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Kalika puran chapter 44
कालिकापुराणम्
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः कालीहरसमागमः
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४४
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ श्रुत्वा
वचः शम्भोर्गिरिजातीव हर्षिता ।
मेने प्राप्तं
तदा शम्भुं सुन्दरं दयितं पतिम् ।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- इसके बाद, शिव के वचनों को सुनकर, गिरिजा(पार्वती), अत्यन्त प्रसन्न हुई तथा उन्हीं शिव जैसे सुन्दर,
प्रिय पति को अपने लिए उपलब्ध माना ॥ १ ॥
अथ प्राह तदा
काली सखीवक्त्रेण शङ्करम् ।
यथा स शृणुते
वाक्यं श्रोतुमिच्छंश्च शङ्करः ।।२।।
तब काली ने
सखी के मुख से शङ्कर से कहा, जिससे उनके वचनों को सुनने की इच्छा रखने वाले शङ्कर भी,
उनकी बात सुन सकें ॥ २ ॥
न
सन्धावतिभेदेन प्रवर्तन्तेऽत्र सज्जनाः ।
मर्यादया
हरस्तं मे पाणिं गृह्णातु शङ्करः ॥३॥
सज्जनपुरुष
मिलन हेतु अत्यन्त गुप्त रूप से प्रवृत्त नहीं होते। हे हर ! हे शङ्कर ! आप
मर्यादापूर्वक मेरा पाणिग्रहण करें ।। ३ ।।
पितृदत्ता भवेत्
कन्या तपोदत्ता भवेन्नहि ।
तपसा चेत्
प्रदत्ताहं मां तातश्च प्रदास्यति ॥४॥
कन्या तो पिता
के द्वारा ही वर को दी जाती है, तपस्या के द्वारा नहीं । यदि मैं तपस्या द्वारा भी आपको
देने योग्य हो गई हूँ, तो भी मुझे, पिता ही आपको प्रदान करेंगे ॥ ४ ॥
तस्मात्
सम्प्रार्थ्य पितरं हिमवन्तं नगेश्वरम् ।
वैवाहिकेन
विधिना पाणिं गृह्णातु मे हरः ॥५॥
इसलिए हे शिव
! मेरे पिता पर्वतराज हिमालय से प्रार्थना कर, वैवाहिक विधि से आप मेरा पाणिग्रहण करें।।५।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
विररामाथ काली लज्जासमन्विता ।
हरोऽपि तद्वचः
सत्यं तथ्यं योग्यं तदाग्रहीत् ।। ६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- ऐसा कहकर काली, लज्जा से युक्त हो मौन हो गयी तथा शिव ने भी उस समय के उनके
वचन को सत्य, उचित और तथ्यपूर्ण मानकर स्वीकार कर लिया ॥ ६ ॥
ततः स सगणः
शम्भुस्तत्र वासं तदाकरोत् ।
गङ्गावतरणे सानौ
यथापूर्वं तथाधुना ॥७॥
तब वे शिव उस
समय गणों के सहित वहाँ, गङ्गावतरण नामक शिखर पर पहले की ही भाँति,
निवास करने लगे ॥ ७ ॥
काली पितुर्गृहं
याता सखीभिः परिवारिता ।
नालोकयन्ती सा
दीना गुरूणां वदनं सती ।।८।।
काली भी सखियों
के साथ घिरी हुई पिता के घर चली गयीं। वे दीन भाव (लज्जा) ग्रस्त होने के कारण
बड़ों (माता-पिता) के मुख की ओर नहीं देखती थीं ॥ ८ ॥
एतस्मिन्नन्तरे
सप्तमरीचिप्रमुखान् मुनीन् ।
चिन्तयामास
शशिभृत् कालीं प्रार्थयितुं तदा ।। ९ ।।
तब इसी बीच
चन्द्रमा को धारण करने वाले शिव द्वारा काली से प्रार्थना के लिए मरीचि आदि
सप्तर्षियों का चिन्तन किया गया ।। ९ ।।
चिन्तिताः
सप्तमुनयस्तत्क्षणान्मदनारिणा ।
आकृष्टा इव
केनापि तत्सकाशमुपागताः ।। १० ।।
मदन (कामदेव)
के शत्रु,
शिव द्वारा चिन्तन किये जाते ही,
किसी के द्वारा खींचे जाते हुए की भाँति वे सप्तर्षि,
तत्क्षण उनके समीप आ गये ॥ १० ॥
तान् मुनीन्
ददृशे शम्भुः सप्ताग्नीनिव दीपितान् ।
अरुन्धतीं
वसिष्ठस्य सकाशे ददृशे सतीम् ।। ११ ।।
शिव ने सात
अग्नियों की भाँति देदीप्यमान् उन सात मुनियों को तथा वसिष्ठ मुनि के समीप सती
अरुन्धती देवी को देखा ॥। ११ ॥
अरुन्धतीं ततो
दृष्ट्वा वसिष्ठस्य समीपतः ।
मेने योषिद्ग्रहं
धर्म मुनिभिश्चाप्यवर्जितम् ।। १२ ।।
तब अरुन्धती
को वसिष्ठमुनि के समीप देखकर उन्होंने माना कि पत्नी को ग्रहण करना धर्म है,
जो मुनियों द्वारा भी अवर्जित अर्थात् समर्थित है ॥ १२ ॥
ततस्ते मुनयः
सर्वे सम्पूज्य वृषभध्वजम् ।
इदमूचुः प्रहर्षेण
स्मरणाकर्षिताः प्रियम् ।। १३ ।।
तब उन सब
मुनियों ने जिनके स्मरण से आकर्षित होकर वे आये थे, उन प्रिय, वृषभध्वज की पूजा की तथा वे उनसे प्रसन्नतापूर्वक यह बोले –
॥ १३ ॥
कालिका पुराण अध्याय ४४
अब इससे आगे श्लोक १४ से १८ में शिव स्तुति को दिया गया है
इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण अध्याय ४४
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति संस्तुत्य
देवेशं मुनयो विनयानताः ।
ऊचुः किमर्थं भवता
स्मृतास्तन्नो निगद्यताम् ।। १९ ।।
मार्कण्डेय
बोले- देवाधिदेव शिव की ऐसी स्तुति कर मुनियों ने नम्रतापूर्वक उनसे पूछा कि हम
लोग किस निमित्त आप द्वारा स्मरण किये गये हैं, वह हमें बताइये ॥ १९ ॥
तेषां तद्वचनं
श्रुत्वा शङ्करः प्रहसन्निव ।
जगाद
तान्मुनीन् सर्वानाभाष्य च पृथक् पृथक् ।। २० ।।
उन मुनियों के
उन वचनों को सुनकर हँसते हुये शिव ने सबसे अलग-अलग कहा- ॥ २० ॥
।। ईश्वर उवाच
।।
हिताय सर्वजगतां
सम्भोगायात्मनस्तथा ।
दारान् ग्रहीतुमिच्छामि
तथा सन्तानवृद्धये ।। २१ ।।
ईश्वर (शिव)
बोले-सम्पूर्ण जगत् के कल्याण तथा अपनी सम्भोगेच्छा की पूर्ति एवं सन्तानवृद्धि
हेतु मैं स्त्रियों को ग्रहण करना चाहता हूँ ॥ २१ ॥
सहायं तत्र
कुर्वन्तु भवन्तो मम साम्प्रतम् ।
मदर्थे च ततः
कालीं याचन्तां तुहिनाचलम् ।। २२।।
उसमें आप सब,
इस समय मेरी सहायता कीजिये तथा हिमालय पर्वत से मेरे लिये
उनकी पुत्री, काली की याचना कीजिये ॥ २२ ॥
महता तपसा
काली मां पतिं लघु विन्दताम् ।
किन्तु
ग्रहीष्ये विधिना तस्माद् याचन्तु तं गिरिम् ।। २३ ।।
यद्यपि काली
ने अपनी महती तपस्या द्वारा मुझे पति के रूप में सहजता से वरण कर लिया है तथापि वह
विधिपूर्वक ग्रहण करेगी; इसलिये आप उस पर्वतराज हिमालय से मेरे लिए याचना करें ।। २३
।।
यथा यथा स्वयं
कालीं शैलो दातुं समुत्सहेत् ।
तथा तथा
विदध्वं हि यूयं वाग्विभवान्विताः ।। २४ ।।
आप सब
वाग्वैभव से युक्त हैं; इसलिये जिससे हिमालय पर्वत, स्वयं काली को मुझे प्रदान करने का उत्साह दिखाएँ,
वैसी ही योजना आप सब कीजिए ॥
२४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
हरं सम्बोध्य
मुनयो ह्यगच्छन् गिरिराड्गृहम् ।
तेन
प्रपूजितास्ते तु प्रोचुस्तं मुनयो गिरिम् ।। २५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- शिव को सम्बोधित कर मुनिगण गिरिराज हिमालय के यहाँ पहुँच गये तथा उनसे पूजित
हो,
उन मुनियों ने पर्वतराज से कहा- ॥ २५ ॥
।। मुनयः ऊचुः
।।
यश्चन्द्रशेखरो
देवो देवदेवश्च यो मतः ।
शापानुग्रहणे
शक्तो य एको जगतां पतिः ।। २६ ।।
मुनिगण बोले-
जो देवता,
चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं,
जो हमारी दृष्टि में देवाधिदेव हैं,
जो शाप और अनुग्रह दोनों में ही समर्थ हैं,
जो जगत् के एक मात्र स्वामी हैं ।॥ २६ ॥
यः संहरति
सर्वाणि जगन्ति प्रलयोद्भवे ।
यो विभूतिप्रदो
भक्ते नानारूपो मनोहरः ।
स ते दुहितरं
कालीं भार्यामादातुमिच्छति ।। २७।।
जो प्रलयकाल
में समस्त जगत का संहार करते हैं, जो अनेक रूपों में भी मनोहर हैं तथा जो भक्तों को
ऐश्वर्यप्रदान करने में समर्थ हैं, वे ही शिव, तुम्हारी पुत्री, काली को पत्नी के रूप में ग्रहण करना चाहते हैं ।।२७।।
यदि पश्यसि
त्वं योग्यं वरं तं दुहितुः समम् ।
तदा प्रयच्छ
तनयां कालीं शशिभृते गिरे ।। २८ ।।
हे गिरि ! यदि
तुम उन्हें अपनी कन्या के योग्य वर समझते हो तो अपनी कन्या,
काली को उन चन्द्रधरशिव को प्रदान करो ॥ २८ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्तस्तैर्गिरिपतिश्चिरं
स्वहृदयस्थितम् ।। २९ ।।
दुहितुश्च
प्रियं ज्ञात्वा प्राप्य सद्वचनान्मुदम् ।
आह चेदं
प्रकाशेन युष्माभिस्त्वहमागतैः ॥३०॥
पावितो
मुनिशार्दूलैः पूरितश्च मनोरथः ।
दास्यामि
शम्भवे पुत्रीं युष्माभिः प्रार्थितस्त्वहम् ।। ३१ ।।
मार्कण्डेय
बोले- चिरकाल से, अपने हृदय में स्थित तथा पुत्री के भी प्रिय को जानकर एवं
प्राप्तकर, उनके इस प्रकार के उत्तम वचनों के कहे जाने पर, पर्वतराज ने प्रकट रूप से प्रसन्नतापूर्वक कहा –
हे मुनि शार्दूलों ! आप लोगों के यहाँ आने से मैं पवित्र हो
गया तथा मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया है। मैं आपलोगों की प्रार्थना के अनुसार शिव के
लिए अपनी पुत्री अवश्य प्रदान करूंगा ।। २९-३१ ।।
पूर्वमेव तपस्तप्त्वा
तयेशः पतिरीहितः ।
धातुर्नियोजनमिदं
कोऽन्यथा कर्तुमुत्सहेत् ।।३२।।
पहले ही उसके
द्वारा तपस्या करके शिव की पति के रूप में इच्छा की गयी है । यह विधाता की ही
योजना है। भला कौन इसे अन्यथा करने का साहस कर सकता है?
।। ३२ ।।
कोऽन्यः
प्रार्थयितुं शक्तः सुतां मम विना हरात् ।
हरेणावगृहीताया
तामन्यः कः समुत्सहेत् ।।३३।।
शिव के
अतिरिक्त और कौन मेरी कन्या हेतु प्रार्थना कर सकता है ?
जिसको शिव ने ग्रहण कर लिया है,
उसे अन्य कौन ग्रहण करने का साहस कर सकता है ?
।। ३३ ।।
हरं गृहीत्वा
मनसा नान्यं सापीह वाञ्छति ।
इत्युक्त्वा
मेनया सार्धं सुतां दातुं च शम्भवे ।
अङ्गीकृत्य
विसृष्टास्ते ह्यनुप्रापुर्महेश्वरम् ।। ३४ ।।
शिव को ग्रहण
करने के बाद, वह भी किसी अन्य को, मन से भी नहीं चाहती। ऐसा कहकर मैना के सहित हिमालय द्वारा
शिव के लिए कन्यादान की बात स्वीकार कर लिये जाने पर,
उनके द्वारा विसर्जित हो, वे सप्तर्षि शिव के समीप, पहुँच गये ।। ३४ ।।
ते गत्वा
मुनयः सर्वे मरीचिप्रमुखा द्विजाः ।। ३५ ।।
शैलराजो यदाचष्ट
तदूचुर्मदनारये ।
हिमवांस्तनयां
दातुं तुभ्यमुत्सहते हरः ।। ३६ ।।
हे द्विजों !
उन मरीचि आदि ऋषियों ने वहाँ जाकर पर्वतराज हिमालय ने जो कुछ कहा था,
वह कामदेव के शत्रु, शिव से कह दिया । हे शिव ! हिमालय आपको अपनी कन्या देने के
लिए उत्साहित हैं ।। ३५-३६ ।।
यदिदानीं
त्वया कुर्तुं युज्यते क्रियतां तु तत् ।
अस्मांश्चाप्यनुजानीहि
हर गन्तुं निजास्पदम् ।। ३७।।
अब आपको जो
करना उचित हो, वह कीजिये। हमको भी अपने स्थानों पर लौटने की आज्ञा दीजिये ॥ ३७ ॥
सिद्धं
ज्ञात्वा हरः साध्यं मुदितस्तान् विसृष्टवान् ।
यथायोग्यं
समाभाष्य क्रमादेकैकशो मुनीन् ।। ३८ ।।
शिव ने
उद्देश्य पूरा हुआ जानकर, एक-एक मुनि से क्रमशः यथायोग्य वार्तालाप कर,
उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदा किया ॥ ३८ ॥
कालीविवाहावसरे
यूयमायात मां प्रति ।
इति ते वै
हरेणोक्तं प्रतिश्रुत्यर्षयो ययुः ।। ३९ ।।
मेरे तथा काली
के विवाह के अवसर पर आप सब पुनः पधारियेगा ऐसा शिव द्वारा कहे जाने पर उसे स्वीकार
कर,
ऋषिगण अपने-अपने स्थानों को चले गये ।। ३९ ।।
अथान्योन्यप्रियतया
कृत्वा कृत्वा गतागतम् ।
समयं कारयामास
विवाहाय हरो गिरिम् ।। ४० ।।
इस प्रकार
परस्पर्श प्रेमपूर्वक गमनागमन करके हिमालय से शिव ने विवाह हेतु अनुबन्ध किया ॥ ४०
॥
माधवे मासि
पञ्चम्यां सिते पक्षे गुरोर्दिने ।
चन्द्रे
चोत्तरफाल्गुन्यां भरण्यादौ स्थिते रवौ ।। ४१ ।।
आगता
मुनयस्तत्र मरीचिप्रमुखा मुहुः ।
हरेण
चिन्तिताः सर्वे तथा ब्रह्मादयः सुराः ।।४२।।
तथा च सर्वे
दिक्पाला मुनयश्च तपोधनाः ।
शच्या सह तथा
शक्रो ब्रह्माण्याद्यास्तु मातरः ।
नारदश्च गतस्तत्र
देवर्षिर्ब्रह्मणः सुतः ।।४३।।
वैशाखमास की
शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि को गुरुवार के दिन जब चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनि नक्षत्र
तथा सूर्य रोहिणी नक्षत्र में थे। तब शिव द्वारा स्मरण किये जाते ही मरीचि आदि
मुनिगण दुबारा तथा ब्रह्मादि सभी देवता, सभी दिक्पाल, तपस्वी मुनिगण, शची के सहित देवराज इन्द्र एवं ब्रह्माणी आदि मातृकायें आ
गयीं और ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद भी वहाँ पहुँच गये ।। ४२-४३ ।।
एतैः परिचरैः
सार्धं गणैराप्यायितः स्वकैः ।
वैवाहिकेन विधिना
गिरिपुत्रीं हरोऽग्रहीत् ।। ४४ । ।
इन परिचरों
तथा अपने गणों के सहित शिव ने विवाह-विधि से पार्वती का पाहिग्रहण किया ।। ४४ ।
विवाहे गिरिजा
शम्भोः सर्पा येऽष्टौ तनौ स्थिताः ।
ते
जाम्बुनदसंनद्धा अलङ्कारास्तदाभवन् ।। ४५ ।।
द्विभुजोऽभून्महादेवो
जटाः केशत्वमागताः ।
शिरस्थितश्चन्द्रखण्ड:
सोऽर्चिषा ज्वलितोऽभवत् ।। ४६ ।।
शिव पार्वती
के विवाह के समय शिव के शरीर पर जो आठ सर्प थे, वे स्वर्ण से बने हुये सुन्दर आभूषण हो गये,
स्वयं महादेव चतुर्भुज से दो भुजाओं वाले हो गये,
तथा उनकी जटाओं ने केश का रूप धारण कर लिया उनके सिर पर जो
चन्द्रखण्ड था वह किरणों से देदीप्यमान हो उठा ।। ४५-४६ ।।
विचित्रवसनं
व्याघ्रकृत्तिरासीत्तदा द्विजाः ।
विभूतिलेपो
ह्यस्याभूत् सुगन्धिमलयोद्भवः ॥४७।।
गौररूपो हरस्तत्र
बभूवाद्भुतदर्शनः ।।४८।।
हे द्विजों !
उस समय उनका जो वस्त्र, व्याघ्र और हाथी के चर्म का था वह रंग-बिरंगा वस्त्र हो गया
तथा उनका भस्म का लेप सुगन्धित चन्दन का लेप हो गया। उस समय शिव भी अद्भुत दिखायी
देने वाले, गौरवर्ण के हो गये ।। ४७-४८ ।।
ततो देवाः
सगन्धर्वाः सिद्धविद्याधरोरगाः ।
विस्मयं परमं
जग्मुर्हरं दृष्ट्वा तथाविधम् ।। ४९ ।।
तब शिव को उस
प्रकार का देखकर, गन्धर्वों, विद्याधरों, सिद्धों, नागों के सहित देवगण, परम विस्मय को प्राप्त हुये ।। ४९ ।।
हिमवान् मुदितश्चासीत्
सहपुत्रैश्च मेनया ।
ज्ञातयश्चास्य
मुमुहुर्हरं दृष्ट्वा तथाविधम् ।। ५० ।
हिमालय अपने
पुत्रों एवं मेनका तथा जाति भाइयों के सहित शिव के उस रूप को बार-बार देखकर मोहित
हो गये । ५० ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
इदं ब्रह्मा
तत्र जगौ हरं दृष्ट्वा मनोहरम् ।। ५१ ।।
सर्वं शिवकरं
यस्मात् सुवेशमभवत्सुराः ।
तस्माच्छिवोऽयं
लोकेषु नाम्नाख्यातोऽधिकः शिवः ।। ५२ ।।
ब्रह्मा बोले-
उस समय शिव के उस सुन्दर रूप को देखकर ब्रह्मा ने यह कहा - हे देवताओं ! शिव का
सम्पूर्ण वेश इस समय कल्याणकर हो गया है। इसीलिए यह शिव इस नाम से लोक में विशेष
प्रसिद्ध होंगे ।। ५१-५२ ।।
महेश्वरमुमायुक्तमीदृशं
यः स्मरेद्धृदा ।
सततं तस्य
कल्याणं वाञ्छितं च भविष्यति ।। ५३ ।।
इस प्रकार के
उमा के सहित शिव का जो हृदय में स्मरण करेगा उसका सदैव अभीष्ट कल्याण होगा ।। ५३
।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवं काली महामाया
योगनिद्रा जगत्प्रसूः ।
पूर्वं
दाक्षायणी भूत्वा पश्चाद् गिरिसुताभवत् ।।५४।।
योगनिद्रा,
महामाया, काली इस प्रकार से पहले दक्ष की पुत्री सती होकर बाद में
गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हुईं ॥ ५४ ॥
स्वयं
समर्थापि सती काली सम्मोहितुं हरम् ।
तथाप्युग्रं
तपस्तेपे हिताय जगतां शिवा ।
एवं
सम्मोहयामास कालिका चन्द्रशेखरम् ।।५५ ।।
स्वयं शिव को
सम्मोहित करने में समर्थ, उस कल्याणकारिणी काली ने संसार के कल्याण के लिए,
इसी कार्य हेतु उग्र तपस्या की। इस प्रकार से काली ने
चन्द्रशेखर शिव को सम्मोहित किया ।। ५५ ।।
इत्येतत्
कथितं सर्वं त्यक्तदेहा सती यथा ।
हिमवत्तनया भूत्वा
पुनः प्राप महेश्वरम् ।।५६।।
जिस प्रकार से
सती ने शरीर का त्याग किया तथा हिमालय की पुत्री होकर पुनः महेश्वर,
शिव को पतिरूप में प्राप्त किया,
वह सब मैंने आप लोगों से कह दिया- ॥ ५६ ॥
इदं यः
कीर्तयेत् पुण्यं कालिकाचरितं द्विजाः ।
नाधयो
व्याधयस्तस्य दीर्घायुः स च जायते ।। ५७ ।।
हे द्विजों !
जो इस पवित्र कालिका चरित का कीर्तन (कथन) करेगा, उसे किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होता तथा वह
दीर्घायु हो जाता है ।। ५७ ॥
इदं पवित्रं
परममिदं कल्याणवर्धनम् ।
श्रुत्वापि सकृदेवेदं
शिवलोकाय गच्छति ।।५८।।
इस परम पवित्र,
कल्याणवर्धक चरित को एक बार भी सुनकर व्यक्ति शिवलोक चला
जाता है ।। ५८ ।।
यः श्राद्धे
श्रावयेद्विप्रान् कालिकाचरितं महत् ।
पितरस्तस्य
कैवल्यमाप्नुवन्ति न संशयः ।। ५९ ।।
जो श्राद्ध
में ब्राह्मणों को यह महान् कालिकाचरित सुनाता है, उसके पितर कैवल्य (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं;
इसमें कोई संशय नहीं है ।। ५९ ।।
यः श्रावयेद्
ब्राह्मणानां सन्निधौ वा समागतः ।
तत्र स्वयं
हरो गत्वा शृणोति सह मायया ॥६०॥
जो ब्राह्मणों
के निकट जाकर या उनके आने पर इसे सुनाता है तो स्वयं शिव,
माया (काली) के सहित वहाँ जाकर इसका श्रवण करते हैं ।। ६०
।।
इति वः कथितं
पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
युष्मभ्यं
रोचते चान्यद्यत्तत् पृच्छन्तु सत्तमाः ।। ६१ ।।
यह मैंने आप लोगों
से सभी पापों को नष्ट करने वाला, अत्यन्त पुण्यमय, कालिकाचरित कह दिया ।
हे द्विजसत्तमों ! यदि आप लोगों को कुछ और अच्छा लगता हो तो
उसे पूछिये ॥ ६१ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कालीहरसमागमो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४॥
॥
श्रीकालिकापुराण में कालीहरसमागम नामक चौवालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ४४ ॥।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 45
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