शिवसंकल्प सूक्त
रुद्राष्टाध्यायी अध्याय १ शिवसंकल्प सूक्त
Rudrashtadhyayi chapter-1 Shiv sankalpa sukta
रुद्राष्टाध्यायी
(रुद्री) के अध्याय १ में कुल १० श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है,
प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है। यह सूक्त रुद्र का
प्रथम हृदयरूपी अङ्ग है।
प्रथमाध्याय का
प्रथम मन्त्र - 'गणानां त्वा गणपति हवामहे'
बहुत ही प्रसिद्ध है । कर्मकाण्ड के विद्वान् इस मन्त्र का
विनियोग श्रीगणेशजी के ध्यान- पूजन में करते हैं। यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिये
भी प्रयुक्त होता है। शुक्लयजुर्वेद संहिता के भाष्यकार श्रीउव्वटाचार्य एवं
महीधराचार्य ने इस मन्त्र का एक अर्थ अश्वमेधयज्ञ के अश्व की स्तुति के रूप में भी
किया है।
द्वितीय एवं
तृतीय मन्त्र में गायत्री आदि वैदिक छन्दों तथा छन्दों में प्रयुक्त चरणों का
उल्लेख है । पाँचवें मन्त्र 'यजाग्रतो'- से दशम मन्त्र ‘सुषारथि' पर्यन्त का मन्त्रसमूह 'शिवसङ्कल्पसूक्त' कहलाता है। इन मन्त्रों का देवता 'मन' है। इन मन्त्रों में मनकी विशेषताएँ वर्णित हैं। प्रत्येक
मन्त्र के अन्त में 'तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु' पद आने से इसे 'शिवसङ्कल्पसूक्त' कहा गया है। साधक का मन शुभ विचारवाला हो,
इसमें ऐसी प्रार्थना की गयी है । परम्परानुसार यह अध्याय
श्रीगणेशजी का माना जाता है।
रुद्राष्टाध्यायी
- पहला अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी अध्याय १- शिवसङ्कल्पसूक्त
॥ श्रीहरिः ॥
॥ श्रीगणेशाय
नमः ॥
रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः शिवसङ्कल्पसूक्तम्
अथ
श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित
अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय
रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः
ॐ गणानान्
त्वा गणपतिئहवामहे प्रियाणान् त्वा प्रियपतिئहवामहे
निधीनान् त्वा
निधीपतिئ हवामहे वसो मम ।
आऽहमजानिगर्भधमात्त्वमजाऽसि
गर्भधम् ॥ १॥
श्रीगणेशजी के
लिये नमस्कार है । समस्त गणों का पालन करने के कारण गणपतिरूप में प्रतिष्ठित आपको
हम आवाहित करते हैं, प्रियजनों का कल्याण करने के कारण प्रियपतिरूप में
प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं और पद्म आदि निधियों का स्वामी होने के कारण
निधिपतिरूप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं । हे हमारे परम धनरूप ईश्वर !
आप मेरी रक्षा करें। मैं गर्भ से उत्पन्न हुआ जीव हूँ और आप गर्भादिरहित स्वाधीनता
से प्रकट हुए परमेश्वर हैं । आपने ही हमें माता के गर्भ से उत्पन्न किया है ॥ १ ॥
गायत्री त्रिष्टुब्जगत्य
नुष्टुप् पङ्क्त्या सह ॥
बृहत् युष्णिहा
ककुप् सूचीभिः शम्यन् तुत्वा ॥ २॥
हे परमेश्वर !
गान करनेवाले का रक्षक गायत्री छन्द, तीनों तापों का रोधक त्रिष्टुप् छन्द,
जगत् में विस्तीर्ण जगती छन्द,
संसार का कष्टनिवारक अनुष्टुप् छन्द,
पंक्ति छन्दसहित बृहती छन्द, प्रभातप्रियकारी उष्णिक् छन्द के साथ ककुप् छन्द - ये सभी
छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें ॥ २ ॥
द्विपदा याश्चतुषपदास्
त्रिपदा याश्च षट्पदाः ।
विच् छन्दा
याश्च सच् छन्दाः सूचीभिः शम्यन् तुत्वा ॥ ३॥
हे ईश्वर ! दो
पादवाले,
चार पादवाले, तीन पादवाले, छः पादवाले, छन्दों के लक्षणों से रहित अथवा छन्दों के लक्षणों से युक्त
वे सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें ॥ ३ ॥
सहस्तोमाः सहच्
छन्दस आवृतः सह प्रमा ऋषयः सप्त दैव्याः ॥
पूर्वेषां
पन्था मनुदृश्य धीरा अन्वा लेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥ ४॥
प्रजापति सम्बन्धी
मरीचि आदि सात बुद्धिमान् ऋषियों ने स्तोम आदि साममन्त्रों,
गायत्री आदि छन्दों, उत्तम कर्मों तथा श्रुतिप्रमाणों के साथ अङ्गिरा आदि अपने
पूर्वजों के द्वारा अनुष्ठित मार्ग का अनुसरण करके सृष्टियज्ञ को उसी प्रकार क्रम से
सम्पन्न किया था जैसे रथी लगाम की सहायता से अश्व को अपने अभीष्ट स्थान की ओर ले
जाता है ॥ ४ ॥
यज्जाग्रतो
दूरमुदैति दैवं तदु सुप् तस्य तथै वैति ॥
दूरङ्गमं
ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन् मे मनः शिव सङ्कल्प मस्तु ॥ ५॥
जो मन जागते
हुए मनुष्य से बहुत दूरतक चला जाता है, वही द्युतिमान् मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के
समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूरतक जानेवाला और जो प्रकाशमान श्रोत्र आदि
इन्द्रियों को ज्योति देनेवाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ ५ ॥
येन
कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ॥
यद् पूर्वं
यक्ष मन्तः प्रजानान् तन्मे मनः शिव सङ्कल्प मस्तु ॥ ६॥
कर्मानुष्ठान में
तत्पर बुद्धि सम्पन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं,
प्रजाओं के शरीर में और यज्ञीयपदार्थों के ज्ञान में जो मन
अद्भुत पूज्यभाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ ६ ॥
यत् प्रज्ञान मुत
चेतो धृतिश्च यज्ज्योति रन्तरमृतं प्रजासु ॥
यस्मान् न ऋते
किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७॥
जो मन प्रकर्ष
ज्ञानस्वरूप, चित्तस्वरूप और धैर्यरूप है; जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योतिरूप से विद्यमान है
और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता,
वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ ७ ॥
येनेदं भूतं
भुवनं भविष्यत् परि गृहीत ममृतेन सर्वम् ॥
येन यज्ञस् ता
यते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ८॥
जिस शाश्वत मन
के द्वारा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती
हैं और जिस मन के द्वारा सात होता वाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है,
वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ ८ ॥
यस्मिन् नृचः
साम यजूئषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथना भावि वाराः ॥
यस् मिंश् चित्तئसर्व मोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ९॥
जिस मन में ऋग्वेद
की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मन्त्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित हैं,
जैसे रथचक्र की नाभि में अरे (तीलियाँ) जुड़े रहते हैं,
जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान [पट में तन्तु की भाँति ]
ओतप्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ ९ ॥
सुषा रथि रश्वा
निव यन् मनुष्प्यान् ने नीयतेऽभी शुभिर् वाजिनऽइव ॥
हृत् प्रतिष्ठन्
यद जिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १०॥
जो मन
मनुष्यों को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता रहता है,
जैसे कोई अच्छा सारथि लगाम के सहारे वेगवान् घोड़ों को अपनी
इच्छा के अनुसार नियन्त्रित करता है; बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अतिवेगवान् जो मन हृदय में स्थित
है,
वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो ॥ १० ॥
इति
रुद्राष्टाध्यायी शिवसङ्कल्पसूक्तनाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ।।
॥ इस प्रकार
रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) - का पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥
आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 2 पुरुषसूक्त उत्तरनारायणसूक्त
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