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कर्मकाण्ड

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अप्रतिरथ सूक्त

अप्रतिरथ सूक्त

रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय ३ में कुल १७ श्लोक है। तृतीयाध्याय के 'आशुः शिशानः०' से लेकर द्वादश मन्त्रों को अप्रतिरथसूक्त कहा जाता है। यह रुद्र का कवचरूप चतुर्थ अङ्ग है ।

अप्रतिरथसूक्त

अप्रतिरथसूक्त

Apratirath sukta

तृतीयाध्याय अप्रतिरथसूक्त के रूप में ख्यात है । कतिपय मनीषी 'आशुः शिशानः' से आरम्भ करके 'अमीषाञ्चित्तम्' पर्यन्त द्वादश मन्त्रों को स्वीकारते हैं। कुछ विद्वान् इन मन्त्रों के उपरान्त 'अवसृष्टा' से 'मर्माणि ते' पर्यन्त ५ मन्त्रों का भी समावेश करते हैं। तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैं। इस अध्याय को अप्रतिरथसूक्त मानने का कारण कदाचित् यह है कि इन मन्त्रों के ऋषि अप्रतिरथ हैं। भावात्मक दृष्टि से विचार करें तो अवगत होता है कि इन मन्त्रों द्वारा इन्द्र की उपासना करने से शत्रुओं-स्पर्धकों का नाश होता है, अतः यह 'अप्रतिरथ' नाम सार्थक प्रतीत होता है। उदाहरण के रूप में प्रथम मन्त्र का अवलोकन करें-

ॐ आशुः शिशानो.......... अजयत् साकमिन्द्रः ॥ अर्थात् 'त्वरा से गति करके शत्रुओं का नाश करनेवाला, भयंकर वृषभ की तरह सामना करनेवाले प्राणियों को क्षुब्ध करके नाश करनेवाला, मेघ की तरह गर्जना करनेवाला, शत्रुओं का आवाहन करनेवाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी देवराज इन्द्र शतशः सेनाओं पर विजय प्राप्त करता है।'

रुद्राष्टाध्यायी तीसरा अध्याय अप्रतिरथ सूक्त

Rudrashtadhyayi chapter-3

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय ३- अप्रतिरथसूक्त

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी तृतीयोऽध्यायः अप्रतिरथसूक्तम्

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अथ रुद्राष्टाध्यायी तृतीयोऽध्यायः

आशुः शिशानो वृषभो नभी मो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् ॥

सङ्क्रन्दनोऽ निमिष एक वीरः शत सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥ १॥

शीघ्रगामी वज्र के समान तीक्ष्ण, वर्षा के स्वभाव की उपमा वाले, भयकारी, शत्रुओं के अतिशय घातक, मनुष्यों के क्षोभ के हेतु, बार-बार गर्जन करने वाले, देवता होने से पलक ना झपकाने वाले, अत्यन्त सावधान तथा अद्वितीय वीर इन्द्र एक साथ ही शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को जीत लेते हैं।

सङ्क्रन्दने ना निमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना ।

तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषु हस्तेन वृष्णा ॥ २॥

हे युद्ध करने वाले मनुष्यों ! प्रगल्भ तथा भय रहित शब्द करने वाले, अनेक युद्धों को जीतने वाले, युद्धरत, एकचित्त होकर हाथ में बाण धारण करने वाले, जयशील तथा स्वयं अजेय और कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र के प्रभाव से उस शत्रु सेना को जीतो और उसे अपने वश में करके विनष्ट कर दो।

स इषु हस्तैः स निषङ्गिभिर्वशी स स्रष्टा स युध इन्द्रो गणेन ॥

सृष्ट जित्सौमपा बाहु शर्द्ध्युग्र धन्वा प्रति हिताभिरस्ता ॥ ३॥

वे जितेन्द्रिय अथवा शत्रुओं को अधीन करने वाले, हाथ में बाण लिए हुए धनुर्धारियों को युद्ध के लिए ललकारने वाले इन्द्र शत्रु समूहों को एक साथ युद्ध में जीत सकते हैं। यजमानों के यज्ञ में सोमपान करने वाले, बाहुबली तथा उत्कृष्ट धनुष वाले वे इन्द्र अपने धनुष से छोड़े हुए बाणों से शत्रुओं का नाश कर देते हैं। वे इन्द्र हमारी रक्षा करें।

बृहस्पते परिदीया रथेन रक्षोहाऽमित्रा अपबाधमानः ॥

प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधा जयन्नस्माक मेध्यविता रथानाम् ॥ ४॥

हे बृहस्पते ! आप राक्षसों का नाश करने वाले होवें, रथ के द्वारा सब ओर विचरण करें, शत्रुओं को पीड़ित करते हुए और उनकी सेनाओं को अतिशय हानि पहुँचाते हुए युद्ध में हिंसाकारियों को जीतकर हमारे रथों की रक्षा करें।

बलविज्ञाय स्थविर: प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः ॥

अभिवीरोऽभिसत्त्वा सहोजा जैत्र मिन्द्र रथ मा त्तिष्ठ गोवित् ॥ ५॥

हे इन्द्र ! आप दूसरों का बल जानने वाले, अत्यन्त पुरातन, अतिशय शूर, महाबलिष्ठ, अन्नवान, युद्ध में क्रूर, चारों तरफ से वीर योद्धाओं से युक्त, सभी ओर से परिचारकों से आवृत, बल से ही उत्पन्न, स्तुति को जानने वाले तथा शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले हैं, आप अपने जयशील रथ पर आरोहण करें।

गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्त मज्म प्रमृणन्तमो जसा ॥

इम सजाता अनु वीरयध्व मिन्द्र सखायोऽनु स रभध्वम् ॥ ६॥

हे समान जन्म वाले देवताओं ! असुरकुल के नाशक, वेदवाणी के ज्ञाता, हाथ में वज्र धारण करने वाले, संग्राम को जीतने वाले, बल से शत्रुओं का संहार करने वाले इस इन्द्र को पराक्रम दिखाने के लिए उत्साह दिलाइये और इसको उत्साहित करके आप लोग स्वयं भी उत्साह से भर जाइये।

अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शत मन्यु रिन्द्रः ।

दुश्च्यवनः पृतना षाड युध्योऽस्माक सेना अवतु प्र युत्सु ॥ ७॥

शत्रुओं के प्रति दयाहीन, पराक्रम संपन्न, अनेक प्रकार से क्रोधयुक्त अथवा सैकड़ों यज्ञ करने वाले, दूसरों से विनष्ट न होने योग्य, शत्रु सेना का संहार करने वाले तथा किसी के द्वारा प्रहरित न हो सकने वाले इन्द्र संग्रामों में असुर कुलों का एक साथ नाश करते हुए हमारी सेना की रक्षा करें।

इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञ: पुर एतु सोमः ॥

देव सेना ना मभि भञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८॥

बृहस्पति तथा इन्द्र सभी प्रकार की शत्रु-सेनाओं का मर्दन करने वाली विजयशील देवसेनाओं के नायक हैं। यज्ञपुरुष विष्णु, सोम और दक्षिणा इनके आगे-आगे चलें, सभी मरुद्गण भी सेना के आगे-आगे चलें।

इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुता शर्ध उग्रम् ॥

महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयता मुदस्थात् ॥ ९॥

महानुभाव, सारे लोकों का नाश करने की सामर्थ्य वाले तथा विजय पाने वाले देवताओं, बारह आदित्यों, मरुद्गणों, कामना की वर्षा करने वाले इन्द्र और राजा वरुण की सभा से जय-जयकार का शब्द उठ रहा है।

उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्त्वनां मामकानां मना सि ।

उद् वृत्रहन् वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥ १०॥

हे इन्द्र ! आप अपने शस्त्रों को भली प्रकार सुसज्जित कीजिए, मेरे वीर सैनिकों के मन को हर्षित कीजिए। हे वृत्रनाशक इन्द्र ! अपने घोड़ों की गति को तेज कीजिए, विजयशील रथों से जयघोष का उच्चारण हो।

अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इष वस्ता जयन्तु ॥

अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु ॥ ११॥

शत्रु की पताकाओं के मिलने पर इन्द्र हमारी रक्षा करें, हमारे बाण शत्रुओं को नष्ट कर उन पर विजय प्राप्त करें और हमारे वीर सैनिक शत्रुओं के सैनिकों से श्रेष्ठता प्राप्त करें। हे देवगण ! आप लोग संग्रामों में हमारी रक्षा कीजिए।

अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि ॥

अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेना मित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥ १२॥

हे शत्रुओं के प्राणों को कष्ट देने वाली व्याधि ! इन वैरियों के चित्त को मोहित करती हुई इनके सिर आदि अंगों को ग्रहण करो, तत्पश्चात दूर चली जाओ और पुन: उनके पास जाकर उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दो। हमारे शत्रु घने अन्धकार से आच्छन्न हो जाएँ।

अवसृष्टा परापतशरव्ये ब्रह्म स शिते ।

गच्छा मित्रान् प्रपद्यस्व माऽमीषां कञ्चनोच्छिषः ॥ १३॥

वेद-मन्त्रों से तीक्ष्ण किये हुए हे बाणरूप ब्रह्मास्त्र ! मेरे द्वारा प्रक्षित किये गये तुम शत्रु सेना पर गिरो, शत्रु के पास पहुँचो और उनके शरीरों में प्रवेश करो। इनमें से किसी को भी जीवित न छोड़ो।

प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छन्तु ॥

उग्रा वः सन्तु बाहवोऽना धृष्या यथाऽसथ ॥ १४॥

हे हमारे वीर पुरुषों ! शत्रु की सेना पर शीघ्र आक्रमण करो और उन पर विजय पाओ। इन्द्र तुम लोगों का कल्याण करे, तुम्हारी भुजाएँ शस्त्र उठाने में समर्थ न हों, जिससे किसी भी प्रकार तुम लोग शत्रुओं से पराजय का तिरस्कार प्राप्त न करो।

असौ या सेना मरुतः परेषा मभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना ॥

तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्योऽन्यं न जानन् ॥ १५॥

हे मरुद्गण ! जो यह शत्रुओं की सेना अपने बल पर हमसे स्पर्धा करती हुई हमारे सामने आ रही है, उसको अकर्मण्यता के अन्धकार में डुबो दो, जिससे कि उस शत्रु सेना के सैनिक एक-दूसरे को न पहचान पाएँ और परस्पर शस्त्र चलाकर नष्ट हो जाएँ।

यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।

तन्न इन्द्रो बृहस्प्पति रदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६॥

जिस युद्ध में शत्रुओं के चलाए हुए बाण फैली हुई शिखा वाले बालकों की तरह इधर-उधर गिरते हैं, उस युद्ध में इन्द्र, बृहस्पति और देवमाता अदिति हमें विजय दिलाएँ, ये सब देवता सर्वदा हमारा कल्याण करें।

मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् ॥

उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वाऽनु देवा मदन्तु ॥ १७॥

हे यजमान ! मैं तुम्हारे मर्म स्थानों को कवच से ढकता हूँ, ब्राह्मणों के राजा सोम तुमको मृत्यु के मुख से बचाने वाले कवच से आच्छादित करें, वरुण तुम्हारे कवच को उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट बनाएँ और अन्य सभी देवता विजय की ओर अग्रसर हुए तुम्हारा उत्साहवर्धन करें।

इति रुद्राष्टाध्यायी अप्रतिरथसूक्तम् तृतीयोऽध्यायः ॥ ३।।

॥ इस प्रकार रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) का तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 4 मैत्रसूक्त  

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