Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2023
(355)
-
▼
August
(30)
- अप्रतिरथ सूक्त
- शिवसंकल्प सूक्त
- कालिका पुराण अध्याय ४५
- कालिका पुराण अध्याय ४४
- शिव स्तुति
- शिव स्तुति
- कालिका पुराण अध्याय ४३
- कालिका पुराण अध्याय ४२
- कालिका पुराण अध्याय ४१
- कालिका स्तुति
- कालिका पुराण अध्याय ४०
- अग्निपुराण अध्याय ७०
- अग्निपुराण अध्याय ६९
- अग्निपुराण अध्याय ६८
- अग्निपुराण अध्याय ६७
- अग्निपुराण अध्याय ६६
- कालिका पुराण अध्याय ३९
- कालिका पुराण अध्याय ३८
- कालिका पुराण अध्याय ३७
- अग्निपुराण अध्याय ६५
- अग्निपुराण अध्याय ६४
- अग्निपुराण अध्याय ६३
- अग्निपुराण अध्याय ६२
- अग्निपुराण अध्याय ६१
- कालिका पुराण अध्याय ३६
- हरिस्तोत्र
- कालिका पुराण अध्याय ३५
- अग्निपुराण अध्याय ६०
- अग्निपुराण अध्याय ५९
- अग्निपुराण अध्याय ५८
-
▼
August
(30)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अग्निपुराण अध्याय ५८
अग्निपुराण अध्याय ५८ भगवद्विग्रह को
स्नान और शयन कराने की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ५८
Agni puran chapter 58
अग्निपुराण अट्ठावनवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ५८
अग्निपुराणम् अध्यायः ५८ स्नानादिविधिः
भगवानुवाच
एशान्यां जययेत् कुण्डं
गुरुर्व्वह्निञ्च वैष्णवम्।
गायत्र्याष्टशतं हुत्वा
सम्पातविधिना घटान् ।। १ ।।
प्रोक्षयेत् कारुशालायां
शिल्पिभिमुर्त्तिर्व्रजेत्।
तुर्य्यशबदैः कौतुकञ्च
बन्धयेद्दक्षिणे करे ।। २ ।।
विष्णवे शिपिविष्टेति ऊर्णासूत्रेण
सर्षपैः।
पट्टवस्त्रेण कर्त्तव्यं
देशिकस्यापि कौतुकम् ।। ३ ।।
मण्डपे प्रतिमां स्थाप्य सवस्त्रां
पूजितां स्तुवन्।
नमस्तेर्च्यें सुरेशानि प्रणीते विश्वकर्म्मण ।।
४ ।।
प्रभाविताशेषजगद्धात्रि तुभ्यं नमो
नमः।
त्वयि सम्पूजयामीशे नारायणमनामयम्
।। ५ ।।
रहिता शिल्पिदोषैस्त्वमृद्धियुक्ता
सदा भव।
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं -
ब्रह्मन् ! आचार्य ईशानकोण में एक होमकुण्ड तैयार करे और उसमें वैष्णव- अग्नि की
स्थापना करे। तदनन्तर गायत्री मन्त्र से एक सौ आठ आहुतियाँ देकर
सम्पात-विधि से कलशों का प्रोक्षण करे। तदनन्तर मूर्तिपालक विद्वानों तथा
शिल्पियों सहित यजमान बाजे-गाजे के साथ कारुशाला (कारीगर की कर्मशाला) में जाय।
वहाँ प्रतिमावर्ती इष्टदेवता के दाहिने हाथ में कौतुक सूत्र (कङ्कण आदि) बाँधे।
उसे बाँधते समय 'विष्णवे शिपिविष्टाय
नमः।'-इस मन्त्र का पाठ
करे। उस समय आचार्य के हाथ में भी ऊनी सूत, सरसों और रेशमी
वस्त्र से कौतुक बाँध देना चाहिये । मण्डल में सवस्त्र प्रतिमा की स्थापना और पूजा
करके उसकी स्तुति करते हुए कहे- 'विश्वकर्मा की बनायी हुई
देवेश्वरि प्रतिमे! तुम्हें नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत् को प्रभावित करनेवाली
जगदम्ब ! तुम्हें मेरा बारंबार प्रणाम है। ईश्वरि! मैं तुममें निरामय नारायणदेव का
पूजन करता हूँ। तुम शिल्प सम्बन्धी दोषों से रहित हो; अतः
मेरे लिये सदा समृद्धिशालिनी बनी रहो' ॥ १-५ ॥
एवं विज्ञाप्य प्रतिमां नयेत्तां
स्नानमण्डपम् ।। ६ ।।
शिल्पिनन्तोषयेद्द्रव्यैर्गुरवे
गां प्रदापयेत्।
चित्रं देवेति मन्त्रेण नेत्रे
चोन्मीलयेत्ततः ।। ७ ।।
अग्निर्ज्योतीति दृष्टिञ्च
दद्याद्वै भद्रपीठके।
ततः शक्लानि पुष्पाणि घृतं
सिद्धार्थकं तथा ।। ८ ।।
इस तरह प्रार्थना करके प्रतिमा को
स्नान-मण्डप में ले जाय। शिल्पी को यथेष्ट द्रव्य देकर संतुष्ट करे। गुरु को गोदान
दे। 'चित्रं देवाना०"*
इत्यादि मन्त्र से प्रतिमा का नेत्रोन्मीलन करे । 'अग्निर्ज्योतिः०"*
इत्यादि मन्त्र से दृष्टिसंचार करे। फिर भद्रपीठ पर प्रतिमा को स्थापित करे।
तत्पश्चात् आचार्य श्वेत पुष्प, घी, सरसों, दूर्वादल तथा कुशाग्र इष्टदेव के सिर पर
चढ़ावे ॥ ६-८ ॥
*१. चि॒त्रं
दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः।
आ प्रा॒
द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ঌ सूर्य॑ऽआ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च॒ स्वाहा॑ ॥ (यजु० ७ । ४२ तथा १३ । ४६)
*२.
अग्निज्योंतिज्योंतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिज्योंतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्वर्यो
ज्योतिर्वर्थः स्वाहा सूर्यो वर्षो ज्योतिर्वर्यः स्वाहा। ज्योतिः सूर्यः सूर्यो
ज्योतिः स्वाहा॥ (यजु० ३।९)
दूर्व्वां कुशाग्रं देवस्य
दद्याच्छिरसि देशिकः।
मधुवातेति मन्त्रेण नेत्रे
चाभ्यञ्जयेद् गुरुः ।। ९ ।।
हिरण्यगर्भमन्त्रेण इमं मेति च
कीर्त्तयेत्
घृतेनाभ्यञ्जयेत् पश्चात् पठन्
घृतवतीं पुनः ।। १० ।।
मसूरपिष्टेनोद्वर्त्य अतो देवेति
कीर्त्तयन्।
क्षालयेदुष्णतीर्थजैः स्नानं
पावमानीति रत्नजैः ।। ११ ।।
द्रुपदादिवेत्यनुलिम्पेदापो हिष्ठेति
सेचयेत्।
नदीजैस्तीर्थजैः स्नानं पावमानीति
रत्नजै ।। १२ ।।
समुद्रं गच्छ
चन्दनैस्तीर्थमृत्कलशेन च।
शन्नो देवीः स्नापयेच्च
गायत्र्याप्युष्णवारिणा ।। १३ ।।
इसके बाद 'मधु' वाता०'* इत्यादि मन्त्र से गुरु प्रतिमा के
नेत्रों में अंजन करे। उस समय 'हिरण्यगर्भः"* इत्यादि तथा 'इमं मे वरुण'*
इत्यादि मन्त्रों का कीर्तन करे। तत्पश्चात्
पुनः 'घृतवती* ऋचा का पाठ करते हुए घृत का अभ्यङ्ग
लगावे। इसके बाद मसूर के बेसन से उबटन का काम लेकर 'अतो देवाः०"*
इत्यादि मन्त्र का कीर्तन करे। फिर 'सप्त
ते अग्ने०'*
इत्यादि मन्त्र बोलकर गुरु गर्म जल से प्रतिमा का प्रक्षालन करे। तदनन्तर 'द्रुपदादिव०"*
इत्यादि मन्त्र से अनुलेपन और 'अपो
' हि ष्ठा०'* इत्यादि से अभिषेक करे। अभिषेक के
पश्चात् नदी एवं तीर्थ के जल से स्नान कराकर 'पावमानी* ऋचा
( शु० यजु० ३९-४३ ) का पाठ करते हुए, रत्न-
स्पर्श से युक्त जल द्वारा स्नान करावे। 'समुद्रं "
गच्छ स्वाहा'* इत्यादि
मन्त्र पढ़कर तीर्थ की मृत्तिका और कलश के जल से स्नान करावे 'शं नो" देवी:०'* इत्यादि तथा गायत्री मन्त्र से गरम जल के द्वारा इष्टदेव की प्रतिमा को
नहलावे ॥९-१३॥
*१. मधु॒ वाता॑ऽ ऋताय॒ते मधु॑
क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वः। माध्वी॑र्नः स॒न्त्वोष॑धीः ॥ मधु॒ नक्त॑मु॒तोषसो॒ मधु॑म॒त्
पार्थि॑व॒ঌ रजः॑। मधु॒ द्यौर॑स्तु नः
पि॒ता ॥ मधु॑मान्नो॒ वन॒स्पति॒र्मधु॑माँ२ऽ अस्तु॒ सूर्य्यः॑। माध्वी॒र्गावो॑
भवन्तु नः ॥(यजु० १३।२७, २८,
२९)
*२. (यजु० १३।४) यह
मन्त्र अध्याय ५६ की टिप्पणी में दिया जा चुका है।
*३. इ॒मं मे॑ वरुण
श्रु॒धी हव॑म॒द्या च॑ मृडय। त्वाम॑व॒स्युरा च॑के ॥ (यजु० २१ । १ )
*४. घृ॒तव॑ती॒
भुव॑नानामभि॒श्रियो॒र्वी पृ॒थ्वी म॑धु॒दुघे॑ सु॒पेश॑सा। द्यावा॑पृथि॒वी वरु॑णस्य॒
धर्म॑णा॒ विष्क॑भितेऽअ॒जरे॒ भूरि॑रतेसा ॥ (यजु० ३४ । ४५)
*५. अतो॑ दे॒वा अ॑वन्तु
नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः स॒प्त धाम॑भिः॥ (ऋ० म० १ सू० २२ । १६)
*६. स॒प्त ते॑ऽअग्ने
स॒मिधः॑ स॒प्त जि॒ह्वाः स॒प्तऽऋष॑यः स॒प्त धाम॑ प्रि॒याणि॑। स॒प्त होत्राः॑
सप्त॒धा त्वा॑ यजन्ति स॒प्त योनी॒रापृ॑णस्व घृ॒तेन॒ स्वाहा॑ ॥ (यजु० १७।७९)
*७. द्रु॒प॒दादि॑व
मुमुचा॒नः स्वि॒न्नः स्ना॒तो मला॑दिव। पू॒तं प॒वित्रे॑णे॒वाज्य॒मापः॑ शुन्धन्तु॒
मैन॑सः ॥ (यजु० २० । २०)
*८. आपो॒ हि ष्ठा
म॑यो॒भुव॒स्ता न॑ऽऊ॒र्जे द॑धातन। म॒हे रणा॑य॒ चक्ष॑से ॥ यो वः॑ शि॒वत॑मो॒
रस॒स्तस्य॑ भाजयते॒ह नः॑। उ॒श॒तीरि॑व मा॒तरः॑ ॥ तस्मा॒ऽअं॑र गमाम वो॒ यस्य॒
क्षया॑य॒ जिन्व॑थ। आपो॑ ज॒नय॑था च नः ॥ (यजु० ११। ५०, ५१, ५२)
*९. स॒मु॒द्रं ग॑च्छ॒
स्वाहा॒न्तरि॑क्षं गच्छ॒ स्वाहा॑ दे॒वঌ स॑वि॒तारं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णौ गच्छ॒ स्वाहा॑होरा॒त्रे ग॑च्छ॒
स्वाहा॒ छन्दा॑ঌसि गच्छ॒ स्वाहा॒ द्या॑वापृथि॒वी ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ य॒ज्ञं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒
सोमं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ दि॒व्यं नभो॑ गच्छ॒ स्वाहा॒ग्निं वै॑श्वान॒रं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒
मनो॑ मे॒ हार्दि॑ यच्छ॒ दिवं॑ ते धू॒मो ग॑च्छतु॒ स्वঌर्ज्योतिः॑
पृथि॒वीं भस्म॒नापृ॑ण॒ स्वाहा॑ ॥ (यजु० ६।२१)
*१०. शं नो॑
दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑। शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ॥ (अथर्ववेद १।६।१)
पञ्चमृद्भिर्हिरण्येति
स्नापयेत्परमेश्वरम्।
सिकताद्भिरिमं मेति वल्मीकोदघटेन च
।। १४ ।
तद्धिष्णोरिति ओषध्यद्भिर्था ओषधीति
मन्त्रतः।
यझायज्ञेति काषायैः पञ्चभिर्गव्यकैस्ततः
।। १५ ।।
पयः पृथिव्यां मन्त्रेण याः फलिना
फलाम्बुभिः।
विश्वतश्चक्षुः सौम्येन पूर्वेण
कलसेन च ।। १६ ।।
सोमं राजानमित्येवं विष्णो रराटं
दक्षतः।
हंसः शुचिः पश्चिमेन
कुर्य्यादुद्वर्त्तनं हरेः ।। १७ ।।
'हिरण्यगर्भः ०'
इत्यादि मन्त्र से पाँच प्रकार की मृत्तिकाओं द्वारा परमेश्वर को
स्नान करावे। इसके बाद 'इमं मे गङ्गे यमुने०' इत्यादि मन्त्र से बालुकामिश्रित जल के द्वारा तथा 'तद् विष्णोः०'* इत्यादि मन्त्र से बाँबी की मिट्टी मिले हुए जल से पूर्ण घट के द्वारा
भगवान् को स्नान करावे। 'या ओषधीः०'* इत्यादि मन्त्र से ओषधिमिश्रित
जल के द्वारा, 'यज्ञा यज्ञा०'* इत्यादि मन्त्र से आँवले आदि कसैले
पदार्थों से मिश्रित जल के द्वारा, 'पयः पृथिव्याम्०'* इत्यादि मन्त्र से पञ्चगव्यों द्वारा
तथा 'याः फलिनी:०* इत्यादि मन्त्र से फलमिश्रित जल के
द्वारा भगवान् को नहलावे । 'विश्वतश्चक्षुः०"* इत्यादि मन्त्र से उत्तरवर्ती
कलश द्वारा, 'सोमं राजानम्०'* इस मन्त्र से पूर्ववर्ती कलश द्वारा,
'विष्णो' रराटमसि०'* इत्यादि मन्त्र से दक्षिणवर्ती
कलश द्वारा तथा 'हঌस: शुचिषद्०'* इत्यादि मन्त्र से पश्चिमवर्ती कलश
द्वारा भगवान् को उद्वर्तन स्नान करावे ॥ १४- १७ ॥
*१. तद्विष्णोः॑ पर॒मं
प॒दঌ सदा॑ पश्यन्ति सूरयः॑।
दि॒वीঌव॒ चक्षु॒रात॑तम् ॥ (यजु० ६।५)
*२. या ओष॑धीः॒ पूर्वा॑
जा॒ता दे॒वेभ्य॑स्त्रियु॒गं पु॒रा। मनै॒ नु ब॒भ्रूणा॑म॒हঌ श॒तं धामा॑नि स॒प्त च॑ ॥ (यजु० १२।७५)
*३. य॒ज्ञाय॑ज्ञा वोऽअ॒ग्नये॑
गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से। प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न श॑ঌसिषम् ॥
(यजु० २७।४२)
*४. पयः॑ पृथि॒व्यां
पय॒ऽओष॑धीषु॒ पयो॑ दि॒व्यঌन्तरि॑क्षे॒ पयो॑
धाः। पय॑स्वतीः प्र॒दिशः॑ सन्तु॒ मह्य॑म् ॥ (यजु० १८ । ३६ )
*५. याः फ॒लिनी॒र्याऽअ॑फ॒लाऽअ॑पु॒ष्पा
याश्च॑ पु॒ष्पिणीः॑। बृह॒स्पति॑प्रसूता॒स्ता नो॑ मुञ्च॒न्त्वঌह॑सः ॥
(यजु० १२।८९)
*६. वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त
वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑बाहुरु॒त वि॒श्वत॑स्पात्। सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं
पत॑त्रै॒र्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न् दे॒वऽएकः॑ ॥ (यजु० १७ । १९)
*७. सोम॒ঌ राजा॑न॒मव॑से॒ऽग्निम॒न्वार॑भामहे। आ॒दि॒त्यान् विष्णु॒ঌ सूर्य्यं॑ ब्र॒ह्माणं॑ च॒ बृह॒स्पति॒ঌ स्वाहा॑ ॥ (यजु ९।२६)
*८. विष्णो॑ र॒राट॑मसि॒
विष्णोः॒ श्नप्त्रे॑ स्थो॒ विष्णोः॒ स्यूर॑सि॒ विष्णोर्ध्रु॒वोঌऽसि॒।
वै॒ष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा ॥ (यजु० ५। २१)
*९. ह॒ঌसः शु॑चि॒षद् वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्।
नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद्
व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जाऽऋ॑त॒जाऽअ॑द्रि॒जाऽऋ॒तं बृ॒हत् ॥ (यजु०१०। २४)
मूर्द्धानन्दिवमन्त्रेण धात्रीं
मांसी च के ददेत् ।
मानस्तोकेति मन्त्रेण गन्धद्वारेति
गन्धकैः ।। १८ ।।
इदमापेति च घटैरेकाशीतिपदस्थितैः।
एह्येहि भगवन् विष्णो
लोकानुग्रहकारक ।। १९ ।।
यज्ञभागं गृहाणेमं वासुदेव नमोस्तु
ते।
अनेनावाह्य देवेशं कुर्यात्
कौतुकमोचनम् ।। २० ।।
मुञ्चामि त्वेति सूक्तेन
देशिकस्यापि मोचयेत्।
हिरण्मयेन पाद्यं दद्यादतो देवेति
चार्घ्यकम् ।। २१ ।।
मधुवाता मधुपर्क्कं मयि गृह्मामि
चाचमेत्।
अक्षन्नमीमदन्तेति किरेद्दूर्वाक्षतं
बुधः ।। २२ ।।
'मूर्द्धानं दिवो०'* इत्यादि मन्त्र से आँवले मिले हुए
जल के द्वारा, 'मा नस्तोके०"* इत्यादि मन्त्र से
जटामांसीमिश्रित जल के द्वारा, 'गन्धद्वाराम्०"* इत्यादि मन्त्र से गन्धमिश्रित
जल के द्वारा तथा 'इदमापः०"* इत्यादि मन्त्र से इक्यासी
पदोंवाले वास्तुमण्डल में रखे गये कलशों द्वारा भगवान् को नहलावे। इस प्रकार
स्नान के पश्चात् भगवान् को सम्बोधित करके कहे- 'भगवन्!
समस्त लोकों पर अनुग्रह करनेवाले सर्वव्यापी वासुदेव! आइये, आइये,
इस यज्ञभाग को ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है।' इस प्रकार देवेश्वर का आवाहन करके उनके हाथ में बँधा हुआ मङ्गलसूत्र खोल
दे। उसे खोलते समय 'मुञ्चामि त्वा०'* इस मन्त्र का पाठ करे इसी
मन्त्र से आचार्य का भी कौतुकसूत्र खोल दे। तदनन्तर 'हिरण्मयेन* इत्यादि मन्त्र से पाद्य और 'अतो देवाः०' (ऋक्० १।१३।६) इत्यादि मन्त्र से अर्घ्य दे । फिर 'मधु वाताः०'
इत्यादि मन्त्र से मधुपर्क देकर 'मयि
गृह्णामिo"* इत्यादि मन्त्र से आचमन करावे । तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष 'अक्षन्नमीमदन्त०'* इत्यादि मन्त्र पढ़कर भगवान्के श्रीअङ्गों पर दूर्वा एवं अक्षत बिखेरे ॥
१८-२२ ॥
*१. मू॒र्द्धानं॑
दि॒वोऽअ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वै॑श्वान॒रमृ॒तऽआ जा॒तम॒ग्निम्। क॒विঌ स॒म्राज॒मति॑थिं॒ जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः ॥ (यजु० ७।२४)
*२. मा न॑स्तो॒के तन॑ये॒
मा न॒ऽआयु॑षि॒ मा नो॒ गोषु॒ मा नो॒ऽअश्वे॑षु रीरिषः। मा नो॑ वी॒रान् रु॑द्र
भा॒मिनो॑ वधीर्ह॒विष्म॑न्तः॒ सद॒मित् त्वा॑ हवामहे ॥(यजु० १६।१६)
*३. गन्धद्वारां
दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।ईश्वरिं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥९॥ (श्रीसूक्त)
*४. इ॒दमा॑पः॒
प्रव॑हताव॒द्यं च॒ मलं॑ च॒ यत्। यच्चा॑भिदु॒द्रोहानृ॑तं॒ यच्च॑ शे॒पेऽअ॑भी॒रुण॑म्।
आपो॑ मा॒ तस्मा॒देन॑सः॒ पव॑मानश्च मुञ्चतु ॥ (यजु० ६।१७)
*५. मु॒ञ्चामि॑ त्वा
ह॒विषा॒ जीव॑नाय॒ कम॑ज्ञातय॒क्ष्मादु॒त रा॑जय॒क्ष्मात् । ग्राहि॑र्ज॒ग्राह॒ यदि॑
वै॒तदे॑नं॒ तस्या॑ इन्द्राग्नी॒ प्र मु॑मुक्तमेनम् ॥ (ऋ० मं० १० सू० १६१/१)
*६. हि॒र॒ण्मये॑न॒
पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्। यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सोঌऽसाव॒हम्।
ओ३म् खं ब्रह्म॑ ॥ (यजु० ४०।१७)
*७. मयि॑ गृह्णा॒म्यग्रे॑
अ॒ग्निঌ रा॒यस्पोषा॑य
सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य। मामु॑ दे॒वताः॑ सचन्ताम् ॥ (यजु० १३ । १)
*८. *अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒
ह्यव॑ प्रि॒याऽअ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒ नवि॑ष्ठया म॒ती योजा॒ न्विঌन्द्र
ते॒ हरी॑ ॥ (यजु० ३।५१)
काण्डान्निर्म्मञ्छनं
कुर्य्याद्वन्धं गन्धवतीति च।
उन्नयामीति माल्यञ्च इदं विष्णु
पवित्रकम् ।। २३ ।।
बृहस्पते वस्त्रयुग्मं
वेदाहमित्युत्तरीयकम्।
महाव्रतेन सकलीपुष्पं चौषधयः
क्षिपेत् ।। २४ ।।
धूपं दद्याद्धूरसीति विभ्राट्सूक्तेन
चाञ्चनम्।
युञ्जन्तीति च तिलकं दीर्घायुष्ट्वे
ति माल्यकम् ।। २५ ।।
इन्द्रच्छत्रेति छत्रन्तु आदर्शन्तु
विराजतः।
चामरन्तु विकर्णेन भूषां रथन्तरेण च
।। २६ ।।
'काण्डात् ०"* इत्यादि मन्त्र से निर्मञ्छन करे। 'गन्धवती०"*
इत्यादि से गन्ध अर्पित करे। 'उन्नयामि०'
इस मन्त्र से फूल-माला और 'इदं विष्णुः
०"*
इत्यादि मन्त्र से पवित्रक अर्पित करे। 'बृहस्पते०''* इत्यादि मन्त्र से एक जोड़ा
वस्त्र चढ़ावे । 'वेदाहमेतम् ०'* इत्यादि से उत्तरीय अर्पित करे । 'महाव्रतेन०' इस मन्त्र से फूल और औषध- इन सबको
चढ़ावे । तदनन्तर 'धूरसिo"* इस मन्त्र से धूप दे। 'विभ्राट् "* सूक्त से अञ्जन अर्पित करे । 'युञ्जन्ति०'* इत्यादि
मन्त्र से तिलक लगावे । तथा 'दीर्घात्वाय०' (अथर्व० २।४।१) इस मन्त्र फूलमाला चढ़ावे । 'इन्द्र क्षत्रमभि०' (अथर्व० ७।४।२) इत्यादि मन्त्र से छत्र, 'विराट् '* मन्त्र से दर्पण, 'विकर्ण' मन्त्र से चँवर तथा 'रथन्तर' साम-मन्त्र से आभूषण निवेदित करे ॥
२३-२६ ॥
*१. काण्डा॑त्काण्डात्प्र॒रोह॑न्ती॒
परु॑षःपरुष॒स्परि॑। ए॒वा नो॑ दूर्वे॒ प्रत॑नु स॒हस्रे॑ण श॒तेन॑ च ॥(यजु० १३ । २०)
*२. गन्धद्वारां इत्यादि
मन्त्र हो यहाँ गन्धवती नामसे गृहीत होते हैं।
*३. *इ॒दं
विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पाঌसु॒रे
स्वाहा॑ ॥ (यजु० ५।१५)
*४. *बृह॑स्पते॒ऽअति॒
यद॒र्योऽअर्हा॑द् द्यु॒मद्वि॒भाति॒ क्रतु॑म॒ज्जने॑षु। यद्दी॒दय॒च्छव॑सऽ ऋतप्रजात॒
तद॒स्मासु॒ द्रवि॑णं धेहि चि॒त्रम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ बृह॒स्पत॑ये त्वै॒ष ते॒
योनि॒र्बृह॒स्पत॑ये त्वा ॥ (यजु० २६।३)
*५. *वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं
म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्। तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒
नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽय॑नाय ॥ (यजु० ३१ । १८)
*६. धूर॑सि॒ धूर्व॒
धूर्व॑न्तं॒ धूर्व॒ तं यो॒ऽस्मान् धूर्व॑ति॒ तं धू॑र्व॒ यं व॒यं धूर्वा॑मः।
दे॒वाना॑मसि॒ वह्नि॑तम॒ঌ सस्नि॑तमं॒ पप्रि॑तमं॒ जुष्ट॑तमं देव॒हूत॑मम् ॥ (यजु० १।८)
*७. वि॒भ्राड् बृ॒हत्
पि॑बतु सो॒म्यं मध्वायु॒र्दध॑द् य॒ज्ञप॑ता॒ववि॑ह्रुतम्। वात॑जूतो॒
योऽअ॑भि॒रक्ष॑ति॒ त्मना॑ प्र॒जाः पु॑पोष पुरु॒धा वि रा॑जति ॥ (यजु० ३३ । ३०)
*८. यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑
त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥ (यजु० २३। ५)
*९. वि॒राड्
ज्योति॑रधारयत् स्व॒राड् ज्योति॑रधारयत्। प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयतु पृ॒ष्ठे
पृ॑थि॒व्या ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒
ज्योति॑र्यच्छ। अ॒ग्निष्टेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥
(यजु० १३ । २४)
व्यजनं वायुदैवत्यैर्मुञ्चामि
त्वेति पुष्पकम्।
वेदाद्यैः संस्तुतिं कुर्य्याद्धरेः
पुरुषसूक्ततः ।। २७ ।।
सर्वमेतत्समं कुर्य्यात् पिण्डिकादौ
हरादिके।
दैवस्योत्थानसमये सौपर्णं
सूक्तमुच्चरेत् ।। २८ ।।
उत्तिष्ठेति समुत्थाप्य शय्याया
मण्डिकां तथा।
श्रीसूक्तेन चशय्यायां विष्णोस्तु
शकलीकृतिः ।। २९ ।।
अतो देवेति सूक्तेन प्रनिमां
पिण्डिकां तथा।
श्रीसूक्तेन च शय्यायां विष्णोस्तु
शकलीकृतिः ।। ३० ।।
वायुदेवता-सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा
व्यजन,
'मुञ्चामि त्वा' (ऋक् १० । १६१ । १ ) इस मन्त्र से फूल तथा वेदादि (प्रणव) - युक्त पुरुषसूक्त के मन्त्रों द्वारा श्रीहरि की स्तुति करे। ये सारी वस्तुएँ पिण्डिका आदि पर तथा शिव आदि देवताओं पर इसी
प्रकार चढ़ावे। भगवान्को उठाते समय 'सौपर्ण' सूक्त का पाठ करे। 'प्रभो! उठिये' ऐसा
कहकर भगवान् को उठावे और मण्डप में शय्या पर ले जाय। उस समय 'शकुनि' सूक्त का पाठ करे।
ब्रह्मरथ एवं पालकी आदि के द्वारा भगवान् को शय्या पर ले जाना चाहिये। 'अतो देवाः' (ऋक्० १ । २२ । १६) इस सूक्त से तथा 'श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च'
(यजु० ३१ । २२) - से प्रतिमा एवं पिण्डिका
को शय्या पर पधरावे। तदनन्तर भगवान् विष्णु के लिये निष्कली- करण की क्रिया
सम्पादित करे ॥ २७-३० ॥
मृगराजं वृषं नागं व्यजनं कलशं तथा।
वैजयन्ततीं तथा भेरीं
दीपमित्यष्टमङ्गलम् ।। ३१ ।।
दर्शयेदश्वसूक्तेन पाददेशे
त्रिपादिति।
उखां पिधानकं पात्रमम्बिकां
दर्व्विकां ददेत् ।। ३२ ।।
मुषलोलूखलं दद्याच्छिलां
कम्मार्जनीं तथा।
तथा बोजनभाण्डानि गृहोपकरणानि च ।।
३३ ।।
शिरोदेशे च निद्राख्यं
वस्त्ररत्नयुतं घटम्।
खणडखाद्यैः पूरयित्वा स्नपनस्य
विधिः स्मृतः ।। ३४ ।।
सिंह, वृषभ, हाथी, व्यजन, कलश, वैजयन्ती (पताका), भेरी
तथा दीपक-ये आठ मङ्गलसूचक वस्तुएँ हैं। इन सब वस्तुओं को अश्वसूक्त का पाठ करते हुए भगवान् को दिखावे। 'त्रिपात् "* इत्यादि मन्त्र से भगवान्के चरण-प्रान्त में उखा (पात्रविशेष), उसका ढक्कन, अम्बिका ( कड़ाही), दर्विका ( करछुल), पात्र, ओखली,
मूसल, सिल, झाडू,
भोजन-पात्र तथा घर के अन्य सामान रखे । उनके सिर की ओर वस्त्र और
रत्न से युक्त एक कलश स्थापित करे, जो खाँड और खाद्य पदार्थ से
भरा हुआ हो। उस घट की 'निद्रा' संज्ञा
होती है। इस प्रकार भगवान् के शयन की विधि बतायी गयी है ॥ ३१-३४ ॥
*त्रि॒पादू॒र्ध्व
उदै॒त्पुरु॑ष॒: पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त्पुन॑: । ततो॒ विष्व॒ङ्व्य॑क्रामत्साशनानश॒ने
अ॒भि ॥ (ऋ०मं०१० सू० ९०/४)
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
स्नपनादिविधानं नाम अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'स्नपन की विधि आदि का वर्णन' नामक अट्ठावनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ५८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 59
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: