त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड अध्याय ३१ के श्लोक २३-५७ में वर्णित कथानुसार भगवान शंकर ने रत्नपर्वत के निकट स्वयंप्रभा नदी के तट पर पारिजात वन के मध्य स्थित आश्रम में लोकों के देवता माधव के समक्ष परशुराम को त्रैलोक्यविजयनामक परम अद्भुत श्रीकृष्ण कवच प्रदान किया था।

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच

महादेव जी ने कहाभृगुवंशी महाभाग वत्स! तुम प्रेम के कारण मुझे पुत्र से भी अधिक प्रिय हो; अतः आओ कवच ग्रहण करो। राम! जो ब्रह्माण्ड में परम अद्भुत तथा विजयप्रद है, श्रीकृष्ण के उस त्रैलोक्यविजयनामक कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो।

पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने गोलोक में स्थित वृन्दावन नामक वन में राधिकाश्रम में रासमण्डल के मध्य यह कवच मुझे दिया था। यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व, सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का विग्रहस्वरूप, पुण्य से भी बढ़कर पुण्यतर परमोत्कृष्ट है और इसे स्नेहवश मैं तुम्हें बता रहा हूँ। जिसे पढ़कर एवं धारण करके मूलप्रकृति भगवती आद्याशक्ति ने शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर और रक्तबीज का वध किया था। जिसे धारण करके मैं लोकों का संहारक और सम्पूर्ण तत्त्वों का जानकार हुआ हूँ तथा पूर्वकाल में जो दुरन्त और अवध्य थे, उन त्रिपुरों को खेल-ही-खेल में दग्ध कर सका हूँ।

जिसे पढ़कर और धारण करके ब्रह्मा ने इस उत्तम सृष्टि की रचना की है। जिसे धारण करके भगवान शेष सारे विश्व को धारण करते हैं। जिसे धारण करके कूर्मराज शेष को लीलापूर्वक धारण किये रहते हैं। जिसे धारण करके स्वयं सर्वव्यापक भगवान वायु विश्व के आधार हैं। जिसे धारण करके वरुण सिद्ध और कुबेर धन के स्वामी हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके स्वयं इन्द्र देवताओं के राजा बने हैं।

जिसे धारण करके तेजोराशि स्वयं सूर्य भुवन में प्रकाशित होते हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके चन्द्रमा महान बल और पराक्रम से सम्पन्न हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके महर्षि अगस्त्य सातों समुद्रों को पी गये और उसके तेज से वातापि नामक दैत्य को पचा गये। जिसे पढ़कर एवं धारण करके पृथ्वी देवी सबको धारण करने में समर्थ हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके गंगा स्वयं पवित्र होकर भुवनों को पावन करने वाली बनी हैं।

जिसे धारण करके धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्म लोकों के साक्षी बने हैं। जिसे धारण करके सरस्वती देवी सम्पूर्ण विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी हुई हैं। जिसे धारण करके परात्परा लक्ष्मी लोकों को अन्न प्रदान करने वाली हुई हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके सावित्री ने वेदों को जन्म दिया है।

भृगुनन्दन! जिसे पढ़ एवं धारणकर वेद धर्म के वक्ता हुए हैं। जिसे पढ़कर एवं धारण करके अग्नि शुद्ध एवं तेजस्वी हुए हैं और जिसे धारण करके भगवान सनत्कुमार को ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला है। जो महात्मा, साधु एवं श्रीकृष्ण भक्त हो, उसी को यह कवच देना चाहिये; क्योंकि शठ एवं दूसरे के शिष्य को देने से दाता मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

त्रैलोक्य विजय श्रीकृष्ण कवचम्

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ॠषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम् ॥ २३॥

त्रैलोक्यविजय-प्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः ।

इस त्रैलोक्यविजय कवच के प्रजापति ऋषि हैं। गायत्री छन्द है। स्वयं रासेश्वर देवता हैं और त्रैलोक्य की विजय प्राप्ति में इसका विनियोग कहा गया है।

परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २४॥

यह परात्पर कवच तीनों लोकों में दुर्लभ है।

ॐ प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा ।

पायात्कपालं कृष्णाय स्वाहा पञ्चाक्षरः स्मृतः ॥ २५॥

ऊँ श्रीकृष्णाय नमःसदा मेरे सिर की रक्षा करे।कृष्णाय स्वाहायह पञ्चाक्षर सदा कपाल को सुरक्षित रखे।

कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्ण स्वाहेति तारकम् ।

हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा ॥ २६॥

कृष्णनेत्रों की तथा कृष्णाय स्वाहापुतलियों की रक्षा करे।हरये नमःसदा मेरी भृकुटियों को बचावे।

ॐ गोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु सन्ततम् ।

गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा ॥ २७॥

ऊँ गोविन्दाय स्वाहामेरी नासिका की सदा रक्षा करे।गोपालाय नमःमेरे गण्डस्थलों की सदा सब ओर से रक्षा करे।

ॐ नमो गोपाङ्गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम ।

ॐ कृष्णाय नमः शश्वत्पातु मेऽधर-युग्मकम् ॥ २८॥

ऊँ गोपाङ्गनेशाय नमःसदा मेरे कानों की रक्षा करे।ऊँ कृष्णाय नमःनिरन्तर मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे।

ॐ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तौघं मे सदाऽवतु ।

पातु कृष्णाय दन्ताधो दन्तोर्ध्वं क्लीं सदाऽवतु ॥ २९॥

ऊँ गोविन्दाय स्वाहासदा मेरी दंतपंक्तियों की रक्षा करे। ऊँ कृष्णाय नमःदाँतों के छिद्रों की तथा क्लींदाँतों के ऊर्ध्वभाग की रक्षा करे।

ॐ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु मे सदा ।

रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा ॥ ३०॥

ऊँ श्रीकृष्णाय स्वाहासदा मेरी जिह्वा की रक्षा करे।रासेश्वराय स्वाहासदा मेरे तालु की रक्षा करे।

राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम ।

नमो गोपाङ्गनेशाय वक्षः पातु सदा मम ॥ ३१॥

राधिकेशाय स्वाहासदा मेरे कण्ठ की रक्षा करे।गोपाङ्गनेशाय नमःसदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे।

ॐ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम ।

नमः किशोर-वेषाय स्वाहा पृष्टं सदाऽवतु ॥ ३२॥

ऊँ गोपेशाय स्वाहासदा मेरे कंधों की रक्षा करे।नमः किशोरवेशाय स्वाहासदा पृष्ठभाग की रक्षा करे।

उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा ।

ॐ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पातु सदा मम ॥ ३३॥

मुकुन्दाय नमःसदा मेरे उदर की तथा ऊँ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहासदा मेरे हाथ-पैरों की रक्षा करे।

ॐ विष्णवे नमो  बाहुयुग्मं पातु सदा मम ।

ॐ ह्रीं भगवते स्वाहा नखं पातु मे सदा ॥ ३४॥

ऊँ विष्णवे नमःसदा मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करे।ऊँ ह्रीं भगवते स्वाहासदा मेरे नखों की रक्षा करे।

ॐ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदाऽवतु ।

ॐ श्रीं क्लीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम ॥ ३५॥ (ह्रीं ह्रीं)

ऊँ नमो नारायणायसदा नख-छिद्रों की रक्षा करे।ऊँ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नमःसदा मेरी नाभि की रक्षा करे।

ॐ सर्वेशाय स्वाहेति कङ्कालं पातु मे सदा ।

ॐ गोपीरमणाय स्वाह नितम्बं पातु मे सदा ॥ ३६॥

ऊँ सर्वेशाय स्वाहासदा मेरे कंकाल की रक्षा करे।ऊँ गोपीरमणाय स्वाहासदा मेरे नितम्ब की रक्षा करे।

ॐ गोपीरमणनाथाय पादौ पातु सदा मम ।

ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥३७ ॥

ऊँ गोपीरमणनाथाय स्वाहासदा मेरे पैरों की रक्षा करे।ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहासदा मेरे सर्वांगों की रक्षा करे।

ॐ केशवाय स्वाहेति मम केशान्सदाऽवतु ।

नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदाऽवतु ॥ ३८॥

ऊँ केशवाय स्वाहासदा मेरे केशों की रक्षा करे।नमः कृष्णाय स्वाहासदा मेरे ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा करे।

ॐ माधवाय स्वाहेति मे लोमानि सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदाऽवतु ॥ ३९॥

ऊँ माधवाय स्वाहासदा मेरे रोमों की रक्षा करे। ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहामेरे सर्वस्व की सदा रक्षा करे।

परिपूर्णतमः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदाऽवतु ।

स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेयां दिशि रक्षतु ॥ ४०॥

परिपूर्णतम श्रीकृष्ण पूर्व दिशा में सर्वदा मेरी रक्षा करें। स्वयं गोलोकनाथ अग्निकोण में मेरी रक्षा करें।

पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदाऽवतु ।

नैर्ऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः ॥ ४१॥

पूर्ण ब्रह्मस्वरूप दक्षिण दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। श्रीकृष्ण नैर्ऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें। श्रीहरि पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें।

गोविन्दः पातु मां शश्वद्वायव्यां दिशि नित्यशः ।

उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः ॥ ४२॥

गोविन्द वायव्यकोण में नित्य-निरन्तर मेरी रक्षा करें। रसिक शिरोमणि उत्तर दिशा में सदा मेरी रक्षा करें।

ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावन-विहारकृत् ।

वृन्दावनी-प्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः ॥ ४३॥

वृन्दावन विहारकृत सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। वृन्दावनी के प्राणनाथ ऊर्ध्वभाग में मेरी रक्षा करें।

सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः ।

जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा ॥ ४४॥

महाबली बलिहारी माधव सदैव मेरी रक्षा करें। नृसिंह जल, स्थल तथा अन्तरिक्ष में सदा मुझे सुरक्षित रखें।

स्वप्ने जागरणे शश्वत्पातु मां माधवः सदा ।

सर्वान्तरात्मा  निर्लिप्तः पातु मां सर्वतो विभुः ॥ ४५॥

माधव सोते समय तथा जाग्रत-काल में सदा मेरा पालन करें तथा जो सबके आन्तरात्मा, निर्लेप और सर्वव्यापक हैं, वे भगवान सब ओर से मेरी रक्षा करें।

त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच फलश्रुति 

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघ-विग्रहम् ।

त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ ४६॥

वत्स! इस प्रकार मैंने त्रैलोक्यविजयनामक कवच, जो परम अनोखा तथा समस्त मन्त्रसमुदाय का मूर्तमान् स्वरूप है, तुम्हें बतला दिया।

मया श्रुतं कृष्ण-वक्त्रात् प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् यः ॥ ४७॥

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।

स च भक्तो वसेद्यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः ॥ ४८॥

मैंने इसे श्रीकृष्ण के मुख से श्रवण किया था। इसे जिस-किसी को नहीं बतलाना चाहिये। जो विधिपूर्वक गुरु का पूजन करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह भी विष्णुतुल्य हो जाता है;इसमें संशय नहीं है। वह भक्त जहाँ रहता है, वहाँ लक्ष्मी और सरस्वती निवास करती हैं।

यदि स्यात्सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः ।

निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ ४९॥

यदि उसे कवच सिद्ध हो जाता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है और उसे करोड़ों वर्षों की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है।

राजसूय-सहस्राणि वाजपेय-शतानि च ।

अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च ॥ ५०॥

महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा ।

त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ५१॥

हजारों राजसूय, सैकड़ो वाजपेय, दस हजार अश्वमेध, सम्पूर्ण महादान तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणाये सभी इस त्रैलोक्यविजय की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते।

व्रतोपवास-नियमं स्वाध्यायाध्ययनं तपः ।

स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि ॥ ५२॥

व्रत-उपवास का नियम, स्वाध्याय, अध्ययन, तपस्या और समस्त तीर्थों में स्नानये सभी इसकी एक कला को भी नहीं पा सकते।

सिद्धत्वममरत्वं च दासत्वं श्रीहरेरपि ।

यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ ५३॥

यदि मनुष्य इस कवच को सिद्ध कर ले तो निश्चय ही उसे सिद्धि, अमरता और श्रीहरि की दासता आदि सब कुछ मिल जाता है।

स भवेत्सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः ।

यो भवेत्सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद्ध्रुवम् ॥ ५४॥

जो इसका दस लाख जप करता है, उसे यह कवच सिद्ध हो जाता है और जो सिद्ध कवच होता है, वह निश्चय ही सर्वज्ञ हो जाता है।

इदं कवच-मज्ञात्वा भजेत्कृष्णं सुमन्दधीः ।

कोटिकल्पं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धि-दायकः ॥ ५५॥

परंतु जो इस कवच को जाने बिना श्रीकृष्ण का भजन करता है, उसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द है; उसे करोड़ों कल्पों तक जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियं कुरु ।

त्रिस्सप्तकृत्वो निश्शंकः सदानन्दो हि लीलया ॥ ५६॥

वत्स! इस कवच को धारण करके तुम आनन्दपूर्वक निःशंक होकर अनायास ही इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर डालो।

राज्यं देयं शिरो देयं प्रणा देयाश्च पुत्रक ।

एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे ॥ ५७॥

बेटा! प्राणसंकट के समय राज्य दिया जा सकता है, सिर कटाया जा सकता है और प्राणों का परित्याग भी किया जा सकता है; परंतु ऐसे कवच का दान नहीं करना चाहिये।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे परशुरामाय श्रीकृष्णकवचप्रदानं नामैकत्रिंशत्तमोऽध्यायः।।३१।।

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