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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कालिका हृदयम्
कालीरहस्य अंतर्गत महाकौतूहल
दक्षिणाकाली हृदय स्तोत्रम् के पाठ से भयंकर व असाध्य रोग और शत्रु नष्ट हो जाते
हैं ।
अथ श्रीकाली हृदयम् प्रारम्भः ।
श्रीमहाकाल उवाच ।
महाकौतूहलस्तोत्रं हृदयाख्यं
महोत्तमम् ।
श्रृणु प्रिये महागोप्यं दक्षिणायाः
सुगोपितम् ॥ १॥
अवाच्यमपि वक्ष्यामि तव प्रीत्या
प्रकाशितम् ।
अन्येभ्यः कुरु गोप्यं च सत्यं
सत्यं च शैलजे ॥ २॥
महाकाल ने कहा-हे प्रिये! अत्यन्त
चमत्कार पैदा करनेवाला सभी में श्रेष्ठ 'कालीहृदय
नामक स्तोत्र को (मेरे मुखारविन्द से) श्रवण करो। यह स्तोत्र अति गोपनीय है,
इसे यत्नपूर्वक दक्षिणा ने गोपनीय रक्खा था। हे देवि! वैसे तो यह
स्तोत्र किसी से नहीं बताना चाहिए, फिर भी तुम्हारे प्रेम के
वश में होकर मैं इसे बता रहा हूँ । हे शैलजे! मैं यह यथार्थ कह रहा हूँ, मैं यह यथार्थ कह रहा हूँ, तुम अन्य लोगों से इसे गोपनीय
रखना ॥ १-२॥
श्रीदेव्युवाच ।
कस्मिन् युगे समुत्पन्नं केन
स्तोत्रं कृतं पुरा ।
तत्सर्वं कथ्यतां शम्भो दयानिधे
महेश्वर ॥ ३॥
श्री देवी ने कहा-हे महादेव! इस
स्तोत्र की रचना (चारों युगों में से) किस युग में हुई है?
और सबसे पहले इस स्तोत्र का (पाठ) किसने किया था?हे दया के स्वामि!
हे महेश्वर! इन सभी बातों को आप मुझसे (विस्तार) से कहिए?॥ ३॥
श्रीमहाकाल उवाच ।
पुरा प्रजापतेः शीर्षच्छेदनं
कृतवानहम् ।
ब्रह्महत्याकृतैः पापैर्भैरवत्वं
ममागतम् ॥ ४॥
ब्रह्महत्याविनाशाय कृतं स्तोत्रं
मया प्रिये ।
कृत्याविनाशकं स्तोत्रं
ब्रह्महत्यापहारकम् ॥ ५॥
(ऐसा सुनकर) श्री महाकाल ने कहा-हे
प्रिये! जगत के आदि में जब मैंने ब्रह्मजी का मस्तक काट दिया,
उस समय मुझे ब्रह्महत्या लग गई और मैं शिव न होकर अति भयंकर भैरव बन
गया। उस समय (जो पूर्व में मेरे द्वारा ब्रह्माजी का सिर काट काट डाला गया था) उस ब्रह्महत्या
की निवृत्ति के लिये मैंने स्वयं इस महास्तोत्र का पाठ किया था। महास्तोत्र कृत्या
को नष्ट करनेवाला एवं ब्रह्महत्या को भी नष्ट करने वाला है॥४-५॥
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदक्षिणकाल्या
हृदयस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीमहाकाल ऋषिः ।
उष्णिक्छन्दः । श्रीदक्षिणकालिका
देवता ।
क्रीं बीजं । ह्रीं शक्तिः । नमः
कीलकं ।
सर्वत्र सर्वदा जपे विनियोगः ॥
कर्ता का चाहिए कि वह अपने दायें
हाथ में जल लेकर 'ॐ अस्य दक्षिणकालिका
से जपे विनियोगः तक के वाक्य का उच्चारण कर भूमि पर जल छोड़ दें।
अथ हृदयादिन्यासः ।
ॐ क्रां हृदयाय नमः । इसका उच्चारण
करके हृदय का ।
ॐ क्रीं शिरसे स्वाहा । इसका
उच्चारण करके सिर का।
ॐ क्रूं शिखायै वषट् । इसका उच्चारण करके शिखा का।
ॐ क्रैं कवचाय हुं । इसका उच्चारण करके दोनों भुजाओं का।
ॐ क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । इसका
उच्चारण करके दोनों नेत्रों का।
ॐ क्रः अस्त्राय फट् ॥ इसका उच्चारण
करके पूरे शरीर का स्पर्श करें।
अथ ध्यानम् ।
ॐ ध्यायेत्कालीं महामायां
त्रिनेत्रां बहुरूपिणीम् ।
चतुर्भुजां ललजिह्वां
पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ॥ १॥
महामाया, तीन नेत्रों से युक्त, अनेकानेक रूपों से जगत् में व्याप्त, चार भुजाओं से युक्त, अपनी जिह्वा को लपलपाती हुई, पूर्ण चन्द्रमा के तुल्य मुखारविन्द वाली महाकाली का ध्यान करें ॥१॥
नीलोत्पलदलप्रख्यां
शत्रुसङ्घविदारिणीम् ।
नरमुण्डं तथा खङ्गं कमलं वरदं तथा ॥
२॥
काले कमल के पत्ते के तुल्य नीले
रंग वाली,
शत्रुओं का विनाश करनेवाली, नरमुण्ड, खड्ग, कमल और वरमुद्रा को धारण करनेवाली ॥ २॥
बिभ्राणां रक्तवदनां दंष्ट्रालीं
घोररूपिणीम् ।
अट्टाट्टहासनिरतां सर्वदा च
दिगम्बराम् ॥ ३॥
खून की धारा को (अपने) मुख में धारण
करनेवाली. ऊँचे एवं भयंकर दाँतों से युक्त, अति
भयंकर रूपवाली, (भयंकर) रूप से हँसनेवाली, जिसके शरीर पर कोई वस्त्र नही है अर्थात् पूर्णरूपेण नग्न है ॥ ३ ॥
शवासनस्थितां देवीं
मुण्डमालाविभूषिताम् ।
इति ध्यात्वा महादेवीं ततस्तु हृदयं
पठेत् ॥ ४॥
जो सदैव शव के आसन पर विराजित हैं,
(नर) मुण्ड की माला, जिनके गले में है,
ऐसी महादेवी का ध्यान करके फिर काली हृदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए
॥ ४॥
ॐ कालिका घोररूपाढया सर्वकामफलप्रदा
।
सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु
मे ॥ ५॥
घनघोर रूपों को धारण करनेवाली एवं
समस्त मनोवांछित जिज्ञासाओं को पूर्ण करनेवाली तथा समस्त देवताओं द्वारा प्रार्थित
भगवती महाकाली हमारे शत्रुओं का मर्दन करें॥५॥
ह्रींह्रींस्वरूपिणी श्रेष्ठा
त्रिषु लोकेषु दुर्लभा ।
तव स्नेहान्मया ख्यातं न देयं यस्य
कस्यचित् ॥ ६॥
(ऐसी) वह महाकाली 'ह्रीं ह्रीं' रूपा है, सभी में
सर्वश्रेष्ठ हैं और तीनों लोकों में परिश्रम एवं कष्ट से प्राप्त होने योग्य है।
उन्हीं का यह स्तोत्र है । हे देवि पार्वती! प्रेमवश मैं इस स्तोत्र को तुम्हें
बता रहा हूँ, किन्तु तुम इस परम दुर्लभ स्तोत्र को किसी अन्य
को मत बताना ॥ ६ ॥
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि निशामय
परात्मिके ।
यस्य विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तो
भविष्यति ॥ ७॥
हे परात्मिके ! मैं उस महाकाली के
ध्यान का वर्णन तुमसे कर हूँ, तुम उसे
(एकाग्रचित्त) होकर श्रवण करो। (क्योंकि) इसके जान लेनेमात्र से ही मानव जीवन से
मुक्त हो जाता है॥ ७॥
नागयज्ञोपवीताञ्च
चन्द्रार्द्धकृतशेखराम् ।
जटाजूटाञ्च सञ्चिन्त्य
महाकालसमीपगाम् ॥ ८॥
वह महाकाली सर्पो का यज्ञोपवीत धारण
की हुई है, उनके मस्तक पर द्वितीया का अर्द्धचन्द्र विराजित हैं,
वे जटाजूट से युक्त है और महाकाल के निकट निवास करनेवाली हैं ।। ८ ।
एवं न्यासादयः सर्वे ये
प्रकुर्वन्ति मानवाः ।
प्राप्नुवन्ति च ते मोक्षं सत्यं
सत्यं वरानने ॥ ९॥
जो मनुष्य ऊपर कहे गये भगवती
महाकाली के न्यास और ध्यान को (विधिवत) करते हैं । हे वरानने! वे निश्चय ही मोक्ष
की प्राप्ति करते हैं। यह बात सत्य है, यह
बात सत्य है ।। ९ ॥
यन्त्रं श्रृणु परं देव्याः
सर्वार्थसिद्धिदायकम् ।
गोप्यं गोप्यतरं गोप्यं गोप्यं गोप्यतरं
महत् ॥ १०॥
हे पार्वती! समस्त सिद्धियों को
प्रदत्त करनेवाले, उस महादेवी के
यन्त्र का वर्णन तुम मुझसे श्रवण करो। वह यंत्र अत्यन्त गोपनीय है अर्थात् गोपनीय
से भी गोपनीय है ॥ १०॥
त्रिकोणं पञ्चकं चाष्टकमलं
भूपुरान्वितम् ।
मुण्डपङ्क्तिं च ज्वालां च कालीयन्त्रं
सुसिद्धिदम् ॥ ११॥
उस यंत्र में पन्द्रह कोण होते है,
फिर अष्टदलकमल एवं भूपुर होते हैं। उसके पश्चात् मुण्ड की पंक्ति
एवं ज्वाला होती है। (समस्त) सिद्धि को देनेवाला यह महाकाली का यन्त्र है॥ ११॥
मन्त्रं तु पूर्वकथितं धारयस्व सदा
प्रिये ।
देव्या दक्षिणकाल्यास्तु नाममालां
निशामय ॥ १२॥
मैंने पूर्व में ही तुमसे महाकाली
के मन्त्र का वर्णन कर दिया था। अब तुम उसे धारण करो। अब (एकाग्रचित्त)होकर
दक्षिणकाली देवी की नामावली को तुम श्रवण करो ॥ १२॥
काली दक्षिणकाली च कृष्णरूपा
परात्मिका ।
मुण्डमाला विशालाक्षी
सृष्टिसंहारकारिका ॥ १३ ॥
स्थितिरूपा महामाया योगनिद्रा
भगात्मिका ।
भगसर्पिःपानरता भगोद्योता भगाङ्गजा
॥ १४ ॥
आद्या सदा नवा घोरा महातेजाः
करालिका ।
प्रेतवाहा सिद्धिलक्ष्मीरनिरुद्धा
सरस्वती ॥ १५॥
एतानि नाममाल्यानि ये पठन्ति दिने
दिने ।
तेषां दासस्य दासोऽहं सत्यं सत्यं
महेश्वरि ॥ १६॥
१. काली,
२. दक्षिणकाली, ३. कृष्णरूपा, ४. परात्मिका, ५. मुण्डमाली, ६.
विशालाक्षी, ७. इष्टसंहारकारिका, ८.
स्थितिरूपा, ९. महामाया, १०. योगनिद्रा,
११. भगात्मिका, १२. भागसर्पि, १३. पानरता, १४. भगोद्योता, १५.
भगाङ्गजा, १६. आद्या, १७. सदा नवा,
१८. घोरा, १९. महातेजा, २०.करालिका,
२१. प्रेतवाहा, २२. सिद्धिलक्ष्मी, २३. अनिरुद्धा, २४.सरस्वती । भगवती महाकाली की इस
नाममाला को जो मनुष्य प्रतिदिन पढते हैं,
(इस विषय में) शिवजी का कथन है कि हे पार्वती! मैं उनके सेवक का भी
सेवक हो जाता हूँ। यह मैं यथार्थ कह रहा हूँ। १३-१६॥
ॐ कालीं कालहरां देवी
कङ्कालबीजरूपिणीम् ।
कालरूपां कलातीतां कालिकां दक्षिणां
भजे ॥ १७॥
कुण्डगोलप्रियां देवीं खयम्भूकुसुमे
रताम् ।
रतिप्रियां महारौद्रीं कालिकां
प्रणमाम्यहम् ॥ १८॥
दूतीप्रियां महादूतीं
दूतीयोगेश्वरीं पराम् ।
दूतोयोगोद्भवरतां दूतीरूपां
नमाम्यहम् ॥ १९॥
काली, कालहरा देवी, कङ्काल बीज रूपिणी, कृष्णवर्णवाली, कलातीता, दक्षिणा
तथा काली के नाम से प्रसिद्ध देवी का मैं भजन करता हूँ। कुण्डगोलप्रिया, ऋतुमती, रतिप्रिया, महरौद्री
एवं कालिका को मैं प्रणाम करता हूँ। दूतीप्रिया, महादूती,
दूती, योगेश्वरी,पराम्बा,
दूतीयोगोद्भवरता एवं दूतीरूपामहाकाली को मैं प्रणाम करता हूँ। १७-१९॥
क्रींमन्त्रेण जलं जप्त्वा सप्तधा
सेचनेन तु ।
सर्वे रोगा विनश्यन्ति नात्र कार्या
विचारणा ॥ २०॥
क्रींस्वाहान्तैर्महामन्त्रैश्चन्दनं
साधयेत्ततः ।
तिलकं क्रियते प्राज्ञैर्लोको वश्यो
भवेत्सदा ॥ २१॥
क्रीं इस मन्त्र से जल को
अभिमंत्रित करके सात बार रोगी के ऊपर छिड़कने से उसके समस्त रोग समाप्त हो जाते
हैं,
इसमें संदेह नहीं है। क्रीं स्वाहा' इस मन्त्र
का उच्चारण करके चन्दन को घिसें, फिर अपने मस्तक पर उस चन्दन
का तिलक करें, तो ऐसे मनुष्य के वश में सभी लोग हो जाते हैं
। २०-२१॥
क्रीं हूं ह्रीं मन्त्रजप्तैश्च
ह्यक्षतैः सप्तभिः प्रिये ।
महाभयविनाशश्च जायते नात्र संशयः ॥
२२॥
क्रीं ह्रीं ह्रूं स्वाहा मन्त्रेण
श्मशानाग्निं च मन्त्रयेत् ।
शत्रोर्गृहे प्रतिक्षिप्त्वा शत्रोर्मृत्युर्भविष्यति
॥ २३॥
ह्रूं ह्रीं क्रीं चैव उच्चाटे
पुष्पं संशोध्य सप्तधा ।
रिपूणां चैव चोच्चाटं नयत्येव न
संशयः ॥ २४॥
आकर्षणे च क्रीं क्रीं क्रीं
जप्त्वाऽक्षतान् प्रतिक्षिपेत् ।
सहस्रयोजनस्था च शीघ्रमागच्छति
प्रिये ॥ २५॥
क्रीं क्रीं क्रीं ह्रूं ह्रूं ह्रीं
ह्रीं च कज्जलं शोधितं तथा ।
तिलकेन जगन्मोहः सप्तधा
मन्त्रमाचरेत् ॥ २६॥
'क्रीं ह्रूं ह्रीं' इस मन्त्र का जप करके सात दानें अक्षत अर्थात् चावल फेंकने से महाभय का
विनाश हो जाता है, इसमें लेशमात्र संदेह नहीं है। 'क्रीं ह्रीं ह्रूं स्वाहा इस मन्त्र द्वारा श्मशान की अग्नि को अभिमंत्रित
करके जलावें, फिर उसे शत्रु के गृह की ओर फेंक दें। ऐसा करने
से शत्रु की मृत्यु हो जाती है । ' ह्रूं ह्रीं क्रीं'
इस मन्त्र से सात बार फूल को अभिमंत्रित करके शत्रु के ऊपर फेंक
देने से शत्रु का उच्चाटन हो जाता है। “क्रीं क्रीं क्रीं इस
मन्त्र का जप कर चावल के दानों को सभी दिशाओं में फेंकने से हजार योजन दूर
रहनेवाला भी आकृष्ट होकर यथाशीघ्र ही चला आता है। क्रीं क्रीं क्रीं ह्रूं ह्रूं
ह्रीं ह्रीं इस मन्त्र से सात बार काजल को पारित कर उसका मात्र से सम्पूर्ण संसार
मोह ग्रसत हो जाता है || २२-२६॥
हृदयं परमेशानि सर्वपापहरं परम् ।
अश्वमेधादियज्ञानां
कोटिकोटिगुणोत्तरम् ॥ २७॥
कन्यादानादिदानानां कोटिकोटिगुणं
फलम् ।
दूतीयागादियागानां कोटिकोटिफलं
स्मृतम् ॥ २८॥
गङ्गादिसर्वतीर्थानां फलं कोटिगुणं
स्मृतम् ।
एकधा पाठमात्रेण सत्यं सत्यं
मयोदितम् ॥ २९॥
कौमारीस्वेष्टरूपेण पूजां कृत्वा
विधानतः ।
पठेत्स्तोत्रं महेशानि जीवन्मुक्तः
स उच्यते ॥ ३०॥
हे परमेशानि! यह काली-हृदय नामक
स्तोत्र समस्त पापों को विनष्ट करता है। एवं अश्वमेधादि यज्ञों और समस्त दानों से
करोडों गुना श्रेष्ठ है। कन्यादानादि से भी करोडों गुना उत्तम है तथा देवीयज्ञों
से भी श्रेष्ठ है । इस कालीहृदय का एक बार पाठ करने से गंगादि सभी तीर्थों से भी
उत्तम फल प्राप्त होते हैं, यह यथार्थ है । हे
महेशानि! कौमारी को जो अपना इष्टदेवता मानकर विधि-विधान से उनकी पूजा करते हैं और
पूजा के उपरान्त इस (काली-हृदय) का पाठ करते हैं, वे
निःसन्देह जीवन से मुक्त हो जाते हैं ।। २७-३०॥
रजस्वलाभगं दृष्ट्वा
पठेदेकाग्रमानसः ।
लभते परमं स्थानं देवीलोके वरानने ॥ ३१॥
हे वरानने! (जो साधक) रजस्वला स्त्री की योनि का दर्शन कर शुद्धहृदय हो,
अपने मन को एकाग्र कर इस काली-हृदय पाठ करते हैं। ऐसे साधक (काली)
देवी के उत्तम लोक में परमपद को प्राप्त करते हैं ॥ ३१॥
महादुःखे महारोगे महासङ्कटके दिने ।
महाभये महाघोरे पठेतस्तोत्रं
महोत्तमम् ।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं
गोपायेन्मातृजारवत् ॥ ३२॥
अत्यन्त दु:ख के आने पर,
असाध्य रोग अर्थात् जिस रोग की दवा न हो सके, घनघोर
संकट में, महाभय में एवं अनिष्ट काल में इस उत्तम (काली-हृदय
स्तोत्र) का पाठ करना चाहिए । यह हम यथार्थ कहते हैं, यह हम
यथार्थ कहते हैं, यह हम यथार्थ कहते हैं । जैसे कि (अपनी)
माता के साथ व्यभिचार करनेवाले पुरुष एवं मातृयोनिवत् जिस प्रकार से गुप्त रखा
जाता है, उसी प्रकार इस (स्तोत्र) को भी गोपनीय रखना चाहिए ॥
३२॥
इति कालीरहस्ये श्रीकालीहृदयम्
समाप्तम् ॥
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Jai siri ram ji
ReplyDeleteAp se bat ho sakti he
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