पुरुषसूक्तम्

पुरुषसूक्तम्

पुरुषसूक्तम्- पुरुष अर्थात् विराट पुरुष या महामानव । सूक्त अर्थात् स्तुति ।

पुरुषसूक्तम्

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय २- पुरुष सूक्तम्

Rudrashtadhyayi chapter 2 Purush suktam

पुरुषसूक्त का तात्पर्य एक ऐसे पुरुष की स्तुति से जो विराट है,जिसका ओर-छोर सामान्य नेत्रों से देख भी पाना संभव नहीं है। जिसे वेद पुराण नेति-नेति कह कर संबोधित करता है, जो साक्षात् परमेश्वर है। इनके अंगों में ही सारी सृष्टि समाहित हैं। इसका वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद में भी किया गया है। श्री कृष्णजी ने अपने इसी विराट स्वरूप का दर्शन अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में कराया था ।

रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के द्वितीय अध्याय में 'सहस्त्रशीर्षा पुरुषः' से 'यज्ञेन यज्ञम्' पर्यन्त १६ मन्त्र पुरुषसूक्तम् के रूप में हैं। इन मन्त्रों के नारायण ऋषि हैं एवं विराट् पुरुष देवता हैं ।

विविध देवपूजा में आवाहन से मन्त्र पुष्पाञ्जलि तक का षोडशोपचार पूजन प्रायः इन्हीं मन्त्रों से सम्पन्न होता है। विष्णुयागादि वैष्णवयज्ञों में भी पुरुषसूक्त के मन्त्रों से यज्ञ होता है।

पुरुषसूक्त के प्रथम मन्त्र में विराट् पुरुष का अति भव्य-दिव्य वर्णन प्राप्त होता है। अनेक सिरोंवाले, अनेक आँखोंवाले, अनेक चरणोंवाले वे विराट् पुरुष समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर दस अंगुल ऊपर स्थित हैं ।

रुद्राष्टाध्यायी के अध्याय २ में कुल २२ श्लोक है। जिसमें से १६ मन्त्र जो कि पुरुषसूक्तम् कहलाता है, यहाँ दिया जा रहा है और शेष अन्तिम छः मन्त्रों को उत्तरनारायणसूक्त कहते हैं,आगे दिया जाऐगा ।

रुद्राष्टाध्यायी – दूसरा अध्याय

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय २- पुरुषसूक्त 

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः पुरुषसूक्तम्

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अथ रुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः पुरुषसूक्त

सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात् ।

स भूमिसर्वतस् पृत्वाऽत्य तिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥ १॥

सभी लोकों में व्याप्त महानारायण सर्वात्मक होने से अनन्त सिरवाले, अनन्त नेत्र वाले और अनन्त चरण वाले हैं। वे पाँच तत्वों से बने इस गोलकरूप समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्माण्ड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण कर हृदय में अन्तर्यामी रूप में स्थित हैं।

पुरुष एवेदसर्वम् यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।

उता मृतत्त्व स्ये शानो यदन्ने नाति रोहति ॥ २॥

जो यह वर्तमान जगत है, जो अतीत जगत है और जो भविष्य में होने वाला जगत है, जो जगत के बीज अथवा अन्न के परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब कुछ अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है।

एतावानस्य महिमातो ज्या याँश्च पूरुषः ।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्या मृतन् दिवि ॥ ३॥

इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात भूत, भविष्यत, वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिए यह सारा विराट जगत इसका चतुर्थांश है। इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है।

त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहा भवत् पुनः ।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत् सा शना न शने अभि ॥ ४॥

यह महानारायण पुरुष अपने तीन पादों के साथ ब्रह्माण्ड से ऊपर उस दिव्य लोक में अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में निवास करता है और अपने एक चरण (चतुर्थांश) से इस संसार को व्याप्त करता है। अपने इसी चरण को माया में प्रविष्ट कराकर यह महानायण देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के नाना रूप धारण कर समस्त चराचर जगत में व्याप्त है।

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमि मथोपुरः ॥ ५॥

उस महानारायण पुरुष से सृष्टि के प्रारंभ में विराट स्वरूप ब्रह्माण्ड देह तथा उस देह का अभिमानी पुरुष (हिरण्यगर्भ) प्रकट हुआ। उस विराट पुरुष ने उत्पन्न होने के साथ ही अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। बाद में उसने भूमि का, तदनन्तर देव, मनुष्य आदि के पुरों (शरीरों) का निर्माण किया।

तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृष दाज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्या नारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥

उस सर्वात्मा महानारायण ने सर्वात्मा पुरुष का जिसमें यजन किया जाता है, ऎसे यज्ञ से पृषदाज्य (दही मिला घी) को सम्पादित किया। उस महानारायण ने उन वायु देवता वाले पशुओं तथा जो हरिण आदि वनवासी तथा अश्व आदि ग्रामवासी पशु थे उनको भी उत्पन्न किया।

तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दासि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥

उस सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए, उसी से सर्वविध छन्द उत्पन्न हुए और यजुर्वेद भी उसी यज्ञपुरुष से उत्पन्न हुआ।

तस्मा दश्वा अजायन्त ये के चो भयादतः ।

गावोह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥

उसी यज्ञपुरुष से अश्व उत्पन्न हुए और वे सब प्राणी उत्पन्न हुए जिनके ऊपर-नीचे दोनों तरफ दाँत हैं। उसी यज्ञपुरुष से गौएँ उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ पैदा हुईं।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥

सृष्टि साधन योग्य या देवताओं और सनक आदि ऋषियों ने मानस याग की संपन्नता के लिए सृष्टि के पूर्व उत्पन्न उस यज्ञ साधनभूत विराट पुरुष का प्रोक्षण किया और उसी विराट पुरुष से ही इस यज्ञ को सम्पादित किया।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किमस्या सीत् किम् बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥

जब यज्ञसाधनभूत इस विराट पुरुष की महानारायण से प्रेरित महत्, अहंकार आदि की प्रक्रिया से उत्पत्ति हुई, तब उसके कितने प्रकारों की परिकल्पना की हई? उस विराट के मुँह, भुजा, जंघा और चरणों का क्या स्वरूप कहा गया है?

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याशूद्रो अजायत ॥ ११॥

ब्राह्मण उस यज्ञोत्पन्न विराट पुरुष का मुख स्थानीय होने के कारण उसके मुख से उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसकी जाँघों से उत्पन्न हुआ तथा शूद्र उसके चरणों से उत्पन्न हुआ।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥

विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुआ, कान से वायु और प्राण उत्पन्न हुए तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।

नाभ्या आसीदन्तरिक्षशीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥

उस विराट पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ और सिर से स्वर्ग प्रकट हुआ। इसी तरह से चरणों से भूमि और कानों से दिशाओं की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार देवताओं ने उस विराट पुरुष के विभिन्न अवयवों से अन्य लोकों की कल्पना की।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।

वसन्तोऽस्यासी दाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥

जब विद्वानों ने इस विराट पुरुष के देह के अवयवों को ही हवि बनाकर इस ज्ञानयज्ञ की रचना की, तब वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु समिधा और शरद-ऋतु हवि बनी थी।

सप्तास्या सन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।

देवा यद् यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥

जब इस मानस याग का अनुष्ठान करते हुए देवताओं ने इस विराट पुरुष को ही पशु के रूप में भावित किया, उस समय गायत्री आदि सात छन्दों ने सात परिधियों का स्वरूप स्वीकार किया, बारह मास, पाँच ऋतु, तीन लोक और सूर्यदेव को मिलाकर इक्कीस अथवा गायत्री आदि सात, अतिजगती आदि सात और कृति आदि सात छन्दों को मिलाकर इक्कीस समिधाएँ बनीं।

यज्ञेन यज्ञ मय जन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥

सिद्ध संकल्प वाले देवताओं ने विराट पुरुष के अवयवों की हवि के रूप में कल्पना कर इस मानस-यज्ञ में यज्ञपुरुष महानारायण की आराधना की। बाद में ये ही महानारायण की उपासना के मुख्य उपादान बने। जिस स्वर्ग में पुरातन साध्य देवता रहते हैं, उस दु:ख से रहित लोक को ही महानारायण यज्ञपुरुष की उपासना करने वाले भक्तगण प्राप्त करते हैं।

पुरुषसूक्तम् का महत्व

पुरुषसूक्तम् के नित्य पाठ व श्रवण से भुक्ति-मुक्ति कि प्राप्ति होती है।

॥इतिः श्री पुरुषसूक्तम् ॥

श्रीसत्यनारायण व्रत कथा पढ़े॥

आगे जारी.......... उत्तर नारायणसूक्त

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