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कर्मकाण्ड

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रूद्र सूक्त Rudra suktam

रूद्र सूक्त Rudra suktam

'रुद्र' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक, पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भगवान् रुद्र के विविध स्वरूप वर्णित हैं, यथा - गिरीश, अधिवक्ता, सुमङ्गल, नीलग्रीव, सहस्राक्ष, कपर्दी, मीढुष्टम, हिरण्यबाहु, सेनानी, हरिकेश, अन्नपति, जगत्पति, क्षेत्रपति, वनपति, वृक्षपति, औषधीपति, सत्त्वपति, स्तेनपति, गिरिचर, सभापति, श्वपति, गणपति, व्रातपति, विरूप, विश्वरूप, भव, शर्व, शितिकण्ठ, शतधन्वा, ह्रस्व, वामन, बृहत्, वृद्ध, ज्येष्ठ, कनिष्ठ, श्लोक्य, आशुषेण, आशुरथ, कवची, श्रुतसेन, सुधन्वा, सोम, उग्र, भीम, शम्भु, शंकर, शिव, तीर्थ्य, व्रज्य, नीललोहित, पिनाकधारी, सहस्रबाहु तथा ईशान इत्यादि । - इन विविध स्वरूपों द्वारा भगवान् रुद्र की अनेक विधता एवं अनेक लीलाओं का दर्शन होता है। रुद्रदेवता को स्थावर-जंगम सर्वपदार्थरूप, सर्ववर्ण, सर्वजाति, मनुष्य-देव-पशु-वनस्पतिरूप मान करके सर्वात्मभाव, सर्वान्तर्यामित्वभाव सिद्ध किया गया है। इस भाव से ज्ञात होकर साधक अद्वैतनिष्ठ जीवन्मुक्त बनता है ।

रूद्र सूक्त

रूद्र सूक्तम् Rudra suktam

'नमस्ते रुद्र०' से प्रारम्भ कर पूरा पञ्चम अध्याय शतरुद्रिय कहलाता है। यह रुद्र का अस्त्ररूप षष्ठ अङ्ग है । पञ्चम अध्याय के मन्त्रों में 'नमस्ते' पद के प्राधान्य से इसे 'नमकाध्याय' भी कहा जाता है।

रुद्राष्टाध्यायी के पाँचवें अध्याय में ६६ मन्त्र हैं । यह अध्याय प्रधान है। विद्वान् इसको 'शतरुद्रिय' कहते हैं । 'शतसंख्याता रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम् ।' इन मन्त्रों में भगवान् रुद्र के शतशः रूप वर्णित हैं।

कई ग्रन्थों में शतरुद्रिय के पाठ का महत्त्व वर्णित है।

कैवल्योपनिषद् में कहा गया है कि शतरुद्रिय के अध्ययन से मनुष्य अनेक पातकों से मुक्त होता है एवं पवित्र बनता है।

जाबालोपनिषद् में ब्रह्मचारियों और श्रीयाज्ञवल्क्यजी के संवाद में ब्रह्मचारियों ने तत्त्वनिष्ठ ऋषि से पूछा कि किसके जप से अमृतत्व प्राप्त होता है? तब ऋषि का प्रत्युत्तर था कि 'शतरुद्रिय के जप से' – 'शतरुद्रियेणेति ।'

विद्वानों की परम्परा के अनुसार पञ्चमाध्याय के एकादश आवर्तन और शेष अध्यायों के एक आवर्तन के साथ अभिषेक से एक रुद्र' या 'रुद्री' होती है। इसे 'एकादशिनी' भी कहते हैं । एकादश रुद्री से लघुरुद्र, एकादश लघुरुद्र से महारुद्र एवं एकादश महारुद्र से अतिरुद्र का अनुष्ठान होता है। इन सबका अभिषेकात्मक, पाठात्मक एवं होमात्मक त्रिविध विधान मिलता है । मन्त्रों के क्रम से रुद्राभिषेक के नमक - चमक आदि प्रकार हैं। प्रदेशभेद से भी कुछ विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

शतरुद्रिय को रुद्रसूक्त' भी कहते हैं। इसमें भगवान् रुद्र का भव्यातिभव्य वर्णन हुआ है। प्रथम मन्त्र का आस्वाद लें- 

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः । बाहुभ्यामुत ते नमः ॥

'हे रुद्रदेव! आपके क्रोध को हमारा नमस्कार है। आपके बाणों को हमारा नमस्कार है एवं आपकी बाहुओं को हमारा नमस्कार है ।' भगवान् शिव का रुद्रस्वरूप दुष्टनिग्रहणार्थ है, अतः इस मन्त्र में रुद्रदेव के क्रोध को, बाणों को एवं उनको चलानेवाली बाहुओं को नमस्कार समर्पण किया गया है।

रुद्राष्टाध्यायी पाँचवाँ -  नमकाध्याय

रुद्राष्टाध्यायी नमक अध्याय ५- रूद्र सूक्त

Rudrashtadhyayi chapter 5- Rudra suktam

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी पञ्चमोऽध्यायः रूद्रसूक्तम् नमकाध्यायः

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय ५ 

अथ रुद्राष्टाध्यायी पञ्चमोऽध्यायः

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवे उतोत इषवे नमः ।

बाहुभ्यामुतते नमः ॥ १॥

दु:ख दूर करने वाले (अथवा ज्ञान प्रदान करने वाले) हे रुद्र ! आपके क्रोध के लिए नमस्कार है, आपके बाणों के लिए नमस्कार है और आपकी दोनों भुजाओं के लिए नमस्कार है।

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपाप काशिनी ।

तया नस्तन्वा शन्त मया गिरि शन्ताभि चाक शीहि ॥ २॥

कैलास पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले (अथवा वाणी में स्थित होकर लोगों को सुख देने वाले या मेघ में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा लोगों को सुख देने वाले) हे रुद्र ! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्यप्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखकारक शरीर से हमारी ओर देखिये अर्थात् हमारी रक्षा कीजिए।

या मिषुं गिरि शन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि सीः पुरुषं जगत् ॥ ३॥

कैलास पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले तथा मेघों में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा जगत की रक्षा करने वाले हे सर्वज्ञ रुद्र ! शत्रुओं का नाश करने के लिए जिस बाण को आप अपने हाथ में धारण करते हैं वह कल्याणकारक हो और आप मेरे पुत्र-पौत्र तथा गो, अश्व आदि का नाश मत कीजिए।

शिवेन वचसा त्वा गिरिशच्छा वदामसि ।

यथा नः सर्वमिज्जगद यक्ष्म सुमना असत् ॥ ४॥

हे कैलास पर शयन करने वाले ! आपको प्राप्त करने के लिए हम मंगलमय वचन से आपकी स्तुति करते हैं। हमारे समस्त पुत्र-पौत्र तथा पशु आदि जैसे भी नीरोग तथा निर्मल मन वाले हों, वैसा आप करें।

अध्यवोच दधिवक्ता प्रथमो दैव्योभिषक् ।

अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातु धान्योऽधराचीः परा सुव ॥ ५॥

अत्यधिक वन्दनशील, समस्त देवताओं में मुख्य, देवगणों के हितकारी तथा रोगों का नाश करने वाले रुद्र मुझसे सबसे अधिक बोलें, जिससे मैं सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ । हे रुद्र ! समस्त सर्प, व्याघ्र आदि हिंसकों का नाश करते हुए आप अधोगमन कराने वाली राक्षसियों को हमसे दूर कर दें।

असौ यस्ताम्रोऽरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।

ये चैन रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषा हेड ईमहे ॥ ६॥

उदय के समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समय में वभ्रु (पिंगल) वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है। किरणरूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्य के सभी ओर स्थित हैं, इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं।

असौ योऽवसर्पति नील ग्रीवो विलोहितः ।

उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥ ७॥

जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरने वाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्ण का हो गया है, तथापि विशेषत: रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्त को प्राप्त होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डल स्थित रुद्र हमें सुखी कर दें।

नमोऽस्तु नील ग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे ।

अथो येऽस्य सत्त्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः ॥ ८॥

नीलकण्ठ, सहस्त्र नेत्र वाले, इन्द्रस्वरुप और वृष्टि करने वाले रुद्र के लिए मेरा नमस्कार है। उस रुद्र के जो भृत्य हैं, उनके लिए भी मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्व मुभयो रार्त्नयोर्ज्याम् ।

याश्च ते हस्त इषवः पराता भगवो वप ॥ ९॥

हे भगवान ! आप धनुष की दोनों कोटियों के मध्य स्थित प्रत्यंचा का त्याग कर दें और अपने हाथ में स्थित बाणों को भी दूर फेंक दें।

विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवा उत ।

अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः ॥ १०॥

जटाजूट धारण करने वाले रुद्र का धनुष प्रत्यंचा रहित रहे, तूणीर में स्थित बाणों के नोंकदार अग्रभाग नष्ट हो जाएँ, इन रुद्र के जो बाण हैं, वे भी नष्ट हो जाएँ तथा इनके खड्ग रखने का कोश भी खड्ग रहित हो जाए अर्थात् वे रुद्र हमारे प्रति सर्वथा शस्त्ररहित हो जाएँ।

या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनु: ।

तयाऽस्मान् विश्वतस्त्वम यक्ष्मया परिभुज ॥ ११॥

अत्यधिक वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आपके हाथ में जो धनुषरूप आयुध है, उस सुदृढ़ तथा अनुपद्रवकारी धनुष से हमारी सब ओर से रक्षा कीजिए।

परिते धन्वनो हेति रस्मान्वृणक्तु विश्वतः ।

अथो य ईषु धिस्तवारेऽस्मन्निधेहितम् ॥ १२॥

हे रुद्र ! आपका धनुषरूप आयुध सब ओर से हमारा त्याग करे अर्थात् हमें न मारे और आपका जो बाणों से भरा तरकश है, उसे हमसे दूर रखिए।

अवतत्य धनुष् ट्व सहस्राक्ष शतेषुधे ।

निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥ १३॥

सौ तूणीर और सहस्त्र नेत्र धारण करने वाले हे रुद्र ! धनुष की प्रत्यंचा दूर करके और बाणों के अग्र भागों को तोड़कर आप हमारे प्रति शान्त और शुद्ध मन वाले हो जाएँ।

नमस्त आयुधाया नातताय धृष्णवे ।

उभाभ्यामुतते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥ १४॥

हे रुद्र ! शत्रुओं को मारने में प्रगल्भ और धनुष पर न चढ़ाए गये आपके बाण के लिए हमारा प्रणाम है। आपकी दोनों बाहुओं और धनुष के लिए भी हमारा प्रणाम है।

मानो महान्त मुतमानोऽर्भकं मान उक्षन्तमुत मान उक्षितम् ।

मानो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥ १५॥

हे रुद्र ! हमारे गुरु, पितृव्य आदि वृद्धजनों को मत मारिए, हमारे बालक की हिंसा मत कीजिए, हमारे तरुण को मत मारिए, हमारे गर्भस्थ शिशु का नाश मत कीजिए, हमारे माता-पिता को मत मारिए तथा हमारे प्रिय पुत्र-पौत्र आदि की हिंसा मत कीजिए।

मानस्तोके तनये मान आयुषि मानो गोषु मानोऽश्वेषु रीरिषः ।

मानो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे ॥ १६॥

हे रुद्र ! हमारे पुत्र-पौत्र आदि का विनाश मत कीजिए, हमारी आयु को नष्ट मत कीजिए, हमारी गौओं को मत मारिए, हमारे घोड़ों का नाश मत कीजिए, हमारे क्रोधयुक्त वीरों की हिंसा मत कीजिए। हवि से युक्त होकर हम सब सदा आपका आवाहन करते हैं।

नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः।

पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमतेपथीनां पतये नमो

नमो हरिकेशायोप वीतिने पुष्टानां पतये नमो नमो वभ्लुशाय ॥ १७॥

भुजाओं में सुवर्ण धारण करने वाले सेनानायक रुद्र के लिए नमस्कार है, दिशाओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, पूर्णरूप हरे केशों वाले वृक्षरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, जीवों का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कान्तिमान बालतृण के समान पीत वर्ण वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मार्गों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, नीलवर्ण केश से युक्त तथा मंगल के लिए यज्ञोपवीत धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुणों से परिपूर्ण मनुष्यों के स्वामी रुद्र के लिए नमस्कार है।

व्याधिनेऽन्नानां पतये नमो नमो भवस्य हेत्यै जगतां पतये नमो

नमो रुद्राया ततायिने क्षेत्राणां पतये नमो नमः

सूतायाहन्त्यै वनानां पतये नमो नमो रोहिताय ॥ १८॥

कपिल (वर्ण वाले अथवा वृषभ पर आरूढ़ होने वाले) तथा शत्रुओं को बेधने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अन्नों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार के आयुध रूप (अथवा जगन्निवर्तक) रुद्र के लिए नमस्कार है, जगत का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उद्यत आयुध वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, देहों का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, न मारने वाले सारथीरूप रुद्र के लिए नमस्कार है तथा वनों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है।

स्थपतये वृक्षाणां पतये नमो नमो भुवन्तये वारि वस्कृता यौषधीनां

पतये नमो नमो मन्त्रिणे वाणिजाय कक्षाणां पतये नमो नम

उच्चैर्घोषाया क्रन्दयते पत्तीनां पतये नमो नमः कृत्स्नायतया ॥ १९॥

लोहित वर्ण वाले तथा गृह आदि के निर्माता विश्वकर्मारूप रुद्र के लिए नमस्कार है, वृक्षों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, भुवन का विस्तार करने वाले तथा समृद्धिकारक रुद्र के लिए नमस्कार है, वन के लता वृक्ष आदि के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, युद्ध में उग्र शब्द करने वाले तथा शत्रुओं को रुलाने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल आदि) सेनाओं के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

धावते सत्त्वनां पतये नमो नमः सहमानाय निव्याधिन

आव्याधिनीनां पतये नमो नमो निषङ्गिणे ककुभाय स्तेनानां पतये नमो

नमो निचेरवे परिचराया रण्यानां पतये नमो नमो वञ्चते ॥ २०॥

कर्णपर्यन्त प्रत्यंचा खींचकर युद्ध में शीघ्रतापूर्वक दौड़ने वाले (अथवा सम्पूर्ण लाभ की प्राप्ति कराने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, शरणागत प्राणियों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले तथा शत्रुओं को बेधने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब प्रकार से प्रहार करने वाली शूर सेनाओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, खड्ग चलाने वाले महान रुद्र के लिए नमस्कार है, गुप्त चोरों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, अपहार की बुद्धि से निरन्तर गतिशील तथा हरण की इच्छा से आपण (बाजार) वाटिका आदि में विचरण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है तथा वनों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

परिवञ्चते स्तायूनां पतये नमो नमो निषङ्गिण इषुधिमते तस्कराणां

पतये नमो नमः सृकायिभ्यो जिघा सद्भ्यो मुष्णतां पतये नमो नमोऽसि

मद्भ्यो नक्तञ्चरद्भ्यो विकृन्तानां पतये नमः ॥ २१॥

वंचना करने वाले तथा अपने स्वामी को विश्वास दिलाकर धन हरण करके उसे ठगने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुप्त धन चुराने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, बाण तथा तूणीर धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रकटरूप में चोरी करने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, वज्र धारण करने वाले तथा शत्रुओं को मारने की इच्छा वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, खेतों में धान्य आदि चुराने वालों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, प्राणियों पर घात करने के लिए खड्ग धारण कर रात्रि में विचरण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है तथा दूसरों को काटकर उनका धन हरण करने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

नम उष्णीषिणे गिरिचराय कुलुञ्चानां पतये नमो नम इषुमद्भ्यो

धन्वा यिभ्यश्चवो नमो नम आ तन्वा नेभ्यः प्रतिदानेभ्यश्चवो

नमो नम आयच् छद्भ्योऽस्यद्भ्यश्चवो नमो ॥ २२॥

सिर पर पगड़ी धारण करके पर्वतादि दुर्गम स्थानों में विचरने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, छलपूर्वक दूसरों के क्षेत्र, गृह आदि का हरण करने वालों के पालक रुद्ररूप के लिए नमस्कार है, लोगों को भयभीत करने के लिए बाण धारण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष धारण करने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष पर बाण का संधान करने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष को भली-भाँति खींचने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, बाणों को सम्यक् छोड़ने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

नमो विसृजद्भ्यो विध्यद्भ्यश्चवो नमो नमः स्वपद्भ्यो

जाग्रद्भ्यश्चवो नमो नमः शयानेभ्य आसीनेभ्यश्चवो नमो

नमस्तिष्ठद्भ्यो धावद्भ्यश्चवो नमो नमः सभाभ्यः ॥ २३॥

पापियों के दमन के लिए बाण चलाने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, शत्रुओं को बेधने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्वप्नावस्था का अनुभव करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, जाग्रत अवस्था वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सुषुप्ति अवस्था वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, बैठे हुए आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्थित रहने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्थित रहने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, वेगवान गति वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

सभापतिभ्यश्चवो नमो नमोऽश्वेभ्योऽश्वपतिभ्यश्च वो नमो नम

आ व्याधिनीभ्यो विविध्यन्तीभ्यश्च वो नमो नम

उगणाभ्यस्तृ हतीभ्यश्चवो नमो नमो गणेभ्यो ॥ २४॥

सभारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सभापतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, अश्वरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, अश्वपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सब प्रकार से बेधन करने वाले देवसेनारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, विशेषरूप से बेधन करने वाले देवसेनारूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, उत्कृष्ट भृत्यसमूहों वाली ब्राह्मी आदि मातास्वरुप रुद्रों के लिए नमस्कार है और मारने में समर्थ दुर्गा आदि मातास्वरुप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

गणपतिभ्यश्चवो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्चवो नमो

नमो गृत्सेभ्यो गृत्स पतिभ्यश्चवो नमो नमो

विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्चवो नमो नमः सेनाभ्यः ॥ २५॥

देवानुचर भूतगणरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, भूतगणों के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, भिन्न-भिन्न जातिसमूहरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, विभिन्न जातिसमूहों के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुओं के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, निकृष्ट रूपवाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, नानाविध रूपों वाले विश्वरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्योऽरथेभ्यश्चवो नमो नमः क्षत्तृभ्यः

सङ्ग्रहीतृभ्यश्चवो नमो नमो महद्भ्यो अर्भ केभ्यश्चवो नमः ॥ २६॥

सेनारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सेनापतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथीरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथविहीन आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथों के अधिष्ठातारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सारथिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, जाति तथा विद्या आदि से उत्कृष्ट प्राणिरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, प्रमाण आदि से अल्परूप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्चवो नमो नमः कुलालेभ्यः

कर्मा रेभ्यश्चवो नमो नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्ठेभ्यश्चवो

नमो नमः श्वनिभ्यो मृग युभ्यश्चवो नमो नमः श्वभ्यः ॥ २७॥

शिल्पकाररूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथनिर्मातारूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, कुम्भकाररूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, लौहकाररूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, वन-पर्वतादि में विचरने वाले निषादरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, पक्षियों को मारने वाले पुल्कसादिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, श्वानों के गले में बँधी रस्सी धारण करने वाले रुद्ररूपों के लिए नमस्कार है और मृगों की कामना करने वाले व्याधरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्चवो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च

पशुपतये च नमो नील ग्रीवाय च शिति कण्ठाय च नमः कपर्दिने ॥ २८॥

श्वानरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, श्वानों के स्वामीरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, प्राणियों के उत्पत्तिकर्त्ता रुद्र के लिए नमस्कार है, दु:खों के विनाशक रुद्र के लिए नमस्कार है, पापों का नाश करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, पशुओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, हलाहलपान के फलस्वरुप नीलवर्ण के कण्ठ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और श्वेत कण्ठ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः कपर्दिने च व्युप्त केशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो

गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च नमो ह्रस्वाय ॥ २९॥

जटाजूट धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मुण्डित केश वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हजारों नेत्र वाले इन्द्ररूप रुद्र के लिए नमस्कार है, सैकड़ों धनुष धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कैलास पर्वत पर शयन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सभी प्राणियों के अन्तर्यामी विष्णुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यधिक सेचन करने वाले मेघरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और बाण धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो ह्रस्वाय च वामनाय च नमो बृहते च वर्षीयसे च नमो वृद्धाय च

सवृधे च नमोऽग्न्याय च प्रथमाय च नम आशवे ॥ ३०॥

अल्प देहवाले रुद्र के लिए नमस्कार है, संकुचित अंगो वाले वामनरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, बृहत्काय रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यन्त वृद्धावस्था वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अधिक आयु वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, विद्याविनयादि गुणों से सम्पन्न विद्वानों के साथी रूप रुद्र के लिए नमस्कार है, जगत के आदिभूत रुद्र के लिए नमस्कार है और सर्वत्र मुख्यस्वरूप रुद्र के लिए नमस्कार है।

नम आशवे चाजिराय च नमः शीघ्राय च शीभ्याय च नम

ऊर्म्याय चा वस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च ॥ ३१॥

जगद्व्यापी रुद्र के लिए नमस्कार है, गतिशील रुद्र के लिए नमस्कार है, वेगवाली वस्तुओं में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, जलप्रवाह में विद्यमान आत्मश्लाघी रुद्र के लिए नमस्कार है, जलतरंगों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है, स्थिर जलरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, नदियों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है और द्वीपों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चा

परजाय च नमो मध्यमाय चाप गल्भाय च

नमो जघन्याय च बुध्न्याय च नमः सोभ्याय ॥ ३२॥

अति प्रशस्य ज्येष्ठरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यन्त युवा (अथवा कनिष्ठ) रूप के लिए नमस्कार है, जगत के आदि में हिरण्यगर्भरूप से प्रादुर्भूत हुए रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलय के समय कालाग्नि के सदृश रूप धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सृष्टि और प्रलय के मध्य में देव-नर-तिर्यगादिरूप से उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अव्युत्पन्नेन्द्रिय रुद्र के लिए नमस्कार है अथवा विनीत रुद्र के लिए नमस्कार है, (गाय आदि के) जघन प्रदेश से उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और वृक्षादिकों के मूल में निवास करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः सोभ्याय च प्रतिसर्याय च नमो याम्याय च क्षेम्याय च नमः श्लोक्याय

चावसा न्याय च नम उर्वर्याय च खल्याय च नमो वन्याय ॥ ३३॥

गन्धर्व नगर में होने वाले (अथवा पुण्य और पापों से युक्त मनुष्यलोक में उत्पन्न होने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रत्यभिचार में रहने वाले (अथवा विवाह के समय हस्तसूत्र में उत्पन्न होने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, पापियों को नरक की वेदना देने वाले यम के अन्तर्यामी रुद्र के लिए नमस्कार है, कुशलकर्म में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वेद के मन्त्र (अथवा यश) द्वारा उत्पन्न हुए रुद्र के लिए नमस्कार है, वेदान्त के तात्पर्य विषयीभूत रुद्र के लिए नमस्कार है, सर्व सस्यसम्पन्न पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले धान्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, धान्यविवेचन-देश (खलिहान) में उत्पन्न हुए रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो वन्याय च कक्ष्याय च नमः श्रवाय च प्रतिश्रवाय च नम

आशुषेणाय चाशुरथाय च नमः शूराय चाव भेदिने च नमो बिल्मिने ॥ ३४॥

वनों में वृक्ष-लतादिरूप रुद्र अथवा वरुणस्वरुप रुद्रों के लिए नमस्कार है, शुष्क तृण अथवा गुल्मों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रतिध्वनिस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, शीघ्रगामी सेना वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, शीघ्रगामी रथ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, युद्ध में शूरता प्रदर्शित करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है तथा शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो बिल्मिने च कवचिने च नमो वर्मिणे च वरूथिने च नमः श्रुताय च

श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्याय चा हनन्याय च नमो धृष्णवे ॥ ३५॥

शिरस्त्राण धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कपास-निर्मित देहरक्षक (अंगरखा) धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, लोहे का बख्तर धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुंबदयुक्त रथ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार में प्रसिद्ध रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रसिद्ध सेनावाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुन्दुभी (भेरी) में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, भेरी आदि वाद्यों को बजाने में प्रयुक्त होने वाले दण्ड आदि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे

चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च ॥ ३६॥

प्रगल्भ स्वभाव वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सत-असत का विवेकपूर्वक विचार करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, खड्ग धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तूणीर (तरकश) धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तीक्ष्ण बाणों वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, नानाविध आयुधों को धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उत्तम त्रिशूलरूप आयुध धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और श्रेष्ठ पिनाक धनुष धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नम स्रुत्याय च पथ्याय च नमः काट्याय च नीप्याय च नमः कुल्याय च

सरस्याय च नमो नादेयाय च वैशन्ताय च नमः कूप्याय ॥ ३७॥

क्षुद्रमार्ग में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, रथ-गज-अश्व आदि के योग्य विस्तृत मार्ग में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुर्गम मार्गों में स्थित रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, जहाँ झरनों का जल गिरता है, उस भूप्रदेश में उत्पन्न हुए अथवा पर्वतों के अधोभाग में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, नहर के मार्ग में स्थित अथवा शरीरों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रुद्र के लिए नमस्कार है, सरोवर में उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सरितादिकों में विद्यमान जलरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अल्प सरोवर में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो कूप्याय चावट्याय च नमो वीध्र्याय चातप्याय च नमो मेध्याय च

विद्युत्याय च नमो वार्ष्याय चा वार्ष्याय च नमो वात्याय ॥ ३८॥

कुपों में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, गर्त स्थानों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, शरद-ऋतु के बादलों अथवा चन्द्र-नक्षत्रादि-मण्डल में विद्यमान विशुद्ध स्वभाव वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मेघों में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, विद्युत में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वृष्टि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है तथा अवर्षण में स्थित रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो वात्याय च रेष्म्याय च नमो वास्तव्याय च वास्तुपाय च नमः सोमाय च

रुद्राय च नमस्ताम्राय चा रुणाय च नमः शङ्गवे ॥ ३९॥

वायु में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलयकाल में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गृह भूमि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है अथवा सर्वशरीरवासी रुद्र के लिए नमस्कार है, गृहभूमि के रक्षकरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, चन्द्रमा में स्थित अथवा ब्रह्मविद्या महाशक्ति उमासहित विराजमान सदाशिव रुद्र के लिए नमस्कार है, सर्वविध अनिष्ट के विनाशक रुद्र के लिए नमस्कार है, उदित होने वाले सूर्य के रूप में ताम्रवर्ण के रुद्र के लिए नमस्कार है और उदय के पश्चात अरुण (कुछ-कुछ रक्त) वर्ण वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः शङ्गवे च पशुपतये च नम उग्राय च भीमाय च नमोऽग्रे वधाय च दूरेवधाय च

नमो हन्त्रे च हनीयसे च नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यो नमस्ताराय ॥ ४०॥

भक्तों को सुख की प्राप्ति कराने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, जीवों के अधिपतिस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, संहार-काल में प्रचण्ड स्वरूप वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अपने भयानकरूप से शत्रुओं को भयभीत करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सामने खड़े होकर वध करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दूर स्थित रहकर संहार करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हनन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलयकाल में सर्वहन्तारूप रुद्र के लिए नमस्कार है, हरितवर्ण के पत्ररूप केशों वाले कल्पतरुस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है और ज्ञानोपदेश के द्वारा अधिकारी जनों को तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च

नमः शिवाय च शिवतराय च ॥ ४१॥

सुख के उत्पत्ति स्थानरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, भोग तथा मोक्ष का सुख प्रदान करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, लौकिक सुख देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वेदान्तशास्त्र में होने वाले ब्रह्मात्मैक्य साक्षात्कार स्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, कल्याणरूप निष्पाप रुद्र के लिए नमस्कार है और अपने भक्तों को भी निष्पाप बनाकर कल्याणरूप कर देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः पार्याय चा वार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च

नम: शष्प्याय च फेन्याय च नमः सिकत्याय ॥ ४२॥

संसार समुद्र के अपर तीर पर रहने वाले अथवा संसारातीत जीवन्मुक्त विष्णुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार व्यापी रुद्र के लिए नमस्कार है, दु:ख-पापादि से प्रकृष्टरूप से तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उत्कृष्ट ब्रह्म-साक्षात्कार कराकर संसार में तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तीर्थस्थलों में प्रतिष्ठित रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गंगा आदि नदियों के तट पर विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गंगा आदि नदियों के तट पर उत्पन्न रहने वाले कुशांकुरादि बालतृणरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और जल के विकारस्वरुप फेन में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च नमः कि शिलाय च क्षयणाय च

नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपत्थाय च नमो व्रज्याय ॥ ४३॥

नदियों की बालुकाओं में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, स्थिर जल से परिपूर्ण प्रदेशरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, जटामुकुटधारी रुद्र के लिए नमस्कार है, शुभाशुभ देखने की इच्छा से सदा सामने खड़े रहने वाले अथवा सर्वान्तर्यामीस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, ऊसरभूमिरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और अनेक जनों से संसेवित मार्ग में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च

निवेष्प्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च नमः शुष्क्याय ॥ ४४॥

गोसमूह में विद्यमान अथवा वज्र में गोपेश्वर के रूप में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गोशालाओं में रहने वाले गोष्ठ्यरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, शय्या में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गृह में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हृदय में रहने वाले जीवरूपी रुद्र के लिए नमस्कार है, जल के भँवर में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुर्ग-अरण्य आदि स्थानों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और विषम गिरिगुहा आदि अथवा गम्भीर जल में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः शुष्क्याय च हरित्याय च नमः पा सव्याय च रजस्याय च

नमो लोप्याय चो लप्याय च नम ऊर्व्याय च सूर्व्याय च नमः पर्णाय ॥ ४५॥

काष्ठ आदि शुष्क पदार्थों में भी सत्तारूप से विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, आर्द्र काष्ठ आदि में सत्तारुप से विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, धूलि आदि में विराजमान पांसव्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, रजोगुण अथवा पराग में विद्यमान रजस्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार की शान्ति होने पर अथवा प्रलय में भी साक्षी बनकर रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और प्रलयाग्नि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुर माणाय चा भिघ्नते च नम आखिदते च

प्रखिदते च नम इषु कृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्चवो नमो नमो वः किरिकेभ्यो

देवाना हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो विक्षिणत्केभ्यो नम आनिर्हतेभ्यः ॥ ४६॥

वृक्षों के पत्ररुप रुद्र के लिए नमस्कार है, वृक्ष-पर्णों के स्वत: शीर्ण होने के काल-वसन्त-ऋतुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, पुरुषार्थ परायण रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब ओर शत्रुओं का हनन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब ओर से अभक्तों को दीन-दु:खी बना देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अपने भक्तों के दु:खों से दु:खी होने के कारण दया से आर्द्र हृदय होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, बाणों का निर्माण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुषों का निर्माण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, वृष्टि आदि के द्वारा जगत का पालन करने वाले देवताओं के हृदयभूत अग्नि-वायु-अदित्यरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धर्मात्मा तथा पापियों का भेद करने वाले अग्नि आदि रुद्रों के लिए नमस्कार है, भक्तों के पाप-रोग-अमंगल को दूर करने वाले तथा पाप-पुण्य के साक्षीस्वरुप अग्नि आदि रुद्रों के लिए नमस्कार है और सृष्टि के आदि में मुख्यतया इन लोकों से निर्गत हुए अग्नि -वायु-सूर्यरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

द्रापेऽन्ध सस्पते दरिद्र नीललोहित ।

आसां प्रजाना मेषां पशूनां मा भेर्मा रोङ्मो च नः किञ्चना ममत् ॥ ४७॥

हे द्राप्रे (दुराचारियों को कुत्सित गति प्राप्त कराने वाले) ! हे अन्धसस्पते (सोमपालक) ! हे दरिद्र (निष्परिग्रह) ! हे नीललोहित ! हमारी पुत्रादि प्रजाओं तथा गौ आदि पशुओं को भयभीत मत कीजिए, उन्हें नष्ट मत कीजिए और उन्हें किसी भी प्रकार के रोग से ग्रसित मत कीजिए।

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरा महे मतीः ।

यथा शम सद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् ॥ ४८॥

जिस प्रकार से मेरे पुत्रादि तथा गौ आदि पशुओं को कल्याण की प्राप्ति हो तथा इस ग्राम में सम्पूर्ण प्राणी पुष्ट तथा उपद्रव रहित हों, इसके निमित्त हम अपनी इन बुद्धियों को महाबली, जटाजूटधारी तथा शूरवीरों के निवासभूत रुद्र के लिए समर्पित करते हैं।

या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा विश्वाहा भेषजी ।

शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥ ४९॥

हे रुद्र ! आपका जो शान्त, निरन्तर कल्याणकारक, संसार की व्याधि निवृत्त करने वाला तथा शारीरिक व्याधि दूर करने का परम औषधिरूप शरीर है, उससे हमारे जीवन को सुखी कीजिए।

परि नो रुद्रस्य हेतिर् वृणक्तु परि त्वेषस्य दुर्मति रघायोः ।

अवस्थिरा मघवद्भ्यस्तनुष्व मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृड ॥ ५०॥

रुद्र के आयुध हमारा परित्याग करें और क्रुद्ध हुए दोषी पुरुषों की दुर्बुद्धि हम लोगों को वर्जित कर दे (अर्थात् उनसे हम लोगों को किसी प्रकार की पीड़ा न होने पाए) । अभिलषित वस्तुओं की वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आप अपने धनुष को प्रत्यंचा रहित करके यजमान-पुरुषों के भय को दूर कीजिए और उनके पुत्र-पौत्रों को सुखी बनाइए।

मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव ।

परमे वृक्ष आयुधं निधाय कृत्तिम् वसान आ चर पिनाकं बिभ्रदागहि ॥ ५१॥

अभीष्ट फल और कल्याणों की अत्यधिक वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आप हम पर प्रसन्न रहें, अपने त्रिशूल आदि आयुधों को कहीं दूर स्थित वृक्षों पर रख दीजिए, गजचर्म का परिधान धारण करके तप कीजिए और केवल शोभा के लिए धनुष धारण करके आइए।

विकिरिद्र विलोहित नमस्ते अस्तु भगवः ।

यास्ते सहस्र हेतयोऽन्य मस्मन्निवपन्तु ताः ॥ ५२॥

विविध प्रकार के उपद्रवों का विनाश करने वाले तथा शुद्धस्वरुप वाले हे रुद्र ! आपको हमारा प्रणाम है, आपके जो असंख्य आयुध हैं वे हमसे अतिरिक्त दूसरों पर जाकर गिरें।

सहस्राणि सहस्रशो बाह्वोस्तव हेतयः ।

तासा मीशानो भगवः परा चीना मुखा कृधि ॥ ५३॥

गुण तथा ऎश्वर्यों से संपन्न हे जगत्पति रुद्र ! आपके हाथों में हजारों प्रकार के जो असंख्य आयुध हैं, उनके अग्रभागों (मुखों) को हमसे विपरीत दिशाओं की ओर कर दीजिए (अर्थात् हम पर आयुधों का प्रयोग मत कीजिए) ।

असङ्ख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम् ।

तेषा सहस्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५४॥

पृथ्वी पर जो असंख्य रुद्र निवास करते हैं, उनके असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार जो मार्ग है, उस पर ले जाकर डाल देते हैं।

अस्मिन्महत्यर्णवेऽन्तरिक्षे भवा अधि ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५५॥

मेघमण्डल से भरे हुए इस महान अन्तरिक्ष में जो रुद्र रहते हैं, उनके असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः दिव रुद्राः उपश्रिताः ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५६॥

जिनके कण्ठ का कुछ भाग नीलवर्ण का है और कुछ भाग श्वेतवर्ण का है तथा जो द्युलोक में निवास करते हैं, उन रुद्रों के असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्वा अधः क्षमा चराः ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५७॥

कुछ भाग में नीलवर्ण और कुछ भाग में शुक्ल वर्ण के कण्ठवाले तथा भूमि के अधोभाग में स्थित पाताल लोक में निवास करने वाले रुद्रों के असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

ये वृक्षेषु शष्पिञ्जराः नीलग्रीवा विलोहिताः ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५८॥

बाल तृण के समान हरितवर्ण के तथा कुछ भाग में नीलवर्ण एवं कुछ भाग में शुक्ल वर्ण के कण्ठ वाले, जो रुधिरहित रुद्र (तेजोमय शरीर रहने से उन शरीरों में रक्त और माँस नहीं रहता) हैं, वे अश्वत्थ आदि के वृक्षों पर रहते हैं। उन रुद्रों के धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर डाल देते हैं।

ये भूताना मधिपतयो विशिखासः कपर्दिन ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ५९॥

जिनके सिर पर केश नहीं हैं, जिन्होंने जटाजूट धारण रखा है और जो पिशाचों के अधिपति हैं,उन रुद्रों के धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

ये पथां पथिरक्षय ऐलबृदा आयुर्युधः ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ६०॥

अन्न देकर प्राणियों का पोषण करने वाले, आजीवन युद्ध करने वाले, लौकिक-वैदिक मार्ग का रक्षण करने वाले तथा अधिपति कहलाने वाले जो रुद्र हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ६१॥

वज्र और खड्ग आदि आयुधों को हाथ में धारण कर जो रुद्र तीर्थों पर जाते हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

येऽन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु पिवतोजनान् ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ६२॥

खाए जाने वाले अन्नों में स्थित जो रुद्र अन्न भोक्ता प्राणियों को पीड़ित करते हैं (अर्थात् धातु वैषम्य के द्वारा उनमें रोग उत्पन्न करते हैं) और पात्रों में स्थित दुग्ध आदि में विराजमान जो रुद्र, उनका पान करने वाले लोगों को (व्याधि आदि के द्वारा) कष्ट देते हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

य एतावन्तश्च भूया सश्च दिशो रुद्रा वितस्थिरे ।

तेषा सहस्त्रयोजनेऽवधन्वानि तन्मसि ॥ ६३॥

दसों दिशाओं में व्याप्त रहने वाले जो अनेक रुद्र हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये दिवि येषां वर्ष मिषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर् दशदक्षिणा दश प्रतीचीर् दशोदीचीर् दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्चनो द्वेष्टि

तमेषां जम्भे दध्मः ॥ ६४॥

जो रुद्र द्युलोक में विद्यमान हैं तथा जिन रुद्रों के बाण वृष्टिरूप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनाएँ। वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो येऽन्तरिक्षे येषां वात इषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर् दशदक्षिणा दश प्रतीचीर् दशोदीचीर् दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्चनो द्वेष्टि

तमेषां जम्भेदध्मः ॥ ६५॥

जो रुद्र अन्तरिक्ष में विद्यमान हैं तथा जिन रुद्रों के बाण पवनरूप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनाएँ। वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषामन्नमिषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर् दशदक्षिणा दश प्रतीचीर् दशोदीचीर् दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि

तमेषां जम्भेदध्मः ॥ ६६॥

जो रुद्र पृथ्वीलोक में स्थित हैं तथा जिनके बाण अन्नरुप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात् हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनावें। वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात् वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

इतिश्री रुद्राष्टाध्यायी रूद्रसूक्तनाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५।।

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 6 महच्छिरसूक्त

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