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माण्डूक्योपनिषत्
माण्डूक्योपनिषत्
या माण्डूक्य उपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत
भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है। इसमें आत्मा
या चेतना के चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है - जाग्रत,
स्वप्न,
सुषुप्ति और
तुरीय। प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों की यह उपनिषद् उनमें
आकार की दृष्टि से सब से छोटी है किंतु महत्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है,
क्योंकि बिना
वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया
गया है। इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की
ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित हुआ है।
इसके अलावे वैश्वानर शब्द का विवरण मिलता है जो अन्य ग्रंथों में भी प्रयुक्त है।
॥अथ माण्डूक्योपनिषत्॥
ॐ इत्येतदक्षरमिदΰ सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति
सर्वमोङ्कार
एव यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव
॥ १॥
भावार्थ- ‘ॐ’ यह अक्षर ही सर्व है । सब उसकी ही व्याख्या है । भूत,भविष्य, वर्तमान सब ओंकार ही हैं तथा अन्य जो त्रिकालतीत है,वह भी ओंकार ही है ॥१॥
सर्वं ह्येतद्
ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ २॥
भावार्थ- यह सब
कुछ ब्रह्मा ही है । यह आत्मा भी ब्रह्मा ही है । ऐसा यह आत्मा चार पादों वाला है
॥२॥
जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ ३॥
भावार्थ- जाग्रत्
जिसका स्थान है, बाहर की ओर जिसकी प्रज्ञा है,
सात अंगों
वाला, उन्नीस मुखों वाला, स्थूल विषय का भोक्ता, वैश्वानर ही प्रथम पाद है ॥३॥
स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः
प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥ ४॥
भावार्थ- स्वप्न
जिसका स्थान है, अन्दर की ओर जिसकी प्रज्ञा है,
सात अंगों
वाला, उन्नीस मुखों वाला, सूक्ष्म विषय का भोक्ता,
तैजस ही दूसरा
पाद है ॥४॥
यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थान एकीभूतः
प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥ ५॥
भावार्थ- सोया
हुआ, जब किसी काम की कामना नहीं करता,
न कोई स्वप्न
देखता है, वह सुषुप्ति की अवस्था है । सुषुप्ति जिसका स्थान है,एकीभूत और प्रज्ञा से घनीभूत,
आनन्दमय,
चेतनारूपी मुख
वाला,आनन्द का भोक्ता, प्राज्ञ ही तीसरा पाद है ॥५॥
एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः
सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥ ६॥
भावार्थ-यह
सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह अन्तः आयामी है, यही योनि है, समस्त भूतों की उत्पत्ति-प्रलय का स्थान है ॥६॥
नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ ७॥
भावार्थ- जो न
अन्दर की ओर प्रज्ञा वाला है, न बाहर की ओर प्रज्ञा वाला है,
न दोनों ओर
प्रज्ञा वाला है, न प्रज्ञा से घनीभूत ही है,
न जानने वाला
है, न नहीं जानने वाला है, न देखा जा सकता है, न व्यवहार में आ सकता
है, न ग्रहण किया जा सकता है,
लक्षणों से
रहित है, न चिंतन में आ सकता है,
न उपदेश किया
जा सकता है, एकमात्र आत्म की प्रतीति ही जिसका सार है,
प्रपञ्च से
रहित, शान्त, शिव, अद्वैत ही चौथा पाद कहा जाता है । वही आत्मा है,
वही जानने
योग्य है ॥७॥
सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा
मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥ ८॥
भावार्थ- ऐसा
वह आत्मा अक्षरदृष्टि से, मात्राओं का आश्रयरूप, ओंकार ही है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है,
जो कि अकार,
उकार और मकार
हैं ॥८॥
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्
वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान्
कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥ ९॥
भावार्थ- जाग्रत
स्थान वाला वैश्वानर ही अकार है । सबमे व्याप्त और आदि होने के कारण ही प्रथम
मात्रा है । जो इस प्रकार जानता है वह समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है और सबमें
प्रधान होता है ॥९॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात् उभयत्वाद्वोत्कर्षति
ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च
भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥ १०॥
भावार्थ- स्वप्न
स्थान वाला तैजस ही उकार है । उत्कर्ष और उभयत्व के कारण ही द्वितीय मात्रा है ।
जो इस प्रकार जानता है वह ज्ञान की परम्परा को उन्नत करता है और समान भाव को
प्राप्त होता है । उसके कु ल में कोई ब्रह्माज्ञानहीन नहीं होता ॥१०॥
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा
मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य
एवं वेद ॥ ११॥
भावार्थ- सुषुप्ति
स्थान वाला प्राज्ञ ही मकार है । जानने वाला और विलीन करने वाला होने के कारण ही
तृतीय मात्रा है । जो इस प्रकार जानता है वह सबको जानने वाला और सबको स्वयं में
विलीन करने वाला होता है ॥११॥
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत
एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद ॥ १२॥
भावार्थ- मात्रारहित
ही वह चतुर्थ है । अव्यवहार्य, प्रपञ्चरहित, शिव, अद्वैत,ओंकाररूप वह आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा में ही प्रविष्ट
होता है,जो इस प्रकार जानता है ॥१२॥
॥ इति माण्डूक्योपनिषत् समाप्ता ॥
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