका आधा या उससे चतुर्थांश कम होना चाहिये । पार्श्व भाग में दो या तीन दण्ड माप का वेशन एवं अग्र भाग में मण्डप होना चाहिये, ऐसा बुद्धिमान (ऋषि) का मत है॥८॥

तत्युन्नतायतकरेषु च हस्तमानाद्

हीनं त्रिपादकरमर्धमथापि पादम् ।

तत्रैव वस्तुनि यथोचितमाचरेद्वै

हानिं च वृद्धिकमनिन्द्यमनेकशास्त्रैः ॥९॥

विस्तार, ऊँचाई एवं लम्बाई के हस्तमान में एक हाथ कम (अर्थात्) तीन चतुर्थांश, आधा अथवा चौथाई प्रमाण होना चाहिये । वहीं (प्रधान) भवन के निर्माण में अनेक शास्त्रकारों द्वारा किसी भी प्रकार की वृद्धि अथवा हानि को वर्जित किया गया है ॥९॥

मयमत अध्याय १९- धामपर्यायनामानि

विमानं भवनं हर्म्यं सौधं धाम निकेतनम् ।

प्रासादं सदनं सद्म गेहमावासकं गृहम् ॥१०॥

आलयं निलयं वासमास्पदं वस्तु वास्तुकम् ।

क्षेत्रमायतनं वेश्म मन्दिरं धिष्ण्यकं पदम् ॥११॥

लयं क्षयमगारं च तथोदवसितं पुनः ।

स्थानमित्येवमुक्ताश्च पर्यायाख्या हि पण्डितैः ॥१२॥

भवन के पर्यायवाची नाम - विद्वानों के अनुसार भवन के पर्यायवाची शब्द ये है - विमान, भवन, हर्म्य, सौध, धाम, निकेतन, प्रासाद, सदन, सद्म, गेह, आवासक, गृ, आलय, निलय, वास, आस्पद, वस्तु, वास्तुक, क्षेत्र, आयतन, वेश्म, मन्दिर, धिष्ण्यक, पद, लय, क्षय, अगार, उदवासित तथा स्थान ॥१०-१२॥

मयमत अध्याय १९- गर्भगृहमान

हर्म्यतारत्रिभागैकं भूतांशेषु गुणांशकम् ।

धातुभागे युगांशः स्याद्बाणांशं नवभागिके ॥१३॥

रुद्रांशे रसभागं तु धातु त्रयोदशांशके ।

तिथ्यंशे वसुभागं तु सप्तदश नवांशकम् ॥१४॥

विस्तारार्धं तु ते सर्वे नालीगृहविशालताः ।

गर्भगृह-प्रधान भूतिकक्ष का मान - विस्तार में गर्भगृह का प्रमाण मन्दिर के प्रमाण के तीन भाग में एक भाग, पाँच भाग में तीन भाव, सात में चार भाग, नौ में पाँच भाग, ग्यारह में छः भाग, तेरह में सात भाग, पन्द्रह में आठ भाग, सत्रह में नौ भाग या आधा होना चाहिये ॥१३-१४॥

मयमत अध्याय १९- स्थूपिकामान

फलिके पञ्चभाग तु युगार्धं पद्मविस्तृतम् ॥१५॥

पद्मतारत्रिभागैकं कुम्भतारमिति स्मृतम् ।

कुम्भतारत्रिभागैकं कुम्भस्याधो वलग्नकम् ॥१६॥

वलग्नस्य त्रिभागैकं कुम्भस्योपरि कन्धरम् ।

कन्धरत्रिगुणं पाली तत्त्रिभागेन कुड्‌मलम् ॥१७॥

स्तूपिका का प्रमाण - फलिक के पाँच भाग में दो भाग के बराबर पद्म की चौड़ाई रखनी चाहिये । पद्म की चौड़ाई के तीसरे भाग के बराबर कुम्भ की चौड़ाई रखनी चाहिये । कुम्भ के विस्तार के तीसरे भाग के बराबर कुम्भ के नीचे वलग्न का मान होना चाहिये । वलग्न के तीसरे भाग के बराबर कुम्भ के ऊपर कन्धर होना चाहिये। कन्धर का तीन गुना पाली का प्रमाण एवं उसके तीसरे भाग के बराबर कुड्‌मल का मान होना चाहिये ॥१५-१७॥

समं त्रिपादमर्धं वा महानासीविनिर्गमम् ।

तद्व्यासत्रिचतुर्भागहीनं स्कन्धान्ततुङ्गकम् ॥१८॥

महानासी (सजावटी खिड़की) का विनिर्गम (निर्माणयोजना शिखर के विशिष्ट भाग के) बराबर, तीन चतुर्थांश अथवा आधा चौड़ा होना चाहिये । इसकी ऊँचाई उसकी चौड़ाई से तीन या चार भाग कम एवं स्कन्ध के अन्तिम भाग तक रखनी चाहिये ॥१८॥

शक्तिध्वजं तदर्धोच्चं त्रिपादं वा विधीयते ।

कन्धरोच्चत्रिभागैकं वेदिकोदयमीरितम् ।

सार्धदण्डं द्विदण्डं वा क्षुद्रनास्या विशालकम् ॥१९॥

शक्तिध्वज को उसका आधा ऊँचा अथवा तीन चौथाई प्रमाण का होना चाहिये । कन्धर की ऊँचाई के तीसरे भाग से वेदिका का उदय (प्रारम्भ) कहा गया है । क्षुद्रनासा (छोटी सजावटी खिड़की) की चौड़ाई आधा दण्ड या दो दण्ड होनी चाहिये ॥१९॥

मयमत अध्याय १९- द्वार

पादोत्सेधे पङ्क्तिनन्दाष्टभागे द्वारोत्सेधं तत्तदेकांशहीनम् ।

विस्तारं स्यात्तत्तदुच्चार्धमानं द्वारं कुर्याद्धर्म्यमध्ये नृपाणाम् ॥२०॥

द्वार की ऊँचाई स्तम्भ की ऊँचाई के दश भाग में नौ भाग, आठ में नौ भाग या सात में आठ भाग के बराबर होनी चाहिये । इसकी चौड़ाई ऊँचाई की आधी होनी चाहिये । राजभवन के मध्य भाग में द्वार होना चाहिये ॥२०॥

योगव्यासं पादविष्कम्भमानं पादाधिक्यं वा तदर्धं त्रिपादम् ।

बाहुल्यं स्यादुच्छ्रये वेदभागे बाह्ये साब्जक्षेपणं तत्त्रिभागैः ॥२१॥

द्वार के पाख (चौखट का पार्श्व) की चौड़ाई स्तम्भ के बराबर अथवा उससे चतुर्थांश अधिक होनी चाहिये एवं उसकी मोटाई चौड़ाई की आधी या तीन चतुर्थांश होनी चाहिये । बाहरी भाग में द्वार का बाहुल्य पद्मों से सुसज्जित होना चाहिये एवं इसकी मोटाई चौड़ाई के तीन चतुर्थांश भाग के माप की होनी चाहिये ॥२१॥

भित्तिव्यासे द्वादशांशे तु बाह्ये

पञ्चांशान्तद्वारयोगस्य मध्यम् ।

तद्वच्चान्तः स्तम्भमध्यं तयोस्त

न्मध्यं प्रोक्तं भित्तिमध्यं विधिज्ञैः ॥२२॥

भित्ति के व्यास के बाहरी भाग के बारह भाग करने चाहिये । पाँचवे भाग में द्वार योग का मध्य भाग होना चाहिये तथा दूसरी ओर से भी इतनी ही दूरी रखनी चाहिये । इन दोनों (बिन्दुओं) के मध्य विद्वानों ने भित्तिमध्य कहा है ॥२२॥

मयमत अध्याय १९- नालमान

जन्मान्तं वा जगत्यन्तं कैरवान्तं गलान्तकम् ॥२३॥

पट्टिकान्तं तलं पञ्चभेदं सर्वेषु धामसु ।

छिद्रं विद्यादधश्चोर्ध्वे बाह्ये नालं प्रयोजयेत् ॥२४॥

नाली का मान - सभी भवनों में तल के पाँच भेद होते है - जन्म का अन्तिम भाग, जगती का अन्तिम भाग, कैरव का अन्तिम भाग, गल का अन्तिम भाग एवं पट्टिका का अन्तिम भाग । इनके निचले एवं ऊपरी भाग में छिद्र होना चाहिये एवं नाली बाहर होनी चाहिये ॥२३-२४॥

द्वादशाङ्गुलमारभ्य त्रित्र्यङ्गुलविवर्धनात् ।

चतुर्विंशाङ्गुलं यावदायामं पञ्चधा भवेत् ॥२५॥

बारह अङ्गुल से प्रारम्भ करते हुये तीन-तीन अङ्गुल की वृद्धि से चौबीस अङ्गुल पर्यन्त पाँच प्रकार की नाली की लम्बाई होती है ॥२५॥

अष्टाङ्गुलं समारभ्य द्विद्व्यङ्गुलविवर्धनात् ।

तारं षोडशमात्रान्तं पञ्चधा परिकीर्तितम् ॥२६॥

आठ अङ्गुल से प्रारम्भ कर दो-दो अङ्गुल बढ़ाते हुये सोलह अङ्गुलपर्यन्त पाँच प्रकार की नाली की चौड़ाई होती है ॥२६॥

समं त्रिपादमर्धं वा घनं छिद्रं तु मध्यमे ।

त्रिचतुष्पञ्चषण्मात्रं तारं तत्समनिम्नकम् ॥२७॥

इनकी मोटाई (गहराई) चौड़ाई के बराबर, तीन चौथाई या आधी होनी चाहिये । मध्यम माप तीन, चार, पाँच या छः अङ्गुल चौड़ा एवं उतना ही गहरा होता है ॥२७॥

मुलात् पञ्चत्रिभागं स्यादग्रं धारासमन्वितम् ।

घटितं सिंहवक्त्रेण किञ्चिन्मूलान्नताग्रकम् ॥२८॥

नाली के अग्र भाग (दूसरे छोर) की चौड़ाई मूल भाग के पाँच भाग में से तीन भाग के बराबर एवं धारा से युक्त होनी चाहिये । इसका अग्र भाग मूल भाग से कुछ नीचा (ढालदार) एवं सिंह के मुख से युक्त होता है ॥२८॥

एवं नालं प्रकर्तव्यं वामे प्रासादमध्यमे ।

अन्तःपीठस्य नालस्य समं वा बहिरिष्यते ॥२९॥

इस प्रकार देवालय के मध्य भाग के वाम भाग में प्रणाल का निर्माण करना चाहिये । अन्तःपीठ का नाल बराबर (सतह पर) एवं बाहर होना चाहिये ॥२९॥

मयमत अध्याय १९- अलङ्करण

विस्तरायाममुत्सेधं सर्वाण्यङ्गानि च क्रमात् ।

संक्षेपतः समादिष्टान्यलङ्कारमथोच्यते ॥३०॥

सज्जा - प्रासाद के सभी अङ्गों का संक्षेप में क्रमशः विस्तार, लम्बाई एवं ऊँचाई का वर्णन किया गया है । अब उसके अलङ्करण का वर्णन किया जा रहा है ॥३०॥

वृत्तग्रीवामस्तकं वैजयन्तं श्रीभोगं स्यात् कर्णकूटोपयुक्तम् ।

मध्येभद्रं श्रीविशालं तदेव वस्वस्त्रं चेच्छीर्षकं स्वस्तिबन्धम् ॥३१॥

यदि देवालय का ग्रीवा एवं मस्तक (शीर्ष भाग) वृत्ताकार हो तो उसकी संज्ञा 'वैजयन्त' होती है । यदि देवालय के कर्णभाग (कोणों) में कूट निर्मित हों तो वह 'श्रीभोग' संज्ञक होता है । यदि मध्य भाग में भद्र हो, तो वह 'श्रीविशाल' एवं शीर्षभाग यदि अष्टकोण हो तो वह 'स्वस्तिबन्ध' संज्ञक प्रासाद होता है ॥३१॥

वेदास्त्राभं तच्छिरः श्रीकरं स्याद् द्व्यस्त्रं वृत्तं हस्तिपृष्ठं हि नाम्ना ।

ऋत्वस्त्राभं शीर्षकं स्कन्दकान्तं तत्तन्नाम्ना तत्तदायामयुक्ते ॥३२॥

चार कोण वाले शीर्ष से युक्त प्रासाद 'श्रीकर', दो कोण एवं वृत्ताकार प्रासाद 'हस्तिपृष्ठ' तथा छः कोण के शीर्ष वाला प्रासाद 'स्कन्दकान्त' संज्ञक होता है । ये सभी भवन लम्बाई लिये होते है ॥३२॥

मध्ये भद्रयुतं कर्णकूटयुक्तं तु मस्तके ।

कोष्ठकं भद्रनास्यङ्गं वृत्तं वा गलमस्तकम् ॥३३॥

नाम्नैतत् केसरं प्रोक्तं युगास्त्रं वा गलं शिरः ।

पञ्चसप्तर्तुभागे तु त्रिद्व्यंशैर्मध्यभद्रकम् ॥३४॥

केसर संज्ञक प्रासाद में मध्य भाग में भद्र एवं शीर्षभाग में कर्णकूट, कोष्ठक एवं भद्रनासी आदि अङ्ग निर्मित होते है । इसके गल एवं मस्तक (छत, आच्छादन) वृत्ताकार अथवा चतुष्कोण होते है । मध्य-भद्रक का प्रमाण (भवन की चौड़ाई के) पाँच, सात या छः भाग के तीसरे एवं दूसरे भाग के बराबर होनी चाहिये ॥३३-३४॥

मयमत अध्याय १९- धामभेद

नागरं द्राविडं चैव वेसरं च त्रिधा मतम् ।

चतुरस्त्रायतास्त्रं यन्नागरं परिकीर्तितम् ॥३५॥ 

भवन के भेद - भवन के तीन भेद होते है - नागर, द्राविड एवं वेसर । सम, चतुर्भुज एवं आयताकार भवन नागर कहे गये है ॥३५॥

अष्टास्त्रं च षडस्त्रं च तत्तदायाममेव च ।

सौधं द्राविडमित्युक्तं वेसरं तु प्रकथ्यते ॥३६॥

वृत्तं वृत्तायतं द्व्यस्त्रं वृत्तं चान्यं प्रकथ्यते ।

आठ भुजा (एवं कोण) तथा छः भुजा (एव कोण) वाला लम्बा भवन द्राविड़ कहा जाता है । वृत्ताकार, लम्बाई लिये वृत्ताकार, दो कोण एवं वृत्ताकार भवन वेसर कहलाता है ॥३६॥

स्थूप्यन्तं चतुरस्त्रं यन्नागरं परिकीर्तितम् ॥३७॥

ग्रीवात् प्रभृति वस्वस्त्रं विमानं द्राविडं भवेत् ।

ग्रीवात् प्रभृति वृत्तं यद् वेसरं तदुदाह्रतम् ॥३८॥

स्तूपिका पर्यन्त चौकोर भवन को नागर कहते है । ग्रीवा से अष्टकोण विमान (भवन, प्रासाद) द्राविड होता है । ग्रीवा से वृत्ताकार भवन वेसर कहलाता है ।

मयमत अध्याय १९- विमानतलदेवता

तले तले विमानानां दिक्षु देवान् न्यसेत् क्रमात् ।

पूर्वायां द्वारपालौ तु नन्दिकालौ च विन्यसेत् ॥३९॥

विमान - देवालय के तलों के देवता - विमानों (देवालयों) के प्रत्येक तल में दिशाओं में देवताओं का क्रमशः न्यास करना चाहिये । पूर्व दिशा में नन्दी एवं काल के रूप में द्वारपाल का विन्यास करना चाहिये ॥३९॥

दक्षिणे दक्षिणामूर्ति पश्चिमेऽच्युतमेव हि ।

अथवा लिङ्गसम्भूतमुतरे तु पितामहम् ॥४०॥

दक्षिण दिशा में दक्षिणामूर्ति को, पश्चिम दिशा में अच्युत को या लिङ्गसम्भूत को एवं उत्तर में पितामह को विन्यस्त करना चाहिये ॥४०॥

मण्डपे मध्यदेशे तु दक्शिणे तु विनायकम् ।

तत्पूर्वे पश्चिमे वाऽपि नृत्तरूपं विशेषतः ॥४१॥

मण्डप के मध्य भाग में दक्षिण में विनायक, एवं उनके पूर्व या पश्चिम में नृत्तरूप का विन्यास विशेष रूप से करना चाहिये ॥४१॥

कात्यायनीमुदग्भागे क्षेत्रपालं तथैव च ।

स्थानकासनसंयुक्ता दिशामूर्तीर्न्यसेद् बुध॥४२॥

विशेषेण कथोपेतं रूपाण्यपि विधानतः ।

एवं मूलतले प्रोक्तमुपर्युपरि वक्ष्यते ॥४३॥

उत्तर भाग में कात्यायनी एवं क्षेत्रपाल को तथा स्थानक का आसन (खड़े अथवा बैठे) मुद्रा में दिशामूर्तियों का विन्यास करना चाहिये । विशिष्ट कथाओं से युक्त आकृतियों का भी नियमानुसार अङ्कन करना चाहिये । इस प्रकार मूल-तल (भूतल) के देवता-विन्यास का वर्णन किया गया । अब ऊपरी तलों के विन्यास का वर्णन किया जा रहा है ॥४२-४३॥

पुरन्दरं न्यसेत् पूर्वे सुब्रह्मण्यमथापि वा ।

दक्षिणे वीरभद्रः स्यान्नारसिंहश्च पश्चिमे ॥४४॥

उत्तरे तु विधाता स्याद् धनदो वा विधीयते ।

एवं द्वितलविन्यासं त्रितले तु मरुद्गणान् ॥४५॥

तले तलेऽमरान् सिद्धान् गन्दह्र्वादिमुनीन् न्यसेत् ।

षोडश प्रतिमाश्चैव सर्वत्र परिकीरिताः ॥४६॥

दूसरे तल में पूर्व दिशा में पुरन्दर या सुब्रह्मण्य को, दक्षिण में वीरभद्र को, पश्चिम में नरसिंह को एवं उत्तर में विधाता या धनद को विन्यस्त करना चाहिये । तीसरे तल में मरुद्गणों का विन्यास करना चाहिये । प्रत्येक तल में देवों, सिद्धों, गन्धर्वादिकों एवं मुनियों का विन्यास करना चाहिये । प्रत्येक तल में सोलह प्रतिमाओं का विन्यास होना चाहिये ॥४४-४६॥

ग्रीवाधस्तात् प्रतेरूर्ध्वे कोणे कोणे वृषान् न्यसेत् ।

सर्वेषामपि देवानां तत्तद्वाहनमीरितम् ॥४७॥

प्रदक्षिणावृतं तस्य सर्वदेवालये तथा ।

इत्येवमादिभिर्युक्तं विमानं सम्पदां पदम् ॥४८॥

कूटैर्नीडैस्तोरणैर्मध्यभद्रैयुक्तायुक्तं तत्तु सर्वाङ्गसोभम् ।

नानधिष्ठानाङ्‌घ्रिवेद्यादियोगं धाम प्रोक्तं तैतिलानां मयेह ॥४९॥

ग्रीवा के नीचे एवं प्रति के ऊपर कोने-कोने पर वृषभों का विन्यास करना चाहिये । सभी देवों के वाहन का वर्णन किया गया है । सभी देवालयों में देवता के दक्षिण भाग में उनका विन्यास करना चाहिये । इस प्रकार सभी विशेषताओं से युक्त विमान (मन्दिर) सम्पतियाँ प्रदान करता है । कूट, नीड, तोरण, मध्य भद्र आदि से युक्त, सभी अलङ्करणों से सुशोभित, विविध प्रकार के अधिष्ठान, स्तम्भ एवं वेदियों आदि से युक्त देवालयों का वर्णन मेरे (मय ऋषि) द्वारा किया गया है ॥४७-४९॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे एकभूमिविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 20 

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment