कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली
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अथ कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली
पराञ्चि खानि
व्यतृणत् स्वयम्भू-स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः
प्रत्यगात्मानमैक्ष-दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥ १॥
स्वयं प्रकट होने वाले परमेश्वर ने, समस्त इन्द्रियों के द्वार, बाहर की ओर जाने वाले ही बनाये हैं, इसलिए (मनुष्य
इन्द्रियों के द्वारा प्रायः ) बाहर की वस्तुओं को ही देखता है, अंतरात्मा को नहीं | किसी (भाग्यशाली) बुद्धिमान
मनुष्य ने ही अमर पद को पाने की इच्छा करके चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों
की ओर से लौटा कर अन्तरात्मा को देखा है ||१||
पराचः
कामाननुयन्ति बाला-स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा
अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ॥ २॥
(ये) जो मूर्ख बाह्य भोगों का अनुसरण करते
हैं (उन्ही में रचे पचे रहते हैं ) वे सर्वत्र फैले हुए मृत्यु के बंधन में पड़ते
हैं, किन्तु बुद्धिमान मनुष्य नित्य अमरपद को विवेक द्वारा
जानकर इस जगत में अनित्य भोगों में से किसी को (भी) नहीं चाहते ||२||
येन रूपं रसं
गन्धं शब्दान् स्पर्शाΰश्च मैथुनान् ।
एतेनैव
विजानाति किमत्र परिशिष्यते । एतद्वै तत् ॥ ३॥
जिसके अनुग्रह से मनुष्य शब्दों को, स्पर्शों को, रूप-समुदाय
को, रस-समुदाय को, गंध-समुदाय को,
और स्त्री-प्रसंग आदि के सुखों को अनुभव करता है, इसी अनुग्रह से मनुष्य यह भी जानता है कि, यहां क्या
शेष रह जाता है, यह ही है, वह परमात्मा
(जिसके विषय में तुमने पूंछा था) ||३||
स्वप्नान्तं
जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति ।
महान्तं
विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ ४॥
स्वप्न के दृश्यों को और जाग्रत अवस्था के
दृश्यों को, इन दोनों अवस्थाओं के
दृश्यों को (मनुष्य) जिससे बार-बार देखता है, उस सर्वश्रेष्ट,
सर्वव्यापी, सब के आत्मा को जानकार बुद्धिमान
मनुष्य शोक नहीं करता ||४||
य इमं मध्वदं
वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।
ईशानं
भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥ ५॥
जो मनुष्य, कर्मफलदाता – सब को जीवन प्रदान करने
वाले (तथा) भूत, (वर्तमान) और भविष्य का शासन करने वाले,
इस परमात्मा को (अपने) समीप जानता है , उसके
बाद वह (कभी) किसी की निंदा नहीं करता, यह ही (है) वह
(परमात्मा , जिसके विषय में तुमने पूछा था ) || ५||
यः पूर्वं
तपसो जातमद्भ्यः पूर्वमजायत ।
गुहां
प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत । एतद्वै तत् ॥ ६॥
जो जल से पहले हिरण्य गर्भ रूप में प्रकट हुआ
था, उस सबसे पहले तप से उत्पन्न
हृदय-गुफा में प्रवेश करके जीवात्माओं के साथ स्थित रहने वाले परमेश्वर को जो
पुरुष देखता है (वही ठीक देखता है ) वह ही है वह (परमात्मा, जिसके
विषय में तुमने पूछा था) ||६||
या प्राणेन
संभवत्यदितिर्देवतामयी ।
गुहां
प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत । एतद्वै तत् ॥ ७॥
जो देवतामयी अदिति प्राणों के सहित उत्पन्न
होती है, जो प्राणियों के सहित
उत्पन्न हुई है , (तथा जो) ह्रदय रुपी गुफा में प्रवेश करके
वहीँ रहने वाली है उसे (जो पुरुष देखता है, वही यथार्त देखता
है) वही है यह वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||७||
अरण्योर्निहितो
जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः ।
दिवे दिवे
ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः । एतद्वै तत् ॥ ८॥
जो सर्वज्ञ अग्निदेवता गर्भिणी स्त्रियों
द्वारा भली प्रकार धारण किये हुए गर्भ की भांति दो अरणियों में सुरक्षित छिपा है
(तथा जो) सावधान (और) हवन करने योग्य सामग्रियों से युक्त मनुष्यों द्वारा
प्रतिदिन स्तुति करने योग्य (है) यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था)||८||
यतश्चोदेति
सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति ।
तं देवाः
सर्वेऽर्पितास्तदु नात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ ९॥
जहां से सूर्य देव उदय होते हैं और जहां
अस्तभाव को भी प्राप्त होते हैं, सभी देवता उसी में समर्पित हैं , उस
परमेश्वर को कोई (कभी भी) नहीं लांघ सकता, यही है वह
(परमात्मा , जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||९||
यदेवेह
तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स
मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ १०॥
जो परब्रह्म यहाँ (है) वही वहां (परलोक में
भी है ), जो वहां (है) वही यहां ( इस
लोक में ) भी है, वह मनुष्य मृत्यु से मृत्यु को ( अर्थात
बार-बार जन्म मरण को) प्राप्त होता है, जो इस जगत में (उस
परमात्मा को) अनेक की भांति देखता है ||१०||
मनसैवेदमाप्तव्यं
नेह नानाऽस्ति किंचन ।
मृत्योः स
मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति ॥ ११॥
(शुद्ध) मन से ही यह परमात्मा तत्त्व प्राप्त
किये जाने योग्य है, इस जगत में ( एक परमात्मा के अतिरिक्त)
नाना ( भिन्न-भिन्न भाव ) कुछ भी नहीं है , जो इस जगत में
नाना की भांति देखता है वह मनुष्य मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात
बार-बार जन्मता-मरता रहता है ||११||
अङ्गुष्ठमात्रः
पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति ।
ईशानं
भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते । एतद्वै तत् ॥ १२॥
अंगुष्ठमात्र (परिमाण वाला) परम पुरुष
(परमात्मा) शरीर के मध्य भाग – हृदयाकाश में स्थित है, जो की भूत ,
(वर्तमान) और भविष्य का शासन करने वाला (है) उसे जान लेने के बाद
(वह) किसी की निंदा नहीं करता, यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||१२||
अङ्गुष्ठमात्रः
पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः ।
ईशानो
भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः । एतद्वै तत् ॥ १३॥
अंगुष्ठ मात्रा परिणाम वाला परमपुरुष
परमात्मा धूमरहित ज्योति की भाँती है, भूत, (वर्तमान और) भविष्य पर शासन करने
वाला, वह परमात्मा ही आज है और वही कल भी है ( अर्थात वह
नित्य सनातन है) यही है वह ( परमात्मा, जिसके विषय में तुमने
पूछा था) || १३||
यथोदकं दुर्गे
वृष्टं पर्वतेषु विधावति ।
एवं धर्मान्
पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति ॥ १४॥
जिस प्रकार ऊँचे शिखर पर बरसा हुआ जल पहाड़ के
नाना स्थलों में चारों ओर चला जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न धर्मों (स्वभावों)
से युक्त देव असुर, मनुष्य आदि को परमात्मा से
पृथक देख कर (उनका सेवन करने वाला मनुष्य ) उन्हीं के पीछे दौड़ता रहता है ( उन्ही
के शुभाशुभ लोकों में और नाना उच्च-नीच योनियों में भटकता रहता है ) || १४||
यथोदकं शुद्धे
शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
एवं
मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ॥ १५॥
(परन्तु) जिस प्रकार, शुद्धे (उदके)
निर्मल जल में (मेघों द्वारा) सब ओर से बरसाया हुआ निर्मल जल वैसा ही हो जाता है ,
उसी प्रकार हे गौतम वंशी नचिकेता (एकमात्र परब्रह्म पुरुषोत्तम ही
सब कुछ है, इस प्रकार) जानने वाले मुनि का (संसार से उपरंत
हुए महापुरुष का) आत्मा (ब्रह्म को प्राप्त) हो जाता है ||१५||
इति कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली ॥
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