मयमतम् अध्याय १३
मयमतम् अध्याय १३ उपपीठ विधान —
भवन के निर्माण में उपपीठ ( कुर्सी) का निर्माण उसकी ऊँचाई, शोभा एवं रक्षा हेतु होता है। इसके ऊपर अधिष्ठान आदि स्थापित होते हैं।
इनके वेदिभद्र, प्रतिभद्र तथा सुभद्रभेद लक्षणसहित विस्तार
से वर्णित है ।
मयमतम् अध्याय १३
Mayamatam chapter 13
मयमतम् त्रयोदशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १३- उपपीठ विन्यास
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
उपपीठविधानम्
अधिष्ठानस्य चाधस्तादुपपीठं
प्रयोजयेत् ।
रक्षार्थमुन्नतार्थं च शोभार्थं तत्
प्रवक्ष्यते ॥१॥
उपपीठ का निर्माण अधिष्ठान के नीचे
होता है । यह भवन की रक्षा, ऊँचाई एवं शोभा के
लिये होता है ॥१॥
समं त्रिपादमर्धं वा पञ्चांशद्द्व्यंशमेव
वा ।
सपादं वाऽथ सार्धं वा पादोनद्विगुणं
तु वा ॥२॥
उपपीठ का प्रमाण अधिष्ठान के बराबर
(ऊँचाई),
तीन चौथाई, आधा, पाँच
भाग में से दो भाग के बराबर, सवा भाग, डेढ़
भाग अथवा दुगुने से चतुर्थांश कम होना चाहिये ॥२॥
द्विगुणं वा
प्रकर्तव्यमात्ताधिष्ठानतुङ्गतः ।
उत्सेधे दशभागे तु एकेनैकेन
वर्धनात् ॥३॥
अथवा उपपीठ को अधिष्ठान की ऊँचाई का
दुगुना रखना चाहिये । ऊँचाई के दस भाग करने चाहिये तथा एक-एक भाग की वृद्धि करनी
चाहिये ॥३॥
पञ्चांशान्तमधिष्ठानजन्माद् बाह्ये
तु निर्गमम् ।
दण्डं वा सार्धदण्डं वा द्विदण्डं
वा त्रिदण्डकम् ॥४॥
(एक-एक भाग से वृद्धि करते हुये) पाँचवे भाग तक निर्माण करना चाहिये । अथवा
अधिष्ठान के प्रारम्भ से बाह्य भाग में अधिष्ठान से बाहर की ओर निकला हुआ) एक दण्ड,
डेढ़ दण्ड, दो दण्ड अथवा तीन दण्ड माप का
निर्गम निर्मित करना चाहिये ॥४॥
अधिष्ठानजगत्या वा समं
तत्पादबाह्यकम् ।
वेदिभद्रं प्रतिभद्रं सुभद्रं च
त्रिधा मतम् ॥५॥
उपपीठ को अधिष्ठान अथवा जगती के
बराबर भी निर्मित किया जाता है । उपपीठ तीन प्रकार के होते है-वेदिभद्र,
प्रतिभद्र एवं सुभद्र ॥५॥
उच्छ्रये भानुभागे तु
द्व्यंशेनोपानमीरितम् ।
पद्ममंशं तदूर्ध्वेऽर्धं क्षेपणं
पञ्चभागिकम् ॥६॥
ग्रीवमर्धेन कम्पं स्याद्
भागैकेनाम्बुजं भवेत् ।
शेषांशं वाजनं
कम्पमष्टाङ्गमुपपीठकम् ॥७॥
(वेदिभद्र उपपीठ दो प्रकार के होते है) - आठ अङ्ग वाले एवं छः अङ्ग वाले ।
इनका वर्णन इस प्रकार है-) उपपीठ की ऊँचाई को बारह भागों मे बाँटना चाहिये । दो
भाग से उपान, एक भाग से पद्म, उसके ऊपर
आधे भाग से क्षेपण, पाँच भाग से ग्रीव, आधे से कम्प, एक भाग से अम्बुज तथा शेष भाग से वाजन
एवं कम्प का निर्माण करना चाहिये । इस प्रकार उपपीठ के आठ अङ्ग होते है ॥६-७॥
षडङ्गं वा विधातव्यमूर्ध्वाधस्ताद्
विनाम्बुजम् ।
वेदिभद्रं द्विधा प्रोक्तं
सर्वहर्म्येषु योग्यकम् ॥८॥
अथवा ऊपर एवं नीचे के अम्बुज (तथा
पद्म) को छोड़ कर छः भागों का उपपीठ बनाना चाहिये । इस प्रकार सभी भवनों के अनुरूप
वेदिभद्र उपपीठ दो प्रकार के होते है ॥८॥
मयमत अध्याय १३-
प्रतिभद्रम्
अश्विभ्यां च
द्विकैकांशैर्भानुभागाङ्गकांशकैः ।
त्र्यंशैकांशकभागैस्तु
द्वाभ्यामंशेन योजयेत् ॥९॥
जन्मतो वाजनान्तं तु तुङ्गे
त्रिनवभागके ।
पादुकं पङ्कजं कम्पं
कण्ठमुत्तरमम्बुजम् ॥१०॥
कपोतमालिङ्गान्तादि
प्रतिवाजनमुच्यते ।
प्रतिभद्रमिदं नाम्ना
सर्वालङ्कारसंयुतम् ॥११॥
प्रतिभद्र उपपीठ के जन्म (उपपीठ का
एक भाग) से लेकर वाजनपर्यन्त सत्ताईस भाग करने चाहिये । एक भाग से जन्म एवं वाजम,
दो भाग से पादुक, दो से पङ्कज, एक से कम्प, बारह से कण्ठ, एक
से उत्तर, तीन से अम्बुज, एक से कपोत,
दो से आलिङ्ग एवं एक से प्रतिवाजन निर्मित करना चाहिये । प्रतिभद्र
नामक यह उपपीठ इन सभी अलङ्कारों से युक्त होता है ॥९-११॥
युग्मेशाक्षांशकांशैस्तु
द्व्येकाष्टांशांशकांशकैः ।
त्र्यंशैकेनांशकैर्द्वाभ्यामेकेनात्रैव
योजयेत ॥१२॥
पादुकं पङ्कजं चैवमालिङ्गान्तरितं
तथा ।
प्रत्यूर्ध्वे वाजनं
कण्ठमुत्तराब्जकपोतकम् ॥१३॥
आलिङ्गान्तरितं चोर्ध्वे
प्रतिश्चैवार्ध्ववाजनम् ।
द्विविधं प्रतिभद्रं
स्यादेकभागाधिकं ततः ॥१४॥
प्रतिभद्र दो प्रकार के होते है ।
(प्रथम प्रकार ऊपर वर्णित है।) दूसरे प्रकार में एक भाग अधिक होता है । (इसके
अट्ठाईस भाग किये जाते है ।) इसमें दो भाग से पादुक, तीन से पङ्कज, एक से आलिङ्ग, एक
से अन्तरित, दो से प्रति, एक से ऊर्ध्व
वाजन, आठ से कण्ठ, एक से उत्तर,
एक से अब्ज, तीन से कपोत, एक से आलिङ्ग, एक से अन्तरित, दो
से प्रति एवं एक भाग से ऊर्ध्ववाजन का निर्माण किया जाता है ॥१२-१४॥
मयमत अध्याय १३-
सुभद्रम्
त्रिःसप्तांशे तदुत्सेधे द्वाभ्यां
जन्म तथाम्बुजम् ।
अर्धेन कण्ठमर्धेन पद्मद्व्यंशेन
वाजनम् ॥१५॥
अर्धेनाब्जं तथा कम्पं
कण्ठमष्टांशमीरितम् ।
अंशेनोत्तामर्धेन पद्मं गोपानकं
त्रिभिः ॥१६॥
इस उपपीठ में ऊँचाई के इक्कीस भाग
किये जाते है । दो भाग से जन्म, दो से अम्बुज,
आधे से कण्ठ, आधे से पद्म, दो से वाजन, आधे से अब्ज, आधे
से कम्प, आठ से कण्ठ, एक से उत्तर,
आधे से पद्म, तीन से गोपानक एवं आधे से ऊर्ध्व
कम्प निर्मित होते है । (इनसे युक्त उपपीठ) की संज्ञा सुभद्रक होती है ॥१५-१६॥
भागार्धमूर्ध्वकम्पं
स्यादेतन्नाम्ना सुभद्रकम् ।
जन्म द्व्यशं त्रियंशेन पद्ममंशेन
कन्धरम् ॥१७॥
द्वाभ्यां वाजनमेकेन
कम्पमष्टांशकैर्गलम् ।
अंशेन कम्पकं द्वाभ्यां वाजनं
कम्पमंशकम् ॥१८॥
(सुभद्र उपपीठ का दूसरा भेद इस प्रकार है । इसमें भी ऊँचाई के इक्कीस भाग
किये जाते है ।) इसमें दो भाग से जन्म, तीन से पद्म, एक से कन्धर, दो से वाजन, एक
से कम्प, आठ से गल, एक से कम्प,
दो से वाजन एवं एक से कम्प निर्मित होता है । इस प्रकार सभी
(उपर्युक्त) अलङ्करणों से युक्त सुभद्र उपपीठ दो प्रकार के होते है ॥१७-१८॥
सुभद्रं द्विविधं प्रोक्तं
सर्वालङ्कारसंयुतम् ।
सिंहेभमकरैर्व्यालैर्भूतैः
पत्रैरलंकृतम् ॥१९॥
प्रतिवक्रं झषाढ्यं स्याद्
बालेनारूढमस्तकम् ।
अर्पितानर्पिते हर्म्ये सर्वत्र
परिकल्पयेत् ॥२०॥
अर्पित (भवन का भागविशेष) से युक्त
एवं अर्पित से रहित सभी प्रकार के भवनों में सिंह, गज, मकर, व्याल, भुत (प्राणी), पत्र एवं जिसके मस्तक पर बाल मीन सवार
हो, ऐसा मत्स्य अलङ्करणरूप में अंकित करना चाहिये ॥१९-२०॥
अङ्गमङ्गं प्रति
प्राज्ञैर्वृद्धिर्हानिस्तथोच्यते ।
तथा मसूरकाणां तु युञ्जीयादुपपीठके ॥२१॥
उपपीठ के प्रत्येक अङ्ग को
वृद्धिक्रम से अथवा हीन-क्रम से निर्मित करना चाहिये एवं उसी प्रकार उपपीठ को
अधिष्ठान से जोड़ना चाहिये ॥२१॥
आत्ताधिष्ठानतुङ्गाद् द्विगुणमथ समं
सार्धमर्धं त्रिपादं
पञ्चांशद्व्यंशकं वानलसमभजिते
द्व्येकमात्रोपपीठम् ।
सप्रत्यङ्गं समं चेत्तदपि च महता
वाजनेनोपयुक्तं
सर्वस्निग्धान्यधस्तद् दृढतरमतिना
योजितव्यं बलार्थम् ॥२२॥
उपपीठ अधिष्ठान की ऊँचाई से दुगुना,
डेढ़ गुना, बराबर, आधा,
तीन चौथाई, २/५, दो
तिहाई या आधी होना चाहिये । यदि अपने सभी अङ्गो के साथ उपपीठ अदिष्ठान के बराबर हो
तो भी उसका वाजन बड़ा होना चाहिये । उपपीठ के दृढ़ बनाने के लिये बुद्धिमान स्थपति
को उसके सभी अङ्गो को उचित माप मे रखना चाहिये ॥२२॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
उपपीठविधानो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 14
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