मयमतम् अध्याय १४
मयमतम् अध्याय १४ अधिष्ठान विधान —
इस अध्याय में अधिष्ठान के लिये भूमि तैयार करना, उसका माप, ऊँचाई में अधिष्ठान के विविध अंगों की
योजना के अनुसार पादबन्ध, उरगबन्ध, प्रतिक्रम,
पद्मकेसर, पुष्पपुष्कल, श्रीबन्ध,
मञ्चबन्ध, प्रतिबन्ध तथा कलशाधिष्ठान-योजना का
वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अधिष्ठान के सामान्य लक्षण, उसके पर्याय, निर्गम-मान तथा प्रतिच्छेदविधि का भी
वर्णन किया गया है।
मयमतम् अध्याय १४
Mayamatam chapter 14
मयमतम् चतुर्दशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १४- अधिष्ठानविधानम्
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
तैतिलानां द्विजातीनां वर्णानां
गृहकर्मणि ।
तद्योग्यं द्विविधं वस्तु
जाङ्गलानूपभेदतः ॥१॥
अधिष्ठान का निर्माण - देवों,
ब्राह्मणों एवं अन्य वर्ण वालों के गृह-निर्माण के अनुरूप दो प्रकार
की भूमि-जाङ्गल (सूखी) एवं अनूप (स्निग्ध) होती है ।॥१॥
घनशर्करया युक्तमत्यन्तं खनने खरम्
।
सितांशतनुतोयाढ्यं जाङ्गलं भूतलं
भवेत् ॥२॥
जाङ्गल भूमि अत्यन्त कंकरीली होती
है एवं खोदने में कड़ी होती है । इसमें खुदाई के पश्चात् अत्यन्त स्वच्छ,
चन्द्रमा के सदृश जल प्राप्त होता है ॥२॥
खननं क्रियमाणस्य वस्तुनश्च बलं यथा
।
रूढोत्पलकृशेर्वारुसंयुक्तं
तनुवालुकम् ॥३॥
भवन की योजना के अनुरूप खुदाई करने
पर न्ल कमल एवं ककड़ी से युक्त महीन बालू प्राप्त होते है । ऐसी भूमि को अनूप कहते
है । इसमें खुदाई करते ही जल दिखाई पड़ने लगता है ॥३॥
अनूपमिति विख्यातं खात्वैव
जलदर्शनम् ।
इष्टकोपलमृद्भिश्च वालुकैरपि
चिक्कणेः ॥४॥
शर्कराभिः क्रमाच्छ्वभ्रं
निश्छिद्रं पूरयेत् स्थिरम् ।
घनीकृत्येभपादैश्च
काष्ठखण्डेर्बृहत्तरैः ॥५॥
(जलदर्शन के पश्चात् ) गड्ढे को ईंटो,
प्रस्तर, मिट्टी, चिकने
बालू एवं कङ्कड़ से भरना चाहिये । इन्हे इस प्रकार भरना चाहिये, जिससे कि खोदा गया गड्ढा छेदरहित एवं दृढ़ हो जाय । इसे गजपाद से एवं बड़े
काष्ठखण्डों से (कूट-पीट कर) सघन बना देना चाहिये ॥४-५॥
तत्खाते सलिलेनैव पूरितेऽक्षयता
शुभा ।
समत्वंसलिलेनैव साधयित्वा विचक्षणः
॥६॥
उस गर्त को (कङ्कड़ आदि से भरने के
बाद शेष बचे गड्ढे को) जल से भरना चाहिये । जल के क्षीण न होने पर शुभ होता है ।
बुद्धिमान् (स्थपति) को जल से ही भूमि के समान होने (समतल होने) की परीक्षा करने
के पश्चात् गर्त में गर्भ-न्यास करना चाहिये । इसके पश्चात् नियमपूर्वक
वास्तु-होम करना चाहिये ॥६॥
गर्भं प्रक्षिप्य तं नीत्या होमं
तत्र निधापयेत् ।
स्तम्भद्वित्रिगुणयासं तदर्धं
बहलान्वितम् ॥७॥
उपानोपरि पद्मं चोपोपानं च
तदूर्ध्वतः ।
यथाशोभंशमानेन कुर्यात्तत्र
विचक्षणः ॥८॥
उस स्थान पर स्तम्भ का दुगुना या
तीन गुना व्यास वाला एवं उसका आधा मोटाई वाला बहल से युक्त उपान स्थापित करना
चाहिये । उसके ऊपर बुद्धिमान (स्थपति) को उपान के अनुरूप प्रमाण का पद्म तथा
उपोपान निर्मित करना चाहिये ॥७-८॥
उन्नतां प्रकृतिं भूमिं कृत्वा
हस्तप्रमाणतः ।
घनीकृत्य तदूर्ध्वस्थमुपानं जन्म
चोच्यते ॥९॥
भूमि को एक हाथ के प्रमाण से ऊँचा
बनाकर एवं सघन कर उसके ऊपर जिस उपान को स्थापित किया जात है,
उसे जन्म कहते है ॥९॥
तदूर्ध्वस्थमधिष्ठानं सोपपीठं तु
केवलम् ।
सस्तम्भं वा सकुड्यं वा जङ्घावर्गं
तदूर्ध्वगम् ॥१०॥
उसके ऊपर उपपीठ से युक्त अधिष्ठान
स्थापित करना चाहिये एवं उसके ऊपर स्तम्भ, भित्ति
अथवा जङ्घा निर्मित होनी चाहिये ॥१०॥
भूमिदेश इति ख्याता कपोतोर्ध्वगता
प्रतिः ।
प्रासादादीनि वास्तूनि
चाधितिष्ठन्ति यद्धि तत् ॥११॥
जिस पर प्रासाद आदि भवन स्थित रहते
है एवं जिससे कपोत (भवन का एक भाग) के ऊपर प्रति (भवन का अङ्ग) निर्मित होता है,
उसे भूमिदेश कहते है ॥११॥
मयमत अध्याय १४-
अधिष्ठानोन्मानम्
अधिष्ठानं तदुन्मानं जातिभूमिवशाद्
द्विधा ।
तैतिलानां चतुर्हस्तं त्रिहस्तार्धं
द्विजन्मनाम् ॥१२॥
अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण -
अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण भूमि (तल) के एवं जाति के अनुसार दो प्रकार का होता
है । देवालय में यह चार हाथ का एवं ब्राह्मणगृह में साढ़े तीन हाथ का होता है ॥१२॥
नृपाणां त्रिकरं सार्धद्विहस्तं
यौवराजकम् ।
द्विहस्तं वणिजामेकहस्तं शूद्रस्य
कीर्त्यते ॥१३॥
राजा के भवन में तीन हाथ,
युवराज के भवन में ढ़ाई हाथ, वेश्यों के भवन
में दो हाथ एवं शूद्र के भवन में एक हाथ का अधिष्ठान कहा गया है ॥१३॥
एतज्जातिवशाद् भूमिवशादत्रैव
कथ्यते ।
दण्डात् षण्मात्रहान्या तु
द्वादशाद्यात्त्रिभूमिकम् ॥१४॥
अधिष्ठान की ऊँचाई का यह प्रमाण
जाति के अनुसार वर्णित है । भूमि (तल) के अनुसार अधिष्ठान का माप इस प्रकार है -
बारह भूमि से प्रारम्भ कर छः-छः अंश प्रत्येक भूमि के कम करते हुये तीन
भूमिपर्यन्त भवन में अधिष्ठान (की ऊँचाई) एक दण्ड होना चाहिये ॥१४॥
त्रितलस्योत्तमस्येष्टं पादेनोनं
द्विहस्तकम् ।
क्षुद्राणामनया नीत्या विधातव्यं
विचक्षणैः ॥१५॥
तीन तल के भवन में उत्तम अधिष्ठान
प्रशस्त होता है । उसका माप चतुर्थांश कम दो हाथ होता है । इससे छोटे अधिष्ठान का
प्रयोग छोटे भवनों में विद्वानों द्वारा वर्णित नीति के अनुसार करना चाहिये ॥१५॥
तत्तत्पादोदयार्धे षडष्टांशोनमानतः
।
अधिष्ठानस्य चोत्सेधं वास्तुवस्तुनि
भूवशात् ॥१६॥
यह मान भवन के स्तम्भ के आधे प्रमाण
से छः या आठ भाग कम होना चाहिये । अधिष्ठान की ऊँचाई का प्रमाण भवन के तल के
अनुसार रखना चाहिये ॥१६॥
यदुपानस्य निष्क्रान्तं तत्
त्र्यंशेन विभाजयेत् ।
त्यक्त्वैकांशं बहिस्तत्र जगतीं
कारयेद् बुधः ॥१७॥
उपान के निष्क्रान्त के तीन भाग
करने चाहिये । उसके एक भाग को छोड़ कर जगती (अधिष्ठान) का निर्माण करना चाहिये ॥१७॥
तद्वत् कुमुदपट्टं च तद्वत् कण्ठस्य
वेशनम् ।
आत्तोत्सेधांशमानं तु भागमानेन
वक्ष्यते ॥१८॥
इसी प्रकार कुमुदपट्ट एवं कण्ठ का
भी निर्माण करना चाहिये । इस प्रकार अधिष्ठान की ऊँचाई पर्यन्त प्रत्येक भाग का
प्रमाण वर्णित है ॥१८॥
अष्टसप्तशशिबन्धभागिकश्चन्द्रबन्धशशिभागिकैः
क्रमात् ।
वप्रकं कुमुदकम्पकन्धरं
कम्पवाजनमधोर्ध्वकम्पकम् ॥१९॥
पादबन्ध अधिष्ठान - पादबन्ध के
भागों के नाम एवं प्रमाण इस प्रकार है - वप्र आठ भाग,
कुमुद सात भाग, कम्प एक भाग, कन्धर तीन भाग, कम्प एक भाग, वाजन
तीन भाग तथा एक भाग मे अधोकम्प एवं ऊर्ध्वकम्प ॥१९॥
पादबन्धमुदितं तदुच्छ्रये
भानुभिर्द्विगुणितांशके कृते ।
देवविप्रनृपवैश्यशूद्रकेष्वेवमुक्तमृषिभिः
पुरातनैः ॥२०॥
इस प्रकार ऊँचई में चौबीस भागों में
बाँटे गये पादबन्ध का वर्णन प्राचीन ऋषियों द्वारा किया गया है,
जो देवों, ब्राह्मणों, राजाओं
(ऋषियों) वैश्यों एवं शूद्रों के भवन के अनुकूल है ॥२०॥
मयमत अध्याय १४-
उरगबन्धम्
चन्द्रदृक्शशिशिवांशकै
रसैर्धातुभिश्च समभागिकैः क्रमात् ।
वाजनं प्रतिमुखं त्रियस्त्रकं दृक्
च व्रुत्तक्मुदं तु वप्रकम् ॥२१॥
त्रिःषडंशसमभागिके तले
नागवक्त्रसदृशं प्रतिद्वयम् ।
देवविप्रनृपमन्दिरेषु तद्योग्यकं
ह्युरगबन्धकं भवेत् ॥२२॥
उरगबन्ध अधिष्ठान - ऊँचाई में
अट्ठारह बागों में विभाजित उरगबन्ध अधिष्ठान, के
दो प्रति नाग-मुख के सदृश होते है । इसमें वाजन एक बाग, प्रतिमुख
दो बाग, त्रियस्त्रक एक बाग, दृक् तीन
भाग, वृत्तकुमुद चः भाग एवं वप्रक पाँच भाग से निर्मित होता
है । यह देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के भवनों के योग्य
होता है ॥२१-२२॥
मयमत अध्याय १४-
प्रतिक्रमम्
अंशाध्यर्धार्धभागैर्मुनिरसशशिभिश्चन्द्रदृक्च्छैवभागैः
क्षुद्रोपानाब्जकम्पं जगतिकुमुदकं
धारया युक्तमूर्ध्वे ।
आलिङ्गान्तादिकं तत्प्रतिमुखमथ
तद्वाजनं पद्मयुक्तं
त्रिःसप्तांशे तलोच्चे
करिहरिमकरव्यालरूपादिभूष्यम् ॥२३॥
प्रतिक्रम अधिष्ठान - प्रतिक्रम
अधिष्ठान की ऊँचाई के इक्कीस भाग करने चाहिये । एक भाग से क्षुद्रोपान,
डेढ़ भाग से अब्ज, आधे भाग से कम्प, सात भाग से जगती, छः भाग से धारायुक्त कुमुद,
एक भाग से आलिङ्गान्त, एक भाग से आलिङ्गादि,
दो भाग से प्रतिमुख एवं एक भाग से पद्मयुक्त वाजन का निर्माण करना
चाहिये । अधिष्ठान पर गज, सिंह, मकर
एवं व्याल आदि का आभूषण के रूप में अंकन करना चाहिये ॥२३॥
प्रतिक्रमं तत् सुरमन्दिरोचितं
विचित्रितं पत्रलतादिरूपकैः ।
द्विजन्मभूमीश्वरयोर्मतं गृहे
शुभप्रभं पुष्टिकरं जयावहम् ॥२४॥
इस प्रकार सुसज्जित प्रतिक्रम
अधिष्ठान देवालय के लिये प्रशस्त होता है । जब इस पर पत्र एवं लतादिकों का अंकन
किया जाता है, तब वह ब्राह्मण एवं राजाओं के
गृह के अनुरूप होता है; साथ ही उन्हे शुभ, समृद्धि तथा विजय प्रदान करता है ॥२४॥
मयमत अध्याय १४-
पद्मकेसरम्
एकद्व्येकेन षड्भिः
शशिशिवशशिभिर्वेदचन्द्रैकभागै-
र्द्व्यंशैकेनांशनेत्रैः
शिवशशिसमभागेन जन्माब्जकं च ।
वप्रं पद्मं गलाब्जं कुमुदमुपरि
पद्मं च कम्पं गलं तत्
कम्पं पद्मं च पट्टीकमलमुपरिकम्पं च
षड्विंशदंशे ॥२५॥
पद्मकेसर अधिष्ठान - पद्मकेसर
अधिष्ठान के छब्बीस भाग (ऊँचाई में) किये जाते है । इसमें जन्म एक भाग,
अब्जक दो भाग, वप्र एक भाग, पद्म छः भाग, गल एक भाग, अब्ज
एक भाग, कुमुद एक भाग, पद्म चार भाग,
कम्प एक भाग, गल एक भाग, कम्प दो भाग, पद्म एक भाग, पटी
दो भाग, कमल एक भाग एवं कम्प एक भाग होता है ॥२५॥
पद्मकेसरमेतदुदाह्रतं
कम्पवाजनपङ्कजकैर्युतम् ।
कुम्भवप्रयुतञ्च सकन्धरं शम्भुधामनि
तत्प्रविधीयते ॥२६॥
यह अधिष्ठान पद्मकेसर है । इस
पद्मकेसर अधिष्ठान में कम्पवाजन, पङ्कज,
कुम्भ, वप्र और कन्धर जब युक्त होता है तो यह
शम्भु-मन्दिर के अनुकूल हो जाता है ॥२६॥
मयमत अध्याय १४-
पुष्पपुष्कलम्
भागेष्वेकार्धकार्धैस्तदुपरि
चतुरंशैस्तथार्धांशकार्धै-
र्द्वयर्धांशार्धद्विभागैस्तदुपरि च
तथार्धांशकार्धेन जन्मम् ।
वप्रं कञ्जं गलाब्जं तदुपरि कुमुदं
पङ्कजं कम्पकण्ठं
कम्पं पद्मं महावाजनमुपरिदलं कम्पकं
पङ्कजाढ्यम् ॥२७॥
पुश्पपुष्कलमेतदुदाह्रतं कल्पितं
नवपङ्क्तिभिरुच्छ्रये ।
शिल्पिभिः प्रसररपि
पूजितामूर्ध्वमध्यममुखे विमानके ॥२८॥
पुष्पपुष्पक अधिष्ठान -
पुष्पपुष्पकल अधिष्ठान की ऊँचाई को उन्नीस भागों में बाँटना चाहिये । इसमें एक भाग
से जन्म,
पाँच से विप्र, एक से कञ्ज, आधे से गल, आधे से अब्ज, चार
से कुमुद, आधे से पङ्कज, आधे से कम्प,
दो से कण्ठ, आधे से कम्प, आधे से पद्म, दो से महावाजन, आधे
से दल तथा आधे से पङ्कजयुक्त कम्प निर्मित होते है । इस प्रकर अनेक पद्म-पुष्पों
से युक्त अधिष्ठान पुष्पपुष्पकल कहलाता है । शिल्पियों के अनुसार यह अधिष्ठान
मध्यम एवं बड़े विमानों (मन्दिरो) के अधिक अनुकूल होता है ॥२७-२८॥
मयमत अध्याय १४-
श्रीबन्धम्
द्वाभ्यामेकेन
सप्तांशकशशिशिववेदैकचन्द्राग्निभागै-
रेकेनैकेन वेदैः शिवशशिनयनैकेन
मोहामराब्जम् ।
ह्रत्पद्मं कैरवाब्जं गलधरगलकम्पं
तद्वाजनं पङ्कजाढ्यम् ॥२९॥
श्रीबन्धं स्यादेतदुच्चे
चतुर्वस्वंशे कुर्याच्छान्तधीर्वर्धकिस्तत् ।
देवेशानं मन्दिरेष्वेवमुक्तं
श्रीसौभाग्यरोग्यभोग्यं ददाति ॥३०॥
श्रीबन्ध अधिष्ठान - श्रीबन्ध
अधिष्ठान की ऊँचाई के बत्तीस भाग किये जाते है । इसमे दो भाग से अधिष्ठान का निचला
भाग,
एक से अब्ज, सात से ह्रत्, एक से पद्म, एक से कैरव, चार
से अब्ज, एक से गल, एक से अधर, तीन से गल, एक से कम्प, एक से
दल, चार से कपोत, एक से आलिङ्गादि,
एक से आलिङ्गान्त, दो से प्रतिमुख एवं एक से
पङ्कजयुक्त वाजन निर्मित होते है । इसकी स्थापना कुशल वर्धकि द्वारा करानी चाहिये
। यह अधिष्ठान देवालयों एवं राजभवनों के लिये अनुकूल होता है तथा श्री, सौभाग्य, आरोग्य एवं भोग प्रदान करता है ॥२९-३०॥
मयमत अध्याय १४-
मञ्चबन्धम्
तुङ्गे षड्विंशदंशे खुरमथ
जगतिकैरवं कम्पकण्ठं
कम्पं पद्मं कपोतं तदुपरि च तथा
निम्नमन्तादिवक्त्रम् ।
कम्पं भागेन षड्भिः
शरशशिगुणचन्द्रैकबन्धांशकांशै-
र्द्वाभ्यामेकेन
कुर्यादमरनरपतेर्मन्दिरे मञ्चबन्धम् ॥३१॥
मञ्चबन्ध अधिष्ठान - मञ्चबन्ध
अधिष्ठान की ऊँचाई के छब्बीस भाग करने चाहिये । एक भाग से खुर,
छः से जगती, पाँच से कैरव, एक से कम्प, तीन से कण्ठ, एक
से कम्प, एक से पद्म, तीन से कपोत,
एक-एक भाग से ऊपर-नीचे के सदृश निर्माण, एक-एक
भाग से अन्तवक्त्र एवं आदिवक्त्र तथा एक भाग से कम्प निर्मित होना चाहिये । यह
अधिष्ठान राजगृह के अनुकूल होता है ॥३१॥
मयमत अध्याय १४-
श्रीकान्तम्
आलिङ्गयुक्तमथ चान्तरितप्रतीभ्यां
तद्वाजनेन च वियुक्तकमेतदेव ।
श्रीकान्तनामकमसूरकमष्टकोणं
वृत्तं तु वा कुमुदमम्बरमार्गिणां
तत् ॥३२॥
श्रीकान्त अधिष्ठान - जब अधिष्ठान
आलिङ्ग एवं अन्तरित प्रति से युक्त हो एवं वाजन से रहित हो तो उसे श्रीकान्त कहते
है । इसका कुमुद अष्टकोण अथवा वृत्ताकार हो सकता है एवं यह अम्बरामार्गियों के
अनुकूल होता है ॥३२॥
मयमत अध्याय १४-
श्रेणीबन्धम्
एकद्व्येकर्तुवेदैः
शशिनयनशिवद्व्येकदृकचन्द्रसार्धा-
र्धांशैर्जन्माब्जकम्पं जगतिकुमुदकं
कम्पकण्ठं च कम्पम् ।
पद्मं पट्टं च कण्ठं तदुपरि च तथा
वाजनाब्जं च पट्टं
श्रेणीबन्धं सुराणामुदितमिदमलं
तुङ्गषड्विंशदंशे ॥३३॥
श्रेणीबन्ध अधिष्ठान - देवालयों के
अनुकूल श्रेणीबन्ध संज्ञक अधिष्ठान ऊँचाई में छब्बीस भागों में बाँटा जाता है ।
इसमें एक भाग से जन्म, दो से अब्ज,
एक से कम्प, छः से जगती, चार से कुमुद, एक से कम्प, दो
से कण्ठ, एक से कम्प, दो से पद्म,
एक से पट्ट, दो से कण्ठ, एक से वाजन, डेढ़ से अब्ज एवं एक से पट्ट निर्मित
होता है ॥३३॥
मयमत अध्याय १४-
पद्मबन्धम्
सार्धार्हेष्वंशकांशैर्गुणशशिशिवचन्द्रद्विकैकेन
जन्म-
क्षुद्रं पद्मं धृगब्जं कुमुदमुपरि
पद्मं तथालिङ्गमूर्ध्वे ।
आलिङ्गान्तः प्रतिर्वाजनमथ मतिमान्
योजयेत् त्रिःषडंशे
तुङ्गे
देवेश्वराणामिदमुदितमगारेऽनघं पद्मबन्धम् ॥३४॥
पद्मबन्ध अधिष्ठान - पद्मबन्ध
अधिष्ठान की ऊँचाई को अट्ठारह भागों में बाँटना चाहिये । डेढ़ भाग से जन्म,
आधे भाग से क्षुद्र, पाँच से पद्म, एक से धृक्, तीन से अब्ज, एक
से कुमुद, एक से पद्म, एक से आलिङ्ग,
एक से आलिङ्गात, दो से प्रति एवं एक से वाजन
निर्मित होता है । इस अधिष्ठान को विना किसी दोष के प्रधान देवों के मन्दिर में
निर्मित करना चाहिये ॥३४॥
मयमत अध्याय १४-
वप्रबन्धम्
द्व्येकैकंशैः
शरांशैर्युगशशिशिवदृक् चन्द्रशैवाश्विनीभि-
र्भागेनोपानकञ्जं तदुपरि च तथा
कम्पवप्रं च कुम्भम् ।
पद्मं पट्टं च कण्ठं तदुपरि च तथा
कम्पपद्मं च पट्टी-
पट्टं तद्वप्रबन्धं तदपि च सहितं
सद्विकैर्विंशदंशैः ॥३५॥
वप्रबन्ध अधिष्ठान - वप्रबन्ध
अधिष्ठान की ऊँचाई को बाईस भागों में बाँटा जाता है । इसमें दो भाग से उपान,
एक से कञ्ज, एक से कम्प, पाँच से वप्र, चार से कुम्भ, एक
से पद्म, एक से पट्ट, दो से कण्ठ,
एक से कम्प, एक से पद्म, दो से पट्टी तथा एक से पट्ट निर्मित होता है । इसे वप्रबन्ध अधिष्ठान कहते
है ॥३५॥
मयमत अध्याय १४-
कपोतबन्धम्
तदेव वृत्तं कुमुदं तु वाजने
कपोतयुक्तं हि कपोतबन्धकम् ।
कपोतबन्ध अधिष्ठान - वाजन पर जब
कुमुद वृत्ताकार हो एवं कपोत निर्मित तो उसे कपोतबन्ध अधिष्ठान कहते है ।
मयमत अध्याय १४-
प्रतिबन्धम्
तदेव वेदैः प्रतिवाजनं
प्रतिस्त्रिकास्त्रयुक्तं प्रतिबन्धमुच्यते ॥३६॥
प्रतिबन्ध अधिष्ठान - जब प्रति एवं
वाजन चार भाग में निर्मित हो एवं प्रति त्रिकारस्त्रयुक्त (तीन कोणों वाला) हो तो
उसे प्रतिबन्ध अधिष्ठान कहते है ॥३६॥
मयमत अध्याय १४-
कलशाधिष्ठानम्
एकद्व्येकाग्निभागैः
शशियुगल्शिवद्व्येकचन्द्रेशदृग्भि-
श्चन्द्रैकैकाक्षिचन्द्रैः
खुरकमलमथो कम्पकण्ठं च कम्पम् ।
पद्मं पट्टाब्जनिम्नं कमलमुपरि
कुम्भं दलं निम्नमन्ताद्
या स्याच्चोर्ध्वे पतिर्वजनमथ
कलशाख्येन भागास्त्रिरष्टौ ॥३७॥
कलश अधिष्ठान - इस अधिष्ठान को
ऊँचाई में चौबीस भागों में बाँटा जाता है । इसमें एक भाग से खुर,
दो से कमल, एक से कम्प, तीन
से कण्ठ, एक से कम्प, दो से पद्म,
एक से पट्ट, दो से अब्ज, एक से निम्न, दो से प्रति एवं एक से वाजन निर्मित
होता है । इसे कलश अधिष्ठान कहते है ॥३७॥
मयमत अध्याय १४-
अधिष्ठानसामान्यलक्षणम्
एतानि भेदैस्तु चतुर्दशैव
प्रोक्तानि तज्ज्ञैस्तु मसूरकाणि ।
सर्वाणि नास्यङ्घ्रियुतानि
युक्त्यादृढीकृताङ्गानि मयोदितानि ॥३८॥
अधिष्ठान के सामान्य लक्षण - इस
प्रकार चौदह प्रकार के अधिष्ठानो का लक्षणसहित वर्णन विद्वानों द्वारा किया गया है
। सभी को छोटे पादों एव सजावटी खिड़कियों से युक्त करना चाहिये । इनके सभी अङ्गों
को,
जिनका वर्णन ऋषि मय ने किया है, दृढ़ता पूर्वक
स्थापित करना चाहिये ॥३८॥
भागेनार्धत्रिपादाङ्घ्रिभिरथ
युगलाध्यर्धचन्द्रार्धपादै-
र्मात्रैर्वृद्धिश्च
हानिर्दृढतरमतिना योजितव्या बलार्थम् ।
शोभार्थं
भागमङ्गप्रतिवरसमनीचाल्पहर्म्ये तलाना-
मेवं प्रोक्तं
यमीन्द्रैरविकलमतिभिस्तन्त्रविद्भिः पुराणै ॥३९॥
अधिष्ठान को अधिक दृढ़ बनाने के लिये
बुद्धिमान (स्थपति) को एक भाग या आधा, त्रिपद(पौन
भाग) या चतुर्थांश, डेढ़ भाग अथवा एक भाग का चतुर्थांश जोड़ना
या घटाना चाहिये । इस माप का निर्णय भवन के अनुसार उसके उत्तम (बड़ा), मध्यम अथवा छोटे आकार के अनुसार करना चाहिये । यह भवन की शोभा के लिये होता
है । यह मत संयमी, निर्मल बुद्धी, तन्त्र
एवं पुराण के ज्ञाता विद्वानों का है ॥३९॥
मयमत अध्याय १४-
अधिष्ठानपर्यायनामानि
मसूरकमधिष्ठानं वस्त्वाधारं धरातलम्
।
तलं कुट्टिममाद्यङ्गं पर्ययवचनानि
हि ॥४०॥
अधिष्ठान के पर्यायवाची शब्द -
मसूरक,
अधिष्ठान वास्त्वाधार, धरातल, तल, कुट्टिम अथा आद्यङ्ग अधिष्ठान के पर्यायवाची है
॥४०॥
मयमत अध्याय १४-
निर्गममानम्
यावज्जगतिनिष्क्रान्तं तावत्
कुमुदनिर्गमम् ।
अम्बुजानां तु
सर्वेषामुत्सेधसमनिर्गमम् ॥४१॥
निर्गम का प्रमाण - जितना जगती का
निष्क्रान्त निर्मित हो, उतना ही कुमुद का
निर्गम निर्मित करना चाहिये । सभी अम्बुजों की ऊँचाई निर्गम के बराबर रखनी चाहिये
॥४१॥
दलाग्रतीव्रमुत्सेधात् पादं
पादार्धमेव वा ।
वेत्राणामपि सर्वेषां
चतुर्भागैकनिर्गमम् ॥४२॥
दल (पत्तियों की पंक्ति) के अग्र
भाग पंक्ति की ऊँचाई का चतुर्थांश या चतुर्थांश का आधा होना चाहिये । सभी वेत्रों
का निर्गम चौथाई होना चाहिये ॥४२॥
तत्समं वा त्रिपादं वा
महावाजननिर्गमम् ।
एवं तीव्रक्रमं प्रोक्तं
शोभाबलवशात्तु वा ॥४३॥
प्रवेशनिर्गमं कुर्यात्
सर्वाङ्गानां मसूरके ।
महावाजन का निर्गम उसके बराबर आथवा
तीन चौथाई होना चाहिये । शोभा एवं बल के अनुसार अधिष्ठान के सभी भागों का प्रवेश
एवं निर्गम रखना चाहिये ॥४३॥
मयमत अध्याय १४-
अधिष्ठानप्रतिच्छेदविधिः
प्रतिच्छेदं न कर्तव्यं सर्वत्रैवं
विचक्षणैः ॥४४॥
द्वारार्थं यत् प्रतिच्छेदं सम्पद्द्वारं
च नेत्यलम् ।
पादबन्धमधिष्ठानं छेदनीयं यथोचितम्
॥४५॥
अधिष्ठान में खण्ड करने की विधि -
बुद्धिमान (स्थपति) को अधिष्ठान में कहीं भी प्रतिच्छेद (खण्ड) नहीं करना चाहिये ।
द्वार के लिये किया गया प्रतिच्छेद सम्पत्तिकारक नही होता है । पादबन्ध एवं
अधिष्ठान में आवश्यकतानुसार प्रतिच्छेद करना चाहिये ॥४४-४५॥
जन्मादिपञ्चवर्गे तु
तत्तत्तुङ्गावसानके ।
सपटिकाङ्गेऽधिष्ठानेऽप्यन्यस्मिन्नेवमूह्यताम्
।
यद् यत्रैवोचितं प्राज्ञास्तत्
तत्रैव प्रयोजयेत् ॥४६॥
जन्म आदि पाँच वर्गोंमे उनकी ऊँचाई
के अन्त में, सपट्टिकाङ्ग में, अधिष्ठान में एवं अन्य अङ्गो में प्रतिच्छेद हो सकता है । जहाँ-जहाँ उचित
हो, बुद्धिमान (स्थपति) को वहाँ प्रयोग करना चाहिये ॥४६॥
स्तम्भोच्चार्धं वा मसूरोच्चमानं
तत् षट्सप्ताष्टांशकं भागहीनम् ।
वस्त्वाधारोच्चं भवेत्
सर्ववस्तुष्वेवं पूर्वं शम्भुना सम्यगुक्तम् ॥४७॥
अधिष्ठान की ऊँचाई स्तम्भ के ऊँचाई
की आधी,
छः, सात या आठ भाग कम होनी चाहिये । अधिष्ठान
की ऊँचाई सभी भवनों में उनके अनुसार रखनी चाहिये । इस मत का प्रतिपादन शम्भु ने
अच्छी प्रकार से किया है ॥४७॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे अधिष्ठानविधानो नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 15
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