मयमतम् अध्याय ११

मयमतम् अध्याय ११   

मयमतम् अध्याय ११ भूलम्ब विधान इस अध्याय में भवन की आकृति के अनुसार भूलम्ब (तल) का वर्णन किया गया है। इसमें तलों के अनुसार भवन के माप एवं भवन का सर्वाधिक माप वर्णित है।

मयमतम् अध्याय ११

मयमतम् अध्याय ११        

Mayamatam chapter 11

मयमतम् एकादशोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय ११- भूमि के तल एवं आयाम

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ एकादशोऽध्यायः

(भूलम्बविधानम्)

भूमिलम्बविधानं तु वक्ष्ये संक्षेपतः क्रमात् ।

चतुरस्त्रमायतास्त्रं वर्तुलं च तदायतम् ॥१॥

अष्टास्त्रं च षडस्त्रं च द्व्यस्त्रवृत्तं तथैव च ।

एअतद्विन्यासभेदं स्यात् क्षयवृद्धिविधानतः ॥२॥

अब मै (मय) संक्षेप मे क्रमानुसार भूमिलम्बविधान का वर्णन करता हूँ । क्षय (कम करते हुये) एवं वृद्धि (बढाते हुये) विधान के अनुसार विन्यास-भेद इस प्रकार है - चौकोर, आयताकार, गोलाकार, लम्बाई लिये गोलाकार, अष्टकोण, षट्‌कोण एवं द्व्यस्त्रवृत्त (दो कोणों के साथ गोलाकार) ॥१-२॥

भूमिलम्बमिति प्रोक्तं त्रिचतुर्हस्तमानतः ।

द्विद्विहस्तविवृद्ध्यैकं भुमेर्मानं चतुष्टयम् ॥३॥

इसे भूमिलम्ब कहते है । एक भूमि (के भवन) का मान तीन या चार हस्त से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ की वृद्धि करते हुये चार प्रकार का होता है ॥३॥

पञ्चषड्ढस्तमारभ्य द्विद्विहस्तविवर्धनात् ।

द्वितले तु चतुर्मानं रुद्रभानुकरान्तकम् ॥४॥

पाँच या छः हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये ग्यारह या बारह हाथ तक दो तल वाले भवन के चार प्रकार के मान होते है ॥४॥

सप्ताष्टहस्तमारभ्य द्विद्विहस्तविवर्धनात् ।

पञ्चदशविकारान्तं त्रितले पञ्चमानकम् ॥५॥

तीन तल वाले भवन के सात या आठ हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पन्द्रह या सोलह हस्तपर्यन्त पाँच प्रकार के मान होते है ॥५॥

नवपङ्‌क्तिकराद्यावत् पक्षषोडशहस्तकम् ।

चतुष्पञ्चतलं प्रोक्तं चतुर्मानं सनातनम् ॥६॥

नौ या दश हाथ से प्रारम्भ कर पन्द्रह या सोलह हाथ तक चार और पाँच तल वाले भवन के चार प्रकार के मान वर्णित है ॥६॥

एकहस्तं द्विहस्तं वा क्षुद्रमेकतलं स्मृतम् ।

युग्मायुग्मकरैरामर्हस्तार्धोनस्मन्वितैः ॥७॥

केचिद्‌ वदन्ति देवानां मानुषाणां विमानके ।

विस्तारे सप्तषट्‌पञ्चचतुस्त्रंशेऽधिकं त्रिभिः ॥८॥

अथवा एक तल का क्षुद्र प्रमाण एक हाथ या दो हाथ कहा गया है । कुछ विद्वान्‌ देवों एवं मनुष्यो के कई तल वाले भवन के विस्तारप्रमाण में आधा हाथ जोड़ने या कम करने के लिये कहते है । यह सम या विषम संख्या वाले सभी हस्त-प्रमाण के लिये है । (लम्बाई के लिये) विस्तारप्रमाण मे तीन के साथ विस्तार का सात, छः, पाँच, चार या तिन अंश अधिक जोड़ना चाहिये ॥७-८॥

शान्तिकं पौष्टिकं जयदमद्भुतं सार्वकामिकम् ।

उच्छ्रायं द्विगुणं पादार्धाधिकं चापि सम्मतम् ॥९॥

शान्तिक, पौष्टिक, जयद, अद्भुत एवं सार्वकामिक भवनों मे पूर्वोक्त प्रमाण के अतिरिक्त भवन की ऊँचाई उसके चौड़ाई की दुगुनी, डेढ़गुनी अथवा सवा गुनी अधिक होनी चाहिये ॥९॥

पञ्चदशकरव्यासाद्धिनं क्षुद्रविमानकम् ।

सप्ताष्टाधिकपङ्‌क्त्यादिद्विद्विहह्तविवर्धनात् ॥१०॥

चौड़ाई मे पन्द्रह हाथ से कम माप का भवन क्षुद्रविमानक होता है । सत्रह या अट्ठारह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाना चाहिये ॥१०॥

आसप्ततेश्चतुर्भूम्यादीनि त्रीणि मतानि च ।

सप्तविंशतिभेदानिः द्वादशान्तान्यनुक्रमात् ॥११॥

 (दो-दो हाथ बढ़ाते हुये) सत्तर हाथ तक माप ले जाना चाहिये । चार तल से बारह तलपर्यन्त भवन के सत्ताईस भेद होते है एवं इनमें से प्रत्येक के तीन भेद होते है ॥११॥

त्रिचतुर्विंशतिरत्नेर्यावच्छतकरान्तकम् ।

त्रित्रिहस्तविवृद्ध्या तु त्रिनवोत्सेधमिष्यते ॥१२॥

तेईस या चौबीस हाथ से प्रारम्भ कर एक सौ हाथ तक तीन-तीन हाथ बढ़ाते हुये भवन के सत्ताईस प्रकार के ऊँचाई के प्रमाण-भेद प्राप्त होते है ॥१२॥

एवमुत्कृष्टमानेषु श्रेष्ठमध्याधमं भवेत् ।

त्रिचतुष्पङ्‌क्तिहस्तादिद्विद्विहस्तवर्धनात् ॥१३॥

पञ्चषट्‌षष्टिहस्तान्तं संख्यया पूर्वसंस्कृतिः ।

चतुस्तलविमानादि द्वादशान्तं विधीयते ॥१४॥

इस प्रकार उँचे भवनों के श्रेष्ठ, मध्यम एवं अधम भेद प्राप्त होते है । तेरह या चौदह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पैसठ या छाछठ हाथ पर्यन्त इनके माप प्राप्त होते है । इसी प्रकार पूर्ववर्णित संख्याओं द्वारा चार तल के भवन से लेकर बारह तल तक भवनों के प्रकार प्राप्त होते है ॥१३-१४॥

सप्ताष्टपङ्क्तेरारभ्य त्रित्रिहस्तविवर्धनात् ।

पञ्चषण्णवतिर्यावदुच्चं प्रागिव संख्यया ॥१५॥

सत्रह या अट्ठारह हाथ से प्रारम्भ कर पञ्चानबे या छियानबे हाथ तक तीन-तीन हाथ बढ़ाते हुये भवन की ऊँचाई का प्रमाण प्राप्त होता है ॥१५॥

श्रेष्ठमध्यकनिष्ठं स्यादेवं मध्यक्रमेषु च ।

नवपङ्क्तिकरात् पञ्चषट्‌पञ्चाशत्करान्तकम् ॥१६॥

द्विद्विहस्तविवृद्ध्या तु चतुर्विंशतिसंख्यया ।

पञ्चादिद्वादशान्तानां हर्म्याणां विपुलं क्रमात् ॥१७॥

उपर्युक्त सभी भवनों के श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ भेद होते है । नौ या दश हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पचपन या छप्पन हाथपर्यन्त चौबीस प्रकार के विस्तार प्रमाण - प्राप्त होते है । ये भवन पाँच तल से प्रारम्भ होकर बारह तल तक होते है ॥१६-१७॥

सप्ताष्टनवभूमानां धाम्नामुक्तप्रमाणतः ।

युञ्ज्याद्‌ द्वादशभूम्यन्तं विमानं मानविद्वरः ॥१८॥

सात, आठ या नौ तल के भवनों का मान के साथ वर्णन किया गया । मान में कुशल स्थपति इन नियमों का प्रयोग करते हुये बारह तलपर्यन्त भवनों का निर्माण कर सकता है ॥१८॥

द्विःषट्‌त्रयोदशक्ष्मान्तषोडशक्ष्मं यथाक्रमम् ।

षट्‌षट् षट् सप्तपञ्चाशद्धस्तव्यासैः शिवोदितम् ॥१९॥

शिव देवता से सम्बद्ध देवालय बारह, तेरह अथवा सोलह तल का होता है, जिसका विस्तार क्रमशः छत्तीस, बयालीस एवं पचास हाथ कहा गया है ॥१९॥

विस्तारं स्तम्भतो बाह्ये जन्मात् स्थूप्यन्तमुन्नतम् ।

केचिदाशिखरान्तं तु प्रवदन्ति तदुन्नतम् ॥२०॥

भवन का विस्तार स्तम्भ के बाहर से मापना चाहिए एवं इसकी ऊँचाई इसके जन्म (मूल) से प्रारम्भ कर स्तूपिका-पर्यन्त लेनी चाहिये । कुछ विद्वान्‌ भवनकी ऊँचाई शिखर-पर्यन्त मानते है ॥२०॥

महतामुच्छ्रयो हस्तैरुद्देशः समुदाह्रतः ।

तत्तद्व्यासे तु सप्तांशे निर्देशोच्चं त्रियंशकैः ॥२१॥

बड़े भवनों की ऊँचाई कर-प्रमाण में दी गई है । इनका विस्तर दश मे सातवाँ भाग होना चाहिये ॥२१॥

विस्तारद्विगुणोत्सेधं युक्त्याल्पेषु प्रयोजयेत् ।

देवानां सार्वभौमानामाद्वादशतल विदुः ॥२२॥

छोटे भवनों की ऊँचाई उनके विस्तर की दुगुने होनी चाहिये । सार्वभौम देवों का मन्दिर बारह तलों का होना चाहिये ॥२२॥

रक्षोगन्धर्वयक्षाणामेकादशतलं मतम् ।

विप्राणां नवभौमं स्याद्‌ दशभौममथापि वा ॥२३॥

राक्षस, गन्धर्व एवं यक्षो का भवन एकादश तल का तथा ब्राह्मणों का भवन नौ या दश तल का होना चाहिये ॥२३॥

युवराजस्य राज्ञश्च पञ्चमस्यैव सप्तभूः ।

तदाद्येकादशतलं षण्णां वै चक्रवर्तिनाम् ॥२४॥

पाँचवे प्रकार का भवन युवराजों एवं राजाओं का होता है, जो सात तल का होता है । चक्रवर्ती राजाओं का भवन छः तल से प्रारम्भ कर ग्यारह तलपर्यन्त होता है ॥२४॥

त्रिभुमं च चतुर्भूमं वणिजां शूद्रजन्मनाम् ।

राज्ञां पञ्चतलं वाऽपि मत्म पट्टभृतां तु तत् ॥२५॥

वैश्यों एवं शूद्रों का भवन तीन एवं चार तल का होना चाहिये तथा पट्टभृत राजाओं (छोटे राजाओं) का भवन पाँच तल का होना चाहिये ॥२५॥

शतहस्तसमुत्सेधात्‌ सप्तत्यारत्‍निविस्तरात् ।

नेष्यतेऽधिकमानं तु सर्वथा तद्विचक्षणैः ॥२६॥

कुशल स्थपति एक सौ हाथ से अधिक ऊँचे तथा सत्तर हाथ से अधिक विस्तृत भवन का प्रमाण अभीष्ट नहीं मानते है ॥२६॥

क्षुद्रल्पमध्यमवरादिविमानकानाम

व्यामिश्रहस्तकयुजां विपुलोच्चभेदम् ।

युक्त्या यथोदितमजाद्यमरेश्वराणां

नृणां तथैव कथितं हि मया पुराणैः ॥२७॥

मैने (मय ऋषि ने) विभिन्न ऊँचई वाले एवं विस्तार वाले अत्यन्त छोटे, मध्यम एवं बडे भवनों का वर्णन प्राचीन विद्वानों के मतानुसार किया । इस प्रकार यह ब्रह्मा आदि देवों एवं मनुष्यो के भवनो का वर्णन नियमानुसार किया गया ॥२७॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे भूलम्बविधानो नामैकादशोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 12

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