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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
वरुणसूक्त
वरुणसूक्त ऋषि
—
शुनःशेप,
आजीगर्ति एवं
वशिष्ठ, निवास स्थान — द्युस्थानीय, ऋग्वेद संहिता, प्रथम मंडल सूक्त 25 ऋग्वेदके प्रथम मण्डल का पचीसवाँ सूक्त वरुणसूक्त कहलाता
है । इस सूक्त में शुनःशेप के द्वारा वरुणदेवता की स्तुति की गयी है । शुनःशेप की
कथा वेदों, ब्राह्मणग्रन्थों तथा पुराणों में विस्तार से आयी है ।
कथासार यह है
कि इक्ष्वाकुवंशी राजा हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान नहीं थी । उनके गुरु वसिष्ठजी ने
बताया कि तुम वरुणदेवता की उपासना करो; राजा ने वैसा ही किया । वरुणदेव प्रसन्न हुए और बोले —
राजन् ! तुम
यदि अपने पुत्र को मुझे समर्पित करने की प्रतिज्ञा करो तो तुम्हें पुत्र अवश्य
होगा ।राजा ने स्वीकार कर लिया । यथासमय राजा को रोहित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ,
किंतु
पुत्रमोह में पड़कर राजा हरिश्चन्द्र ने रोहित को वरुणदेव को समर्पित नहीं किया ।
वरुणदेव कई बार आये और लौट गये । रोहित को जब यह बात मालूम हुई तो वह भयभीत होकर
जंगल में भाग गया । राजा की प्रतिज्ञा झूठी देखकर वरुणदेव ने उन्हें जलोदर’
नामक
महाव्याधि से ग्रस्त हो जाने का शाप दे डाला । तब वसिष्ठजी ने राजा को बताया कि
किसी पुत्र को क्रय करके वरुण को अर्पित कर दो तो तुम्हारा रोग ठीक हो जायगा । तब
राजा ने अजीगर्त नामक ब्राह्मण का मध्यम पुत्र ‘शुनःशेप’ को धन देकर क्रय कर लिया । धनलोलुप पिता ने अपने पुत्र
शुनःशेप को यज्ञमण्डप में लाकर यूप में बाँध दिया । भयभीत शुनःशेप रुदन करने लगा,
तब ऋषि
विश्वामित्रजी को दया आ गयी । उन्होंने शुनःशेप को बताया कि तुम वरुणदेवता की
स्तुति करो, वे तुम्हें इस बन्धन से मुक्त कर देंगे । तब शुनःशेप ने
वरुणदेवता की जो स्तुति की, वही इस सूक्त में वर्णित है । स्तुति से वरुणदेवता प्रसन्न
हो गये और प्रकट होकर उन्होंने शुनःशेप को पाश-बन्धन से मुक्त कर दिया । राजा का
जलोदर रोग भी ठीक हो गया ।
इस सूक्त के
ऋषि शुनःशेप, छन्द गायत्री और देवता वरुण हैं । इस सूक्त में २१ मन्त्र
हैं।
अथ वरुणसूक्त
यच्चिद्धि ते
विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम् । मिनीमसि द्यविद्यवि ॥ १ ॥
हे वरुणदेव!
जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान मे प्रमाद करते है,वैसे ही हमसे भी आपके नियमो मे कभी कभी प्रमाद हो जाता
है।(कृपया इसे क्षमा करें)॥१॥
मा नो वधाय
हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः । मा हृणानस्य मन्यवे ॥ २ ॥
हे वरुणदेव!
आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख
हमे प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था मे भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें॥२॥
वि मृळीकाय ते
मनो रथीरश्वं न संदितम् । गीर्भिर्वरुण सीमहि ॥ ३ ॥
हे वरुण ! जिस
प्रकार रथ का स्वामी दूर जाने के कारण थके घोड़ों को घास,
जल आदि देकर
प्रसन्न करता है, उसी प्रकार हम अपने सुख के लिये आपके मन को स्तुतियों के
द्वारा प्रसन्न करते हैं ॥ ३ ॥
परा हि मे
विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये । वयो न वसतीरुप ॥ ४ ॥
हे वरुण !
मेरी (शुन:शेप की) क्रोधरहित शान्त बुद्धि मूल्यवान् जीवन को प्राप्त करने के लिये
अनावृत्ति भाव से आपमें उसी प्रकार लगी रहती हैं,
जिस प्रकार
पक्षी दिनभर भटककर सायंकाल अपने निवास स्थान (घोंसले)-को प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥
कदा
क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे । मृळीकायोरुचक्षसम् ॥ ५ ॥
अपने सच्चे
सुख को प्राप्त करने के लिये हम कब अति बलवान् समस्त प्राणियों के नेता एवं
सर्वद्रष्टा वरुण का आराधनकर्म में साक्षात्कार कर सकेंगे ?॥ ५ ॥
तदित् समानमाशाते
वेनन्ता न प्र युच्छतः । धृतव्रताय दाशुषे ॥ ६ ॥
जिसने
वरुणाराधन कर्म का सम्पादन किया है तथा हवि प्रदान की हैं,
ऐसे यजमान को
चाहनेवाले मित्रावरुणदेव हम ऋत्विजों से दिये हुए साधारण हवि को भक्षण करते हैं ॥
६ ॥
वेदा यो वीनां
पदमन्तरिक्षेण पतताम् । वेद नावः समुद्रियः ॥ ७ ॥
सर्वव्यापी
एवं सर्वज्ञ होने के कारण जो वरुण आकाश मार्ग से जाते हुए पक्षियों के आधार स्थान
को तथा जल में चलने वाली नौकाओं के आधार स्थान को जानते हैं,
वे वरुण हमें
मृत्युरूपी पाश बन्धन से मुक्त करें ॥ ७ ॥
वेद मासो
धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः । वेदा य उपजायते ॥ ८ ॥
जिन्होंने
जगत् की उत्पत्ति, रक्षा एवं विनाश आदि कार्यो को स्वीकार किया है,
वे सर्वज्ञ
वरुण क्षण-क्षण में उत्पद्यमान प्राणियों के सहित चैत्रादि से फाल्गुन पर्यन्त
बारह मासों को एवं संवत्सर के समीप उत्पन्न होनेवाला तेरहवाँ जो अधिकमास है,
उसको भी जानते
हैं, वे वरुण हमें मृत्युरूपी पाश बन्धन से मुक्त करें ॥ ८ ॥
वेद वातस्य
वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहतः । वेदा ये अध्यासते ॥ ९ ॥
जो वरुणदेव
विशाल, शोभन और महान् वायु का भी मार्ग जानते हैं और ऊपर निवास
करने वाले देवताओं को भी जानते हैं, वे वरुणदेव हमें मृत्युरूपी पाश बन्धन से मुक्त करें ॥ ९ ॥
नि षसाद
धृतव्रतो वरुणः पस्त्या३स्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः ॥ १० ॥
जिन्होंने
प्रजापालनादि कार्यों का नियम स्वीकार किया है तथा जो प्रजाहितकर्ता वरुण हैं;
जो सूर्य,
चन्द्र आदि
दैवी प्रजाओं में साम्राज्य सिद्धि के लिये उनके पास बैठे हुए हैं,
वे वरुण हमें
मृत्युरूपी पाश बन्धन से मुक्त करें ॥ १० ॥
अतो
विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति । कृतानि या च कर्त्वा ॥ ११ ॥
जिन
जगदुत्पत्त्यादि आश्चर्यों को प्रथम वरुण ने किया है तथा अन्य जो आश्चर्य कार्य
उनके द्वारा किये जायँगे, उन सभी अद्भुत कार्यों को ज्ञानवान् पुरुष जानते हैं । वे
अद्भुत कार्यकर्ता वरुण हमें मृत्युरूपी पाशबन्धन से मुक्त करें ॥ ११ ॥
स नो विश्वाहा
सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत् । प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥ १२ ॥
प्रजापालनादि
शोभन कार्यों को करनेवाले आदित्यरूपी वरुण सर्वदा हमें सन्मार्ग में चलायें तथा
हमारी आयु को बढ़ायें ॥ १२ ॥
बिभ्रद्
द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम् । परि स्पशो नि षेदिरे ॥ १३ ॥
सुवर्णमय कवच
को धारण करनेवाले आदित्यरूपी वरुण अपने पुष्ट शरीर को रश्मि-समुदाय से ढककर रखते
हैं । सम्पूर्ण जगत् को स्पर्श करनेवाली उनकी किरणें सुवर्ण आदि समस्त पदार्थों
में व्याप्त रहती हैं ॥ १३ ॥
न यं
दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम् । न देवमभिमातयः ॥ १४ ॥
सर्वदा
प्राणियों की हिंसा करने के इच्छुक क्रूर जन्तु भी भयभीत होकर वरुण के प्रति हिंसा
की इच्छा छोड़ देते हैं । प्राणियों से अकारण द्वेष करनेवाले सिंह,
व्याघ्र आदि
भी वरुण के प्रति द्रोहभाव छोड़ देते हैं । वरुण में ईश्वरत्व होने के कारण पुण्य
एवं पाप भी उन्हें स्पर्श नहीं करते हैं ॥ १४ ॥
उत यो
मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या । अस्माकमुदरेष्वा ॥ १५ ॥
जिन वरुण ने
वृष्टि द्वारा मनुष्यों के जीवनार्थ नाना प्रकार के अन्नों को पर्याप्त-मात्रा में
उत्पन्न किया है, उन्हीं वरुण ने विशेषकर हम वरुणोपासक जनों की उदरपूर्ति के
लिये पर्याप्त मात्रा में अन्न उत्पन्न किया है ॥ १५ ॥
परा मे यन्ति
धीतयो गावो न गव्यूतीरनु । इच्छन्तीरुरुचक्षसम् ॥ १६ ॥
जिस प्रकार
गौएँ अपने गोष्ठ (गोशाला)-में पहुँच जाती हैं और दिन-रात भी वहाँ से टलती नहीं,
उसी प्रकार
पुण्यात्मा लोगों के दर्शनीय वरुणदेव (परमेश्वर)-को चाहती हुई हमारी (शुनःशेप की)
बुद्धिवृत्तियाँ निवृत्ति से रहित होकर वरुण में लग रही हैं ॥ १६ ॥
सं नु वोचावहै
पुनर्यतो मे मध्वाभृतम् । होतेव क्षदसे प्रियम् ॥ १७ ॥
हे वरुण !
मेरे जीवनरक्षार्थ दुग्ध, घृतादि मधुर हवि ‘अंजःसव’ नामक यज्ञ में सम्पादित किया गया है,
अतः हवनकर्ता
जिस प्रकार हवन के बाद मधुर दुग्धादि पदार्थों का भक्षण करता है,
उसी प्रकार आप
भी घृतादि प्रिय हवि भक्षण करते हैं । हवि के स्वीकार से तृप्त आप और जीवित मैं –
दोनों एकत्रित
होकर प्रिय वार्तालाप करें ॥ १७ ॥
दर्श नु
विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि । एता जुषत मे गिरः ॥ १८ ॥
सभी के देखने
योग्य तथा मेरे अनुग्रहार्थ आविर्भूत होनेवाले वरुणदेव का मैंने साक्षात्कार किया
है । मैंने पृथ्वी पर उनके रथ को भली-भाँति देखा है । मेरी इन स्तुतिरूप वाणियों
को वरुणदेव ने श्रवण किया है ॥ १८ ॥
इमं मे वरुण
श्रुधी हवमद्या च मृळय । त्वामवस्युरा चके ॥ १९ ॥
हे वरुण! आप
मेरी इस पुकार को सुनें । मुझे आज सुखी करें । अपनी रक्षा चाहनेवाला मैं आपकी
स्तुति करता हूँ ॥ १९ ॥
त्वं विश्वस्य
मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि । स यामनि प्रति श्रुधि ॥ २० ॥
हे मेधावी
वरुण ! आप द्युलोक एवं भूलोकरूप सम्पूर्ण जगत् में उद्दीप्त हो रहे हैं । आप हमारे
कल्याण के लिये ‘मैं तेरी रक्षा करूंगा’
ऐसा
प्रत्युत्तर दें’ ॥ २० ॥
उदुत्तमं
मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत । अवाधमानि जीवसे ॥ २१ ॥
हे वरुण ! आप
हमारे सिर में बँधे पाश को दूर कर दें तथा जो पाश मेरे ऊपर लगा है,
उसे भी
तोड़-फोड़कर नष्ट कर दें एवं पैर में बँधे हुए पाश को भी खोलकर नष्ट कर दें ॥ २१ ॥
(वरुण देव
द्युलोक और पृथिवी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों
के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक का है। वह जनता के पाप पुण्य तथ
सत्य असत्य का लेखा जोखा रखता है। ऋग्वेद में वरुण का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य
उसके नेत्र है। वह सुनहरा चोगा पहनता है और कुशा के आसन पर बैठता है। उसका रथ
सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उसके गुप्तचर विश्वभर
में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण रात्रि और दिवस का अधिष्ठाता है। वह संसार के
नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए है। ऋग्वेद में वरुण के लिए क्षत्रिय
स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है।)
वरुण-सूक्त से संबन्धित संक्षिप्त जानकारी निम्न है-
वरुण-सूक्त
(ऋग्वेदः---१.२५)
ऋग्वेद में
प्रथम मण्डल का २५ वाँ सूक्त हैः--वरुण सूक्त,
वरुण-सूक्त
में कुल कितने मन्त्र हैः---२१
वरुण-सूक्त का
ऋषि है---शुनः शेप ।
वरुण-सूक्त का
देवता हैः--वरुण देव ।
वरुण शब्द की
उत्पत्तिः---वृञ् वरणे धातु से वरणीयः ।
वृञ् धातु का
अर्थ हैः--आच्छादित करना या आवृत्त करना ।
वरुण का
निर्वचन हैः--वरुणो वृणोतीति सतः ।
वरुण-सूक्त का
छन्द हैः---गायत्री (२४ अक्षर) ।
वरुण देवता का
स्थान हैः---द्युलोक ।
भौतिक नियमों
का नियन्ता कौन हैः--वरुण ।
वरुण का एक
अन्य नाम हैः---धृतव्रत ।
सूर्य,
अग्नि और जल
की रचना किसने की हैः---वरुण ने ।
"उत्तम-शासक" किसे कहा गया हैः---वरुण को ।।
वरुण का नेत्र
हैः--सूर्य ।
सूर्य की तरह
ही किसका रथ देदीप्यमान हैः---वरुण का ।
वरुण का
प्रमुख अस्त्र क्या हैः---"वज्र" और "पाश" ।।
वरुण का
प्रधान कार्य क्या हैः---जल बरसाना ।।
ब्रह्माण्ड का
नैतिक अध्यक्ष कौन हैः--वरुण ।।
वरुण जिसे
दण्डित करता है, उसे कौन-सा रोग होता हैः---जलोदर ।
सातवाँ आदित्य
किसे कहा जाता हैः---वरुण को ।
"क्षत्रश्रिय" किसे कहा जाता हैः--वरुण को ।
"दूतदक्ष" किसका अन्य नाम हैः--वरुण का ।
"उरुचक्षसः" किसे कहा जाता हैः---वरुण को ।
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