उच्छिष्ट गणेश कवच
उच्छिष्ट अर्थात् संसार के नष्ट हो जाने के उपरांत भी रहने वाला तथा कवच अर्थात् शरीर के रक्षा के लिए पहना जाने वाला आवरण । संसार के नष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहने वाले ऐसे श्री गणेश को प्रणाम करते हुए सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए श्रीउच्छिष्टगणेश कवच का पाठ करें।
उच्छिष्टगणेश कवचम्
उच्चिष्ट गणपति कवच को मंत्र
शास्त्रों के सबसे महानतम रहस्यों में गिना जाता है। इस कवच का पाठ करने से सभी
सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। इस कवच का पाठ के लिए शुद्धिकरण या पूजा या यहां तक
कि प्रारंभिक और बाद के अनुष्ठानों के कठोर नियमों का पालन करने की आवश्यकता
नहीं होती है। स्नान, नए कपड़े
पहनने या बाहरी स्वच्छता बनाए रखने की भी आवश्यकता नहीं होती है। कवच के प्रभावी
होने के लिए केवल सच्ची और गहरी भक्ति की आवश्यकता होती है। यह कवच दरिद्रता का
हमेशा के लिए नाश कर देता है। इस कवच के परिणाम वास्तव में अद्भुत हैं और सभी
क्षेत्रों में वांछित परिणाम प्रकट कर सकते हैं। इसकी क्षमताओं और अभिव्यक्तियों
की कोई सीमा नहीं है।
श्रीउच्छिष्ट गणेश कवच स्तोत्रम्
Uchchhishta Ganesh Kavach
उच्छिष्ट गणेश कवच
उच्छिष्ट गणपति कवचम्
॥ अथ श्रीउच्छिष्टगणेशकवचं
प्रारम्भः॥
देव्युवाच ॥
देवदेव जगन्नाथ सृष्टिस्थितिलयात्मक
।
विना ध्यानं विना मन्त्रं विना होमं विना जपम् ॥ १॥
येन स्मरणमात्रेण लभ्यते चाशु
चिन्तितम् ।
तदेव श्रोतुमिच्छामि कथयस्व
जगत्प्रभो ॥ २॥
देवी ईश्वर से कहती हैं कि हे देवों
के देव,
जगन्नाथ! आप ही सृष्टि के निर्माण (सृष्टि), पालन
(स्थिति) और संहार (लय) के कर्ता हैं। हे जगत्प्रभो! बिना ध्यान, बिना मंत्र, बिना हवन और बिना जप के जिसके मात्र
स्मरण से ही तुरंत मनचाहा परिणाम हो जाय मैं वही (कवच) सुनना चाहती हूँ, कृपया कहें।
ईश्वर उवाच ॥
श्रुणु देवी प्रवक्ष्यामि
गुह्याद्गुह्यतरं महत् ।
उच्छिष्टगणनाथस्य कवचं
सर्वसिद्धिदम् ॥ ३॥
अल्पायासैर्विना कष्टैर्जपमात्रेण
सिद्धिदम् ।
ईश्वर कहते हैं कि हे देवी,
सुनो, मैं तुम्हें अत्यंत गुप्त और महान
उच्छिष्टगणनाथ के कवच के बारे में बताऊंगा, जो सभी प्रकार की
सिद्धियों को प्रदान करने वाला है तथा यह अल्प समय में बिना श्रम के ही सिद्ध हो
जाता है।
एकान्ते निर्जनेऽरण्ये गह्वरे च
रणाङ्गणे ॥ ४॥
सिन्धुतीरे च गङ्गायाः कूले
वृक्षतले जले ।
सर्वदेवालये तीर्थे लब्ध्वा
सम्यग्जपं चरेत् ॥ ५॥
इस कवच का पाठ निर्जन या एकांत
स्थानों या वनों में, गुफाओं में या
युद्धक्षेत्रों में, या समुद्र तट पर, गंगा,
सिंधु या किसी अन्य नदी, झील और तट के पर,
वृक्ष के नीचे, जल में, किसी
भी देवालय में या तीर्थस्थल पर अर्थात् कहीं भी भक्ति-भाव सहित विधि पूर्वक किया
जा सकता है।
स्नानशौचादिकं नास्ति नास्ति
निर्वंधनं प्रिये ।
दारिद्र्यान्तकरं शीघ्रं
सर्वतत्त्वं जनप्रिये ॥ ६॥
हे प्रिये! इस कवच के लिए स्नान,
शौच आदि कठोर नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं होती है। अर्थात्
कुछ भी बंधन नहीं है। इसके पाठ से साधक शीघ्र ही दरिद्रता से मुक्त हो जाता है और
सभी ज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा सभी का प्रिय हो जाता है।
सहस्रशपथं कृत्वा यदि स्नेहोऽस्ति
मां प्रति ।
निन्दकाय कुशिष्याय खलाय कुटिलाय च
॥ ७॥
दुष्टाय परशिष्याय घातकाय शठाय च ।
वञ्चकाय वरघ्नाय ब्राह्मणीगमनाय च ॥
८॥
अशक्ताय च क्रूराय गुरूद्रोहरताय च
।
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं
कदाचन ॥ ९॥
स्नेहवश मैं इसे तुम्हारे सम्मुख
प्रकट कर रहा हूँ । इसे किसी निन्दक, दुष्ट,
कुटिल, परशिष्य, हत्यारा, धूर्त, ठग, अपनी पत्नी या किसी अन्य स्त्री का
हत्यारा, ब्राह्मणी स्त्री से गमन करनेवाला और कमजोर या
शक्तिहीन को कभी भी नहीं बतलाना चाहिए।
गुरूभक्ताय दातव्यं सच्छिष्याय
विशेषतः ।
तेषां सिध्यन्ति शीघ्रेण ह्यन्यथा न
च सिध्यति ॥ १०॥
गुरूसन्तुष्टिमात्रेण कलौ
प्रत्यक्षसिद्धिदम् ।
इसे गुरु के प्रति पूर्णनिष्ठा रखने
वाले विशेषकर अच्छे शिष्य को ही देना चाहिए । केवल ऐसे धर्मपरायण शिष्य को
ही इस कवच का पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी, न
कि उन्हें जो इसके अयोग्य हैं। कलियुग में यह प्रत्यक्ष सिद्धि देनेवाला कवच केवल
गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
देहोच्छिष्टैः प्रजप्तव्यं
तथोच्छिष्टैर्महामनुः ॥ ११॥
आकाशे च फलं प्राप्तं नान्यथा वचनं
मम ।
एषा राजवती विद्या विना पुण्यं न
लभ्यते ॥ १२॥
शरीर और मन की अशुद्धियों के साथ भी
इस कवच का पाठ किया जा सकता है। इस राजवती विद्या से प्राप्त 'फल' कोई साधारण 'फल' नहीं है; यह 'आकाश' के समान विशाल और अद्भुत है। यह केवल पुण्य या अच्छे कर्मों से ही प्राप्त
हो सकती है, बिना पुण्य के यह संभव नहीं है।
अथ वक्ष्यामि देवेशि कवचं
मन्त्रपूर्वकम् ।
येन विज्ञातमात्रेण राजभोगफलप्रदम्
॥ १३॥
हे देवी! यह कवच दिव्य मंत्रों
से परिपूर्ण है। इस कवच को जानने मात्र से ही राजसी सुख और समृद्धि प्राप्त होता है।
श्री उच्छिष्टगणपतिकवच
ॐ अस्य श्री उच्छिष्टगणपतिकवचस्य गणक
ऋषि: गायत्री छन्द: उच्छिष्टगणपति देवता उच्छिष्टगणपति बीजं स्वाहा शक्ति: कामकीलकसर्वाङ्गे
विनियोग: ॥
ऋषिर्मे गणकः पातु शिरसि च
निरन्तरम् ।
त्राहि मां देवि गायत्रीछन्दो ऋषिः
सदा मुखे ॥ १४॥
हृदये पातु मां
नित्यमुच्छिष्टगणदेवता ।
गुह्ये रक्षतु तद्बीजं स्वाहा
शक्तिश्च पादयोः ॥ १५॥
कामकीलकसर्वाङ्गे विनियोगश्च सर्वदा
।
इस उच्छिष्ट गणपति कवच के ऋषि- गणक
मेरे शिर की, छन्द- देवी गायत्री मुख की, देवता- उच्छिष्ट गणनाथ हृदय की,
बीजमंत्र- गुह्य प्रदेश की, शक्ति- स्वाहा
पैरों की और कीलक- काम सदैव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें।
पार्श्वर्द्वये सदा पातु स्वशक्तिं
गणनायकः ॥ १६॥
शिखायां पातु तद्बीजं भ्रूमध्ये
तारबीजकम् ।
हस्तिवक्त्रश्च शिरसी लम्बोदरो
ललाटके ॥ १७॥
अपनी शक्ति सहित गणनायक मेरे दोनों
पृष्ठ भागों की, गणनायक का बीज शिखा की, तारक बीज (ॐ) भ्रूमध्य की, हस्तिवक्त्र
सिर की एवं लम्बोदर ललाट की सदैव रक्षा करें।
उच्छिष्टो नेत्रयोः पातु कर्णौ पातु
महात्मने ।
पाशाङ्कुशमहाबीजं नासिकायां च
रक्षतु ॥ १८॥
भूतीश्वरः परः पातु आस्यं जिह्वां
स्वयंवपुः ।
तद्बीजं पातु मां नित्यं ग्रीवायां
कण्ठदेशके ॥ १९॥
उच्छिष्टगणपति नेत्रों की, महात्मन्
दोनों कानों की, पाश, अंकुश एवं महाबीज
ये तीनों मेरी नासिका की, स्वयंभूतीश्वर जिह्वा की तथा ग्रीवा एवं कण्ठ की
भूतीश्वर बीज सदा रक्षा करें।
गंबीजं च तथा रक्षेत्तथा त्वग्रे च
पृष्ठके ।
सर्वकामश्च हृत्पातु पातु मां च
करद्वये ॥ २०॥
उच्छिष्टाय च हृदये वह्निबीजं
तथोदरे ।
मायाबीजं तथा कट्यां द्वावूरू
सिद्धिदायकः ॥ २१॥
गं बीज मंत्र मेरी अग्र व पृष्ठ भाग
की, सर्वकाम हृदय तथा मेरे दोनों हाथों की, उच्छिष्ट गणपति हृदय की, अग्नि बीज
(रं) उदर की, माया बीज (ह्रीं) कटि प्रदेश की, सिद्धिदायक उरु प्रदेश की सदैव
रक्षा करें।
जङ्घायां गणनाथश्च पादौ पातु
विनायकः ।
शिरसः पादपर्यन्तमुच्छिष्टगणनायकः ॥
२२॥
आपादमस्तकान्तं च उमापुत्रश्च पातु
माम् ।
गणनाथ जंघाओं की, विनायक दोनों
पैरों की, सिर से पैर तक सभी अंगों की उच्छिष्ट गणनायक और पैरों से सिर तक के
सम्पूर्ण अंगों की उमापुत्र सदैव रक्षा करें।
दिशोऽष्टौ च तथाकाशे पाताले विदिशाष्टके
॥ २३॥
अहर्निशं च मां पातु मदचञ्चललोचनः ।
जलेऽनले च सङ्ग्रामे दुष्टकारागृहे
वने ॥ २४॥
राजद्वारे घोरपथे पातु मां गणनायकः
।
दिवस एवं रात्रिकाल में, दिशाओं
विदिशाओं में, आकाश तथा पाताल में मदचञ्चललोचन,
जल, अग्नि, रण, कारागृह, बन, राजद्वार, घोर पथ तथा सभी में भगवान गणनायक सदैव
मेरी रक्षा करें।
इदं तु कवचं गुह्यं मम
वक्त्राद्विनिर्गतम् ॥ २५॥
त्रैलौक्ये सततं पातु द्विभुजश्च
चतुर्भुजः ।
बाह्यमभ्यन्तरं पातु
सिद्धिबुद्धिर्विनायकः ॥ २६॥
सर्वसिद्धिप्रदं देवि
कवचमृद्धिसिद्धिदम् ।
एकान्ते प्रजपेन्मन्त्रं कवचं
युक्तिसंयुतम् ॥ २७॥
तीन लोकों (स्वर्ग,
पृथ्वी और पाताल) में दो भुजाओं और चार भुजाओं वाला, सिद्धि और
बुद्धि के स्वामी विनायक मेरे शरीर के बाहर और अंदर की सदा रक्षा करे। यह गुप्त
कवच मेरे मुख से निकला है। जो सभी सिद्धियों को देनेवाला ऋद्धिसिद्धि देनेवाला है।
हे देवी! इस उच्छिष्ट गणेश कवच का पाठ पूरी एकाग्रता के साथ युक्तिपूर्वक और पूर्ण
समर्पण के साथ किया जाना चाहिए।
इदं रहस्यं कवचमुच्छिष्टगणनायकम् ।
सर्ववर्मसु देवेशि इदं कवचनायकम् ॥
२८॥
एतत्कवचमाहात्म्यं वर्णितुं नैव
शक्यते ।
धर्मार्थकाममोक्षं च नानाफलप्रदं
नृणाम् ॥ २९॥
हे देवेशि! यह सर्वशक्तिमान रहस्यपूर्ण
उच्छिष्टगणनायक (उच्छिष्ट गणेश) का कवच सभी सुरक्षा कवचों का नायक है। इस कवच का
माहात्म्य(महिमा) का वर्णन करना संभव नहीं है। यह मनुष्यों को धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में विभिन्न प्रकार
के फल प्रदान करता है।
शिवपुत्रः सदा पातु पातु मां
सुरार्चितः ।
गजाननः सदा पातु गणराजश्च पातु माम्
॥ ३०॥
सदा शक्तिरतः पातु पातु मां
कामविह्वलः ।
सर्वाभरणभूषाढयः पातु मां
सिन्दूरार्चितः ॥ ३१॥
देवो द्वारा सेवित अर्चित पूजित
शिवपुत्र गजानन गणराज, सदाशक्तिरत काम विह्वल, सकल आभूषणों से विभूषित एवं सिन्दूर
से जिनकी अर्चना की जाती है वो प्रभु सदैव मेरी रक्षा करें।
पञ्चमोदकरः पातु पातु मां
पार्वतीसुतः ।
पाशाङ्कुशधरः पातु पातु मां च
धनेश्वरः ॥ ३२॥
गदाधरः सदा पातु पातु मां काममोहितः
।
नग्ननारीरतः पातु पातु मां च
गणेश्वरः ॥ ३३॥
पंचमोदकर, पार्वती पुत्र, पाश तथा अंकुश धारण करने वाले, धनेश्वर, गदाधर, काममोहित, कामरत एवं गणेश्वर सदैव मेरी
रक्षा करें।
अक्षयं वरदः पातु शक्तियुक्तिः
सदाऽवतु ।
भालचन्द्रः सदा पातु
नानारत्नविभूषितः ॥ ३४॥
उच्छिष्टगणनाथश्च मदाघूर्णितलोचनः ।
नारीयोनिरसास्वादः पातु मां
गजकर्णकः ॥ ३५॥
शक्तियुक्त, अक्षय वरदान प्रदान करनेवाले, नाना रत्नों से विभूषित,
भालचन्द्र, उच्छिष्ट गणनाथ, मदघूर्णितलोचन, नारीयोनिरसास्वाद लेनेवाले तथा गजकर्णक
मेरी सदा रक्षा करें।
प्रसन्नवदनः पातु पातु मां भगवल्लभः
।
जटाधरः सदा पातु पातु मां च
किरीटिकः ॥ ३६॥
पद्मासनास्थितः पातु रक्तवर्णश्च
पातु माम् ।
नग्नसाममदोन्मत्तः पातु मां गणदैवतः
॥ ३७॥
प्रसन्नमुख वाले, दिव्य मुकुट
विभिषित, भगवल्लभ, जटाधर, पद्मासन स्थित, रक्त वर्ण वाले, उन्मत्त नग्न एवं गान
प्रिय तथा गणदेवता मेरी सदा रक्षा करें।
वामाङ्गे सुन्दरीयुक्तः पातु मां
मन्मथप्रभुः ।
क्षेत्रपः पिशितं पातु पातु मां
श्रुतिपाठकः ॥ ३८॥
भूषणाढ्यस्तु मां पातु
नानाभोगसमन्वितः ।
स्मिताननः सदा पातु
श्रीगणेशकुलान्वितः ॥ ३९॥
वामांग में सुंदरी शोभायमान स्वरूपवाले,
मन्मथ प्रभु, क्षेत्रप पिशित, श्रुति पाठक , भूषणाढ्य, नाना प्रकार के भोगों से
युक्त, स्मितानन, कुलान्वित श्रीगणेश प्रभु मेरी सदैव रक्षा करें।
श्रीरक्तचन्दनमयः सुलक्षणगणेश्वरः ।
श्वेतार्कगणनाथश्च हरिद्रागणनायकः ॥
४०॥
पारभद्रगणेशश्च पातु सप्तगणेश्वरः ।
प्रवालकगणाध्यक्षो गजदन्तो गणेश्वरः
॥ ४१॥
रक्त चन्दनमय, सुन्दर लक्षणोंवाले गणेश्वर, श्वेतार्क गणनाथ,
हरिद्रा गणनायक, परिभद गणेश, सप्त गणेश्वर प्रवालकगणाध्यक्ष,
गजदन्त एवं गणेश्वर स्वरूप मेरी सदैव रक्षा करें।
हरबीजगणेशश्च भद्राक्षगणनायकः ।
दिव्यौषधिसमुद्भूतो
गणेशाश्चिन्तितप्रदः ॥ ४२॥
लवणस्य गणाध्यक्षो मृत्तिकागणनायकः
।
तण्डुलाक्षगणाध्यक्षो गोमयश्च
गणेश्चरः ॥ ४३॥
स्फटिकाक्षगणाध्यक्षो
रुद्राक्षगणदैवतः ।
नवरत्नगणेशश्च आदिदेवो गणेश्वरः ॥
४४॥
पञ्चाननश्चतुर्वक्त्रः
षडाननगणेश्वरः ।
मयूरवाहनः पातु पातु मां मूषकासनः ॥
४५॥
हर बीज गणेश,
भद्राक्ष गणनायक, दिव्य औषधियों से उत्पन्न, चिंताहर
श्रीगणेश, लवण के गणाध्यक्ष, गोमय गणेश्वर, तण्डुलाक्ष गणाध्यक्ष, मृत्तिका गणनायक, स्फटिकाक्ष गणाध्यक्ष, रुद्राक्षगणदेवता, नवरत्न
गणेश, आदिदेव गणेश्वर, पञ्चानन, चतुर्वक्त्र, षडानन गणेश्वर,
मयूर वाहन, मूषकासन स्थित ये सभी भगवान उच्छिष्ट गणपति
स्वरूप सदैव मेरी रक्षा करें।
पातु मां देवदेवेशः पातु
मामृषिपूजितः ।
पातु मां सर्वदा देवो देवदानवपूजितः
॥ ४६॥
त्रैलोक्यपूजितो देवः पातु मां च
विभुः प्रभुः ।
रङ्गस्थं च सदा पातु सागरस्थं
सदाऽवतु ॥ ४७॥
जो देवदेवेश (देवों के देव),
ऋषिपूजित (ऋषियों द्वारा पूजित), देव एवं दानवों द्वारा पूजित, त्रैलोक्य पूजित, विभु,
प्रभु, रंग, रूप, सागर
आदि सर्वत्र व्याप्त हैं वे श्रीगणपति सदैव मेरी रक्षा करें।
भूमिस्थं च सदा पातु पातलस्थं च
पातु माम् ।
अन्तरिक्षे सदा पातु आकाशस्थं
सदाऽवतु ॥ ४८॥
चतुष्पथे सदा पातु त्रिपथस्थं च
पातु माम् ।
बिल्वस्थं च वनस्थं च पातु मां
सर्वतस्तनम् ॥ ४९॥
जो भूमि,
पाताल, अंतरिक्ष, आकाश,
चतुष्पथ, त्रिपथ, बिल्ववृक्ष
एवं वनों में स्थित में स्थित हैं, वे सभी ओर से मेरी रक्षा
करें।
राजद्वारस्थितं पातु पातु मां
शीघ्रसिद्धिदः ।
भवानीपूजितः पातु
ब्रह्माविष्णुशिवार्चितः ॥ ५०॥
जो राजद्वार में स्थित हैं,
वे प्रभु मुझे शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करें। ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा भवानी द्वारा जिनकी अर्चना की जाती है, वे गणेश सदैव मेरी रक्षा करें।
उच्छिष्ट गणपति कवच फलश्रुति:
इदं तु कवचं देवि
पठनात्सर्वसिद्धिदम् ।
उच्छिष्टगणनाथस्य समन्त्रं कवचं
परम् ॥ ५१॥
स्मरणाद्भूपतित्वं च लभते साङ्गतां
ध्रूवम् ।
वाचः सिद्धिकरं शीघ्रं
परसैन्यविदारणम् ॥ ५२॥
हे देवि! उच्छिष्टगणेश की महिमा का
वर्णन करता यह एक उच्चकोटि का मंत्र कवच है। इस कवच का पठन या स्मरण सर्वसिद्धि
प्रदान करने वाला, राजा के समान पद प्रदान करने वाला, वाकसिद्धि प्रदाता एवं शत्रु
सेना का त्वरित गति से समूल विनाश करने वाला है।
प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने दिवा
रात्रौ पठेन्नरः ।
चतुर्थ्यां दिवसे रात्रौ पूजने
मानदायकम् ॥ ५३॥
सर्वसौभाग्यदं शीघ्रं
दारिद्र्यार्णवघातकम् ।
सुदारसुप्रजासौख्यं सर्वसिद्धिकरं
नृणाम् ॥ ५४॥
जो कोई भगवान गणपति की पूजा के
उपरांत प्रातःकाल, दोपहर, सायंकाल, दिन या रात्रि अथवा चतुर्थी तिथि को रात्रि में श्रद्धापूर्वक इस
कवच का पाठ करता है, उसे शीघ्र ही मान-सम्मान, सर्वसौभाग्य,
दरिद्रता का समूल नाश, सुलक्षणापत्नी, पुत्र एवं सर्वसिद्धि प्राप्त
होता है।
जलेऽथवाऽनलेऽरण्ये सिन्धुतीरे
सरित्तटे ।
स्मशाने दूरदेशे च रणे पर्वतगह्वरे
॥ ५५॥
राजद्वारे भये घोरे निर्भयो जायते
ध्रुवम् ।
सागरे च महाशीते दुर्भिक्षे
दुष्टसङ्कटे ॥ ५६॥
यह कवच वायु,
जल, भूमि, अग्नि,
पर्वत, वन, गुफाएँ,
युद्ध क्षेत्र, श्मशान, जल-तट,
विदेश, समुद्र में, भयानक ठंड में, सूखे
में और भयप्रद स्थानों में निर्भयता प्रदान करता है।
भूतप्रेतपिशाचादियक्षराक्षसजे भये ।
राक्षसीयक्षिणीक्रूराशाकिनीडाकीनीगणाः
॥ ५७॥
राजमृत्युहरं देवि कवचं कामधेनुवत्
।
अनन्तफलदं देवि सति मोक्षं च
पार्वति ॥ ५८॥
हे पार्वति! यह कवच भूत, प्रेत, पिशाच,
यक्ष,
यक्षिणी, राक्षस, राक्षसी, भयंकर शाकिनी तथा डाकिनी आदि गणों द्वारा होने वाले सभी भयों को दूर करने
वाला, सर्वप्रकार मृत्यु का हरण करने वाला एवं अनंत पुण्य फल
व मोक्ष प्रदान करने वाला साक्षात् कामधेनु सदृश है।
कवचेन विना मन्त्रं यो
जपेद्गणनायकम् ।
इह जन्मानि पापिष्ठो जन्मान्ते
मूषको भवेत् ॥ ५९॥
इस कवच बिना उच्छिष्ट गणनायक मंत्र
की साधना करता वह इस जन्म में पापी तथा अगले जन्म मूषक होता है।
इति परमरहस्यं देवदेवार्चनं च
कवचपरमदिव्यं पार्वती पुत्ररूपम् ।
पठति परमभोगैश्वर्यमोक्षप्रदं च
लभति सकलसौख्यं शक्तिपुत्रप्रसादात्
॥ ६०॥
यह परमरहस्यपूर्ण दिव्य गोपनीय कवच साक्षात्
भगवान शिव- पार्वती पुत्र श्रीगणेश रूप है। इस कवच का नित्य पाठ करने से भगवान
गणेश की कृपा से असीमित धन, भोग ऐश्वर्य और
मोक्ष प्राप्त होता है।
॥ इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीमदुच्छिष्टगणेशकवचं समाप्तम् ॥

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