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प्रश्नोपनिषद्
इससे पूर्व
आपने प्रश्नोपनिषद् की रचना किसने किया और
इसका सारांश आदि के विषय में पढ़ा अब इस प्रथम भाग में आप प्रश्नोपनिषद् का श्लोक
सहित हिन्दी अनुवाद में इस उपनिषद् के प्रथम तीन प्रश्नों को पढ़ेंगे-
अथ प्रश्नोपनिषद् प्रारम्भ
शान्तिपाठ
ॐ भद्रं
कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाΰसस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः।
ॐ शान्तिः!
शान्तिः!! शान्तिः!!!
हे देवगण ! हम
कानों से कल्याणमय वचन सुनें। यज्ञकर्म में समर्थ होकर नेत्रों से शुभ दर्शन करें
तथा स्थिर अङ्ग और शरीरों से स्तुति करने वाले हमलोग देवताओं के लिये हितकर आयु का
भोग करें। त्रिविध ताप की शान्ति हो।
स्वस्ति न
इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति
नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः !
शान्तिः !! शान्तिः !!!
महान्
कीर्तिमान् इन्द्र हमारा कल्याण करें, परम ज्ञानवान् [अथवा परम धनवान] पूषा हमारा कल्याण करें,
जो अरिष्टों
(आपत्तियों)-के लिये चक्र के समान [घातक] हैं वह गरुड हमारा कल्याण करें तथा
बृहस्पतिजी हमारा कल्याण करें। त्रिविध ताप की शान्ति हो। ।
अथ प्रश्नोपनिषद् प्रथमः प्रश्नः
ॐ सुकेशा च
भारद्वाजः शैब्यश्च सत्यकामः सौर्यायणी च गार्ग्यः
कौसल्यश्चाश्वलायनो
भार्गवो वैदर्भिः कबन्धी कात्यायनस्ते हैते
ब्रह्मपरा
ब्रह्मनिष्ठाः परं ब्रह्मान्वेषमाणा एष ह वै तत्सर्वं
वक्ष्यतीति ते
ह समित्पाणयो भगवन्तं पिप्पलादमुपसन्नाः ॥ १.१॥
भरद्वाजनन्दन
सुकेशा, शिबिकुमार सत्यकाम, गर्गगोत्र में उत्पन्न हुआ सौर्यायणि (सूर्य का पोता),
अश्वलकुमार
कौसल्य, विदर्भदेशीय भार्गव और कत्य के पोते का पुत्र कबन्धी-ये अपर
ब्रह्म की उपासना करनेवाले और तदनुकूल अनुष्ठान में तत्पर छ: ऋषिगण परब्रह्म के
जिज्ञासु होकर भगवान् पिप्पलाद के पास, यह सोचकर कि ये हमें उसके विषय में सब कुछ बतला देंगे,
हाथ में समिधा
लेकर गये॥१॥
तान्ह स
ऋषिरुवाच भूय एव तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया
संवत्सरं
संवत्स्यथ यथाकामं प्रश्नान् पृच्छत यदि
विज्ञास्यामः
सर्वं ह वो वक्ष्याम इति ॥ १.२॥
उस ऋषि ने
उनसे कहा-'तुम तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष और निवास करो;
फिर अपने
इच्छानुसार प्रश्र करना, यदि मैं जानता होऊँगा तो तुम्हें सब बतला दूँगा'॥२॥
अथ कबन्धी
कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ ।
भगवन् कुते ह
वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति ॥ १.३॥
तदनन्तर (एक
वर्ष गुरुकुलवास करने के पश्चात्) कात्यायन कवन्धी ने गुरुजी के पास जाकर पूछा-'भगवन् ! यह सारी प्रजा किससे उत्पन्न होती है?'॥३॥
तस्मै स होवाच
प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽतप्यत
स तपस्तप्त्वा
स मिथुनमुत्पादयते ।
रयिं च प्राणं
चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति ॥ १.४॥
उससे उस
पिप्पलाद मुनि ने कहा-'प्रसिद्ध है कि प्रजा उत्पन्न करने की इच्छावाले प्रजापति
ने तप किया। उसने तप करके रवि और प्राण यह जोड़ा उत्पन्न किया [और सोचा-] ये दोनों
ही मेरी अनेक प्रकार को प्रजा उत्पन्न करेंगे'॥ ४॥
आदित्यो ह वै
प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत्
सर्वं
यन्मूर्तं चामूर्तं च तस्मान्मूर्तिरेव रयिः ॥ १.५॥
निश्चय आदित्य
ही प्राण है और रयि ही चन्द्रमा है। यह जो कुछ मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्ष्म)
है सब रयि ही है। अतः मूर्ति ही रयि है॥५॥
अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं
दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान्
रश्मिषु
सन्निधत्ते । यद्दक्षिणां यत् प्रतीचीं यदुदीचीं यदधो
यदूर्ध्वं
यदन्तरा दिशो यत् सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान्
रश्मिषु
सन्निधत्ते ॥ १.६॥
जिस समय सूर्य
उदित होकर पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उसके द्वारा वह पूर्व दिशा के प्राणों
को अपनी किरणों में धारण करता है। इसी प्रकार जिस समय वह दक्षिण,
पश्चिम,
उत्तर,
नीचे,
ऊपर और
अवान्तर दिशाओं को प्रकाशित करता है उससे भी वह उन सबके प्राणों को अपनी किरणों
में धारण करता है॥६॥
स एष
वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुदयते ।
तदेतदृचाऽभ्युक्तम्
॥ १.७॥
वह यह
(भोक्ता) वैश्वानर विश्वरूप प्राण अग्नि ही प्रकट होता है। यही बात ऋक् ने भी कही
है॥७॥
विश्वरूपं
हरिणं जातवेदसं
परायणं
ज्योतिरेकं तपन्तम् ।
सहस्ररश्मिः
शतधा वर्तमानः
प्राणः
प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ॥ १.८॥
सर्वरूप,
रश्मिवान,
ज्ञानसम्पन्न,
सबके आश्रय,
ज्योतिर्मय,
अद्वितीय और
तपते हुए सूर्य को [ विद्वानों ने अपने आत्मारूप से जाना है। यह सूर्य सहस्त्रों
किरणों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान और प्रजाओं के प्राणरूप से उदित
होता है॥८॥
संवत्सरो वै
प्रजापतिस्तस्यायने दक्षिणं चोत्तरं च ।
तद्ये ह वै
तदिष्टापूर्ते कृतमित्युपासते ते चान्द्रमसमेव लोकमभिजयन्ते ।
त एव
पुनरावर्तन्ते तस्मादेत ऋषयः प्रजाकामा दक्षिणं प्रतिपद्यन्ते ।
एष ह वै
रयिर्यः पितृयाणः ॥ १.९॥
संवत्सर ही
प्रजापति है। उसके दक्षिण और उत्तर दो अयन है। जो लोग इष्टापूर्त रुप कर्म मार्ग
का अवलम्बन करते हैं वे चन्द्रलोक पर ही विजय पाते हैं और वे ही पुन आवागमन को
प्राप्त होते हैं, अतः ये सन्तानेच्छु ऋषि लोग दक्षिण मार्ग को ही प्राप्त
होते हैं। [ इस प्रकार] जो पितृयाण है वही रयि है॥९॥
अथोत्तरेण
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया
विद्ययाऽऽत्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते
।
एतद्वै प्राणानामायतनमेतदमृतमभयमेतत्
परायणमेतस्मान्न पुनरावर्तन्त
इत्येष
निरोधस्तदेष श्लोकः ॥ १.१०॥
तथा तप,
ब्राह्मचर्य,
श्रद्धा और
विद्या द्वारा आत्मा को खोज करते हुए वे उत्तर मार्ग द्वारा सूर्यलोक को प्राप्त
होते हैं। यही प्राणों का आश्रय है। यही अमृत है. यही अभय है और यही परा गति है।
इससे फिर नहीं लौटते; अत: यही निरोधस्थान है। इस विषय में यह [अगला] मन्त्र है-॥
१०॥
पञ्चपादं
पितरं द्वादशाकृतिं
दिव आहुः परे
अर्धे पुरीषिणम् ।
अथेमे अन्य उ
परे विचक्षणं
सप्तचक्रे षडर
आहुरर्पितमिति ॥ १.११॥
अन्य
कालवेत्तागण इस आदित्य को पाँच पैरों वाला, सबका पिता, बारह आकृतियों वाला, पुरीषी (जलवाला) और द्युलोक के परार्द्ध में स्थित बतलाते
हैं तथा ये अन्य लोग उसे सर्वज्ञ और उस सात चक्र और छ: अरेवाले में ही इस जगत्
को अर्पित बतलाते हैं॥११॥
मासो वै
प्रजापतिस्तस्य कृष्णपक्ष एव रयिः शुक्लः प्रणस्तस्मादेत
ऋषयः शुक्ल
इष्टं कुर्वन्तीतर इतरस्मिन् ॥ १.१२॥
मास ही
प्रजापति है। उसका कृष्णपक्ष ही रयि है और शुक्लपक्ष प्राण है। इसलिये ये
[प्राणोपासक] ऋषिगण शुक्लपक्ष में ही यज्ञ किया करते हैं तथा दूसरे [ अनोपासक]
दूसरे पक्ष में यज्ञ करते हैं ॥१२॥
अहोरात्रो वै
प्रजापतिस्तस्याहरेव प्राणो रात्रिरेव रयिः प्राणं वा एते
प्रस्कन्दन्ति
ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते ब्रह्मचर्यमेव तद्यद्रात्रौ
रत्या
संयुज्यन्ते ॥ १.१३॥
दिन-रात भी
प्रजापति हैं। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति
के लिये [स्त्री से] संयुक्त होते हैं वे प्राण को हो हानि करते हैं और जो रात्रि
के समय रति के लिये [स्त्री से] संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है॥ १३॥
अन्नं वै
प्रजापतिस्ततो ह वै तद्रेतस्तस्मादिमाः प्रजाः
प्रजायन्त इति
॥ १.१४॥
अन्न ही
प्रजापति है; उसी से वह वीर्य होता है और उस वीर्य ही से यह सम्पूर्ण
प्रजा उत्पन्न होती है। १४॥
तद्ये ह वै
तत् प्रजापतिव्रतं चरन्ति ते मिथुनमुत्पादयन्ते ।
तेषामेवैष
ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यं
प्रतिष्ठितम्
॥ १.१५॥
इस प्रकार जो
भी उस प्रजापति व्रत का आचरण करते हैं ये [कन्या-पुत्ररूप] मिथुन को उत्पन्न करते
हैं। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह
ब्राह्मलोक प्राप्त होता है॥ १५॥
तेषामसौ विरजो
ब्रह्मलोको न येषु जिह्ममनृतं न
माया चेति ॥
१.१६॥
जिनमें
कुटिलता, अन्त और माया (कपट) नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक
प्राप्त होता है॥ १६॥
इति प्रश्नोपनिषद् प्रथमः प्रश्नः ॥
प्रश्नोपनिषद् द्वितीयः प्रश्नः
अथ हैनं
भार्गवो वैदर्भिः पप्रच्छ ।
भगवन् कत्येव देवाः
प्रजां विधारयन्ते कतर एतत्
प्रकाशयन्ते
कः पुनरेषां वरिष्ठ इति ॥ २.१॥
तदनन्तर
उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा-'भगवन्! इस
प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं? उनमें से कौन-कौन इसे
प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है? ॥ १॥
तस्मै स
होवाचाकाशो ह वा एष देवो वायुरग्निरापः
पृथिवी
वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रं च ।
ते
प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामः ॥ २.२॥
तब
उससे आचार्य पिप्पलाद ने कहा-वह देव आकाश है। वायु, अग्नि,
जल, पृथिवी, वाक
(सम्पूर्ण कर्मेन्द्रियाँ), मन (अन्त:करण) और चक्षु (ज्ञानेन्द्रियसमूह)
[ये भी देव ही हैं ]। वे सभी अपनी महिमा को प्रकट करते हुए
कहते है-'हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं।
तान् वरिष्ठः
प्राण उवाच ।
मा मोहमापद्यथ
अहमेवैतत् पञ्चधाऽऽत्मानं
प्रविभज्यैतद्बाणमवष्टभ्य
विधारयामीति तेऽश्रद्दधाना बभूवुः ॥ २.३॥
[एक बार] उनसे सर्वश्रेष्ठ प्राण ने कहा-'तुम मोह को
प्राप्त मत होओ; मैं ही अपने को पाँच प्रकार से विभक्त कर इस
शरीर को आश्रय देकर धारण करता हूँ।' किन्तु उन्होंने उसका
विश्वास न किया ॥३॥
सोऽभिमानादूर्ध्वमुत्क्रामत
इव तस्मिन्नुत्क्रामत्यथेतरे सर्व
एवोत्क्रामन्ते
तस्मिंश्च प्रतिष्ठमाने सर्व एव प्रतिष्ठन्ते ।
तद्यथा मक्षिका
मधुकरराजानमुत्क्रामन्तं सर्व एवोत्क्रमन्ते तस्मिंष्च
प्रतिष्ठमाने
सर्व एव प्रातिष्टन्त एवं वाङ्मनष्चक्षुः श्रोत्रं
च ते प्रीताः
प्राणं स्तुन्वन्ति ॥ २.४॥
तब
वह अभिमानपूर्वक मानो ऊपर को उठने लगा। उसके ऊपर उठने के साथ और सब भी उठने लगे, तथा उसके
स्थित होने पर सब स्थित हो जाते। जिस प्रकार मधुकरराज के ऊपर उठने पर सभी मक्खियाँ
ऊपर चढ़ने लगती हैं और उसके बैठ जाने पर सभी बैठ जाती हैं उसी प्रकार वाक्,
मन, चक्षु और श्रोत्रादि भी [प्राण के साथ
उठने और प्रतिष्ठित होने लगे] । तब वे सन्तुष्ट होकर प्राण की स्तुति करने लगे॥ ४॥
एषोऽग्निस्तपत्येष
सूर्य एष पर्जन्यो मघवानेष वायुः
एष पृथिवी
रयिर्देवः सदसच्चामृतं च यत् ॥ २.५॥
यह
प्राण अग्नि होकर तपता है,
यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इन्द्र और वायु है तथा यह देव ही पृथ्वी, रयि और
जो कुछ सत्, असत् एवं अमृत है, वह सब
कुछ है॥ ५॥
अरा इव रथनाभौ
प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम् ।
ऋचो यजूःषि
सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च ॥ २.६॥
जैसे
रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह ऋक, यजुः, साम,
यज्ञ तथा क्षत्रिय और ब्राह्मण-ये सब प्राण में ही स्थित हैं॥६॥
प्रजापतिश्चरसि
गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे ।
तुभ्यं प्राण
प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति
यः प्राणैः
प्रतितिष्ठसि ॥ २.७॥
हे
प्राण! तू ही प्रजापति है,
तू ही गर्भ में सञ्चार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह
[मनुष्यादि] सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त
इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है॥७॥
देवानामसि
वह्नितमः पितॄणां प्रथमा स्वधा ।
ऋषीणां चरितं
सत्यमथर्वाङ्गिरसामसि ॥ २.८॥
तू
देवताओं के लिये वह्रीतम है, पितृगण के लिये प्रथम स्वधा है और अथर्वाङ्गिरस् ऋषियों [यानी चक्षु आदि
प्राणों के लिये सत्य आचरण है॥ ८॥
इन्द्रस्त्वं
प्राण तेजसा रुद्रोऽसि परिरक्षिता ।
त्वमन्तरिक्षे
चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः ॥ २.९॥
हे
प्राण ! तू इन्द्र है,
अपने [संहारक] तेज के कारण रुद्र है, और
[सौम्यरूप से] सब ओर से रक्षा करनेवाला है। तू ज्योतिर्गण का अधिपति सूर्य है और
अन्तरिक्ष में सञ्चार करता है॥ ९॥
यदा
त्वमभिवर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः ।
आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति
कामायान्नं भविष्यतीति ॥ २.१०॥
हे
प्राण ! जिस समय तू मेघरूप होकर बरसता है उस समय तेरी यह सम्पूर्ण प्रजा यह समझकर
कि 'अब यथेच्छ अन्न होगा' आनन्दरूप से स्थित होती है॥१०॥
व्रात्यस्त्वं
प्राणैकर्षरत्ता विश्वस्य सत्पतिः ।
वयमाद्यस्य
दातारः पिता त्वं मातरिश्व नः ॥ २.११॥
हे
प्राण! तू व्रात्य,
[संस्कारहीन] एकर्षि नामक अग्नि, भोक्ता और
विश्व का सत्पति है, हम तेरा भक्ष्य देनेवाले हैं। हे वायो!
तू हमारा पिता है। ११॥
या ते
तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि ।
या च मनसि
सन्तता शिवां तां कुरु मोत्क्रमीः ॥ २.१२॥
तेरा
जो स्वरूप वाणी में स्थित है तथा जो श्रोत्र, नेत्र और मन में व्याप्त है उसे
तू शान्त कर । तू उत्क्रमण न कर ॥ १२ ॥
प्राणस्येदं
वशे सर्वं त्रिदिवे यत् प्रतिष्ठितम् ।
मातेव
पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च
विधेहि न इति ॥ २.१३॥
यह सब तथा
स्वर्गलोक में जो
कुछ स्थित है वह प्राण के ही
अधीन है। जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार तू हमारी रक्षा कर
तथा हमें श्री और बुद्धि प्रदान कर ॥ १३॥
इति प्रश्नोपनिषदि
द्वितीयः प्रश्नः ॥
प्रश्नोपनिषद्
तृतीयः प्रश्नः
अथ हैनं
कौशल्यश्चाश्वलायनः पप्रच्छ ।
भगवन् कुत एष
प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीर
आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रतिष्ठते केनोत्क्रमते
कथं
बाह्यमभिधत्ते कथमध्यात्ममिति ॥ ३.१॥
तदनन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि)-से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा-'भगवन्!
यह प्राण कहाँ से
उत्पन्न होता है? किस प्रकार इस शरीर में आता है? तथा अपना विभाग करके किस प्रकार स्थित होता है? फिर
किस कारण शरीर से उत्क्रमण करता है और किस तरह बाह्य एवं आभ्यन्तर शरीर को धारण
करता है?'॥१॥
तस्मै स
होवाचातिप्रश्नान् पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति
तस्मात्तेऽहं
ब्रवीमि ॥ ३.२॥
उससे पिप्पलाद आचार्य ने कहा-'तू बड़े कठिन प्रश्न पूछता है। परन्तु तू [बड़ा] ब्रह्मवेता है। अतः मैं
तेरे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ॥२॥
आत्मन एष
प्राणो जायते ।
यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं
मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे
॥ ३.३॥
यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार
मनुष्य-शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है उसी प्रकार इस आत्मा में प्राण व्याप्त है
तथा यह मनोकृत सङ्कल्पादि से इस शरीर में आ जाता है॥३॥
यथा
सम्रादेवाधिकृतान् विनियुङ्क्ते ।
एतन्
ग्रामानोतान् ग्रामानधितिष्ठस्वेत्येवमेवैष
प्राण इतरान्
प्राणान् पृथक् पृथगेव सन्निधत्ते ॥ ३.४॥
जिस प्रकार सम्राट् ही 'तुम इन-इन ग्रामों में रहो' इस प्रकार
अधिकारियों को नियुक्त करता है उसी प्रकार यह मुख्य प्राण ही अन्य प्राणों (इन्द्रियों)
को अलग-अलग नियुक्त करता है॥ ४॥
पायूपस्थेऽपानं
चक्षुःश्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणः
स्वयं प्रातिष्ठते
मध्ये तु समानः ।
एष
ह्येतद्धुतमन्नं समं नयति
तस्मादेताः
सप्तार्चिषो भवन्ति ॥ ३.५॥
वह [प्राण] पायु और उपस्थ में अपान को [नियुक्त
करता है] और मुख तथा नासिका से निकलता हुआ नेत्र एवं श्रोत्र में स्वयं स्थित होता
है तथा मध्य में समान रहता है। यह [समानवायु] ही खाये हुए अन्न को समभाव से [शरीर में
सर्वत्र] ले जाता है। उस [प्राणाग्रि]से ही [दो नेत्र, दो कर्ण, दो नासारन्ध्र और एक रसना]
ये सात ज्वालाएँ उत्पन्न होती हैं ॥ ५॥
हृदि ह्येष
आत्मा ।
अत्रैतदेकशतं
नाडीनां तासां शतं
शतमेकैकस्या
द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः
प्रतिशाखानाडीसहस्राणि
भवन्त्यासु व्यानश्चरति ॥ ३.६॥
यह आत्मा हृदय में है। इस हदय देश में एक सौ एक
नाडियाँ हैं। उनमें से एक-एक की सौ-सौ शाखाएँ हैं और उनमें से प्रत्येक की
बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाडियाँ हैं। इन सबमें व्यान सञ्चार करता है॥६॥
अथैकयोर्ध्व
उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन
पापमुभाभ्यामेव
मनुष्यलोकम् ॥ ३.७॥
तथा [इन सब नाडियों में से सुषुम्ना नाम की] एक
नाडी द्वारा ऊपर की ओर गमन करनेवाला उदानवायु [जीव को] पुण्य-कर्म के द्वारा
पुण्यलोक को और पापकर्म के द्वारा पापमय लोक को ले जाता है तथा पुण्य-पाप दोनों
प्रकार के (मिश्रित) कर्मो द्वारा उसे मनुष्यलोक को प्राप्त कराता है॥ ७॥
आदित्यो ह वै
बाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं
प्राणमनुगृह्णानः
। पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्य
अपानमवष्टभ्यान्तरा
यदाकाशः स समानो वायुर्व्यानः ॥ ३.८॥
निश्चय आदित्य ही बाह्य प्राण है। यह इस
चाक्षुष (नेत्रेन्द्रियस्थित) प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। पृथिवी में
जो देवता है वह पुरुष के अपानवायु को आकर्षण किये हुए है। इन दोनों के मध्य में जो
आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है॥ ८॥
तेजो ह वा
उदानस्तस्मादुपशान्ततेजाः ।
पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि
सम्पद्यमानैः ॥ ३.९॥
लोकप्रसिद्ध [आदित्य रूप] तेज ही उदान है। अत:
जिसका तेज (शारीरिक उष्मा) शान्त हो जाता है वह मन में लीन हुई इन्द्रियों के सहित
पुनर्जन्म को [अथवा पुनर्जन्म के हेतुभूत मृत्यु को] प्राप्त हो जाता है। ९॥
यच्चित्तस्तेनैष
प्राणमायाति । प्राणस्तेजसा युक्तः सहात्मना
तथासङ्कल्पितं
लोकं नयति ॥ ३.१०॥
इसका जैसा चित्त [संकल्प] होता है उसके सहित यह
प्राण को प्राप्त होता है। तथा प्राण तेजसे (उदानवृत्ति से) संयुक्त हो [उस भोक्ता
को] आत्मा के सहित संकल्प किये हुए लोक को ले जाता है॥ १०॥
य एवं
विद्वान् प्राणं वेद न हास्य प्रजा
हीयतेऽमृतो भवति
तदेषः श्लोकः ॥ ३.११॥
जो विद्वान् प्राण को इस प्रकार जानता है उसकी
प्रजा नष्ट नहीं होती। वह अमर हो जाता है इस विषय में यह श्लोक है॥ ११॥
उत्पत्तिमायतिं
स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा ।
अध्यात्मं चैव
प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते
विज्ञायामृतमश्नुत
इति ॥ ३.१२॥
प्राण की उत्पत्ति, आगमन, स्थान, व्यापकता
एवं बाह्य और आध्यात्मिक भेद से पाँच प्रकार की स्थिति जानकर मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता
है-अमरत्व प्राप्त कर लेता है॥ १२॥
इति प्रश्नोपनिषद् तृतीयः प्रश्नः ॥
प्रश्नोपनिषद्
जारी...............
शेष प्रश्नोपनिषद् श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद अगले अंक में पढ़े- प्रश्नोपनिषद्
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