मयमतम् अध्याय १२
मयमतम् अध्याय १२ गर्भविन्यास - इस अध्याय में देवों,
ब्राह्मणों तथा अन्य जातियों के भवनों में शिलान्यास तथा नींव में
रखी जाने वाली वस्तुओं का विशद् वर्णन प्राप्त होता है। इसके अन्तर्गत फेला
(पिटारी), गर्भस्थापन (नींव के गर्त में शिलान्यास - सामग्री
रखना), शिवालय का गर्भस्थापन, विष्णु,
ब्रह्मा, षण्मुख आदि देवों के मन्दिरों में
गर्भस्थापन, मनुष्यों के आवास का गर्भस्थापन, गर्भस्थापन का मन्त्र, वापी आदि का शिलान्यास तथा
इष्टकाविन्यास वर्णित है।
मयमतम् अध्याय १२
Mayamatam chapter 12
मयमतम् द्वादशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १२- गर्भविन्यास
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ द्वादशोऽध्यायः
गर्भविन्यासः
तैतिलानां द्विजातीनां वर्णानां
हर्म्यके गृहे ।
गर्भन्यासविधिः सम्यक् संक्षेपाद्
वक्ष्यतेऽधुना ॥१॥
शिलान्यास - देवों के ब्राह्मणों के
एवं अन्य वर्ण वालों के भवनों के गर्भन्यास (शिलान्यास) की विधि का भली-भाँति एवं
संक्षेप में अब वर्णन किया जा रहा है ॥१॥
सर्वद्रव्यैस्तु सम्पन्नं गर्भं तत्
सम्पदां पदम् ।
द्रव्यहीनमसम्पन्नं गर्भं
सर्वविपत्करम् ॥२॥
सभी पदार्थों से युक्त गर्भ (भवन की
नींव का गत) सम्पदा का स्थल होता है तथा किसी पदार्थ के कम होने से अथवा गर्भन्यास
न होने से वह गर्भ सभी प्रकार की विपत्तियों का कारण (उस पर निर्मित भवन एवं भवन
के निवासियों के लिये) बनता है ॥२॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन गर्भं सम्यग्
विनिक्षिपेत् ।
गर्भश्वभ्रस्य गाम्भीर्यं
स्वाधिष्ठानोन्नते समम् ॥३॥
इसलिये सभी प्रकार के प्रयत्नपूर्वक
गर्भ का न्यास करना चाहिये । गर्भ के गर्त की गहराई को अधिष्ठान की ऊँचाई तक समतल
करना चाहिये ॥३॥
चतुरस्त्रसमं कुर्यात्
गर्तमिष्टकयाश्मना ।
आपूर्य सलिलं तस्य मूले सर्वमृदं
क्षिपेत् ॥४॥
गर्त को ईंटों एवं पत्थरो से सम एवं
चौकोर करना चाहिये । पानी से गड्ढे को भरने के बाद इसके मूल मे सभी प्रकार की
मिट्टियाँ डालनी चाहिये ॥४॥
निम्नगाह्रदसस्याद्रिवल्मीककुलिरावटे
।
हलस्थलाब्धिगोश्रृङ्गहस्तिदन्तेषु
मृत्तिका ॥५॥
यह मृत्तिका नदी से,
तालाब से, अन्न के खेत से, पर्वत से, बाँबी से, हल से,
बैल के सींग से एवं गजदन्त से प्राप्त होती है ॥५॥
तदूर्ध्वं तस्य मध्ये तु पद्मकन्दं
न्यसेत्पुनः ।
पूर्वे चोत्पलकन्दं च दक्षिणे
कौमुदं क्षिपेत् ॥६॥
उसके ऊपर गर्त के मध्य में पद्म
(लाल कमल) की जड़, पूर्व दिशा में
उत्पल (नीलकमल) की जड़ एवं दक्षिण में कुमुद (की जड़) डालनी चाहिये ॥६॥
सौगन्धिं पश्चिमे
विद्यात्नीललोहमुदग्दिशि ।
धान्यान्यष्टौ तदूर्ध्वं तु
शालिर्व्रीहिश्च कोद्रवः ॥७॥
कङ्कु मुद्गं च माषं कुलत्थं च तिलं
तथा ।
प्रादक्षिण्येन शाल्यादीनीशानादिषु
विन्यसेत् ॥८॥
पश्चिम दिशा में सौगन्धि (एक प्रकार
की सुगन्धित घास), उत्तर दिशा में
नील-लोह (नीले या काले रंग का धातु) डालना चाहिये । उनके ऊपर आठो दिशाओं में आठ
धान्यशालि (चावल का एक प्रकार), व्रीहि (चावल का एक प्रकार),
कोद्रव (कोदो), कङ्कु, मुद्ग
(मूँग), माष (उड़द), कुलत्थ (कुलथा) एवं
तिल को प्रदक्षिण क्रम से ईशान से प्रारम्भ करते हुये गर्त मे डालना चाहिये ॥७-८॥
मयमत अध्याय १२- फेला
तस्योपरि निधातव्यं मञ्जूषं
ताम्रनिर्मितम् ।
त्रिचतुर्मात्रविस्ताराद्द्विद्व्यङ्गुलविवर्धनात
॥९॥
पञ्चषड्विंशमात्रान्तं मानं द्वादश
भाजने ।
समोच्चं वाऽष्टषट्पञ्चभागोन वा
तदुच्छ्रयम् ॥१०॥
उसके ऊपर ताँबे से निर्मित मञ्जूषा
(पेटी,
बाक्स) रखना चाहिये । प्रमाण की दृष्टि से यह पात्र चौड़ाई में तीन
या चार अंगुल से प्रारम्भ करते हुये दो-दो अंगुल की वृद्धि के साथ पच्चीस-छब्बीस
अंगुलपर्यन्त बारह प्रकार का होता है । इसकी ऊँचाई इसकी चौड़ाई के बराबर अथवा आठ,
छः या पाँच भाग कम रखनी चाहिये ॥९-१०॥
एकादिद्वादशान्तानां
हर्म्याणामुदितं क्रमात् ।
गृहीतोच्चत्रिभागैक
पादालम्बिविधानकम् ॥११॥
उपर्युक्त माप एक से बारह तलपर्यन्त
भवनों के क्रमानुसार वर्णित है । (अथवा) पादलम्ब (स्तम्भ) के विधान के अनुसार गृह
की ऊँचाई के तीसरे भाग के प्रमाण को ग्रहण करना चाहिये ॥११॥
तत्तद्धर्म्याङ्घ्रिविष्कम्भसमं
वाष्टांशहीनकम् ।
त्रिपादं वा विशालं तत्फेलायाः
प्रागिवोच्छ्रयम् ॥१२॥
अथवा भवन के स्तम्भ के विष्कम्ब
(घेरा) से आठ भाग कम मञ्जूषा का माप रखना चाहिये । मञ्जूषा की चौड़ाई फेला (गर्त के
तल का मेहराब) का तीन चौथाई भाग या पूर्ववर्णित माप के अनुसार रखना चाहिये ॥१२॥
त्रिवर्गमण्डपाकारं वृत्तं वा
चतुरस्त्रकम् ।
पञ्चविंशतिकोष्ठं वा नवकोष्ठकमेव वा
॥१३॥
मञ्जूषा की आकृति त्रिवर्ग मण्डप के
सदृश,
वृत्ताकार अथवा चौकोर होना चाहिये । इसमे पच्चीस कोष्ठ या नौ कोष्ठ
होना चाहिये ॥१३॥
फेलोच्चार्धत्रिभागैकं
कोष्ठभित्त्युच्छ्रयं भवेत् ।
तद्भित्तिघनतां कुर्याद्
यवैर्द्वित्रिचतुष्ट्यैः ॥१४॥
उपपीठपदे देवाः पञ्चविंशति सम्मताः
।
फेला की ऊँचाई के तीन भाग करने
चाहिये । उसके एक भाग के बराबर कोष्ठ की भित्ति की ऊँचाई होनी चाहिये। उस भित्ति
की मोटाई दो, तीन या चार यव (विना छिलके वाले
यव के मध्य भाग की चौड़ाई) के बराबर रखनी चाहिये । उपपीठ वास्तुविन्यास पर पच्चीस
वास्तुदेवों को स्थापित करना चाहिये ॥१४॥
मयमत अध्याय १२- गर्भस्थापनम्
श्वभ्रोर्ध्वभूतलं सर्वं गन्धैः
पुष्पैश्च दीपकैः ॥१५॥
वासयित्वा तु पूर्वेद्युः
पञ्चगव्यैस्तु भाजनम् ।
प्रक्षाल्य सूत्रेरावेष्ट्य
शुद्धशाल्यास्तरे शुभे ॥१६॥
नीव मे वास्तु-पूजन की सामग्री रखना
- जिस दिन गर्भस्थापन का विधान करना हो, उसके
एक दिन पूर्व गर्त के ऊपर की (आस-पास की) भूमि को सभी प्रकार के गन्धो से सुवासित
कर पुष्पों तथा दीपकों से सुसज्जित करना चाहिये । मञ्जूषापात्र को पञ्चगव्य (गाय
का दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर) से स्वच्छ कर उस पर सूत्र लपेटना चाहिये । इसके पश्चात्
भूमि पर शुद्ध शालि का धान बिछाना चाहिये ॥१५-१६॥
स्थण्डिले चण्डितं कृत्वा मण्डूकं
वाऽथ तत्परम् ।
विन्यस्य देवान्ब्रह्मादीन्
श्वेततण्डुलधारया ॥१७॥
उस शालि के आस्तरण पर चण्डित अथवा
मण्डूक वास्तुपद का विन्यास कर श्वेत तण्डुल की धारा के द्वारा ब्रह्मा आदि
वास्तुदेवों का पदविन्यास करना चाहिये ॥१७॥
आराध्य गन्धपुष्पाद्यैर्भुवनाधिपतिं
जपेत् ।
स्थपतिः कलशान् न्यस्य सर्वान्वस्त्रविभूषितान्
॥१८॥
सुगन्धोदकसम्पूर्णान्गन्धपुष्पसमर्चितान्
।
निष्कलङ्कानसुषिरान्पञ्चपञ्चैव
सूत्रितान् ॥१९॥
वास्तु-देवों की पूजा गन्ध एवं
पुष्प आदि से करके संसार के स्वामी (शिव) का जप करना चाहिये । इसके पश्चात
पाँच-पाँच कलशो का न्यास करना चाहिये । इन कलशों को वस्त्रों से सजाना चाहिये,
उनमें सुगन्धित जल से भरना चाहिये तथा गन्ध एवं पुष्पों से उनकी
पूजा करनी चाहिये । इन कलशों को दोषरहित, छिद्ररहित एवं एक
सूत्र (एक लाइन) में रक्खा होना चाहिये ॥१८-१९॥
तस्य प्रदक्षिणे
गन्धशालिस्थण्डिलमण्डले ।
आराध्य गन्धपुष्पाद्यैर्बलिं
दत्त्वा यथाविधि ॥२०॥
भाजनाय ततः पात्रं वेष्टयेच्छ्वेतवाससा
।
श्वेतवस्त्रान्तरस्योर्ध्वे न्यसेद्
दर्भास्तरे शुचिः ॥२१॥
शालि धान्य के ऊपर निर्मित स्थण्डिल
मण्डल के ऊपर प्रदक्षिणक्रम से (पूर्व, दक्षिण,
पश्चिम एवं उत्तर) गन्ध एवं पुष्प आदि से वास्तुदेवों को नियमानुसार
बलि प्रदान कर एवं उनकी पूजा करने के पश्चात् मञ्जूषा-पात्र को श्वेत वस्त्र से
लपेटना चाहिये । उसके ऊपर श्वेत वस्त्र को फैलाना चाहिये एवं उसके ऊपर दर्भ (कुश)
बिछाना चाहिये ॥२०-२१॥
पीत्वा शुद्धं पयो
रात्रावुपोष्याधिवसेत्ततः ।
स्थपतिः शास्त्रवित्प्राज्ञः
सूत्रग्राह्यादिसेवितः ॥२२॥
तदनन्तर सूत्रग्राही आदि के द्वारा
सम्मानित बुद्धिमान एवं वास्तुशास्त्र के ज्ञाता स्थपति को शुद्ध जल पान कर रात्रि
को उपवास करना चाहिये ॥२२॥
धान्यादीन्यथ वस्तूनि भाजनाभ्यन्तरे
न्यसेत् ।
हेमराजतशुल्बैश्च
शालिव्रीहिकुलत्थकान् ॥२३॥
त्रपुणा कङ्कु सीसेन माषो
मुद्गोऽयसायसा ।
कोद्रवं च तिलं भाव्यं वैकृन्तेन
प्रयत्नतः ॥२४॥
(अगले दिन) मञ्जूषा मे प्रयत्नपूरक
धान्य आदि वस्तुओं को रखना चाहिये । ये पदार्थ है -सोने के शालि,
चाँदी के व्रीहि, ताँबे के कुलत्थ, राँगे के कङ्कु, सीसे के उड़द, अयस
(लोहे) के मूँग, अयस् के कोदो तथा पारे के तिल ॥२३-२४॥
ईशादिषु न्यसेदेतान्यष्टदिक्षु
यथाक्रमम् ।
जयन्ते जातिहिङ्गुल्यं हरितालं भृशे
मतम् ॥२५॥
उपर्युक्त वस्तुओं को ईशान कोण से
प्रारम्भ करते हुये (प्रदक्षिणक्रम से) आठो दिशाओं (एवं कोणों) में रखना चाहिये ।
इसके पश्चात् जयन्त के पद पर सिन्दूर एवं भृश पर हरिताल रखना चाहिये ॥२५॥
मनःशिला च वितथे भृङ्गराजे तु
माक्षिकम् ।
राजावर्तं तु सुग्रीवे शोषे
गैरिकमीरितम् ॥२६॥
अञ्जनं गणमुख्ये स्यादुदितौ दरदं
विदुः ।
मध्यमे पद्मरागं तु मरीचौ विद्रुमं
मतम् ॥२७॥
सविन्द्रे पुष्परागं तु वैडूर्यं
स्याद् विवस्वति ।
वज्रमिन्द्रजये विद्यादिन्द्रनीलं
तु मित्रके ॥२८॥
रुद्रराजे महानीलं मरकतं तु महीधरे
।
मुक्तापवत्से मध्यादिपूर्वेण क्रमशो
न्यसेत् ॥२९॥
वितथ के पद पर मनःशिला (मैनसिल),
भृङ्गराज पर माक्षिक (लाल खड़िया), सुग्रीव पर
लाजावर्त, शोष पर गेरु, गणमुक्य़ पर
अञ्जन, उदिर पर दरद (लाल ताँबा), मध्य
भाग पर पद्मराग (रूबी पत्थर), मरीचि पर मूँगा, सविन्द्र पर पुष्पराग, विवस्वान् पर वैदूर्य मणि,
इन्द्रजय पर हीरा, मित्र पर इन्द्रनील,
रुद्रराज पर महानील, महीधर पर मरकत (पन्ना)
एवं आपवत्स पर मोती का स्थापन करना चाहिये । इन सभी पदार्थों को मध्य से प्रारम्भ
कर पूर्व क्रम से क्रमानुसार रखना चाहिये । ॥२६-२९॥
विष्णुक्रान्ता त्रिशूला श्रीः सहा
दूर्वा च भृङ्गकम् ।
अपामार्गेकपत्राब्जमीशादिष्वौषधान्न्यसेत्
॥३०॥
उपर्युक्त कोष्ठों मे इन ओषधियों को
ईशान कोण से प्रारम्भ करते हुये रखना चाहिये - विष्णुक्रान्ता,
त्रिशूला, श्री, सहा,
दुर्वा, भृङ्गक, अपामार्ग
तथा एकपत्राब्ज ॥३०॥
चन्दनागरुकर्पूरलवङ्गैलालताफलम् ।
तक्कोलेनाष्टगन्धांसुत जयन्तादिषु
विन्यसेत् ॥३१॥
जयन्त आदि के कोष्ठों में चन्दन,
अगरु, कपूर, लवङ्ग,
इलायची, लताफल, तक्कोल
एवं इना- इन आठ गन्धयुक्त पदार्थों को रखना चाहिये ॥३१॥
स्वस्तिकानि चतुर्दिक्षु
हेमायस्ताम्ररूप्यकैः ।
सर्वेषामपि सामान्यमेतच्चिह्नैस्तु लक्ष्यते
॥३२॥
चारो दिशाओं में सुवर्ण,
अयस्, ताम्र एवं रुप्यक (रूपा, चाँदी) द्वारा निर्मित स्वस्तिक रखना चाहिये । सभी देवों केलिये ये सभी
सामान्य है; किन्तु उनको उनके विशेष चिह्नों से युक्त किया
जाता है ॥३२॥
मयमत अध्याय १२- शिवालय का शिलान्यास
कपालशूलखट्वाङ्गं परशुं वृषभं तथा
।
पिनाकं हरिणं पाशं हैमं पूर्वादिषु
न्यसेत् ॥३३॥
शिवालय के भूगर्भ में पूर्व दिशा से
प्रारम्भ कर सुवर्ण-निर्मित कपाल, शूल, खट्वाङ्ग, परशु, वृषभ,
पिनाक धनुष, हरिण एवं पाश का गर्भन्यास करना
चाहिये ॥३३॥
कार्तस्वरमयं चाष्टमङ्गलं तत्र
पूर्ववत् ।
दर्पणं पूर्णकुम्भं च वृषभं
युग्मचामरम् ॥३४॥
श्रीवत्सं स्वस्तिकं शङ्खं दीपं
देवाष्टमङ्गलम् ।
स्थापकस्यानुशिष्यस्तान् स्थपतिः
क्रमशो न्यसेत् ॥३५॥
उपर्युक्त क्रमानुसार ही आठ मंगल
पदार्थ रखना चाहिये । दर्पण, पूर्णकुम्भ
(जल भरा घट), वृषभ, चामर का जोड़ा,
श्रीवत्स, स्वस्तिक, शंख
एवं दीप - ये सभी देवों के अष्टमंगल होते है । स्थापक के अनुसार स्थपति को इन्हे
क्रमशः स्थापित करना चाहिये ॥३४-३५॥
आच्छाद्य भाजनं शुभ्रं पिधानेन तु
निश्चल्म् ।
तमेवाराध्य गन्धाद्यैः स्नापयेत्
कलशोदकैः ॥३६॥
उस पवित्र एवं दृढं मञ्जूषापात्र को
ढक्कन से ढँक कर उसकी गन्ध आदि से पूजा करे एवं एक कलश के जल से उसे स्नान कराये
॥३६॥
विप्रस्वाध्यायघोषैश्च
शङ्खभेर्यादिनिःस्वनैः ।
कल्याणजयघोषैश्च स्थपतिः स्थापकेन
तु ॥३७॥
पुष्पकुण्डलहारादिकटकैरङ्गुलीयकैः ।
पञ्चाङ्गभूषणैर्हेमनिर्मितैश्च विभूषणैः
॥३८॥
हेमयज्ञोपवीतस्तु नववस्त्रोत्तरीयकः
।
श्वेतानुलेपनश्चैव सितपुष्पशिराः
शुचिः ॥३९॥
जिस समय ब्राह्मण वेदमन्त्रों का
उच्चारण कर रहे हो, शंख एवं भेरी आदि
वाद्यों के स्वर हो रहे हो, कल्याण एवं जय का उद्घोष हो रहा
हो, उस समय स्थपति एवं स्थापक को अपने शरीर को पुष्प,
कुण्डल, हार, कटक
(बाजूबन्द) एवं अंगूठी- इन पञ्चाङ्ग आभूषणों से सुसज्जित करना चाहिये । ये आभूषण
सुवर्णनिर्मित होने चाहिये । पवित्र होकर उन्हें सोने का जनेऊ, नया उत्तरीयक (शरीर के ऊपर ओढ़ा जाने वाला) वस्त्र, श्वेत,
(चन्दन आदि) का लेप एवं सिर पर श्वेत पुष्प धारण करना चाहिये
॥३७-३९॥
ध्यात्वा धरातालं सर्वं
दिग्द्विपेन्द्रसमन्वितम् ।
ससागरं सशैल्न्द्रमनन्तस्योपरि
स्थितम् ॥४०॥
(इसके पश्चात्) पृथिवी देवी का
ध्यान करना चाहिये । वह दिग्गजों से युक्त हो, सागर
एवं पर्वतराज से युक्त हो तथा अनन्त नाग के ऊपर स्थित हो (इस रूप में पृथिवी का
ध्यान करना चाहिये ) ॥४०॥
सृष्टिस्थितिलयाधारं भुवनाधिपतिं
जपेत् ।
ब्रह्मादीनां च देवानां देवीनां
द्वारदक्षिणे ॥४१॥
स्तम्भमूले यथायोगं गर्ते गर्भं
निधापयेत् ।
होमस्तम्भे प्रतिस्तम्भे पादुकाच्च
प्रतेरधः ॥४२॥
(पृथिवी का ध्यान करने के पश्चात्)
सृष्टि,
स्थिति एवं विनाश के आधारभूत संसार के स्वामी का जप करना चाहिये ।
ब्रह्मा आदि देवों एवं देवियों के (मन्दिर के) दक्षिण द्वार के स्तम्भ के मूल में,
होमस्तम्भ के नीचे,प्रतिस्तम्भ के नीचे,
पादुका से प्रति के नीचे उचित रीति से रखना चाहिये ॥४१-४२॥
तस्मादत्युन्नतं निम्नं गर्भं
सम्पद्विनाशकृत् ।
चतुरस्त्रीकृता
सारवृक्षपाषाणनिर्मिता ॥४३॥
नियत स्थान से ऊँचा या नीचा
गर्भ-स्थापन सम्पत्ति के विनाश का कारण होता है । मञ्जूषा-स्थापन के पश्चात्
सार-वृक्ष के काष्ठ या पाषाण-खण्डो से भूमि को चौकोर बनाना चाहिये ॥४३॥
पात्रद्विगुणविस्तारा
पञ्चाङ्गुलघनान्विता ।
प्रतिमाफलका या सा स्थाप्या
तद्भाजनोपरि ॥४४॥
इस पात्र के ऊपर पात्र का दुगना
चौड़ा एवं पाँच अंगुल मोटा प्रतिमाफलक स्थापित करना चाहिये ॥४४॥
तदूर्ध्वे स्थापयेत् स्तम्भं संश्लिष्टचतुरिष्टकम्
।
सरत्नौषधिभिर्युक्तं
वस्त्रपुष्पादिशोभितम् ॥४५॥
उसके ऊपर चार ईंटो से जुड़े हुये
स्तम्भ की स्थापना करनी चाहिये । वह स्तम्भ रत्न एवं ओषधियों से युक्त हो एवं
वस्त्र तथा पुष्प आदि से अलङ्कृत हो ॥४५॥
ईशगर्भमिदं प्रोक्तमन्येषां तु
प्रवक्ष्यते ।
इस प्रकार शिवालय के भू-गर्भ विन्यास
की विधि का वर्णन किया गया । अब अन्य मन्दिरों के गर्भ-विन्यास का वर्णन किया जा
रहा है ।
मयमत अध्याय १२- विष्णुगर्भम्
विष्णुधिष्ण्ये च गर्भं स्याद्धैमं
चक्रं तु मध्यमे ॥४६॥
शङ्खकार्मुकदण्डं च
रुक्ममायसनन्दकम् ।
धनुः शङ्खं च वामे तु खड्गं दण्डं
च दक्षिणे ॥४७॥
प्रमुखे वैनतेयं च
स्थापयेद्धेमनिर्मितम् ।
विष्णुमन्दिर का शिलान्यास -
विष्णुदेव के भवन में मध्य भाग मे सुवर्णनिर्मित चक्र स्थापित करना चाहिये । शङ्ख,
धनुष, दण्ड सुवर्ण-निर्मित एवं लोहे की तलवार
होनी चाहिये । धनुष एवं शङ्ख वाम भाग में तथा खड्ग एवं दण्ड दक्षिण भाग में होना
चाहिये । सामने सोने का गरुड स्थापित करना चाहिये ॥४६-४७॥
मयमत अध्याय १२- ब्रह्मगर्भम्
यज्ञोपवीतमोङ्कारं स्वस्तिकाग्निं च
हेमजम् ॥४८॥
पद्मं कमण्डलुं चाक्षसूत्रदर्भाश्च
ताम्रजाः ।
ब्रह्मासनपदे मध्येऽम्बुरुहं
स्थाप्यमेव च ॥४९॥
ब्रह्मा के मन्दिर का शिलान्यास -
ब्रह्मा के मन्दिर में जनेऊ, ॐकार, स्वस्तिक एवं अग्नि सुवर्णनिर्मित स्थापित करना चाहिये । पद्म, कमण्ड्लौ, अक्षमाला एवं कुश ताम्रनिर्मित रखना
चाहिये । ब्रह्मा के स्थान के मध्य में कमल स्थापित होना चाहिये । ॥४८-४९॥
तस्मिनन्मध्ये तदोङ्कारं
यज्ञसूत्रावृतं तु तत् ।
स्वस्तिकानि चतुर्दिक्षु वामे
स्थाप्यं कमण्डलु ॥५०॥
उसके मध्य में जनेऊ से लपेटा हुआ
ॐकार,
चारो दिशाओं में स्वस्तिक तथा वाम भाग मे कमण्डलु स्थापित करना
चाहिये ॥५०॥
कुशाक्षमालां वामे तु
पुरस्तीक्ष्णानलं क्षिपेत् ।
ब्रह्मगर्भमिदं प्रोक्तं
ब्रह्मस्थाने प्रतिष्ठितम् ॥५१॥
वाम भाग में कुश एवं अक्षमाला तथा
सम्मुख तीक्ष्ण अग्नि स्थापित करनी चाहिये । ब्रह्मस्थान मे स्थापित होने वाले
ब्रह्मगर्भ का वर्णन इस प्रकार किया गया ॥५१॥
मयमत अध्याय १२- षण्मुखगर्भम्
स्वस्तिकं चाक्षमालां च शक्तिं चक्रञ्च
कुक्कुटम् ।
मयूरं चैव सौवर्णमयसा शक्तिमध्यमे
॥५२॥
वामे च कुक्कुतं दद्याद् दक्षिणे च
मयूरकम् ।
अक्षसूत्रं पुरः स्थाप्यं गर्भं
षण्मुखसद्मनि ॥५३॥
कार्तिकेय -मन्दिर का शिलान्यास -
षण्मुख (कार्त्तिकेय) के मन्दिर के गर्भ मे सुवर्णमय स्वस्तिक,
अक्षमाला, शक्ति, चक्र,
कुक्कुट (मुर्गा) एवं मोर तथा लोहे की शक्ति मध्य भाग मे स्थापित
करनी चाहिये । वाम भाग मे कुक्कुट एवं दाहिने भाग मे मोर रखना चाहिये । अक्षरमाला
को सम्मुख स्थापित करना चाहिये ॥५२-५३॥
अम्बुजं चाङ्कुशं पाशं सिंहं
सवितृधामके ।
वज्रेभं नन्दकं चक्रं चामरं धाम्नि
वज्रिणः ॥५४॥
अन्य देवों के लिये गर्भन्यास की
सामग्री - सवितृ देवता के भवन में कमल, अंकुश,
पाश एवं सिंह तथा इन्द्र के भवन में वज्र, गज,
तलवार एवं चामर स्थापित करना चाहिये ॥५४॥
जाम्बूनदमयं मेषं शक्तिं पावकधामनि
।
अयसा महिषं पाशं हेमजं यमधामनि ॥५५॥
अग्नि के भवन में सुवर्णनिर्मित मेष
एवं शक्ति तथा यम के भवन में लोहे का महिष एवं सुवर्णमय पाश स्थापित करना चाहिये
॥५५॥
अयसा नन्दकं गर्भं निऋतेस्तु
विमानके ।
वरुणे मकरं पाशं लोहजं हेमजं तथा
॥५६॥
निऋति के भवन मे लोहे की तलवार तथा
वरुण के भवन मे लोहे का मकर एवं सुवर्णमय पाश गर्भस्थान मे रखना चाहिये ॥५६॥
वायोः कृष्णमृगं हैमं व्यालं
तारापतेः क्षिपेत् ।
नरवाहे नरः प्रोक्तो मकरो मदनालये
॥५७॥
गर्भन्यास मे वायु के भवन में कृष्ण
वर्ण का मृग तथा तारापति (चन्द्रमा) के भवन में सुवर्णनिर्मित व्याल स्थापित करना
चाहिये । कुबेर के भवन मे मनुष्य (की प्रतिमा) एवं मदन (कामदेव) के भवन में मकर
स्थापित करना चाहिये ॥५७॥
टङ्कं दन्ताक्षमाला च
विघ्नेशावासगर्भके ।
ओङ्कारं वक्रदण्डं च सौवर्णं
चार्यकस्य तु ॥५८॥
विघ्नेश (गणेश) के भवन के गर्भ मे
कुठारदन्त (गजदन्त) एवं अक्षमाला स्थापित करनी चाहिये । आर्यक के भवन में
सुवर्णनिर्मित टेढ़ा दण्ड एवं ओम् स्थापित करना चाहिये ॥५८॥
अश्वत्थं करकं सिंहं छत्रं स्वर्णेन
कारयेत् ।
अश्वत्थः पुरतः स्थाप्यश्छत्रं
तस्योपरि स्थितम् ॥५९॥
कुण्दिकापरभागे तु केसरी दक्षिणे
भवेत् ।
सौगते धामके गर्भं श्रीवत्साशोकसिंहकम्
॥६०॥
सुगत के भवन के गर्भन्यास के लिये
सोने के पीपल, करक (कमण्डलु), सिंह एवं छत्र निर्मित कराना चाहिये । सामने के भाग मे अश्वत्थ (पीपल)
स्थापित करना चाहिये एवं उसके ऊपर छत्र स्थापित करना चाहिये । वाम भाग में
कुण्डिका (कमण्डलु) एवं दाहिने भाग में केसरी (सिंह) तथा गर्भ में श्रीवत्स,
अशोक एवं सिंह स्थापित करना चाहिये ॥५९-६०॥
कमण्डल्वक्षमाला च शिखिपिच्छं तु
हेमजम् ।
त्रिच्छत्रं करकं तालवृन्तं
रुक्ममयं भवेत् ॥६१॥
(श्रीवत्स,
अशोक एवं सिंह के अतिरिक्त) कमण्डलु, अक्षमाला
एवं मोर का पंख सुवर्णमय तथा त्रिच्छत्र, करक एवं तालवृन्त
(ताल का पंखा) सोने से निर्मित होना चाहिये ॥६१॥
वृक्षस्तु पुरतः स्थप्यश्छत्रं
तस्योपरि स्थितम् ।
पिच्छं दक्षिणभागेऽक्शमाला वामे तु
कुण्डिका ॥६२॥
(जिनमन्दिर में) वृक्ष को सम्मुख,
उसके ऊपर छत्र स्थापित करना चाहिये । मोर-पंख को दाहिने भाग मे एवं
वामभाग मे कुण्डिका (कमण्डलु) के साथ अक्षमाला स्थापित करनी चाहिये ॥६२॥
श्रीरूपं मध्यमे स्थाप्यं केसरी
तत्र विन्यसेत् ।
अपरे करकं तालवृन्तं गर्भो जिनालये
॥६३॥
जिन-मन्दिर में श्रीरूप को गर्भ के
मध्य में स्थापित करना चाहिये एवं सिंह को भी वही स्थापित करना चाहिये । करक एवं
तालवृन्त को उसके बाये स्थापित करना चाहिये ॥६३॥
शुक्रं चक्रं च हैमं तु सिंहं शङ्खं
च राजतम् ।
मृगं ताम्रमयञ्चैव कृष्णलोहेन
नन्दकम् ॥६४॥
एवं दुर्गाविमाने तु गर्भं कुर्यद्
विचक्षणः ।
खट्वाङ्गं नन्दकं शक्तिं
क्षेत्रपालस्य हेमजम् ॥६५॥
बुद्धिमान (स्थपति) को
दुर्गा-मन्दिर के गर्भ-विन्यास मे शुक एवं चक्र सुवर्ण निर्मित,
सिंह एवं शंख रजत-निर्मित, मृग ताम्र-निर्मित
तथा तलवार लोहा-निर्मित स्थापित करना चाहिये । क्षेत्रपाल के मन्दिर के
गर्भ-विन्यास में सुवर्णनिर्मित खट्वाङ्ग, तलवार एवं शक्ति
स्थापित करनी चाहिये ॥६४-६५॥
पद्मं लक्ष्म्याः सरस्वत्या ओङ्कारं
च त्रिवर्णकम् ।
ध्वाङ्क्षकेतूत्पलं हैमं
ज्येष्ठाकोष्ठस्य गर्भके ॥६६॥
सुवर्णपद्म लक्ष्मी-मन्दिर में,
तीन वर्ण का ॐकार सरस्वती मन्दिर मे तथा ज्येष्ठा के मन्दिर मे
सुवर्णनिर्मित काक, केतु एवं कमल गर्भ मे स्थापित करना
चाहिये ॥६६॥
कपालशूलघण्टाभिः प्रेतान् कालीगृहे
न्यसेत् ।
हंसोक्षशिखितार्क्ष्यांश्च
सिंहेभप्रेतरूपकान् ॥६७॥
जाम्बूनदमयान् मातृकोष्ठकेषु
निधापयेत् ।
पद्माक्षसूत्रकं दीपं
रोहिणीगृहगर्भके ॥६८॥
काली-मन्दिर के गर्भविन्यास के कपाल,
शूल एवं घण्टो के साथ प्रेतो को स्थापित करना चाहिये । मातृकाओं के
भवन के गर्भ में हंस, वृषभ, मयूर,
गरुड़, सिंह, गज एवं
प्रेतों की सुवर्ण-प्रतिमायें स्थापित करनी चाहिये । रोहिणी के मन्दिर के गर्भ में
पद्म, अक्षसूत्र एवं दीप स्थापित करना चाहिये ॥६७-६८॥
दर्पणं चाक्षमालां च पार्वतीभवने
विदुः ।
पद्माक्षसूत्रकं पूर्णकुम्भं
मोहिनिधामनि ॥६९॥
पार्वती-मन्दिर के गर्भ में दर्पण
एवं अक्षमाला तथा मोहिनी-मन्दिर में पद्म, अक्षमाला
एवं पूर्ण-कुम्भ स्थापित करना चाहिये ॥६९॥
छत्रध्वजपताकाश्च सचिह्नैः सह
वाहनैः ।
अनुक्तानां च देवानां देवीनां गर्भमिष्यते
॥७०॥
जिन देवी एवं देवों का उल्लेख यहाँ
नही किया गया है, उनके मन्दिर के
गर्भ में उनके विशिष्ट चिह्न एवं वाहन के साथ छत्र, ध्वज एवं
पताका स्थापित करनी चाहिये ॥७०॥
मयमत अध्याय १२- मानुषहर्म्यगर्भकम्
द्विजातीनां तु वर्णानां जातिगर्भो
विधीयते ।
करकं दन्तकाष्ठ च शुल्बं हेममयं
भवेत् ॥७१॥
मनुष्य के भवन का शिलान्यास -
द्विजन्मा वर्ण वालों के भवन के गर्भ मे जिन वस्तुओं का विन्यास होता है,
उनका वर्णन किया जा रहा है । उनमे कारक तथा दन्तकाष्ठ ताम्रमय एवं
सुवर्णमय होता है ॥७१॥
यज्ञोपवीतं यज्ञाग्निं यज्ञभाण्डं च
राजतम् ।
यज्ञोपवीतमध्यस्थं यज्ञभाण्डं च
दक्षिणे ॥७२॥
यज्ञोपवीत (जनेऊ),
यज्ञाग्नि एवं यज्ञपात्र रजत-निर्मित होते है । यज्ञोपवीत गर्भ के
मध्य मे तथा यज्ञपात्र उसके दाहिने होना चाहिये ॥७२॥
वामे तु करकं काष्ठमनलं पुरतो भवेत
।
विप्रगर्भमिदं प्रोक्तं स्वस्तिकानि
चतुर्दिशि ॥७३॥
यज्ञोपवीत के वाम भाग मे करक तथा
दन्त-काष्ठ एवं यज्ञाग्नि सम्मुख होना चाहिये । चारो दिशाओं में स्वस्तिक होने
चाहिये । ब्राह्मण के गृह का गर्भ-विन्यास इस प्रकार वर्णित है ॥७३॥
मध्ये हेममयं चक्रं वामे शङ्खं च
राजतम् ।
कार्मुकं तम्रजं वामे दण्डो रुमेण
दक्षिणे ॥७४॥
(क्षत्रिय के गृह का गर्भ-विन्यास
इस प्रकार होना चाहिये) मध्य मे सुवर्णमय चक्र, उसके
वाम भाग मे रजत-निर्मित शंख एवं ताम्रनिर्मित धनुष होना चाहिये । चक्र के दक्षिण
भाग में सोने का दण्ड होना चाहिये ॥७४॥
खड्गं चायसमेव स्याच्चतुर्नागाश्चतुर्दिशि
।
हैममायसकं ताम्रं आजतं क्रमशो
न्यसेत् ॥७५॥
दक्षिण भाग में ही लोहे का खड्ग
तथा चारो दिशाओं में चार गज होने चाहिये । ये क्रमशः सुवर्ण,
लोहा, ताँबा एवं रजत-निर्मित हो ॥७५॥
मध्ये श्रीरुपकं हैमं स्वस्तिकानि
चतुर्दिशि ।
छत्रध्वजपताकाश्च दण्डं वै शासनात्मकम्
॥७६॥
मध्य भाग में सुवर्णनिर्मित
श्रीरूपक एवं चारो दिशाओं में स्वस्तिक तथा छत्र, ध्वज, पताका एवं दण्ड निश्चित रूप से होना चाहिये ।
यह गर्भ-न्यास राजा के गृह के लिये होता है ॥७६॥
राजद्वारे भवेद् गर्भमन्येषां तु
यथार्हकम् ।
वार्ष्णेयकानां गर्भं चेद्
विजयद्वारदक्षिणे ॥७७॥
ये सभी गर्भ-न्यास राजभवन के द्वार
के स्थान पर होने चाहिये । अन्य क्षत्रियों के गृहों मे उचित स्थान पर होना चाहिये
। यदि राजा 'वार्ष्णेयक' श्रेणी का हो तो यह गर्भ-न्यास विजयद्वार के दक्षिण ओर होना चाहिये ॥७७॥
अयसा हलजिह्वां च शङ्खं ताम्रकुलीरकम्
।
पञ्चायुधं सीसमाषं हयं वृषगजौ हरिम्
॥७८॥
(वैश्य-गृहो का गर्भ-न्यास इस
प्रकार होना चाहिये) लोहे से निर्मित हल का अग्र भाग (जिह्वा) एवं शंख तथा ताँबे
से निर्मित केकड़ा, (विष्णु के) पाँच
अस्त्र एवं उड़द सीसा (लेड) से निर्मित होना चाहिये । इनके अतिरिक्त अश्व, वृष, गज एवं सिंह होना चाहिये ॥७८॥
अर्काग्निवरुणेन्दूतां स्थाने
सम्यङ् निवेशयेत् ।
चत्वारो धेनुकाः श्वेतनिर्मिताश्च
चतुर्दिशि ॥७९॥
इन्हें सूर्य,
अग्नि, वरुण एवं सोम के स्थान पर भली-भाँति
स्थापित करना चाहिये । श्वेत वर्ण (रजत) से निर्मित चार गायों को चारो दिशाओं मे
स्थापित करना चाहिये । वृष को वैश्यों के भवन के गर्भ में सामने रखना चाहिये ॥७९॥
गोपुङ्गवं च पुरतो वैश्यानां
प्रविधीयते ।
बीजपात्रं हलं हैमं ताम्रजं
युगमिष्यते ॥८०॥
रजतेन पशुं विद्याच्चतुर्दिक्षु
विनिक्षिपेत् ।
मध्ये गोपुङ्गवं चैव तन्निरीक्ष्य
युगं पुनः ॥८१॥
(शूद्र के गृह का गर्भ-विन्यास इस
प्रकार वर्णित है-) बीजपात्र, सोने का हल
एवं ताँबे का युग (हल का जुआ) होना चाहिये । चारो दिशाओं मे चाँदी से निर्मित पशु
(गाय) रखना चाहिये एवं मध्य मे वृष होना चाहिये, जिसके सामने
जुआ रक्खा होना चाहिये ॥८०-८१॥
हलं दक्षिणभागे तु वामांशे
बीजपात्रकम् ।
बीजं हिरण्यमयं शूद्रगर्भं वैश्ये च
सम्मतम् ॥८२॥
वृष के दाहिने भाग मे हल एवं बाँये
भाग मे बीज का पात्र होना चाहिये । बीजों को सुवर्ण-निर्मित होना चाहिये। शेष
गर्भ-न्यास शूद्रो के भवन के गर्भ में उसी प्रकार होना चाहिये,
जिस प्रकार वैश्यों के गृह में वर्णित है ॥८२॥
गृहाणां गृहगर्भं च जातिगर्भं
विमिश्रतम् ।
अनेकभूमियुक्तानि यानि वासगृहाणि च
॥८३॥
सामान्य भवनों के गृहों के
गर्भ-न्यास एवं जाति-विशेष के गृहों के गर्भ-न्यास को उस भवन मे मिश्रित कर दिया
जाता है,
जो अनेक तल वाले होते है ॥८३॥
पुष्पदन्ते च भल्लाटे महेन्द्रे च
गृहक्षते ।
दक्षिणे नेत्रभित्तौ तु सौम्यादौ तु
चतुर्गृहे ॥८४॥
उत्तर आदि चारो दिशाओं के मूख वाले
गृहों में भिति के नेत्र (गृह का द्वार) के दाहिने भाग मे पुष्पदन्त (पश्चिम दिशा),
भल्लाट (उत्तर दिशा), महेन्द्र (पूर्व दिशा)
एवं गृहक्षत (दक्षिण दिशा) के पद पर गर्भ-न्यास करना चाहिये ॥८४॥
द्वारप्रदक्षिणे स्तम्भे योगे वाऽपि
विधीयते ।
स्थाली तदुपधानं च दार्विकं तण्डुलं
खजम् ॥८५॥
रसोई के गर्भ न्यास मे द्वार के
दाहिने भाग मे अथवा स्तम्भ के नीचे स्थाली (पकाने का पात्र),
उसका ढक्कन, करछुल, चावल,
मथानी, चलनी, दाँत साफ
करने का काष्ठ (दतुअन या दातौन) तथा अग्नि की लौह-निर्मित प्रतिमा रखनी चाहिये
॥८५॥
गलक्यं दन्तकाष्ठाग्निं कृष्णं लोहं
महानसे ।
दक्षिणे भवने गर्भः कुम्भः
शाल्युदपूरितः ॥८६॥
धनसद्मनि गर्भस्तु सार्गलं कुञ्चिकं
भवेत् ।
पर्यङ्कदीपशयनं गर्भं विद्यात्
सुखालये ॥८७॥
रसोई के दाहिनी ओर के कक्ष मे शालि
(चावल) से भरा कुम्भ गर्भ मे स्थापित करना चाहिये । धन-कक्ष के गर्भ-न्यास मे चाभी
एवं अर्गला होनी चाहिये । सुखालय (विश्राम-गृह) के गर्भ में पलंग,
दीपक एवं शयन (आसन) स्थापित करना चाहिये । ॥८६-८७॥
येन यत् कर्म निष्पाद्यं तेन तद्गृहगर्भकम्
।
यानि यस्य स्वचिह्नानि तानि तस्य
निधापयेत् ॥८८॥
जिन सामग्रियों से जिन कार्यों को
सम्पन्न किया जाता है, उन सामग्रियों को
उनके कक्षों के गर्भ में स्थापित करना चाहिये । जो जिनके प्रतीक हो, उन चिह्नो को उसके गर्भ में स्थापित करना चाहिये ॥८८॥
सभाप्रपामण्डपेषु कर्णपादे
प्रदक्षिणे ।
द्वितीयस्तम्भके द्वारदक्षिणाङ्घ्रौ
तु वा न्यसेत् ॥८९॥
सभागार,
प्रपा (प्याऊ) एवं मण्डपो मे दक्षिणी कोने के स्तम्भ अथवा दूसरे
स्तम्भ या द्वार के दाहिने स्तम्भ के नीचे गर्भ-स्थापन करना चाहिये ॥८९॥
अयोमयगजो गर्भः कृष्णलोहेन कोद्रवः
।
लक्ष्मी सरस्वती हेमां पात्रमध्ये
तु विन्यसेत् ॥९०॥
उपर्युक्त भवन-निर्माण में
गर्भ-विन्यास हेतु लोहे का गज, कोदो
(अन्न-विशेष) सुवर्ण-निर्मित लक्ष्मी एवं सरस्वती को पात्र के मध्य में रखना
चाहिये ॥९०॥
गर्भो नाट्यसभायां च प्रक्षिपेत्
कुटिकामुखे ।
मण्डितस्तम्भमूले वाऽप्युभयोरपि
चेष्यते ॥९१॥
नाट्य-गृह का गर्भविन्यास कुटिकामुख
या मण्डितस्तम्भ के मूल मे अथवा दोनो स्थानो पर करना चाहिये ॥९१॥
आतोद्यानि च सर्वाणि सर्वलोहमयानि च
।
श्रीवत्सं पङ्कजं पूर्णकुम्भ
हेमजमिष्यते ॥९२॥
नाट्य-गृह के गर्भ-विन्यास मे सभी
प्रकार के धातुओं से निर्मित सभी वाद्य-यन्त्र रखना चाहिये । श्रीवत्स,
कमल तथा पूर्ण कुम्भ सोने से निर्मित होना चाहिये ॥९२॥
हेमगर्भसभागर्भो द्वारस्तम्भे
विधीयते ।
पूर्वोक्ते कर्णपादे वा गर्भस्थानं
तु तस्य वै ॥९३॥
सभागार के गर्भ-स्थापन में
(पूर्वोक्त) सुवर्ण-निर्मित पदार्थों को रखना चाहिये । गर्भ-स्थापन सभागार के
द्वार अथवा स्तम्भ के नीचे अथवा कोण मे स्थित स्तम्भ के मूल मे करना चाहिये ॥९३॥
तुलाभाराभिषेकार्थं मण्डपे वाऽथ तद्
भवेत् ।
पाषण्ड्याश्रमिणां वासे
तत्तच्चिह्नं तु गर्भकम् ॥९४॥
उपर्युक्त हेम-गर्भ का स्थापन
तुलाभार एवं अभिषेक मण्डप (राजभवन के विशिष्ट अवसरों पर प्रयोग होने वाले मण्डप)
में भी होता है । पाखण्डी (विधर्मी) लोगों के आवास में उनके चिह्नो को भवन के गर्भ
में स्थापित करना चाहिये ॥९४॥
जात्यन्तराणां सर्वेषां
तत्त्च्चिह्नं प्रयोजयेत् ।
गृहिणी गर्भिणी कर्तुर्यदि गर्भं न
निक्षिपेत् ॥९५॥
(चारो वर्णो से पृथक्) अन्य जाति
वालों के आवास मे उनके विशिष्टो चिह्नो को भवन-गर्भ मे स्थापित करना चाहिये । यदि
भवन के स्वामी की पत्नी गर्भवती हो तो उसे भवनगर्भ का स्थापन नहीं करना चाहिये
॥९५॥
रत्नानि धातवश्चैव
स्वल्पविस्तारभाजने ।
तद्दैवस्थानभावज्ञैर्न्यस्तव्यानीह
तानि वै ॥९६॥
छोटे पात्र (गर्भ मे स्थापित होने
वाली मञ्जूषा) में वास्तु-देवों के स्थानों के ज्ञाता को देवों के अनुरूप रत्न एवं
धातुओं को यथोचित विधि से रखना चाहिये ॥९६॥
द्वारप्रदक्षिणे स्थाने
स्वामिस्थानस्य दक्षिणे ।
अभ्यन्तरमुखं गर्भं वस्तुमध्यं
बहिर्मुखम् ॥९७॥
पात्र को द्वार के दक्षिण भाग में
या गृहस्वामी के कक्ष के दाहिने भाग मे स्थापित करना चाहिये । (सामान्यतया) इस
पात्र का मुख भवन के भीतरी भाग की ओर होना चाहिये; किन्तु मञ्जूषा भवन के मध्य भाग मे स्थापित हो तो उसका मुख बाहर की ओर
होना चाहिये ॥९७॥
मयमत अध्याय १२- गर्भमन्त्रः
इदं मन्त्रं समुच्चार्य प्राङ्मुखो
वाऽप्युदङ्मुखः ।
पूर्वोक्तविधिनां सम्यक् स्थापयेत्
स्थपतिः क्रमात् ॥९८॥
शिलान्यास का मन्त्र - मूलोक्त
मन्त्र का उच्चारण करते हुये पूर्वाभिमुख अथवा उत्तरमुख होकर स्थपति को
पूर्व-वर्णित विधि से क्रमशः विधिवत् भवन का गर्भ स्थापित करना चाहिये ॥९८॥
अयं मन्त्र -
स्वरदेवताभ्यो मन्त्रेभ्यः स्वाहा ।
सर्वरत्नाधिपतये स्वाहा । उत्तमप्रजापतये सत्यवादिने नमः । श्रियै नमः । सरस्वत्यै
नमः । वैवस्वताय नमः । वज्रपाणये नमः । अभिनवसर्वविघ्नप्रशमनाय नमः । नमो वह्नये
स्वाहा ॥
मन्त्र इस प्रकार है - मन्त्रो एवं
स्वर के देवता के लिये स्वाहा ॥ सभी रत्नो के अधिपति के लिये स्वाहा । उत्तम एवं
सत्यवादी प्रजापति के लिये स्वाहा । लक्ष्मी को प्रणाम । सरस्वती को प्रणाम ।
विवस्वान् को प्रणाम । वज्रपाणि को प्रणाम । सभी विघ्नो के विनाशक अभिनव को प्रणाम
। अग्नि को प्रणाम एवं स्वाहा ॥
मयमत अध्याय १२- वाप्यादिगर्भः
वापीकूपतटाके तु दीर्घिकासेतुबन्धने
।
मत्स्यमण्डूककुलिरं सर्पं वै शिंशुमारकम्
॥९९॥
हेमजं तदुदग्भागे पूर्वायां दिशि
वाथवा ।
पुरुषाञ्जलिमात्रे तु श्वभ्रे
पात्रं निधापयेत् ॥१००॥
बावड़ी आदि का शिलान्यास - वापी
(बावड़ी) कूप, तालाब, दीर्घिका
(लम्बा सरोवर, जलाशय) एवं पुल के निर्माण मे गर्भ-स्थापन
हेतु स्वर्ण-निर्मित मछली, मेढक, केकड़ा,
सर्प एवं सूँस को पात्र में रखकर उत्तर दिशा या पूर्व दिशा में एक
पुरुष की अञ्जली के माप के गड्ढे मे स्थापित करना चाहिये ॥९९-१००॥
मयमत अध्याय १२- प्रथमेष्टका
सुमुहूर्ते सुलग्ने च होराकरणसंयुते
।
रात्रौ गर्भमहन्येव
स्थापयेच्चतुरिष्टकम् ॥१०१॥
शिलान्यास की प्रथम ईट-स्थापना -
भवन के गर्भ का स्थापन शुभ मुहूर्त, लग्न
एवं होरा से युक्त रात्रि में करना चाहिये तथा शुभ मुहूर्त, लग्न
एवं होरा से युक्त दिन मे चार ईंटो की स्थापना करनी चाहिये ॥१०१॥
यद्यत् स्थानं तु गर्भस्य तत्रस्था
प्रथमेष्टका ।
मृत्कन्दधान्यसल्लोहधातुरत्नौषधैः
सह ॥१०२॥
जिस-जिस स्थान पर गर्भ-स्थापन किया
गया हो,
वहाँ प्रथम ईट मृत्तिका, जड़, अन्न, धातु, रत्न एवं ओषधियों
के साथ स्थापित करनी चाहिये ॥१०२॥
गन्धद्रव्यैश्च बीजैश्च विधेया
प्रथमेष्टका ।
शैले शिलामयी प्रोक्ता चैष्टके
चेष्टकाः शुभाः ॥१०३॥
(इनके अतिरिक्त) गन्धयुक्त पदार्थो
एवं बीजों के साथ प्रथम ईट का न्यास करना चाहिये । प्रस्तर से निर्मित होने वाले
भवन में प्रस्तरमयी शिला एवं ईट से निर्मित होने वाले भवन मे इष्टका का न्यास करना
चाहिये ॥१०३॥
गर्भभाजनविस्तारा
विस्तारद्विगुणायता ।
विपुलार्धघना सर्वहर्म्यके
चतुरिष्टका ॥१०४॥
गर्भ मे रक्खी जाने वाली मञ्जूषा के
बराबर चौड़ी, चौड़ाई से दुगुनी लम्बी एवं
चौड़ाई की आधी मोटी चारों इष्टकायें होनी चाहिये । इष्टका का यह प्रमाण सभी भवनों
के लिये होता है ॥१०४॥
अष्टौ द्वादश वा ग्राह्या मध्यमे तु
महत्तरे ।
ऋजुदीर्घाङ्गुलिन्यासा समसंख्या हि
पुंस्त्वभाक् ॥१०५॥
मध्यम एवं उससे बडे आकार के ईट आठ
या बारह होने चाहिये । पुरुष-इष्टकाओं की लम्बाई सीधी होनी चाहिये एवं उनका माप सम
संख्या वाली अंगुलियों से रखना चाहिये ॥१०५॥
स्त्रीत्वभागोजसंख्या सा वक्ररेखं
नपुंसकम् ।
सुस्निग्धाः समग्धाश्च सुस्वनास्ताः
सुशोभनाः ॥१०६॥
स्त्री-इष्टकाओ की लम्बाई का माप
विषम संख्या मे होना चाहिये तथा नंपुसक इष्टकाओं की रेखा वक्र होनी चाहिये । ईटो
को स्पर्श मे चिकना, अच्छी प्रकार पका
हुआ, (ठोकने पर) सुन्दर स्वर से युक्त एवं देखने में सुन्दर
होना चाहिये ॥१०६॥
पुंस्त्रीनपुंसके हर्म्ये योजयेत्
ता यथाक्रमम् ।
यथा जाता पुरा तत्र स्थापनीया तथा
भवेत् ॥१०७॥
पुरुष,
स्त्री एवं नपुंसक इष्टकाओं का भवन में प्रयोग क्रमानुसार करना
चाहिये । जैसा पहले प्राप्त होता है, उसी प्रकार उनकी
स्थापना करनी चाहिये ॥१०७॥
शिला दोषविनिर्मुक्ता
बिन्दुरेखादिवर्जिता ।
आदावेव तु कर्तव्या झषाले
प्रथमेष्टका ॥१०८॥
प्रथमेष्टका को दोषहीन तथा बिन्दु
एवं रेखाओं (अप्रशस्त चिह्नो) से रहित होना चाहिये तथा प्रारम्भ मे ही झषाल स्तम्भ
के नीचे स्थापित करना चाहिये ॥१०८॥
निखाताङ्घ्रौ विमाने तु न्यस्तव्या
गर्भमूर्धनि ।
तत्पूर्वदक्षिणे पूर्वं त्रिकोणेषु
प्रदक्षिणम् ॥१०९॥
विमान (मन्दिर) मे निखात स्तम्भ के
नीचे एवं गर्भन्यास के ऊपर इष्टका रखनी चाहिये । उन्हे पूर्व-दक्षिण से (प्रारम्भ
कर) प्रदक्षिणक्रम से तीनों कोणों (दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व) मे स्थापित करना चाहिये ॥१०९॥
देवादीनां द्विजातीनाम स्थापयेत्
स्थपतिः क्रमात् ।
केचिच्छ्वभ्रस्य गम्भीरे
पञ्चद्व्यंशावसानके ॥११०॥
देवों एवं ब्राह्मणों के भवन मे
इष्टका-स्थापन पूर्वोक्त क्रम से होना चाहिये । कुछ विद्वानों के अनुसार गर्त की गहराई
विस्तार के २/५ भाग (से अधिक) नही होनी चाहिये ॥११०॥
इष्टकादिचिते खाते वदन्ति
प्रथमेष्टकाम् ।
पूर्ववद् वरवेषाढ्यो युक्त्या तत्र
निधापयेत् ॥१११॥
इष्टकाओ के चयन से तैयार गर्त मे
सुन्दर वेष धारण कर प्रथम इष्टका को पूर्ववर्णित विधि से स्थापित करना चाहिये ॥१११॥
रूपाण्यप्यौषधानि
द्युतिमणिकनकाद्यष्टलोहानि धातून्
पात्रे न्यस्याञ्जनादीन्
शुभयुतदिनपक्षर्क्षहोरामुहूर्ते ।
मृत्कन्दान्यष्टधान्यानि च निशि
मतिमान् श्वभ्रमूले निधाय
क्षिप्त्वा पात्राय युक्त्या बलिमथ
सलिले स्थापयेद् गर्भमादौ ॥११२॥
शुभ दिन,
पक्ष, नक्षत्र, होरा एवं
मुहूर्त प्राप्त होने पर प्रथमतः गर्भ मे रक्खे जाने वाले पात्र मे मूर्तियाँ,
वनस्पतियाँ, मणि, सुवर्ण
आदि अष्टधातु तथा वर्णो; यथा अञ्जन आदि को रखना चाहिये ।
रात्रि में मृत्तिका, जड़ एवं आठ प्रकार के अन्नों को गर्त के
मूल में रखना चाहिये । (अगले दिन प्रातः) गर्भ-स्थापन की मञ्जूषा के लिये बलि-कर्म
करने के पश्चात् गर्त मे जल के भीतर गर्भ-स्थापन करना चाहिये ॥११२॥
अमरनरविमानद्वारयोगाङ्घ्रिमूले
विधिवदविकलाङ्गं गर्भमदौ निधाय ।
तदुपरि विधिनास्मिन् योगमङ्घ्रिं च
पूर्वं
सकलविभवयुक्तं स्थापयेद्
गर्भमूर्ध्नि ॥११३॥
देवों के एवं मनुष्यों के भवन में
द्वार एवं स्तम्भ के मूल में विधिपूर्वक अविकलाङ्ग (सम्पूर्ण अङ्गो के सहित)
प्रारम्भ मे गर्भ-स्थापन करना चाहिये । इसी के ऊपर स्तम्भ आदि का निर्माण करना
चाहिये । गर्भ-स्थल के ऊपर सम्पूर्ण वैभव से युक्त स्तम्भ आदि को विधि-विधानपूर्वक
स्थापित करना चाहिये ॥११३॥
पञ्चपञ्चकलशोदकपूतौ
श्वेतचन्दननवाम्बरयुक्तौ ।
सर्वमङ्गलविचित्रतरौ तौ
स्थापयेत्स्थपतिरङ्घ्रिकयोगौ ॥११४॥
द्वार-योग एवं स्तम्भ को पच्चीस
कलशों के जल से पवित्र करना चाहिये । इन्हें श्वेत चन्दन एवं नवीन वस्त्र से युक्त
करना चाहिये एवं सभी मङ्गल पदार्थो से युक्त करने के पश्चात स्थपति को स्तम्भ एवं
द्वार-योग को स्थापित करना चाहिये ॥११४॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
गर्भविन्यासो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 13
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