Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2020
(162)
-
▼
December
(52)
- श्रीराघवेन्द्राष्टकम्
- श्रीरामनामस्तुतिः
- श्रीरामद्वादशनामस्तोत्रम्
- श्रीरामचालीसा
- श्री राम स्तुति
- एकश्लोकि रामायणम्
- हनुमत्पूजन विधि
- श्रीहनुमतः आवरणपूजा
- संकटमोचन हनुमानाष्टक
- हनुमद् वडवानल स्तोत्रम्
- हनुमान बाहुक
- हनुमान साठिका
- हनुमान चालीसा संस्कृतानुवादः
- बजरंग बाण
- सीतोपनिषत्
- बलिवैश्वदेव
- सन्ध्योपासन विधि
- गोसूक्त
- वरुणसूक्त
- स्नान की विधि
- प्रातःस्मरण
- देव पूजा में विहित एवं निषिद्ध पत्र पुष्प
- कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय तृतीय वल्ली
- कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय द्वितीय वल्ली
- कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली
- कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली
- माण्डूक्योपनिषत्
- कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
- प्रश्नोपनिषद्
- प्रश्नोपनिषद्
- प्रश्नोपनिषद्
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रं श्रीसौरपुराणान्तर्गतम्
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रं वायुपुराणे अध्याय ३०
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् शङ्करसंहितायां स्कन्दमहाप...
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् स्कन्दपुराणान्तर्गतम्
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् भगीरथकृतं श्रीदेवीभागवत उ...
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् व श्रीशिवसहस्रनामावली
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रं शिवरहस्ये नवमांशे अध्याय २
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- विवाह मुहूर्त vivah muhurt
- शिवसहस्रनामस्तोत्रम् श्रीशिवरहस्यान्तर्गतम्
- श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् व श्रीशिवसहस्रनामावलिः शि...
- अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
- शिव सहस्रनाम स्तोत्र
- शिव सहस्रनाम स्तोत्रम
- रूद्र सूक्त Rudra suktam
- त्वरित रुद्र
- काली चालीसा,महाकाली चालीसा व आरती
- अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्
- श्री लक्ष्मी द्वादशनाम व अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्
- वैभवलक्ष्मी व्रत
- श्री लक्ष्मी नृसिंह द्वादशनाम स्तोत्रम्
-
▼
December
(52)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली
इससे पूर्व आपने कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की प्रथम वल्ली
पढ़ा। उसके बाद कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली में पढ़ा कि- यमराज ने नचिकेता
को श्रेयमार्ग,
प्रेयमार्ग व परमात्मा के विषय में बतलाते हैं ....अब इससे
आगे पढ़े कठोपनिषद् - प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली ।
॥ अथ कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीय वल्ली ॥
ऋतं पिबन्तौ
सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो
वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ १॥
भावार्थ- अपने
किए हुए कर्म के फल को भोगने वाले और अपनी शक्ति से जीवात्मा को फल भुगाने वाले,
बुद्धि के
गुप्त प्रदेश में रहने वाले, और मोक्ष धाम में सत्य स्वरूप वाले जीवात्मा और परमात्मा को
ब्रह्म ज्ञानी लोग, गृहस्थी और वानप्रस्थ लोग छाया और प्रकाश के समान अलग-अलग
कहते हैं।
अर्थ यह है कि
जीवात्मा के रूप में परमात्मा ही गुप्त रूप से शरीर में विद्यमान हैं और दोनों ही
मोक्षावस्था में सत्य स्वरूप हैं यानी ईश्वर नित्य मुक्त है और जीव मोक्ष प्राप्त
करता है इस लिये ब्रह्म ज्ञानी इन दोनों को भिन्न ही मानते हैं।
पञ्चाग्नि शब्द से आशय उन गृहस्थों से है, जो माता, पिता, अतिथि, गुरू और परमात्मा इन पाचों की परिचर्या करते हैं।
यः
सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् ।
अभयं
तितीर्षतां पारं नाचिकेतँ शकेमहि ॥ २॥
भावार्थ- जो परमात्मा
यज्ञ, भजन, करने वाले मनुष्यों के लिये संसार को पार करने वाले पुल के
समान है। वह विनाश रहित परम ब्रह्म है जिसमें भय का लेश नहीं है,
और संसार के
दुःखों से तरने की इच्छा करने वालों का जो पार है,
उस ईश्वर को
हम जान सकें।
आत्मानँ रथितं
विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
बुद्धिं तु
सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३॥
यमराज बोले:
भावार्थ- हे
नचिकेतः! तुम इस जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो,
और शरीर को रथ
समझो, बुद्धि को सारथि और मन को लगाम की रस्सी समझो।
इन्द्रियाणि
हयानाहुर्विषयाँ स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं
भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ ४॥
भावार्थ- इस
शरीर के अन्दर जो इन्द्रियां हैं उन्ही को घोड़े समझो,
और इन्द्रियों
के जो विषयों को उन घोड़ों के मार्ग। मन और इन्द्रियों से युक्त आत्मा को ही
विद्वान् लोग भोक्ता बताते हैं।
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन
मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि
दुष्टाश्वा इव सारथेः ॥ ५॥
भावार्थ- परन्तु
जो मनुष्य अज्ञानी हैं, जिनका मन स्थिर नहीं है,
उनकी
इन्द्रियां उनके वश में नहीं रहतीं। जैसे दुष्ट घोड़े सारथी के वश में नहीं रहते।
यस्तु
विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा ।
तस्येन्द्रियाणि
वश्यानि सदश्वा इव सारथेः ॥ ६॥
भावार्थ- परन्तु
जो मनुष्य बुद्धिमान हैं और जिनका मन वश में है उनकी इन्द्रियां भी उनके वश में
उसी प्रकार रहती हैं जैसे उत्तम घोड़े सारथी के वश में रहते हैं।
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः
सदाऽशुचिः ।
न स तत्पदमाप्नोति
संसारं चाधिगच्छति ॥ ७॥
भावार्थ- जो
मनुष्य बुद्धिमान नहीं है, जिसका मन वश में नहीं रहता और जो छल-कपट आदि दोषों से युक्त
होने से अपवित्र रहता है, वह उस ब्रह्म के परम पद को नहीं प्राप्त कर पाता और सदा
जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है।
यस्तु विज्ञानवान्भवति
समनस्कः सदा शुचिः ।
स तु
तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते ॥ ८॥
भावार्थ- परन्तु
जो मनुष्य ज्ञानी है, शुद्ध मन वाला है, और सदा पवित्र आचरण करता है,
वह प्रभु के
परम पद को प्राप्त कर लेता है। जिससे वह पुन: दुःख को प्राप्त नहीं होता और न ही
संसार में दुःख रूप जन्म-मरण को प्राप्त होता है।
विज्ञानसारथिर्यस्तु
मनः प्रग्रहवान्नरः ।
सोऽध्वनः
पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ९॥
भावार्थ- जिस
मनुष्य की बुद्धि उसकी सारथी है और मन लगाम है यानी वश में है वह अपने मार्ग का
पार पा जाता है जो कि उस व्यापक ब्रह्म का सर्वोत्तम स्थान है।
इन्द्रियेभ्यः
परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा
बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १०॥
भावार्थ- अब
यमराज, स्थूल और सूक्ष्म इन्द्रिय आदि पदार्थों के क्रम का वर्णन
करते हैं:
इन्द्रियों की
अपेक्षा इन्द्रियों के रूप आदि विषय सूक्ष्म है और विषयों से मन सूक्ष्म है,
मनसे बुद्धि
अधिक सूक्ष्म है, और बुद्धि से महत्तत्व सूक्ष्मता है,
महत् तत्व से
अव्यक्त प्रकृति अति सूक्ष्म है और उससे पूर्ण परमात्मा सूक्ष्मतम है,
परमात्मा से
सूक्ष्म संसार में कुछ भी नहीं है। वही सीमा हैं और वही परम गति हैं उससे आगे किसी
की गति नहीं है।
महतः
परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं
किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ ११॥
भावार्थ- मन
से परे सूक्ष्म सत्, रज और तम् गुण वाली प्रकृति से जीवात्मा और परमात्मा है
परमात्मा से सूक्ष्म कुछ भी नहीं है वह अन्तिम मार्ग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य
है। वह सबसे सूक्ष्म हैं उनके पश्चात् न तो किसी का ज्ञान होता है और न उनसे आगे
कहीं जाया जा सकता है।
एष सर्वेषु
भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते
त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ १२॥
भावार्थ- यह
सर्व नियन्ता परमात्मा जो समस्त प्राणियों के हृदय में छिपा हुआ है। मलिन बुद्धि
वाले मनुष्यों से नहीं जाना जाता, किन्तु तीव्र और सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा सूक्ष्मदर्शी लोग
उसे देख सकते हैं।
यच्छेद्वाङ्मनसी
प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि
महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ १३॥
भावार्थ- सूक्ष्म
बुद्धि से वह किस प्रकार जाने जाते हैं, यमराज आगे इसका वर्णन करते हैं।
विद्वान्
पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन और वाणी को विषयों से रोके और फिर उनको अपनी बुद्धि
में स्थिर करके उस बुद्धि को महान् आत्मा में स्थित करे और आत्मा को शान्त
परमात्मा के साथ जोड़े।
उत्तिष्ठत
जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा
निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ १४॥
भावार्थ- यमराज
ने कहा:
हे मनुष्यो!
उस परमात्मा के जानने के लिये अविद्या की नींद से उठ जाओ,
जागो,
और श्रेष्ठ
आर्य जनों के सत् सङ्ग से ईश्वर को समझो, हे मनुष्यो ! यह रास्ता सुगम नहीं है,
तत्व दर्शी
विद्वान तलवार की तेज धार के समान, लांघने में कठिन, इस मार्ग को भी दुर्गम बताते हैं।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं
तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं
महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥ १५॥
भावार्थ- ब्रह्म
का कोई विषय नहीं है, वह स्पर्श रहित है, रूप और विकार से भी रहित है,
अनादि अनन्त
है, प्रकृति से भी सूक्ष्म है,
निश्चल है,
उस को जानकर
मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है, और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
नाचिकेतमुपाख्यानं
मृत्युप्रोक्तँ सनातनम् ।
उक्त्वा
श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते ॥ १६॥
भावार्थ- यमराज
द्वारा वर्णित, इस नचिकेता नामक सनातन कथा को कह कर और सुन कर मेधावी
मनुष्य ब्रह्म धाम में महिमा को प्राप्त होता है।
य इमं परमं
गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि ।
प्रयतः
श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते ।
तदानन्त्याय
कल्पत इति ॥ १७॥
भावार्थ- जो
विद्वान मनुष्य इस परम रहस्य भेद को ब्रह्म सभा में सुनाता है अथवा पवित्र होकर
अतिथियों के सत्कार के समय सुनाता है तो इस कथा का फल अनन्त हो जाता है। इस कथा के
सुनने से अनन्त पुरुषों को फल मिलता है।
॥ इति: कठोपनिषद् प्रथम अध्याय तृतीया वल्ली समाप्त ॥
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: