मयमतम् अध्याय १५

मयमतम् अध्याय १५      

मयमतम् अध्याय १५ पादप्रमाण द्रव्यपरिग्रह विधान- इस अध्याय में स्तम्भ के लक्षण, पर्याय, उसके प्रमाण, स्तम्भों के भेद, स्तम्भदण्ड का लक्षण, कलश का लक्षण, पोतिका का माप एवं उसके अंग, स्तम्भ के विशेष लक्षण, स्तम्भ के निर्माण हेतु काष्ठ, प्रस्तर एवं इष्टका का संग्रह, इस हेतु चुनने योग्य वृक्ष, शिला एवं इष्टका के लक्षण, त्याज्य वृक्ष, वृक्ष-ग्रहण करने से पूर्व किया जाने वाला पूजन-कार्य तथा काष्ठा- नयन, मुहूर्तस्तम्भ एवं इष्टका निर्माण वर्णित है।

मयमतम् अध्याय १५

मयमतम् अध्याय १५           

Mayamatam chapter 15  

मयमतम् पञ्चदशोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय १५- पाद्प्रामणद्रव्यपरिग्रहविधानम्

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ पञ्चदशोऽध्यायः

स्तम्भलक्षणम्

पादायामं सविस्तारमाकारं भूषणादिकम् ।

लक्षणान्तरतः सम्यग्‍ वक्ष्ये संक्षेपतः क्रमात् ॥१॥

स्तम्भ के लक्षण - मैं (मय ऋषि) अन्य लक्षणों के साथ स्तम्भों की लम्बाई, चौड़ाई, आकृति एवं उनके अलङ्करण आदि का संक्षेप मे सम्यक्‍ रूप से क्रमशः वर्णन कर रहा हूँ ॥१॥

स्थाणुः सःऊणश्च पादश्च जङ्घा च चरणोऽङ्‌घ्रिकः ।

स्तम्भश्च तलिपः कम्पः पर्यायवचनानि हि ॥२॥

स्थाणु, स्थूण, पाद, जङ्घा, चरण, अङ्‌घ्रिक, स्तम्भ, तलिप एवं कम्प (स्तम्भ के) पर्यायवाची शब्द है ॥२॥

मयमत अध्याय १५- स्तम्भमानम्

सवितस्त्यष्टहस्तोच्चं द्वादशक्ष्माद्यपादकम् ।

तत्तद्वितस्तिहीनेन त्रिकरं चान्त्यभूमिके ॥३॥

स्तम्भ का प्रमाण - बारह तल के भवन में भूतल पर बनने वाले स्तम्भ की ऊँचाई आठ हाथ एक बित्ता (साढ़े आठ हाथ) होनी चाहिये । प्रत्येक तल पर एक-एक बित्ता कम करते हुये सबसे ऊपर के तल पर तीन हाथ ऊँचाई होनी चाहिये ॥३॥

आत्तोत्सेधाशमानेन पादोच्चं वा विधीयते ।

आत्तधिष्ठानतुङ्गस्य द्विगुणं पादतुङ्गकम् ॥४॥

अथवा स्तम्भ की ऊँचाई का मापन दिये गये माप से (दूसरे ढंग से) करना चाहिये । अधिष्ठान की ऊँचाई का दुगुना माप स्तम्भ का रखना चाहिये ॥४॥

द्विगुणादधिकोत्सेधः स्तम्भः प्रोक्तः स्वयम्भुवा ।

अष्टविंशतिमात्रैस्तु मूलभूस्तम्भविस्तृतम् ॥५॥

(बारह तल के भवन में) स्वयम्भू के अनुसार स्तम्भ की ऊँचाई अधिष्ठान के दुगुने से अधिक होनी चाहिये । भूतल के स्तम्भ का विस्तार अट्ठाईस मात्रा (अङ्गुल-माप) होना चाहिये ॥५॥

तत्तद्‌द्वयङ्गुलभिन्नेन षण्मात्रं चान्त्यभूम्के ।

पादोच्चे पङ्‍क्तिनन्दाष्टभागेंऽसं पादविस्तृतम् ॥६॥

प्रत्येक तल मे उपर्युक्त माप से दो-दो अङ्गुल कम करते हुये ऊपर के तल में स्तम्भ की चौडाई का माप प्राप्त होता है । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई का दसवाँ, नवाँ या आठवाँ भाग उसकी चौड़ाई का माप होना चाहिये ॥६॥

तदर्धं वा त्रिभागोनं चतुर्भागोनमेव वा ।

कुड्यस्तम्भस्य विस्तारस्तेन द्वित्रिचतुर्गुणः ॥७॥

पञ्चषड्‌गुण एवं स्याद्‍ भित्तिविष्कम्भ इष्यते ।

जन्मोर्ध्वे स्तम्भविक्षेपहोमाः स्तम्भविधौ विदुः ॥८॥

अथवा स्तम्भ का विस्तार आधा, तीन भाग कम अथवा चतुर्थांश कम रखना चाहिये । भित्ति-स्तम्भ के विस्तार से भित्ति-विष्कम्भ का विस्तार दुगुना, तीन गुना, चार गुना, पाँच गुना या छः गुना रखना चाहिए । स्तम्भ-स्थापन-विधि के ज्ञाता अधिष्ठान के ऊपर स्तम्भ के स्थापन के समय होम करने का विधान बतलाते है ॥७-८॥

मयमत अध्याय १५- स्तम्भभेदाः

प्रतिस्तम्भः प्रतेरूर्ध्वे चोत्तराधो हितायतिः ।

जन्मोर्ध्वे स्तम्भनिक्षेपः स्तम्भायामस्त्रिभागभाक् ॥९॥

स्तम्भ के भेद - प्रतिस्तम्भ के प्रति के ऊपर एवं उत्तर (भित्ति) के नीचे निर्मित किया जाता है । जन्म (अधिष्ठान का एक भाग) के ऊपर स्तम्भ को स्थापित किया जाता है एवं उसकी चौड़ाई उसकी ऊँचाई के तीसरे भाग के बराबर होती है ॥९॥

गाम्भीर्यमवटं कृत्वा तदुपज्ञतलं कुरु ।

पादुकाद्युत्तरान्तःस्थो निखातस्तम्भ इष्यते ॥१०॥

(निखातस्तम्भ के लिये) गहरा गर्त बनाकर उसके ऊपर तल का निर्माण किया जाता है (पुनः स्तम्भ-स्थापन होता है) । पादुक से लेकर उत्तर-भित्ति के मध्य में स्थित इस स्तम्भ का निखातस्तम्भ कहते है ॥१०॥

अधिष्ठानोत्तरन्तःस्थो झषालस्तम्भ उच्यते ।

तद्व्यासादर्कभागाद्यं षड्‌भागोनाग्रविस्तरः ॥११॥

अधिष्ठान से प्रारम्भ होकर उत्तरभित्ति के मध्य में स्थिर स्तम्भ को झषाल स्तम्भ कहते है । यह स्तम्भ मूल की अपेक्षा ऊर्ध्व भाग में छः-बारह भाग कम चौड़ा होता है ॥११॥

मूलभूस्तम्भतुङ्गस्य द्वादशाद्याः षडंशयुक् ।

ऊर्ध्वोर्ध्वस्तम्भतुङ्गं स्यादेवं तद्विस्तरक्रमः ॥१२॥

(बारह मञ्जिल के भवन में) भूतल में स्तम्भ की चौड़ाई उसकी ऊँचाई का छठवाँ भाग होना चाहिये । ऊपर के तलों में भी स्तम्भों की ऊँचाई एवं चौड़ाई में यही अनुपात होना चाहिये ॥१२॥

अग्राकारं युगास्त्रं तु कुम्भमन्डिसमन्वितम् ।

ब्रह्मकान्तं तदष्टास्त्रं विष्णुकान्तमिहोच्यते ॥१३॥

मुल से लेकर ऊपर तक चौकोर तथा कुम्भ एवं मण्डि से युक्त स्तम्भ को ब्रह्मकान्त कहा जाता है तथा आठ कोण वाले स्तम्भ को विष्णुकान्त कहते है ॥१३॥

षडस्त्रमिन्द्रकान्तं स्यात्‌ सौम्यं तत्‍ षोडशास्त्रकम् ।

कर्णमात्रेण तन्मूले चतुरस्त्रमितोर्ध्वतः ॥१४॥

अष्टास्त्रं वा द्विरष्टास्त्रवृत्तं पूर्वास्त्रमीरितम् ।

कुम्भमण्डियुतं वाऽपि रुद्रकान्तं सुवृत्तकम् ॥१५॥

षट्‍कोण वाला स्तम्भ इन्द्रकान्त संज्ञक होता है । सोलह कोण वाला स्तम्भ सौम्य कहलाता है । (कोण वाले स्तम्भों मे) मूल में चौकोर होता है । इसके पश्चात्‍ अष्टकोण, षोडशकोण अथवा वृत्ताकार होता है । इसकी संज्ञा पूर्वास्त्र होती है । वृत्ताकार स्तम्भ यदि कुम्भ एवं मण्डि से युक्त हो तो उसकी संज्ञा रुद्रकान्त होती है ।॥१४-१५॥

विस्तारद्विगुणं मध्येऽष्टास्त्रयुक्तं युगास्त्रकम् ।

वियुक्तं कुम्भमण्डिभ्यां मध्येऽष्टास्त्रं तदुच्यते ॥१६॥

यदि स्तम्भ की लम्बाई विस्तार से दुगुनी हो, मध्य में अष्टकोण एवं ऊपर तथा नीचे चौकोर हो तथा कुम्भ एवं मण्डि से रहित हो तो उसे 'मध्ये अष्टास्त्र' कहा जाता है ॥१६॥

चतुरष्टास्त्ररवृत्ताभं रुद्रच्छन्दं समांशतः ।

दण्डाध्यर्धे द्विदण्डेनोत्तुङ्गद्विगुणविस्तृतम् ॥१७॥

पद्मासनं तु कर्तव्यं मूले पद्मासनं भवेत् ।

यथेष्टाकृतिसंयुक्तमुर्ध्वतो वा समण्डितम् ॥१८॥

रुद्रच्छन्द संज्ञक स्तम्भ (मूल से क्रमशः ऊपर की ओर) चतुष्कोण, अष्टकोण एवं वृत्ताकार होता है । पद्मासन संज्ञक स्तम्भ के मूल में पद्मासन की रचना की जाती है, जिसका प्रमाण डेढ़ दण्ड अथवा दो दण्ड ऊँचा एवं उसका दुगुना चौड़ा होता है । इसके ऊर्ध्व भाग में इच्छानुसार आकृति अथवा मण्डि का निर्माण करना चाहिये । ॥१७-१८॥

चक्रवाकाकृतिव्याप्तं मूले पद्मासनान्वितम् ।

सभद्रं मध्यभागे तु भद्रकं तद्‍ द्विमण्डितम् ॥१९॥

भद्रक संज्ञक स्तम्भ के मूल में पद्मासन, चक्रवाक की आकृति से युक्त दो मण्डि एवं मध्य में भद्र निर्मित होता है ॥१९॥

व्यालेभसिंहभूतादिमण्डितं यत्तु मूलतः ।

यथेष्टाकृतिसंयुक्तं तत्तन्नाम्ना समीरितम् ॥२०॥

जिसके मूल में व्याल, गज, सिंह, एवं भूत आदि (अन्य प्राणी) अलंकृत हो एवं ऊपर इच्छानुसार आकृति का निर्माण किया गया हो, उस स्तम्भ को उसके अलङ्कार के अनुसार संज्ञा दी जाती है ॥२०॥

आत्तमेव तदायामे शुण्डभेदसमन्वितम् ।

युतं तत्कुम्भमण्डिभ्यां शुण्डपादमिति स्मृतम् ॥२१॥

जिस स्तम्भ पर लम्बाई में हाथे का सूँड़ निर्मित हो एवं कुम्भ तथा मण्डि से युक्त हो, उसे शुण्डपाद स्तम्भ कहते है ॥२१॥

मुक्तोत्करणकर्माङ्गं पिण्डिपादं तदेव हि ।

कर्मायामेन चाग्रे तु चतुरस्त्रसमन्वितम् ॥२२॥

तदधस्त्वर्धदण्डेन पद्मं वस्वस्त्रसंयुतम् ।

तदधस्तु विकारास्त्रं दण्डेनाब्जं तु पूर्ववत् ॥२३॥

तदधो दण्डमाने मध्यपट्टं युगास्त्रकम् ।

पद्मं च षोडशास्त्रं च पूर्ववत्परिकल्पयत् ॥२४॥

मूले शेषं युगास्त्रं स्याच्चित्रखण्डं तदुच्यते ।

तदेवाष्टास्त्रकं मध्यपट्टं श्रीखण्डमुच्यते ॥२५॥

शुण्डपाद में जब पूरे स्तम्भ में मोतियाँ उत्कीर्ण होती है तो उसे पिण्डिपाद कहते है । (चित्रखण्ड संज्ञक स्तम्भ के) अग्र भाग (ऊपरी भाग) में दो दण्ड से चौकोर निर्मित होता है । उसके नीचे आधे दण्ड से अष्टकोण पद्म होता है । उसके नीचे एक दण्ड माप का सोलह कोण पद्म तथा उसके नीचे एक दण्डप्रमाण का चौकोर मध्य पट्ट होता है । इसके पश्चात्‌ (नीचे) पहले के सदृश षोडश कोण पद्म निर्मित होता है । मूल में शेष भाग चौकोर होता है । इस स्तम्भ को चित्रखण कहते है । इसी में यदि मध्य पट्ट अष्टकोण हो तो उसे श्रीखण्ड स्तम्भ कहते है ॥२२-२५॥

मध्यपट्टं कलास्त्रं चेच्छ्रीवज्रस्तम्भमुच्यते ।

अग्राकारं युगास्त्रं स्यात्त्रिपट्टक्षेपणान्वितम् ॥२६॥

क्षेपणस्तम्भमित्युक्तं पट्टं पत्रादिशोभितम् ।

ऊर्ध्वाधस्ताच्छिखामानं त्रिचुतर्भागमेव वा ॥२७॥

सर्वे पोतिकया युक्ता नानारूपैर्विचित्रिताः ।

उपर्युक्त स्तम्भ में यदि मध्य पट्ट सोलह कोण हो तो उसकी संज्ञा श्रीवज्र होती है । (क्षेपण स्तम्भ के) अग्र भाग की आकृति चौकोर होती है । जिसमें तीन पट्ट से युक्त क्षेपण निर्मित होता है, उसे क्षेपण स्तम्भ कहते है । इसके पट्ट पत्र आदि से अलंकृत होते है । उसके नीचे तीन अथवा चार भाग मे शिखा का मान रक्खा जाता है । सभी स्तम्भ पोतिका से युक्त एवं विभिन्न प्रकार की आकृतियों से सुसज्जित होते है ॥२६-२७॥

मयमत अध्याय १५- दण्डलक्षणम्

पादाग्रविपुलं यत्तु तद्‌ दण्डमिति कथ्यते ॥२८॥

सर्वाण्यङ्गानि हर्म्याणां मानयेद्‍ दण्डमानतः ।

दण्ड का लक्षण - स्तम्भ के अग्र (ऊर्ध्व) भाग की चौड़ाई को दण्ड कहते है । भवन के सभी भागों का प्रमाण दण्डमान से मापा जाता है ॥२८॥

मयमत अध्याय १५- कलशलक्षणम्

सपादं सार्धपादोनद्विगुणं द्विगुणोन्नतम् ॥२९॥

श्रीकरं चन्द्रकान्तं च सौमुख्यं प्रियदर्शनम् ।

यथाक्रमेण नामानि कलशानां भवन्ति हि ॥३०॥

कलश के लक्षण - कलशों के नाम क्रमशः श्रीकर, चन्द्रकान्त, सौमुख्य एवं प्रियदर्शन है । इनका माप (चौड़ाई में) सवा दण्ड, डेढ़ दण्ड, पौने दो दण्ड तथा दो दण्ड एवं इसके दुगुना ऊँचा होता है ॥२९-३०॥

पोतिकाखण्डमण्डीनि कुम्भं स्कन्धञ्च पद्मकम् ।

मालास्थानं क्रमेणैव स्तम्भग्रात्‍ परिकल्पयेत् ॥३१॥

स्तम्भ के ऊर्ध्व भाग से पोतिका, खण्ड, मण्डि, कुम्भ, स्कन्ध, पद्म एवं मालास्थान का क्रमशः निर्माण करना चाहिये ॥३१॥

कुम्भोच्छ्रये नवांशे धृग्भागेन चतुरंशकैः ।

कमलं कण्ठमंशेन भागेनास्यं प्रकीर्तितम् ॥३२॥

भागेन पद्ममर्धेन वृत्तमर्धेन हीरकौ ।

हीरौ पादसमव्यासौ तत्कर्णेनास्यविस्तृतम् ॥३३॥

कुम्भ की ऊँचाई के नौ भाग करने चाहिये । इसमें एक भाग से धृग, चार भाग से कमल, एक भाग से कण्ठ, एक भाग से मुख, एक भाग से पद्म, आधा भाग से वृत्त एवं आधा भाग से दो हीरकों का निर्माण करना चाहिये । हीरकों का व्यास स्तम्भ की चौड़ाई के बराबर एवं मुख उसके कर्ण तक विस्तृत होना चाहिये ॥३२-३३॥

तत्कर्णं कुम्भविस्तारं तत्कर्णं फलकायतम् ।

अथवा फलकायामं चतुर्दण्डं त्रिदण्डकम् ॥३४॥

कर्ण फलक के बराबर चौड़ा होना चाहिये एवं कर्ण के बराबर कुम्भ का विस्तार रखना चाहिये अथवा फलक का विस्तार चार दण्ड या तिन दण्ड होना चाहिये ॥३४॥

सार्धत्रिदण्डमायाममुत्सेधाख्यं त्रिदण्डकम् ।

तदुत्सेधे त्रिभागे तु भागेनोत्सन्धिरिष्यते ॥३५॥

अथवा साढ़े तीन दण्ड विस्तार होना चाहिये एवं उसकी ऊँचाई तीन दण्ड रखनी चाहिये । ऊँचाई को तीन बराबर भागों में बाँटना चाहिये । ऊर्ध्व भाग की निर्मिति (उत्सन्धि) एक भाग से करनी चाहिये ॥३५॥

भागेन वेत्रमंशेन पद्मं पाल्याभमिष्यते ।

नागवक्त्रसमाकारमावेत्रात्‍ पादरूपवत् ॥३६॥

एक भाग से वेत्रं एवं एक भाग से अन्दर की ओर मुड़ा पद्म होना चाहिये । वह कुम्भ स्तम्भ की आकृति के समान वेत्र से नागवक्त्र के आकार का होना चाहिये ॥३६॥

पादविस्तारविस्तारं धृक्कण्ठं वीरकाण्डकम् ।

सर्वेषामपि पादानां वीरकाण्डं युगास्त्रकम् ॥३७॥

स्तम्भ के विस्तार के समान धृक्‌, कण्ठ एवं वीरकाण्ड का विस्तार रखना चाहिये । सभी स्तम्भों का वीरकाण्ड चौकोर होना चाहिये ॥३७॥

तदुत्सेधत्रिपादोनं दण्डोत्थं स्कन्धमिष्यते ।

तदधस्तु तदधेन पद्मं पत्रविचित्रितम् ॥३८॥

मालास्थानमधस्तस्माद्‍ दण्डमानसमुन्नतिः ।

उसकी (वीरकाण्ड की) ऊँचाई से पौन भाग कम (एक चौथाई अथवा) एक दण्ड ऊँचा स्कन्ध होना चाहिये । उसके नीचे उसके आधे माप का पद्म होना चाहिये, जो पत्रों से अलंकृत हो । उसके नीचे माला-स्थान होना चाहिये, जो दण्डप्रमाण ऊँचा हो ॥३८॥

मयमत अध्याय १५- पोतिका

पादविस्तारविस्तारा पोतिका तत्समोदया ॥३९॥

पोतिका (स्तम्भ का ऊपरी भाग, जो स्तम्भ से बाहर निकला हो) का विस्तार स्तम्भ के विस्तार के बराबर होना चाहिये एवं उसकी ऊँचाई भी विस्तार के बराबर होनी चाहिये ॥३९॥

पञ्चदण्डसमायामा श्रेष्ठार्धोच्चा कनिष्ठिका ।

आयता सा त्रिदण्डेन चतुर्दण्डेन दीर्घका ॥४०॥

त्रिभागोना त्रिपादोच्चा मध्यमा पोतिका भवेत् ।

पूर्वोक्तं तत्‍ समण्डीनां सकुम्भानां चतुर्गुणम् ॥४१॥

उत्तम पोतिका की चौड़ा पाँच दण्ड एवं उसकी ऊँचाई की आधी होनी चाहिये । कनिष्ठ पोतिका की चौड़ाई तीन दण्ड एवं मध्यम पोतिका की चौड़ाई तीन भाग कम चार दण्ड होनी चाहिये । (स्तम्भ का) पूर्वोक्त प्रमाण मण्डी एवं कुम्भ के साथ चार गुना हो जाता है ॥४०-४१॥

त्रिगुणं केवलानां तु पादानां प्रविधीयते ।

सर्वेषामपि पादानां यथेष्टायतमीरितम् ॥४२॥

(मण्डी, कुम्भ आदि से रहित) केवल स्तम्भ का माप तिन गुना होता है । सभी पादों का यथोचित माप वर्णित किया गया है ॥४२॥

तदुच्चत्रिचतुर्भागोच्चा वा स्वाग्रे तु पट्टिका ।

अर्धं त्रिद्व्यंशमङ्‌घ्र्यूनं छायामानं विधीयते ॥४३॥

पोतिका की ऊँचाई के तीसरे या चौथे भाग के बराबर पोतिका के ऊपर अग्रपट्टिका निर्मित होती है । इसका छायामान आधा, दो-तिहाई अथवा तीन-चौथाई होना चाहिये ॥४३॥

त्रिभागं वा चतुर्भागं तरङ्गस्थानमिष्यते ।

सक्षुद्रक्षेपणं मध्यपट्टं पत्रविचित्रितम् ॥४४॥

तीन भाग अथवा चौथे भाग में तरङ्ग-स्थान (लहरों की रचना) होना चाहिये । यह क्षुद्र-क्षेपण, मध्य पट्ट एवं पट्टो से अलंकृत होना चाहिये ॥४४॥

समास्तरङ्गाश्चान्योन्यहीनाः सर्वत्र सम्मताः ।

अग्रनिष्क्राममर्धं वा त्रिभागं वा स्वतारतः ॥४५॥

सभी लहरें सम एवं एक-दुसरे से हीन नही होती है । इनका अग्र भाग एवं निष्क्राम (प्रथम छोर से अन्तिम छोर) अपने विस्तार का आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर होना चाहिये ॥४५॥

मुष्टिबन्धोपरिक्षिप्तव्यालसंह्रतिरूपवत् ।

सनालीकं समतलं सनाटकमथापि वा ॥४६॥

इसके ऊर्ध्व भाग में सर्प की कुण्डली के सदृश मुष्टिबन्ध होना चाहिये, जो नालियों के सहित समतल एवं नाटकों (नाट्य चित्रो) से युक्त हो ॥४६॥

भूतेभमकरैर्व्यालसंयुक्तं चाग्रमण्डनम् ।

पार्श्वयोः पोतिकामध्ये पट्टं पादविशालवत्‌ ॥४७॥

पोतिका के ऊर्ध्व भाग में भूत (जीव-जन्तु), गज, मकर एवं व्याल आदि का अलङ्करण होना चाहिये । पोतिका का मध्य पट्ट दोनों पार्श्वों मे स्तम्भ के समान विस्तृत होना चाहिये ॥४७॥

रत्‍नबन्धक्रियावल्ली चित्रा वाग्रस्थपट्टिका ।

नानाचित्रैर्विचित्रा वा सा प्रोक्ता चित्रपोतिका ॥४८॥

जिस पोतिका की अग्रस्थ पट्टिका (ऊपरी पट्टी पर) रत्‍नजटित लता अङ्कित हो अथवा अनेक प्रकार के चित्रों से जिसकी सज्जा की गई हो, उसे चित्रपोतिका कहते है ॥४८॥

पत्रैर्विचित्रिता पत्रपोतिकेति प्रकीर्तिता ।

महार्णवतरङ्गाभतरङ्गाभा तरङ्गिणी ॥४९॥

चतुःषडष्टपङ्‍क्त्यर्कसंख्या वा स्युस्तरङ्गकाः ।

बहवोऽपि समाश्चैते चान्योन्याः स्युर्वराः क्रमात् ॥५०॥

विभिन्न प्रकार के पत्रों से अलंकृत पोतिका को पत्रपोतिका कहते हैं । जिस पोतिका में सागर के लहरों के सदृश लहरें निर्मित हो, वह तरङ्गिणी पोतिका होती है । इन लहरों की संख्या चार, छः, आठ, दश या बारह होनी चाहिये । अथवा बहुत सी सम संख्याओं में लहरे होनी चाहिये, जो एक-दूसरे से आगे बढ़ती हुई हो ॥४९-५०॥

मयमत अध्याय १५- स्तम्भविषये विशेषः

पादमर्धं त्रिपादं वा भित्तेः स्तम्भस्य निर्गतम् ।

चतुरष्टास्त्रवृत्तानां यथाक्रममिति स्मृतम् ॥५१॥

स्तम्भ के विषय में विशेष - भित्ति के स्तम्भ का निर्गम इस प्रकार होना चाहिये - यदि चतुष्कोण हो तो चौथाई, अष्टकोण हो तो आधा तथा वृत्ताकार हो तो तीन चौथाई ॥५१॥

द्विहस्ताद्यं चतुर्हस्तं स्तम्भान्तरमिति स्मृतम् ।

षडङ्गुलविवृद्ध्या तु नवभेदं प्रकीर्तितम् ॥५२॥

स्तम्भान्तर दो हाथ से लेकर चार हाथ तक कहा गया है । छः-छः अङ्गुल की वृद्धि करते हुये इसके नौ भेद कहे गये हैं ॥५२॥

गृहीतांशवशेनापि यथायुक्त्या प्रयोजयेत् ।

स्तम्भस्तम्भान्तरं सर्वं प्रासादे सार्वदेशिके ॥५३॥

सभी स्थानों पर सभी भवनों मे यथोचित अंश (उपर्युक्त मापों में से) ग्रहण कर स्तम्भ एवं स्तम्भान्तर में प्रयोग करना चाहिये ॥५३॥

विषमस्तम्भभागं तु वास्तुवस्तुविनाशनम् ।

सायत चापि तत्सर्वं तन्नाम्नैव प्रपद्यते ॥५४॥

यदि स्तम्भ-स्थापन नियमानुकूल न हो तो वह भूमि एवं भवन (तथा उसके स्वामी) का विनाश करने वाला होता है । अनुकूल स्तम्भ-स्थापन कल्याण प्रदान करता है ॥५४॥

दारुस्तम्भविशालं वा सार्धं द्वित्रिगुणं तु वा ।

शिलास्तम्भविशालं स्याद्‍ देवानां नैव मानवे ॥५५॥

जितना विस्तृत काष्ठस्तम्भ होता है, उतना विस्तृत, उसका आधा, दुगुना या तीन गुना विस्तृत प्रस्तरस्तम्भ हो सकता है; किन्तु इसका प्रयोग केवल देवालय में होना चाहिये, मनुष्यालय मे नही होना चाहिये ॥५५॥

इष्टकाश्मद्रुमैः सर्वैः स्तम्भाः प्रोक्ताश्चिरन्तनैः ।

युग्मायुग्मं तु देवानामयुग्मं तु नृणां मतम् ॥५६॥

प्राचीन मनीषियों ने सभी स्तम्भों को ईट, प्रस्तर अथवा काष्ठ से निर्मित कहा है । देवगृहोंमे स्तम्भ की संख्या सम अथवा विषम हो सकती है; किन्तु मनुष्यों के गृह में स्तम्भों की संख्या विषम होनी चाहिये ॥५६॥

अन्तःस्तम्भं बहिःस्तम्भमाजुसूत्रं यथा भवत् ।

गृहाणां भित्तिमध्ये तु शालानां तु तथा भवेत् ॥५७॥

जिस प्रकार आजुसूत्र (मापसूत्र) हो, उसी के अनुसार अन्तःस्तम्भ एवं बहिःस्तम्भ का निर्माण करना चाहिये । उसी के अनुसार गृह की भित्ति के मध्य शालाओं की भी स्थिति होनी चाहिये ॥५७॥

प्रासादानां तु पाद्बाह्ये पान्मध्ये शयनासने ।

उपानादिशिरः केचित्केचित्स्तूप्यन्तमुन्नतम् ॥५८॥

यह माप देवालयों मे स्तम्भ के बाहर से लिया जाता है । (किन्तु) शयन एवं आसन के निर्माण में पाद (पाये = स्तम्भ) के अन्दर से लिया जाता है । (प्रासादों के निर्माण में ऊँचाई का माप) कुछ विद्वानों के अनुसार उपान से शिरःप्रदेश तक माप लेना चाहिये तथा कुछ के मतानुसार मापन कार्य प्रासाद की स्तूपी तक होना चाहिये । ॥५८॥

मुनयः प्रवदन्त्युच्चं प्रासादे सार्वदेशिके ।

पाद्बाह्ये पादमध्ये वा सभामण्डपयोर्मतम् ॥५९॥

सभी स्थानों पर प्रासादों की ऊँचाई का माप इसी प्रकार लेना चाहिये, ऐसा मुनियों का मत है । सभागार एवं मण्डप में स्तम्भों के बाहर से अथवा स्तम्भ के मध्य से माप-सूत्र ले जाना चाहिये ॥५९॥

अन्तर्बहिश्च मध्ये तु सालानां मानसूत्रकम् ।

युञ्जीयादेवमेवं तु सर्वेषां सम्पदां पदम् ॥६०॥

विपरीते विपत्त्यै स्यादिति शास्त्रविनिश्चयः ।

भवनों में मानसूत्र बाहर (भित्ति अथवा स्तम्भ के बाहर) से, भीतर से एवं मध्य से प्रयुक्त होना चाहिये । इस प्रकार का (विविध प्रकार से मानसूत्र का) प्रयोग सभी सम्पदाओं को प्रदान करने वाला होता है । इसके विपरीत (मानसूत्र द्वारा भली-भाँति मापन न करने पर) होने पर गृहस्वामी के लिये विपत्तिकारक होता है, ऐसा शास्त्रों का मत है ॥६०॥

मयमत अध्याय १५- द्रव्यपरिग्रहः

स्तम्भोत्तरादिकाङ्गानां द्रव्यं द्रुमोपलेष्टकाः ॥६१॥

पदार्थों का संग्रह - स्तम्भ एवं उत्तर (स्तम्भ के ऊपर निर्मित भित्ति) आदि अङ्गों में प्रयुक्त होने वाले द्रव्य काष्ठ, प्रस्तर एवं ईटे है ॥६१॥

मयमत अध्याय १५- वृक्षलक्षणम्

स्निग्धसारमहासारा ह्यवृद्धास्तरुणेतराः ।

अवक्रा निर्व्रणाः सर्वे ग्रहीतव्या महीरुहाः ॥६२॥

वृक्ष के लक्षण - (भवनों में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ के गुण-धर्म इस प्रकार है-) स्निग्धसार (ठोस एवं चिकना), महासार (अत्यन्त दृढं) न ही बहुत पुराना तथा न ही अपरिपक्व हो, टेढ़ा न हो तथा वृक्ष में किसी प्रकार का चोट एवं दोष न हो; ऐसा वृक्ष गृहनिर्माण में ग्रहण करने योग्य होता है ॥६२॥

पुण्याद्रिवनतीर्थस्था दर्शनीया मनोरमाः ।

सर्वसम्पत्समृद्ध्यर्था भवेयुस्ते न संशयः ॥६३॥

पवित्र स्थल, पर्वत, वन एवं तीर्थों मे स्थित, देखने में सुन्दर तथा मन को आकृष्ट करने वाले वृक्ष सभी प्रकार की सम्पत्ति एवं समृद्धि प्रदान करने वाले होते है, इसमेम सन्देह नही है ॥६३॥

पुरुषः खदिरः सालो मधूकः चम्पकस्तथा ।

शिंशपार्जुनाजकर्णी क्षीरिणी पञ्चचन्दनौ ॥६४॥

पिशितो धन्वनः पिण्डी सिंहो राजादनः शमी ।

तिलकश्च द्रुमाश्चैते स्तम्भवृक्षाः समीरिताः ॥६५॥

निम्बासनशिरीषाश्च एकः कालश्च कट्‌फलः ।

तिमिसो लिकुचश्चैव पनसः सप्तपर्णकः ॥६६॥

भौमा चैव गवाक्षी चैत्यादयश्चोर्ध्वभूरुहाः ।

स्तम्भ में प्रयोग के योग्य वृक्ष इस प्रकार है - पुरुष, कत्था, साल, महुआ, चम्पक, शीशम, अर्जुन, अजकर्णी, क्षीरिणी, पद्म, चन्दन, पिशित, धन्वन, पिण्डी, सिंह, राजादन, शमी एवं तिलक । इसी प्रकार निम्ब, आसन, शिरीष, एक, काल, कट्‌फल, तिमिस, लिकुच, कटहल, सप्तपर्णक, भौमा एवं गवाक्षी के वृक्ष भी ग्रहण करने योग्य होते है ॥६४-६६॥

मयमत अध्याय १५- शिलालक्षणम्

एकवर्णाः स्थिराः स्निग्धाः सुखसंस्पर्शनान्विताः ॥६७॥

प्राचीनाश्चाप्युदीचीना भूमग्नाः शुभदाः शिलाः ।

शिला के लक्षण - शुभ शिला एक रंग की, दृढ़, (किन्तु छूने पर) चिकनी, छूने पर अच्छी लगने वाली, भूमि में गड़ी होने पर पूर्वमुख अथवा उत्तर की ओर मुख वाली होती है ॥६७॥

मयमत अध्याय १५- इष्टकालक्षणम्

स्त्रीलिङ्गाश्चापि पुँल्लिङ्गा निर्दोषाश्च नपुंसकाः ॥६८॥

सुघनाः समदग्धाश्च सुस्वराश्चेष्टकाः शुभाः ।

स्त्रीलिङ्गाश्चापि पुँल्लिङ्गा भिन्नाश्छिद्रादिवर्जिताः ॥६९॥

ईटो के लक्षण - इष्टकाये स्त्रीलिङ्ग, पुँल्लिङ्ग, एवं नपुंसक लिङ्ग की होती है । इन्हे दोषहीन, घनी (जिसमें मिट्टी खूब दबा कर बैठायी गई हो), आग मे चारो ओर समान रूप से पकी हो, (बजाने पर) सुन्दर स्वर वाली, दरार, टूटन तथा छिद्ररहित होनी चाहिये । (ये लक्षण) स्त्रीलिङ्ग, एवं पुँल्लिङ्ग (दोनो) इष्टकाओं के लिये कहे गये है ॥६८-६९॥

एतैरेवंविधैर्द्रव्यैः कृतं वस्तु समृद्धये ।

धर्मार्थकामसौख्यानां भवेदेवेति निश्चितम्‌ ॥७०॥

इस प्रकार के इन पदार्थो से निर्मित भवन निश्चित रूप से धर्म, अर्थ एवं काम के सुख को प्रदान करने वाला होता है ॥७०॥

मयमत अध्याय १५- वर्ज्याः वृक्षाः

न देवतालयान्तःस्थाः प्रहता वा न विद्युताः ।

न दावानलसंलीढा न भूतालयमध्यगाः ॥७१॥

त्याज्य वृक्ष - गृहनिर्माण में त्याज्य वृक्ष इस प्रकार है - देवालय के निकट स्थित वृक्ष, शस्त्रादि से आहत वृक्ष, आकाशीय बिजली से जला हुआ वृक्ष, वन की अग्नि से जला हुआ तथा प्रेतस्थल पर उगा हुआ वृक्ष (भवन के काष्ठ के लिये) ग्राह्य नही होता है ॥७१॥

न महापतथसंरूढा न तु ग्रामसमुद्भवाः ।

न घटाम्बुभिरासिक्ता न पक्षिमृगसेविताः ॥७२॥

प्रधान मार्ग पर उगा हुआ वृक्ष, ग्राम में उत्पन्न वृक्ष, घट के जल से सिञ्चित वृक्ष तथा पक्षियों एवं पशुओं से सेवित वृक्ष गृहनिर्माण के लिये ग्राह्य नही होता है ॥७२॥

न वायुना न मातङ्गैर्भग्ना नैव गतासवः ।

न चण्डालजनाकीर्णा न सर्वजनसेविताः ॥७३॥

वायु द्वारा तोड़ा गया, गजों द्वारा तोड़ा गया, समाप्त जीवन वाला, चण्डालवर्ग के लोगों को शरण देने वाला तथा जिस वृक्ष के नीचे (चण्डालवर्ग को छोड़ कर) अन्य सभी वर्ग के लोग शरण लेते हो (इस वर्ग के वृक्ष भी भवन के लिये अग्राह्य होते है) ॥७३॥

नान्योन्यवलिता भग्ना न वल्मीकसमाश्रिताः ।

न लतालिङ्गिता गाढा न सिराकोटरावृताः ॥७४॥

दो वृक्ष आपस में लिपटे हुये हो, टूटे हो, दीमक लगे हो, उस वृक्ष से घनी लता लिपट हो तथा उस वृक्ष पर पक्षियों के घोसले हो इस प्रकार के वृक्ष भवन के लिये अग्राह्य होते है ॥७४॥

नाङ्कुरावृतसर्वाङ्गा न भृङ्गकीटदूषिताः ।

नाकालफलिनो ग्राह्या श्मशानसमीपगाः ॥७५॥

जिस वृक्ष के सभी अङ्गो पर अङ्कुर निकले हो, भ्रमरो तथा कीटों से दोषयुक्त, विना समय फलने वाले तथा श्मशान के समीप उगे वृक्ष (गृहनिर्माण के लिये) ग्राह्य नही होते है ॥७५॥

सभाचैत्यसमीपस्था देवादीनां न भूरुहाः ।

वापीकूपतटाकादिवस्तुष्वपि च सम्भवाः ॥७६॥

सभागार एवं चैत्य (ग्राम का पूजनीय स्थल) के समीप तथा देवालय के समीप उगे वृक्ष तथा वापी, कूप एवं तालाब आदि निर्माण-स्थलों पर उगे वृक्ष भी (भवन निर्माण के लिये) ग्राह्य नही होते है ॥७६॥

विनष्टवस्तुसञ्जातद्रव्यं सर्वविपत्करम् ।

तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन शुद्धं द्रव्यं प्रगृह्यताम्‌ ॥७७॥

अग्राह्य वृक्षादि से निर्मित पदार्थ (जब भवन मे प्रयुक्त होते है तो) सभी प्रकर की विपत्तियों के कारक बनते है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुद्ध पदार्थों को ही लेना चाहिये ॥७७॥

शिला देवालये ग्राह्या द्विजावनिपयोर्मताः ।

पाषण्डिनां च कर्तव्या न कुर्यादद्वैश्यशूद्रयोः ॥७८॥

प्रस्तर का प्रयोग देवालय, ब्राह्मण, राजा तथा पाषण्डियों (विधर्मी) के गृह में होना चाहिये; किन्तु वैश्य एवं शूद्र के भवन में नही करना चाहिये ॥७८॥

कर्तव्यं यदि तद्वास्तु धर्मकामार्थनाशकृत् ।

एकद्रव्यकृतं शुद्धं मिश्रं द्विद्रव्यनिर्मितम्‍ ॥७९॥

त्रिद्रव्यसंयुतं यत्तु तत्‍ सङ्कीर्णमुदाह्रतम्

पूर्वोदितानां वासेषु कर्तव्यं सम्पदां पदम् ॥८०॥

यदि उस प्रकार का (वैश्य एवं शूद्र के भवन में शिलाप्रयोग) भवन निर्मित किया गया तो वह धर्म, काम एवं अर्थ का नाश करता है । एक पदार्थ से निर्मित भवन की संज्ञा 'शुद्ध' दो द्रव्य से निर्मित भवन 'मिश्र' तथा तीन द्रव्य-मिश्रित पदार्थ से निर्मित भवन की संज्ञा 'सङ्कीर्ण' होती है । पहले वर्णित नियमों के अनुसार निर्मित भवन सम्पत्ति प्रदान करता है ॥७९-८०॥

मयमत अध्याय १५- वृक्षसंग्रहणम्

सर्वद्वारिकनक्षत्रे शुभपक्षमुहूर्तके ।

गच्छेदरण्यं द्रव्यार्थी कृतकौतुकमङ्गलः ॥८१॥

काष्ठ हेतु वृक्ष का संग्रह - (गृहनिर्माण हेतु काष्ठ के संग्रह के लिये) पदार्थों की कामना रखने वाले (गृहस्वामी) को शुभ कृत्य करके सर्वद्वारिक नक्षत्र में शुभ (शुक्ल) पक्ष में एवं शुभ मुहूर्त मे वन की ओर प्रस्थान करना चाहिये ॥८१॥

निमित्तैः शकुनैर्योग्यैः सह मङ्गलशब्दकैः ।

गन्धैः पुष्पैश्च धूपैश्च मांसेन कृसरेण च ॥८२॥

पायसौदनमत्स्यैश्च भक्षैश्चापि पृथग्विधैः ।

अर्चयेदीप्सितान्‍ सर्वान्‌ वृक्षांश्च वनदेवताः ॥८३॥

अच्छे लक्षणों वाले शकुनों एवं मङ्गलध्वनि के साथ वनदेवताओं एवं सभी अभीष्ट वृक्षों की गन्ध, पुष्प, धूप, मांस, खिचड़ी, दूध, भात, मछली एवं विविध प्रकार की भोज्य सामग्रियों से पूजा करनी चाहिये ॥८२-८३॥

भूतक्रूरबलिं दत्त्वा कर्मयोग्मद्रुमं हरेत् ।

मूलाग्रादार्जवं वृत्तं शाखानेकसमन्वितम् ॥८४॥

(वृक्षों में निवास करने वाले) भूतों (प्रेत, पिशाच, ब्रह्म आदि) के लिये क्रूर बलि (रक्त, मांस आदि) देकर अपने कार्य के अनुकूल वृक्ष का चयन करना चाहिये । ये वृक्ष जड़ से शिरोभाग तक सीधे, गोलाकार एवं अनेक शाखाओं से युक्त होने चाहिये ॥८४॥

तत्तु पुंस्त्वं भवेन्मूले स्थूलं स्त्रीत्वं कृशाग्रकम्‌ ।

स्थूलाग्रं कृशमूलं तु षण्डमेतदुदीरितम्‍ ॥८५॥

उपर्युक्त वृक्ष 'पुरुष' होते है । जो वृक्ष मूल में स्थूल एवं ऊर्ध्व भाग में पतले होते है, वे 'स्त्री' वृक्ष हैं तथा जिनका मूल कृश एवं ऊर्ध्व भाग स्थूल हो, वे वृक्ष 'षण्ड' (नपुंसक) होते है ॥८५॥

मुहूर्तस्तम्भमुद्दिश्य पुम्भूरुह उदीरितः ।

सर्वेष्वङ्गेषु वस्तूनां पुंस्त्रीषण्डं प्रकीर्तितम् ॥८६॥

'मुहूर्तस्तम्भ' (शिलान्यास के स्थान पर स्थापित होने वाला स्तम्भ) पुरुष वृक्ष का होना चाहिये । गृह के अन्य भागों के लिये पुरुष, स्त्री एवं षण्ड तीनों वृक्षों का प्रयोग हो सकता है ॥८६॥

पूर्वाशायां द्रुमस्यास्य स्वपेद्‍ दर्भान्तरे शुचिः ।

स्वप्रदक्षिणपार्श्वे तु संस्थाप्य परशुं सुधीः ॥८७॥

(काष्ठानयन के लिये गये व्यक्ति को) बुद्धिमान एवं पवित्र व्यक्ति (स्थपति) को वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा में कुश बिछा कर एवं अपने दाहिने भाग में परशु रख कर रात्रि में वही शयन करना चाहिये ॥८७॥

पीत्वा शुद्धं पयो रात्रावपराभिमुखोऽपरः ।

स्थपतिर्वरवेषाढ्यो मन्त्रयेत्‍ सपरश्वधः ॥८८॥

इसके पश्चात्‍ रात्रि (शेष रहने पर) शुद्ध जल पीकर पश्चिमाभिमुख होकर सुन्दर वेष धारण कर हाथ में परशु लेकर स्थपति को इस प्रकार मन्त्रपाठ करना चाहिये ॥८८।

अपक्रामन्तु भूतानि देवताश्च सगुह्यकाः ।

युष्मभ्यं तु बलं भूयः सोमो दिशतु पादपाः ॥८९॥

अयं मन्त्रः- इस वृक्ष से भूत-प्रेत, देवता, गुह्यक आदि दूर हो जायँ । हे वृक्षों! आपको सोम देवता बल प्रदान करें ॥८९॥

शिवमस्तु महीपुत्रा! देवताश्च सगुह्यकाः ! ।

कर्मैतत्‍ साधयिष्यामि क्रियतां वासपर्ययः ॥९०॥

हे वृक्षों, देवों एवं उनके साथ गुह्यकों! (हमारा) कल्याण हो । मैं अपना (इन काष्ठों से गृहनिर्माणरूपी) कार्य सिद्ध करना चाहता हूँ । आप दूसरे स्थान पर निवास ग्रहण करें ॥९०॥

एवमुक्त्वा नमस्कृत्य पादपेभ्यो नमः शुचिः ।

दुग्धतैलघृतैः सम्यक्‍ सन्तेज्य परशोर्मुखम् ॥९१॥

इस प्रकार मन्त्र बोल कर पवित्र स्थपति वृक्षों को प्रणाम करके दूध, तेल एवं घी से परशु (फरसा, कुल्हाड़ी) के मुख (धार) को भली)भाँति तेज करे ॥९१॥

उपक्रामेत्तु तं छेत्तुं यथाकामं वनस्पतिम् ।

मूले हस्तं व्यपोह्योर्ध्वे त्रिश्छित्वा तत्र लक्षयेत्‌ ॥९२॥

(परशु को तेज करके) उस अभीष्ट वृक्ष के पास उसे काटने के लिये जाना चाहिये । उस वृक्ष के मूल से एक हाथ छोड़कर तीन बार (परशु द्वारा) छेद कर उसका निरीक्षण करना चाहिये ॥९२॥

वारिस्त्रावो विवृद्ध्यर्थः क्षीरं पुत्रविवर्धनम् ।

शोणितं स्वामिनं हन्याद्वर्जयेत्तं प्रयत्‍नतः ॥९३॥

कटे स्थान से यदि जल बहे तो वह वृक्ष गृहस्वामी को वृद्धि प्रदान करता है । यदि दूध का स्त्राव हो तो पुत्रों की वृद्धि प्रदान करने वाला तथा रक्त का (लाल वर्ण का स्त्राव) स्त्राव गृहस्वामी को मृत्यु प्रदान करने वाला होता है। ऐसे वृक्ष को प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिये ॥९३॥

पतने सिंहशार्दूलहस्तिशब्दाः सुशोभनाः ।

रुदितं हसितं कोशं कूजितं निन्दितं वरैः ॥९४॥

कटे वृक्ष के गिरने के समय यदि सिंह, शार्दूल एवं गज के स्वर सुनाई पड़े तो शुभ होता है । इसके विपरीत विद्वानों ने रोदन, हँसने, आक्रोशपूर्ण एवं गुञ्जन के स्वर को निन्दनीय कहा है ॥९४॥

पातयेदुत्तराग्रं तु पूर्वाग्रं वा वनस्पतिम् ।

ते दिशौ शुभदे स्यातामन्याशासु विपर्यये ॥९५॥

वृक्ष यदि पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर गिरे तो दोनो दिशायें शुभ होती है । अन्य दिशाओं में वृक्ष का पतन विपरीत परिणाम प्रदान करता है ॥९५॥

सालाश्मर्यजकर्णीनामूर्ध्वे तु पतनं शुभम् ।

मूले पृष्ठागमे बन्धुप्रेष्ययोश्च विनाशनम्‍ ॥९६॥

यदि साल, अश्मरी एवं अजकर्णी वृक्षों का ऊर्ध्व भाग गिरे तो शुभ; किन्तु यदि पतन होते समय ऊपरी भाग नीचे एवं पृष्ठ या मूल भाग ऊपर होकर गिरे तो गृहस्वामी के बन्धु-बान्धवों एवं परिचारोंका विनाश होता ॥९६॥

निर्गमत्स्थितिमद्‍ भूत्वा वृक्षान्तरनिपातने ।

शिरःसङ्गेन नाशः स्यान्मूलसङ्गे श्रमो भवेत् ॥९७॥

काटने के पश्चात्‍ अन्य वृक्षो के मध्य गिरता हुआ वृक्ष यदि अन्य वृक्षों के शीर्ष भाग से सहारा पाकर गिरने से रुक जाता है तो गृहस्वामी का विनाश होता है तथा जड़ के सहारे रुकने पर गृहस्वामी के अस्वास्थ्य का कारण बनता है ॥९७॥

शरीरभङ्गं कर्तृणां नाशमग्रेऽप्यपत्यह्रत्‌ ।

अन्योन्यपतनं पूज्यं छेद्यं चोभयतः समम् ॥९८॥

यदि वृक्ष का मध्य भाग टूट जाय तो वृक्ष काटने वाले का नाश होता है तथा शीर्ष भाग के टूटने पर सन्तति का नाश होता है । वृक्षों का एक-दूसरे पर गिरना (एक वृक्ष के ऊपर दूसरे कटे वृक्ष का गिरना) प्रशस्त होता है । वृक्षों के दोनों भागों को बराबर काटना चाहिये ॥९८॥

चतुरस्त्रमृजुं कृत्वा मुहूर्तस्तम्भसंग्रहे ।

सितपट्टेन सञ्छाद्य स्यन्दने न्यस्य वेशयेत् ॥९९॥

(कटे वृक्ष के दोनों छोरों को बराबर काट कर) काष्ठ को चौकोर एवं सीधा बनाना चाहिये तथा उसे मुहूर्तस्तम्भ के लिये ग्रहण करना चाहिये । तत्पश्चात्‍ उस काष्ठ को श्वेत वस्त्र से ढँककर स्यन्दन (रथ, गाड़ी) मे रखना चाहिये ॥९९॥

देवदिजमहीपानां विशां वै शकटेन तु ।

शूद्रस्य पुरुषस्कन्धेनानीयात्तु विचक्षणः ॥१००॥

देवों, ब्राह्मणों, राजाओं एवं वैश्यों का काष्ठ शकट (गाड़ी) द्वारा ले लाया जाना चाहिये तथा बुद्धिमान व्यक्ति को शूद्र के गृह का काष्ठ पुरुष के कन्धों द्वारा ढ़ोकर ले जाना चाहिये ॥१००॥

पार्श्वयोः शाययित्वा तु शकटे न्यस्य वेशयेत् ।

प्रशस्ते द्वारि प्रग्राह्य स्थपत्यनुगतद्रुमम् ॥१०१॥

वृक्षों (काष्ठों) को लिटा कर दोनों पार्श्वों से शकट में रखना चाहिये । स्थपति द्वारा चुने गये वृक्षों को प्रशस्त द्वारा द्वारा (कर्ममण्डप में) प्रवेश कराना चाहिये ॥१०१॥

कर्ममण्डपके न्यस्य बालुकोपरि शाययेत् ।

प्रागग्रं चोत्तराग्रं वाप्याशुष्कं रक्षयेत्‍ पुनः ॥१०२॥

कर्ममण्डप (कार्यशाला) में वृक्षों का प्रवेश कराकर उन्हें बालू पर लिटा देना चाहिये । उनका शीर्ष भाग पूर्व अथवा उत्तर की ओर होना चाहिये । इनके सूखने तक इनकी रक्षा करनी चाहिये ॥१०२॥

परावृत्तं न कर्तव्यमाषण्मासं तु स द्रुमः ।

सर्वेन्द्रकीला एवं स्युः प्रापणीयाः प्रयत्‍नतः ॥१०३॥

अन्येषामपि कुप्यानां वेशने त्वग्रमग्रतः ।

छः मासों तक इन वृक्षों को अपने स्थान से नहीं हिलाना चाहिये । इसी प्रकार सभी इन्द्रकीलों (कीलों) को भी प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना चाहिये। अन्य धातु आदि पदार्थों का संग्रह करके उन्हें भी इसी प्रकार करना चाहिये । ॥१०३॥

मयमत अध्याय १५- मुहूर्त्तस्तम्भः

मुहूर्त्तस्तम्भो देवानां द्विजातीनां यथाक्रमम् ॥१०४॥

कार्तमालश्च खदिरः खादिरश्च मधूककः ।

राजादनो यथासङ्ख्यं विस्तारायाममुच्यते ॥१०५॥

मुहूर्त-स्तम्भ - देवों एवं द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के मुहूर्तस्तम्भ (का काष्ठ) क्रमशः इस प्रकार होता है- कार्तमाल, खदिर, खादिर, मधूक एवं राजादन । इनका विस्तार एवं लम्बाई क्रमशः इस प्रकार वर्णित है ॥१०४-१०५॥

भानुरुद्रदशद्वारवितस्त्यायामसंयुताः ।

तत्सङ्ख्याङ्गुलिविस्तीर्णाः पङ्‍क्त्यंशोनाग्रविस्तराः ॥१०६॥

इनकी ऊँचाई (या लम्बाई) बारह, ग्यारह, दश या नौ वितस्ति (बित्ता) एवं विस्तार भी इतने ही अंगुल का होता है । इसके अग्र भाग (शीर्ष भाग) का विस्तार दश भाग कम होता है ॥१०६॥

भूतसार्धचतुर्वेदगुणतालनिखातकाः ।

भूमिभूमिवशादुक्तं स्तम्भोच्चं विपुलं तु वा ॥१०७॥

झषालाङ्‍घ्रौ तु सर्वत्र निखातं परिवर्जयेत् ।

गर्त में रहने वाले मूल भाग की चौड़ाई पाँच, साढ़े चार, चार या तीन बित्ता होनी चाहिये । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई एवं चौड़ाई भवन के तल के अनुसार रखनी चाहिये । झषालाङ्‌घ्रि स्तम्भ में सभी स्थानों पर गर्त का परित्याग करना चाहिये ॥१०७॥

अश्वत्थोदुम्बरश्चैव प्लक्षश्च वटवृक्षकः ॥१०८॥

सप्तपर्णश्च बिल्वश्च पलाशः कुटजस्तथा ।

पीलुः श्‍लेष्मातकी लोध्रः कदम्बः पारिजातकः ॥१०९॥

शिरीषः कोविदारश्च तिन्त्रीणीको महाद्रुमः ।

शिलीन्ध्रः सर्पमारश्च शाल्मली सरलस्तथा ॥११०॥

किंशुकश्चारिमेदश्चाभयाक्षामलकद्रुमाः ।

कपित्थः कण्टकश्चैव पुत्रजीवश्च डुण्डुकः ॥१११॥

कारस्करः करञ्जश्च वरणश्चाश्वमारकः ।

बदरो वकुलः पिण्डी पद्मकस्तिलकस्तथा ॥११२॥

पाटल्यगरुकर्पूरा न ग्राह्या गृहकर्मणि ।

देवयोग्या इमे सर्वे मानुषाणामनर्थदाः ॥११३॥

तस्मात्‍ सर्वप्रयत्‍नेन गृह्णीयान्न नरालये ।

अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गूलर), प्लक्ष (पाकड़), वट (बरगद), सप्तपर्ण, बिल्व (बेल), पलाश, कुटज, पीलु, श्लेष्मातकी (लिसोढ़ा), लोध्र, कदम्ब, पारिजात, शिरीष, कोविदार (कचनार), तिन्त्रिणी, महाद्रुम, शिलीन्ध्र, सर्पमार, शाल्मली (सेमल), सरल (चीड़), किंशुक, अरिमेद, अभया, अक्ष, आमलकद्रुम, कपित्थ (कैथा), कण्टक, पुत्रजीव, डुण्डुक, कारस्कर, करञ्ज, वरण, अश्वमारक, बदर, बकुल, पिण्डी, पद्मक, तिलक, पाटली, अगरु तथा कपूर के वृक्षों का प्रयोग गृहनिर्माण मे नही करना चाहिये । ये सभी वृक्ष देवों के योग्य है; लेकिन मनुष्यों लिये अनर्थकारक होते है । इसलिये मनुष्यों के गृह-निर्माण के लिये इनको प्रयत्‍नपूर्वक नहीं ग्रहण करना चाहिये अर्थात्‍ इन वृक्षकाष्ठों का परित्याग कर देना चाहिये ।॥१०८-११३॥

मयमत अध्याय १५- इष्टकासंग्रहणम्

ऊषरं पाण्डुरं कृष्णचिक्कणं ताम्रपुल्लकम् ॥११४॥

ईंटों का संग्रह - (मृत्तिका चार प्रकार की होती है-) ऊषर (लोनी, नमकीन), पाण्डुर (सफेद), कृष्ण-चिक्कण (काली और चिकनी) एवं ताम्रपुल्लक (लाल वर्ण की खिली हुई) ॥११४॥

मृदश्चतस्त्रस्तास्वेव गृह्णीयात्ताम्रपुल्लकम् ।

अशर्कराश्ममूलास्थिलोष्टं सतनुवालुकम्‍ ॥११५॥

मृत्तिकायें चार प्रकार की होती है । इनमें ताम्रपुल्लक मृत्तिका इष्टकादि के लिये ग्रहण करने योग्य होती है । इसमें कंकड़, पत्थर, जड़ एवं अस्थि के टुकड़े नही होने चाहिये; साथ ही इसमें महीन बालू होना चाहिये ॥११५॥

एकवर्णं सुखस्पर्शमिष्टं लोष्टेष्टकादिषु ।

मृत्खण्डं पूरयेदग्रे जानुदध्ने जले ततः ॥११६॥

यह मृत्तिका एक रंग की एवं छूने में सुखद होनी चाहिये । लोष्ट (टाइल्स) एवं ईट के निर्माण के लिये (गर्त में) घुटने के बराबर जल में मिट्टी डालनी चाहिये ॥११६॥

आलोड्य मर्दयेत्पद्भ्यां चत्वारिंशत्पुनः पुनः ।

क्षीरद्रुमकदम्बाम्राभयाक्षत्वग्जलैरपि ॥११७॥

मिट्टी एवं पानी को अच्छी तरह से मिलाकर पैरों से चालीस बार उनका मर्दन करना चाहिये । इसके पश्चात्‍ क्षीरद्रुम, कदम्ब, आम, अभया एवं वृक्ष के छाल के जल से एवं त्रिफला के जल से सिञ्चित कर तीस बार मर्दन करना चाहिये अर्थात्‍ पैरों से सानना चाहिये ॥११७॥

त्रिफलाम्बुभिरासिक्त्वा मर्दयेन्मासमात्रकम् ।

चतुष्पञ्चषडष्टाभिर्मात्रैस्तद्‍द्विगुणायताः ॥११८॥

व्यासार्धार्धत्रिभागैकतीव्रा मध्ये परेऽपरे ।

इष्टका बहुशः शोष्याः समदग्धाः पुनश्च ताः ॥११९॥

(उपर्युक्त विधि से तैयार की गई मिट्टी से) चार, पाँच, छः या आठ अङ्गुल चौड़ी, चौड़ाई की दुगुनी लम्बी तथा चौड़ाई की चतुर्थांश, आधा अथवा तीसरे भाग के बराबर मोटी ईटो का निर्माण करना चाहिये । इनकी मोटाई एक छोर से दूसरे छोर तक बराबर होती है । ईटों को पूर्ण रूप से सुखाकर पुनः इन्हें समान रूप से पकाया जाता है ॥११८-११९॥

एकद्वित्रिचतुर्मासमतीत्यैव विचक्षणः ।

जले प्रक्षिप्य यत्‍नेन जलादुद्धृत्य तत्पुनः ।

निरार्द्रास्ताः प्रयोक्तव्या इष्टका इष्टकर्मणि ॥१२०॥

इसके पश्चात्‍ एक, दो, तीन या चार मास बीत जाने पर बुद्धिमान (स्थपति) को ईटों को यत्‍नपूर्वक जल में डाल कर पुनः जल से निकालना चाहिये । जब ईटे सूख जायँ तब इच्छित निर्माणकार्य मे इनका प्रयोग करना चाहिये ॥१२०॥

एवं द्रुमेष्टकशिला विधिना गृहीत्वा

कुर्वन्तु वस्तु विहिता हि वराः समृद्ध्यै ।

यन्निन्दितं त्वपरवस्त्ववशिष्टमाद्यै-

र्द्रव्यं विनष्टभवनप्रभवं विपत्त्यै ॥१२१॥

इस प्रकार विधिपूर्वक वृक्ष (काष्ठ), ईट एवं शिला आदि लेकर भवननिर्माण करना चाहिये । श्रेष्ठ जन ऐसे भवन को समृद्धिदायक कहते है । जो पदार्थ निन्दित है अथवा दूसरे भवन से लिये गये है (पुरने भवन से निकले ईट, काष्ठ आदि), उनसे निर्मित भवन नष्ट हो जाते है तथा (गृहस्वामी के लिये) विपत्ति के कारण बनते है, ऐसा प्राचीन जनों का मत है ॥१२१॥

स्तम्भायामं तारमाकारभेदं

सालङ्कारं भूषणं च क्रमेण ।

युक्त्या युक्तं सम्पदामास्पदं तत्

प्रोक्तं नृणां तैतिलानां मयेह ॥१२२॥

स्तम्भों की लम्बाई, मोटाई एवं आकारों का वर्णन उनके अलङ्कार एवं सज्जासहित क्रमानुसार किया गया है । मनुष्यों एवं देवों के गृह में विधिपूर्वक इनका प्रयोग सम्पत्ति प्रदान करता है, ऐसा मय द्वारा वर्णित है ॥१२२॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे पादप्रमाणद्रव्यपरिग्रहो नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 16 

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