शिव स्तुति
कालिका पुराण
मे वर्णित ऋषिगणों द्वारा की गई इस शिव स्तुति का जो हृदय में स्मरण करेगा उसका
सदैव अभीष्ट कल्याण होता है ।
कालिका पुराणांतर्गत शिव स्तुति
।। ऋषय ऊचुः
।।
यत् प्रत्यक्षं
दृश्यते शुद्धरूपं चन्द्रप्रख्यं चन्द्रखण्डोपशोभि ।
अन्तः प्रज्ञं
भावितं तन्मुनीनां भाग्यं दृष्टं भागधेयेन मुक्तैः ।।१४।।
ऋषिगण बोले-
जो चन्द्र के समान चन्द्रखण्ड से सुशोभित, शुद्धरूप, आज प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है वह मुनियों के अन्तःप्रज्ञा
में जाना जाता है। वह भागधेय से मुक्त हो आज हमें भाग्यवश दिखायी दे रहा है ।। १४
।।
प्रज्ञातन्त्रं
ध्यानतन्त्रं पुरस्तान्नित्यं ध्येयं ध्यायिनां स्वप्रकाशम् ।
पुञ्जीभूतं बाह्यतत्त्वेन
शश्वद् योग्यप्राप्यं धाम शम्भोरुदारम् ।। १५ ।।
जो ध्यान करने
वालों के द्वारा ज्ञान एवं ध्यान के मार्ग का अनुगमन करते हुए नित्य स्वप्रकाश रूप
में ध्यान करने योग्य है वह बाह्य तत्त्वों के पुञ्जीभूत रूप,सदैव प्राप्त करने योग्य, शिव का उदार धाम ही है ।। १५ ।।
दृष्ट्वा यस्यैवाग्रभागं
स नेत्रं त्राणाय स्याद् दर्शनं सूर्यतुल्यम् ।
तद्धामेदं स्थान
सर्वस्य नित्यं भक्त्या स्तुत्यं तं नमः शम्भुदेहम् ।। १६ ।।
शिव के जिन
सूर्यग्रह तुल्य, नेत्रयुक्त शरीर के अग्रभाग शिर को देखकर,
रक्षा होती है, वही सबका नित्य आश्रय स्थान है। उस शिव (शरीर) की हम
भक्तिपूर्वक स्तुति करते हैं तथा उसे नमस्कार करते हैं ॥ १६ ॥
प्रकाशते यः प्रथमादिभागतः
स्थित: स वामे य इहैव नेता ।
सोऽस्माकमस्तु
प्रथमं स्वसिद्ध्यै हरस्य शक्त्या विधृतो ललाटे ।।१७।।
जो प्रथम
(प्रतिपदादि) भागों से प्रकाशित होता है वह चन्द्र यहीं वाम में स्थित है। जिसे
शिव ने अपनी शक्ति से ललाट पर धारण किया है, वह प्रथम सिद्धि का कारण होवे ॥ १७ ॥
यः प्रधानात्मकः
सत्त्वरजोभ्यां तमसान्वितः ।
पुरुष:
सर्वजगतां स हरो नः प्रसीदतु ।। १८ ।।
जो शिव,
सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों के समन्वय से प्रधान से युक्त हो सम्पूर्ण
संसार हेतु, पुरुषरूप हैं, वे हम पर प्रसन्न होवे ।। १८ ।।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे शिव स्तुतिनाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
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