सन्ध्योपासन विधि

सन्ध्योपासन विधि

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद में विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म सन्ध्योपासन विधि:आदि का वर्णन हुआ है। युधिष्ठिर ने कहादेवदेव! आप दैत्यों के विनाशक और देवताओं के स्वामी हैं। जनार्दन! अपने इस भक्त को सन्ध्योपासन करने की विधि बताइये। श्रीभगवान बोलेपाण्डुानन्द पहले मैंने तुम्हें स्नान विधि बतलाया अब सन्ध्योपासन विधि सुनो। स्नान के बाद संध्योपासन करने के लिये हाथों में कुश लेकर पूर्वाभिमुख हो कुशासन पर बैठे और मुझमें मन लगाकर एकाग्रभाव से प्राणायाम करे। गायत्री जप करने का वर्णन फिर एकाग्रचित्त होकर एक हजार या एक सौ गायत्रीमंत्र का जप करे। मन्देह नामक राक्षसों का नाश करने के उद्देश्य से गायत्रीमंत्र द्वारा अभिमन्त्रित जल लेकर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे। उसके बाद आचमन करके उद्वर्गोसिइस मंत्र से प्रायश्चित के लिये जल छोड़े। फिर द्विज को चाहिये कि अंजलि में सुगन्धित पुष्प और जल लेकर सूर्य को अर्घ्य दे और आकाश मुद्रा का प्रदर्शन करे। तदनन्तर सूर्य के एकाक्षरमंत्र का बारह बार जप करे और उनके षडक्षर आदि मंत्रों की छ: बार पुरनावृत्ति करे। आकाशमुद्रा को दाहिनी ओर से घुमाकर अपने मुख में विलीन करे। इसके बाद दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त से सूर्य की ओर देखते हुए उनके मण्डल में स्थित मुझ चार भुजाधारी तेजोमूर्ति नारायण का एकाग्रचित्त से ध्यान करे। उस समय उदुत्यउम्’, ‘चित्रं देवानाम’, ‘तच्चनक्षु:इन मंत्रों का, यथाशक्ति गायत्रीमंत्र का तथा मुझसे सम्बन्ध रखने वाले सूक्तों  का जप करके मेरे साममन्त्रों और पुरुषसूक्त का भी पाठ करे। तत्पाश्चात् हंस: शुचिषत्इस मंत्र को पढ़कर सूर्य की ओर देखे और प्रदक्षिणा पूर्वक उन्हें नमस्कार करे। इस प्रकार संध्योपासन समाप्त करें।

सन्ध्योपासन विधि


 

अथ यजुर्वेदीय सन्ध्योपासन विधि:

 

स्नान से निवृत्त होकर पवित्र  धौतवस्त्र धारण करें धौतवस्त्र तथा उत्तरीय वस्त्र धारण के बाद सन्ध्या, तर्पण आदि नित्यकर्म करने के लिये पवित्र भूमि में कुश अथवा कंबल आदि का आसन बिछावें और पूजन-सामग्री तथा पञ्चपात्र, आचमनी, अर्घा, तष्टा आदि पात्र रख दें पश्चात आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठें और शखा बाँध लें फिर पवित्र पात्र में पवित्र जल रखकर उसे बाएँ हाथ में उठा लें और दाए हाथ के कुश से अपने शरीर पर जल सींचते हुए निम्नाङ्कित मन्त्र पढें---

अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङगतोऽपि वा । य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं बाह्याभ्यन्तर: शुचि:

मनुष्य अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी अवस्था में स्थित हो, जो पुण्डरीकाक्ष भगवान् विष्णु का स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर सब प्रकार से शुद्ध हो जाता है

फिर नीचे लिखे मन्त्र से आसन पर जल छिडक कर दाएँ हाथ से उसका स्पर्श करें---

पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता त्वं धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्

हे पृथ्वी देवि ! तुमने सम्पूर्ण लोकों को धारण कर रक्खा है और भगवान् विष्णु ने तुमको धारण किया है हे देवि तुम मुझे धारण करो और मेरे आसन को पवित्र कर दो

इसके बाद अपने मस्तक में भस्म अथवा चन्दन आदि का तिलक करें

तत्पश्चात् केशवाय नम:, नारायणाय नम:, माधवाय नम:, इन तीनों मन्त्रों को ब्राह्मतीर्थ से तीन बार आचमन करने के  पश्चात् गोविन्दाय नम:’  यह मन्त्र पढकर हाथ धो लें ) इसके बाद दो बार अंगूठे के मूल से ओठ को पोंछें, फिर हाथ धो लें (अंगूठे का मूल ब्राह्मतीर्थ है) तत्पश्चात् भीगी हुई अङ्गुलियों से मुख आदि का स्पर्श करें मध्यमा-अनामिका से मुख, तर्जनी-अङ्गुष्ठ से नासिका, मध्यमा-अङ्गुष्ठ से नेत्र, अनामिका-अङ्गुष्ठ से कान, कनिष्ठिका-अङ्गुष्ठ से नाभि, दाहिने हाथ से हृदय, सब अङ्गुलियों से सिर, पाँचों अङ्गुलियों से दाहिनी बाँह और बायीं बाँह का स्पर्श करें

तदनन्तर हाथ में जल लेकर निम्नाङ्कित संकल्प पढकर वह जल भूमि पर गिरा दें---

तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्षे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे कलियुगे कलिप्रथमचरणे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्माऽहं (अमुकवर्माऽहम् अमुकगुप्तोऽहम्) ममोपात्तपात्तदुरितक्षयपूर्वकं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्रात: [सायं अथवा मध्याह्न-] संध्योपासनं करिष्ये

इसके बाद निम्नाङ्कित विनियोग को पढें---

ऋतं चेति त्र्यृचस्य माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषिर्नुष्टुप्छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोग:

फिर नीचे लिखे मन्त्र को एक बार पढकर एक ही बार आचमन करें---

ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव: समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व: (ऋ० अ० अ० व० ४८)                                                                     

[महाप्रलय के बाद इस महाकल्प के आरम्भ में] सब ओर से प्रकाशमान तपरूप परमात्मा से ऋत (सत्संकल्प) और सत्य (यथार्थ भाषण) की उत्पत्ति हुई उसी परमात्मा से रात्रि-दिन प्रकट हुए तथा उसी से जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला कालस्वरूप संवत्सर प्रकट हुआ जो कि पलक मारने वाले चेतन प्राणियों और जडों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखने वाला है इसके बाद सब को धारण करने वाले परमेश्वर ने सूर्य, चन्द्रमा, दिव (स्वर्गलोक) पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा महर्लोक आदि लोकों की मी पूर्वकल्प के अनुसार सृष्टि की

तदनन्तर प्रणवपूर्वक गायत्री-मन्त्र पढकर अपनी रक्षा के लिये अपने चारों ओर जल छिडकें। फिर नीचे लिखे विनियोग को पढें---

कारस्य ब्रह्म ऋषिदैंवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता, सप्तव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषि र्गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्वृहतीपङ्क्तित्रिष्टु- गत्यश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्यवृहस्पतिवरुणेन्द्रविश्वेदेवा देवता:,  तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता, आपोज्योतिरिति शिरस: प्रजापतिऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायु-सूर्या देवता: प्राणायामे विनियोग:

इसके पश्चात् आँखें बंद करके नीचे लिखे मन्त्र से प्राणायाम करें उसकी विधि इस प्रकार है-पहले दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका का दायाँ छिद्र बंद करके बायें छिद्र से वायु को अंदर खीचें, साथ ही नाभि-देश में नीलकमलदल के समान श्यामवर्ण चतुर्भुज भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए प्राणायाम-मन्त्र का तीन बार पाठ कर जायँ [यदि तीन बार मन्त्र-पाठ हो सके तो एक ही बार पाठ करें और अधिक के लिये अभ्यास बढावें]---इसको पूरक कहते हैं पूरक के पश्चात् अनामिका और कनिष्ठिका अङ्गुलियों से नासिका के बायें छिद्र को भी बंद करके तब तक श्वास को रोके रहें जब तक कि प्राणायाम-मन्त्र का तीन बार [या शक्ति के अनुसार एक बार] पाठ हो जाय, इस समय हृदय के बीच कमल के आसन पर विराजमान अरूण-गौर-मिश्रित वर्णवाले चतुर्मुख ब्रह्मा जी का ध्यान करें यह कुम्भक-क्रिया है इसके बाद अंगूठा हटाकर नासिका के दाहिने छिद्र से वायु को धीरे-धीरे तबतक बाहर निकालें, जब तक प्राणायाम-मन्त्र का तीन [या एक] बार पाठ हो जाय इस समय शुद्ध स्फटिक के समान श्वेत वर्णवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् शङ्कर का ध्यान करें यह रेचक-क्रिया है यह सब मिलकर एक प्राणायाम कहलाता है प्राणायाम का मन्त्र यह है---                                                                      

भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यम् तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो : प्रचोदयात् आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम् (तै० आ० प्र० १० अ० २७)

हम स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करने वाले उन अत्यन्त प्रकाशमय परमेश्वर के भजने योग्य तेज का ध्यान करते हैं, जो कि हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं और जो भू, भुवर, स्वर, महर, जन, तप: और सत्य नामवाले समस्त लोकों में व्याप्त हैं: तथा जो सच्चिदानन्दस्वरूप जल रूप से जगत् का पालन करनेवाले, अनन्त तेज के धाम, रसमय, अमृतमय और भूर्भुव:स्व:-स्वरूप (त्रिभुवनात्मक) ब्रह्म है

फिर नीचे लिखे विनियोग को पढ़े---

सूर्यश्च मेति नारायण ऋषि: प्रकृतिश्छन्द: सूर्यमन्त्युमन्यु-पतयो रात्रिश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:  

तत्पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र को एक बार पढकर एक बार आचमन करें---

सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्या-मुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा (तै० आ० प्र० १० अ० २५)

सूर्य, क्रोध के अभिमानी देवता और क्रोध के स्वामी-ये सभी क्रोधवश किये हुए पापों से मेरी रक्षा करें रात में मैंने मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न (उपस्थ) इन्द्रिय से जो पाप किये हों, उन सब को रात्रिकालाभिमानी देवता नष्ट करें जो कुछ भी पाप मुम्क में वर्तमान है इसको और इसके कर्तृत्व का अभिमान रखने वाले अपने को मैं मोक्ष के कारणभूत प्रकाशमय सूर्यरूप परमेश्वर में हवन करता हूँ [अर्थात् हवन के द्वारा अपने समस्त पाप और अहंकार को भस्म करता हूँ] इसका भलीभाँति हवन हो जाय

उपर्युक्त आचमन-मन्त्र प्रातःकाल की संध्या का है मध्याह्न और सायंकाल के केवल आचमन-मन्त्र प्रातःकाल से भिन्न हें                                                                                                                                            

मध्याह्न का विनियोग और मन्त्र इस प्रकार है---

आप: पुनन्त्विति नारायण ऋषिर्नुष्टुप् छन्द आप: पृथिवी ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्म देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:

इस विनियोग को पढे फिर नीचे लिखे मन्त्र को एक बार पढकर एक बार आचमन करें---

आप: पुनन्तु पृथिवीं पृथिवी पूता पुनातु माम् पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम् यदुच्छिष्टमभोज्यं यद्वा दुश्चरितं मम सर्वं पुनन्तु मामापोऽसतां प्रतिग्रह ँ स्वाहा (तै० आ० प्र० १० अ० २३)

जल पृथिवी को [प्रोक्षण आदि के द्वारा] पवित्र करे पवित्र हुई पृथिवी मुझे पवित्र करे वेदों के पति परमात्मा मुझे शुद्ध करें मैंने जो कभी किसी भी प्रकार का उच्छिष्ट या अभक्ष्य भक्षण किया हो, अथवा इसके अतिरिक्त भी मेरे जो पाप हों उन सब को दूर करके जल मुझे शुद्ध कर दे तथा नीच पुरुषों से लिये हुए दानरूप दोष को भी दूर करके जल मुझे पवित्र करे पूर्वोक्त सभी दोषों का भलीभाँति हवन हो जाय

सायंकाल के आचमन का विनियोग और मन्त्र इस प्रकार है---

अग्निश्च मेति नारायण ऋषि: प्रकृतिश्छन्दोऽग्निमन्युमन्यु-पतयोऽहश्च देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:

इस विनियोग को पढें फिर नीचे लिखे मन्त्र को एक बार पढकर एक बार आचमन करें---

अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्या-मुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सत्ये ज्योतिपि जुहोमि   स्वाहा ॥ (तै० ञ्चा० प्र० १० अ० २४)

अग्नि, क्रोध के अभिमानी देवता और क्रोध के स्वामी-ये सभी क्रोधवश किये हुए पापों से मेरी रक्षा करें [अर्थात् किये हुए पापों को नष्ट करके होनेवाले पापों से बचावें] मैंने दिन में मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न (उपस्थ) इन्द्रिय से जो पाप किये हों उन सब को दिन के अभिमानी देवता नष्ट करें जो कुछ भी पाप मुम्क में वर्तमान है, इसको तथा इसके कर्तृत्व का अभिमान रखनेवाले अपने को मैं मोक्ष के कारणभूत सत्यस्वरूप प्रकाशमय परमेश्वर में हवन करता हूँ (अर्थात् हवन के द्वारा अपने सारे पाप और अहंकार को भस्म करता हूँ) इसका भलीयाँति हवन डो जाय

फिर निम्नांकित विनियोग को पढें---

आपो हि ष्ठेति त्र्यचस्य सिन्घुद्वीप ऋपिर्गायत्री छन्द आपो देवता मार्जने विनियोग:

इसके पश्चात् निम्नांकित तीन ऋचाओं के नौ चरणों में से सात चरणों को पढते हुए सिर पर जल सींचें, आठवें से पृथ्वी पर जल डालें और फिर नवें चरण को पढकर सिर पर ही जल सींचें यह मार्जन तीन कुशों अथवा तीन अङ्गुलियों से करना चाहिये ।मार्जन-मन्त्र ये हैं---                                                                                            

आपो हि ष्ठा मयोभुव: ता ऽऊर्जे दधातन महे रणाय चक्षसे यो : शिवतमो रस: तस्य भाजयतेह : उशतीरिव मातर: तस्मा ऽअरं गमाम : यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जनयथा : (शु० यजु० ११।५०, ५४, ५२)

हे जल ! तुम निश्चय ही कल्याणकारी हो, अत: [ अन्नादि रसों के द्वारा] बल की वृद्धि के लिये तथा अत्यन्त रमणीय परमात्म-दर्शन के लिये तुम हमारा पालन करो जिस प्रकार पुत्रों की पुष्टि चाहनेवाली माताएँ उन्हें अपने स्तनों का दुग्ध पान कराती हैं, उसी प्रकार तुम्हारा जो परम कल्याणमय रस है, उसके भागी हमें बनाओ हे जल ! जगत् के जीवनाधारभूत जिस रस के एक अंश से तुम समस्त विश्व को तृप्त करते हो उस रस कि पूर्णता को हम प्राप्त हों

तदनन्तर नीचे लिखे विनियोग को पढें---

द्रुपदादिवेत्यश्विसरस्वतीन्द्रा ऋषयोऽनुष्टुप्छन्द आपो देवता: शिरस्सेके विनियोग:

फिर बायें हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें और नीचे लिखे मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उसे सिर पर छिडक दें---

द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्नातो मलादिव

पूतं पवित्रेणैवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस: (शु० यजु० २०।२०)

जैसे पादुका से अलग होता हुआ मनुष्य पादुका के मलादि दोषों से मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार पसीने से भींगा हुआ: पुरुष स्नान करने के पश्चात् मैल से रहित होता हि तथा जैसे पवित्रक आदि से घी शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार जल मुझे पापों से शुद्ध करें

पनु: निम्राङ्कित विनियोग को पढें---

अघमर्षणसूक्तस्या घमर्पण ऋपिरनुष्टुप् छन्दो भाववृत्तं दैवतमघमर्षणे विनियोग:

फिर दाहिने हाथ में जल लेकर नासिक में लगावें और [यदि सम्भव हो तो श्वास रोककर] नीचे लिखे मन्त्र को तीन बार या एक सम्मव हो तो श्वास रोककर] नीचे लिखे मन्त्र को तीन बार या एक बार पढते हुए मन ही मन यह भावना करें कि यह जल नासिका के दायें छिद्र के भीतर घुसकर अन्तःकरण के पाप को बायें  छिद्र से निकाल रहा है, फिर उस जल की ओर द्दष्टि डालकर अपनी बायीं ओर फेंक दें अघमर्षण मन्त्र इस प्रकार है---

ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत तता रात्र्य-जायत तत: समुद्रो अर्णव: समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिपतो वशी सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व: (ऋ० अ०=अ०=व०४८)

इसके पश्चात् नीचे लिखे विनियोग को पढें---

अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋपिरनुष्टप्छन्द: आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोग:

फिर निन्नाङिकत मन्त्र को एक बार पढकर एक बार आचमन करें---

अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुख:

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपोज्योती रसोऽमृतम् (कात्यायनपरिशिष्टसूत्र)

हे जलरूप परमात्मन् ! तुम समस्त प्राणियों के भीतर उनकी हृदयरूप गुहा में विचरते हो, तुम्हारा सब ओर मुख है, तुम्ही यज्ञ  हो, तुम्हीं वषट्कार (इन्द्रादि का भाग हविष्य) हो और तुम्ही जल,प्रकाश, रस एवं अमृत हो।

तदनन्तर नीचे लिखे विनियोग को पढें---                                                                                            सूर्यार्घ्य

कारस्य ब्रह्म ऋपिदैंवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता, तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्या देवता:, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दसविता देवता सूर्यार्ध्यदाने विनियोग                 

फिर सूर्य के सामने एक चरण की एँडी उठाये हुए अथवा एक पैर से खडे होकर या एक पैर के आधे भाग से खडे हों कार और व्याहृतियों सहित गायत्री मन्त्र को तीन बार पढकर पुष्प मिले हुए जल से सूर्य को तीन बार अर्ध्य दें प्रातःकाल और मध्याह्न का अर्ध्य जल में देना चाहिये, यदि जल हो तो स्थल को भलीभाँति जल से धोकर उसी पर अर्ध्य का जल गिरार्वे परन्तु सायंकाल का अर्ध्य कदापि जल में दें खडे होकर अर्ध्य देने का नियम केवल प्रात: और मध्याह्न की संध्या में है, सायंकाल में तो बैठकर भूमि पर ही अर्ध्य-जल गिराना चाहिये मध्याह्न की संध्या में एक ही बार अर्ध्य देना चाहिये और प्रात: एवं सायं-संध्या में तीन-तीन बार सूर्यार्ध्य देने का मन्त्र [अर्थात् प्रणवव्याहृतिसहित गायत्री-मन्त्र] इस प्रकार है---                                                                 

भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो : प्रचोदयात् (शु० यजु० ३६।)                               हम स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करने वाले उन श्रत्यन्त प्रकाशमय परमेश्वर के भजन करने के योग्य तेज का ध्यान करते हैं,  जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं तथा जो भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकरूप सच्चिदानन्दमय परब्रह्म हैं ’ 

इस मन्त्र को पढकर ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय इदमर्ध्यं दत्तं मम ऐसा कहकर प्रातःकाल अर्घ्य समर्पण करें

                                                    सन्ध्योपासन विधि 

सूर्योपस्थान

तदनन्तर नीचे लिखे वाक्य को पढकर विनियोग करें---                                                                            

ॐ उद्वयमिति प्रस्कण्व ऋषिरनुष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता, उदुत्यमिति प्रस्कण्व ऋपिर्निचृदायत्री छन्द: सूर्यो देवता, चित्रमिति कुत्साङ्गिरस ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता, तच्चक्षुरिति दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिरेकाधिका ब्राह्मी त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोग: ।

तदनन्तर प्रात:काल में खडे़ होकर और सायंकाल में बैठे हुए ही अञ्जलि बाँध कर तथा मध्याह्नकाल में खडे़ हो दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सूर्य की ओर देखते हुए उद्वयम्इत्यादि चार मन्त्रों को पढकर उन्हें प्रणाम करें । फिर अपने स्थान पर ही सूर्यदेव की एक बार प्रदक्षिणा करते हुए उन्हें नमस्कार करके बैठ जायँ ।

ॐ उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥
(शु० यजु० २०।२१)

हम अन्धकार से ऊपर उठकर उत्तम स्वर्गलोक को तथा देवताओं में अत्यन्त उत्कृष्ट सूर्य देव को भलीभाँति देखते हुए उस सर्वोत्तम ज्योतिर्मय परमात्मा को प्राप्त हों ।

ॐ उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: ।
द्दशे विश्वाय सूर्यम् ॥
(शु० यजु० ७।४१)

उत्पन्न हुए समस्त प्राणियों के ज्ञाता उन सूर्यदेव को छन्दोमय अश्व सम्पूर्ण जगत को उनका दर्शन कराने [या द्दष्टि प्रदान करने] के लिये ऊपर ही ऊपर शीघ्रगति से लिये जा रहे हैं ।

ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुमित्रस्य वरुणस्याग्ने: ।
आग्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष, सूर्य ऽआत्मा जगतस्तस्थुपश्च ॥
(शु० यजु० ७।४२)

जो तेजोमयी किरणों के पुञ्ज हैं, मित्र-वरूण तथा अग्नि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व के नेत्र हैं और स्थावर तथा जंगम-सबके अन्तर्यामी आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य आकाश. पृथिवी और अन्तरिश्नलोक को अपने प्रकाश से पूर्ण करते हुए आश्चर्य रूप से उदित हुए हैं ।

ॐ तञ्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत, श्रृणुयाम शरद: शतं प्रत्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ॥
(शु० यजु० ३६।२४)

देवता आदि सम्पूर्ण जगत् का हित करने वाले और सबके नेत्ररूप वे तेजोमय भगवान् सूर्य पूर्व दिशा से उदित हो रहे हैं । [उनकी सन्नता से ] हम सौ वर्षों तक देखते रहें, सौ वर्षों तक जीते रहें, सौ वर्षों तक सुनते रहें, सौ वर्षों तक हम में बोलने की शक्ति रहे तथा सौ वर्षों तक हम कभी दीन-दशा को न प्राप्त हों । इतना ही नहीं, सौ वर्षों से अधिक काल तक भी हम देखें, जीवें, सुनें, बोलें एवं कभी दीन न हों ।
1– ॐ हृदयाय नम: दायें हाथ की पाँचों अँगुलियों द्वारा अपने हृदय का स्पर्श करे ।                                               

2- ॐ भू: शिरसे स्वाहा ।  दायें हाथ से अपने मस्तक  का स्पर्श करे ।                                                                    

3- ॐ भुव: शिखायै वषट् । अपने अंगूठे से शिखा का स्पर्श करे ।                                                                           

4- ॐ स्व: कवचाय हुम् । दायें हाथ की अँगुलियों द्वारा बायें कंधे का और बायें हाथ की अँगुलियों द्वारा अपने दायें कंधे का स्पर्श करे ।                                                                                                                             

5- ॐ भूर्भुव:  स्व: नेत्राभ्यां वषट् । दायें हाथ से अपने नेत्र   का स्पर्श करे ।                                                                

6- ॐ भूर्भुव:  स्व: अस्त्राय फट् । बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ को शिर से घुमाकर मध्यमा और तर्जनी अँगुली से ताली बजावे ।                                                                                                                                  

इसके बाद---

तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिऋषिर्यजुस्त्रिष्टुवृगुष्णिहौ छन्दसी सविता देवता गायत्र्यावाहने विनियोग: ।

इस विनियोग को पढकर निम्नाङ्कित मन्त्र से विनयपूर्वक गायत्री देवी का आवाहन करें---

ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि ॥
(शु० यजु- १।३१)

हे सूर्यस्वरूपा गायत्री देवि ! तुम देदीष्यमान तेजोमयी हो, शुद्ध हो और अमृत (नित्य ब्रह्मरूपा) हो । तुम्ही परम धाम और नामरूपा हो । तुम्हारा किसी से भी पराभव नहीं होता । तुम देवताओं की प्रिय और उनके यजन की साधनभूत हो [ मैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ ] ।
फिर नीचे लिखे विनियोग को पढें---

गायव्यसीति विवस्वान् ऋषि: स्वराण्महापङ्किश्छन्द: परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोग: ।
तत्पश्चात् नीचे लिखे मन्त्र से गायत्री को प्रणाम करें---

ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत् ॥
(बृहदारण्यक० ५।१४।७)

हे गायत्रि ! तुम त्रिभुवनरूप प्रथम चरण से एकपदी हो ! ऋक्, यजु: एवं सामरूप द्वितीय चरण से द्विपदी हो । प्राण, अपान तथा व्यानरूप तृतीय चरण से त्रिपदी हो और तुरीय ब्रह्मरूप चतुर्थ चरण से चतुष्पदी हो । निर्गुण स्वरूप से अचिन्त्य होने के कारण तुम अपद्हो । अतएव मन-बुद्धि के अगोचर होने से तुम सबके लिये प्राप्य नहीं हो । तुम्हारे दर्शनीय चतुर्थ पद को, जो प्रपञ्च से परे वर्तमान शुद्ध परब्रह्मस्वरूप है, नमस्कार है । तुम्हारी प्राप्ति में विघ्न डालनेवाले वे राग-द्वेष, काम-क्रोध आदिरूप पाप मेरे पास न पहुँच सकें [ अर्थात् परब्रह्मस्वरूपिणी तुमको मैं निर्विघ्न प्राप्त करूँ ।
इसके अनन्तर नीचे लिखे विनियोग को पढें---

ॐ कारस्य ब्रह्म ऋषिर्दैवी गायत्री छन्द: परमात्मा देवता, तिसृणां महाव्याहृतीनां प्रजापतिऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्या देवता:, तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता जपे विनियोग: ।

फिर नीचे लिखे अनुसार गायत्री-मन्त्र का कम से कम १०८बार माला आदि से गिनते हुए जप करें---

ॐ भूर्भुव: स्व; तत्सवितुवरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो न: प्रचोदयात् ॐ ॥
(शु० यजु० ३६।३)

हम स्थावर-जङगमरूप सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करनेवाले उन अत्यन्त प्रकाशमय परमेश्वर के भजने योग्य तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं तथा जो भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकरूप सच्चिदानन्दमय परब्रह्म हैं ।
तदनन्तर नीचे लिखे विनियोग को पढें---

विश्वतश्चक्षुरिति भौवन ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दो विश्वकर्मा देवता सूर्यप्रदक्षिणायां विनियोग: ।

फिर नीचे लिखे मन्त्र से अपने स्थान पर खडे होकर सूर्य देव की एक बार प्रदक्षिणा करें---

ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव ऽएक: ॥
(शु० यजु० १७।१६)

वे एकमात्र परमात्मा पृथिवी और आकाश की रचना करते समय धर्माधर्मरूप भुजाओं और पतनशील पञ्च महाभूतों से संगत होते अर्थात् काम लेते हैं । तात्पर्य यह कि धर्माधर्मरूप निमित्त और. पञ्चभूतरूप उपादान कारणों से अन्य साधन की सहायता लिये बिना ही सब की सृष्टि करते हैं । उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं [ अर्थात् सर्वत्र उनकी सभी इन्द्रियाँ हैं, वे उनमें व्याप्त परमात्मा के स्वरूप हैं; अत: उनके जो नेत्र आदि हैं, वे उनमें व्याप्त परमात्मा के ही नेत्र आदि हैं ]।
इसके पश्चात् बैठकर निम्नाङ्कित विनियोग को पढें---

देवा गातुविद इति मनसस्पतिऋषिर्विराडनुष्टुप्छन्दो वातो देवता जपनिवेदने विनियोग: ।
फिर---

ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित ।
मनसस्पत ऽइमं देव यज्ञ ँ स्वाहा व्बाते धा: ॥
(शु० यजु० २।२१)

हे यज्ञवेत्ता देवताओ ! आप लोग हमारे इस जपरूपी यज्ञ को पूर्ण हुआ जानकर अपने गन्तव्य मार्ग को पधारें । हे चित्त के प्रवर्तक परमेश्वर ! मैं इस जप-यज्ञ को आपके हाथ में अर्पण करता हूं । आप इसे वायुदेवता में स्थापित करें ।
इस मन्त्र को पढकर नमस्कार करने के अनन्तर यह वाक्य पढें---

अनेन यथाशक्तिकृतेन गायत्रीजपाख्येन कर्मणा भगवान् सूर्यनारायण: प्रीयतां न मम ।
इसके बाद इस विनियोग को पढें---

उत्तमे शिखरे इति वामदेव ऋषिरनुष्टुप्छन्द: गायत्री देवता गायत्रीविसर्जने विनियोग: ।
पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र को पढकर गायत्री देवी का विसर्जन करें---

ॐ उत्तमे शिखरे देवी भूम्यां पर्वतमूर्धनि ।
ब्राह्नणेभ्योऽभ्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ॥
(तै० आ० प्र० १० अ०३०)

हे गायत्री देवि ! अब आप अपने उपासक ब्राह्मणों के पास से उनकी अनुमति लेकर भूमि पर स्थित जो मेरुनामक पर्वत है उसकी शिखर पर जहाँ तुम्हारा वासस्थान है, वहाँ निवास करने के लिये सुखपूर्वक जाओ,

फिर निम्नाङ्कित वाक्य पढकर यह संध्योपासनकर्म परमेश्वर को समपित करें---

अनेन संध्योपासनाख्येन कर्मणा श्रीपरमेश्वर: प्रीयतां न मम ।

फिर भगवान् का स्मरण करें---
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥
श्रीविष्णवे नम: ॥ श्रीविष्णवे नम: ॥ श्रीविष्णवे नम: ॥

सन्ध्योपासन विधि

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