मयमतम् अध्याय १८
मयमतम् अध्याय १८
प्रासादोर्ध्ववर्गाः - इसके अन्तर्गत भवन के शीर्षभाग,
उसके अंगों तथा अलंकरणों का वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत
गललक्षण, शिखरों के भेद, शिखरों की
आकृति, स्तूपिका की ऊँचाई, लुपाओं की
संख्या, पुष्कर, लुपा प्रमाण, लुपाओं के पाँच भेद, शिखर के अंगों के प्रमाण,
आच्छादन, वलयसन्धि, घटिका,
लुपा के ऊपर आच्छादन, स्तूपिका की कील,
ललाटभूषण, स्तूपिका, लेप
एवं सुधा- कर्म, चित्रकर्म, मूर्ध्नष्टिका,
स्तूपिकाकील, मूर्ध्वेष्टकास्थापन आदि वर्णित
हैं। तदनन्तर आचार्य को दान एवं दक्षिणा देना, प्रासाद में
रत्न स्थापित करना, कर्मसमाप्ति, स्तूपिका-
कील के वृक्षों का विवेचन, सम्प्रोक्षण कर्म, अधिवास मण्डप, कुम्भस्थापन, वास्तुदेवता
बलि, चक्षुमोक्षण, सम्प्रोक्षण,
स्तूपिकाकुम्भ, दक्षिणादान, सम्प्रोक्षण की आवश्यकता, सम्प्रोक्षणकाल तथा कलशस्थापन
वर्णित हैं।
मयमतम् अध्याय १८
Mayamatam chapter 18
मयमतम् अष्टादशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र अट्ठारहवां
अध्याय
मयमत अध्याय १८- प्रासादोर्ध्ववर्गाः
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ अष्टादशोऽध्यायः
(प्रासादोर्ध्ववर्गाः)
गलभूषणमेतेषां शिरश्छन्दमथाधुना ।
लुपामानं च वक्ष्येहं
स्थूपिकालक्षणं क्रमात् ॥१॥
प्रासाद के उर्द्धा वर्ग- अब मैं
(मय ऋषि) इन (प्रासादों) के गले के अलङ्करणों का, शीर्ष-भाग के आच्छादन का, लुपा के प्रमाण का एवं
स्तूपिका के लक्षण का क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥१॥
मयमत अध्याय १८-
गललक्षणम्
वेदिकाद्विगुणोत्सेधं कन्धरं
शिखरोदयम् ।
तद्द्वित्रिगुणतुङ्गं वा वेदिकोच्चं
तु वा गलम् ॥२॥
गल का लक्षण - भवन का गल वेदिका की
ऊँचाई का दुगुना ऊँचा होना चाहिये । उसके ऊपर शिखरोदय गल का दुगुना अथवा तीन गुना
ऊँचा होना चाहिये । अथवा गल की ऊँचाई वेदिका की ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये ॥२॥
गर्भभित्तित्रिभागैकमङ्घ्रेर्वेद्यङ्घ्रिवेशनम्
।
ग्रीवावेशं ततस्तावदेवं दैवे च
मानवे ॥३॥
गर्भ-भित्ति (कक्ष की दिवार) के तीन
भाग के एक भाग के बराबर अङ्घ्रि (पद, चरण,
स्तम्भ) की वेदी में अङ्घ्रि का निवेश होना चाहिये । इसी प्रकार
भित्ति के ऊपरी भाग में ग्रीवा (काष्ठ, गल) का निवेश होना
चाहिये । यह विधान देवालय एवं मनुष्यगृह-दोनों के लिये कहा गया है ॥३॥
पञ्चांशे भित्तिविष्कम्भे भागो
वेद्यङ्घ्रिवेशनम् ।
ग्रीवावेशं ततस्तावच्चतुरंशे तथैव च
॥४॥
(अथवा) भित्ति-विष्कम्भ के पाँचवे भाग
के बराबर पाद-निवेश की वेदिका एवं ग्रीवावेश (कण्ठ-निवेश) होता है। इसी प्रकार ये
दोनों भित्ति-विष्कम्भ के चौथे भाग के बराबर भी हो सकते हैं ॥४॥
एवं त्रिविधनीत्या तु ग्रीवा साध्या
प्रयत्नतः ।
उत्तरं वाजनं चैव मुष्टिबन्धं
मृणालिका ॥५॥
दण्डिकावलयं चैव गलभूषणमिष्यते ।
मुष्टिबन्धोपरि
क्षिप्तव्यालनाटकमूर्ध्वतः ॥६॥
दण्डिका च विधातव्या तदूर्ध्वे
शिखरक्रिया ।
इस प्रकार इन तीन प्रकारों से (किसी
एक नियम से आवश्यकतानुसार) प्रयत्नपूर्वक कण्ठ निर्मित करना चाहिये । उत्तरवाजन,
मुष्टिबन्ध, मृणालिका, दण्डिका
एवं वलय गल के भूषण होते है । मुष्टिबन्ध के ऊपर व्याल एव नाट्य-दृश्य ऊपर से
(नीचे तक) होते है । दण्डिका का निर्माण (इस प्रकार) होना चाहिये (जिससे) उसके ऊपर
शिखर-निर्माण हो सके ॥५-६॥
मयमत अध्याय १८-
शिखरभेदाः
शिखरोत्सेधमात्तोच्चा भागमानवशेन वा
॥७॥
दण्डिकावधिविस्तारं पञ्चांश
द्व्यंशमानकम् ।
सप्तनन्दशिवांशे तु त्रयोदशतिथौ तथा
॥८॥
सप्तदशांशके बन्धवेदभूतषडंशकम् ।
सप्तष्टांशं तु तारार्धमित्यष्टौ
शिखरोदयाः ॥९॥
पाञ्चालं चापि वैदेहं मागधं चापि
कौरवम् ।
कौसलं शौरसेनं च गान्धारावन्तिकं
तथा ॥१०॥
शिखर के भेद - शिखर की ऊँचाई वर्णित
भाग के मान के अनुसार होती है । अथवा दण्डिका के मध्य के विस्तार के अनुसार रक्खी
जाती है । इसका माप इस प्रकार होता है - पाँच भाग में दो भाग,
सात भाग में तीन भाग, नौ भाग में चार भाग,
ग्यारह भाग में पाँच भाग, तेरह भाग में छः भाग,
पन्द्रह भाग में सात भाग, सत्रह भाग में आठ
भाग अथवा दण्डिका की मोटाई का आधा भाग । इस प्रकार शिखर के आठ भेद बनते हैं,
जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार है- पाञ्चाल, वैदेह,
मागध, कौरव, कौसल,
शौरसेन, गान्धार एवं आवन्तिक । इसे इस प्रकार
समझा जा सकता है -
१. पाँच भाग में दो भाग - पाञ्चाल
२. सात भाग में तीन भाग - वैदेह
३. नौ भाग में चार भाग - मागध
४. ग्यारह भाग में पाँच भाग - कौरव
५. तेरह भाग में छः भाग - कौसल
६. पन्द्रह भाग में सात भाग -
शौरसेन
७. सत्रह भाग में आठ भाग - गान्धार
८. दण्डिका मोटाई का आधा भाग -
आवन्तिक ॥७-१०॥
यथाक्रमेण नामानि ज्ञातव्यानि
विचक्षणैः ।
जघनाद् बहिरेवैते एकाः सर्वे
समाहिताः ॥११॥
ज्ञानियों द्वारा इनका (पाञ्चाल आदि
का) नाम क्रमशः जानना चाहिये । ये सभी जङ्घा के बाहर निकले होते है । इन शिखरों
में नीचे वाला (आवन्तिक) शिखर मनुष्य के आवास के योग्य एवं शेष सभी देवालय के योग्य
होते है ॥११॥
सर्वे ते तैतलानां स्युरर्धादधस्तु
मानुषम् ।
तद्दशाद्यासप्तदशभागादेकांशवर्धनात्
॥१२॥
आवन्तिका
प्रभृत्यूर्ध्वमष्टाविष्टलुपोदयाः ।
व्यामिश्रं च कलिङ्गं च तथा
कौशिकमेव च ॥१३॥
वराटं द्राविडं चैव बर्बरं कोल्लकं
पुनः ।
तथा शैण्डिकमित्येते व्यामिश्रादिलुपोदयाः
॥१४॥
इन आवन्तिक आदि शिखरों पर
लुपा-संयोजन के लिये दश भाग से प्रारम्भ कर एक-एक अंश बढ़ाते हुये सत्रह भाग
पर्यन्त आठ प्रकार की ऊँचाइयाँ प्राप्त होती है । इनके नाम इस प्रकार है -
व्यामिश्र, कलिङ्ग, कौशिक,
वराट, द्राविड, बर्बर,
कोल्लक तथा शौण्डिका ॥१२-१४॥
मयमत अध्याय १८-
शिखराकृतिः
देवानां प्रथितान्येव
पाषण्ड्यास्त्रमिनणामपि ।
चतुरस्त्रं च वृत्तं च
षडस्त्राष्टास्त्रमेव च ॥१५॥
द्वादशास्त्रं द्विराष्टस्नं
पद्मकुड्मलसन्निभम् ।
तथमलकपक्वाभं दीर्घवृत्तं च गोलकम्
॥१६॥
शिखर की आकृति - देवों एवं साधुओं-संन्यासियों
का भवन के शिखरों के आकार चौकोर, वृत्ताकार,
षट्कोण, अष्टकोण, द्वादश
कोण, षोडश कोण, पद्माकार, पके आँवले के आकार का, लम्बी गोलाई के आकार का और
गोलाकार होता है । ॥१५-१६॥
अष्टास्त्राद्यष्टधाराणि
हर्म्यादीनां शिरांसि हि ।
षडाद्याषष्टिकर्णं च सम्मतं
शिखराकृतिः ॥१७॥
हर्म्यों (महलों) के शिखर आठ कोण
एवं आठ धाराओं वाले होते है; किन्तु ये छः
कोण से लेकर साठ कोणपर्यन्त हो सकते है ॥१७॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिकोत्सेधः
तदुच्छ्रयचतुष्पञ्चभागं स्यात्
पद्मतुङ्गकम् ।
तत्समोच्चत्रिभागा वा तदूर्ध्वे स्थूपिकायतिः
॥१८॥
शिखर की ऊँचाई के चौथे या पाँचवें
भाग के बराबर ऊँचा कमल होना चाहिये । उसके ऊपर पद्म के बराबर अथवा उसके तीसरे भाग
के बराबर लम्बी स्थूपिका (स्तूपिका) होती है ॥१८॥
अल्पीयसी शिरोर्धा वा भागोच्चा वा
त्रिभागिके ।
सङ्क्षेपात् स्थूपिकाभूषा ह्युपरिष्टात्
प्रकाश्यते ॥१९॥
अत्यन्त छोटे भवन में स्थूपिका
(स्तूपिका) का प्रमाण शिखर का आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर होना चाहिये । इस
प्रकार संक्षेप में स्थूपिका को अलङ्करणों का वर्णन ऊपर किया गया ॥१९॥
मयमत अध्याय १८-
लुपासंख्या
पञ्चाद्येकादशान्ताश्च चतुराद्या दशान्तकाः
।
चतुर्विधा लुपासंख्या देवेऽदेवे
निकेतने ॥२०॥
देवों एवं मनुष्यों के भवन में चार
प्रकार के लुपाओं (लट्ठे, लकड़ी के पट्टे) की
संख्या होती है । यह पाँच से लेकर ग्यारह पर्यन्त (पाँच, सात,
नौ, ग्यारह) अथवा चार से लेकर दस तक (चार,
छः, आठ, दश) होती है ॥२०॥
मयमत अध्याय १८-
पुष्करम्
पूर्वोक्तं ह्यन्तरोच्चं तु
व्यामिश्रं नाम पुष्करम् ।
ऊर्ध्वस्थान्यप्यधस्थानि
पुष्कराण्यर्धमानतः ॥२१॥
पूर्व-वर्णित अन्तर की ऊँचाई
व्यामिश्र नामक पुष्कर (शिखर का एक भाग) की है । ऊर्ध्व-स्थितं एवं अधोभाग में
स्थित पुष्कर का माप आधे प्रमाण से रखना चाहिये ॥२१॥
अर्धमारभ्य संवर्त्य
पञ्चादुक्तोच्चसीमयक् ।
आरोह्याण्यवरोह्याणि
गुह्यमेतदुदाह्रतम् ॥२२॥
आधे प्रमाण से प्रारम्भ कर सबसे
ऊँचे प्रमाण तक जाना चाहिये । इसके पश्चात् वापस (नीचे तक) लौटना चाहिये । आरोह
एवं अवरोह का यह गोपनीय क्रम इस प्रकार वर्णित है ॥२२॥
मयमत अध्याय १८-
लुपामानम्
दण्डिकावधि तारार्धं चतुरस्त्रीकृतं
समम् ।
कोष्णीषसानसीमाख्यसूत्रयुक्तं खलं
नयेत् ॥२३॥
(दो) दण्डिकाओं के मध्य के मोटाई
(चौड़ाई) के आधे माप के बराबर एक सम चतुर्भुज बनाना चाहिये । इस चतुर्भुज के चारो
भुजाओं (सूत्रों) की संज्ञा क, उष्णीष,
आसन एवं सीम होती है ॥२३॥
दण्डिकोत्तरबाहूल्यं
सूत्रयेदासनादधः ।
आसने चतुरंशाद्यादंशांशं बिन्दु
विन्यसेत् ॥२४॥
आसन सूत्र के नीचे दण्डिका एवं
उत्तर के बराबर सूत्र फैलाना चाहिये (रेखा बनानी चाहिये) । इसके पश्चात् आसनसूत्र
पर चार से प्रारम्भ कर दश भागपर्यन्त (चार, पाँच,
छः, सात, आठ, नौ, दश) बिन्दु चिह्नित करना चाहिये ॥२४॥
कोष्णीषसन्धेस्तद्बिन्दु
सीमच्छायोच्चमावहेत् ।
छायोच्चायतमानानि कमूलादासने
न्यसेत् ॥२५॥
क सूत्र एवं उष्णीष सूत्र की सन्धि
से उस बिन्दु को सीम की छाया (शिखर का एक भाग) की ऊँचाई तक ले जाना चाहिये । छाया
की ऊँचाई तक लम्बाई के मान को क सूत्र के म्ल से आसानसूत्र पर न्यस्त करना चाहिये
॥२५॥
तान्येव दण्डिकादीनां पर्यन्तानि
भवन्ति हि ।
कोष्णीषसङ्गात् पर्यन्तबिन्द्वन्तं
तल्लुपायतम् ॥२६॥
ये ही सूत्र दण्डिका आदि तक होते है
। लुपाओं की लम्बाई क एवं उष्णीष सूत्र के सन्धिस्थल से बिन्दु के अन्त तक होती है
॥२६॥
तत्तत्पर्यन्तविस्तारं कसूत्रे
विन्यसेत् पुनः ।
स्वस्वकर्णगतच्छायामानैः सर्वान्
विमानयेत् ॥२७॥
क सूत्र पर उनका (लुपाओं का)
विस्तार पुनः विन्यस्त करना चाहिये (अर्थात् लुपायें कहाँ-कहाँ लगनी है - इसे
चिह्नित करना चाहिये) । सभी को अपने कर्ण से छायामान तक मापना चाहिये ॥२७॥
तत्तत्पर्यन्तसूत्राणि
मल्लपर्यन्तसूत्रवत् ।
एवं मध्यलुपासीम्नो वर्धन्ते
वर्णसंख्यया ॥२८॥
वे पर्यन्त सूत्र मल्ल (शिखर के एक
भाग) तक सूत्र की भाँति होते है । इस प्रकार मध्य में स्थित लुपा अन्य लुपाओं
(पार्श्व के स्थित लुपा) की संख्या के अनुसार बढ़ सकते है ॥२८॥
एवमावर्त्य
तत्पश्चादारोह्यैवावरोह्य च ।
तत्तत्पुष्करसञ्जातं तत्तन्मल्लायतं
विदुः ॥२९॥
इस प्रकार (लुपा-संयोजन) करने से
तथा आरोह एवं अवरोह से पुष्कर निर्मित होता है एवं इससे मल्ल की लम्बाई ज्ञात होती
है ॥२९॥
मयमत अध्याय १८-
पञ्चलुपाभेदाः
समध्यं च विमध्यं च लुपाकलनमेव हि ।
मध्यं च मध्यकर्णं
चाप्याकर्णमनुकोटिकम् ॥३०॥
कोटिरित्येवमुच्यन्ते पञ्च
वर्णलुपाः क्रमात् ।
युग्मांशेऽयुगम्संख्याभिरयुग्मे
युग्मसंख्यया ॥३१॥
लुपायें (अपनी स्थिति के अनुसार दो
प्रकार की) समध्य (मध्य में लगने वाली) एवं विमध्य (मध्य से हट कर लगने वाली) होती
है । लुपायें पाँच प्रकार की क्रमशः इस प्रकार होती है - मध्य,
मध्यकर्ण, आकर्ण, अनुकोटिक
एवं कोटि । यदि रेखा का विभाजन सम भागों में हुआ हो तो लुपा की संख्या विषम होती
है एवं विषम भागों में सम संख्या में लुपायें होती है ॥३०-३१॥
कानतान्तरासिकोष्णीषसीमान्त
स्वांशसंख्यया ।
चूलिका भ्रमणीया हि समयासमया च सा
॥३२॥
तत्तसूत्रात् स्तिता
दन्तस्तनसूत्राणि सूत्रयेत् ।
शयितसूत्रादधः पृष्ठवंशसूत्राणि
सूत्रयेत् ॥३३॥
कान्ता,
अन्तरा, असिका, उष्णीष,
सीमान्त, चूलिका, भ्रमणीया,
समया एवं असमया उन सूत्रों से स्थित होकर दन्त एवं स्तन संज्ञक
सुत्रों को सूत्र में बाँधती है (दन्त से स्तन संज्ञक सूत्र के मध्य उपर्युक्तों
की स्थिति होति है) । नीचे स्थित शयित सूत्र (क्षैतिज सूत्र) पृष्ठवंश (लुपायें
जिस पर टिकती है) को सूत्र में बाँधते है । ॥३२-३३॥
शयितस्थितसूत्रान्तः कीलं
तत्कूटमूर्धनि ।
निधायार्धेन्दुवत् सर्वाश्चूलिका
विलिखेत् समाः ॥३४॥
शयित सूत्र के भीतरी भाग में स्थित
कील के ऊर्ध्व भाग में कूट को अर्धचन्द्र की भाँति स्थापित कर सभी सम चूलिकाओं को
चिह्नित करना चाहिये ॥३४॥
लुपाविलुपमध्यान्तर्गता सा
चूलिकाकृतिः ।
एवं स्याद् ऋजुकार्यं हि तथा
कुक्कुटपक्षवत् ॥३५॥
लुपा एवं विलुप के मध्य में भीतर
स्थिर चूलिका की आकृति निर्मित होती है । इस प्रकार ऋजु निर्मित होता है एवं इसकी
आकृति कुक्कुट पक्षी के पंख के समान होती है ॥३५॥
बालकूटस्य
विस्तारस्थितसूत्रस्तनान्तरे ।
कूटमध्यमसूत्रं तु
वलयच्छिद्रमध्यगम् ॥३६॥
बालकूट के विस्तार में स्थित
सूत्रस्तन के मध्य में, वलय के छिद्र के
मध्य में स्थित कूट का मध्यम सूत्र होता है ॥३६॥
पर्यन्तसूत्रकादन्तर्दण्डिकोत्तरजा
ततिः ।
तदन्तर्जानुकव्यासस्तदन्तश्चूलिकास्थितिः
॥३७॥
पर्यन्त-सूत्र से अन्तर-दण्डिका के
वाम भाग में जो विस्तार होता है, वहाँ
अन्तर्जानुक का व्यास एव उसके मध्य में चूलिका की स्थिति होती है ॥३७॥
मयमत अध्याय १८-
शिखरावयवमानानि
लुपातारं तु दण्डं वा सपादं
सार्धमेव वा ।
विस्तारत्रिचतुष्पञ्चभागैकांशं तु
तद्धनम् ॥३८॥
शिखर के अङ्गों के प्रमाण - लुपा की
चौड़ाई एक दण्ड, सवा दण्ड या डेढ़ दण्ड होती है
तथा उसकी मोटाई का माप विस्तार का तीसरा, चौथा या पाँचवाँ
भाग होता है ॥३८॥
जानुव्यासं
चोत्तरार्धचूलिकार्धधिमेव वा ।
दण्डिकाविपुलं तावत् त्रिपादार्धं
तु तद्धनम् ॥३९॥
जानु का व्यास उत्तर का आधा अथवा
चूलिका के आधे का आधा (चतुर्थांश) होना चाहिये । इसकी मोटाई दण्डिका के बराबर,
तीन चौथाई अथवा आधी होनी चाहिये ॥३९॥
वलयं जानुनीव्र च
दण्डिकाविपुलार्धतः ।
मल्लमध्यादिचामीली जानुकालम्बनं च
यत् ॥४०॥
पर्यन्तजानुकान्तं च चूलिकाभाग एव
सः ।
शयनात् तावदेव
स्यान्नीव्रालम्बसूत्रकम् ॥४१॥
वलय एवं जानु के नीव्र (किनारा) का
माप दण्डिका के विस्तार का आधा होना चाहिये । मल्ल का मध्य एवं आदिक अमीली एवं
जानु के आलम्बन से जानु के अन्त तक चूलिका का अंश होता है । नीव्र का आलम्बन-सूत्र
शयन से होता है । ॥४०-४१॥
कुठारिकाललाटं च जघनं स समं मतम् ।
पादविष्कम्भकर्णो वा
विष्कम्भद्विगुणोऽथ वा ॥४२॥
कुठारिका,
ललाट एव जघन का मान एक समान होता है । पाद-विष्कम्भ एवं कर्ण का माप
समान होता है अथवा विष्कम्भ का दुगुना होता है ॥४२॥
कूटव्यासो लुपापिण्डी
कर्णस्तद्द्विगुणायतः ।
तदर्धं नालिकालम्बमूर्ध्वे
मल्लाग्रसङ्गतिः ॥४३॥
कूट के व्यास के बराबर लुपा की
पिण्डी होती है एवं कर्ण की लम्बाई उसकी दुगुनी होती है । उसके आधे माप का
नालिका-लम्ब होता है । इसके ऊपर मल्ल के अग्र भाग को जोड़ा जाता है ॥४३॥
छिद्रं तत्तीव्रमात्रं
स्यानमल्लानां तु प्रवेशनम् ।
जानुकं च लुपामध्यं
मध्यपृष्ठस्थवंशकम् ॥४४॥
समं स्यात् तीव्रताराभ्यां चूल्यंशो
वा लुपान्तरम् ।
लुपातीव्राष्टगुणं वा वलयो
वंशविस्तरः ॥४५॥
छिद्र उसकी मोटाई के अनुसार होना
चाहिये,
जिससे उसमें मल्लों का प्रवेश हो सके । जानुक, लुपामध्य एवं मध्य पृष्ठ पर स्थित वंश समान के माप के होते है । उनकी
मोटाई चूली के भाग के अथवा लुपा के मध्य भाग के बराबर होती है । अथवा लुपा की
मोटाई के आठवें भाग के बराबर वलय एवं वंश का विस्तार होता है ॥४४-४५॥
मयमत अध्याय १८-
छादनम्
तदर्धं वेशनं तीव्रं
फलकैर्लोहलोष्टकैः ।
मृण्मयैस्तु यथास्थैर्यमिच्छया
छादयेत् पुनः ॥४६॥
लुपोर्ध्वे फलकान् न्यस्य
वाष्टबन्धमधोर्ध्वतः ।
आच्छादन,
छाजन - उपर्युक्त माप का आधा मोटा (आच्छादन होना चाहिये) । काष्ठ के
फलकों, धातु के लोष्टकों (धातुनिर्मित पट्ट) अथवा
मृत्तिका-निर्मित लोष्टकों से इच्छानुसार (भवन के शीर्ष को) इस प्रकार आच्छादित
करना चाहिये, जिससे आच्छादन स्थिर रहे । लुपा के ऊपर फलकों
(या लोष्टकों) को रखकर नीचे एवं ऊपर अष्टबन्ध (विशिष्ट गारा) लगाना चाहिये ॥४६॥
मयमत अध्याय १८-
वलयसन्धिः
लुपामध्यादधश्छिद्र वलयस्य विधीयते
॥४७॥
क्रियायां परलेखास्तु कल्प्याः
षोडशसंख्यया ।
कुक्षिव्यासाष्टभागैकं
मात्रामानमिति स्मृतम् ॥४८॥
वलय की सन्धि - वलय के छिद्र लुपा
के मध्य के नीचे होता है । इसके लिये सोलह संख्या में परलेखायें (विशिष्ट रेखायें)
निर्मित करनी चाहिये । इसका प्रमाण कुक्षि के व्यास के आठवे भाग के अङ्गुलिमान के
बराबर होनी चाहिये ॥४७-४८॥
तेन भागेन सप्तार्धाद्
द्वयर्धभागविवर्धनात् ।
आपञ्चदशसंक्यान्ताः परलेखास्तु षोडश
॥४९॥
उस भाग से साढ़े सात से प्रारम्भ कर
ढ़ाई भाग बढ़ाते हुये पन्द्रह संख्या तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार सोलह परलेखायें
बनती है ॥४९॥
लुपाध ऊर्ध्वबिन्द्वादि मध्ये
विन्यस्य तद्विधिम् ।
तद्बिन्द्वादि विलोक्या हो परलेखा
विचक्षणैः ॥५०॥
लुपा के नीचे एवं पर बिन्द्वादि को
मध्य में करना चाहिये । उस बिन्द्वादि से बुद्धिमान (स्थपति) को परलेका का अवलोकन
करना चाहिये ॥५०॥
प्रासादानामिमाः प्रोक्ता गृहादीनां
च षोडश ।
लुपायामाद्याद्द्विगुणं तन्मानं तेन
बुद्धिमान् ॥५१॥
प्रासादों (महलों,
देवालयों) की ये परलेखायें गृहों मे सोलह संख्याओं मे होती है ।
लुपाओं में प्रथम से दुगुना मान करते हुये उनका मान बुद्धिमान (स्थपति) को स्वीकार
करना चाहिये ॥५१॥
कोष्णीषासनसूत्राभ्यामधः
शफरमालिखेत् ।
तस्मादुपरि मल्लस्य लेखयेत्
तद्विचक्षणः ॥५२॥
क, उष्णीव तथा आसन सूत्र के नीचे शफर को अङ्कित करना चाहिये । उसके ऊपर
बुद्धिमान (स्थपति) को मल्ल का अङ्कन करना चाहिये ॥५२॥
मल्लायतादधोभागे त्रिःपञ्चांशीकृतेः
क्रमात् ।
तत्तदंशावसानं तु मत्स्यं तत्तत्
समुल्लिखेत् ॥५३॥
मल्ल के नीचे लम्बाई के पन्द्रह भाग
करने चाहिये । उन-उन भागों के अन्त से मत्स्य की आकृति बनानी चाहिये ॥५३॥
सर्वासां परलेखानां क्रमोऽयं
परिकीर्तितः ।
पाञ्चालादिलुपानाम च प्रत्येकं
प्रोच्यते बुधैः ॥५४॥
सभी परलेखाओं का यही क्रम कहा गया
है । पाञ्चाल आदि लुपाओं में से प्रत्येक के विषय में बुद्धिमानों ने वर्णन किया
है ॥५४॥
ऋजाकार्ययुता मल्लाद् या
लेखासनकाग्रयोः ।
मध्ये परं हि सा प्राज्ञैः परलेखा
प्रकीर्तिता ॥५५॥
आसन एवं क सूत्र के अग्रभाग से एवं
मल्ल से संयुक्त, मध्य भाग एव उसके
बाद सीधी रेखा को बुद्धिअमन ने परलेखा कहा है ॥५५॥
मयमत अध्याय १८-
घटिका
लुपाबाहुल्यमानेन घटिकां
चतुरश्रिकाम् ।
वितस्त्यायामिनीमृज्वीं
कृतमध्यमसूत्रिताम् ॥५६॥
लुपा की चौड़ाई के मान से चौकोर
घटिका का निर्माण करना चाहिये । यह एक वितस्ति (बित्ता,
बालिश्त) लम्बी, सीधी, मध्यम
सूत्र से युक्त होती है ॥५६॥
चूलिकान्तर्वर्णलुपातिर्यक्
सूत्रस्वमध्यमात् ।
विन्यस्य घटिकां पश्चाच्छिन्नां
शमनसूत्रवत् ॥५७॥
चूलिका,
अन्तर्वर्ण, लुपा एवं तिर्यक सूत्र के मध्य
में घटिका को स्थापित करना चाहिये । इसके पश्चात् इसे शमन सूत्र के समान
छिद्रयुक्त करना चाहिये ॥५७॥
प्रतिवर्णं तु घटिकां तद्वर्णे तां
निधापयेत् ।
क्षिप्तसूत्रस्य शेषांशच्छिन्ने
वर्णलुपादरे ॥५८॥
दण्डिकोत्तरवलयस्थितसूत्रसमं लिखेत्
।
उदरायाममध्ये तु लिखिते ककरं भवेत्
॥५९॥
प्रत्येक वर्ण की घटिका को उसके
वर्ण पर स्थापित करना चाहिये । क्षिप्त सूत्र के शेष भाग के वर्ण लुपा के उदर भाग
पर दण्डिका, उत्तर एवं वलय पर स्थित समसूत्र
का आलेखन करना चाहिये । उदर भाग की लम्बाई के मध्य भाग में सम-सूत्र के अङ्कन से
ककर निर्मित होता है ॥५८-५९॥
घटिकाललाटमध्यं ककरं च समं यथा ।
तथा निधाय घटिकां लुपोदरवशायताम्
॥६०॥
तल्ललाटकृतिच्छेद्या वलयाद्या
लुपोदरे ।
इष्टपार्श्वे क्षिपेच्छायां
छिद्रैश्च वलयस्य तु ॥६१॥
जिस प्रकार घटिका ललाट के मध्य में
हो तथा ककर सम हो, उस विधि से लुपा के
उदर भाग में लम्बाई में रखकर उसे ललाट की आकृति में काटना चाहिये । वलय आदि को
लुपा के उदर भाग में इच्छित भाग रखना चाहिये । वलय के छिद्रों के साथ छाया के
स्थापित करना चाहिये ॥६०-६१॥
तत्तद्धटिकया तत्तन्मध्यसंहितमध्यया
।
या ललाटगतच्छाया तासां तासां तु सा
भवेत् ॥६२॥
उस-उस घटिका के साथ तथा मध्य में
स्थित उनके मध्य भाग से संयुक्त जो ललाट से सम्बद्ध छाया है,
वह उन-उन (घटिकाओं) की होती है ॥६२॥
दण्डिकावलयच्छिद्रस्तनजानूत्तरादिषु
।
शिरोमध्येऽर्धमध्ये च
न्यसेन्मुण्डतुलोपरि ॥६३॥
दण्डिका,
वलय, छिद्र, स्तन,
जानु एवं उत्तर आदि पर, शिर के मध्य भाग में
तथा अर्ध के मध्य में तुला के ऊपर मुण्ड (सजावटी अङ्ग) स्थापित करना चाहिये । ॥६३॥
विटभागशिखोपेततुलापादः सवंशह्रत् ।
सवर्णा मत्स्यबन्धाश्च
खर्जूरपत्रसन्निभाः ॥६४॥
विट भाग (शीर्ष भाग) शिखा से युक्त,
तुला-पाद से युक्त, वंश से युक्त, वर्ण से युक्त, मत्स्य-बन्ध एवं खर्जूर-पत्र के समान
आकृति से युक्त होती है ॥६४॥
मयमत अध्याय १८-
पुनश्छादनम्
सवलयक्षो विधातव्या लुपाः
शिखरकान्तरे ।
लुपोर्ध्वे फलकं वोर्ध्वे तस्याः
कम्पं निधाय च ॥६५॥
इष्टकासुधया वाऽपि प्रच्छादनमलङ्क्रियात्
।
पुनः आच्छादन - शिखर के भीतरी भाग
में वलयक्ष के साथ लुपा रखनी चाहिये । लुपा के ऊपर फलक अथवा कम्प रखना चाहिये तथा
सुधा (गारा) एवं ईटों से आच्छादन को सुन्दर बनाना चाहिये (अर्थात उन्हे सही एवं
सुन्दर बनाना चाहिये) । ॥६५॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिकाकीलम्
स्थूपिकाकीले दीर्घं च पादोत्सेधसमं
मतम् ॥६६॥
अर्धार्धमग्रविस्तारं दण्डार्धं
मूलविस्तृतम् ।
आशङ्कुमूलमुण्डान्तं तस्य मूलस्य
वेधनम् ॥६७॥
स्तूपिका की कील - स्थूपिका
(स्तूपिका) के कील की लम्बाई स्तम्भ की लम्बाई के बराबर होनी चाहिये । इसके शीर्ष
भाग की चौड़ाई चौथाई दण्ड एवं मूल की चौड़ाई आधा दण्ड होनी चाहिये । इसके मूल का
वेधन शङ्ग्कु के मूल से लेकर मुण्ड पर्यन्त होना चाहिये ॥६६-६७॥
वंशाधस्तान्निधातव्या
मण्डनागाग्रपट्टिका ।
बालकूटस्तनं शङ्कुमूलमुण्डकमेव च
॥६८॥
वंश के नीचे मन्डनाग,
अग्रपट्टिका, बालकूट, स्तन,
शङ्कुमूल एवं मुण्डक स्थापित करना चाहिये ॥६८॥
अन्तःस्थवलयं वर्णपट्टिका च सनालिका
।
मत्स्यबन्धनखर्जूरपत्रमल्लनिबन्धनात्
॥६९॥
शिखर के भीतरी भाग की सज्जा
अन्तःस्थ वलय, नालियों से युक्त वर्णपट्टिका,
मत्स्यबन्धन, खर्जूरपत्र, मलय, वलक्ष तथा स्वस्ति धाराओं से करनी चाहिये ॥६९॥
वलक्षस्वस्तिधाराभिः शिखरान्तरलङ्क्रियात्
।
विस्तारो मुखपट्ट्याश्च दण्डयो
वाध्यर्ध एव वा ॥७०॥
नीप्रं षडष्टभागं वा कर्णिकोच्चं तु
तत्ततिः ।
शक्तिध्वजस्य मूलस्य विपुलं
दण्डमानतः ॥७१॥
तत्कण्ठं तावदेवोच्चं सपादं
सार्धमेव वा ।
ग्रीवान्तगग्रपत्रं तु स्तम्भव्यासार्धतुङ्गवत्
॥७२॥
मुखपट्टी का विस्तर एक दण्ड या डेढ़
दण्ड होना चाहिये । नीप्र का माप उसके छटवें या आठवें भाग के बराबर होना चाहिये
एवं सुअकी चौड़ाई कर्णिका की ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये । शक्तिध्वज के मूल की
चौड़ाई एक दण्ड होनी चाहिये । उसका कण्ठ उसके बराबर, उसका सवा भाग या डेढ़ भाग अधिक होना चाहिये । ग्रीवा के अन्त तक जाने वाले
गग्रपत्र का मान स्तम्भ की चौड़ाई का आधा ऊँचा होना चाहिये । ॥७०-७२॥
द्विदण्डादित्रिदन्डान्तमन्तरं
गग्रपत्रयोः ।
वाताहतचलच्चारुलतावत् कर्णिकाक्रिया
॥७३॥
दो गग्रपत्रों के मध्य का भाग दो
दण्ड से प्रारम्भ कर तीन दण्ड तक होना चाहिये । कर्णिका वायु के वेग से हिलती हुई
लता की भाँति होनी चाहिये ॥७३॥
अर्धकर्णमधस्तस्माच्छिरोऽर्धार्धेन
चानतिः ।
ग्रीवोपरि कपोलान्तं त्रिदण्डं
सार्धमेव वा ॥७४॥
नीचे अर्धकर्ण होना चाहिये एवं उसके
ऊपर शिर होना चाहिये । डेढ़ भाग से अनति होनी चाहिये । ग्रीवा के ऊपर कपोल-पर्यन्त
का भाग तीन या साढ़े तीन दण्ड होना चाहिये ॥७४॥
तावच्छक्तिध्वजान्तं स्यात् सपत्रं
वा सशूलकम् ।
नेत्रसंश्लिष्टमल्लं तु
चूलिकास्तनमण्डलम् ॥७५॥
उससे पत्र एवं शूल से युक्त
शक्तिध्वज लगा होना चाहिये । वहाँ नेत्र से युक्त मल्ल,
चूलिका एवं स्तनमण्डल आदि निर्मित होना चाहिये ॥७५॥
शयितस्थितपट्टाभ्यां
मृणाल्यादिविभूषितम् ।
अर्धकर्णोर्ध्वपट्टोर्ध्वप्रत्यूर्ध्वे
मुष्टिबन्धनम् ॥७६॥
क्षैतिज स्थित पट्ट कमल आदि से अलङ्कृत
होना चाहिये । अर्धकर्ण, ऊर्ध्वपट्ट एवं ऊर्ध्वप्रति
के ऊपर मुष्टिबन्ध निर्मित होना चाहिये ॥७६॥
यथोशोभननिष्क्रान्तं त्रिमुखं
स्यात् तदूर्ध्वतः ।
शूलाभं मतलाभं वा सव्यालं वा
सनाटकम् ॥७७॥
शोभा के अनुसार निष्क्रान्त होना
चाहिये । उसके ऊपर त्रिमुख होना चाहिये, जो
शूल के समान, मतल के सदृश, व्याल (गज
अथवा सर्प) के सदृश अथवा नृत्यादि के दृश्यों से युक्त हो ॥७७॥
मयमत अध्याय १८-
ललाटभूषणम्
तदूर्ध्वे कूटकोष्ठादिमण्डितं
स्याद् विमानवत् ।
सपट्टक्षुद्रकम्पाङ्गं मध्यतोरणमेव
वा ॥७८॥
ललाट के अलङ्करण - उसके ऊपर कूट एवं
कोष्ठ आदि से अलङ्कृत विमान (मन्दिर) के सदृश रचना होती चाहिये,
जो पट्ट, क्षुद्रकम्प आदि अङ्गों अथवा मध्य
तोरण से युक्त हो ॥७८॥
तोरणाभ्यन्तरे लक्ष्मीः
साभिषेकाम्बुजासिका ।
एवंविधैरथान्यैश्च मण्डनीया ललाटिका
॥७९॥
तोरण के मध्य में लक्ष्मी अङ्कित
होनी चाहिये, जिनका (गजों द्वारा) ऐषेक किया
जा रहा ओ एव हाथ में कमल-पुष्प हो । इस प्रकार अथवा अन्य विधि से ललाटिका को सजाना
चाहिये ॥७९॥
ललाटवंशसंविद्धमध्यशूलदृढीकृता ।
स्तम्बविस्तारविस्तीर्णा विधातव्या
कुठारिका ॥८०॥
तत्कर्णं पत्रमकरं मण्डितं
चावलम्बितम् ।
अर्धकर्णेन चार्धं वा यथायुक्ति
यथारुचि ॥८१॥
ललाट के वंश विद्ध,
मध्य के शूल से दृढ़ बनाई गई, एक दण्ड विस्तृत
कुठारिका होनी चाहिये । इसका कर्ण पत्र एवं मकर से अलङ्कृत तथा उस पर टिका होना
चाहिये । अथवा पत्र तथा मकर मध्य में या अर्धकर्ण पर रुचि एवं योजना के अनुसार
निर्मित करना चाहिये ॥८०-८१॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिका
अन्तर्गतलुपातिर्यगग्रबन्धनविष्टकम्
।
तदूर्ध्वे तेन निर्विद्धं स्थूपिका
यूपमिष्यते ॥८२॥
स्तूपिका - अग्र भाग (ऊपरी भाग) में
जोड़े गये ईंटों के मध्य में तिरछी लुपायें प्रविष्ट होती है । उसके ऊपर उनको भेद
कर स्थूपिका-यूप निकली होती है ॥८२॥
पूर्वोक्तं स्थूपिकामानमलङ्कारमेथोच्यते
।
सार्धमर्धं तदूर्ध्वेऽर्धमर्धमंशं
शरांशकम् ॥८३॥
अशमर्धं च भागं स्यादर्धमंशं
तथार्धकम् ।
भागमर्धं ततार्धांशमंशमर्धं
यथार्धकम् ॥८४॥
चतुरर्धं क्रमेणैवोत्तुङ्गे
द्वाविंशदंशके ।
पद्मं च क्षेपणं वेत्रं क्षेपणं
पङ्कजं घटम् ॥८५॥
पङ्कजं क्षेपणं धृक् च क्षेपणं
वेत्रमुर्ध्वतः ।
क्षेपणं धृक् च कम्पं तु पद्मं
फलकमम्बुजम् ॥८६॥
स्थूपिका के प्रमाण का पहले वर्णम
किया चुका है । अब उसके अलङ्करणों के बाईस भागों का (प्रमाणसहित) वर्णन किया जा
रहा है;
जो इस प्रकार है - पद्म - एक, क्षेपण, आधा, वेत्र - आधा, क्षेपण -
आधा, पङ्कजः, एक, घट - पाँच, पङ्कज - एक , क्षेपण
- आधा, धृक् - एक, क्षेपण - आधा,
वेत्र - एक, क्षेपण - आधा, धृक - एक, कम्प - आधा, पद्म -
आधा, फलक - एक, अम्बुज - आधा, वेत्र - आधा तथा मुकुल - साढ़े चार ॥८३-८६॥
वेत्रं च मुकुलं चैव क्रमेणोक्तवशान्नयेत्
।
सप्तद्व्यंशत्रिकद्व्यंशैः
पञ्चनन्देन्द्रियत्रिकैः ॥८७॥
द्वित्रिवेदत्रिकद्व्यंशैर्गुणपञ्चर्तुपञ्चभिः
।
द्वित्रिभागैः क्रमाद् मूलपद्मादिषु
न्यसेत् ॥८८॥
पद्म से आरम्भ कर मुकुल पर्यन्त
(ऊपर वर्णित क्रम से अङ्गों) की चौड़ाई इस प्रकार होनी चाहिये - पद्म - सात भाग,
क्षेपण - दो, वेत्र - तीन, क्षेपण - दो, पङ्कज - क्षेपण - तीन, धृक् - दो, कम्प - तीन, पद्म
- पाँच, फलक - छः, अम्बुज - पा~म्च, वेत्र - दो एवं मुकुल - तीन भाग ॥८७-८८॥
मुकुलाग्रमंशमर्धार्धं
यथाशोभवशान्नयेत् ।
चतुरष्टद्विरष्टास्त्रं साधारं
वर्तुलं तु वा ॥८९॥
मुकुल के अग्र भाग को शोभा के
अनुसार एक या डेढ़ भाग बढ़ाया जा सकता है । इसका आकार चार,
आठ या सोलह कोण वाला अथवा गोल रक्खा जा सकता है । जिस प्रकार से
ऊपरी भाग को सहारा दे सके (वही आकृति चुनी जानी चाहिये)। ॥८९॥
तदाकृतिः शिरश्छन्दमलङ्कारवशात्तु
वा
तदाकृतिः सुरोर्वीशविप्राणां च
विशां मतम् ॥९०॥
अथवा इसकी आकृति भवन के शीर्ष भाग
के अलङ्करण के अनुसार रखनी चाहिये । ये आकृतियाँ देवों,
राजाओं, ब्राह्मणों एवं वैश्यों के अनुकूल
होती है ॥९०॥
सुरद्विजनृपाणां तु वैश्यानां नैव
शूद्रके ।
तत्सम्बन्धं समापाद्य ध्वजदण्डं
तदूर्ध्वगम् ॥९१॥
एवं लक्षणसम्पन्नं विमानं सम्पदां
पदम् ।
देवों,
ब्राह्मणों , क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिये
तो यह अनुकूल ऐ; किन्तु शूद्रो के लिये नही है । इन अङ्गों
को (यथोचित रीति से) नियोजित कर ध्वजदण्ड को उसके ऊपर रखना चाहिये । इन लक्षणों से
युक्त विमान (देवालय, ऊँचा भवन) सम्पतिकारक होता है ॥९१॥
मयमत अध्याय १८-
लेपः सुधाकर्म च
करालमुद्गी गुल्माषककचिक्कणसाह्वयाः
॥९२॥
चूर्णोपयुक्ताः पञ्चैते
सर्वकर्मसनातनाः ।
अभयाक्षबीजमात्रशर्कराः स्युः
करालकाः ॥९३॥
कराल, मुद्गी, गुल्माष, कल्क एवं
चिक्कण - ये पाँचों चूर्ण सभी (निर्माण) कार्यो के लिये उचित होते है । कराल अभया
(हर्र, हरीतकी) अथवा अक्ष (बहेड़ा, बिभीतक)
के बीज के बराबर आकार के कङ्कड़ होते है ॥९२-९३॥
मुद्गबीजसमा क्षुद्रशर्करा
मुद्गमिष्यते ।
सार्धत्रिपादद्विगुनकिञ्जल्कसिकतान्वितम्
॥९४॥
चूर्णस्य शर्कराशुक्त्योर्यद्
गुल्माषं तदुच्यते ।
करालं चापि मुद्गीं च तेन मानेन्
योजयेत् ॥९५॥
मूँग के दाने के बराबर छोटे कङ्कड़
को मुद्ग कहते है । डेढ़ भाग, तीन चौथाई
अथवा दुगुने माप में बालू से युक्त किञल्क (कमल के सूत्र, रेशे)
में शर्करा (कङ्कड़) एवं सीपियों (के चूर्ण के साथ) चूना मिलाने पर गुल्माष (एक
प्रकार का गारा) तैयार होता है । करालं एव मुद्गी को भी इसी माप से तैयार किया
जाता है ॥९४-९५॥
पूर्वोक्तमात्रसिकताचणकश्चूर्णमानतः
।
क्रियार्थं पेषितं कल्कं
चिक्कणमस्तु केवलम् ॥९६॥
पूर्व-वर्णित माप में बालू के साथ
चणक (चने के आकार का चूना) को एक साथ पीसना चाहिये । यह कल्क होता है । चिक्कण
केवल (सादा, इसमें कुछ नही मिलाया जाता )
होता है ॥९६॥
निश्छिद्रमिष्टमानेन गोत्रमिष्टकया
दृढम् ।
पूर्वोक्तानां च पञ्चानां विधातव्यं
पृथक् पृथक् ॥९७॥
पूर्ववर्णित कराल,
मुद्गी आदि पदार्थों का प्रयोग अलग-अलग करना चाहिये । इनसे ईटों को
आपस में इस प्रकार जोड़ा जाता है; जिससे उनमें छिद्र शेष न
रहें । ॥९७॥
तत्र तत्र तदुक्तेन द्रव्येण
परिकल्पयेत् ।
केवलेनाम्भसा पूर्वं
पूर्वांस्त्रिस्त्रिः प्रकुट्टयेत् ॥९८॥
उपर्युक्त पदार्थों में से किसी एक
का चूनाव करना चाहिये । (चुने गये पदार्थ को) केवल जल के साथ पहले तीन बार कूटना
चाहिये ॥९८॥
क्षीरद्रुमकदम्बाम्राभयाक्षत्वग्जलैः
पुनः ।
त्रिफलौदैस्ततस्तद्वन्माषयूषैस्ततस्तथा
॥९९॥
इसके पश्चात् क्षीरद्रुम,
कदम्ब, आम, अभया,
(हर्र) तथा अक्श (बहेड़ा) के छाल के जल के साथ, इसके पश्चात् त्रिफला (हर्र, बहेड़ा एवं आँवला ) के
जल के साथ, तदनन्तर उड़द के पानी के साथ (कूटा जाता है) ॥९९॥
संयम्य शर्कराशुक्तिं चूर्णं
तत्खातवारिणि ।
खुरसङ्कुट्टनं कृत्वा
स्त्रावयित्वाऽथ वाससा ॥१००॥
इसके पश्चात् कुङ्कड़,
सीपियाँ एवं चूने में कूप का (अथवा गड्ढ़े का) जल मिला कर खुर से
विधिवत् कुटाई करना चाहिये । पुनः इसको कपड़े से छानना चाहिये ॥१००॥
कल्कं च चिक्कणं तेन कल्कनीयं
विचक्षणैः ।
दधिदुग्धमाषयूषगुडाज्यकदलीफलैः
॥१०१॥
जलैश्च नालिकेरस्य चूतपक्वरसैः सह ।
कल्पितं शिल्पिभिर्यत्तद्
बन्धोदकमिति स्मृतम् ॥१०२॥
इस (तरल पदार्थ) से कल्क एवं चिक्कण
को बुद्धिमान (स्थपति) को तैयार करना चाहिये । दही, दूध, उड़द का पानी, गुड़,घी, केला, नारियल का पानी एवं
पके आम का रस- इन पदार्थों का उचित मात्रा में संयोजन कर शिल्पी लोग 'बुद्धोदक' तैयार करते है ॥१०१-१०२॥
शुद्धिं शुद्धोदकेनादौ कृत्वा बन्धाम्भसा
ततः ।
आलिप्य सुधया कार्या
नानारूपान्वितक्रिया ॥१०३॥
प्रथमतः साफ पानी से (भित्ति आदि)
स्थान को शुद्ध कर (साफ कर) पुनः बन्धोदक का लेप करना चाहिये । लेप के पश्चात्
सुधा से लेप करके विभिन्न प्रकार के रूपों (चित्रों) आदि का निर्माण करना चाहिये
॥१०३॥
दग्धैश्च मृण्मयैश्चापि
लोहलौष्टैऐर्यथोचितम् ।
गोपानस्योपरिष्टान्तु च्छादनीयं
विचक्षणैः ॥१०४॥
गोपान के ऊपर पकी मिट्टी के द्वारा
निर्मित अथवा धातु-निर्मित लोष्ट (टाइल्स) से बुद्धिमान स्थपति को आच्छादन करना
चाहिये ॥१०४॥
करालश्च
मुद्गिगुल्माषघनमेकैकमङ्गुलम् ।
कल्कमानं तदर्धेन तदर्धार्धं तु
चिक्कणम् ॥१०५॥
उसके ऊपर कराल,
मुद्गी एवं गुल्माष को एक-एक अङ्गुल, कल्क को
उसका आधा (आधा अङ्गुल) तथा चिक्कण को कल्क का आधा मोटा रखना चाहिये ॥१०५॥
जलस्थलप्रयुक्ते तु यथेष्टं
घनमिष्यते ।
षण्मासमुत्तमं प्रोक्तं चतुर्मासं
तु मध्यमम् ॥१०६॥
अधमं तु द्विमासं
स्यादेषामुषितमिष्यते ।
ततो बन्धोदकैरेतान् संक्लेद्य
क्रमशः कृतिः ॥१०७॥
जल वाले स्थान पर उपर्युक्त पदार्थो
को पर्याप्त मोटा लगाना चाहिये । इन्हें बन्धोदक से गीला कर यदि छः मास के लिये
छोड़ दिया जाय तो उत्तम परिणाम प्राप्त होता है (इससे ईंटो की जोड़ाई अत्यधिक द्रुढ़
होती है) । चार मास छोड़ने पर मध्यम एवं दो मास छोड़ने पर कम परिणाम प्राप्त होता है
॥१०६-१०७॥
लुपोपरीष्टकास्तारे चैवं
चूर्णक्रियां पुनः ।
आच्छादनीयं यत्नेन तद्धनं छादनं
विदुः ॥१०८॥
लुपाओं के ऊपर ईंटों को बिछाना
चाहिये एवं उसके ऊपर चूना डालना चाहिये । छत को प्रयत्नपूर्वक (पूर्वोक्त लेप से)
घना आच्छादित करना चाहिये ॥१०८॥
मयमत अध्याय १८-
चित्रकर्म
देवानां च द्विजानां चावासे योग्यं
सनातनम् ।
बहिरन्तश्च सर्वेषां चित्रं युञ्जीत
बुद्धिमान् ॥१०९॥
देवताओं एवं ब्राह्मणों के सभी
भवनों के भीतर एवं बाहर बुद्धिमान को व्यक्ति को चित्रों से युक्त करना चाहिये
॥१०९॥
सुमङ्गलकथोपेतं
श्रद्धानृत्तक्रियान्वितम् ।
विप्रादीनां च वर्णानां निवासं
सम्पदां पदम् ॥११०॥
विप्र आदि सभी वर्ण वालों के गृहों
मे माङ्गलिक कथाओं से युक्त, श्रद्धा,
नृत्य एवं नाटक आदि के चित्र बनाने चाहिये । ये चित्र गृहस्वामी को
समृद्धि प्रदान करने वाले होते है ॥११०॥
संग्रामं मरणं दुःखं
देवासुरकथान्वितम् ।
नग्नं तपस्विलीलां चामयाव्यादि न
योजयेत् ॥१११॥
युद्ध,
मृत्यु, दुःख से युक्त देवासुर की कथा का
चित्रण, नग्न, तपस्वियों की लीला तथा
रोगियों-दुःखियों का अङ्कन नही करना चाहिये । अन्य लोगो के निवास स्थान में उनकी
इच्छानुसार अङ्कन करना चाहिये ॥१११॥
अन्येषामन्यथा वासे साधनीयं
यथेष्टतः ।
पञ्चांशं माषयूषं स्यान्नवाष्टांशं
गुडं दधिः ॥११२॥
आज्यं द्व्यंशंतु सप्तांशं क्षीरं
चर्म षडंशकम् ।
त्रैफलं दशभागं स्यान्नालिकेरं
युगांशकम् ॥११३॥
क्षौद्रमेकांशकं त्र्यंशं
कदलीफलमिष्यते ।
लब्धे चूर्णे दशांशे तु युञ्जीतव्यं
सुबन्धनम् ।
सर्वेषामधिकं शस्तं गुडं च दधि
दुग्धकम् ॥११४॥
(अच्छे सुबन्धन के लिये) पाँच भाग उड़द का पानी,
नौ भाग गुड़, आठ भाग दही, दो भाग घी, सात भाग क्षीर, छः
भाग चर्म, दश भाग त्रिफला, चार भाग
नारियल का पानी, एक भाग शहद एवं तीन भाग केला होना चाहिये ।
इनमें दश भाग चूना मिलाने से सुबन्धन (अच्छा मसाला, लेप)
प्राप्त होता है । इन सभी पदार्थों में गुड़, दही एवं दूध
अधिक होना चाहिये ॥११२-११४॥
चूर्णद्व्यंशं करालं
मधुघृतकदलीनालिकेरं च माषं
शुक्तेस्तोयं च दुग्धं दधिगुडसहितं
त्रैफलं तत् क्रमेण ।
लब्धे चूर्णे शतांशेंऽशकमिदमधुना
चानुवृद्धिं प्रकुर्या -
देतद् बन्धं दृषत्सदृशमिति कथितं
तन्त्रविद्भिर्मुनीन्द्रैः ॥११५॥
दो भाग चूना,
कराल, मधु, घी, केला, नारियल, उड़द, शुक्ति (सीपी) का जल, दूध, दही,
गुड़ एवं त्रिफला-इनसे प्राप्त चूर्ण में इनके सौवें भाग के बराबर
चूना मिलाना चाहिये । इस विधि से तैयार बन्ध (ईंटों को जोड़ने का गारा) पत्थर के
समान दृढ़ होता है - ऐसा तन्त्र के ज्ञाता ऋषियों का कथन है ॥११५॥
मयमत अध्याय १८-
मूर्ध्नेष्टका
देवानां द्विजभूमीशवैश्यानां
भवनेऽधुना ॥११६॥
मूर्ध्नेष्टका विधातव्याश्चतस्त्रो
लक्षणान्विताः ।
सुस्निग्धाः समदग्धाश्च
सुस्वनास्ताः सुशोभनाः ॥११७॥
शिरोभाग की ईंट - अब देवों,
ब्राह्मणों, क्षत्रियो एवं वैश्यों के भवन में
मूर्ध्नेष्टका (भवन के ऊर्ध्व भाग में रक्खी जाने वाली इष्टका) रक्खी जानी चाहिये
। इसे चार लक्षणों से युक्त होना चाहिये - ये चिकनी हो, भली-भाँति
पकी हों, (ठोकने पर) इससे सुन्दर स्वर उत्पन्न हो तथा देखने
में सुन्दर हों ॥११६-११७॥
स्त्रीलिङ्गाश्चापि पुंल्लिङ्गा
भिन्नच्चिद्रादिवर्जिताः ।
विस्तारायामतीव्रैस्तु प्रथमेष्टकया
समाः ॥११८॥
ये ईंटे स्त्रीलिङ्ग अथवा पुल्लिङ्ग
होनी चाहिये । ये टूटी न हों तथा छिद्र आदि से रहित हो । लम्बाई,
चौड़ाई एवं मोटाई में ये प्रथम ईंटों (शिलान्यास की ईंटो) के समान
होती है ॥११८॥
शिलामये शिला प्रोक्ता सर्वदोषविवर्जिता
।
जन्माद्याशिखरान्तं च
यैर्द्रव्यैश्च विनिर्मितम् ॥११९॥
तैरेवादौ तथान्ते च
न्यस्तव्याश्चेष्टकाः शुभाः ।
मिश्रद्रव्यैश्च सङ्कीर्णे
यैर्द्रव्यैरुपरि स्थितम् ॥१२०॥
तैरेव मूर्ध्नि विन्यासं
रहस्यमिदमिरितम् ।
प्रस्तर से निर्मित भवन में शिला को
सभी दोषों से रहित होना चाहिये । जन्म (नींव) से लेकर शिखर के अन्तिम बाग तक भवन
जिस द्रव्य से निर्मित होता है, उसी द्रव्य
(ईंटो अथवा शिलाओं) से निर्मित इष्टका को भवन के प्रारम्भ एवं अन्तिम भाग (शिखर)
में भी स्थापित करना चाहिये । यह प्रशस्त होता है । मिश्रित द्रव्यों से निर्मित
भवन में ऊपरी भाग में जो द्रव्य ऊपर स्थित हो, उसी द्रव्य का
विन्यास भवन के ऊपरी भाग में करना चाहिये । यह रहस्य (ऋषियों द्वारा) कहा गया है ।
॥११९-१२०॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिकाकीलम्
लोहजं दारुजं वाऽपि
स्थूपिकाकीलमिष्यते ॥१२१॥
स्तूपिका की कील - स्थूपिका
(स्तूपिका) की कील धातुनिर्मित या काष्ठनिर्मित होनी चाहिये ॥१२१॥
ऊर्ध्वभूम्यङ्घ्रिणायामविस्तारं
पादतः समम् ।
अग्रमङ्गुलविस्तारमानुपूर्व्या कृशं
तथा ॥१२२॥
कील की चौड़ाई ऊर्ध्व भाग एवं अधोभाग
में समान होनी चाहिये । इसकी लम्बाई (ऊपरी मञ्जिल के) स्तम्भ के बराबर होनी चाहिये
तथा अग्र भाग (ऊपरी भाग का अन्तिम भाग) एक अङ्गुल चौड़ा एवं नीचे की अपेक्षा पतला
होना चाहिये ॥१२२॥
चतुरस्त्रसमं कुर्यात्
त्रिभागैकमधस्तथा ।
वृत्तमूर्ध्वमधः कुर्याच्छिखिपादं
न्यसेदधः ॥१२३॥
कील के नीचे का एक-तिहाई भाग चौकोर
होना चाहिये तथा उसके ऊपर गोलाकार होना चाहिये । इसके निचले भाग में मोर के पैर की
आकृति होनी चाहिये । ॥१२३॥
विस्तारत्रिगुणायामं व्यासोच्चं
पादतः समम् ।
अभ्रमं तु यथा भूमौ
पञ्चमूर्तिसमन्वितम् ॥१२४॥
इसकी लम्बाई चौड़ाई की तीन गुनी होनी
चाहिये एवं चौड़ाई ऊपरी स्तम्भ के बराबर होनी चाहिये । यह भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिका
रहे एवं इसे पञ्चमूर्तियों से युक्त होना चाहिये ॥१२४॥
अथवा तच्छिखायामद्विगुणं
कीलदैर्घिकम् ।
स्तम्भव्यासार्धविस्तारत्रिचतुर्भागमेव
वा ॥१२५॥
अथवा स्तूपिका-कील की लम्बाई भवन की
शिखा की लम्बाई से दुगुनी तथा चौड़ाई स्तम्भ के व्यास की आधी,
तीसरे अथवा चौथे भाग के बराबर होनी चाहिये । ॥१२५॥
अग्रमर्धाङ्गुलव्यासं शिखिपादं
यथाबलम् ।
शिखराकृतिवत् कीलं लिङ्गच्छन्दमथापि
वा ॥१२६॥
एवं त्रिधा समुद्दिष्टं
स्थूपिकाकीलमार्यकैः ।
यदि कील के अग्र भाग का व्यास आधा
अङ्गुल हो तो मयूर-पाद बल की आवश्यकता के अनुसार रखना चाहिये। शिखर की आकृति के
अनुसार कील की आकृति अथवा लिङ्ग की आकृति का स्तूपिक-कील निर्मित होना चाहिये। इस
प्रकार तीन प्रकार के स्तूपिका-कील वर्णन विद्वानों ने किया है ॥१२६॥
मयमत अध्याय १८-
मूर्ध्नेष्टकादिस्थापनम्
सद्यनश्चोत्तरे पार्श्वे मण्डपे तु
सुसंस्कृते ॥१२७॥
चतुष्प्रदीपसंयुक्ते वस्त्रैश्च
परिवेष्टिते ।
सर्वमङ्गलसंयुक्ते शुद्धशाल्यास्तरे
शुभे ॥१२८॥
स्थण्डिले चण्डित कृत्वा मण्डूकं
वाथ तत्परम् ।
विन्यस्य देवान् ब्रह्मादीन्
श्वेततण्डुलधारया ॥१२९॥
मुर्ध्नेष्टका आदि की स्थापना - गृह
के उत्तरी भाग में मण्डप को स्वच्छ करके, चार
दीपों से युक्त, वस्त्रों से आच्छादित करके सभी मंगल
पदार्थों से युक्त करना चाहिये । शुद्ध शालिधान्य को बिछा कर स्थण्डिल वास्तुमण्डल
अथवा मण्डूक वास्तुमण्डल निर्मित करना चाहिये । इसके पश्चात् वास्तुमण्डल में ब्रह्मा
आदि देवों का विन्यास कर उनको श्वेत तण्डुल (अक्षत) समर्पित करना चाहिये ॥१२७-१२९॥
आराध्य गन्धपुष्पादैर्भुवनाधिपतिं
जपेत् ।
देवताभ्यो बलिं दत्त्वा
तत्तन्नाम्ना यथाविधि ॥१३०॥
गन्ध तथा पुष्प आदि से गृह-देवता की
पूजा एवं स्तवन करना चाहिये । देवताओं को उनके नाम से विधिपूर्वक बलि प्रदान करनी
चाहिये ॥१३०॥
स्थपतिः कलशान न्यस्य पञ्च पञ्च
सलक्षणान् ।
सुगन्धोदकसम्पूर्णान्
पञ्चरत्नसमायुतान् ॥१३१॥
ससूत्रान् वस्त्रकूर्चालान्
सापिधानान् सहेमकान् ।
उपपीठाशदेवानां स्वस्वनाम्नाभिधाय च
॥१३२॥
स्थपति को पच्चीस सुन्दर लक्षणों
वाले कलश स्थापित करने चाहिये । इन कलशों में सुगन्धित जल भरना चाहिये तथा पाँच
रत्नों को डालना चाहिये । सूत्र, वस्त्र,
कूर्च तथा स्वर्ण से युक्त करके इन कलशों को ढँक देना चाहिये ।
उपपीठ संज्ञक वास्तुमण्डल में देवों को उनके नाम से आहूत कर 'ॐ से प्रारम्भ कर 'नमः' से
अन्त करते हुये उन देवों की गन्ध आदि से क्रमशः पूजा करनी चाहिये ॥१३१-१३२॥
प्रणवादिनमोऽन्तेन
गन्धाद्यैरर्चयेत् क्रमात् ।
प्रक्षाल्य पञ्चगव्यैस्तु
नवरत्नकुशोदकैः ॥१३३॥
इष्टकामश्च यथाकीलं
सूत्रैरावेष्टयेत् क्रमात् ।
कुम्भस्य दक्षिणे शुद्धशालीस्थण्डिलमण्डले
॥१३४॥
इष्टकाओं एवं कील को पञ्चगव्य से,
नवरत्नों एवं कुशा के जल से प्रक्षालित करके क्रमशः सूत्रों से
लपेटना चाहिये। प्रत्येक कुम्भ के दाहिने भाग में शुद्ध शालिधान्य के द्वारा
निर्मितस्थण्डिल वास्तुमण्डल में ॥१३३-१३४॥
आराध्य गन्धपुष्पैश्च बलिं दत्त्वा
यथाविधि ।
इष्टकाश्चैव कीलांश्च
वेष्ट्येदम्बरैः शुभैः ॥१३५॥
वास्तुदेवों की पूजा गन्ध एवं
पुष्पों से करके एवं उन्हे विधि के अनुसार बलि प्रदान कर ईंटो एवं कीलों को शुभ
वस्त्र से लपेटना चाहिये ॥१३५॥
श्वेतवस्त्रास्तरस्योर्ध्वे न्यसेद्
दर्भास्तरे शुचिः ।
स्थपतिर्वरवेषाढ्यः
शुक्लमाल्यानुलेपनः ॥१३६॥
सितवस्त्रपरिच्छिन्नोत्तरीयो
हैममुद्रिकः ।
पीत्वा शुद्धं पयो
रात्रावपोष्याधिवसत् सुधीः ॥१३७॥
श्वेत वस्त्र के आस्तरण (चादर,
बिछा वस्त्र) के ऊपर बिछे हुये पवित्र कुश पर इष्टका एवं कीलों को
रखना चाहिये। स्थपति को अच्छा वेष, श्वेत पुष्पों की माला,
श्वेत (चन्दन) का लेप, श्वेत वस्त्र के
उत्तरीय को ऊपर ओढ़ कर तथा सुवर्णनिमित अंगूठी धारण कर शुद्ध जल पीना चाहिये तथा
रात्रि में उपवास रखते हुये वहीं निवास करना चाहिये ॥१३६-१३७॥
कलशस्योत्तरे पार्श्वे
सितवस्त्रपरिस्तरे ।
ततः प्रभाते विमले
नक्षत्रकरणान्विते ॥१३८॥
सुमुहूर्ते सुलग्ने च स्थपतिः
स्थापकेन तु ।
पुष्पकुण्डलहारादिकटकैरङ्गुलीयकैः
॥१३९॥
पञ्चाङ्गभूषणैर्हेमनिर्मितैस्तु
विभूषितः ।
हेमयज्ञोपवीतस्तु नववस्त्रपरिच्छदः
॥१४०॥
स्थपति को (रात्रि में ) कलश के
उत्तरी भाग में श्वेत वस्त्र के बिस्तर (अथवा चादर, बिछावन) पर रहना चाहिये। इसके पश्चात् प्रभात वेला में शुद्ध नक्षत्र एवं
करण में, सुन्दर मुहूर्त एवं शुभ लग्न में स्थपति को स्थापक
(भवन-स्वामी) के साथ पुष्प, कुण्डल, हार,
कटक (हाथ के आभूषण) एवं अंगूठी- इन पाँच अंगों के सुवर्ण निर्मित आभूषणों
से अलङ्कृत होकर सुवर्ण-निर्मित जनेऊ तथा नवीन वस्त्र का परिच्छद (ओढ़ने का
वस्त्र) धारण करना चाहिये । श्वेत लेप तथा सिर पर सफेद पुष्प धारण करना चाहिये एवं
पवित्र होना चाहिये ॥१३८-१४०॥
श्वेतानुलेपनश्चैव सितपुष्पशिराः
शुचिः ।
ध्यात्वा धरातलं सर्वं दिग्द्विपेन्द्रसमायुतम्
॥१४१॥
ससागरं सशैलेन्द्रमनन्तस्योपरि
स्थितम् ।
सृष्टिस्थितिलयाधारं भुवनाधिपतिं
जपेत् ॥१४२॥
(पवित्र तन एवं मन से) दिशाओं के गजों,
समुद्रों एवं पर्वतों से युक्त तथा अनन्त सर्प पर स्थित पृथिवी का
ध्यान करते हुये सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय के आधार, भुवनों के अधिपति देवता का जप (स्तुति) करना चाहिये ॥१४१-१४२॥
स्नापयित्वेष्टकाकीलं पूर्वोक्तैः
कलशोदकैः ।
आराध्य गन्धपुष्पैश्च
धूपदीपसमन्वितैः ॥१४३॥
पूर्ववर्णित कलशों के जलों से
इष्टका एवं कील को स्नान कराकर गन्ध, पुष्प,
धूप एवं दीप से वास्तुदेवों की पूजा करनी चाहिये ॥१४३॥
बलिं दत्त्वा यथान्यायं
जयशब्दादिमङ्गलैः ।
विप्रस्वाध्यायघोषैश्च
शङ्खभेर्यादिनिःस्वनैः ॥१४४॥
स्थापयेदिष्टकाः सम्यक्
पूर्वदक्षिणतः क्रमात् ।
शिखरार्धे विमानस्य
गग्रपत्रान्तरेऽपि वा ॥१४५॥
नियमानुसार वास्तुदेवों को बलि
प्रदान कर जय आदि मङ्गल शब्दों, ब्राह्मणो
द्वारा किये जा रहे वेदपाठ एवं शङ्ख तथा भेरी आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ
मुर्ध्नेष्टका को क्रमानुसार पूर्व से दक्षिण क्रम में स्थापित करना चाहिये । इसे
विमान (भवन) के शिखर के अर्ध भाग में अथवा गग्र एवं पत्र के मध्य में स्थापित करना
चाहिये । ॥१४४-१४५॥
शिखरत्रिचतुर्भागावसाने वाम्बुजादधः
।
तदाद्यात् स्थूपिकायामात्
कीलदैर्घ्यं प्रगृह्यताम् ॥१४६॥
शिखर के तीसरे अथवा चौथे भाग के
अन्त तक,
पद्म के नीचे से, स्थूपिका (स्तूपिका) की
लम्बाई से कील की लम्बाई ग्रहण करनी चाहिये ॥१४६॥
पूर्वमेवेष्टकास्थानं निश्छिद्रं तु
दृढीकृतम् ।
तन्मध्ये नवरत्नानि विन्यसेच्च
यथाक्रमम् ॥१४७॥
इष्टका के स्थान को पहले ही
छिद्ररहित एवं दृढ़ करना चाहिये; साथ ही उसके
मध्य में नवरत्नों को क्रमानुसार रखना चाहिये ॥१४७॥
ऐन्द्रे मरकत विद्याद् वैडूर्यं
वह्निगोचरे ।
इन्द्रनीलं तु याम्यायां मौक्तिकं
पितरि स्मृतम् ॥१४८॥
इन्द्र के पद पर मरकत मणि,
अग्नि के पद पर वैदूर्य मणि, यम के स्थान पर
इन्द्रनील मणि एवं पितृपद पर मोती स्थापित करना चाहिये ॥१४८॥
वारुणे स्फाटिं विद्यान्महानीलं
समीरणे ।
वज्रं तु सौम्यदेशे स्यादैशान्यां तु
प्रवालकम् ॥१४९॥
वरुण के स्थान पर स्फटिक,
वायु के स्थान पर महानील मणि, सोम के पद पर
वज्र (हीरा) तथा ईशान में प्रवाल (मूँगा) स्थापित करना चाहिये ॥१४९॥
माणिक्यं मध्यमे भागे हाटकं च
विनिक्षिपेत्
रसोपरबीजैश्च धान्यान्यप्यौषधानि च
॥१५०॥
मध्य भाग में माणिक्य,
सोना, रस (धातुर्निमित अन्न के दाने), उपरस (रंगे हुये पदार्थ), बीज, धान्य (अन्न) एव औषध (जड़ी) डालना चाहिये ॥१५०॥
तदूर्ध्वे स्थूपिकाकीलं स्थापयेदचलं
समम् ।
तस्मात् प्रकृतिभूम्यन्तमुदग्दिशि
महाध्वजम् ॥१५१॥
उसके ऊपर बराबर एवं स्थिर करते हुये
स्तूपिका-कील स्थापित करना चाहिये । इससे निचली भूमि तक उत्तर दिशा में महाध्वज
स्थापित होता है ॥१५१॥
ग्रथितं क्षौमवस्त्रैश्च
कार्पासैर्वा मनोहरैः ।
लम्बयेत्तदुदक्प्राच्यौ
प्रागुदग्विदिशं ततः ॥१५२॥
इसे रेशमी वस्त्र अथवा सूती वस्त्र
से निर्मित सुन्दर (ध्वज) ईशान कोण में लटकाना चाहिये । यदि यह ईशान कोण की भूमि
को छूता है तो वह भवन सभी (वर्णों) के प्राणियों के लिये सम्पत्ति एवं समृद्धिदायक
होता है ॥१५२॥
संस्पृशेद् यदि सर्वेषां प्राणिनां
सम्पदृद्ध्ये ।
भवनं स्थूपिकीलं च पट्टैरावेष्ट्य
शुभ्रकैः ॥१५३॥
चतुर्दिक्षु चतुर्गाश्च सवत्साः
सन्निवेषयेत् ।
द्वारालङ्करणं कुर्यात्
सुविचित्राम्बरैर्नवैः ॥१५४॥
भवन के स्थूपिकील (स्तूपिका-कील) को
श्वेत वस्त्रों से लपेट कर चारो दिशाओं में बछड़ो के साथ चार गायें रखनी चाहिये ।
द्वार को नये रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाना चाहिये ॥१५३-१५४॥
मयमत अध्याय १८-
दक्षिणादानम्
यजमानो विशुद्धात्मा प्रणम्य शिरसा
गुरुम् ।
विमानस्थूपिकास्तम्भद्वारालङ्कराणि
च ॥१५५॥
वस्त्राणि धनधान्यैश्च पशूनपि
सवत्सकान् ।
मुदा स्थपतये दत्त्वा शेषान्
भक्त्या तु तर्पयेत् ॥१५६॥
दान-दक्षिणा - यजमान (गृहस्वामी) को
शुद्ध मन-मस्तिष्क से गुरु (प्रधान आचार्य), विमान
(भवन या मन्दिर), स्थूपिका (स्तूपिका, स्तम्भ,
द्वार एवं सज्जा को प्रणाम कर प्रसन्न भाव से स्थपति को वस्त्र,
धन, अन्न एवं बछड़े सहित पशु (गाय) प्रदान करना
चाहिये एवं शेष (उसके सहायकों) को भक्तिपूर्वक (धनादि द्वारा) तृप्त करना चाहिये
॥१५५-१५६॥
मयमत अध्याय १८-
रत्नादिस्थानम्
एवं मुनिवरैः प्रोक्तं प्रसादानां
तु मूर्धनि ।
हर्म्याणां गर्भसंयुक्तौ
नेत्रभित्तौ तलान्तरे ॥१५७॥
मण्डपे मध्यदेशे तु
सभादीनामधोऽम्बुजात् ।
प्रासादवद् विधातव्यं गोपुराणां तु
मुर्धनि ॥१५८॥
रत्न आदि का स्थान - इस प्रकार प्रासादों
के शिरोभाग में, भवन के शिलान्यास से जुड़े
भित्तियों में, प्रत्येक तल के बीच मेम,मण्डप में, मध्य भाग मे, सभागार
आदि में, शिखर पर स्थित पद्म के नीचे एवं गोपुर द्वारों के
शीर्ष भाग में प्रासाद के सदृश रत्नादि स्थापित करना चाहिये - ऐसा श्रेष्ठ मुनियों
का वचन है ॥१५७-१५८॥
मयमत अध्याय १८-
कर्मसमाप्तिः
एवं तु विधिना सम्यक् सम्पन्नं
सम्पदां पदम् ।
येन यत् कर्म चारब्धमादौ तदवासनके
॥१५९॥
कार्य की समाप्ति - इस प्रकार
भवन-निर्माण के प्रारम्भ में एवं अन्त में विधिपूर्वक सभी क्रियायें सम्पन्न करने
से गृह में सम्पदा आती है ॥१५९॥
तेनैव निष्ठितं कर्म
श्रीसौभाग्यायुरेधनम् ।
तस्याभावे तु तत्पुत्रः शिष्यो वा
तं गुरुं पटे ॥१६०॥
लिखित्वा तन्नियोगेन सर्वकर्म
समाचरेत् ।
अज्ञानात् त्वरितेनापि
यद्वस्त्वन्येन भावितम् ।
करोति स्वामिनं शीघ्रमन्मथेति ह
निश्चयः ॥१६१॥
गृहस्वामी के द्वरा विधिपूर्वक किया
गया कर्म श्री, सौभाग्य, आयु
एवं धन प्रदान करता है । गृहस्वामी के अभाव में उसका पुत्र अथवा शिष्य उसकी आकृति
को वस्त्र पर रेखाङ्कित कर उसके (वस्त्र पर अंकित चित्र के) द्वारा सभी कार्यो को
सम्पन्न करे । अन्य व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य यदि शीघ्रता अथवा अज्ञानतावश
सही रीति से नहीं होता है तो गृहस्वामी को विपरीत परिणाम प्राप्त होता है
॥१६०-१६१॥
प्रथमं कृतवान् विधिं यथावत्
कृतवानेव करोति निष्ठितान्तम् ।
अथ वा विधिरन्यथा भवेच्चे-
दशुभं स्वामिनमन्यथा करोति ॥१६२॥
गृहकर्ता जिस विधि से कार्य का
प्रारम्भ करे, उसी विधि से कार्य करते हुये
समापन करना चाहिये । यदि बीच में अन्य विधि का अनुसरण किया जाय तो गृहस्वामी का
अशुभ होता है ॥१६२॥
एवं ग्रीवालङ्कृतं पुष्कराभं
मानं मल्लानां शिखाभूषणं च ।
युक्त्या सर्वेषां करालादिबन्धं
प्रोक्तं सम्यक् चेष्टकाबन्धमूर्ध्वे
॥१६३॥
इस प्रकार अलङ्कारों से युक्त
ग्रीवा,
पद्म की आकृति, मल्लों का प्रमाण एवं
शीर्ष-स्थान के अलङ्करण का निर्माण करना चाहिये । उचित रीति से कराल आदि से बन्ध
(ईंटो का जोड़ने का गारा) बनाकर ऊर्ध्व भाग में भली-भाँति ईंटो को जोड़ना चाहिये
॥१६३॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिकीलवृक्षाः
खदिरसरलसालस्तम्बकाशोकवृक्षाः
पनसतिमिसनिम्बाः सप्तपर्णाश्च सर्वे
।
परुषवकुलवह्निक्षीरिणीत्येवमाद्याः
सुदृढविमलसाराः स्थूपिकीलाः
प्रसिद्धा ॥१६४॥
स्तूपिका-कील के वृक्ष - स्थूपिकील
के लिये प्रसिद्ध वृक्ष कत्था, चीड़, साल, स्तबक, अशोक, कटहल, तिमिस, नीम, सप्तवर्ण - ये सभी वृक्ष तथा परुष, वकुल, वहिन (अगरु), क्षीरिणी (सनोवर का वृक्ष) आदि वृक्ष
एवं इस प्रकार के अन्य सुदृढ़्म दोषहीन एवं ठोस वृक्ष उपयुक्त होते है ॥१६४॥
मयमत अध्याय १८-
सम्प्रोक्षणकर्म
अथ हर्म्ये परिनिष्ठिते तदा
यजमानोऽपि गुरुश्च वर्धकिः ।
उदगायनशोभनपर्क्षपक्षे
जलसम्प्रोक्षणकर्म चारभेत् ॥१६५॥
भवन के सम्पूर्ण हो जाने पर यजमान,
गुरु एवं वर्धकि (बढ़ई) को शुभ उत्तरायण नक्षत्र एवं पक्ष में
जलसम्प्रोक्षण कर्म का प्रारम्भ करना चाहिये ॥१६५॥
मयमत अध्याय १८-
अधिवासमण्डपः
नवसप्तत्रिकपञ्चरात्रिके विधिना
चाङ्कुरार्पणं कुरु ।
भवनस्योत्तरपूर्वदेशतः
स्वधिवासार्हमण्डपं चरेत् ॥१६६॥
नवीं, सातवीं, तीसरी एवं पाँचवी रात्रि में विधिपूर्वक
अङ्कुरार्पण कर्म करना चाहिये । भवन के उत्तर-पूर्व भाग में स्वधिवास-योग्य मण्डप
बनाना चाहिये ॥१६६॥
नवसप्तेषुकरैर्युगास्त्रकं वसुपादं
नववस्त्रशोभितम् ।
सवितानं सुपटैर्निवेष्टितं
सुमनोज्ञं सितपुष्पशोभितम् ॥१६७॥
इस मण्डप को चौकोर,
नौ, सात, या पाँच
हस्तमाप का एवं आठ स्तम्भों से युक्त निर्मित करना चाहिये तथा नवीन वस्त्रों से
सजाना चाहिये । अन्दर वितान को सुन्दर वस्त्र से तथा श्वेत पुष्पों से सजा कर
मण्डप को मनोहर बनाना चाहिये ॥१६७॥
तस्य मध्ये तु शालीभिः स्थण्डिलं
दण्डमानतः ॥१६८॥
उसके मध्य भाग में शालिधान्य से एक
दण्ड प्रमाण का स्थण्डिल वास्तुमण्डल निर्मित करना चाहिये ॥१६८॥
कृत्वाष्टाष्टपदं न्यस्य
ब्रह्मादीन् वस्तुनायकान् ।
श्वेततण्डुलधाराभिर्विन्यस्याराध्य
पुष्पकैः ॥१६९॥
गन्धैर्धूपैश्च दीपैश्च बलिं
दत्त्वा विधानतः ।
तदूर्ध्वं पञ्चपञ्चैव कलशान्
वस्त्रशोभितान् ॥१७०॥
चौसठ पद बनाकर श्वेत चावल से
ब्रह्मा आदि वास्तुदेवताओ को क्रमानुसार स्थापित कर तथा पुष्प-गन्ध-धूप-दीप आदि से
उनकी पूजा कर उनेहं विधिपूर्वक बलि प्रदान करनी चाहिये । इसके ऊपर वस्त्रों से
सुशोभित पच्चीस कलश रखना चाहिये । ॥१६९-१७०॥
मणिहेमसमायुक्तान् ससूत्रान्
सापिधानकान् ।
निष्कलङ्कानसुषिरान्
हाटकोदकपूरितान् ॥१७१॥
उपपीठपदस्थांस्तान्
स्वस्वनाम्नाभिधाय च ।
ओङ्कारादिनमोऽन्तेन चार्चयित्वा
न्यसेत्ततः ॥१७२॥
इन कलशों को रत्नों,
सुवर्ण, सूत्रों एवं ढक्कनों से युक्त करना
चाहिये । ये कलश दोषरहित, छिद्ररहित एवं हाटक-जल (सुनहरा,
पीला जल) अथवा धतूरायुक्त जल से भरे होने चाहिये । उपपीठ
वास्तुमण्डल पर रक्खे गये प्रत्येक घट को उस-उस वास्तुदेवता (जिसके पद पर कलश हो)
का नाम लेते हुये ओंकार से प्रारम्भ कर नमः से अन्त करते हुये वास्तुदेवता की पुजा
(आवाहन करते हुये) करनी चाहिये । ॥१७१-१७२॥
कलशस्योत्तरे पार्श्वे
दर्भासनपरिस्तरे ।
चतुष्प्रदिपसंयुक्ते
सर्वमङ्गलशोभिते ॥१७३॥
पूतचेता विशुद्धात्मा
स्थपतिर्व्रतमास्थितः ।
पीत्वा शुद्धं पयो
रात्रावुपोष्याधिवसेत्ततः ॥१७४॥
पवित्र मन एवं आत्मा वाले,
व्रत में स्थित स्थपति को शुद्ध जल पीकर उपवास रखते हुये कलश के
उत्तरी भाग में कुश के बिस्तर पर, जिसके चतुर्दिक चार दीपक
जल रहे हों एवं जो माङ्गलिक पदार्थों से सुशोभित हो, रात्रि
में निवास करना चाहिये ॥१७३-१७४॥
प्रासादस्याग्रतो यागमण्डपं
विधिनाचरेत् ।
चतुर्द्वारसमायुक्तं
चतुस्तोरणभूषितम् ॥१७५॥
वासोभिर्दर्भमालाभिः स्त्रक्सुमैः
समलङ्कृतम् ।
तन्मध्ये वेदिकां कुर्यात्
तद्व्यासत्र्यंशमानतः ॥१७६॥
मन्दिर के अग्र भाग में विधिपूर्वक
चार तोरणों से सुसज्जित, चार द्वारों से
युक्त याग-मण्डप निर्मित करना चाहिये । इस यागमण्डप को वस्त्रों, कुशमालाओं एवं पुष्पों से अलङ्कृत करना चाहिये । इसके मध्य भाग में
याग-मण्डप के विस्तार के तीसरे भाग के माप से वेदिका का निर्माण करना चाहिये
॥१७५-१७६॥
चतुरस्त्रं चतुर्दिक्षु
विदिक्ष्वश्वत्थपत्रवत् ।
सुरेन्द्रेशानयोर्मध्ये
कुण्डमष्टाश्रमिष्यते ॥१७७॥
त्रिमेखलासमायुक्तं
वैकमेखलयान्वितम् ।
चारो दिशाओं में चौकोर तथा
दिक्कोणों में पीपल के पत्ते के सदृश कुण्ड निर्मित करना चाहिये । इन्द्र एवं
ईशकोण के मध्य अष्टकोण का तीन मेखला अथवा एक मेखल से युक्त कुण्ड निर्मित करना
चाहिये ॥१७७॥
मयमत अध्याय १८-
कुम्भस्थापनम्
स्थापको मुर्तिपैः सार्धं विधिना
होममाचरेत् ॥१७८॥
शालिभिः स्थण्डिलं कृत्व वेदिमध्ये
विचक्षणः ।
मूर्तिकुम्भं न्यसेत् सम्यग् बीजमन्त्रमनुस्मरन्
॥१७९॥
कुम्भ की स्थापना - स्थापक को
मूर्तिरक्षक के साथ विधिपूर्वक हवन करना चाहिये । शालिधान्य द्वारा वेदि के मध्य
में स्थण्डिल वास्तुमण्डल निर्मित कर बुद्धिमान व्यक्ति को बीज-मन्त्र का स्मरण
करते हुये सम्यक् रीति से मूर्तिकुम्भ का न्यास करना चाहिये ॥१७८-१७९॥
प्रासादस्य चतुर्दिक्षु
वृत्तकुण्डविधानतः ।
सन्तर्प्य स्थापको जातवेदसं
निवसेत्तदा ॥१८०॥
प्रासाद के चारो दिशाओं में
वृत्ताकार कुण्ड में स्थापक को विधिपूर्वक अग्नि स्थापित करनी चाहिये ॥१८०॥
विमानं जन्मतः स्थूपिकान्तं
वस्त्रैर्निवेष्टयेत् ।
कुशास्तीर्णर्नवैर्वस्त्रैः
स्थूपिकीलमलङ्क्रियात् ॥१८१॥
विमान (मन्दिर) को जन्म (प्रारम्भ)
से लेकर स्थूपिकापर्यन्त वस्त्रों से आवृत्त करना चाहिये । स्थूपिकील को कुशा से
युक्त नवीन वस्त्र से सुसज्जित करना चाहिये । ॥१८१॥
मयमत अध्याय १८-
वास्तुदेवताबलिः
बल्यन्न पायसान्नं च मुद्गान्नं च
यवान्नकम् ।
कृसरं गुलशुद्धान्नं पीतं कृष्णं
तथारुणम् ॥१८२॥
गृहीत्वा सकलस्याग्रे हेमपात्रे
निधाय च ।
दधिदुग्धघृतक्षौद्ररत्नपुष्पाक्षताम्बुभिः
॥१८३॥
कदलीफलसंयुक्तं पात्रं
चैवान्यशिल्पिभिः ।
धारयित्वाम्बुभी रात्रौ
वास्तुदेवबलिं चरेत् ॥१८४॥
स्थापक को बलि का अन्न,
खीर, यव (जौ) से पका अन्न, खिचड़ी, गुड़ एवं शुद्ध अन्न (चावल), पीला, काला एवं लाल (रंग में रंगा चावल)- ये सभी
सामग्री सुवर्ण-पात्र में लेकर वास्तु-देवता के आगे रखकर दही, दूध, घी, शहद, रत्न, पुष्प, अक्षत एवं जल तथा
केला से युक्त पात्र लेकर अन्य शिल्पियों के साथ रात्रि में इन पदार्यों के द्वारा
वास्तुदेवता को बलि प्रदान करनी चाहिये ॥१८२-१८४॥
मयमत अध्याय १८-
चक्षुर्मोक्षणम्
ततः प्रभाते विमले
नक्षत्रकरणान्विते ।
स्थपतिर्वरवेषाढ्यः
प्राप्तपञ्चाङ्गभूषणः ॥१८५॥
धृतहाटकयज्ञोपवीतः श्वेतानुलेपनः ।
श्वेतपुष्पशिरः
प्राप्तोष्णीषश्चाहतवस्त्रयुक् ॥१८६॥
दिशामूर्त्यपरांश्चक्षुर्मोक्षणं
विधिनाचरेत् ।
स्नापयेत् कलशाम्भोभिरर्चयेद्
गन्धपुष्पकैः ॥१८७॥
आँख खोलना - इसके पश्चात् प्रातःकाल
शुभ नक्षत्र एवं करण से युक्त वेला में स्थपति को सुन्दर वेष धारण कर,
पाँचों अंगों में आभूषण धारण कर, सुवर्ण-निर्मित
जनेऊ तथा श्वेत (चन्दन) का लेप धारण कर, शिर पर श्वेत पुष्प
से युक्त पगड़ी तथा कोरे वस्त्र को पहन कर दिशा-मूर्तियों एवं अन्य (मुर्तियों) की
ओर चक्षुर्मोक्षण (आँख खोलने का कृत्य) करना चाहिये एवं इन मूर्तियों को गन्ध एवं
पुष्प से युक्त कलश के जल से स्नान कराना चाहिये ॥१८५-१८७॥
प्रथमं हेमया तत्र सूच्या
नयनमण्डलम् ।
लिखित्वा तीक्ष्णशस्त्रेण
मण्डलत्रयमुल्लिखेत् ॥१८८॥
प्रथमतः सोने की सुई से नेत्र-मण्डल
की आकृति बना कर (तदनन्तर) तीक्ष्ण शस्त्र से तीन (नेत्र) मण्डल निर्मित करना
चाहिये ॥१८८॥
आच्छाद्य नववस्त्रेण ब्राह्मणान्
धान्यसञ्चयान् ।
धेनुं सवत्सां कन्यां च दर्शयित्वा
यथाक्रमम् ॥१८९॥
ब्राह्मणों के लिये नवीन वस्त्र से
अन्न के ढेर को ढँक कर बछड़े सहित गाय एवं कन्या को क्रमशः दिखाना चाहिये ॥१८९॥
मयमत अध्याय १८-
सम्प्रोक्षणम्
विमानं पुनरारूह्य स्थपतिः
स्थापकाज्ञया ।
शङ्खकाहलतूर्यादिघोषणैः
स्वस्तिवाचनैः ॥१९०॥
स्थूप्यग्रादाप्रकृत्यन्तं
चतुर्दिशि महाध्वजम् ।
लम्बयेत् क्षौमपट्टैर्वा
कार्पासैर्ग्रथितं नरम् ॥१९१॥
सम्प्रोक्षण कार्य - इसके पश्चात
स्थापक की आज्ञा से शङ्ख, काहल (पीट कर बजाया
जाने वाला वाद्य) तथा तूर्य आदि वाद्यों के स्वर एवं (ब्राह्मणों द्वारा किये जाने
वाले) स्वस्ति-पाठ के साथ स्थपति को मन्दिर पर चढ़ाकर स्तूपिका से प्रारम्भ कर भूमि
तक चारो दिशाओं में रेशमी अथवा सूती वस्त्र से निर्मित एवं नर (की आकृति से युक्त)
ध्वज को लटकाना चाहिये ॥१९०-१९१॥
चन्दनागरुतोयेन सर्वगन्धोदकेन च ।
कलशोदैः कुशाम्भोभिरुपरिष्टात्
समन्ततः ॥१९२॥
प्रोक्षयेत् स्थपतिः प्राज्ञो
भुवनाधिपति जपेत् ।
बुद्धिमान स्थपति को चन्दन एवं अगरु
के जल से,
सभी गन्धों से युक्त जल से, कलश के जल से एवं
कुश के जल से ऊपर से चारो ओर प्रोक्षण करना चाहिये एवं संसार के स्वामी की स्तुति
करनी चाहिये ॥१९२॥
मयमत अध्याय १८-
स्थूपिकुम्भः
तैतलानां विमानानां
पाञ्चभौतिकसंश्रितात् ॥१९३॥
स्थूपिकुम्भं सुवर्णेन ताम्रेण
रजतेन वा ।
उपलेष्टकसौधैर्वा कृत्वेष्टं कीलवत्
स्मृतम् ॥१९४॥
देवालयों में स्थूपिकुम्भ सुवर्ण,
ताँबा, चाँदी, प्रस्तर,
ईंट अथवा सुधा-इन पाँच पदार्थो के मिश्रण से निर्मित करना चाहिये ।
इसे कील के समान रखना चाहिये । ॥१९३-१९४॥
सुसंस्थाप्यचलं यावत् प्रोक्षयेद्
गन्धवारिणा ।
विमानादवरुह्याथ गर्भगेहं च मण्डपम्
॥१९५॥
इसे स्थिर करते हुये स्थापित करके
सुगन्धित जल से इसका प्रोक्षण करना चाहिये । विमान (देवालय) से उतरने के पश्चात
गर्भगृह एवं मण्डप का प्रोक्षण करना चाहिये तथा सम्मुख खड़े होकर वास्तुदेव को
प्रणाम कर इस प्रकार कहना चाहिये । ॥१९५॥
प्रोक्षयित्वा मुखे स्थित्वा नत्वा
देवं वदेदिदम् ।
धाराधिपातात् सलिलप्रकोपाद्
दंष्ट्र्या निपातात् पवनप्रकोपात् ।
अग्नेश्च दाहान्मुषितापचाराद्
रक्षत्विदं सद्म शिवं च मेऽस्तु
॥१९६॥
(हे ईश्वर) इस भवन की गिरने से,
जल के प्रकोप से, (गजादि पशुओं के) दाँत से
गिरने से, वायु के प्रकोप से, अग्नि
द्वाराजलने से एवं चोरों से रक्षा कीजिये और मेरा कल्याण किजिये ॥१९६॥
निरुजा मुदिता सधना प्रथिता यशसा
महदद्बुतवीर्ययुता ।
सततं निर्पद्रवकर्मयुता पृथिवी पृथु
जीवतु धर्मविधेः ॥१९७॥
रोगरहित,
प्रसन्नता, धनय्क्त, कीति
का विस्तार करने वाली, बड़े चमत्कारो से एवं बल से युक्त,
विना उपद्रव के निरन्तर कर्म से युक्त यह पृथिवी चिरकाल तक
धर्मपूर्वक रहे ॥१९७॥
ब्रह्मा विष्णुः शङ्करः सर्वदेवाः
क्षोणी लक्ष्मीर्वाग्वधूः सिंहकेतुः
।
ज्येष्ठ विश्वेदेवदेव्यः प्रजानां
श्रीसौभाग्यारोग्यभोग्यं कृषीरन्
॥१९८॥
ब्रह्मा,
विष्णु, शिव, सभी देवता,
क्षोणी (पृथिवी), लक्ष्मी, वाग्वधू (सरस्वती), सिंहकेतु, ज्येष्ठा,
विश्वदेव तथा देवियाँ प्रजाजनों को श्री, सौभाग्य,
आरोग्य एवं भोग प्रदान करें ॥१९८॥
उक्त्वैवं स्थपतेः कर्मण्यत्रैव
परिनिष्ठिते ॥१९९॥
स्थापको विधिना शुद्धिं कुर्याद्
यागादिकर्मभिः ।
प्रोक्षयित्वा घटाम्भोभिः
पञ्चगव्यैः कुशोदकैः ॥२००॥
इस प्रकार कहने के पश्चात् स्थपति
का कार्य पूर्ण हो जाता है । इसके पश्चात् स्थापक को विधि-पूर्वक यज्ञ आदि कार्य
से तथा घट के जल, पञ्चगव्य एवं कुश
के जल से प्रोक्षण कर (विमान को) शुद्ध करना चाहिये ॥१९९-२००॥
अर्चयेद् गन्धपुष्पाद्यैर्नेवेद्यं
च प्रदापयेत् ।
प्रासादबीजमन्त्रांस्तु न्यसेत्
सौधादिदेवताम् ॥२०१॥
स्थापक को गन्ध एवं पुष्प आदि से
पूजा करनी चाहिये तथा नैवेद्य प्रदान करना चाहिये; साथ ही देवालय के प्रधान देवता को निमित्त बना कर प्रासाद के बीज-मन्त्र
का न्यास करना चाहिये ॥२०१॥
मयमत अध्याय १८-
दक्षिणादानम्
प्रासादाभिमुखे स्थित्वा यजमानः
प्रसन्नधीः ।
स्थपतेर्धर्मसर्वस्वं क्लेशेन सह
यद् भवेत् ॥२०२॥
तत् सर्वं परिगृह्णीत सुप्रीत्या
स्थापकाज्ञया ।
पूजयेत्तु यथाशक्ति स्थापकं स्थपतिं
ततः ॥२०३॥
दक्षिणा एवं दान - प्रसन-मति यजमान
द्वालय के सम्मुख खड़े होकर स्थपति के सम्पूर्ण धर्म (उत्तरदायित्व) को,
जो उसके ऊपर कष्ट के साथ थे, उन सबको प्रसन्न
भाव से स्थापक की आज्ञा से ग्रहण करे एवं शक्ति के अनुसार स्थापक एवं स्थपति का
सत्कार करे ॥२०२-२०३॥
पुत्रभ्रातृकलत्रैश्च यजमानो मुदा
धनैः ।
धान्यैश्च
पशुभिर्वस्त्रैर्वाहनैर्भूमिदानकैः ॥२०४॥
शेषानपि च तक्षादिवष्टिसर्वान् स
कर्मणि ।
सन्तर्पयेद्धिरण्यैश्च
वस्त्रैर्वाऽपि मनोहरैः ॥२०५॥
अपने पुत्र,
भाई एवं पत्नी के साथ यजमान धन, अन्न, पशु, वस्त्र, वाहन तथा भूमि के
दान से एवं सोने तथा सुन्दर वस्त्रों से शेष तक्षक आदि सभी शिल्पियों को भी
सन्तुष्ट करे ॥२०४-२०५॥
विमानस्थूपिकास्तम्भमण्डपालङ्कृतान्यपि
।
वस्त्रादीनि ध्वजं धेनुं प्रीत्या
स्थपतये ददेत् ॥२०६॥
विमान,
स्थूपिका (स्तूपिका), स्तम्भ एं मण्डप को
अलङ्करणोम से युक्त, वस्त्रादि, ध्वज
एवं गाय को प्रसन्न भाव से स्थपति को देना चाहिये ॥२०६॥
मयमत अध्याय १८-
सम्प्रोक्षणावश्यकता
एवमेवं कृतं वस्तु वर्धयेन्नित्यमा
युगात् ।
यजमानस्त्विहामुत्र फलं सम्यग्
लभेद् दृढम् ॥२०७॥
सम्प्रोक्षण की आवश्यकता - इस
प्रकार से निर्मित वास्तु युगों तक नित्य वृद्धि को प्राप्त होता है । यजमान को इस
लोक एवं परलोक में स्थिर फल भली भाँति प्राप्त होता है ॥२०७॥
अन्यथा चेत फलं नैव लभते तत्र
वस्तुनि ।
भूतप्रेतपिशाचादिराक्षसाश्च
वसन्त्यलम् ॥२०८॥
यदि वास्तु-कृत्य अन्य विधि से होता
है तो वह वास्तु फलदायी नही होता है । उस भवन में भूत,
प्रेत, पिशाच एवं राक्षस निवास करते है ।
इसलिये प्रासाद निर्मित हो जाने पर सब प्रकार से प्रोक्षण कर्म अवश्य करना चाहिये
॥२०८॥
तस्मात् प्रासादनिष्पन्ने सर्वथा
प्रोक्षणं चरेत् ।
मण्डपे च सभायां वा रङ्गे
विहारशालके ॥२०९॥
हेमगर्भसभायां तु तत्तुलाभारकूटके ।
विश्वकोष्ठे प्रपायां च धान्यागारे
महानसे ॥२१०॥
वास्तुदेवबलिं दत्त्वाधिवास्य
विधिना तथा ।
स्थपतिः पूतचित्तात्मा
प्राप्तपञ्चाङ्गभूषणः ॥२११॥
नवाम्बरधरश्चैव नववस्त्रोत्तरीयकः ।
सर्वमङ्गलघोषैश्च जलसम्प्रोक्षणं
चरेत् ॥२१२॥
मण्डप में,
सभा में, रङ्गमण्डप में, विहारशाला में, हेमगर्भ के सभागार में, तुलाभारकूट में, विश्वकोष्ठ में, प्रपा (जल का प्याऊ) में, धान्यगृह में तथा रसोई में
विधिपूर्वक वास्तुदेव को बलिप्रदान कर पवित्र चित्त एवं आत्मा से पाँच अङ्गो में
आभूषण धारण कर, नवीन वस्त्र पहन कर तथा नवीन उत्तरीय (ऊपर
ओढ़ने का चादर) धारण कर सभी प्रकार के मङ्गल-स्वर के साथ जलसम्प्रोक्षण कर्म
सम्पन्न करना चाहिये ॥२०९-२१२॥
मयमत अध्याय १८-
सम्प्रोक्षणकालः
उत्तरायणमासे तु कृतं
चेदुत्तमोत्तमम् ।
त्वरितेऽप्येवमेवं तु कुर्यात्तद्
दक्षिणायने ॥२१३॥
सम्प्रोक्षण का समय - यदि सम्प्रोक्षण-कर्म
उत्तरायण मासों में किया जाय तो अति उत्तम होता है । इदि शीघ्रता हो तो दक्षिणायन
मासों में भी करना चाहिये ॥२१३॥
त्रिरात्रमेकरात्रं वा
सद्योऽधिवासमेव वा ।
तत्रैवाविकले द्रव्ये लभेत् कर्ता
महत् फलम् ॥२१४॥
कर्ता प्रासाद के पूरीतरह पूर्ण हो
जाने पर तीन रात्रि, एक रात्रि अथवा उसी
दिन वहाँ अधिवास करे तो वह महान फल प्राप्त होता है ॥२१४॥
एकत्रिपञ्चकलशेषु तथाऽधिदेवा
एकत्रिपञ्च कथिता इह मूर्त्तयस्ताः
।
तत्तत् स्वमन्त्रसहितं तदधः सहेम-
रत्नं निधाय विधिना
कलशात्र्यसेत्तत् ॥२१५॥
देवालय मे एक,
तीन या पाँच देवतामूर्ति हो तो एक, तीन या
पाँच कलशों में मन्त्रसहित उनके नीचे सुवर्ण के साथ रत्नन को देखकर विधिपूर्वक
कलशों का न्यास करना चाहिये ॥२१५॥
एवं मुदा भवनकर्मसमाप्तिमत्र
कुर्याज्जनेशजनगोकुलसम्पदृद्ध्यै ।
यद्वैपरीत्यमसमाप्तिकवस्तुवेशं
तद्वास्तुदेवबलिहीनमनर्थदं स्यात्
॥२१६॥
इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक भवन का
निर्माण पूर्ण होता है तो गृहस्वामी, उसके
परिवार, उसके परिजन एवं उसके गायों के वंश की वृद्धि होती है
। इसके विपरीत वास्तुकार्य सम्पन्न होने पर एवं वास्तुदेवता के बलि से रहित होने
पर वह निर्मित भवन अनर्थकारी होता है ॥२१६॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
शिखरकरणभवनकर्म-समाप्तिविधानं नामाष्टादशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 19
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