पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

अगस्त्य संहिता अध्याय ११

अगस्त्य संहिता अध्याय ११                

अगस्त्य संहिता के इस अध्याय ११ में सकाम पूजन का प्रायोगिक विवरण है कि यजमान स्नानादि से शरीर की बाह्यशुद्धि कर मातृका - न्यास से अन्तः शुद्धि करें। तब पूजा की सामग्रियों को स्वच्छ कर शंख आदि की पूजा करें। तब वैष्णवन्यास, केशवादिन्यास कर तत्त्वन्यास एवं मूर्तिपंजर - न्यास करें। इस प्रकार षडंग न्यास सम्पन्न कर बाह्य पूजा की तैयारी करें। यहाँ वेदी, अष्टदलकमल, तोरण आदि की निर्माण - विधि वर्णित है। यहाँ कहा गया है कि पुण्यमयी स्त्रियों और गृहस्थों के घिरे हुए स्थान में गायन, वादन और नृत्य के साथ यह आराधना करें। पूजा में प्रयुक्त सामग्रियों का स्थान निर्धारण तथा उनकी आकृति का विवेचन यहाँ किया गया है। इसी क्रम में भूतशुद्धि, हस्तशोधन, पादशोधन आदि की दूसरी परिभाषा भी दी गयी है। जैसे पूजा के लिए पत्र - पुत्र को भक्तिपूर्वक उठाना कर शोधन है। श्रीराम की कथा का श्रवण और उनके उत्सवों का दर्शन कर्ण एवं नेत्र की शुद्धि है ।

अगस्त्य संहिता अध्याय ११

अगस्त्यसंहिता अध्याय ११          

Agastya samhita chapter 11

अगस्त्य संहिता एकादश अध्याय

अगस्त्य संहिता

अगस्त्यसंहिता ग्यारहवाँ अध्याय

अथ एकादशोऽध्यायः

अगस्त्य उवाच

शरीरं शोधयेदादावधिकारार्थमन्वहम् ।

तीर्थावगाहनं बाह्येऽप्यन्तर्भूतविशोधनम् ।।1।।

मातृकान्यासयोगैश्च शोधयेद् विध्यनुष्ठितः ।

अगस्त्य बोले- प्रतिदिन पूजा के अधिकारी बनने के लिए सबसे पहले शरीर की शुद्धि करें। बाह्य शोधन के लिए जल में डुबकी लगावें तथा आन्तरिक शोधन के लिए विधिपूर्वक मातृकावर्णों का न्यास करें।

पूजाद्रव्याणि च ततः शोधयेत् प्रोक्षणादिभिः । । 2 । ।

पूजापात्राणि शङ्खञ्च शोधयेत् क्षालनादिना ।

शुद्धश्च शुद्धद्रव्यैश्च पूजयेत् पुरुषोत्तमम् ।।3।।

एवमाराधिता देव: सम्यगाराधितो भवेत् ।

न चेन्निरर्थकं सर्वं सिन्धुसैकतवृष्टिवत् । ।4।।

इसके बाद पोंछकर पूजा में प्रयुक्त सामग्रियों का शोधन करें। पूजा की थाली, लोटा, शंख, आदि को जल से धोवें। पवित्र पात्रों और सामग्रियों से पुरुषोत्तम की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार आराधना करने से देवता अच्छी तरह प्रसन्न होते हैं, नहीं तो समुद्र की रेत पर हुई वर्षा के समान सब कुछ व्यर्थ हो जाता है ।

शौचाचमनहीनस्य स्नानसन्ध्यादिकाः क्रियाः ।

निष्फलाः स्युर्यथा चेतो ह्यन्तरेण भवेत्तथा ।।5।।

शौच और आचमन किये विना जो स्नान, सन्ध्या आदि करते हैं, उनकी समस्त क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं, जैसे चेतन के विना सब कुछ व्यर्थ हो जाता है ।

संशोध्य पूजाद्रव्याणि स्वस्यापि बहिरन्तरम् ।

शङ्खञ्च पूजयेत् पूर्वं पूज्यं पूजार्हतां व्रजेत् ।।6।।

पूजा - सामग्रियों को पवित्र कर स्वयं भी बाहर और भीतर से पवित्र होकर शंख की पूजा करें। पहले पूजित शंख पूजा का साधन बनने योग्य होता है।

पूजकस्याथ पूज्यस्यापावनस्य कृतं वृथा ।

अपावनान्यपूज्यानि साधनानि विवर्जयेत् ।।7।।

अपवित्र पूजक और पूज्य दोनों द्वारा किए गये कार्य व्यर्थ हो जाते हैं। अतः अपवित्र एवं अपूज्य साधन का त्याग कर देना चाहिए ।

अतः स्नात्वा प्रकुर्वीत भूतशुद्धिं विधाय च ।

विन्यस्य मातृकां पूर्वं वैष्णवीं केशवादिकाम् ।।8।।

इसलिए स्नान करके भूत-शुद्धि कर पहले वैष्णव और केशव की मातृका का न्यास करें।

विधाय तत्त्वन्यासञ्च न्यासं तन्मूर्तिपञ्जरम् ।

तदृषिर्च्छन्दसोन्यसं' तथा तन्मन्त्रदेवताम् ।।9।।

विन्यस्यैव षडङ्गानि तत्तद्बीजाक्षराणि च ।

इसके बाद तत्त्वन्यास, मूर्ति - पंजरन्यास, ऋषि - न्यास, छन्दोन्यास, मन्त्र-न्यास तथा देवता - न्यास करें। इस छह अंगों का न्यास कर उनके बीजाक्षरों का भी न्यास करें।

अथातो देवताध्यानं ततः पूजनमन्ततः ।।10।।

ततो निवेद्य तत्सर्वं जपेन्मन्त्रमनन्यधीः ।

ततो विज्ञाप्य देवेशं परिवारांश्च पूजयेत् ।।11।।

एवं सम्पूजितो देवः सर्वान् कामान् प्रयच्छति ।

इसके बाद देवता का ध्यान कर पूजन करें। इसके बाद सब कुछ निवेदित कर अनन्यचित्त होकर मन्त्र का जप करें। तब मुख्य देव श्रीराम को सब कुछ ज्ञापित कर श्रीराम के परिजनों की पूजा करें। इस प्रकार पूजित देव सभी कामनाओं की पूर्ति करते हैं।

बाह्यपूजां ततः कुर्यादैहिकाभ्युदयाय वै ।।12।।

विलिप्य वेदिकां सम्यङ्गण्डलं तत्र कारयेत् ।

तब सांसारिक उन्नति के लिए बाह्य पूजा करें। तब वेदिका को लीप कर वहाँ उचित रीति से यन्त्र का निर्माण करावें ।

शालितण्डुलचूर्णैश्च नीलपीतसितासितैः ।।13।।

लिखेदष्टदलं पद्मं चतुरस्रसमावृतम् ।

षट्कोणं कर्णिकामध्ये कोणाग्रे वृत्तसंवृतम् ।।14।।

धान के चावल के चूर्ण से नीला, पीला, सफेद और अन्य रंगों से चौकोर भूपुर सहित अष्टदल कमल बनायें और कर्णिका पर षट्कोण बनाकर उसके कोणाग्रभाग पर वृत्त बनाएँ ।

साध्यमेतत् ततो शोभारेखाभिरुपशोभितम् ।

सम्पूज्य मण्डलं चैव तत्र सिंहासनं न्यसेत् ।।15।।

बीच में साध्य लिखकर सुन्दर रेखाओं से शोभित मण्डल की पूजा कर वहीं श्रीराम और श्रीसीताजी का सिंहासन रखें।

चन्द्रोदयपताकैश्च तोरणैरपि सर्वतः ।

विचित्रं तत्र तत्रापि भित्तिस्तम्भस्थलादिषु ।।16।।

चंदोवा, पताका और बंदनवार से सर्वत्र अनेक प्रकार से सुन्दर ढंग से दीवाल खम्भा आदि को सजायें ।

एवं सुशोभितस्थाने सर्वमङ्गलसंयुते ।

पुण्यस्त्रीभिर्गृहस्थैश्च परितो व्यवहर्तृभिः ।।17।।

गायद्भिरपि नृत्यद्भिर्वदद्भिः स्तुतिपूर्वकम् ।

भेरीमृदङ्गवंश्यादिकांस्यतालादिभिर्बहु ।।18।।

वादयद्भिश्च बहुधा सम्यगाराधितो यदि ।

रघुनाथः स्वयं तत्र प्रसन्नो भगवान् भवेत् ।।19।।

इस प्रकार शुभ वस्तुओं से सुशोभित, पुण्यवती स्त्रियों और गृहस्थों पूजा- सामग्रियों को लानेवाले लोगों, गायकों, नर्तकों और अनेक स्तुति करनेवालों, तुरही, मृदङ्ग, बाँसुरी, झाल आदि बजानेवालों से घिरे हुए स्थान में सम्यक् पूजित होकर श्रीराम स्वयं वहाँ प्रसन्न होते हैं।

संपाद्य विविधैः पुष्पैः पूजयेच्चारुडालिकाम् ।

तुलसी पद्मजात्याद्यैर्मालैर्बहुविधैरपि ।।20।।

अनेक प्रकार के फूलों, कमल, जूही, विभिन्न प्रकार की माला तथा तुलसीदल आदि से भरी सुन्दर डाली (चंगेरी) की पूजा करें।

स्वपुरो दक्षिणे तीर्थशुद्धवारिसुपूरितम् ।

कलशं स्वपुरो वामभागे तु विनियोजयेत् । । 21 । ।

अन्यानि पूजाद्रव्याणि पुरस्तादेव निक्षिपेत् ।

इसे अपने आगे दाहिने भाग में रखें तथा तीर्थ के जल से भरा हुआ कलश अपने आगे वायें भाग में रखें। पूजा की अन्य सामग्रियाँ सामने में ही रखें।

आराधनाय देवस्य वेदिकाधः सुखासने । । 22।।

कुशास्तरणवैयाघ्रचर्मवासो-विनिर्मिते ।

उपविश्य शुचिर्मोनी भूत्वा पूजां समाचरेत् ।। 23।।

देव की आराधना के लिए वेदी के नीचे सुख से बैठने योग्य आसन, जो कुश, व्याघ्रचर्म या कपड़े का वना हुआ हो उस पर मौन होकर बैठें और पूजा का आरम्भ करें।

तुलसीकाष्ठघटितैः रुद्राक्षाकारकारितैः ।

शङ्खचक्रगदापद्मपादुकाकारकारितैः।।24।।

निर्मितां मालिकां कण्ठे' निधायार्चनमाचरेत् ।

रुद्राक्ष, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म या पादुका की आकृति की बनी हुई तुलसीकाष्ठ की माला कण्ठ में धारण कर पूजा प्रारम्भ करें।

तथामलकमालां च सम्यक् पुष्करमालिकाम् ।। 25।।

निर्माल्य तुलसीमालां शिरस्यपि निधाय वै ।

साथ ही, आँवले के पुष्प की माला, या कमल की सुन्दर माला या तुलसी की माला शिर पर रखकर पूजा आरम्भ करें।

निर्लिप्य चन्दनेनाङ्गमङ्कयेत् तस्य नामभि: ।।26।।

तस्यायुधानि बाह्वोश्च तेनैव द्विजसत्तम ।

अंगों पर चन्दन से श्रीराम के नामों का लेखन करें तथा बाहों पर उनके धनुष, बाण, गदा आदि आयुधों का अंकन उसी चन्दन से करें ।

पापिष्ठो वाप्यपापिष्ठः सर्वज्ञोऽप्यज्ञ एव वा ।। 27 ।।

भवेदेवाधिकारोऽत्र पूजाकर्मण्यसंशयः ।

पापी हो या निष्पाप, विद्वान् हो या मूर्ख, श्रीराम की पूजा में सबका अधिकार है, इसमें सन्देह नहीं ।

पद्मस्वस्तिकभद्रादिरूपेणाकुञ्च्य पद्द्द्वयम् ।।28।।

पद्मासन, भद्रासन या स्वस्तिकासन के रूप में दोनों पैरों को मोड़कर बैठें।

विनायकं नमस्कृत्य सव्यांशे च सरस्वतीम् ।

दक्षिणांशे पूर्ववच्च दुर्गां च क्षेत्रपं पुनः । । 29।।

प्रणम्याथ गुरून् भूयो नत्वा गुरुपरम्पराम् ।

गणेशजी को प्रणाम कर बायें भाग में सरस्वती को तथा पूर्ववत् दायें भाग पर दुर्गा का न्यास कर पुनः वहीं क्षेत्रपाल का न्यास कर उन्हें प्रणाम करें। गुरु को प्रणाम कर अपनी गुरु-परम्परा को प्रणाम करें।

ततो देवं नमस्कृत्य कुर्यात् तालत्रयं पुनः ।। 30 ।।

तारमस्त्राय फट् प्रोक्ता भ्रामयेद् दक्षिणं करम् ।

तब देवता को प्रणाम कर तीन ताल की क्रिया (तेताला) करें। तब ॐ अस्त्राय फट् इस मन्त्र से दाहिने हाथ को घुमावें ।

ततस्तु चिन्तयेद्देवमन्तः स्थानत्रयान्तरे ।। 31 ।।

ज्योतिर्मयमनः पूतं सत्यं ज्ञानसुखात्मकम् ।

तब ज्योतिःस्वरूप, प्राणियों में पवित्र, सत्य, ज्ञान और सुख स्वरूप देवता का ध्यान अन्तःकरण के तीनों में करें।

आत्मनः परितो वह्निं प्राकारं त्राणनाय च ।। 32 ।।

भूतप्रेतपिशाचेभ्यो विधाय तदनन्तरम् ।

अद्भिः पुण्याक्षतैश्चैव वह्निबीजास्त्रमन्त्रितैः ।। 33 ।।

प्रक्षिपेत् परितो मन्त्री भयविघ्ननिवृत्तये ।

इसके बाद घर की रक्षा के लिए अपने चारों ओर अग्नि का पूजन करें । तब भूत, प्रेत और पिशाच के लिए जल, अक्षत लेकर वह्निबीज (रं) एवं अस्त्र- मन्त्र 'फट्' से अभिमन्त्रित कर भय और विघ्न के नाश के लिए चारों ओर छिड़के।

हृदम्बुजे ब्रह्मकन्दसम्भूते ज्ञाननालके ।।34।।

ऐश्वर्याष्टदलोपेते ज्ञानवैराग्यकर्णिके ।

आराग्रमात्रो जीवस्तु चिन्तनीयो मनीषिभिः । । 35 ।।

हृदय रूपी कमल के ब्रह्म रूपी कन्द से निकले हुए ज्ञान रूपी नाल पर ऐश्वर्य आदि आठ दलों वाला कमल है, जिसकी कर्णिका (कमल का मध्य भाग) ज्ञान और वैराग्य की है, इस कमल पर आरे की नोंक के समान सूक्ष्म जीव अवस्थित है, इस प्रकार का ध्यान मनीषियों को करना चाहिए ।

नेतव्यो हंसमन्त्रेण द्वादशान्तः स्थितः परः ।

तेन संयोज्य विधिवत् भूतशुद्धिमथाचेरत् ।।36।।

द्वादशार चक्र से इसे 'हं स:' इस मन्त्र से ऊपर लाना चाहिए और उससे शरीर का संयोजन कर भूत-शुद्धि करना चाहिए।

भूतानि चाथ पृथिवी जलं तेजो मरुद् वियत् ।

यद्यतो जायते तस्मिन् प्रलयोत्पादनं पुनः ।। 37 ।।

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच भूत हैं, जहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है और पुनः उसी से जा मिलती है और पुनः उत्पन्न होती है।

शरीराकारभूतानां भूतानां शोधनं विदुः ।

मरुदग्निसुधाबीजैः पञ्चाशन्मातृमात्रकैः।। 38।।

प्राणान्निरुध्यात्मदेहं शोधयेत् तत्पुनर्दहेत् ।

तं देहं पुनराप्लाव्य पुनर्जीवमिहानयेत् ।। 39 ।।

शरीर के आकार में स्थित इन पाँच भूतों की शुद्धि ही भूतशुद्धि है । वायुबीज (यं) अग्निबीज (रं) और सुधाबीज (वं ) के साथ पचास मातृकाओं से यह क्रिया करें। इसमें सबसे पहले प्राणवायु को रोककर अपने सूक्ष्म शरीर का शोधन करें, फिर उस अध्यात्म रूप सूक्ष्म शरीर को अग्नि में जलावें, फिर उसे जल मे डुबोकर जीव को शरीर में प्रविष्ट करावें ।

जीवने पुनरात्मानं चिन्तयेत् पुरुषाप्तये ।

जीवस्य तत्त्वसिद्ध्यै च तस्याप्यात्मत्वसिद्धये । ।40 ।।

जीवन में फिर पुरुषस्वरूप की प्राप्ति के लिए जीव के तत्त्व की सिद्धि तथा आत्मत्व की सिद्धि के लिए आत्मतत्त्व का चिन्तन करें।

नयनानयनार्थं च हंसः सोऽहमितीरयेत् ।

भूतशुद्धिरियं नाम कर्त्तव्या मनसार्थकृत् ।।41।।

शरीर से जीव को अलग करने और लाने के लिए क्रमशः 'ॐ हंसः' और 'ॐ सोsहम्' इन मन्त्रों का प्रयोग करें। यह भूतशुद्धि कहलाती है, जो मन से करनी चाहिए। इससे प्रयोजन की सिद्धि होती है।

भूतशुद्धिं विना यस्य तपहोमादिकाः क्रियाः ।

भवन्ति निष्फलाः सर्वाः प्रकारेणाप्यनुष्ठिताः ।। 42 ।।

भूत शुद्धि के विना जो तप, होम आदि क्रियाएँ करते हैं, उनकी सभी क्रियाएँ विधानपूर्वक करने के बाद भी निष्फल होती हैं।

गृहोपसर्पणं चैव तथानुगमनं हरेः ।

भक्त्या प्रदक्षिणं चैव पादयोः शोधनं विदुः ।। 43।।

भगवान् के गृह (मन्दिर) जाना, श्रीहरि का अनुगमन करना तथा भक्ति पूर्व प्रदक्षिणा करना ये तीन पैरों की शुद्धि है।

पूजार्थं पत्रपुष्पाणां भक्त्यैवोत्तोलनं हरेः ।

करयोः सर्वशुद्धीनामियं शुद्धिर्विशिष्यते ।।44 ।।

श्रीहरि की पूजा के लिए पत्र - पुष्प पहुँचाना हाथों की अनेक प्रकार की शुद्धियों में विशिष्ट मानी जाती है।

तन्नामकीर्तनं चैव गुणानामपि कीर्तनम् ।

भक्त्या श्रीरामचन्द्रस्य वचसः शुद्धिरिष्यते ।। 45।।

भक्तिपूर्वक श्रीरामचन्द्र के नाम और गुणों का कीर्तन वाणी की शुद्धि मानी जाती है।

तत्कथाश्रवणं चैव तस्योत्सवनिरीक्षणम् ।

श्रोत्रयोर्नेत्रयोश्चैव शुद्धिः सम्यगिहोच्यते ।। 46 ।।

उनकी कथा को सुनना, उत्सवों को देखना कानों और आँखों की सम्यक् शुद्ध कही गयी है।

पादोदकस्य निर्माल्यं मालानामपि धारणम् ।

उच्यते शिरसः शुद्धिः प्रणतस्य हरेः पुनः ।। 47 ।।

भगवान् के चरणोदक, निर्माल्य और माला का धारण तथा शिर झुकाकर प्रणाम करना शिर की शुद्धि है ।

आघ्राणं गन्धपुष्पादेश्चित्तस्य च तपोधन ।

विशुद्धिः स्यादनन्तस्य घ्राणस्येहाभिधीयते । । 48 ।।

पूजा में प्रयोग किए गये निर्माल्य रूप फूल - चन्दन को सूंघना चित्त और नाक की शुद्धि यहाँ कही गयी है ।

पत्रं पुष्पादिकं यद्यद् रामपादयुगार्पितम् ।

विशुद्ध्यै तद् भवत्येव स्वात्मना धार्यते यदि ।।49।।

श्रीराम के चरणकमलों में अर्पित पुष्प आदि जहाँ हो और उन्हें धारण किया जाए तो वह स्थान शुद्ध हो जाता है।

अधुनाप्यथवा पूर्वं यद्यविष्णुसमर्पितम् ।

तदेव पावनं लोके तद्धि सर्वं विशोधयेत् । । 50 ।।

यदि इन समय अथवा पूर्व में विष्णु को समर्पित किए विना भी पुष्पादि उन्हें समर्पित करने के उद्देश से रखे गये हो और मन से ध्यान किया जाए तो वह स्थान पवित्र हो जाता है। वही इस संसार में पवित्र है अतः इस प्रकार पवित्र करना चाहिए।

इत्यगस्त्यसंहितायां पूजाविधिभूतशुद्धिर्नाम एकादशोऽध्यायः।।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 12

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