मयमतम् अध्याय १६
मयमतम् अध्याय १६ प्रस्तरकरण –
इस अध्याय में उत्तर से प्रारम्भ होकर वृतिपर्यन्त प्रस्तर के अंगों
का वर्णन किया गया है। इसमें उत्तर वाजन, प्रमालिका, दण्डिका, वलय, गोपान, कायपाद, वाजन, कपोत तथा
प्रस्तर के ऊर्ध्वभाग का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त तुलाबन्ध, प्रस्तर का प्रमाण, लेप, विषम
एवं सम मान, द्वार, वेदि, जालक तथा भित्ति का विवेचन किया गया हैं।
मयमतम् अध्याय १६
Mayamatam chapter 16
मयमतम् षोडशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १६- प्रस्तरकरणम्
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ षोडशोऽध्यायः
उत्तरादिवृतेरन्तं प्रस्तारावयवं
क्रमात् ।
संवक्ष्ये क्षिप्य सर्वेषां
हर्म्याणामथ योग्यक्रम् ॥१॥
प्रस्तर-निर्माण - मैं (मय ऋषि) सभी
प्रकार के भवनों के अनुरूप उत्तर से प्रारम्भ कर वृति (प्रति) पर्यन्त प्रसात
(प्रस्तर) के अंगों का सम्यक् रूप से क्रमशः वर्णन कर रहा हूँ ॥१॥
मयमत अध्याय १६- उत्तरवाजनौ
उत्तरं त्रिविधं पादविस्तारं
तत्समोद्गमम् ।
त्रिपादोदयमध्योच्चं विस्तारं पादतः
समम् ॥२॥
उत्तर एवं वाजन - उत्तर (स्तम्भ के
ऊपर की भित्ति) तीन प्रकार का होता है । प्रथम की चौड़ाई स्तम्भ के बराबर होनी
चाहिये एवं उसकी ऊँचाई चौड़ाई के बराबर होनी चाहिये । दुसरे उत्तर की ऊँचाई चौड़ाई
से तीन चौथाई अधिक होनी चाहिये एवं तीसरे उत्तर की ऊँचाई चौड़ाई की आधी होनी चाहिये
॥२॥
खण्डोत्तरं पत्रबन्धं रूपोत्तरमिति
त्रिधा ।
त्रिपादं वा त्रिभागोनमर्धं वा
कर्णनिर्गमम् ॥३॥
इन तीनों उत्तरों की संज्ञा
खण्डोत्तर, पत्रबन्ध एवं रूपोत्तर है ।
इनका कर्णनिर्गम (कोणों पर निकली निर्मिति) तीन चौथाई, तीन
भाग कम अथवा आधा होना चाहिये । ॥३॥
स्वस्तिकं वर्धमानं च
नन्द्यावर्तसमाकृतिः ।
सर्वतोभद्रवृत्तिर्वा
प्रत्युत्तरनिवेशनम् ॥४॥
उत्तर से वृति (अथवा प्रति) के मध्य
होने वाले निवेश स्वस्तिक, वर्धमान, नन्द्यावर्त अथवा सर्वतोभद्र आकृति के होते है ॥४॥
त्रिभागैकं चतुर्भागं वाजनं
निर्गमोद्गमम् ।
चतुरस्त्रं सपर्णाग्रं तदूर्ध्वे
मुष्टिबन्धनम् ॥५॥
वाजन के तीसरे अथवा चौथे भाग से चार
कोणों वाले एवं ऊपरी भाग में पर्ण से युक्त निर्गम का प्रारम्भ होना चाहिये ।
निर्गम के ऊपर मुष्टिबन्ध निर्मित होना चाहिये । ॥५॥
तुलाच्छेदेन वा कुर्यात् पृथग्वा
वाजनोपरि ।
स्तम्बार्धविपुलं स्वार्धं तीव्रं
पट्टाम्बुजक्रियम् ॥६॥
सनालिकमधस्तात्तु वाजनाद्
दण्डनिर्गमम् ।
वाजन के ऊपर मुष्टिबन्ध तुलाच्छेद
के द्वारा अथवा स्वतन्त्र रूप से निर्मित होना चाहिये । स्तम्भ की चौड़ाई का आधा
चौड़ा एवं अपनी चौड़ाई का आधा मोटा अम्बुजपट्ट निर्मित होना चाहिये । वाजन के नीचे
वाली से युक्त दण्डनिर्गम का निर्माण होना चाहिये ॥६॥
मयमत अध्याय १६- प्रमालिका
मूलाग्रयोः शिखोपेता तदूर्ध्वे तु
प्रमालिका ॥७॥
स्तम्भव्याससमोच्चा वा
त्रिचतुर्भागतीव्रका ।
कुम्भमण्डियुताग्रा च
हस्तिमुण्डकसन्निभा ॥८॥
उसके ऊपर मूल एवं ऊर्ध्व भाग में
शिखा से (चूल) युक्त प्रमालिका निर्मित होती है । यह स्तम्भ के व्यास के बराबर
ऊँची एवं उसके तीसरे या चौथे भाग के बराबर मोटी होती है । साथ ही हाथी के सूँड के
समान आकृति वाली कुम्भ एवं मण्डि से युक्त होती है ॥७-८॥
मयमत अध्याय १६- दण्डिका
दण्डिकासमनिष्क्रान्ता तदूर्ध्वे
दण्डिका भवेत् ।
स्तम्भार्धविपुला स्वार्धतीव्रा
नीव्रार्धनिष्क्रमा ॥९॥
मुष्टिबन्धसमाकारचतुरस्त्रा यथा तथा
।
उसके ऊपर दण्डिका होती है । यह
स्तम्भ की आधी चौड़ी, चौड़ाई की आधी मोटी
एवं एक दण्ड माप की होती है । इसका निष्क्रम नीव्र का आधा होता है । इसकी आकृति
मुष्टिबन्ध के समान चौकोर होती है ॥९॥
मयमत अध्याय १६- वलयं
गोपानञ्च
यथेष्टविपुलोत्तुङ्गं
तत्तुङ्गसमवेशनम् ॥१०॥
वलयं स्यात्तदूर्ध्वे तु गोपानं वा
तदूर्ध्वतः ।
मुष्टिबन्धविशालोच्चा
पट्टिकाक्षेपणाम्बुजा ॥११॥
इसके ऊपर ऊँचाई पर इच्छानुसार चौड़ा
एवं ऊँचा वलय होना चाहिये । उसके ऊपर गोपान तथा उसके ऊपर क्षेपणाम्बुज पट्टिका
होती है,
जो मुष्टिबन्ध के समान विस्तृत एवं ऊँची होती है ॥१०-११॥
छित्त्वार्पितावशिष्टा तु
दण्डिकोपरि पट्टिका ।
तस्यां छित्त्वा तु तन्मानं गोपानं
चार्पयेद्बुधः ॥१२॥
यह पट्टिका दण्डिका के ऊपर छील-काट
कर लगाई जाती है । उसके ऊपर उसके प्रमाण के अनुसार काट कर बुद्धिमान (स्थपति) को
गोपान निर्मित करना चाहिये ॥१२॥
उत्तरान्तावलम्बं वा यथामुक्ति
यथारुचि ।
वाजनोर्ध्वे तुलोर्ध्वे वा गोपानं
योजयेद्बुधः ॥१३॥
उत्तर के अन्तिम भाग में इच्छानुसार
युक्तिपूर्वक अवलम्ब निर्मित करना चाहिये । वाजन अथवा तुला के ऊपर बुद्धिमान (स्थपति)
को गोपान लगाना चाहिये ॥१३॥
तुलान्तरसमं गोपानान्तरं प्रविधीयते
।
गोपानदण्डिकोर्ध्वं
चेद्वाजनान्तावलम्बनम् ॥१४॥
जितना (भित्ति से) तुला का अन्तर
होता है,
उतना ही अन्तर गोपान का भी होना चाहिये । गोपान यदि दण्डिका के ऊपरी
भाग में निर्मित हो तो वाजन के अन्तिम भाग में अवलम्बन होना चाहिये ॥१४॥
दण्डार्धविपुलं स्वार्धं तीव्रं
गोपानमूर्ध्वतः ।
कम्पं समान्तरं कुर्याद्
वलयच्छिद्रमन्तरे ॥१५॥
गोपान के ऊपर दण्ड का आधा चौड़ा एवं
चौड़ाई का आधा मोटा कम्प निर्मित होना चाहिये । इसे वलयछिद्र अन्तर के बराबर अन्तर
पर रखते हुये उसके समानान्तर निर्मित करना चाहिये ॥१५॥
मयमत अध्याय १६- कायपादम्
दण्डिकावाजनान्तःस्थं कायपादं
यथांशकम् ।
पादविस्तारमर्धार्धनिष्क्रान्तं
साग्रपट्टिकम् ॥१६॥
दण्डिका एवं वाजन के बीच में
पूर्वोक्त वर्णित भाग के अनुसार कायपाद (स्तम्भ को सहारा देने वाली कड़ी) लगाना
चाहिये । यह स्तम्भ के विस्तार के बराबर होता है एवं उसका निष्क्रान्त उसके
विस्तार के आधे का आधा होता है एवं अग्रपट्टी से युक्त होता है ॥१६॥
पादानामन्तरं छाद्यं फलकैः
सारदारुजैः ।
अष्टांशबहलं
छन्नफलकाच्छाद्यमूर्ध्वतः ॥१७॥
गोपानस्योपरिष्टात्तु च्चादयेल्लोहलोष्टकैः
।
कपोतपालिकोत्सेधनिष्क्रान्तं
द्वित्रिदण्डकम् ॥१८॥
स्तम्भों के मध्य भाग को सार वृक्ष
के काष्ट के फलकों (पटरों) से छा देना चाहिये । इसे दण्ड़ के आठवें भाग की मोटाई
वाले फलकों से छाना चाहिये । इसके ऊपर गोपान के ऊपर धातुनिर्मित लोष्टकों (टाइल्स)
से आच्छादन करना चाहिये । इसके साथ दो या तीन दण्ड माप की ऊँचाई पर निकली हुई
कपोतपालिका निर्मित होनी चाहिये ॥१७-१८॥
एकहस्तं द्विहस्तं वा क्षुद्र महति
मन्दिरे ।
यथाशोभं यथाचित्रं कपोते कर्णपालिका
॥१९॥
तथा मध्यस्थिता वाऽपि सौधे सैले
समाहिता ।
छोटे भवन में एक हाथ की एवं बड़े भवन
में दो हाथ की सुन्दरता के ल्ये चित्रयुक्त कर्णपालिका कपोत पर निर्मित करनी
चाहिये । अथवा इसे भवन के मध्य भाग में प्रस्तर-निर्मित कर्णपालिका लगानी चाहिये
॥१९॥
मयमत अध्याय १६- वाजनम्
विधेया वाजनस्योर्ध्वे
भूतहंसादिकावलिः ॥२०॥
दण्डोच्चा वा त्रिपादोच्चा वाजनं
पूर्ववद्भवेत् ।
कपोतालम्बनं तत्स्याद्दण्डार्धं
वाऽथ दण्डकम् ॥२१॥
वाजन के ऊपर भूत (प्राणी,
पशु आदि) एवं हंस आदि की पंक्ति एक दण्ड या पौन दण्ड ऊँची होनी
चाहिये । वाजन पूर्व के सदृश होना चाहिये । वहाँ आधे दण्ड या एक दण्ड माप का
कपोतालम्बन होना चाहिये ॥२०-२१॥
अध्यर्धादित्रिदण्डान्तं
कपोतोच्चविनिर्गतम् ।
वसन्तकं वा निद्रा वा विधेया
वाजनोपरि ॥२२॥
त्रिपादोच्चा तदूर्ध्वं
स्यात्कपोतोच्चं तु पूर्ववत् ।
कपोत की ऊँचाई से निकला निर्गम डेढ़
दण्ड से लेकर तीन द्ण्डपर्यन्त होता है । वाजन के ऊपर वसन्तक अथवा निद्रा निर्मित
करनी चाहिये । यह उसके ऊपर पौन दण्ड ऊँची होनी चाहिये एवं कपोत की ऊँचाई
पूर्ववर्णित रखनी चाहिये ॥२२॥
मयमत अध्याय १६- कपोतम्
एवं स्याद् दृढकल्प्यं
तच्छिलयेष्टकमात्रकैः ॥२३॥
यथाप्रयोगं स्थैर्यं तु तथा योज्यं
विचक्षणैः ।
कपोतोच्चत्रिभागं वा पादं वा
क्षुद्रनिष्कृतिः ॥२४॥
इस प्रकार पूर्वोक्त वर्णित भागों
को प्रस्तर अथवा ईंटो से दृढ़ बनाना चाहिये । जिस वस्तु के प्रयोग से स्थिरता
प्राप्त हो, उसी का प्रयोग बुद्धिमान
(स्थपति) को करना चाहिये । कपोत की ऊँचाई के तीन भाग अथवा चतुर्थांश के बराबर
क्षुद्रनिष्कृति (बाहर निकला भाग) बनाना चाहिये ॥२३-२४॥
कपोते नासिका क्षुद्रे नीव्रोर्ध्वे
स्थितकर्णिका ।
सपाददण्डा वाध्यर्धं द्विदण्डं
विस्तृता स्थिता ॥२५॥
कपोत के नीव्र के ऊपर नासिका (खिड़की
के सदृश आकृति) होती है, जो कर्णिका (लता)
की भाँति होती है । यह सवा दण्ड, डेढ़ दण्ड या दो दण्ड
विस्तृत होती है ॥२५॥
सिंहश्रोत्रशिखालिङ्गं
पट्टिकान्तस्य पट्टिका ।
विधेया स्वस्तिकाकृत्य नासिकोर्ध्वे
तु नासिका ॥२६॥
कुक्षिमानं शिखामानं यथाशोभनमेव वा
।
प्रतिवाजनकस्योर्ध्वे नेष्यते
नासिकोच्छ्रयम् ॥२७॥
इसके शीर्ष भाग की आकृति सिंह के कान
के सदृश होती है । पट्टिक के अन्तिम भाग में स्वस्तिक की आकृति वाली पट्टिका होती
है । नासिका के ऊपर नासिका निर्मित होनी चाहिये । इसके मूल भाग एवं ऊर्ध्व भाग का
प्रमाण शोभा के अनुसार होना चाहिये । प्रतिवाजनक के ऊपर नासिका की ऊँचाई नहीं होनी
चाहिये ॥२६-२७॥
मयमत अध्याय १६- प्रस्तरोर्ध्वभागम्
आलिङ्गं पादपादोच्चं पादात्
पादविनिर्गतम् ।
तस्मादन्तरितं चोर्ध्वे
निष्क्रान्तावेशनक्रियम् ॥२८॥
प्रस्तर का ऊपरी भाग - प्रस्तर के
ऊर्ध्व भाग की योजना इस प्रकार है - आलिङ्ग का माप पाद के चतुर्थांश माप का होता
है एवं पादविनिर्गत (बाहर निकला भाग) भी चतुर्थांश माप का होना चाहिये । उन दोनों
के मध्य में ऊर्ध्व भाग पर निष्क्रान्त स्थापित करना चाहिये ॥२८॥
त्रिपट्टाग्रं हि पादोच्चं पादे
पादान्तरे स्थितम् ।
दण्डं त्रिपादमर्धं वा
प्रत्युत्सेधं तदूर्ध्वतः ॥२९॥
दो स्तम्भों के मध्य,
स्तम्भों के ऊपर स्तम्भ की ऊँचाई का त्रिपट्टाग्र (तीन पट्टियों की
आकृति) निर्मित होनी चाहिये । उसके ऊपर प्रति का निर्माण करना चाहिये, जिसका माप एक दण्ड, तीन चौथाई अथवा आधा दण्ड होना
चाहिये ॥२९॥
स्वोच्चत्रिपादनिष्क्रान्ता
प्रतिरर्धेन वा तथा ।
दण्डः सपादः सार्धो वा प्रतिवक्त्रं
विनिर्गमः ॥३०॥
प्रतिवक्त्र संज्ञक भाग का माप
प्रति के माप का तीन चौथाई, आधा, एक दण्ड, सवा दण्ड अथवा डेढ़ दण्ड रखना चाहिये ॥३०॥
तावदूर्ध्वोद्गतिस्तस्याः
प्रागुक्तविधिना कुरु ।
सव्याला वा ससिंहेभा ऋज्वी वा
स्यात्प्रतेः कृतिः ॥३१॥
उसके ऊपर उसकी गति का निर्माण
पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । प्रति की रचना व्याल के सहित,
सिंह के सहित, गज के सहित अथवा सीधी करनी
चाहिये । ॥३१॥
तदुच्चत्रिचतुर्भागं वाजनं
निर्गमोद्गमम् ।
समकरं चित्रखण्डं नागवक्त्रमिति
त्रिधा ॥३२॥
इसके ऊपर इसकी ऊँचाई के तीसरे अथवा
चौथे भाग से वाजन एवं निर्गम का प्रारम्भ करना चाहिये । ये समकर,
चित्रखण्ड एवं नागवक्त्र - तीन प्रकार के होते है । ॥३२॥
नागवक्त्रं नागफणं
स्वस्ताकृतिशिरःक्रियम् ।
तैतिलानां द्विजातीनां भवेत् समकरा
प्रतिः ॥३३॥
नागवक्त्र आकृति में नाग के फण एवं
स्वस्ति की आकृति में (नाग का) सिर निर्मित होता है । देवों एवं ब्राह्मणों के भवन
में समकर प्रति का निर्माण करना चाहिये । ॥३३॥
चतुरस्त्रं तु खण्डाग्रं मकरं
चित्रखण्डकम् ।
नृपाणां वणिजां
शूद्रजन्मनामर्धचन्द्रकम् ॥३४॥
हस्तिरूपं भवेन्मुण्डं प्रत्यग्रं
चित्रसन्निभम् ।
ककरं कर्कटं बन्धमन्यदप्येवमूह्यताम्
॥३५॥
(समकर प्रति) आकृति में चौकोर एवं शीर्षभाग में
मकर निर्मित होता है । चित्रखण्ड प्रति राजाओं, व्यापारिओं
(वैश्यों) एवं शूद्रों के (भवन के) अनुकूल होता है । इसकी आकृति अर्धचन्द्र के
सदृश होती है । इसका शीर्षभाग गज की आकृति से युक्त होता है । इस प्रति का अग्र
भाग चित्र की भाँति होता है; इसलिये इसे ककर, कर्कट, बन्ध अथवा अन्य संज्ञा से भी सम्बोधित करते
है ॥३४-३५॥
मयमत अध्याय १६- तुलादिबन्धम्
वाजनोर्ध्वे वलीकोर्ध्वे तुलां
सम्यङ् निवेशयेत् ।
दण्डोच्चं वा
त्रिपादोच्चमर्धतारसमन्वितम् ॥३६॥
वाजन के ऊपर (अथवा) वलीक के ऊपर
भली-भाँति तुला (बीम) को स्थापित करना चाहिये । इसकी ऊँचाई एक दण्ड अथवा तीन चौथाई
दण्ड होनी चाहिये तथा इसकी मोटाई ऊँचाई की आधी होनी चाहिये ॥३६॥
त्रिचतुष्पज्चदण्डेन दीर्घं
तत्साग्रनालिकम् ।
सव्यालाग्रं सम्भृताग्रं पार्श्वाङ्गस्थतरङ्गवत्
॥३७॥
वलीक की लम्बाई तीन,
चार या पाँच दण्ड होनी चाहिये । इसके अग्र भाग में नालियाँ, व्याल या बिन्दु होना चाहिये एवं इसका पार्श्व भाग तरङ्ग की भाँति होना
चाहिये ॥३७॥
वलीकं स्याद्वलीकोर्ध्वे कर्तव्या
वर्णपट्टिका ।
दण्डार्धार्धविशालोच्चा निश्छिद्रं
स्यात्तदन्तरे ॥३८॥
फलकैश्च तदूर्ध्वे तु दण्डोत्सेधा
तुला स्थिरा ।
त्रिपादविस्तृता न्यस्ता
प्रवेशानुगता शुभा ॥३९॥
(उपर्युक्त वर्णन के अनुसार) वलीक होना चाहिये ।
वलीक के ऊपर वर्णपट्टिका का निर्माण करना चाहिये । इसका विस्तार आधा दण्ड एवं
ऊँचाई विस्तार का आधा होना चाहिये । उसके मध्य भाग को फलकों द्वारा छेदरहित करना
चाहिये । इसके ऊपर एक दण्ड ऊँची स्थिर तुला स्थापित करनी चाहिये । तुला का विस्तार
तीन चौथाई दण्ड होना चाहिये । इसे द्वार की ओर उन्मुख होना चाहिये ॥३८-३९॥
तुलाविस्तारतारोच्चा जयन्ती
स्यात्तुलोपरि ।
अर्धदण्डेन तत्रोच्चा
जयन्त्यूर्ध्वेऽनुमार्गकम् ॥४०॥
तुला के ऊपर तुला की चौड़ाई के बराबर
ऊँचाई वाली जयन्ती रक्खी जानी चाहिये । जयन्ती के ऊपर आधा दण्ड ऊँचा अनुमार्गक
रखना चाहिये ॥४०॥
तदूर्ध्वे फलका पादपादषड्भागतीव्रकाः
।
इष्टकाचूर्णसङ्घातप्रस्तरस्तम्भविस्तरम्
॥४१॥
उसके ऊपर फलको को स्थापित करना
चाहिये । इसकी मोटाई दण्ड के चौथे या छठवे भाग के बराबर होनी चाहिये । प्रस्तर एवं
स्तम्भ के विस्तार को ईंटों एवं चूर्ण से जोड़ना चाहिये ॥४१॥
करालमुद्गिगुल्मासकल्कचिक्कणकर्मवान्
।
उत्तरं वाजनं चैव तत्पार्श्वानुगतं
भवेत् ॥४२॥
कराल, मुद्गि, गुल्मास, कल्क एवं
चिक्कण (ये सभी ईंटो को जोड़ने एवं लेप में प्रयुक्त होते है) का प्रयोग करना
चाहिये । उत्तर एवं वाजन पार्श्व में लगने चाहिये । ॥४२॥
तुला द्वारानुयाता हि जयन्ती
तिर्यगागता ।
अनुमार्गं तदूर्ध्वे तु
द्वारस्यानुगतं शुभम् ॥४३॥
तुला (की स्थापना) द्वार के अनुसार
होनी चाहिये । जयन्ती (उसके ऊपर) तिरछी रक्खी जानी चाहिये । उसके ऊपर द्वार के
अनुसार अनुमार्ग रक्खा जाना चाहिये । ॥४३॥
द्वारतिर्यग्गता वाऽथ तुला
देवनृपेशयोः ।
त्रिदण्डं वा द्विदण्डं वा
स्याद्वलीकतुलान्तरम् ॥४४॥
देवालय एवं राजभवन में तुला द्वार
से तिरछी होनी चाहिये । वलीक एवं तुला के मध्य का अवकाश दो या तीन दण्ड होना
चाहिये ॥४४॥
द्विदण्डं सार्धमध्यर्धं
जयन्त्यन्तरमिष्यते ।
दण्डान्तरमनु मार्गं निश्छिद्रं
स्यात्तदूर्ध्वतः ॥४५॥
जयन्तियों के मध्य का अन्तर डेढ़ या
ढ़ाई दण्ड होता है । उनके ऊपर एक-एक दण्ड के अन्तर पर रक्खे अनुमार्ग उनके मध्य के
छिद्र को भर देते है ॥४५॥
अथ चित्रविचित्राङ्गा विधेया
प्रस्तरक्रिया ।
क्षुद्राणां तु तुलादीनि यथा
स्थैर्यं तथाचरेत् ॥४६॥
इस प्रकार प्रस्त्र-क्रिय
चित्र-विचित्र अङ्गो से निर्मित होती है । क्षुद्रं एवं तुला को इस प्रकार रखना
चाहिये,
जिससे कि वे दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जायँ ॥४६॥
विरूपं वा सरूपं वा सर्वमङ्गं
प्रयोजयेत् ।
तुलाद्रव्योपरिष्टात्तु फलकाच्छादनं
तु वा ॥४७॥
इष्टका वा पिधातव्या शेषं
पूर्ववदाचरेत् ।
रूप (आकृति) के साथ अथवा विना रूप
के (प्रस्तर-प्रकल्पन में) सभी अङ्गों का प्रयोग करना चाहिये । तुला के ऊपर फलकों
द्वारा आच्छादन करना चाहिये । अथवा ईंटों से आच्छादन करना चाहिये । शेष कार्य
पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये ॥४७॥
मयमत अध्याय १६- प्रस्तरमानम्
पङ्क्त्यष्टभागविकलं हि
मसूरकोञ्चा-
न्मञ्चोन्नतं मतमथो तलिपार्धकं वा ।
यावद् बलं विपुलसुन्दरतां समेति
तावद् विधेयमधुना विधिना विधिज्ञैः
॥४८॥
प्रस्तर की ऊँचाई मसूर की ऊँचाई के
बराबर होनी चाहिये एवं स्तम्भ की ऊँचाई से दश या आठ भाग कम होनी चाहिये । प्रस्तर
की ऊँचाई एवं माप इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे
कि भवन को दृढ़ता एवं सौन्दर्य प्रदान किया जा सके, ऐसा
विद्वानों का मत है ॥४८॥
मयमत अध्याय १६- लेपः
मधुघृतदधिदुग्धं माषयूषं च चर्म
कदलिफलगुलञ्च त्रैफल नालिकेरम् ।
क्रमवशमनुभागैर्वर्धितं लब्धचूर्णं
शतमथ कृतमस्य द्वैगुणं शर्करास्तु
॥४९॥
लेप-सामग्री - लेप के लिये यह
मिश्रण तैयार किया जाता है - शहद, घृत, दही, दूध, उड़द का पानी,
चमड़ा, केला, गुड़,
त्रिफला एवं नारियल । इन्हें क्रमशः एक-एक भाग बढ़ाते हुये लेना
चाहिये । इनमें एक सौ भाग चूना मिलाना चाहिये तथा इस मिश्रण में दुगुनी मात्रा में
बालू मिलाना चाहिये ॥४९॥
मयमत अध्याय १६- युग्मायुग्ममानम्
हतस्तम्भतुलादिकान् नरगृहे
युञ्ज्यादयुग्मं यथा
युग्मायुग्मकसंख्यया सुरगृहे
युञ्जीत हस्तादिकान् ।
सम एवं विषम मान - मनुष्यों के गृह
में हस्त,
स्तम्भ तथा तुला आदि का प्रयोग विषम संख्याओं में करना चाहिये;
किन्तु देवालय में हस्त आदि का प्रयोग सम अथवा विषम संख्याओं में
होता है ।
मयमत अध्याय १६- द्वारम्
मध्ये द्वारमनिन्दितं
सुरमहिदेवक्षितीशालये
शेषाणामुपमध्यमेव विहित
तत्सम्पदामास्पदम् ॥५०॥
देवता,
ब्राह्मण एवं राजाओं के गृह में मध्य में द्वारस्थापन निन्दनीय नही
है; किन्तु अन्य वर्ण वालों के लिये द्वार मध्य के पार्श्व
में शुभ होता है ॥५०॥
मयमत अध्याय १६- वेदिः
प्रतेरुपरि वेदिः स्यात्
सार्धद्वित्र्यङ्घ्रिणोदयम् ॥५१॥
प्रति के ऊपर वेदि का निर्माण होना
चाहिये,
जिसकी ऊँचाई प्रति की डेढ़, पौने दो या दुगुनी
होनी चाहिये ॥५१॥
द्वौ षट् चत्वारि कम्पानि
पादपादघनानि च ।
पद्मशैवलपत्रादिचित्राङ्गा वेदिका
मताः ॥५२॥
कम्प की संख्या दो,
चार या छः होनी चाहिये । इनकी मोटाई चौथाई दण्ड होनी चाहिये । इनकी
वेदिका पद्मपुष्प, शैवाल एवं पत्र आदि चित्रों से सज्जित
होनी चाहिये ॥५२॥
कम्पाधस्तात् प्रयोज्या हि स्तम्भास्तत्रैव
युक्तितः ।
ऊर्ध्वाधः कम्पवत् पद्मपट्टिकं
चाग्रबन्धनम् ॥५३॥
कम्प के नीचे स्तम्भों को उचित रीति
से जोड़ना चाइये । इन स्तम्भों का मूल एवं अग्र भाग कम्प के अनुसार होना चाहिये तथा
इसे पद्मपट्टी एवं अग्रबन्धन से युक्त होना चाहिये ॥५३॥
मयमत अध्याय १६- जालकानि
वेदिकोपरि योज्यानि जालकानि
विचक्षणैः ।
त्यक्त्वा भित्त्यङ्घ्रिमध्यं तु
चतुर्दण्डान्तविस्तृतम् ॥५४॥
झरोखा,
जाल - विद्वानों के अनुसार वेदियों के ऊपर जालकों (खिड़की, रोशनदान) का प्रयोग करना चाहिये । इन्हे भित्ति के साथ स्तम्भ के मध्य भाग
में नही होना चाहिये । इनकी चौड़ाई चार दण्ड होनी चाहिये ॥५४॥
द्विदण्डादिनिजव्यासाद्विगुणं
तुङ्गमीरितम् ।
सार्धमङ्घ्र्न्यूनकं वोच्चं
त्यक्त्वा मध्याङ्घ्रिरन्ध्रकम् ॥५५॥
इनकी चौड़ाई दो दण्ड से प्रारम्भ कर
(चार दण्डपर्यन्त) तथा ऊँचाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । अथवा ऊँचाई डेढ़ या
पौने दो भाग (चौड़ाई की) होनी चाहिये । यह स्तम्भ के मध्य रन्ध्र को छोड़ कर होनी
चाहिये ॥५५॥
युग्मायुग्माङ्घ्रिभिः
कम्पैर्युक्तं तुङ्गे च वैपुले ।
गवाक्षं कुञ्जराक्षं च
नन्द्यावर्तमृजुक्रियम् ॥५६॥
पुष्पखण्डं सकर्णं च योजितव्यं
यथोचितम् ।
दीर्घास्त्रं कर्णकच्छिद्रं तद्
गवाक्षमिति स्मृतम् ॥५७॥
सम एवं विषम संख्याओं वाले पादों
एवं कम्पों से युक्त सजावटी खिड़कियों का यथोचित ऊँचाई एवं विस्तार के साथ प्रयोग
करना चाहिये । इनकी संज्ञा गवाक्श, कुञ्जराक्ष,
नन्द्यावर्त, ऋजुक्रिय, पुष्पखण्ड
एवं सकर्ण है । गवाक्ष संज्ञक जालक (खि़ड़की, झरोखा) लम्बा,
अनेक कोणों वाला एवं छिद्रयुक्त होता है ॥५६-५७॥
युगास्त्रं कर्णकच्छिद्रं
कुञ्जराक्षमिति स्मृतम् ।
पञ्चसूत्रमयच्छिद्रं प्रदक्षिणवशात्
कृतम् ॥५८॥
नन्द्यावर्ताकृतिवशान्नन्द्यावर्तमिति
स्मृतम् ।
स्तम्भतिर्यग्गतं कम्पमृजुत्वात्तदृजुक्रियम्
॥५९॥
चौकोर एवं कर्णकछिद्र (विभिन्न
प्रकार के छिद्रों वाले) से युक्त जालक कुञ्जराक्ष संज्ञक होता है । पाँच सूत्रों
से प्रदक्षिणक्रम (बायें से दाहिने) से निमित छिद्रयुक्त जालक नन्द्यावर्त आकृति
का होने के कारण नन्द्यावर्त संज्ञक होता है । तिरछे एवं सीधे स्तम्भों से निर्मित
एवं कम्पयुक्त जालक की संज्ञा ऋजुक्रिय होती है ॥५८-५९॥
पुष्पखण्डं सकर्णं च नन्द्यावर्तं
तथोच्यते ।
भित्तिमध्याद्बिहिस्तस्य स्तम्भयोगं
कवाटयुक् ॥६०॥
पुष्पखण्ड एवं सकर्ण जालक
नन्द्यावर्त के समान होते है । भित्ति के मध्य से हट कर जालकों के स्तम्भों का योग
होता है एवं जालक कवाट (पल्लों) से युक्त होते है ॥६०॥
कवाटयुगलं वैकं घाटनोद्धाटनक्षमम् ।
पादवर्गे भवेद् ग्रीवावर्गे
वातायनस्थितिः ॥६१॥
ये कवाट एक अथवा दो होते है एवं
खुलने तथा बन्द होने में समर्थ होते है । जालकों की स्थिति स्तम्भ के बराबर अथवा
भवन की ग्रीवा के बराबर होती है ॥६१॥
गुलिकाजालकं
धामविन्यासाकृतिरन्ध्रकम् ।
स्वस्तिकं वर्धमानं च
सर्वतोभद्रसन्निधम् ॥६२॥
गोल आकृति वाले जालक सूर्य की आकृति
वाले एवं छिद्रयुक्त होते है । ये स्वस्तिक, वर्धमान
तथा सर्वतोभद्र प्रकार के होते है ॥६२॥
मयमत अध्याय १६- भित्तिः
द्रुमोपलेष्टकाद्रव्यैर्युक्त्या
युञ्जीत बुद्धिमान् ।
जालकं फालकं कुड्यमैष्टकञ्च त्रिधा
मतम् ॥६३॥
दीवार - बुद्धिमान,
(स्थपति) को गृहस्वामी की इच्छानुसार अथवा आवश्यकतानुसार) काष्ठ,
प्रस्तर अथवा ईंटो से भित्ति-निर्माण करना चाहिये । इस प्रकार जालक
(काष्ठ-निर्मित), फलक (प्रस्तरफलकों से निर्मित) तथा ऐष्टक
(ईंटो से निर्मित) तीन प्रकार की भित्तियाँ होती है ॥६३॥
जालकं
जालकैर्युक्तमिष्टकामयमैष्टकम् ।
फालकं फलकोपेतं भित्तिमध्येऽङ्घ्रिसंयुतम्
॥६४॥
जालक भित्ति जालकों (काष्ठनिर्मित)
से युक्त,
ऐष्टक भित्ति ईंटों से युक्त तथा फालक भित्ति फलकों (प्रस्तरखण्डों)
से युक्त होती है । भित्ति के मध्य में पाद होते हैं ॥६४॥
भित्तिबन्धनमूर्ध्वाधःपद्मसङ्घपट्टपट्टिकम्
।
पादपादषडष्टांशबहला फलका भवेत् ॥६५॥
दीवार बनाते समय ऊपर एवं नीचे
कमलपुष्पों के समूह से युक्त पट्टिका का निर्माण करना चाहिये । फलकों की मोटाई
स्तम्भ के चौथे, छठे या आठवें भाग के बराबर होनी
चाहिये ॥६५॥
शिबिकाकुड्यवद् वाऽथ सर्वत्र
फलकामयम् ।
एतत्तु फलकाकुड्यं यत्तु यत्र
यथोचितम् ।
तदेव तत्र योज्यं स्याद्
वस्तुविद्याविचक्षणैः ॥६६॥
अथवा सभी स्थान पर शिबिका (पालकी)
की भित्ति के समान फलका निर्मित होनी चाहिये । (यहाँ सम्भवतः काष्ठखण्डों से
निर्मित भित्ति का तात्पर्य है) इस प्रकार जहाँ-जहाँ उचित हो,
फलका कुड्य वहाँ-वहाँ (फलकनिर्मित भित्ति) का प्रयोग करना चाहिये,
ऐसा वास्तुशास्त्र के विशेषज्ञो का मत है ॥६६॥
एवं प्रोक्तं प्रस्तरं वेदिकाङ्ग
युक्त्या तज्ज्ञैर्जालकं च त्रिकुड्यम् ।
नैव च्छेद्या वेदिका जालकार्थं न
प्रत्यङ्गं सर्वतश्छेदनीयम् ॥६७॥
इस प्रकार प्रस्तर-करण,
वेदिकाङ्ग, जालक एवं तीन प्रकार की भित्तियों
का वर्णन एवं उनकी रीति का वर्णन विद्वानों के मतानुसार किया गया । जालक के
निर्माण के लिये वेदिका को कभी नहीं तोड़ना चाहिये तथा प्रति के अङ्गो को भी नही
तोड़ना चाहिये ॥६७॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
प्रस्तरकरणं नाम षोडशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 17
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