मयमतम् अध्याय १०
मयमतम् अध्याय १० नगर विधान —
इस अध्याय में नगर के प्रमाण एवं उसके विन्यास की चर्चा की गई है।
इसमें माप के अनुसार नगरों के विभिन्न भेद, नगरों के चारो ओर
उनके आकार के अनुसार वप्र (चार दिवारी) का निर्माण, वर्ज्य
स्थान, मार्गविन्यास आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसके
अतिरिक्त राजधानी का विशद् विवेचन, खेट आदि नगरों का विन्यास,
दुर्गों के सात भेद एवं उनके विन्यास, नगर योजना
तथा बाजार आदि के विन्यास का वर्णन प्राप्त होता है।
मयमतम् अध्याय १०
Mayamatam chapter 10
मयमतम् दशमोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र
मयमत अध्याय १०- नगरमान
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ दशमोऽध्यायः
नगरविधानम्
नगरादीनां मानं विन्यासञ्च क्रमादहं
वक्ष्ये ।
नगर - योजना - मै नगर आदि के प्रमाण
एवं विन्यास का क्रमानुसार वर्णन करता हूँ ।
नगरमानम्
आद्यं धनुषां त्रिशतं तस्माच्छतदण्डवर्धनादुपरि
॥१॥
साष्टकसप्ततिभेदाश्चाष्टसहस्त्रान्तकं
यावत् ।
नगराणां विपुलं हि प्रोक्तं
पूर्वोक्तमानेन ॥२॥
नगरों का प्रमाण - नगर का प्रमाण
तीन सौ धनुष से प्रारम्भ होकर एक-एक सौ दण्ड की वृद्धी करते हुये आठ हजार दण्ड तक
प्राप्त होता है । इसके अठहत्तर भेद बनते है । इस प्रकार नगरों के विस्तार का
प्रमाण प्राप्त होता है ॥१-२॥
शतदण्डादिदशर्द्ध्या
त्रिःसप्तत्रिशतदण्डान्तम् ।
क्षुद्राणामिदमुदितं नगराणामेव
सर्वेषाम् ॥३॥
एक सौ दण्ड से प्रारम्भ कर दश-दश
दण्ड की वृद्धि करते हुये तीन सौ दण्डपर्यन्त सभी क्षुद्र नगरों के इक्कीस
विस्तार-प्रमाण प्राप्त होते है ॥३॥
उत्कृष्टपुरुअपरिधिर्नृपतेर्यष्टिद्विरष्टसाहस्त्रैः
।
चातुः सहस्त्रकान्तं पञ्चशतोनाद्धि
पञ्चपञ्चधा मानम् ॥४॥
राजाओं के उत्तम पुरों की परिधि का
प्रमाण सोलह हजार यष्टिप्रमाण से प्रारम्भ कर पाँच सौ दण्ड कम करते हुये चार हजार
पर्यन्त कहा गया है । इस प्रकार इनके पच्चीस प्रमाणभेद बनते है ॥४॥
त्रिशतादिचतुःशतकं यावद्वूद्ध्या तु
विंशतिभिः ।
षड्विधमुक्तं खेटं श्रेष्ठे मधे
परे विपुलम् ॥५॥
तीन सौ दण्ड से प्रारम्भ कर बीस-बीस
दण्ड की वृद्धि करते समय चार सौ दण्डपर्यन्त खेट के छः प्रकार के भेद वर्णित है ।
इनमे दो श्रेष्ठ, दो मध्यम एवं दो
कनिष्ठ प्रकार के खेट होते है ॥५॥
तस्मात् त्रिरष्टवृद्ध्या द्रोणमुखे
पञ्चधा मानम् ।
षण्णवतिचतुःशतकं यावत्तावत्तु
विस्तारम् ॥६॥
उससे (चार सौ दण्ड से) चोबीस-चौबीस
दण्ड की वृद्धि करते हुये चार सौ छियानबे दण्डपर्यन्त द्रोणमुख वास्तु के पाँच
प्रकार बनते है । ये इनके विस्तारमान कहे गये है ॥६॥
द्विशतदिचतुःशतकं
यावत्पञ्चाशदभिवृद्ध्या ।
पञ्चप्रमाणमेवं खर्वटविस्तार
उद्दिष्टः ॥७॥
दो सौ दण्ड से प्रारम्भ करते हुये
पचास-पचास दण्ड की क्रमशः वृद्धि चार सौ दण्डपर्यंन्त की जाती है । इस प्रकार
खर्वट के विस्तार के पाँच प्रमाणभेद प्राप्त होते है ॥७॥
द्विशतादिपङ्क्तिवृद्ध्या
चत्वारिंशत्त्रिशतदण्डं स्यात् ।
यावन्निगमे विपुलाः
प्रोक्तास्त्रिःपञ्चभेदाश्च ॥८॥
दो सौ से प्रारम्भ कर दश-दश दण्ड की
वृद्धि करते हुये तीन सौ चालीस दण्डपर्यन्त निगम के विस्तार का मान प्राप्त होता
है । विस्तारमान की दृष्टि से इसके पन्द्रह भेद बनते है ॥८॥
शतदण्डे शतवृद्ध्या पञ्चशतं
यावदुद्दिष्टम् ।
स्यात् कोत्मकोलकानां विपुलं पञ्चैव
भेदेन ॥९॥
शत दण्ड से प्रारम्भ कर एक-एक सौ
दण्ड की वृद्धी करते हुये पाँच सौ पर्यन्त कोत्मकोलक का विस्तार रक्खा जाता है ।
विस्तारमान की दृष्टि से इसके पाँच भेद होते है ॥९॥
तावन्मानं प्रोक्तं पुरविपुले
सूरिभिः प्राज्ञैः ।
यावत्पञ्चशतान्तं त्रिशतादारभ्य
सप्तधा मानम् ॥१०॥
पञ्चाशद्धनुवृद्ध्या विपुलं कथितं
विडम्बस्य ।
प्रागुपदिष्टं मानं ह्येतन्मानं तु
वै तेषाम् ॥११॥
विद्वान् मनीषियों ने पुरों के
विस्तार के प्रमाणों का इस प्रकार वर्णन किया है । विडम्ब का विस्तार मान तीन सौ
दण्ड से प्रारम्भ कर पचास-पचास दण्ड की वृद्धि करते हुये पाँच सौ दण्डपर्यन्त होता
है । इसके प्रमाण की दृष्टि से सात भेद बनते है । पूर्ववर्णित मान ही इनका
(समानुपातिक) मान होता है ॥१०-११॥
द्विगुणं त्रिपादमर्धं पादं तेषां
मुखायतं विपुलात् ।
विपुले तु षडष्टांशे भागेनैकेन
वायतं पुरतः ॥१२॥
इन पुरादिकों की लम्बाई इनकी चौड़ाई
की दुगुनी, तीन चौथाई, आधी अथवा चतुर्थांश अधिक होती है । अथवा चौड़ाई का षष्ठांश या अष्टमांश
अधिक लम्बाई रखनी चाहिये ॥१२॥
मयमत अध्याय १०-
वप्रविधान
चतुरस्त्रमायतास्त्रं वृत्तं
वृत्तायतं च पुनः ।
स्याद्
गोलवृत्तमेवं वप्राकारास्तु पञ्चैव ॥१३॥
प्राकार-योजना - नगर का
प्राकारमण्डल (चारदिवारी) पाँच प्रकार की होती है- चौकोर,
आयताकार, वृत्ताकार, वृत्तायताकार
(लम्बाई लिये वृत्ताकार) तथा गोलवृत्ताकार ॥१३॥
पङ्कत्यष्टसप्तपञ्चकचतुरंशैस्तत्कृते
विपुले ।
मुनिरसशरयुगशिखिभिर्भागैर्वप्रावधिः
प्रोक्तः ॥१४॥
प्राकार-मण्डल की लम्बाई दश,
आठ, सात, पाँच एवं चार
तथा चौड़ाई सात, छः, पाँच, चार एवं तीन रखनी चाहिये ॥१४॥
द्वित्रिचतुर्हस्तं स्याद्विपुलं
सालस्य तुङ्गे तु ।
सप्तदशैकादशभिर्हस्त्रैरग्रं तु
त्र्यंशोनम् ॥१५॥
वप्र के मूल का विस्तार दो,
तीन या चा हस्त तथा ऊँचाई सात, दश या ग्यारह
हस्त रखना चाहिये । इसके ऊर्ध्व भाग का विस्तार मूल से तीन भाग कम होना चाहिये ।
देवालय आदि के बाहर एवं भीतर परिखा (जलयुक्त खाई) होनी चाहिये ॥१५॥
मयमत अध्याय १०-
वर्ज्यस्थान
परितः परिखा बाह्येऽबाह्ये
देवालयादीनि ।
पेचकभागाद्यासनभागान्तं चण्डितं
प्रोक्तम् ॥१६॥
सूत्रादीन्यथ विषमस्थानानि च
वर्जयेन्मतिमान् ।
त्याज्य स्थान - पेचक
वास्तु-विन्यास (चार पद वास्तु) या आसन वास्तुविन्यास (एक सौ पद वास्तु) अथवा इन
दोनों के मध्य आने वाले वास्तु-विन्यासों में से किसी का प्रयोग किया जा सकता है ।
बुद्धिमान व्यक्ति को निर्माण करते समय वास्तु के सूत्रादिकों एवं विषम स्थलों का
परित्याग करना चाहिये ॥१६॥
मयमत अध्याय १०-
मार्ग
प्रागुदगग्रं मार्गं तत्र यथेष्टं
न्यसेद्विधिना ॥१७॥
वहाँ मार्ग की योजना इच्छानुसार
विधिपूर्वक पूर्व तथा उत्तर से प्रारम्भ करते हुये करनी चाहिये ॥१७॥
दण्डादिसप्तदण्डं
यावद्दण्डार्धवृद्ध्या तु ।
मार्गविशालाश्चैते त्रयोदशभेदाः
समुद्दिष्टाः ॥१८॥
मार्गो का विस्तार एक दण्ड से
प्रारम्भ कर आधा-आधा दण्ड बढ़ाते हुये सात दण्डपर्यन्त रखना चाहिये । इस प्रकार
विस्तार की दृष्टि से मार्ग के तेरह भेद कहे गये है ॥१८॥
मयमत अध्याय १०-
राजधानी
राष्ट्रस्य मध्यभागे सज्जनबहुले
नदीसमीपे च ।
नगरं केवलमथवा राजगृहोपेतराजधानी वा
॥१९॥
राष्ट्र (राज्य) के मध्य भाग में,
नदी के निकट, श्रेष्ठ लोगो की जनसंख्या जहाँ
अधिक हो, ऐसा वसति-विन्यास केवल नगर होता है । उस नगर में
यदि राजभवन हो तो उसे राजधानी कहते है ॥१९॥
दिक्षु चतुर्द्वारयुतं गोपुरयुक्तं
तु सालाढ्यम् ।
क्रयविक्रयकैर्युक्तं
सर्वजनावाससङ्कीर्णम् ॥२०॥
चार दिशाओं में चार द्वार से युक्त,
द्वारों पर शालयुक्त गोपुर, क्रय-विक्रय के
स्थानों (बाजार) से युक्त एवं सभी वर्णो के आवास से युक्त स्थान (नगर होता है )
॥२०॥
सर्वसुरालयसहितं नगरमिदं केवलं
प्रोक्तम् ।
प्रत्यगुदग्दिशि गहना परितः साला
बहिः सपांसुचया ॥२१॥
सभी देवों के मन्दिर से युक्त स्थान
को केवल नगर कहा गया है । (राजधानी के) पूर्व एवं उत्तर दिशा में गहरा होता है तथा
बाहर चारो ओर गीली मिट्टी से निर्मित प्राकार होता है ॥२१॥
परितः परिखा बाह्ये
शिबिरयुतानेकमुखरक्षा ।
पूर्वायां दक्षिणतश्चाभिमुखा
राजबलयुक्ता ॥२२॥
प्राकार-मण्डल के बाहर चारो ओर
परिखा होती है । नगर (राजधानी) के रक्षार्थ शिविर होता है,
जहाँ से प्रत्येक दिशा पर दृष्टि रक्खी जाति है । राज्य के प्रहरी
सैनिक पूर्व एवं दक्षिण दिशा मे मुख करके पहरा देते है ॥२२॥
उन्नतगोपुरयुक्ता नानाविधमालिकोपेता
।
सर्वसुरालयसहिता नानागणिकान्विता
बहूद्याना ॥२३॥
नगर में ऊँचे-ऊँचे गोपुर
(प्रवेशद्वार) होते है, जिनमें अनेक
मालिकायें होती है । उसमे सभी देवों के मन्दिर, नाना प्रकार
की गणिकाये एवं बहुत से उद्यान होते है ॥२३॥
हस्त्यश्वरथपदातिबहुमुख्या
सर्वजनयुक्ता ।
द्वारोपद्वारयुताभ्यन्तरतोऽनेकजनवासा
॥२४॥
यहाँ गज,
अश्व, रथ एवं पैदल सैनिक होते है । सभी प्रकार
के एवं सभी वर्ण के लोग निवास करते है । इस नगर में द्वार एवं उपद्वार (छोटे
प्रवेशद्वार) होते है । नगर के भीतर अनेक प्रकार के जनावास होते है ॥२४॥
या नृपवेश्मसमेता सा कथिता
राजधानीति ।
काननवनदेशे वा सर्वजनावाससङ्कीर्णम्
॥२५॥
क्रयविक्रयकैर्युक्तं पुरमुदितं
यत्तदेव नगरमिति ।
इस प्रकार का राजभवन से युक्त नगर
राजधानी कहलाता है । जो वन-प्रदेश में स्थित होता है,
जहाँ सभी प्रकार के लोग बसते है एवं क्रय-विक्रय के स्थल (हाट,
बाजार) से युक्त पुर को नगर कहते है ॥२५॥
मयमत अध्याय १०-
खेटाटिभेद
शूद्रैरधिष्ठितं यन्नद्यचलावेष्टितं
तु तत्खेटम् ॥२६॥
नदी अथवा पर्वत से घिरे एवं शूद्रों
के निवास से युक्त स्थान को खेट कहते है ॥२६॥
परितः पर्वतयुक्तं खर्वटकं
सर्वजनसहितम् ।
खर्वटखेटकमध्ये यज्जनताढ्यं
जनस्थानकुब्जम् ॥२७॥
चारों ओर पर्वत से घिरे हुये,
सभी वर्णो के आवास से युक्त स्थान को खर्वटक कहते है । खेट एवं
खर्वट के मध्य स्थित घनी जनसंख्या वाले स्थान को कुब्ज कहते है ॥२७॥
द्वीपान्तरागवस्तुभिरभियुक्तं
सर्वजनसहितम् ।
क्रयविक्रयकैर्युक्तं रत्नधनक्षौमगन्धवस्त्वाढ्यम्
॥२८॥
अन्य द्वीपों से आये हुये वस्तुओं
से युक्त,
सभी प्रकार के लोगों से युक्त, क्रयविक्रयस्थल
से युक्त, रत्न, धन, सिल्क के वस्त्रों से युक्त तथा विविध प्रकार के सुगन्धियों (इत्र आदि) से
युक्त, सागर-तट पर स्थित एवं उससे सम्बद्ध नगर को पत्तन कहते
है ॥२८॥
सागरवेलाभ्याशे तदनुगतायामि पत्तनं
प्रोक्तम् ।
परनृपदेशसमीपे
युद्धारम्भक्रियोपेतम् ॥२९॥
सेनासेनापतियुतमिदमुदितं शिबिरमिति
च वरैः ।
सर्वजनैः सङ्कीर्णं नृपभवनयुतं तदेव
तथा ॥३०॥
शत्रु-देश के समीप स्थित,
युद्ध प्रारम्भ करने के लिये सभी सामग्रियों से युक्त तथा सेना एवं
सेनापति से युक्त स्थान को शिविर कहते है । वही स्थान सभी प्रकार के लोगों के आवास
से युक्त एवं राजभवन से युक्त होता है तथा बहुत-सी सेनाओं से युक्त होता है,
तो उसे सेनामुख कहते है ॥२९-३०॥
बहुरक्षोपेतं यत् सेनामुखमुच्यते
तज्ञ्जैः ।
नद्यद्रिपार्श्वयुक्तं नृपभवनयुतं
सबहुरक्षम् ॥३१॥
नदी के किनारे या पर्वत के पास,
राजभवन तथा बहुत से सैनिकों से युक्त तथा राजा के द्वारा स्थापित
स्थान को स्थानीय कहते है ॥३१॥
यन्नृपतिस्थापितकं तत्स्थानीयं
समुद्दिष्टम् ।
नद्यब्धिदक्षिणादक्षिणभाग्वणिगादिसंयुक्तम्
॥३२॥
सर्वजनावासं यद् द्रोणमुखं
प्रोक्तमाचार्यैः ।
ग्रामसमीपे जनतालयमिदमुदितं
विडम्बमिति ॥३३॥
नदी के उत्तर एवं दक्षिण दोनों
भागों में अथवा समुद्र के किनारे बसे हुये स्थान को द्रोणमुख कहते है । यहाँ
व्यापारी वर्ग (प्रधान रूप से) तथा अन्य सभी वर्गो के लोग निवास करते है । ग्राम
के समीप जनावास को विडम्ब कहा जाता है ॥३२-३३॥
वनमध्ये जनवासं यत्कोत्मकोलकं
प्रोक्तम् ।
चातुर्वर्ण्यसमेतं
सर्वजनावाससङ्कीर्णम् ॥३४॥
वन के मध्य में स्थित जनस्थान को
कोत्मकोलक कहा जाता है । जो स्थान चारो वर्णों के लोगों से युक्त हो,
सभी प्रकार के लोगों से बसा हो तथा अधिक संख्य़ा में जहाँ हस्तशिल्पी
निवास करते हो, उसे निगम कहते है ॥३४॥
बहुकर्मकारयुक्तं यन्निगमं तत्
समुद्दिष्टम् ।
नद्यद्रिवनसमेतं बहुजनयुक्तं
सनृपवासम् ॥३५॥
एतत् स्कन्धावारं तत्पार्श्वे चेरिका
प्रोक्ता ।
नदी, पर्वत एवं वन से युक्त, जहाँ की जनसंख्या अधिक हो
एवं जहाँ राजा निवास करते हों; ऐसे स्थान को स्कन्धावार कहते
है । इसके पार्श्व मे चेरिका जनावास होता है ॥३५॥
मयमत अध्याय १०-
दुर्ग
गिरिवनजलपङ्केरिणदैवतमिश्राणि सप्त
दुर्गाणि ॥३६॥
दुर्ग के प्रकार - दुर्ग सात प्रकार
के होते है - गिरिदुर्ग, वनदुर्ग, जलदुर्ग, पङ्कदुर्ग, इरिण
(मरु) दुर्ग, दैवतदुर्ग एवं मिश्रित दुर्ग ॥३६॥
गिरिमध्यं गिरिपार्श्वं गिरिशिखरं
पार्वतं दुर्गम् ।
अजलं तरुवनगहनं वनदुर्गं तदुभयन्तु
मिश्रं स्यात् ॥३७॥
गिरिदुर्ग पर्वत के मध्य,
पर्वत के बगल या पर्वत के शिखर पर स्थित होता है । वनदुर्ग की
स्तिति जलहीन स्थान पर वृक्षों के सघन वन में होती है । मिश्रित दुर्ग में गिरि
एवं वन दोनों दुर्गों के मिश्रित लक्षण होते है ॥३७॥
दैवं तु सहजदुर्गं पङ्कयुत्म
पङ्कदुर्गं स्यात् ।
नद्यब्धिपरिवृतं यज्जलदुर्गं
निर्वनोदमिरिणं स्यात् ॥३८॥
जिस दुर्ग की सुरक्षा-व्यवस्था
प्राकृतिक होती है, उसे दैवदुर्ग कहते
है । जिस दुर्ग के बाहर कीचड़ (दलदल) हो, उसे पङ्कदुर्ग कहते
है । चारो ओर नदी या समुद्र से घिरे दुर्ग को जलदुर्ग तथा वन एवं जल से रहित (ऊषर
या रेगिस्तान क्षेत्र में स्थित) दुर्ग को इरिण दुर्ग कहते है ॥३८॥
अक्षयजलान्नशस्त्रं
ह्यतिविपुलोत्तुङ्गघनसालम् ।
सर्वं हि दुर्गजातं सप्राकारं
त्वनेकमुखरक्षम् ॥३९॥
दुर्ग प्रत्येक दृष्टि से सभी
लक्षणों से परिपूर्ण होना चाहिये । दुर्ग मे अक्षय जल,
अन्न एवं शस्त्रास्त्र होना चाहिये । दुर्ग अत्यन्त विस्तृत,
उन्नत एवं ठोस होना चाहिये । उसे प्राकार-मण्डल एवं सभी द्वारों पर
रक्षकों से युक्त होना चाहिये ॥३९॥
बहिरुदकरहितवनच्छन्नपथं दुष्प्रवेशं
च ।
गोपुरमण्डपयुक्तं
सोपानच्छन्नमच्छन्नम् ॥४०॥
बाहर से दुर्ग में प्रवेश हेतु ऐसा
मार्ग होना चाहिये, जिस पर जल न हो,
वन द्वारा छिपा हो तथा इस मार्ग से दुर्ग मे प्रवेश कठिनाई से होता
है । दुर्ग का प्रवेशद्वार गोपुरमण्डप से युक्त, सोपानयुक्त
हो एवं ढका न हो ॥४०॥
द्विकवाटचतुष्परिघार्गलहस्तोन्नतेन्द्र्कीलयुतम्
।
सस्थूणमध्यमालयमिण्ठकसहितं
सगूढसोपानम् ॥४१॥
प्रवेशद्वार पर दो कपाट हो,
जिनमे चार परिघार्गल (द्वार को खुलने से रोकने के लिये लगी अर्गला)
तथा एक हाथ ऊँची इन्द्रकील लगी होनी चाहिये । द्वार पर मध्य में काष्ठ की स्थूणा
(खम्भा) से युक्त कक्ष होना चाहिये, जिसमें मिण्ठक (द्वार पर
लटकने वाली विशेष आकृति) लगा हो । उस कक्ष में प्रवेश हेतु सीढ़ियाँ बनी होनी
चाहिये, जो छिपी हो ॥४१॥
द्वाराणि मण्डपसभाशालाकाराणि
कार्याणि ।
द्वादश सालाकाराश्चतुरं वृत्तं
तदायतं च पुनः ॥४२॥
नन्द्यावर्तं कौक्कुटमिभकुम्भं
नागवृत्तं च ।
मग्नचतुरं त्रिकोणमष्टास्त्रं
नेमिखण्डं च ॥४३॥
द्वारों को मण्डप,
सभा अथवा शाला के आकार का बनाना चाहिये । इनकी योजना बारह में से
किसी एक प्रकार की होनी चाहिये । बारह आकृति-योजनायें इस प्रकार है- चौकोर,
वृत्त, आयत, नन्द्यावर्त,
कुक्कुट, इभ (गजाकृति), कुम्भ,
नागवृत्त (कुण्डलीयुक्त सर्प), मग्नचतुर
(गोलाई वाले कोने से युक्त चौकोर), त्रिकोण, अष्टकोण तथा नेमिखण्ड (कुछ गोलाई लिये आकृति) ॥४२-४३॥
प्राकाराश्चेष्टकया
द्वादशहस्तोच्छ्रिताहीनाः ।
उत्सेधार्धविशाला मूले भित्तिः
ससञ्चारा ॥४४॥
ईटों से निर्मित प्राकार की ऊँचाई
कम से कम बारह हाथ रखनी चाहिये । प्राकार के मूल की चौड़ाई ऊँचाई की आधी होनी
चाहिये । भित्ति इतनी चौड़ी होनी चाहिये, जिससे
उस पर सुगमता से चला जा सके ॥४४॥
सालस्याभ्यन्तरतः
पांसुचयोपर्यनेकयन्त्रयुतम् ।
परितः परिखोपेतं पांसुचये
संहताट्टालम् ॥४५॥
प्राकार के भीतर भाग में पांसुचय
(कच्ची मिट्टी की जोड़ाई) के ऊपर अनेक सुरक्षायन्त्र लगाना चाहिये । चारो ओर परिखा
(खाई) होनी चाहिये एवं पांसुचय के ऊपर अट्टालक बनाना चाहिये ॥४५॥
परितः शिबिरोपेतं
नानाजनवाससङ्कीर्णम् ।
नृपभवनसमोपेतं
हस्त्यश्वरथपदातिबहुमुख्यम् ॥४६॥
इसके चारो ओर सैनिकों की छावनी होनी
चाहिये । दुर्ग मे विभिन्न प्रकार के लोगों का आवास, राजभवन तथा गज, अश्व, रथ एवं
पैदल सेना होनी चाहिये ॥४६॥
धान्यैस्तैलैः क्षारैः
सलवणभैषज्यगन्धविषम् ।
लोहाङ्गारस्नायुविषाणवेण्विन्धनैर्युक्तम्
॥४७॥
दुर्ग के भीतर अन्न,
तेल, क्षार, नमक,
औषधियाँ, सुगन्ध, विष,
धातुयें, अङ्गार (कोयला), स्नायु (चमड़े की डोरी), सींग, बाँस
एवं इन्धन की लकड़ी पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिये ॥४७॥
तृणचर्मशाकयुक्तं सवल्कलं
सारदारुयुतम् ।
दुर्गं दुर्गममुक्तं दुर्लङ्घयं
दुरवगाहं च ॥४८॥
दुर्ग मे तृण (पशुओं का चारा),
चमड़ा, शाक (तरकारी), छाल
से युक्त काष्ठ एवं कठोर काष्ठ प्रभूत मात्रा में होनी चाहिये । दुर्ग का कठिनाई
से प्रवेश करने योग्य, कठिनाई से लाँघने योग्य तथा कठिनाई से
पार करने योग्य होना चाहिये- ऐसा कहा गया है ॥४८॥
रक्षार्थं च जयार्थं ह्यरिभिरभेदं च
दुर्गमिष्टं स्यात् ।
इन्द्रश्च वासुदेवो गुहो जयन्तश्च
वैश्रवणः ॥४९॥
अश्विन्यौ श्रीमदिरे शिवश्च दुर्गा
सरस्वती चेति ।
प्राकारान्तर्दिव्या दुर्गनिवेशे च
विज्ञेयाः ॥५०॥
रक्षा के लिये,
विजय के लिये एवं शत्रुओं द्वारा अभेद्यता के लिये दुर्ग की
आवश्यकता होती है । दुर्ग-निवेश के समय प्राकार के भीतर इन्द्र, वासुदेव, गुह, जयन्त, कुबेर, दोनों अश्विनीकुमार, श्री,
मदिरा, शिव, दुर्गा तथा
सरस्वती देवी-देवताओं को स्थापित करना चाहिये ॥४९-५०॥
एवं दुर्गविधानं सम्यक् प्रोक्तं
पुरातनैर्मुनिभिः ।
इस प्रकार प्राचीन मनीषयों ने
दुर्ग-विधान का वर्णन किया है ।
मयमत अध्याय १०-
नगरविन्यास
सर्वेषां विन्यासं संक्षेपाद्
वक्ष्यते क्रमशः ॥५१॥
नगर - योजना - अब क्रमशः सभी
(नगरों) का विन्यास संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है ॥५१॥
प्राक्प्रत्यग्गतमार्गा द्वादश दश
वाऽष्टषट्चतुर्युगलम् ।
तावदुदीचीनास्ते तत्रैवायुग्मसंख्या
वा ॥५२॥
पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाले
मार्गों की संख्या बारह, दश, आठ, छः, चार या दो होनी चाहिये
। इसी प्रकार उत्तर (से दक्षिण जाने वाले) मार्गों की भी योजना रखनी चाहिये । अथवा
अयुग्म (विषम) संख्या में मार्ग होने चाहिये ॥५२॥
एकदशनवसप्तकपञ्चगुणा वैकमार्गा वा ।
युग्मायुग्मपदेषु द्व्येकत्रिभिरंशकैरजांशाः
स्युः ॥५३॥
अयुग्म संख्याओं में ग्यारह,
नौ, सात, पाँच, तीन या एक मार्ग होने चाहिये । युग्म (सम) अथव अयुग्म (विषम) पदों में दो,
तीन एवं एक अज (ब्रह्मा) का भाग होता है ॥५३॥
नगरादिनामेवं मार्गाण्युदितानि
सर्वेषाम् ।
दण्डवदेका वीथी तद्दण्डकमित्यभीष्टं
स्यात् ॥५४॥
इस प्रकार सभी नगरादिकों के मार्गो
का वर्णन किया गया है । दण्ड के समान एक वीथी (मार्ग) को दण्डक कहते है ॥५४॥
उत्तरदिङ्मुखमेकं तन्मध्ये
सम्प्रयुक्तं चेत् ।
कर्तरिदण्डकमुदितं प्राचीनौ
कुट्टिमौ तर्हि ॥५५॥
उत्तर दिशा से आता हा एक मार्ग यदि पूर्वोक्त
मार्ग के साल मध्य में संयुक्त होता है तो उसे कर्तरिदण्डक कहते है। यदि पूर्व
दिशा से ईटो से निर्मित दो मार्ग आते है ॥५५॥
तद् बाहुदण्डकं स्याद् दिक्षु
चतुर्द्वारसंयुक्तम् ।
बहुकुट्टिमसंयुक्तं मध्ये वीथ्या
द्विपार्श्वे तु ॥५६॥
तो उसे बाहुदण्डक कहा जाता है । यदि
चारो दिशाओं में द्वार हो तथा वीथी के मध्य में दोनों पार्श्वो मे बहुत से
कुट्टिमयुक्त (ईटों से निर्मित) मार्ग आकर मिले एव शेष स्थिति पूर्ववर्णित रहे तो
उसे कुटिकामुख दण्डक कहते है ॥५६॥
शेषं पूर्ववदिष्टं कुटिकामुखदण्डकं
प्रोक्तम् ।
प्राचीनोदीचीनैर्मार्गैस्त्रिभिरेव
संयुक्तम् ॥५७॥
पूर्व से आने वाले तीन मार्ग तथा
उत्तर से आने वाले तीन मार्ग जब आपस में संयुक्त होते है तो उसे कलकाबन्धदण्डक कहा
गया है ॥५७॥
तत् कलकाबन्धदणकमिति तज्ज्ञैः
समुद्दिष्टम् ।
प्राङ्मुअवीथ्यस्तिस्त्रश्चोत्तरमार्गास्त्रयश्चैव
॥५८॥
एकैकान्तरितास्ते
कुट्टिममार्गास्त्वनेकाश्च ।
वेदीभद्रकमुदितं नगरादिनामिदं
शस्तम् ॥५९॥
यदि पूर्व से तीन मार्ग एवं उत्तर
से तीन मार्ग निकलें तथा इनमें एक-एक के बाद अनेक कुट्टिममार्ग हो तो उसे
वेदीभद्रक कहते है । यह मार्ग-योजना नगरादिकों के लिये उपयुक्त होती है ॥५८-५९॥
स्वस्तिकमुदितं ग्रामे यथा तथा
स्वस्तिकं विद्यात् ।
प्रागुत्तरमुखमार्गाः षट्षडभीष्टास्तु
तद्बाह्ये ॥६०॥
मार्ग की स्वस्तिक-योजना स्वस्तिक
ग्राम के लिये कही गई है । इसमें छः मार्ग पूर्व से एवं छः मार्ग उत्तर से निकलते
है ॥६०॥
प्रागिव मार्गोपेतं वीथिपदं
स्वस्तिकं चैव ।
पूर्व-वर्णित मार्ग-योजना के अनुसार
मार्गो की रचना स्वस्तिक होती है ।
प्राचीनोदीचीनाश्चत्वारश्चैव
मार्गाः स्युः ॥६१॥
ब्रह्मावृतपथमेकं
कुट्टिममार्गास्त्रयः प्राच्याम् ।
एतद् भद्रकमुदितं नाम्ना
नगरादिविन्यासम् ॥६२॥
पूर्व से एवं उत्तर से निकलने वाले
मार्गो की संख्य़ा चार होती है । एक मार्ग ब्रह्मस्थान से निकलता है । तीन
कुट्टिममार्ग पूर्व दिशा मे होते है । इस मार्गयोजना को भद्रक कहा जाता है । इस
मार्गयोजना का प्रयोग नगरादि के विन्यास मे किया जाता है ॥६१-६२॥
प्राङ्मुखमार्गाः पञ्चैवोत्तरमार्गास्तथैव
स्युः ।
बहुकुट्टिमसंयुक्तं भद्रमुखं नाम
वस्तु स्यात् ॥६३॥
पाँच मार्ग पूर्व दिशा से एवं पाँच
मार्ग उत्तर दिशा से निकलते है । बहुत से कुट्टिम मार्ग निकलते है । इस मार्गयोजना
को भद्रमुख कहते है ॥६३॥
प्राचीनास्तु
षडेवैवोत्तरवक्त्रास्तथा मार्गाः ।
यद् बहुकुट्टिमयुक्तं तद्वस्तु च
भद्रकल्याणम् ॥६४॥
छः मार्ग पूर्व दिशा से एवं छः
मार्ग उत्तर दिशा से निकलते है तथा बहुत से कुट्टिम मार्ग होते है,
तो उसे भद्रकल्याण मार्गयोजना कहते है ॥६४॥
पूर्वापरमुखमार्गाः सप्तैवोदङ्मुखाश्च
तथा ।
शेषं प्रागिव सर्वं विन्यासं
तन्महाभद्रम् ॥६५॥
पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाले
सात मार्ग तथा उत्तर से (दक्षिण की ओर जाने वाले) सात मार्ग हो तथा शेष योजना
पूर्ववत् (बहुत से कुट्टिम मार्ग) हो तो उसे महाभद्र मार्गयोजना कहते है ॥६५॥
अष्टौ पूर्वमुखास्ते
मार्गाश्चाष्टावुदग्वक्त्राः ।
द्वादशमार्गोपेतं
बह्वर्गलकुट्टिमैर्युक्तम् ॥६६॥
आठ मार्ग पूर्व दिशा से एवं आठ
मार्ग उत्तर दिशा से निकलते है । (इनके अतिरिक्त) बारह मार्गो एवं बहुत से अर्गल
कुट्टियों से (अर्गला के समान आपस में गुम्फित) युक्त मार्ग-विन्यास को
वस्तुसुभद्र कहते है ॥६६॥
यत्ततद्वस्तुसुभद्रं नाम्ना
विन्यासमुद्दिष्टम् ।
नवनवमार्गाश्चैते
प्राचीनाश्चाप्युदीचीनाः ॥६७॥
द्वारोपद्वारयुतं
कुट्टिममार्गार्गलैर्युक्तम् ।
राजगृहोपेतं यन्नगरं नाम्ना जयाङ्गं
स्यात् ॥६८॥
नौ द्वार पूर्व से निकलते हो तथा नौ
द्वार उत्तर से निकलते हो, इन मार्गो पर द्वार
एवं उपद्वार (छोटे प्रवेशद्वार) हो, इन मार्गो के साथ
अर्गल-कुट्टिम मार्ग भी हो तथा नगर मे राजगृह भी हो तो उसकी संज्ञा जयाङ्ग होती है
॥६७-६८॥
प्राचीणा दश
मार्गाश्चोत्तरमार्गास्तथैव स्युः ।
नृपमन्दिरसंयुक्तं
युक्त्यानेकार्गलोपेतम् ॥६९॥
पूर्व दिशा से दश मार्गो का
प्रारम्भ होता हो तथा उत्तर दिशा से भी दश मार्ग निकलते हो;
साथ ही इन मार्गो के साथ अनेक अर्गलायुक्त कुट्टिम मार्ग हो तथा नगर
मे राजभवन भी हो तो उसे श्रेष्ठ जनों ने विजय संज्ञा प्रदान की है ॥६९॥
बहुकुट्टिमसंयुक्तं विजयं नाम्ना
वरैः प्रोक्तम् ।
प्राचीनास्त्वेकादश मार्गा रुद्र
उदीचीनाः ॥७०॥
ब्रह्मांशादपरांशो यदभीष्ट तत्र
नृपवासम् ।
तन्मुखतोऽदभ्रमहाङ्गणकं
स्यादिष्टभागे तु ॥७१॥
(सर्वतोभद्र योजना मे) पूर्व से
ग्यारह मार्ग तथा उत्तर से ग्यारह मार्ग निकलते हो, ब्रह्मभाग
क पश्चिम मे इच्छित स्थान पर राजा का आवास हो, उसके सम्मुख
बहुत विशाल आँगन होना चाहिये ॥७०-७१॥
तत्रान्तःपुरवासं शेशं सर्वं
समुन्नेयम् ।
तत्प्रागुदग्गतमार्गा सा कथिता
राजवीथीति ॥७२॥
इसके पश्चात अभीष्ट स्थन पर रानियों
का आवास होना चाहिये । पूर्व से निकले मार्ग को राजवीथी कहते है ॥७२॥
तस्या द्विपार्श्वयोः
स्यात्सैश्वर्याणां तु मालिकापङ्क्तिः ।
तत्पार्श्वयोर्निवासो वणिजां
स्यात्तस्य दक्षिणतः ॥७३॥
स्यत्तन्तुवायवासं
ह्युत्तरतश्चक्रिणां वासम् ।
तत्तज्जात्यन्तरगृहमथ तत्सामीप्यतः
कुर्यात् ॥७४॥
राजवीथे के दोनो पार्श्वों मे
धनाढ्य लोगों की मालिका-पङ्क्ति (भवनो की पङ्क्ति होनी चाहिये । उनके पार्श्वों मे
व्यापारियों का आवास होना चाहिये । उसके दक्षिण में तन्तुवायों (जुलाहो) का आवास
होना चाहिये । उसके उत्तर मे कुम्हारों का आवास होना चाइये और इनके समीप ही
जात्यन्तरो (छोटी जाति वालों) का आवास होना चाहिये ॥७३-७४॥
शेषं प्रागिव सर्वं योग्यं
तत्सर्वतोभद्रम् ।
एवं षोडश भेदा
ह्युदिताश्चाद्यैर्मुनीन्द्रैस्तु ॥७५॥
शेष सभी पूर्ववर्णित नियमों के
अनुसार होना चाहिये । यह सर्वतोभद्र व्यवस्था है । इस प्रकार प्राचीन मुनियों ने
नगर के सोलह भेदों का वर्णन किया है ॥७५॥
मार्गच्छेदं नेष्टं पदमध्ये चत्वर्म
न स्यात् ।
शेषं युक्त्यानुक्तं सम्यग्योज्यं
नृपेच्छया तज्ज्ञैः ॥७६॥
क्षुद्राणामपि चैषां मध्यानां चापि
सर्वेषाम् ।
नगर के मध्य पद में न तो मार्ग
बाधित होना चाहिये तथा न ही वहाँ चौराहा होना चाहिये । शेष की योजना राजा की
इच्छानुसार मध्य मे करनी चाहिये, जिनका यहाँ
वर्णन नही किया गया है ॥७६॥
मयमत अध्याय १०-
अन्तरापण
तत्र कुटुम्बावलिक्म वक्ष्येऽहं
चान्तरापणकम् ॥७७॥
हाट-योजना - अब मैं (मय)
कुटुम्बावलिक (परिवारों के आवास की पंक्ति) तथा बाजारों का वर्णन करता हूँ ॥७७॥
परितो रथपथयुक्तं मध्ये वणिजां
गृहश्रेणी ।
तद्दक्षिणतः पार्श्वे गेहं
स्यात्तन्तुवायानाम् ॥७८॥
बाजार के चारो ओर रथ के चलने योग्य
मार्ग हो एवं मध्य मे व्यापारियों के गृहों की पङ्क्ति होनी चाहिये । उनके दक्षिण
पार्श्व मे जुलाहों के गृह होने चाहिये ॥७८॥
उत्तरतस्तद्वासावलिकं स्याच्चक्रिकाणां
तु ।
कर्मोपजीविनां स्याद्वासं
रथपथ्यनेकानाम् ॥७९॥
उत्तर भाग मे कुम्हारो के भवन होने
चाहिये । अन्य शिल्पियों के गृह भी रथमार्ग से संयुक्त होने चाहिये ॥७९॥
ब्रह्मावृतपथमेकं तत्रान्तरापणं
कार्यम् ।
ताम्बूलादि फलञ्च प्रोक्तं
सारान्वितं द्रव्यम् ॥८०॥
जो मार्ग ब्रह्म-पद को घेरता हो,
उस पर पान, फल एवं सारयुक्त सामग्रियो का हाट
बनाना चाहिये ॥८०॥
ईशानादिमहेन्द्रद्वारान्तं
चान्तरापणकम् ।
तत्रैव मत्स्यमांसं शुष्कं शाकञ्च
विज्ञेयम् ॥८१॥
ईशान से महेन्द्र पद तक हाट-बाजार
निर्मित करना चाहिये । वही पर मछली, माँस,
सूखे पदार्थ एवं शाक (सब्जी, तरकारी) का हाट
भी होना चाहिये ॥८१॥
महेन्द्राद्यग्न्यन्तं भक्ष्यं
भोज्यं च निर्दिष्टम् ।
अग्न्यादि गृहक्षतपर्यन्तं तत्र
भाण्डानि ॥८२॥
महेन्द्र पद से प्रारम्भ कर
अग्निकोण-पर्यन्त भक्ष्य एवं भोज्य (खाने-पीने योग्य) पदार्थों का हाट बनाना
चाहिये तथा अग्नि से गृहक्षतपर्यन्त भाण्डों (बरतन) का हाट होना चाहिये ॥८२॥
तस्मान्निऋतिपदान्तं कंसादिकमत्र
विज्ञेयम् ।
स्यात् पुष्पदन्तभागान्त पितृभागादि
वस्त्रं स्यात् ॥८३॥
गृहक्षत से निऋति के पद तक कांस्य
आदि धातुओं से निर्मित पदार्थों का हाट होना चाहिये । पितृपद से पुष्पदन्त के पद
तक वस्त्रों का हाट होना चाहिये ॥८३॥
तस्मात् समीरणान्तं
तण्डुलधान्यादिकं च कटम् ।
स्याद् भल्लाटपदान्तं वाय्वादिकं
वस्त्रकादीनाम् ॥८४॥
पुष्पदन्त से समीर पदपर्यन्त चावल,
अन्न एवं भूसे के बाजार होने चाहिये । वायु से भल्लाट के पद तक
वस्त्र आदि के हाट होने चाहिये ॥८४॥
तत्रैव लावणादिद्रव्यं तैलादिकं
ज्ञेयम् ।
तस्मादिशपदान्तं गन्धं पुष्पादिकं
विहितम् ॥८५॥
उसी स्थान पर नमक आदि पदार्थ एवं
तेल आदि का हाट होना चाहिये । भल्लाट से ईश तक सुगन्ध एवं पुष्प आदि का हाट होना
चाहिये ॥८५॥
एवं नवान्तरापणमुदितं तत्परितस्तु
मध्ये ।
अभ्यन्तरगतमार्गेष्वथ रत्नं हाटकं
वस्त्रम् ॥८६॥
इस प्रकार वसति-विन्यास (नगरादि) मे
चारो ओर नौ प्रकार के हाटों का वर्णन किया गया है । मध्य भाग मे जाने वाले मार्गो
पर रत्न,
सुवर्ण एवं वस्त्रो का हाट होना चाहिये ॥८६॥
माञ्जिष्ठं तु मरीचं पिप्पलकं चापि
हारिद्रम् ।
मधुघृततैलादिकमथ भैषज्यं सर्वतः
कार्यम् ॥८७॥
इनके अतिरिक्त माञ्जिष्ठ (मजीठ,
रंग), काली मिर्च, पीपल,
हारिद्र (हल्दी), शहद, घी,
तेल तथा औषध के हाट सभी स्थानों पर होने चाहिये ॥८७॥
आर्यपदे च विवस्वति मित्रे पृथिवीधरे
च पदे ।
शास्ता दुर्गा गजमुखलक्ष्म्यौ
चात्रेव विज्ञेयाः ॥८८॥
आर्य, विवस्वान, मित्र एवं पृथिवीधर के पद पर शास्ता,
दुर्गा, गजमुख एवं लक्ष्मी का स्थान होना
चाहिये ॥८८॥
देवालयमथ परितो ग्रामे यथा तथा
विहितम् ।
परितः सर्वजनालयमुदितं किञ्चित्ततो
दूरे ॥८९॥
जिस प्रकार ग्राम मे उसी प्रकार
(नगर आदि मे भी) चारो ओर देवालय होना चाहिये । इससे कुछ दूर सभी वर्ण के मनुष्यों
का आवास होना चाहिये ॥८९॥
नगराद् द्विशतं दण्डं नीत्वा
प्राच्यां तु वाग्नेय्याम् ।
चण्डालकुटीराणि तत्रैव तु कोलिकानां
तु ॥९०॥
नगर से दो सौ दण्ड दूर ले जाकर
पूर्व अथवा आग्नेय कोण मे चण्डालों एवं कोलिकों के कुटीर होने चाहिये ॥९०॥
अस्मिन् सर्वमनुक्तं ग्रामे तु यथा
तथा विहितम् ।
पत्तनमृजुवीथियुतं नैव
स्यादन्तरापणं तत्र ।
शेषाणामपि तत्तद्योग्यवशात्तत्र
विज्ञेयम् ॥९१॥
यहाँ जिन सबका वर्णन नही किया गया
है,
वे सब उसी प्रकार होंगे, जैसे ग्रामों मे
वर्णित है । पत्तन में ऋतुपथ (सीधी सड़क) होती है एवं वहाँ बाजार नही होते है । शेष
नगर आदि स्थानों मे यथोचित (आवश्यकतानुसार) हाट आदि होना चाहिये ॥९१॥
स्थानीयदुर्गपुरपत्तनकोत्मकोल-
द्रोणामुखानि निगमञ्च तथैव खेटम् ।
ग्रामञ्च खर्वटमितीह दशैव युक्त्या-
धिष्ठानकानि कथितानि पुरातनार्यैः
॥९२॥
प्राचीन आचार्यो ने दस प्रकार के
वासयोग्य अधिष्ठानो का वर्णन किया है - स्नानीय, दुर्ग, पुर, पत्तन, कोत्मकोल, द्रोणमुख, निगम,
खेट, ग्राम तथा खर्वट । (इनकी स्थापना भौगोलिक
स्थित के अनुसार होती है) ॥९२॥
एवं प्रोक्तं भूमिदेवादिकानां
वर्णानां चाप्यत्र जात्यन्तराणाम् ।
ग्रामादीनां मानविन्यासमार्गं
सालङ्कारं चारु संक्षिप्य तन्त्रात् ॥९३॥
इस प्रकार तन्त्रों से ग्रहण कर
संक्षेप मे भूमि, देवताओं, चार वर्णों, जात्यन्तरो (सङ्कर जाति), ग्रामादि के प्रमाण, मार्ग-विन्यास का सुन्दर सजावट
के साथ वर्णन किया गया है ॥९३॥
दत्तान्नृपः स्थपतिकादिचतुष्टयेभ्यो
मानादिकर्मनिपुणेभ्य इडां च गाञ्च ।
नित्यं यथा जगति वित्तमनेकवस्तू-
न्याचन्द्रतारमधिवासभुवं मुदा सः
॥९४॥
राजा को मापन आदि कार्य में निपुण
चारो स्थपति आदि को गाय एवं पृथिवी प्रदान करना चाहिये । ऐसा करने से जब तक संसार
मे चन्द्रमा एवं तारे रहेंगे तब तक वह राजा प्रसन्नतापूर्वक पृथिवी पर धन आदि अनेक
समृद्धिदायक वस्तुओं से युक्त एवं सर्वदा प्रसन्न रहता है ॥९४॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे नगरविधानो नाम
दशमोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 11
0 $type={blogger} :
Post a Comment