मयमतम् अध्याय १७
मयमतम् अध्याय १७ सन्धिकर्म विधान -
इस अध्याय में सन्धि की परिभाषा एवं सन्धि की विधि समझाते हुये सन्धि के भेद,
सन्धि के नियम, मल्ललीला, सर्वतोभद्र, नन्द्यावर्त, स्वस्तिबन्ध,
वर्धमान तथा सन्धि के अन्य भेदों का उल्लेख किया गया है। इसके
अतिरिक्त स्तम्भ की सन्धियाँ, शयित सन्धियाँ, विद्ध तथा कील वर्णित हैं। अध्याय के अन्त में सन्धि के दोषों का निरूपण
किया गया है।
मयमतम् अध्याय १७
Mayamatam chapter 17
मयमतम् सप्तदशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १७- सन्धिकर्मविधानम्
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ सप्तदशोऽध्यायः
(सन्धिकर्मविधानम्)
पार्श्वगस्थितशयितद्रव्याणां
सन्धिरुच्यते ।
एकस्मिन् वस्तुनि द्रव्यैर्बहुभिश्च
निघट्टनात् ॥१॥
दुर्बलत्वाद् द्रुमाग्राणामबले
बलवर्धनात् ।
सन्धिकर्म प्रशस्तं स्यात्
सजातीयैर्वरद्रुमैः ॥२॥
सन्धिकार्य का विधान- पार्श्व में
खड़े एवं लेटे (ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज स्थिति) पदार्थों की सन्धि होती है । एक
वस्तु (के निर्माण) में बहुत वस्तुओं के संयोग से, वृक्ष के अग्र भाग (के काष्ठों) की दुर्बलता के कारण, दुर्बल के बलवृद्धि के कारण सन्धिकर्म प्रशस्त होता है । समान जाति वाले
वृक्षों (कोष्ठों) का सन्धिकर्म प्रशस्त होता है ॥१-२॥
मयमत अध्याय १७- सन्धिभेदाः
मल्ललीलं तथा ब्रह्मराजं वै
वेणुपर्वकम् ।
पूकपर्वं देवसन्धिर्दण्डिका षड्विधाः
स्मृता ॥३॥
सन्धि के भेद - सन्धियाँ छः प्रकार
की होती है- मल्ललील, ब्रह्मराज, वेणुपर्वक, पूकपर्व, देवसन्धि
एवं दण्डिका ॥३॥
मयमत अध्याय १७- सन्धिविधिः
चतुर्दिक्षु बहिं स्थित्वा
निरीक्ष्य स्थपतिर्गृहम् ।
दक्षिणादक्षिणे दीर्घादीर्घाभ्यां
सन्धयेत् क्रमात् ॥४॥
जोड़ने के विधि - स्थपति घर के बाहर
खड़े होकर चारो दिशाओं से उसका निरीक्षण करे । तत्पश्चात् दक्षिण को उत्तर से एवं
दीर्घ (लम्बाई) को अदीर्घ (छोटी लम्बाई) से क्रमशः जोड़े ॥४॥
मध्ये च दक्षिणे चैव यः सन्धिं
कर्तुमीहते ।
मध्येऽतिदीर्घं युञ्जीयाद्
दीर्घमल्पं च पूर्ववत् ॥५॥
यदि मध्य एवं दक्षिण में सन्धि करना
चाहते हों तो मध्य के अति दीर्घ को पूर्व की भाँति छोटे दीर्घ से जोड़ना चाहिये ॥५॥
वामेऽवामे समद्रव्यं मध्ये
दीर्घमथापि वा ।
मध्यद्रव्यं विना वामेऽवामे द्रव्यं
समं तथा ॥६॥
अथवा वाम भाग एवं दक्षिण भाग में
समान माप के द्रव्य हो तथा मध्य में स्थित पदार्थ दीर्घ हों तो उनमें सन्धि करनी
चाहिये । यदि मध्य का पदार्थ न हो तथा दोनों ओर समान माप के द्रव्य हो तो भी सन्धि
करनी चाहिये ॥६॥
एतत्सन्धिं बहिः कुर्यात्
तथैवाभ्यन्तरे विदुः ।
स्थपतिर्ह्रदयस्थाने स्थित्या
प्रेक्ष्य चतुर्दिशि ॥७॥
इस प्रकार गृह के बाहरी भाग कि
सन्धि करनी चाहिये । भीतरी भाग की सन्धि के लिये गृह के मध्य स्थान में खड़े होकर
स्थपति को चारो दिशाओं का निरीक्षण करना चाहिये । जिस प्राकर बाहरी भाग की सन्धि
होती है,
उसी प्रकार भीतरी भाग की भी सन्धि होती है ॥७॥
दीर्घमल्पं समद्रव्यं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ।
आधाराधेयनीत्यैव द्रव्यसन्धानमूह्यताम्
॥८॥
दीर्घ,
छोटे एवं समान माप के द्रव्यों की सन्धि पूर्ववर्णित विधि से करनी
चाहिये । आधार एवं आधेय के नियम (दीर्घ का अल्प दीर्घ से, दीर्घ
को मध्य में रखकर सम माप की सन्धि आदि) का पालन करते हुये पदार्थों को जोड़ना
चाहिये ॥८॥
मूले मूलं न युञ्जीयादग्रे चाग्रं
तथैव च ।
मूलाग्रद्रव्ययोगेन सन्धिकर्म
सुखप्रदम् ॥९॥
मूलं हि शयितञ्चाधश्चाग्रमूर्ध्वे
तु योजयेत् ।
किसी पदार्थ के मूल को मूल से एवं
अग्र भाग को अग्र भाग से नही जोड़ना चाहिये । मूल एवं अग्र भाग को जोड़ने से
सन्धिकार्य सुखद होता है । मूल भाग को नीचे लिटा कर रखना चाहिये एवं उसके ऊपर अग्र
भाग को जोड़ना चाहिये ॥९॥
मयमत अध्याय १७- मल्ललीलादिसन्धयः
द्विद्रव्यमेकसन्धिः
स्यान्मल्ललीलामिति स्मृतम् ॥१०॥
त्रिद्रव्यैस्तु द्विसन्धिः स्याद्
ब्रह्मराजमितीरितम् ।
चतुर्भिः पच्चद्रव्यैस्त्रिचतुः
सन्धयः क्रमात् ॥११॥
दो द्रव्यों को जोड़ कर एक सन्धि
होती है । इसे मल्ललील कहा गया है । तीन पदार्थो को जोड़ने से दो सन्धियाँ बनती है
। इसे ब्रह्मराज कहते है । चार एवं पाँच पदार्थों के योग से क्रमशः तीन एवं चार
सन्धियाँ होती है ॥१०-११॥
वेणुपर्वमिति प्रोक्तं तैतलानां
नृणां गृहे ।
षड्भिस्तु सप्तभिर्द्रव्यैः सन्धयः
पञ्च षट् क्रमात् ॥१२॥
(तीन एवं चार सन्धियों को) वेणुपर्व
कहते है । यह देवालय एवं मनुष्यों के गृहों में होता है । छः एवं सात पदार्थो के
योग से पाँच एवं छः सन्धियाँ बनती है ॥१२॥
पूकपर्वेति तत् प्रोक्तं धनधान्यकरं
स्मृतम् ।
अष्टाभिर्नवभिर्द्रव्यैः सन्धयः
सप्त वाऽष्टधा ॥१३॥
(उपर्युक्त सन्धियों के) पूकपर्व
कहा गया है; साथ ही इसे धन-धान्य प्रदान
करने वाला कहा गया है । आठ एवं नौ पदार्थों के योग से सात एवं आठ सन्धियाँ निर्मित
होती है ॥१३॥
देवसन्धिरिति प्रोक्तः सर्ववासेषु
योग्यतः ।
बहुसन्धिर्बहुद्रव्यैर्दीर्घमल्पं च
पुर्ववत् ॥१४॥
दण्डिकेति समाख्याता
धनधान्यसुखप्रदा ।
(पूर्वोक्त सन्धियों को) देवसन्धि
कहते है । यह सभी प्रकार के गृहों के अनुकूल होती है । बहुत-से पदार्थों से
बहुत-सी सन्धियाँ निर्मित होती है । इनमें दीर्घ एवं अल्प दीर्घ (कम लम्बा) के
संयोग का नियम पहले की भाँति ही लगता है । इस सन्धि को दण्डिका कहा गया है । यह
सन्धि धन,
धान्य एवं सुख प्रदान करती है ॥१४॥
मयमत अध्याय १७- सर्वतोभद्रसन्धिः
दक्षिणापरभागे तु द्रव्यमूलं
प्रशस्यते ॥१५॥
अग्रमग्रं तथैशान्ये तेषां
बन्धनमुच्यते ।
आधारं प्रथमं प्राच्यां
मूलाग्रच्छेदनान्वितम् ॥१६॥
दक्षिणोत्तरयोरग्रं तस्योपरि
निधापयेत् ।
दक्षिणोत्तरयोर्मूलमुर्ध्वच्छेदनसंयुतम्
॥१७॥
पश्चिमस्थमधश्छेद्यं
क्षेप्यमाधेययोगतः ।
एतत्तु सर्वतोभद्रमवागादि तथा विदुः
॥१८॥
(सर्वतोभद्र सन्धि में) दक्षिण एवं
अपर भाग (दक्षिण-पूर्व) में पदार्थ का मूल रखना प्रशस्त होता है;
साथ ही इसका ऊर्ध्व भाग ईशान कोण में होना चाहिये । अब इनके बन्धन
का उल्लेख किया जाता है । प्रथम आधार पूर्व दिशा होती है, जहाँ
मूल एवं अग्र छेद से युक्त पदार्थ रक्खा जाता है । उसके ऊपर दक्षिण एवं उत्तर में अग्र
भाग से युक्त पदार्थ रक्खा जाता है । इनके मूल भाग एवं ऊर्ध्व छेद से युक्त अग्र
भाग संयुक्त होते है । पश्चिमी दिशा में रक्खे पदार्थ का छेद नीचे की ओर रखना
चाहिये एवं इसे आधेय होना चाहिये । इस प्रकार दक्षिण से प्रारम्भ होने वाला यह
संयोग (सन्धि) सर्वतोभद्र संज्ञक होता है ॥१५-१८॥
मयमत अध्याय १७- नन्द्यावर्तसन्धिः
नन्द्यावर्तविधानेन नन्द्यावर्तं
प्रकल्पयेत् ।
दक्षिणोत्तरगं दीर्घं दक्षिणे तु
सकर्णकम् ॥१९॥
नन्द्यावर्त सन्धि नन्द्यावर्त
आकृति के अनुसार बनाई जाती है । दक्षिण से उत्तर की ओर जाने वाली लम्बाई में दक्षिण
दिशा में निकला भाग कर्णकयुक्त होता है ॥१९॥
प्राक्प्रत्यग्गतमायामं पश्चिमे तु
सकर्णकम् ।
दक्षिणोत्तरगं दीर्घमुत्तरे तु
सकर्णकम् ॥२०॥
पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाले
आयाम (लम्बाई) का कर्णक पश्चिम में होता है । दक्षिण एवं उत्तर की लम्बाई (सन्धि
के दूसरी ओर) में उत्तर दिशा में कर्णक होता है ॥२०॥
पूर्वपश्चिमगं दीर्घं पूर्वायां तु
सकर्णकम् ।
आधाराधेयनीत्यैव पूर्वादीनि च
विन्यसेत् ॥२१॥
नन्द्यावर्तमिदं तद्वदवागादीनि च
क्रमात् ।
पूर्व एवं पश्चिम की (दूसरी दिशा
में) लम्बाई में पूर्व दिशा में कर्णक होता है । आधार एवं आधेय नियम के अनुसार
पूर्व आदि में इस प्रकार रखना चाहिये । इस नन्द्यावर्त सन्धि को दक्षिणक्रम से
करना चाहिये ॥२१॥
मयमत अध्याय १७- स्वस्तिबन्धसन्धिः
पक्षयोर्बहुभिर्द्रव्यैर्दीर्घं
प्रागुदगग्रकम् ॥२२॥
सशिखैश्च बहुद्रव्यैर्द्वाभ्यां वा
तिर्यगग्रकम् ।
स्वस्त्याकृतिसमायुक्तं
स्वस्तिबन्धनमिष्यते ॥२३॥
जब पूर्व-उत्तर की ओर शीर्ष भाग
वाले दीर्घ से बहुत से पदार्थ जुड़ते है, जब
तिरछे अग्र भाग वाले दीर्घ से दो या बहुत से पदार्थ शिखाओं (चूलों) से जुड़ते है
एवं यह योग यदि स्वस्तिक की आकृति का होता है तो इसे स्वस्तिबन्ध सन्धि कहते है
॥२२-२३॥
मयमत अध्याय १७- वर्धमानसन्धिः
परितो बहुभिर्द्रव्यैर्युक्तं
तद्वत्तदन्तरे ।
मध्येऽङ्कणसमायुक्तं बाह्ये
युक्त्या सभद्रकम् ॥२४॥
जब चारो ओर बहुत से पदार्थों का
संयोग होता है एवं इसी प्रकार भीतर भी होता है तथा मध्य भाग में आँगन जैसी आकृति
होती है तो बाह्य भाग से युक्त यह आकृति सभद्रक होती है ॥२४॥
पूर्वद्रव्य्म परद्रव्यं भद्रकं
दक्षिणोत्तरम् ।
शालानां भित्तिमाश्रित्य युक्त्या
साधु समाचरेत् ॥२५॥
एवं युञ्ज्यादिदं बन्धं
वर्धमानमितीरितम् ।
अधोभूमिक्रियायुक्त्या
स्यादूर्ध्वोर्ध्वतलं प्रति ॥२६॥
पूर्व दिशा का पदार्थ दक्षिण की ओर
एवं पश्चिम दिशा का पदार्थ उत्तर की ओर कक्षों की भित्ति का आश्रय लेते हुये उचित
रीति से रखते हुये जोड़ना चाहिये । इस बन्ध को वर्धमान कहते है । निचले तल के कार्य
के अनुसर ऊपर एवं उसके ऊपर के तल में भी करना चाहिये ॥२५-२६॥
विपरीतं विपत्त्यै स्यादिति
शास्त्रविनिश्चयः ।
दीर्घादीर्घेषु
संयोगद्रव्यसन्धानतर्पणम् ॥२७॥
इसके विपरीत करने से विपत्ती आती है,
ऐसा शास्त्रों का मत है । दीर्घ एवं अदीर्घ (कम लम्बा) का संयोग
पदार्थों का विधिवत् परीक्षण एवं निरीक्षण करके ही करना चाहिये ॥२७॥
यथाबलं यथायोगंतथा योज्यं विचक्षणैः
।
एवं विधिविशिष्टं स्यात्स्मपत्त्यै
द्रव्यबन्धनम् ॥२८॥
जिस स्थान पर जितने बल की एवं जिस
प्रकार के योग (सन्धि, जोड़) की आवश्यकता
हो, वहाँ उसी प्रकार की सन्धि का प्रयोग बुद्धिमान (स्थपति)
को करना चाहिये । इस प्रकार विशेष विधि से की गई सन्धि सम्पत्तिकारक होती है ॥२८॥
मयमत अध्याय १७- सन्धिभेदाः
मेषयुद्धं त्रिखण्डं च सौभद्रं
चार्धपाणिकम् ।
महावृत्तं च पञ्चैते स्तम्बानां
सन्धयः स्मृताः ॥२९॥
सन्धि के भेद - स्तम्भों की पाँच
प्रकार की सन्धियाँ इस प्रकार कही गई है- मेषयुद्ध,त्रिखण्ड, सौभद्र, अर्धपाणिक
एवं महावृत्त ॥२९॥
षट्शिखा झषदन्तं च सूकरघ्राणमेव च
।
सङ्कीर्णकीलं वज्राभं पञ्चैव
शयितेष्वपि ॥३०॥
(खड़ी स्थिति की सन्धियाँ
पूर्ववर्णित है) लेटी स्थिति (अथवा क्षैतिज) की पाँच प्रकार की सन्धियाँ इस प्रकार
है - षट्शिखा, झषदन्त, सूकरघ्राण,
सङ्कीर्णकील एवं वज्राभ ॥३०॥
मयमत अध्याय १७- स्तम्भसन्धयः
स्वव्यासकर्णमध्यर्धद्विगुणं वा
तदायतम् ।
त्र्यंशैकं मध्यमशिखं मेषयुद्धं
प्रकीर्तितम् ॥३१॥
स्तम्भ की सन्धियाँ - जब सन्धि वाले
पदार्थ का मध्य भाग चौड़ाई में स्तम्भ के तीसरे भाग के बराबर एवं लम्बाई चौड़ाई कि
दुगुनी अथवा ढाई गुनी हो तो इसे मेषयुद्ध सन्धि कहते है ॥३१॥
स्वस्त्याकारं त्रिखण्डं
स्यात्सत्रिचूलि त्रिखण्डकम् ।
पार्श्वे चतुःशिखोपेतं सौभद्रमिति
संज्ञितम् ॥३२॥
त्रिखण्ड सन्धि स्वस्तिक के आकार की
होती है । इसके तीन भाग एवं तीन चूलियाँ होती है । पार्श्व में चार शिखा (चूली) से
युक्त सन्धि सौभद्र कहलाती है ॥३२॥
अर्धं छित्त्वा तु मूलेऽग्रे
चान्योन्याभिनिवेशनात् ।
अर्धपाणिरिति प्रोक्तो गृहीतघनमानतः
॥३३॥
जिस सन्धि के लिये स्तम्भ की मोटाई
के अनुसार आधा भाग मूल (निचले) भाग का एवं आधा भाग अग्र (ऊर्ध्व) भाग का काटा जाता
है,
उसे अर्धपाणि सन्धि कहते है ॥३३॥
अर्धवृत्तशिखं मध्ये
तन्महावृतमुच्यते ।
वृत्ताकृतिषु पादेषु प्रयुञ्जीत
विचक्षणः ॥३४॥
जब चूलिका का आकार अर्धवृत्ताकार हो
एवं मध्य भाग (जहाँ जोड़ बैठाया जाय) में अर्धवृत्त हो तो उस सन्धि को महावृत्त
कहते है । बुद्धिमान (स्थपति) स्तम्भों के वृत्ताकार भाग में इस सन्धि का प्रयोग
करते है ॥३४॥
स्तम्भानां स्तम्भदैर्घ्यार्धादधः
सन्धानमाचरेत् ।
स्तम्भमध्योर्ध्वसन्धिश्चेद्
विपदामास्पदं सदा ॥३५॥
स्तम्भों में की जाने वाली सन्धि
स्तम्भों की लम्बाई के मध्य भाग के नीचे करनी चाहिये । स्तम्भ के मध्य एवं उसके
ऊपर यदि सन्धि हो तो वह सर्वदा विपत्ति प्रदान करती है ॥३५॥
कुम्भमण्ड्यादिसंयुक्तं सन्धानं
सम्पदां पदम् ।
सालङ्कारे शिलास्तम्भे यथा योगं
तथाचरेत् ॥३६॥
कुम्भ एवं मण्डि आदि से युक्त
स्तम्भ की सन्धि (उपर्युक्त दोनों की सन्धि) सम्पति-कारक होती है । सज्जा से युक्त
प्रस्तर-स्तम्भ की सन्धि जैसी आवश्यकता हो, उसके
अनुसार करनी चाहिये ॥३६॥
स्थितस्य पादपस्याङ्गप्रवृत्तिवशतो
विदुः ।
ऊर्ध्वमूलमधश्चाग्रं
सर्वसम्पद्विनाशनम् ॥३७॥
खड़े वृक्ष के (काष्ठों के) विविध
अङ्गों का संयोग अनुकुलता के अनुसार करना चाहिये । ऊर्ध्व भाग का मूल भाग के साथ
एव निचले भाग के साथ शीर्ष भाग की सन्धि सभी प्रकार की सम्पत्तियों का नाश करती है
॥३७॥
मयमत अध्याय १७- शयितसन्धयः
अर्धपाणिद्विललाटे लाङ्गलाकारषट्शिखा
।
घनमध्यस्थकीला या सा मता षट्शिखाह्वया
॥३८॥
क्षैतिज सन्धियाँ - जिसके दोनो
छोरों पर अर्धपाणि सन्धियाँ हो एवं सन्धि वाले पदार्थ में छः लाङ्गल (हल के) आकार
की शिखायें (चूले) बनी हो, साथ ही मध्य की कील
मोटी हो, उस सन्धि को षट्शिखा सन्धि कहते है ॥३८॥
स्वायामतिर्यग्बाहुस्थशिखं तु
झषदन्तकम् ।
ऊर्ध्वाधस्ताद् यथायोग्यं यथाबलशिखान्वितम्
॥३९॥
झषदन्तक सन्धि में पदार्थ के ऊपर
एवं नीचे दोनों ओर बहुत-सी शिखायें होती है । ये सभी शिखायें आवश्यकतानुसार एवं बल
के अनुसार निर्मित होती है ॥३९॥
सूकरघ्राणमित्युक्तं
सूकरघ्राणसन्निभम् ।
यथाबलं यथायुक्ति नानाबलशिखान्वितम्
॥४०॥
सूअर की नाक के समान,
आवश्यकतानुसार शक्ति एवं योग से युक्त, विभिन्न
बल की शिखाओं वाली सन्धि सूकरघ्राण कही जाती है ॥४०॥
नानाकीलैस्तु सङ्कीर्ण स्यात्तु
सङ्कीर्णकीलकम् ।
वज्राकृतिशिखं नाम्ना वज्रसन्निभमेव
तत् ॥४१॥
विभिन्न प्रकार की कीलों से युक्त
सन्धि को सङ्कीर्णकीलक कहते है । वज्रसन्निभ सन्धि में वज्र के आकृति की शिखा होती
है ॥४१॥
एतस्मिन् पङ्क्तिसन्धाने
सन्धिरेकाकृतिर्भवेत् ।
उपर्युपरि चैवं स्याद् विपरीते
विपत्करम् ॥४२॥
इस प्रकार एक पंक्ति को जोड़ने में
ऊपर से निचे तक एक की आकार की सन्धि का प्रयोग करना चाहिये । इसके विपरीत सन्धि
करने पर विपत्ति आती है ॥४२॥
अन्तर्मूलं बहिश्चाग्रं
पार्श्वद्रव्येषु योजयेत् ।
अन्त्रग्रं बहिर्मूलं स्वामिनश्च
विनाशनम् ॥४३॥
(सन्धि करते समय इस बात का ध्यान
रखना चाहिये कि) मूल भाग भीतर की ओर एवं अग्र भाग बाहर की ओर रहे । यदि अग्र भाग
भीतर एवं मूल भाग बाहर रहता है तो वह स्वामी के विनाश का कारण बनता है ॥४३॥
मयमत अध्याय १७- विद्ध
एवं कील
शिखा दन्तं च शूलं च विद्धं
पर्यायमीरितम् ।
शल्यं च शङ्कराणिश्च कीलं
पर्यायमुच्यते ॥४४॥
अष्टसप्तकषड्शकेऽङ्घ्रिके भागतारमथ
शूलकीलयोः ।
शिखा, दन्त, शूल एवं विद्ध - ये सभी (चूली, चूल के) पर्याय है तथा शल्य, शङ्कु, आणि तथा कील- ये सभी शब्द (कील के) पर्याय है । शूल एवं कील का माप स्तम्भ
की चौड़ाई का आठ, सात या छठवें भाग के बराबर होता है ॥४४॥
मयमत अध्याय १७- सन्धिदोषाः
कीलपार्श्वमथ पादमध्यमं योजयेत्
सममुदग्रबुद्धिमान् ॥४५॥
सन्धि के दोष - बुद्धिमान (स्थपति)
को चाहिये कि कील का पार्श्व स्तम्भ के मध्य में लगाये ॥४५॥
स्तम्भान्तं दन्तान्तकं चेद्विनाशं
दन्तान्तं चेत् स्तम्भमध्यं तदेव ।
स्तम्भान्तं चेत् सन्धिमध्यं सरोगं
सन्धेर्मध्यं पादमध्यं क्षयं स्यात्
॥४६॥
स्तम्भ का अन्तिम भाग एवं दन्त,
(शिखा, चूल) का अन्तिम भाग यदि आपस में जुड़े
तो विनाश के कारण बनते है । इसी प्रकार यदि दन्त का अन्तिम भाग स्तम्भ के मध्य में
पड़े तो भी वही परिणाम होता है । यदि स्तम्भ का अन्तिम भाग सन्धि के मध्य पड़े तो वह
रोगकारक होता है तथा सन्धि का मध्य एवं पाद का मध्य यदि एक साथ हो तो वह क्षय का
कारण होता है ॥४६॥
दिग्विदिग्द्वारदेवांशं सर्वं
त्यक्त्वा प्रयोजयेत् ।
अर्कार्किवरुणेन्दूनां स्थानं
दिगिति कीर्तितम् ॥४७॥
दिक्, विदिक् एवं द्वार के देवताओं के सभी भागों को छोड़कर सन्धि का प्रयोग करना
चाहिये । अर्क (सूर्य), अर्कि (यम), वरुण
एवं इन्दु देवों का स्थान दिक् कहलाता है (ये दिशायें क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर है) ॥४७॥
अग्निराक्षसवाय्वीशस्थानं विदिगिति
स्मृतम् ।
गृहक्षतश्च पुष्पाख्यो भल्लाटश्च
महेन्द्रकः ॥४८॥
एतेषामंशकद्वारं तत्र सन्धिं न
सन्धयेत् ।
शल्यञ्च दन्तं त्यक्त्वैव
पूर्वोक्तानाञ्च सम्मतम् ॥४९॥
अग्नि,
राक्षस, वायु एवं ईश देवता का स्थान विदिक्
(कोण) कहलाता है । गृहक्षत, पुष्पाख्य, भल्लाट एवं महेन्द्र देवों का भाग द्वारभाग है । इन स्थानों पर सन्धि नही
करनी चाहिये । पूर्व-वर्णित स्थानों पर शल्य (कील) एवं दन्त (चूल) का प्रयोग नही
करना चाहिये ॥४८-४९॥
मध्यार्धमध्यमध्य्म च त्यक्त्वा
युञ्जीत बुद्धिमान ।
द्रव्यमध्यस्थसूत्रस्य वामेऽवामे तु
दन्तकम् ॥५०॥
इसी प्रकार दन्त का प्रयोग मध्य
अथवा मध्यार्ध के मध्य (चतुर्थांश भाग के बिन्दु) को छोड़ कर करना चाहिये । दन्त का
प्रयोग पदार्थ के केन्द्र-सूत्र के दाहिने एवं बाँयें भाग में करना चाहिये ॥५०॥
द्रव्यविस्तारमध्यस्था शिखा
शीघ्रविनाशिनी ।
अन्योन्यसन्धिविद्धं च शिखा कीलस्य
वेधनम् ॥५१॥
पदार्थ के विस्तार के मध्य में
स्थित शिखा (चूल) शीघ्र ही विनाश करती है । शिखा के लिये निर्मित स्थान में कील
लगाना तथा कील के स्थान में शिखा का प्रयोग करना वेधन होता है ॥५१॥
धर्मार्थकामसौख्यानां विपत्तिं
नित्यमादिशेत् ।
वामदक्षिणयोगेन प्रतिसन्धिं
परित्यजेत् ॥५२॥
(उपर्युक्त वेधन) धर्म,
अर्थ, काम एव सुख का नाश करती है । बाँये
स्थान में होने वाली सन्धि दाहिने एवं दाहिने स्थान की सन्धि बाँये हो तो इसका
(प्रतिसन्धि का) परित्याग करना चाहिये ॥५२॥
तारतीव्रान्तरस्थं यत्
कल्प्यशल्यमिति स्मृतम् ।
पूर्ववद् विधिना सन्ध्यायाममध्ये तु
योजयेत् ॥५३॥
पदार्थ की चौड़ाई के बराबर स्थान पर
लम्बाई में हुई सन्धि कल्प्यशल्य कहलाती है । पूर्ववर्णित विधि से पदार्थ के मध्य
स्थान को छोड़ कर सन्धि करनी चाहिये ॥५३॥
अज्ञानात त्वरयानुक्तस्थाने वा
योजयेद् यदि ।
सर्वेषामपि वर्णानां
सर्वसम्पत्क्षयो भवेत् ॥५४॥
अज्ञानता अथवा शीघ्रता के कारण
वर्जित स्थान पर यदि सन्धि की जाय तो सभी वर्ण वाले गृहस्थो की सभी सम्पत्तियों का
नाश होता है ॥५४॥
पुराणैर्न नवद्रव्यैर्न
पुराणैर्नवैरपि ।
नवैर्नवानां द्रव्याणां योगो
जीर्णैश्च जीर्णनाम् ॥५५॥
पुराने पदार्थों की नये पदार्थ से
तथा नये पदार्थों की पुराने पदार्थों के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिये । नये पदार्थों
की नये से एवं पुराने पदार्थों का पुराने पदार्थ से सन्धि करनी चाहिये ॥५५॥
युक्त्यैव द्रव्यसन्धानं
सम्पदामास्पदं सदा ।
विपरीते विनाशाय भवेदेवेति निश्चयः
॥५६॥
उचित रीति से पदार्थों की सन्धि
सम्पत्तिकारक होती है । इसके विपरित करने से निश्चय ही विनाश होता है ॥५६॥
ऊर्ध्वद्रव्याणि सर्वाणि वाजनादीनि
यान्यपि ।
सशिखान्यशिखान्येतान्युक्त्या
योज्यानि पूर्ववत् ॥५७॥
(स्तम्भ के) ऊपर के सभी वाजन आदि
पदार्थ शिखा के साथ अथवा विना शिखा के पूर्ववर्णित विधि के अनुसार उचित रीति से
जोड़ना चाहिये ॥५७॥
पादोपरि भवेत् सन्धिरन्तरे नैव
कारयेत् ।
ब्रह्मस्थलोर्ध्वगद्रव्यसन्धानं
विपदां पदम् ॥५८॥
सन्धि स्तम्भ के ऊपर होती है । उनके
मध्य में सन्धि नही करनी चाहिये । ब्रह्मस्थल (मध्य स्थान) के ऊपर पदार्थों की
सन्धि विपत्तिकारक होती है ॥५८॥
ब्रह्मस्थानस्थितः स्तम्भः
स्वामिनश्च विनाशनम् ।
तुलादीन्युपरिद्रव्याणामत्र दोषो न
विद्यते ॥५९॥
ब्रह्मस्थान पर स्थित स्तम्भ
गृहस्वामी का विनाश करता है । तुला आदि यदि ऊपर स्थित पदार्थ वहाँ पड़े तो दोष नहीं
होता है ॥५९॥
पुंस्त्रीनंपुसकमहीरुहसन्धिकार्ये
पुंसा च पुंविहितमेव तथैव पुंस्त्री
।
नैवोभयेन च नपुंसकसङ्गमः स्या-
ज्जात्यैकया शुभद उक्तविधिक्रमं वा
॥६०॥
पुंल्लिङ्ग,
स्त्रीलिङ्ग एवं नपुसंकलिङ्ग वृक्षों के काष्ठों के सन्धि की समय इस
बात का ध्यान रखना चाहिये कि पुरुष-काष्ठ से पुरुष-काष्ठ का एवं इसी प्रकार
स्त्री-काष्ठ से स्त्रीकाष्ठ का ही सन्धिकर्म हो । इनके साथ नपुंसक काष्ठ की सन्धि
नहीं होनी चाहिये । नपुंसक काष्ठ का सजातीय काष्ठ से संयोग होना चाहिये । एक जाति
के काष्ठों की सन्धि शुभ परिणाम देती है ॥६०॥
एवं युक्त्या द्रव्यसन्धानयोगं
प्रोक्तं नृणां तैतिलानां निवासे ।
युक्त्या युक्तं सम्पदामास्पदं
तद्युक्त्यायुक्तं सर्वसम्पत्क्षयं स्यात् ॥६१॥
इस विधि से मनुष्यों एवं देवों के
आवास में पदार्थों की सन्धि करनी चाहिये । इस रीति से की गई सन्धि सम्पत्ति प्रदान
करती है । इसके विपरीत रीति से हुई सन्धि सभी सम्पत्तियों का नाश करती है ॥६१॥
छिद्रं स्वल्पतरं विधेयमधुना दीर्घान्वितच्छेदनं
स्थूलं काष्ठशिलेभदन्तुमुदितं
निम्नं हि पक्वेष्टकम् ।
पक्वं निर्गमनं सुधाभिरनिशं
कुर्यात्तनुत्वं यथा
पूर्वं मानसमुन्नयेत्तदपरं
शिल्प्युत्तमः शातधीः ॥६२॥
अच्छे स्थपति को छोटा,
किन्तु गहरा छिद्र बनाना चाहिये । कील काष्ठ, प्रस्तर
या गजदन्त निर्मित से होना चाहिये । पकी ईंट में छिद्र छोट एवं कम गहरा होना
चाहिये ।इसके छिद्र को सुधा को प्रयोग से पतला एवं उचित घेरे वाला बनाना चाहिये ।
जिनका यहाँ वर्णन नही किया गया है, उनके योग को बुद्धिमान
स्थपति को अपनी बुद्धि द्वारा युक्तिपूर्वक करना चाहिये ॥६२॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
सन्धिकर्मविधानो नाम सप्तदशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 18
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