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श्री राम स्तुति
स्तुति अर्थात
किसी की महिमा का गण करना। अतः किसी भी स्तुति की जाय वह प्रसन्न होते हैं। हनुमान
जी हमेशा ही श्री राम के नाम का जाप करते थे। मान्यता है कि अगर बजरंगबली के भक्त
श्रीराम के नाम का जाप करें तो हनुमान जी प्रसन्न हो जाते हैं। हनुमान जी की पूजा
करने से पहले अगर श्री रामजी की यह स्तुति की जाए तो व्यक्ति पर हनुमान जी
कृपा-दृष्टि बनी रहती है। यहाँ श्री राम जी की दो प्रसिद्ध स्तुति अर्थ सहित दिया
जा रहा है इसके अलावा भी रामचन्द्र स्तुतिः
और दिया जा रहा है।
श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन अथवा राम स्तुति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित १६वीं शताब्दी का एक भजन है। ईसमे श्रीराम प्रभु के अदभुत गुण एवं शौर्य का वर्णन है। मनुष्य के मन को नियंत्रित करनेवाली ये यह स्तुति संस्कृतमय अवधी में है। नीचे की तीन पंक्तियाँ अवधी में लिखी गयी है। इसमें कई अलंकारों का प्रयोग हुआ है। भक्तिरस से ओत-प्रोत यह कविता, साहित्यिक तौर पर भी अद्भुत है। यह हरिगीतिका छंद में लिखी गयी है।
नमामि भक्त वत्सलं इस श्री राम स्तुति को रामचरितमानस के अरण्यकांड में दिया
गया है। इसे अत्री स्तुति नाम से भी जाना जाता है ।
श्री राम स्तुति-१ श्रीरामचन्द्र कृपालु...
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणम्।
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ॥१॥
व्याख्या: हे
मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर
करने वाले हैं। उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं। मुख-हाथ और चरण भी लालकमल
के सदृश हैं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरदसुन्दरम्।
पटपीतमानहु तडित रूचिशुचि नौमिजनकसुतावरम् ॥२॥
व्याख्या:
उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है। उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ
के जैसा सुन्दर वर्ण है। पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है। ऐसे
पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥
भजदीनबन्धु दिनेश दानवदैत्यवंशनिकन्दनम्।
रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द्र दशरथनन्दनम् ॥३॥
व्याख्या: हे
मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी,
दानव और
दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान
दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥
शिरमुकुटकुण्डल तिलकचारू उदारुअंगविभूषणम्।
आजानुभुज शरचापधर संग्रामजितखरदूषणम् ॥४॥
व्याख्या:
जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक,
और प्रत्येक
अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं। जो
धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शङकरशेषमुनिमनरंजनम्।
ममहृदयकंजनिवासकुरु कामादिखलदलगञजनम् ॥५॥
व्याख्या: जो
शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम,
क्रोध,
लोभादि
शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय
कमल में सदा निवास करें ॥५॥
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर सावरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो
॥६॥
व्याख्या:
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामन्द्रजी) तुमको
मिलेगा। वह जो दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है,
तुम्हारे शील
और स्नेह को जानता है ॥६॥
एही भाँति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषींअली।
तुलसी भवानी पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर
चली ॥७॥
व्याख्या: इस
प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय मे हर्षित
हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को
लौट चलीं ॥७॥ दोहा
जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥
व्याख्या:
गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता।
सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे ॥८॥
श्री राम स्तुति-२ नमामि भक्त वत्सलं...
चौपाई
नमामि भक्त
वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते
पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
भावार्थ
हे भक्त
वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम
पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥
चौपाई
निकाम श्याम
सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज
लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
भावार्थ
आप नितान्त
सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप,
फूले हुए कमल
के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥
छं० - नमामि
भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते
पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥
हे भक्त
वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाववाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम
पुरुषों को अपना परमधाम देनेवाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ।
निकाम श्याम
सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज
लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥
आप नितांत सुंदर
श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप,
फूले हुए कमल
के समान नेत्रोंवाले और मद आदि दोषों से छुड़ानेवाले हैं।
प्रलंब बाहु
विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप
सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥
हे प्रभो!
आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम)
है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करनेवाले तीनों लोकों के स्वामी,
दिनेश वंश
मंडनं। महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत
रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥
सूर्यवंश के
भूषण, महादेव के धनुष को तोड़नेवाले,
मुनिराजों और
संतों को आनंद देनेवाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करनेवाले हैं।
मनोज वैरि
वंदितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध
विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥
आप कामदेव के
शत्रु महादेव के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित,
विशुद्ध
ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करनेवाले हैं।
नमामि इंदिरा
पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति
सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥
हे
लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता
हूँ! हे शचीपति (इंद्र) के प्रिय छोटे भाई (वामन)! स्वरूपा-शक्ति सीता और छोटे भाई
लक्ष्मण सहित आपको मैं भजता हूँ।
त्वदंघ्रि मूल
ये नराः। भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो
भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥
जो मनुष्य
मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं,
वे
तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसाररूपी समुद्र में
नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते)।
विविक्त
वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य
इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं॥
जो एकांतवासी
पुरुष मुक्ति के लिए, इंद्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर)
प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं।
तमेकमद्भुतं
प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च
शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥
उन (आप) को जो
एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण),
प्रभु
(सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप
में स्थित) हैं।
भजामि भाव
वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं।
समं सुसेव्यमन्वहं॥
(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यंत दुर्लभ,
अपने भक्तों
के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले),
सम
(पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं;
मैं निरंतर
भजता हूँ।
अनूप रूप भूपतिं।
नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे
नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥
हे अनुपम
सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए,
मैं आपको
नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए।
पठंति ये
स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र
संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥
जो मनुष्य इस
स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते
हैं, इसमें संदेह नहीं।
रामचन्द्र स्तुतिः -३
वन्दामहे
महेशानचण्डकोदण्डखण्डनम् ।
जानकीहृदयानन्दचन्दनं
रघुनन्दनम् ॥ १॥
नमो
रामपदाम्भोजं रेणवो यत्र सन्ततम् ।
कुर्वन्ति
कुमुदप्रीतिमरण्यगृहमेधिनः ॥ २॥
स्वर्णैणाजिनशयनो
योजितनयनो दशास्यदिग्भागे ।
मुहुरवलोकितचापः
कोऽपि दुरापः स नीलिमा शरणम् ॥ ३॥
अधिपञ्चवटीकुटीरवर्तिस्फुटितेन्दीवरसुन्दरोरुमूर्तिः
।
अपि
लक्ष्मणलोचनैकसख्यं भजत ब्रह्म सरोरुहायताक्षम् ॥ ४॥
कनकनिकषभासा
सीतयाऽऽलिङ्गिताङ्गो
नवकुवलयदामश्यामवर्णाभिरामः
।
अभिनव इव
विद्युन्मण्डितो मेघखण्डः
शमयतु मम तापं
सर्वतो रामचन्द्रः ॥ ५॥
परिणयविधौ
भङ्क्त्वानङ्गद्विषो धनुरग्रतो
जनकसुतया
दत्तां कण्ठे स्रजं हृदि धारयन् ।
कुसुमधनुषा
पाशेनेव प्रसह्य वशीकृतो
ऽवनतवदनो रामः
पायात्त्रपाविनयान्वितः ॥ ६॥
रामो राजमणिः
सदा विजयते, रामं रमेशं भजे
रामेणाभिहता
निशाचरचमूः, रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति
परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं
रामे चित्तलयः
सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ७॥
यो रामो न
जघान वक्षसि रणे तं रावणं सायकैः
हृद्यस्य
प्रतिवासरं वसति सा तस्या ह्यहं राघवः ।
मय्यास्ते
भुवनावली परिवृता द्वीपैः समं सप्तभिः
स श्रेयो
विदधातु नस्त्रिभुवनत्राणैकचिन्तापरः ॥ ८॥
राज्यं येन
पटान्तलग्नतृणवत्त्यक्तं गुरोराज्ञया
पाथेयं परिगृह्य
कार्मुकवरं घोरं वनं प्रस्थितः ।
स्वाधीनः
शशिमौलिचापविषये प्राप्तो न वै विक्रियां
पायाद्वः स
विभीषणाग्रजनिहा रामाभिधानो हरिः ॥ ९॥
कारुण्यामृतनीरमाश्रितजनश्रीचातकानन्ददं
शार्ङ्गाखण्डलचापमम्बुजभवाग्नीन्द्रादिबर्हीष्टदम्
।
चारुस्मेरमुखोल्लसज्जनकजासौदामिनीशोभितं
श्रीरामाम्बुदमाश्रयेऽखिलजगत्संसारतापापहम्
॥ १०॥
कूर्मो
मूलवदालवालवदपांराशिर्लतावद्दिशो
मेघाः
पल्लववत्प्रसूनफलवन्नक्षत्रसूर्येन्दवः ।
स्वामिन्व्योमतरुः
क्रमे मम कियाञ्छ्रुत्वेति गां मारुतेः
सीतान्वेषणमादिशन्दिशतु
वो रामः सलज्जः श्रियम् ॥ ११॥
एतौ द्वौ
दशकण्ठकण्ठकदलीकान्तारकान्तिच्छिदौ
वैदेहीकुचकुम्भकुङ्कुमरजः
सान्द्रारुणाङ्काङ्कितौ ।
लोकत्राणविधानसाधुसवनप्रारम्भयूपौ
भुजौ
देयास्तामुरुविक्रमौ
रघुपतेः श्रेयांसि भूयांसि वः ॥ १२॥
बालक्रीडनमिन्दुशेखरधनुर्भङ्गावधि
प्रह्वता
ताते
काननसेवनावधि कृपा सुग्रीवसख्यावधि ।
आज्ञा
वारिधिबन्धनावधि यशो लङ्केशनाशावधि
श्रीरामस्य
पुनातु लोकवशता जानक्युपेक्षावधि ॥ १३॥
कल्याणानां
निधानं कलिमलमथनं पावनं पावनानां
पाथेयं
यन्मुमुक्षोः सपदि परपदप्राप्तये प्रस्थितस्य ।
विश्रामस्थानमेकं
कविवरवचसां जीवनं सज्जनानां
बीजं
धर्मद्रुमस्य प्रभवतु भवतां भूतये रामनाम ॥ १४॥
कल्याणोल्लाससीमा
कलयतु कुशलं कालमेघाभिरामा
काचित्साकेतधामा
भवगहनगतिक्लान्तहारिप्रणामा ।
सौन्दर्यह्रीणकामा
धृतजनकसुतासादरापाङ्गधामा
दिक्षु
प्रख्यातभूमा दिविषदभिनुता देवता रामनामा ॥ १५॥
योऽद्धा
योद्धावधीत्तान्सपदि पलभुजः सम्पराये परा ये
येनायेनाश्रितानां
स्तुतिरवनमितेशानचापेन चापे ।
लङ्कालङ्कारहर्ता
ककुभि ककुभि यः कान्तया सीतयाऽऽसीत्
ऊनो दूनोऽथ
हृष्टः स विभुरवतु वः स्वःसभार्यः सभार्यः ॥ १६॥
ऋक्षाणां
भूरिधाम्नां श्रितमधिपतिना प्रस्फुरद्भीमतारं
स्फारं
नेत्रानलेन प्रसभनियमितोच्चापमीनध्वजेन ।
रामायत्तं
पुरारेः कुमुदशुचि लसन्नीलसुग्रीवमङ्गं
प्लावङ्गं
वापि सैन्यं दशवदनशिरश्छेदहेतु श्रियेऽस्तु ॥ १७॥
यस्तीर्थानामुपास्त्या
गलितमलभरं मन्यते स्म स्वमेवं
नाज्ञासीज्जज्ञिरे
यन्ममचरणरजःपादपूतान्यमूनि ।
पादस्पर्शेन
कुर्वञ्झटिति विघटितग्रावभावामहल्यां
कौसल्यासूनुरूनं
व्यपनयतु स वः श्रेयसा च श्रिया च ॥ १८॥
ध्यायेदाजानुबाहुं
धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो
वसानं नवकमलरुचा स्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं
नीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं
दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥ १९॥
इति रामचन्द्रस्तुतिः समाप्ता ।
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