पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

मयमतम् अध्याय ९

मयमतम् अध्याय ९ 

मयमतम् अध्याय ९ ग्राम विन्यास - इस अध्याय में ग्रामों के प्रमाण, विविध मापों पर एक दृष्टि, ग्रामादि के प्रमाण, आयादि-विचार, ग्रामादि में ब्राह्मणों की संख्या, ग्रामों के नाम, मार्ग-व्यवस्था, ग्रामों के मङ्गल एवं पुर आदि भेद, द्वार-व्यवस्था, ग्रामों में देवालय, ग्राम के प्रवेशद्वारों पर स्थापित देवता, ग्रामवास्तु के वर्ज्य स्थान, उपवन आदि के लिये श्रेणिस्थान, गृहों के लक्षण, गृहादि के विन्यास में सम्भावित दोष तथा ग्राम का शिलान्यास आदि वर्णित है।

मयमतम् अध्याय ९

मयमतम् अध्याय ९      

Mayamatam chapter 9

मयमतम् नवमोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र

मयमत अध्याय ९- ग्रामविन्यास

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ नवमोऽध्यायः

ग्रामविन्यासः

ग्रामादीनां मानं विन्यासं चापि वक्ष्यते विधिना ।

ग्रामयोजना - अब ग्राम आदि का नियमानुसार प्रमाण एवं विन्यास (निर्माण-योजना) का वर्णन किया जा रहा है।

मयमत अध्याय ९- पुनर्मानोपकरण

दण्डानां पञ्चशतं क्रोशं तद्‌द्विगुणमर्धगव्यूतम् ॥१॥

पुनः प्रमाण-चर्चा-पाँच सौ दण्डों का एक क्रोश एव उसके दुगने (दो क्रोश) का एक अर्धगव्यूत मान होता है ॥१॥

गव्यूतं तद्‌द्विगुणं ह्याष्टसहस्त्रं तु योजनं विद्यात् ।

अष्टधनुश्चतुरस्त्रा काकणिका तच्चतुर्गुणं माषम् ॥२॥

एक अर्धगव्यूत का दुगुना एक गव्यूत होता है । आठ हजार दण्ड का एक योजन होता है । आठ धनु (दण्ड) का चौकोर माप काकनीका एवं उसका चौगुना माप माष कहलाता है ॥२॥

माषचतुर्वर्तनकं तत्पञ्चगुणं हि वाटिका कथिता ।

वाटिकया युगगुणिता ग्रामकुटुम्बावनिः श्रेष्ठाः ॥३॥

माश का चार गुना वर्तनक एवं पाँच गुना वाटिकासंज्ञक माप होता है । वाटिका का चार गुना स्थान ग्राम मे एक परिवार के लिये उत्तम होता है ॥३॥

एवं भुगतमानं दण्डैस्तेषां तु वक्ष्यते मानम् ।

इस प्रकार दण्डमाप के द्वारा भूमि का मान होता है । उनका मान (इस प्रकार) कहा जा रहा है ।

मयमत अध्याय ९- ग्रामादिमानम्

ग्रामस्य शतसहस्त्रैर्दण्डेः पर्यन्तमानमिदमुक्तम् ॥४॥

ग्रामादि का प्रमाण - (सबसे बड़े) ग्राम का मान सौ हजार दण्ड कहा गया है ॥४॥

विंशतिसहस्त्रदण्डात्तत्समवृद्ध्या तु पञ्चमानं स्यात् ।

ग्रामे विंशतिभागे कुटुम्बभूमिस्तदेकभागेन ॥५॥

बीस हजार दण्ड से प्रारम्भ कर सम संख्या में मानवृद्धि करते हुये ग्रामों के पाँच प्रकार के प्रमाण होते है । ग्राम के बीस भाग में एक भाग एक कुटुम्ब की भुमि होती है ॥५॥

दण्डैः पञ्चशतैर्यद्धीनं ग्रामस्य मानमिदम् ।

तस्मात् पञ्चशतर्द्ध्या यावद्विंशत्सहस्त्रदण्डान्तम् ॥६॥

हीन (सबसे छोटे) ग्राम का मान पाँच सौ दण्ड का होता है । इससे प्रारम्भ कर पाँच सौ दण्ड बढ़ाते हुये बीस हजार दण्ड तक मान प्राप्त करना चाहिये ॥६॥

प्रोक्तं चत्वारिंशद्भेदं ग्रामस्य मानमिदम् ।

द्विसहस्त्रदण्डमानं सार्धसहस्त्रं सहस्त्रदण्डं च ॥७॥

ग्राम के चालीस भेद होते है । यह ग्राम का मान है । (चौड़ाई में) दो हजार दण्ड, एक हजार पाँच सौ दण्ड तथा हजार दण्ड (ग्राम का मान है) ॥७॥

नवशतमथ सप्तशतं पञ्चशतं त्रिशतमिति च विस्तारम् ।

नगरस्य सहस्त्रादिद्विसहस्त्रान्तं च दण्डमानं स्यात् ॥८॥

नौ सौ, सात सौ, पाँच सौ एवं तिन सौ (ग्राम का) विस्तार होता है । नगर का दण्डमान एक हजार दण्ड से प्रारम्भ कर दो हजार दण्डपर्यन्त होता है ॥८॥

नगरस्याष्टसहस्त्रैर्दण्डेः पर्यन्तमानमिदम् ।

द्विद्विसहस्त्रक्षयतो द्विसहस्त्रान्तं चतुर्विधं मानम् ॥९॥

 (सबसे बड़े) नगर का मान आठ हजार दण्ड होता है । दो-दो हजार दन्ड कम करते हुये नगर के चार प्रकार के मान प्राप्त होते है ॥९॥

ग्रामः खेटः खर्वटमथ दुर्गं नगरमिति च पञ्चविधम् ।

द्ण्डैस्तेषां मानं वक्ष्येऽहं त्रित्रिभेदाभिन्नानाम् ॥१०॥

ग्राम, खेट, खर्वट, दुर्ग एवं नगर - ये पाँच प्रकार के (वसति-विन्यास) होते है । अब मै (मय ऋषि) दण्ड के द्वारा प्रत्येक के तीन- तीन भेद कहता हूँ ॥१०॥

चतुराधिकषष्टिदण्डो ग्रामः स्याद्धीनहीनमिति कथितः ।

ग्रामस्य मध्यमस्य द्विगुणं त्रिगुणं तथोत्तमं प्रोक्तम् ॥११॥

छोटे मे भी सबसे छोटा ग्राम चौसठ दण्ड होता है । मध्यम ग्राम का उसका दुगुना एवं उत्तम तीन गुना होता है ॥११॥

षट्‌पञ्चाशद्‌दिशतं हीनं खेटं सविंशति त्रिशतम् ।

मध्यममुत्तममेवं सचतुरशीति त्रिशतदण्डम् ॥१२॥

छोटे खेट का माप दो सौ छप्पन, मध्यम खेट का तीन सौ बीस तथा उत्तम खेट का माप तीन सौ चौरासी दण्ड होता है ॥१२॥

अष्टौ चत्वारिंशच्चतुःसह्तं द्वादशं च पञ्चशतम् ।

षट्‌सप्ततिपञ्चशतं हीनं मधोत्तमं च खर्वटकम् ॥१३॥

छोटे खर्वट का माप चार सौ अड़तालीस, मध्यम खर्वट का माप पाँच सौ बारह तथा उत्तम खर्वट का माप पाँच सौ छिहत्तर दण्ड कहा गया है ॥१३॥

चत्वारिंशत्षट्‌शतमधमं दुर्गं चतुःसप्तशतदण्डम् ।

मध्यममुत्तमदुर्गं सप्तशतं षष्टिरष्टौ हि ॥१४॥

कनिष्ठ दुर्ग छः सौ चालीस दण्ड, मध्यम दुर्ग सात सौ चार दण्ड एवं उत्तम दुर्ग सात सौ अड़सठ दण्ड का होता है ॥१४॥

द्वात्रिंसदष्टशतकं नगरं षण्णवत्यष्टशतदण्डम् ।

षष्टिर्नवशतमधमं मध्यममुत्कृष्टमिति यथासंख्यम् ॥१५॥

कनिष्ठ नगर आठ सौ बत्तीस दण्ड, मध्यम नगर आठ सौ छियानबे दण्ड तथा उत्तम नगर नौ सौ साठ दण्ड माप का होता है ॥१५॥

षोडशदण्डविवृद्ध्या प्रत्येकं नवविधं भवति ।

द्विगुणं त्रिपादमर्धं पादं तेषां मुखायतं विपुलात् ॥१६॥

सोलह दण्ड की वृद्धि करते हुये प्रत्येक के नौ भेद होते है । इनकी लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी, तीन चौथाई, आधी या चौथाई अधिक होती है ॥१६॥

व्यासषडष्टांशैकं चतुरस्त्रं वा यथेष्टं स्यात् ।

तस्मिन् विपुलायामे दण्डैरोजैः प्रमाणमात्तव्यम् ॥१७॥

अथवा छः या आठ भाग अधिक हो सकता है । इच्छानुसार इसकी लम्बाई-चौड़ाई समान भी हो सकती है । इनकी लम्बाई एवं चौड़ाई विषम दण्डसंख्या में होनी चाहिये ॥१७॥

शेषं वाटधरार्थं ग्रामादिषु सर्ववस्तुषु च ।

शेष का सम्बन्ध उस क्षेत्र से होता है, जिस पर निर्माणकार्य नहीं हुआ रहता । इस विधि का प्रयोग सभी ग्राम आदि वास्तुक्षेत्रों पर होता है ।

मयमत अध्याय ९- आयादि

आयादिसम्पदर्थं वृद्धिं हानिं च यष्टिभिः कुर्यात् ॥१८॥

आयादि को प्राप्त करने के लिये दण्डो को बढ़ाया-घटाया जा सकता है ॥१८॥

आयव्ययर्क्षयोन्यायुभिरथ तिथिभिश्च वारैश्च ।

यजमानवस्तुनामजन्मर्क्षेणाविरोधिकं यत्तु ॥१९॥

जिस वास्तु का माप आय, व्यय, नक्षत्र, योनि, आयु, तिथि एवं वार के विपरीत न हो एवं न ही यजमान (गृहस्वामी) के नाम, जन्मनक्षत्र अथवा स्थान से विपरीत होना चाहिये (कहने का तात्पर्य यह है कि ग्राम आदि वसतिविन्यास के सभी विचारणीय बिन्दु गृहस्वामी एवं उसकी भूमि के अनुकूल होने चाहिये) ॥१९॥

तन्मानेन समेत गृह्णीयात् सर्वसम्पत्यै ।

व्यासायामसमूहे वसुनिधिगुणिते दिनेशधर्मह्रते ॥२०॥

सभी प्रकार की सम्पत्तियो की प्राप्ति के लिये वास्तुक्षेत्र को उसके मान समेत ग्रहण करना चाहिये । वास्तुक्षेत्र के चौड़ाई एवं लम्बाई को जोड़ कर आठ से एवं नौ से गुणा करना चाहिये । प्राप्त गुणनफल में क्रमशः बारह एवं दश का भाग देना चाहिये ॥२०॥

आयव्ययमवशिष्टं रामघ्नेऽष्टापह्रच्छेषम् ।

ध्वजधूमसिंहश्वावृषखरगजकाकाश्च योनिगणाः ॥२१॥

शेष संख्या से क्रमशः आय एवं व्यय का ज्ञान करना चाहिये । (लम्बाई एवं चौड़ाई के योग में) तीन से गुणा कर आठ से भाग देने पर जो शेष बचे, उससे योनियों की प्राप्ति होती है । ये योनियाँ ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज एवं काक कही गई है ॥२१॥

अष्टौ योनय उदिता ध्वजरिवृषहस्तिनः शुभदाः ।

पुनरपिवसुभिर्गुणिते त्रिनवाहत्या फलं वयः शिष्टम् ॥२२॥

 (उपर्युक्त) आठ योनियाँ कही गई है । इनमे ध्वज, सिंह, वृष एवं गज प्रशस्त है । पुनः (लम्बाई एं चौड़ाई के योग में) आठ का गुना कर सत्ताईस का भाग देने पर भागफल से वय का ज्ञान होता है ॥२२॥

नक्षत्रं परिणाहे त्रिंशद्व्याप्ते तिथिर्यमीशह्रते ।

वारं सूर्यमुखं स्याद् बुद्धैवं सर्ववस्तु करणीयम् ॥२३॥

लम्बाई एवं चौड़ाई के योग में तीस का भाग देने पर शेष संख्या से सौर दिनों का ज्ञान होता है । प्रथम वार रविवार होता है । सभी प्रकार के वास्तुओं में इसी प्रकार ज्ञात कर कार्य करना चाहिये ॥२३॥

आयाधिकमथ सुखदं व्ययमधिकं सर्वनाशं स्यात् ।

विपरीते तु विपत्त्यै तस्मात् सम्यक् परीक्ष्य कर्तव्यम् ॥२४॥

आय का अधिक होना सुखदायक होता है एवं व्यय का अधिक होना नाश का कारण होता है । इसके विपरीत होना विपत्तिकारक होता है । अतः भली-भाँति इसकी परीक्षा करने के पश्चात् ही कार्य करना चाहिये ॥२४॥

मयमत अध्याय ९- विप्रसंख्या

द्वादशसहस्त्रविप्रैर्यन्निष्ठितमुत्तमोत्तमं ग्रामम् ।

दशसाहस्त्रैर्मध्यममधमं स्यादष्टसाहस्त्रैः ॥२५॥

ब्राह्मणों की संख्या - सर्वश्रेष्ठ ग्राम वह है, जहाँ बारह हजार ब्राह्मण हों । मध्यम ग्राम में दस हजार तथा छोटे ग्राम में आठ हजार ब्राह्मण होते हैं ॥२५॥

सप्तसहस्त्रैर्विप्रैर्मध्यमोत्तममित्यभीष्टं स्यात् ।

षट्‌साहस्त्रैर्मध्यममधमं तु पञ्चसाहस्त्रैः ॥२६॥

सात हजार ब्राह्मण मध्योत्तम ग्राम में होते है । छः हजार ब्राह्मण मध्यम-मध्यम ग्राम मे तथा पाँच हजार ब्राह्मण मध्यम के अधम ग्राम मे होते है ॥२६॥

अधमोत्तमं तु चातुःसाहस्त्रैस्तु त्रिसाहस्त्रैः ।

अधमसमं द्विसहस्त्रैरधमाधममेव निर्दिष्टम् ॥२७॥

अधमोत्तम (छोटे ग्राम मे उत्तम) ग्राम मे चार हजार, अधमसम (छोटे मे मध्यम) ग्राम मे तीन हजार तथा अधमाधम (छोटे में सबसे छोटे) ग्राम मे दो हजार ब्राह्मण रहते है ॥२७॥

साहस्त्रैर्द्विजसङ्घैर्नीचोत्तममाहुराचार्याः ।

सप्तशतैरधममध्यममिह पञ्चशतैस्तु नीचाल्पम ॥२८॥

नीचोत्तम ग्राम में एक हजार ब्राह्मण रहते है । नीच-मध्यम ग्राम में सात सौ एवं नीचाल्प ग्राम में पाँच सौ ब्राह्मण होते है, ऐसा आचार्यों का कथन है ॥२८॥

साष्टशतं तु द्विगुणं त्रिगुणं वेदाधिकं तथाशीतिः ।

अष्टाष्टकपञ्चाशद् द्वात्रिंशच्च त्रिरष्टौ हि ॥२९॥

ब्राह्मणों के आवास की दृष्टी से दस प्रकार के क्षुद्रक ग्राम इस प्रकार है - एक हजार आठ, दो हजार सोलह, तीन हजार चौबीस, चौरासी, चौंसठ, पचास, बत्तीस तथा चौबीस ॥२९॥

द्वादशषोडशविप्रैर्दशभेदं क्षुद्रकं ग्रामम् ।

अन्यदशक्तानां चेद् दानं दशभूसुरान्तमेकादि ॥३०॥

बारह एवं सोलह ब्राह्मण (आवास) की दृष्टी से क्षुद्रक ग्राम के दस भेद होते है । यदि ऐसा न हो तो एक से दस ब्राह्मण को भूमि दान मे देना चाहिये ॥३०॥

एककुटुम्बिसमेतं कुटिकं स्योदेक भोगमिति कथितम् ।

तस्य सुखालयमिष्टं शेषाणां दण्डकादीनि ॥३१॥

जिस ग्राम में एक ब्राह्मण-परिवार रहता हो, उसे 'कुटिक' ग्राम तथा 'एकभोग' ग्राम कहते है । वहाँ 'सुखालय' प्रशस्त होता है तथा 'दण्डक' आदि अन्य ग्रामो में प्रशस्त होता है ॥३१॥

युग्मायुग्मविभागैर्द्विविधं स्यात् सर्ववस्तुविन्यासम् ।

युग्मे सूत्रपथं स्यादसमे पदमध्यमे च वीथी स्यात् ॥३२॥

अन्योन्यसङ्करश्चेदशुभं स्यात् सर्वजन्तूनाम् ।

सभी प्रकार के वास्तु-विन्यास दो विभागों-युग्म एवं अयुग्म (सम संख्या एवं विषम संख्या) मे रक्खे जाते है । युग्म वास्तुविन्यास मे सूत्रपथ से मार्गविन्यास एवं अयुग्म विन्यास मे मध्यम पद से वीथी का विन्यास किया जाता है ॥३२॥

मयमत अध्याय ९- ग्रामनामानि

दण्डकमपरं स्वस्तिकमित ऊर्ध्वं प्रस्तरं चैव ॥३३॥

पश्चात् प्रकीर्णकं स्यान्नन्द्यावर्तं परागमथ पद्मम् ।

स्याच्छ्रीप्रतिष्ठितेनैवाष्टविधं ग्राममुद्दिष्टम् ॥३४॥

ग्रामो के नाम - ग्राम आठ प्रकार के होते है - दण्डक, स्वस्तिक, प्रस्तर, प्रकीर्णक, नन्द्यावर्त, पराग, पद्म एवं श्रीप्रतिष्ठित ॥३३-३४॥

मयमत अध्याय ९- वीथिविधानम्

सर्वेषां ग्रामाणां मङ्गलवीथ्यावृता बहिस्त्वबहिः ।

ब्रह्मस्थानं ह्युदितं तस्मिन् देवालयं तु वा पीठम् ॥३५॥

मार्ग-विधान - सभी ग्राम अन्दर एवं बाहर से मङ्गलजीवी से आवृत होते है । ग्राम मे ब्रह्मस्थान (मध्य भाग) में देवालय या पीठ (देवों के निमित्त बना चबूतरा) होता है ॥३५॥

एकद्वित्रिचतुर्भिः पञ्चभिरपि कामुकैश्च मार्गतीतः ।

प्राक्प्रत्यग्गतमार्गा ऋतुदण्डमहापथाख्यास्ते ॥३६॥

मार्गों की चौड़ाई एक, दो, तीन, चार या पाँच कार्मुक (दण्ड) होती है; किन्तु पूर्व से पश्चिम जाने वाले 'महापथ' संज्ञक मार्ग छः दण्ड चौड़े होते है ॥३६॥

मध्यमयुक्ता वीथी ब्रह्माख्या सैव नाभिः स्यात् ।

द्वारसमेता वीथी राजाख्या च द्विपार्श्वतः क्षुद्र ॥३७॥

ग्राम की मध्य-वीथी 'ब्रह्मवीथी' होती है । वही ग्राम की नाभि होती है । द्वार से युक्त वीथी 'राजवीथी' होती है । दोनो पार्श्वों से बनी वीथी 'क्षुद्रा' होती है ॥३७॥

सर्वाः कुट्टिमकाख्या मङ्गलवीथी तथैव रथमार्गम् ।

तिर्यग्द्वारसमेता नाराचपथा इति ख्याता ।

उत्तरदिङ्‌मुखमार्गाः क्षुद्रार्गलवामनाख्यपथाः ॥३८॥

सभी विथियाँ 'कुट्टिमका' संज्ञक होती है । इसी प्रकार मङ्गलवीथी 'रथमार्ग' कहलाती है । तिर्यग द्वार (प्रधान द्वार का सहायक द्वार) युक्त वीथियाँ 'नाराचपथा' कहलाती है । उत्तर की ओर जाने वाले मार्ग 'क्षुद्र', 'अर्गल' एवं 'वामन कहे जाते है ॥३८॥

ग्रामावृता मङ्गलवीथिकाख्या पुरावृता या जनवीथिका स्यात् ।

तयोस्तु रथ्याभिहिताभिधा स्यात् पुरातनैरन्यतमेष्वथैवम् ॥३९॥

ग्राम को घेरने वाली वीथी 'मङ्गलवीथिका' तथा पुर को आवृत करने वाल वीथी 'जनवीथिका' होती है । इन दोनों को 'रथ्या' भी कहा जाता है । प्राचीन विद्वानों के अनुसार अन्य मार्गो को भी इसी प्रकार समझना चाहिये ॥३९॥

मयमत अध्याय ९- ग्रामभेद

द्विजकुलपरिपूर्ण वस्तु यन्मङ्गलाख्यं

नृपवणिगभियुक्तं वस्तु यत्तत् पुरं स्यात् ।

तदितरजनवासं ग्राममित्युच्यतेऽस्मिन्

मठमिति पठितं यत्तापसानां निवासम् ॥४०॥

ग्राम के भेद - ब्राह्मणों से परिपूर्ण वसति-विन्यास को 'मङ्गल' कहते है । राजा (क्षत्रिय) तथा व्यापारियों से युक्त स्थान 'पुर' कहलाता है । जहाँ अन्य जन निवास करते है, उसे 'ग्राम' कहते है । जहाँ तपस्वियो का निवास होता है, उसे 'मठ' कहते है ॥४०॥

प्रागुदगग्रं मार्गं ककनीकृतदण्डवत्तु तन्मध्ये ॥४१॥

द्वारचतुष्टययुक्तं दण्डकमिति भण्यते मुनिभिः ।

द्ण्डवदेका वीथी साप्येवं दण्डकं प्रोक्तम् ॥४२॥

पूर्व एवं उत्तर की ओर सीधी रेखा से बने हुये दण्ड के समान मार्ग होते है एवं चार द्वार से युक्त होते है । ऐसे ग्राम को मुनिजन दण्डक कहते है । जहाँ दण्ड के सदृश एक वीथी होती है, उसे भी 'दण्डक' ग्राम कहते है ॥४१-४२॥

नवपदयुक्ते ग्रामे परितो मार्गं पदस्य तस्य बहिः ।

तस्मात् प्रागुदगग्रात् प्राग्वीथी दक्षिणाग्रा सा ॥४३॥

नौ पदों से युक्त ग्राम में पद से बाहर चारो ओर एक मार्ग होता है । एक वीथी उत्तर-पूर्व से प्रारम्भ होकर पूर्व की ओर जाती है । वह दक्षिण से प्रारम्भ होती है ॥४३॥

तस्मात् प्राग्दक्षिणतो दक्षिणवीथी प्रतीचिमुखा ।

तस्मादवागपरतः पश्चिमवीथ्यग्रमुत्तरतः ॥४४॥

दक्षिण वीथी पूर्व-दक्षिण से प्रारम्भ होकर पश्चिम की ओर जाती है । दक्षिण से पश्चिम होकर जाने वाली वीथी उत्तर की ओर जाती है ॥४४॥

अपरोत्तरतस्तस्मादुत्तरवीथ्यां मुखं प्राच्याम् ।

एतत् स्वस्तिकमुदितं स्वस्त्याकृत्या चतुर्मार्गम् ॥४५॥

दूसरी वीथी उत्तर से प्रारम्भ होती है, इसलिये उत्तरवीथी है । इसका मुख पूर्व की ओर होता है । इस ग्राम को 'स्वस्तिक' कहा गया है । इसके चार मार्ग स्वस्तिक की आकृति के होते है ॥४५॥

प्राक्प्रत्यग्गतमार्गैस्त्रिभिरुदगग्रैस्त्रिभिश्चतुर्भिरथो

पञ्चाभिरपि षट्‌सप्तभिरपि युक्तं प्रस्तरं पञ्च ॥४६॥

'प्रस्तर' ग्राम पाँच प्रकार के होते है । इसमें पूर्व से पश्चिम तीन मार्ग जाते है । उत्तर से जाने वाले मार्ग तीन, चार, पाँच, छः या सात होते है ॥४६॥

प्रागग्रैस्तु चतुर्भिर्द्वादशशिवप~द्‌क्तिनन्दवसुमार्गैः ।

उदगग्रैरभियुक्तं ह्येतत् प्रोक्तं प्रकीर्णकं पञ्च ॥४७॥

'प्रकीर्णक' ग्राम पाँच प्रकार के होते है । इसमे चार मार्ग पूर्व से पश्चिम जाते है । उत्तर से बारह, ग्यारह, दस, नौ या आठ मार्ग जाते है ॥४७॥

प्राक्प्रत्यग्गतमार्गैः पञ्चभिरुदगग्रैस्त्रयोदशभिः ।

त्रिःसप्तभिरथ तिथिभिः षोडशभिः सप्तदशभिरपि मार्गैः ॥४८॥

 (नन्द्यावर्त ग्राम का लक्षण इस प्रकार है-) पाँच सड़के पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है । उत्तर दिशा से तेरह, इक्कीस, पन्द्रह, सोलह एवं सत्रह मार्गो द्वारा । (इस ग्राम का विन्यास किया जाता है) ॥४८॥

युक्तं नन्द्यावर्तं दिक्षु चतुर्द्वारसंयुक्तम् ।

नन्द्यावर्ताकृत्या बाह्ये द्वारैरबाह्यतो मार्गैः ॥४९॥

नन्द्यावर्त ग्राम (उपर्युक्त मार्गो से) युक्त होता है । यह नन्द्यावर्त आकृति का होता है । बाहर की ओर जाने वाले मार्गो के बाहर चारो दिशाओं में चार द्वार होते है ॥४९॥

युक्तानेकैर्युक्तं नन्द्यावर्ताभमिदमुदितम् ।

आद्यैरष्टादशभिर्द्वाविंशत्यङ्गकैरुदग्वक्त्रैः ॥५०॥

अनेक मार्गो के आपस मे संयुक्त होने से अनेक मार्ग-संयोग (तिराहे, चौराहे आदि) बनते है । नन्द्यावर्त की आकृति के सदृश होने के कारण इस ग्राम को 'नन्द्यावत' कहते है ।

पराग ग्राम का लक्षण इस प्रकार है - यहाँ अट्ठारह से बाईस संख्या तक मार्ग उत्तर से जाते है ॥५०॥

षड्‌भिः प्राङ्‌मुखमार्गैर्युक्तं ह्येतत् परागमिति कथितम् ।

प्राक्प्रत्यग्गतमार्गैः सप्तभिरुदगग्रैस्त्रिवेदशरैः ॥५१॥

छः मार्ग पूर्व से निकलते है । इस ग्राम को 'पराग' कहते है । (पद्म ग्राम में) पूर्व-पश्चिम में सात मार्ग होते है तथा उत्तर से तीन, चार, पाँच- ॥५१॥

षट्‌सप्तभिरपि युकैर्विंशतिभिः पञ्चधा पद्मम् ।

अष्टभिरथ पूर्वाग्रैरुदगग्रैः साष्टविंशतिभिः ॥५२॥

छः या सात मार्ग निकलते है तथा बीस मार्ग-संयोग बनते है । इस प्रकार 'पद्म' ग्राम के पाँच भेद बनते है । (श्रीप्रतिष्ठित ग्राम में) आठ मार्ग पूर्व दिशा से तथा अट्ठाईस से प्रारम्भ कर ॥५२॥

आद्यैर्द्विः षोडशभिर्मार्गैरन्त्यैर्युतं यत्तु ।

तच्छ्रीप्रतिष्ठितं स्यादष्टविधं ग्राममुद्दीष्टम् ॥५३॥

बत्तीस संख्या तक मार्ग उत्तर दिशा से निकलते है । इसे 'श्रीप्रतिष्ठित' ग्राम कहते है । इस प्रकार आठ प्रकार के ग्राम होते है ॥५३॥

अथवा श्रीवत्सादिकमुपनेतव्यं तु विन्यासम् ।

सर्वेषां ग्रामाणां नाभिं न प्रोतयेन्मतिमान् ॥५४॥

अथवा 'श्रीवत्स' आदि अन्य ग्रामों का भी विन्यास करना चाहिये । सभी ग्रामों के नाभि (केन्द्र-स्थल) को बुद्धिमान व्यक्ति को विद्ध नही करना चाहिये ॥५४॥

ग्रामे वाऽथ गृहे वा दण्डच्छेदोऽपि नैब कर्तव्यः ।

सकलाद्यासनकान्तं विन्यासार्थं पदं बुधैर्ग्राह्यम् ॥५५॥

ग्राम अथवा गृह में दण्डच्छेद नही करना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को ग्राम अथवा गृह के विन्यास हेतु सकल (एकपद वास्तु) से लेकर आसन (एक हजार पद वास्तु) तक (किसी उपयुक्त) पदविन्यास को ग्रहण करना चाहिये ॥५५॥

क्षुद्रग्रामे मार्गाश्चत्वारश्चाष्ट मध्यमे ग्रामे ।

द्वादश षोडश मार्गा ग्रामेषूत्कृष्टकेषु मताः ॥५६॥

छोटे ग्राम में चार मार्ग, मध्यम ग्राम में आठ मार्ग एवं उत्तम ग्राम में बारह अथवा सोलह मार्ग होते है ॥५६॥

मयमत अध्याय ९- द्वाराणि

भल्लाटे च महेन्द्रे राक्षसपादे तु पुष्पदन्तपदे ।

द्वारायतनस्थानं जलमार्गाश्चापि चत्वारः ॥५७॥

द्वार - भल्लाट, महेन्द्र, राक्षस एवं पुष्पदन्त पद द्वारस्थापन के स्थान है तथा जलमार्ग भी चार है ॥५७॥

वितथपदेऽथ जयन्ते सुग्रीवांशे च मुख्यदेवपदे ।

भृशपूषभृङ्गराजा दौवारिकशोषनागादितिजलदाः ॥५८॥

जलमार्ग के चार वास्तु-पद वितथ, जयन्त, सुग्रीव एवं मुख्य है । भृश, पूषा, भृङ्गराज, दौवारिक, शोष, नाग, दिति एवं जलद ॥५८॥

स्थानमुपद्वाराणामष्टौ देवा इमे कथिताः ।

त्रिकरं पञ्चकरं तत्‌ सप्तकरं द्वारविस्तरम् ॥५९॥

इन आठ वास्तुदेवों के पद उपद्वार के स्थान है । इन उपद्वारों का विस्तार तीन, पाँच या सात हस्त होता है ॥५९॥

तारद्विगुणोत्सेधं चाध्यर्ध्यं वाङ्‌घ्रिहीनं तत् ।

सर्वेषां ग्रामाणां परितः परिखा बहिश्च वप्राश्च ॥६०॥

इन उपद्वारों की ऊँचाई उसकी चौड़ाई की दुगुनी, डेढ़ गुनी अथवा तिन चौथाई होनी चाहिये । सभी ग्रामों के चारो ओर बारह परिका (खाई) एवं वप्र (प्राचीर, घेरने वाली भित्ति) होनी चाहिये ॥६०॥

ग्रामादयोऽपि नद्या दक्षिणतीरे तदन्वितायामाः ।

नवनववसुवसुभागे मध्ये ब्राह्मं ततः परं दैवम् ॥६१॥

नदि के दक्षिण तट पर उससे घिरे ग्राम (उत्तम) होते है । इक्यासी वास्तुपद एवं चौसठ वास्तुपद-विन्यास से युक्त ग्राम का मध्य भाग ब्राह्मक्षेत्र एवं इसके पश्चात् दैव क्षेत्र होता है ॥६१॥

मानुषमथ पैशाचं क्रमशः सङ्कल्प्य युक्त्या तु ।

दैविकमानुषभागे विप्राणां स्याद् गृहश्रेणी ॥६२॥

इसके पश्चात् मानुष एवं पैशाच क्षेत्र का निश्चय करना चाहिये । दैव एवं मानुष क्षेत्र में ब्राह्मणों के गृह होने चाहिये ॥६२॥

कर्मोपजीविनां स्यात्पैशाचे तत्र वा द्विजावासम् ।

तस्मिन् सुरगणभवनं क्रमशः प्रागादिषु स्थाप्यम् ॥६३॥

अपने कार्य के द्वारा अपनी आजीविका चलाने वालों का गृह पैशाच क्षेत्र में होना चाहिये अथवा वहाँ ब्राह्मणों का आवास होना चाहिये । उनके मध्य पूर्व आदि दिशाओं में क्रमानुसार देवालय की स्थापना करनी चाहिये ॥६३॥

मयमत अध्याय ९- प्रासादस्थान

एतस्याभ्यन्तरे विप्रदेवतास्थापनं भवेत् ।

शिवहर्म्यं च ग्रामाणां समं बाह्येऽथवा भवेत् ॥६४॥

वास्तु-क्षेत्र के भीतर ब्राह्मण एवं देवता की स्थापना करनी चाहिये । शिवालय की स्थापना ग्राम के बाहर होनी चाहिये अर्थात् शिवालय की स्थापना इच्छानुसार ग्राम के भीतर या बाहर कही भी हो सकती है ॥६४॥

भृङ्गराजांशके वाऽपि पावके तु विनायकम् ।

ऐशांशे शिवहर्म्यं स्यात् सौम्ये वानान्तरेषु वा ॥६५॥

भृङ्गराज के या पावक के भाग पर विनायक का मन्दिर होना चाहिये । ईश के पद पर, सोम के पद पर अथवा अन्य किसी वास्तुपद पर शिवमन्दिर की स्थापना करनी चाहिये ॥६५॥

बाह्येऽस्य तु गृहश्रेणी मानेन विधिना कुरु ।

शैवानां परिवाराणां प्रोक्तं स्थानमिहोच्यते ॥६६॥

देवालय के बाहर गृहो की श्रेणी पूर्ववर्णित मान के अनुसार नियमपूर्वक होनी चाहिये । शिव के परिवार-देवताओ के स्थान का यहाँ वर्णन किया जा रहा है ॥६६॥

सूर्यपदे सौरं स्यादग्निपदे कालिकावेश्म ।

भृशभागे विष्णुगृहं याम्यायां षण्मुखस्थानम् ॥६७॥

सूर्य के वास्तुपद पर सूर्यदेवता का स्थान एवं अग्नि के पद पर कालिका का मन्दिर होना चाहिये । भृश के वास्तुपद पर विष्णुमन्दिर तथा यम के पद पर षण्मुख (कार्तिकेय) का मन्दिर होना चाहिये ॥६७॥

भृशभागे मृगांशे तु नैऋत्यां केशवालयम् ।

सुग्रीवांशे गणाध्यक्षः पुष्पदन्तपदेऽपि वा ॥६८॥

भृश, मृग या नैऋत्य स्थान पर केशव का मन्दिर होना चाहिये । सुग्रीव के पद पर या पुष्पदन्त के पद पर गणाध्यक्ष (गणेश) का मन्दिर होना चाहिये ॥६८॥

आर्यकभवनं निऋते वरुणे विष्णोर्विमानं स्यात् ।

स्थानकमासनशयनं धाम्न्येतस्मिन् क्रमेण चोर्ध्वतलात् ॥६९॥

आर्यक का भवन नैऋत्य कोण मे एवं विष्णु का विमान (देवालय) वरुण के पद पर होना चाहिये । मन्दिर में ऊपरी तल से क्रमशः विष्णु की स्थानक (खड़ी), आसन (बैठी) एवं शयन प्रतिमा होनी चाहिये ॥६९॥

अथवा मूलतलं घनमुपरितले स्थानकं प्रोक्तम् ।

सुगतालयमथ सुगले भृङ्गनृपे चैव जिनधाम ॥७०॥

अथवा भूतल पर बड़ी एवं भारी तथा ऊपरी तल पर स्थानक मुद्रा में विष्णुप्रतिमा होनी चाहिये । सुगल के पद पर सुगत (बुद्ध) की प्रतिमा एवं भृङ्गराज के पद पर जिन-देवालय होना चाहिये ॥७०॥

मदिरालयमथ वायौ मुख्ये कात्यायनीवासः ।

सोमे धनदगृहं वा मातृणामालयं तत्र ॥७१॥

वायु के पद पर मदिरा का मन्दिर, मुख्य के पद पर कात्यायनी का मन्दिर, सोम के पद पर धनद (कुबेर) का मन्दिर अथवा मातृदेवियों का मन्दिर होना चाहिये ॥७१॥

ईशे शङ्करभवनं पर्जन्यांशे जयन्ते वा ।

सोमे धनदगृहं वा शोषपदे वा विधातव्यम् ॥७२॥

शिवालय ईश, पर्जन्य या जयन्त के पद पर, कुबेर का मन्दिर सोम अथवा शोष के पद पर निर्मित कराना चाहिये ॥७२॥

तत्र गजाननभवनं ह्रदितौ वा मातृकोष्ठं स्यात् ।

मध्ये विष्णोर्धिष्ण्यं तत्र सभामण्डपं प्रोक्तम् ॥७३॥

वही गणेश का भवन होना चाहिये । अथवा अदिति के पद पर मातृदेवियो का मन्दिर होना चाहिये । मध्य में विष्णु का मन्दिर होना चाहिये । वही सभामण्डप भी होना चाहिये- ऐसा कहा गया है ॥७३॥

ब्रह्मस्थानैशाने वाग्नेय्यां वा सभास्थानम् ।

तदुदक्पश्चिमभागे हरिसदनं दक्षिणे परतः ॥७४॥

अथवा सभास्थल ब्रह्मा के पद पर ईशान कोण या आग्नेय कोण में होना चाहिये । विष्णुमन्दिर उत्तर-पश्चिम मे अथवा दक्षिण में होना चाहिये ॥७४॥

क्रूरसमेतं कर्म प्रत्ययमथ पञ्च मध्ये तु ।

युग्मायुग्मपदे च ब्रह्मस्थानेऽष्टनवभागे ॥७५॥

मध्य के पाँच पदों पर निर्माणकार्य दुःखकारक होता है । वास्तुमण्डल के युग्म पद से तथा अयुग्म पद (समसंख्या एवं विषमसंख्या) से निर्मित होने पर ब्रह्मस्थान आठ भाग एवं नौ भाग से निर्मित होना चाहिये ॥७५॥

व्यपनीयाजं भागं प्रागादिषु दिक्षु च क्रमशः ।

नलिनकभवनं स्वस्तिकनन्द्यावर्तौ प्रलीनकं चैव ॥७६॥

यच्छ्रीप्रतिष्ठिताख्यं चतुर्मुखहर्म्यं तु पद्मसमम् ।

विष्णुच्छन्दविमानं त्रितलादिद्वादशतलान्तम् ॥७७॥

ब्रह्मा के भाग को छोड़ कर पूर्व दिशा से प्रारम्भ कर क्रमशः नलिनक, स्वस्तिक,नन्द्यावर्त, प्रलीनक, श्रीप्रतिष्ठित, चतुर्मुख एवं पद्मसम भवन का निर्माण करना चाहिये । वहाँ तीन तल से लेकर बारह तलपर्यन्त विष्णुच्छन्द विमान का निर्माण होना चाहिये ॥७६-७७॥

बहिरप्येवं सौधं ग्रामादिषु तत्र विज्ञेयम् ।

स्थितमासीनं शयनं यत्र यदिष्टं तु तत्र तत्स्थाप्यम् ॥७८॥

यह विष्णुमन्दिर ग्रामादि से बाहर भी हो सकता है । इसमें विष्णु की खड़ी, बैठी या शयन करती हुई मूर्ति स्थापित करनी चाहिये ॥७८॥

उत्कृष्टमध्यमाधमनीचादिकं क्रमेणैवम् ।

भवनं ग्रामेषूदितमिति नीचं चोत्तमे न स्यात् ॥७९॥

ग्रामों में क्रमानुसार उत्कृष्ट, मध्यम, अधम एवं नीच आदि भवन होने चाहिये; किन्तु उत्तर ग्राम में नीच भवन नहीं होना चाहिये ॥७९॥

क्षुद्रे क्षुद्रविमानं यद्यत्रैवोचितं विधातव्यम् ।

त्रिचतुष्पञ्चतलं तद्धीने हीने च सामान्यम् ॥८०॥

यदि ग्राम क्षुद्र हो तो वहाँ क्षुद्र विमान (छोटा मन्दिर) ही उचित है एवं वही बनाना चाहिये । तीन, चार एवं पाँच तल का देवालय हीन ग्राम में होना चाहिये तथा हीन ग्राम में सामान्य भवन होना चाहिये ॥८०॥

ग्रामे वा नगरे वोत्कृष्टे देवालयं तु नीचं चेत् ।

नीचा भवन्ति पुरुषाः स्त्रियोऽपि दुःशीलतां यान्ति ॥८१॥

उत्कृष्ट ग्राम अथवा नगर में यदि नीच श्रेणी का देवालय हो तो वहाँ के पुरुषो में नीच प्रवृत्ति एवं स्त्रियों में दुःशीलता होती है ॥८१॥

तस्मात् सममधिकं वा तत्सङ्ख्येव प्रयोक्तव्या ।

हरिहरसदनं वास्तुकमन्यत् सर्वं यथेष्टं स्यात् ॥८२॥

इसलिये ग्राम अथवा नगर की श्रेणी के समान या अधिक श्रेणी का मन्दिर निर्मित होना चाहिये । हरिहर मन्दिर अथवा अन्य सभी वास्तुनिर्मित यथोचित होनी चाहिये ॥८२॥

मयमत अध्याय ९- दौवारिक

चण्डेश्वरः कुमारो धनदः काली च पूतना चैव ।

कालीसुतश्च खड्‌गी चैते दौवारिकाः प्रोक्ताः ॥८३॥

चण्डश्वर, कुमार, धनद, काली, पूतना, कालीसुत तथा खड्‌गी - ये देवता दौवारिक कहे गये है ॥८३॥

प्राक्प्रत्यङ्‌मुखमैशं ग्रामादिषु तत्पराङ्‌मुखं शुभदम् ।

विष्णुगृहं सर्वमुखं ग्रामस्यान्तर्मुखं शुभदम् ॥८४॥

ग्राम आदि में पूर्वमुख या पश्चिममुख शिव का स्थान होना चाहिये । यदि उनका मुख ग्रामादि से बाहर की ओर हो तो प्रशस्त होता है । विष्णु का मुख सभी दिशाओं में हो सकता है; किन्तु उनका मुख यदि ग्राम कि ओर हो तो शुभ होता है ॥८४॥

शेषं पूर्वाभिमुखं मातृणामुत्तराभिमुखम् ।

प्रत्यग्द्वारं सौरं गेहारम्भात् पुरामरावासम् ॥८५॥

शेष देवगण पूर्वमुख होने चाहिये । मातृदेवियों को उत्तरमुख स्थापित करना चाहिये । सूर्यमन्दिर का द्वार पश्चिममुख होना चाहिये । पुर आदि में मनुष्यों के गृह से पहले देवालयों का निर्माण कराना चाहिये ॥८५॥

मयमत अध्याय ९- वर्ज्यस्थानानि

ह्रदये वंशस्थाने शूले सूत्रे च सन्धौ च ।

कर्णसिरायां षट्‌के नोक्तान्यमरालयादीनि ॥८६॥

त्याज्य स्थान - वास्तुमण्डल के ह्रदय, वंश, सूत्र, सन्धिस्थल तथा कर्णसिराओं इन छः स्थलों पर देवालय आदि का निर्माण नहीं होना चाहिये ॥८६॥

मयमत अध्याय ९- श्रेणिस्थानम्

गोशाला दक्षिणतश्चोत्तरदेशे तु पुष्पवाटी स्यात् ।

पूर्वद्वारोपान्ते पश्चिमतस्तासावासम् ॥८७॥

अन्य श्रेणी के भवन - स्थान - (पुर तथा ग्राम आदि के) दक्षिण ओर गोशाला एव उत्तर में पुष्पवाटिका होनी चाहिये । पूर्व या पश्चिम द्वार के निकट तपस्वियों का आवास होना चाहिये ॥८७॥

सर्वत्रैव जलाशयमिष्टं वापी च कूपञ्च ।

वैश्यानां दक्षिणत परितः सदनं तु शूद्राणाम् ॥८८॥

जलाशय, वापी एवं कूप सभी स्थानों पर होना चाहिये । वैश्यों का आवास दक्षिण में एवं शूद्रों का आवास चारो ओर होना चाहिये ॥८८॥

प्राच्यां वाऽप्युत्तरतो गेहं कुर्यात् कुलालानाम् ।

तत्रैव नापितानामन्यत्कर्मोपयुक्तानाम् ॥८९॥

पूर्व अथवा उत्तर दिशा में कुम्हारो के गृह होने चाहिये । वही नाइयों का एवं अन्य हस्तकौशल वालों के भी गृह होने चाहिये ॥८९॥

मत्स्योपजीविनां स्याद्वासं वायव्यदेशे तु ।

पश्चिमदेशे मांसैरुपवृत्तीनां निवासः स्यात् ॥९०॥

उत्तर-पश्चिम दिशा में मछुआरों का निवास होना चाहिये । पश्चिमी क्षेत्र में मांस से आजीविका चलाने वालों का निवास होना चाहिये ॥९०॥

तैल्पजीविनां चैवोत्तरदेशे गृहश्रेणिः ।

तेलियों के गृह उत्तर दिशा में होने चाहिये ।

मयमत अध्याय ९- गृहलक्षण

धनुभिस्त्रिपञ्चसप्तभिरथ नवभिर्गृहावधिः प्रोक्तः ॥९१॥

गृह के लक्षण - गृहों की चौड़ाई तीन, पाँच, सात या नौ धनुप्रमाण होनी चाहिये ॥९१॥

दण्डाभ्यामथ तस्मादायामं वर्धयेत् क्रमशः ।

व्यासद्विगुणावधिकं यावद् दैर्घ्यं गृहीतव्यम् ॥९२॥

गृहों की लम्बाई चौड़ाई से क्रमशः दो-दो दण्ड बढ़ानी चाहिये । लम्बाई उतनी ही ग्रहण करनी चाहिये, जितनी कि चौड़ाई की दुगुनी से अधिक न हो जाय ॥९२॥

तत्रैव हस्तमानैर्गेहं कुर्याद् यथाविधिना ।

रुचकः स्वस्तिकमथवा नन्द्यावर्तञ्च सर्वतोभद्रम् ॥९३॥

गृहों का निर्माण विधि के अनुसार हस्तप्रमाण से करना चाहिये । ये गृह रुचक, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त और सर्वतोभद्र (किसी एक शैली के) हो सकते है ॥९३॥

स्याद् वर्धमानमेषामाकृत्या तच्चतुर्गृहं प्रोक्तम् ।

दण्डकशालालाङ्गलमथवा शूर्पं यथेष्टं स्यात् ॥९४॥

गृह (सर्वतोभद्र या) वर्धमान हो सकता है । आकृति की दृष्टि से ये चार गृह कहे गये है । अथवा दण्डक, लाङ्गल या शूर्प गृह इच्छानुसार हो सकते है ॥९४॥

ग्रामात्‌ किञ्चिद्दूरे पावकदेशेऽथवा वायौ ।

वासः स्यात्स्थपतीनां शेषाणां तत्र कर्तव्यम् ॥९५॥

ग्राम से कुछ दूर आग्नेय अथवा वायव्य कोण में स्थपतियों का आवास होना चाहिये । शेष का आवास भी वही बनवाना चाहिये ॥९५॥

तस्मात्‌ किञ्चिद्दूरे रजकादीनां निवासः स्यात् ।

चण्डालकुटीराणि पूर्वायां क्रोशमात्रे तु ॥९६॥

उससे कुछ दूर रजक (धोबी) आदि का आवास होना चाहिये । ग्राम से पूर्व दिशा मे एक कोस की दूरी पर चण्डाल वर्ग का आवास होना चाहिये ॥९६॥

चण्डालयोषितस्तास्ताम्रायःसीसभूषणाः सर्वाः ।

पूर्वाह्णे मलमोक्षक्रियोचिता ग्राममावेश्य ॥९७॥

वहाँ चण्डाल-स्त्रियाँ ताम्र, अयस् एवं सीसे के आभूषण पहने हुये निवास करे । दिन के प्रथम प्रहर में ग्राम में प्रवेश कर चण्डाल वर्ग ग्राम की गन्दगी साफ करें ॥९७॥

प्रागुत्तरदिशिदण्डैः पञ्चशतैः स्याच्छवावासम् ।

शेषाणामपि तत्तद्दूरे देशे श्मशानं स्यात् ॥९८॥

पूर्वोत्तर दिशा में ग्राम से पाँच सौ दण्ड दूर शवों (की अन्त्येष्टि क्रिया) का स्थान होना चाहिये । शेष लोगों (सामान्य जनों से पृथक् ) का श्मशान उससे दूर होना चाहिये ॥९८॥

मयमत अध्याय ९- विन्यासदोष

चण्डालचर्मकारश्मशानतोयाशयापयानञ्च ।

देवगृहविश्वकोष्ठग्रामावृतदेशमार्गपरिवृत्तिः ॥९९॥

भवन-विन्यास के दोष - चण्डाल एवं चर्मकार का आवास, श्मशान, जलाशय, देवालय, विश्वकोष्ठ (सभी पदार्थो का संग्रहस्थल), ग्राम के चारों ओर का परिवेश एवं ग्राम के चारो ओर के मार्ग यदि उचित स्थान पर नहीं होते है (तो उनका परिणाम कष्टकर होता है ) ॥९९॥

व्यसनं ग्रामविनाशो नृपभङ्गो भवति मरणं च ।

देवालयान्तरापणशून्यत्वं शोध्यसञ्चयं चापि ॥१००॥

मार्गेऽशुद्धक्षेपणमीदृग् ग्रामस्य शून्यतादायि ।

उपर्युक्त का दुष्परिणाम ग्राम का विनाश, राजा का भङ्ग (हानि) एवं मृत्यु होता है । देवालय एवं हाट का रिक्त होना, कूड़े का संग्रह तथा मार्ग में अशुद्ध वस्तुओं (कूड़े आदि) का फेंका जाना ग्राम को शून्य कर देता है ॥१००॥

मयमत अध्याय ९- गर्भविन्यास

ग्रामादीनां च सर्वेषां गर्भविन्यासमुच्यते ॥१०१॥

शिलान्यास - सभी ग्रामादिकों के गर्भ-विन्यास का वर्णन किया जाता है ॥१०१॥

सगर्भं सर्वसम्पत्त्यै विगर्भं सर्वनाशनम् ।

तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन गर्भं सम्यग्विनिक्षिपेत् ॥१०२॥

 (ग्रामादि का) गर्भयुक्त होना सभी प्रकार की सम्पत्तियों का एवं गर्भहीन होना सभी प्रकार के विनाश का कारण होता है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक सही रीति से गर्भविन्यास करना चाहिये ॥१०२॥

मृत्कन्दधान्यसल्लोहधातुरत्‍नेन्द्रनीलाद्यैः ।

पणेन गर्भद्रव्याणि निर्दोषाण्येव संगृहेत् ॥१०३॥

गर्भविन्यास - भूमि मे खोदे गये गर्त में आगे के श्लोकों मे वर्णित पदार्थों का डाला जाना गर्भ-विन्यास कहलाता है। मृत्तिका, कन्द (मूल, जड़), लोहयुक्त अन्न (लोह-पात्र मे रक्खा अन्न), धातु, इन्द्रनील आदि रत्‍न गर्भविन्यास के द्रव्य है । इन्हे दोषहीन ही होना चाहिये तथा इन्हे पैसों से क्रय करके संगृहीत करना चाहिये ॥१०३॥

सलिलापूरिते श्वभ्रे मृदादीनि न्यसेद् बुधः ।

धान्योपरि निधातव्यं ताम्रभाजनमभ्रमम् ॥१०४॥

भूमि में खोदे गये गर्त में जल भरने के पश्चात् मृत्तिका आदि डालनी चाहिये । अन्न के ऊपर दोषहीन ताम्रपात्र रखना चाहिये ॥१०४॥

ताम्रभाजनविस्तारं पञ्चधा परिकीर्तितम्

रत६निद्वादशपङ्‌कत्यष्टचतुरङ्गुलमानतः ॥१०५॥

ताम्रपात्र की चौड़ाई पाँच प्रकार की कही गई है । इनका प्रमाण चौदह, बारह, दश, आठ या चार अङ्गुल होना चाहिये ॥१०५॥

उन्नतं तावदेवं स्याद्वृत्तं स्याच्चतुरस्त्रकम् ।

सपञ्चपञ्चकोष्ठं वा नवकोष्ठकमेव वा ॥१०६॥

ताम्रपात्र की ऊँचाई चौड़ाई के समान होनी चाहिये । उसमें पच्चीस अथवा नौ कोष्ठ होने चाहिये ॥१०६॥

उपपीठपदे देवास्तस्मिन् पात्रे तु सम्मताः ।

रजतेन वृषः सूर्ये वज्री हाटकनिर्मितः ॥१०७॥

उपपीठ पद से युक्त (पच्चीस कोष्ठ वाले) उस पात्र में वास्तुदेवों को स्थान देना चाहिये । सूर्य के कोष्ठ में रजतनिर्मित वृष एवं सुवर्णनिर्मित इन्द्र को स्थापित करना चाहिये ॥१०७॥

यमे तु यमराजश्च शुल्बेनायसवारणः ।

हैमः सिंहस्तु रूप्येण वरुणे सजलाधिपः ॥१०८॥

यम के पद पर ताम्रनिर्मित यमराज, लौहनिर्मित सिंह एवं रजतनिर्मित वरुण को स्थापित करना चाहिये ॥१०८॥

वाजी श्वेतमयः सोमे राजतो द्विजराजकः ।

ईशे वैकृन्तमनले त्रपु सीसं तु नैऋते ॥१०९॥

सोम के पद पर श्वेत वर्ण का (रजतमय) अश्व तथा रजतनिर्मित गज रखना चाहिये । ईश के पद पर पारा, अग्नि पर टिन, निऋति पर सीसा रखना चाहिये ॥१०९॥

स्वर्णं समीरणे जातिहिङ्गुल्यं तु जयन्तके ।

हरितालं भृशे भागे वितथे तु मनःशिला ॥११०॥

समीरण के पद पर सुवर्ण, जयन्त पर सिन्दूर, भृश पर हरिताल तथा वितथ पर मनःशिला (मैनसिल) रखना चाहिये ॥११०॥

माक्षिकं भृङ्गराजे स्याद् राजावर्तं सुकन्धरे ।

गैरिकं शोषभागे तु गणमुख्येऽञ्जनं भवेत् ॥१११॥

भृङ्गराज पर माक्षिक (एक खनिज पदार्थ), सुकन्धर पर लाजावर्त, शोष पर गैरिक (गेरु) तथा गणमुख्य पर अञ्जन रखना चाहिये ॥१११॥

अदितौ दरदं विद्यादेवमेव न्यसेत् क्रमात् ।

चतुष्पदे च लोकेशाः स्थाप्याश्चाभ्यन्तराननाः ॥११२॥

अदिति पर रक्त वर्ण का ताम्र रखना चाहिये । उपर्युक्त सभी को भली भाँति जान कर क्रमानुसार रखना चाहिये । चतुष्पदों पर लोकनाथों को इस प्रकार स्थापित करना चाहिये, जिससे उनका मुख केन्द्र की ओर रहे ॥११२॥

षड्‌भिः पञ्चचतुस्त्रिद्विमात्रे बिम्बोदयं भवेत् ।

तदर्धं वाहनोत्सेधं स्थानकासनमेव वा ॥११३॥

इन देवों की प्रतिमा की ऊँचाई छः, पाँच, चार, तीन या दो अङ्गुल होनी चाहिये एवं उनके वाहनों की ऊँचाई पूर्वोक्त माप की आधी होनी चाहिये । प्रतिमायें स्थानक मुद्रा (खड़ी) अथवा आसन मुद्रा (बैठी) में होनी चाहिये ॥११३॥

मुक्तापवत्से मरिचौ विद्रुमं सवितर्यथ ।

पुष्परागं च वैडूर्यं विवस्वति विनिक्षिपेत् ॥११४॥

आपवत्स पर मोती, मरीचि पर मूँगा, सविता पर पुष्पराग (पोखराज) तथा विवस्वान् पर वैदूर्य मणि रखना चाहिये ॥११४॥

वज्रमिन्द्रजये विद्यादिन्द्रनीलं तु मित्रके ।

रुद्रराजे महानीलं मरकतं तु महीधरे ॥११५॥

इन्द्रजय पर हीरा, मित्रक पर इन्द्रनील, रुद्रराज पर महानील तथा महीधर पर मरकत (पन्ना) रखना चाहिये ॥११५॥

मध्यमे पद्मरागं तु विन्यसेद् गर्भभाजने ।

रत्‍नानि धातवश्चैव स्वस्वविस्तारभाजने ॥११६॥

पात्र के मध्य मे पद्मराग (रुबी) रखना चाहिये । रत्न एवं धातुओं को पात्र में उनके उचित स्थान पर रखना चाहिये ॥११६॥

तद्देवस्थानभावज्ञैरानीतानि निधापयेत् ।

हेमायस्ताम्ररूप्यैश्च स्वस्तिकानि चतुर्दिशि ॥११७॥

उन देवों के स्थान एवं स्थिति को विधिपूर्वक ज्ञात कर रत्‍नादि को रखना चाहिये । चारो दिशाओं में सुवर्ण, आयस (लौह), ताँबे एवं चाँदी के स्वस्तिक रखने चाहिये ॥११७॥

ब्रह्मस्थानाद् बहिष्ठानि पूर्वादौ स्थापयेत्क्रमात् ।

स्वर्णेन शालिं रूप्येण व्रीहिं चायसक्रोद्रवम् ॥११८॥

ब्रह्मस्थान के बाहर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, पश्चिम एवं उत्तर दिशा में सुवर्ण के साथ शालिधान्य, चाँदी के साथ व्रीहि, अयस के साथ कोद्रव (कोदो) रखना चाहिये ॥११८॥

त्रपुकङ्कुं सीसमाषं तिलं वैकृन्तकल्पितम् ।

मुद्गं चायोमयं ताम्रं कुलत्थमिति लोहजान् ॥११९॥

टिन के साथ कङ्कु धान्य, सीसा के साथ माष (उड़द), तिल पारे के साथ, मूँग को अयस (लोह) के साथ तथा कुलत्थ को ताम्र धातु के साथ रखना चाहिये ॥११९॥

भाजनाय बलिं दत्त्वा पश्चात् सर्वं निधापयेत् ।

अङ्गुलाधिकविस्तीर्णमायामं द्वादशाङ्गुलम् ॥१२०॥

प्रथमतः पात्र के लिये बलि (उपर्युक्त वर्णित पदार्थ) प्रदान करना चाहिये । इसके पश्चात् सभी पदार्थो को पात्र में रख देना चाहिये । (पात्र को ढकने के लिये) एक अङ्गुल से अधिक चौड़ा तथा बारह अङ्गुल लम्बा पत्र लेना चाहिये ॥१२०॥

पञ्चाङ्गुलेन वृद्धिः स्यादाद्वात्रिंशत्प्रमाणतः ।

खादिरं चेन्द्रकीलं स्यात्तस्याग्रं चित्रवृत्तकम् ॥१२१॥

बारह अङ्गुल से लेकर पाँच-पाँच अङ्गुल के वृद्धि-मान से बत्तीस अङ्गुल तक (पत्र) का प्रमाण हो सकता है । यह इन्द्रकीलसंज्ञक पत्र खदिर के काष्ठ का गोलाकार निर्मित होना चाहिये ॥१२१॥

भाजनोपरि तत्स्थाप्यं गर्भन्यासविचक्षणैः ।

स्थानीये द्रोणमुखे खार्वटे प्रतिनागरे ॥१२२॥

गर्भ-विन्यास के ज्ञाता को इस पत्र को पात्र के ऊपर रखना चाहिये । यह गर्भ विन्यास स्थानीय, द्रोणमुख तथा खर्वट एवं प्रत्येक प्रकार के नगर मे करना चाहिये ॥१२२॥

ग्रामे च निगमे खेटे पत्तने कोत्मकोलके ।

ब्रह्मण्यार्यार्कभागेऽपि विवस्वति यमे तथा ॥१२३॥

मित्रे च वरुणे चैव सोमे च पृथिवीधरे ।

द्वारदक्षिणदेशे वा ह्येतेषां गर्भ इष्यते ॥१२४॥

(उपर्युक्त के अतिरिक्त) ग्राम, निगम, खेट, पत्तन तथा कोत्मकोलक आदि वसतिविन्यासों में गर्भ-विन्यास ब्रह्मा, आर्य, अर्क, विवस्वान्, यम, मित्र, वरुण, सोम एवं पृथिवीधर के भाग में या द्वार के दक्षिण भाग में करना चाहिये ॥१२३-१२४॥

पुष्पदन्ते च भल्लाटे महेन्द्रे च गृहक्षते ।

विष्णुस्थाने श्रियः स्थाने स्कन्दस्थानेऽथवा पुनः ॥१२५॥

स्थापयेद् ग्रामरक्षार्थं सर्वकामाभिवृद्धये ।

गर्भमादौ विनिक्षिप्य बिम्बं तदुपरि न्यसेत् ॥१२६॥

 (द्वार के दक्षिण भाग में) पुष्पदन्त, भल्लाट, महेन्द्र एवं गृहक्षत के पद पर अथवा विष्णु के स्थान (मन्दिर), लक्ष्मी के स्थान या स्कन्द के स्थान में ग्राम की रक्षा के लिये एवं सभी प्रकार की कामनाओं की वृद्धी के लिये गर्भ-विन्यास करना चाहिये । प्रथमतः (गर्त्त में) गर्भ-विन्यास करना चाहिये । तत्पश्चत्‌ उसके ऊपर मूर्तियों को स्थापित करना चाहिये ॥१२५-१२६॥

शिलेष्टकचिते खाते पुरुषाञ्जलिमात्रके ।

अनुक्तानां च सर्वेषामजभागादिषु न्यसेत् ॥१२७॥

गर्भ-विन्यास वाले क्षेत्र को (गर्त्त को) शिलाओं एवं इष्टकाओं से निर्मित करना चाहिये । इसका माप पुरुष का अञ्जलिप्रमाण रखना चाहिये । अवर्णित सभी पदार्थों को ब्रह्म आदि के भाग में रखना चाहिये (अवर्णित पदार्थो का वर्णन 'गर्भविन्यास' अध्याय मे प्राप्त होता है) ॥१२७॥

सुरक्षं तु यथागर्भं स्थपतिः स्थापयेत् स्थिरम ।

अत्रानुक्तं तु तत्सर्वं द्रष्टव्यं गर्भलक्षणे ॥१२८॥

जिस विधे से गर्भविन्यास सुरक्षित एवं स्थिर है (तथा भवननिर्माण भी सुरक्षित एवं स्थिर रहे), उसी रीति से स्थपति को गर्भ स्थापित करना चाहिये । यहाँ जिनका वर्णन नहीं किया गया है, उन सभी का वर्णन गर्भलक्षण (गर्भविन्यास, अध्याय-१२) में किया गया है ॥१२८॥

एवं प्रोक्त भूमितिर्देवतानां

वर्णानाञ्चाप्यत्र जात्यन्तराणाम् ।

ग्रामादीनां मानविन्यासमार्गं

सालङ्कारं चारु संक्षिप्य तन्त्रात् ॥१२९॥

इस प्रकार देवों के अनुरूप भूमि का माप (वास्तुमण्डल), वर्ण एवं अन्य जातियों के अनुकूल माप, ग्रामादिकों का प्रमाण, मार्गयोजना आदि को तन्त्रों से अलङ्कारसहित, सुन्दर ढंग से एवं संक्षेप में लिया गया है ॥१२९॥

दद्यान्नृपः स्थपतिकादिचतुष्टयेभ्यो

मानादिकर्मनिपुणेभ्य इडाञ्च गाञ्च ।

नित्यं यथा जगति वित्तमनेकवस्तू-

न्याचन्द्रतारमधिवासभुवं मुदा सः ॥१३०॥

राजा को मापन आदि कर्म में निपुण चारो स्थपतियों को भूमि एवं गाये प्रदान करनी चाहिये; जो व्यक्ति इस प्रकार करता है, उसे संसार मे चन्द्रमा एवं तारों की स्थितिपर्यन्त सर्वदा धन एवं अनेक (समृद्धिदायक) वस्तुओं की प्राप्ति होती रहती है एवं वह सर्वदा प्रसन्न रहता है ॥१३०॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे ग्रामविन्यासो नाम नवमोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 10 

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