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शिवस्तवराज स्तोत्र
शिवस्तवराज स्तोत्र अथवा
मन्त्रराजस्तोत्रं अथवा बाणकृतम् शिवस्तोत्रम् कल्पवृक्ष-स्वरूप है। वसिष्ठ जी ने
पूर्वकाल में त्रिशूलधारी शिव के इस परम महान अद्भुत स्तोत्र का गन्धर्व को उपदेश
दिया था। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है,
वह निश्चय ही सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल पा लेता है। जो
संयमपूर्वक हविष्य खाकर रहते हुए जगद्गुरु शंकर को प्रणाम करके एक वर्ष तक इस
स्तोत्र को सुनता है, वह पुत्रहीन हो तो अवश्य ही पुत्र
प्राप्त कर लेता है। जिसको गलित कोढ़ का रोग हो या उदर में बड़ा भारी शूल उठता हो,
वह यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र को सुने तो अवश्य ही उस रोग से मुक्त
हो जाता है। जो कैद में पड़कर शान्ति न पाता हो, वह भी एक
मास तक इस स्तोत्र को श्रवण करके अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जिसका राज्य
छिन गया हो, ऐसा पुरुष यदि भक्तिपूर्वक एक मास तक इस स्तोत्र
का श्रवण करे तो अपना राज्य प्राप्त कर लेता है। एक मास तक संयमपूर्वक इसका श्रवण
करके निर्धन मनुष्य धन पा लेता है। राजयक्ष्मा से ग्रस्त होने पर जो आस्तिक पुरुष
एक वर्ष तक इसका श्रवण करता है, वह भगवान शंकर के प्रसाद से
निश्चय ही रोगमुक्त हो जाता है। जो सदा भक्तिभाव से इस स्तवराज को सुनता है उसके
लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता। उसको कभी अपने बन्धुओं से वियोग
का दुःख नहीं होता। वह अविचल एवं महान ऐश्वर्य का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। जो पूर्ण संयम से रहकर अत्यन्त भक्तिभाव से एक मास तक
इस स्तोत्र का श्रवण करता है, वह यदि भार्याहीन हो तो अति
विनयशील सती-साध्वी सुन्दरी भार्या पाता है। जो महान मूर्ख और खोटी बुद्धि का है,
ऐसा मनुष्य यदि इस स्तोत्र को एक मास तक सुनता है तो वह गुरु के
उपदेश मात्र से बुद्धि और विद्या पाता है। जो प्रारब्ध-कर्म से दुःखी और दरिद्र
मनुष्य भक्तिभाव से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसे निश्चय
ही भगवान शंकर की कृपा से धन प्राप्त होता है। जो प्रतिदिन तीनों संध्याओं के समय
इस उत्तम स्तोत्र को सुनता है, वह इस लोक में सुख भोगता,
परम दुर्लभ कीर्ति प्राप्त करता और नाना प्रकार के धर्म का अनुष्ठान
करके अन्त में भगवान शंकर के धाम को जाता है, वहाँ श्रेष्ठ
पार्षद होकर भगवान शिव की सेवा करता है।
शिवस्तवराज स्तोत्र
ऊँ नमः शिवाय
बाणासुर उवाच
वन्दे सुराणां सारं च सुरेशं
नीललोहितम्।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च
गुरोर्गुरुम्।।1।।
ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं
सनातनम्।
तपसां फलदातारं दातारं
सर्वसम्पदाम्।।2।।
तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम्।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं
सिद्धगणैर्वरैः।।3।।
कारणं भुक्तिमुक्तीनां
नरकार्णवतारणम्।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं
करुणामयसागरम्।।4।।
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभम्।
ब्रह्मज्योतिःस्वरूपं च
भक्तानुग्रहविग्रहम्।।5।।
विषयाणां विभेदेन विभ्रन्तं
बहुरूपकम्।
जलरूपमग्निरूपमाकाशरूपमीश्वरम्।।6।।
वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्यरूपं
महत्प्रभुम्।
आत्मनः स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया।।7।।
भक्तजीवनमीशं च भक्तानुग्रहकातरम्।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं
स्तौमि तं प्रभुम्।।8।।
अपरिच्छिन्नमीशानमहो वाङ्मनसोः
परम्।
व्याघ्रचर्माम्बरधरं वृषभस्थं
दिगम्बरम्।
त्रिशूलपट्टिशधरं सस्मितं
चन्द्रशेखरम्।।9।।
इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाणः
सुसंयतः।
प्राणमच्छंकरं भक्त्या दुर्वासाश्च
मुनीश्वरः।।10।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे
ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे
स्तवराजोऽयमूनविंशोऽध्यायः ॥
शिवस्तवराज स्तोत्र अथवा मन्त्रराजस्तोत्रं अथवा बाणकृतम् शिवस्तोत्रम्
शिवस्तवराज स्तोत्रम् भावार्थ सहित
ऊँ नमः शिवाय
सच्चिदानन्दस्वरूप शिव को नमस्कार
है।
बाणासुर उवाच
वन्दे सुरणां सारं च सुरेशं
नीललोहितम् ।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च
गुरोर्गुरुम् ॥ ५६॥
बाणासुर बोला–
जो देवताओं के सार-तत्त्व स्वरूप और समस्त देव गणों के स्वामी हैं,
जिनका वर्ण नील और लोहित है, जो योगियों के
ईश्वर, योग के बीज तथा योगियों के गुरु के भी गुरु हैं,
उन भगवान शिव की मैं वन्दना करता हूँ।
ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं
सनातनम् ।
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम्
॥ ५७॥
जो ज्ञानानन्द स्वरूप,
ज्ञानरूप, ज्ञानबीज, सनातन
देवता, तपस्या के फलदाता तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने वाले
हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।
तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम् ।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं
सिद्धगणैर्वरैः ॥ ५८॥
जो तपःस्वरूप,
तपस्या के बीज, तपोधनों के श्रेष्ठ, धन, वर, वरणीय, वरदायक तथा श्रेष्ठ सिद्धगणों के द्वारा स्तवन करने-योग्य हैं, उन भगवान शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ।
कारणं भुक्तिमुक्तीनां
नरकार्णवतारणम् ।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं करुणामयसागरम्
॥ ५९॥
जो भोग और मोक्ष के कारण,
नरक समुद्र से पार उतारने वाले, शीघ्र प्रसन्न
होने वाले, प्रसन्नमुख तथा करुणासागर हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसन्निभम्
।
ब्रह्मज्योतिस्वरूपं च
भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ६०॥
जिनकी अंगकान्ति हिम,
चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा,
कुमुद तथा श्वेत कमल के सदृश उज्ज्वल है, जो
ब्रह्मज्योतिःस्वरूप तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये विभिन्न रूप धारण करने
वाले हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।
विषयाणां विभेदेन बिभ्रन्तं
बहुरूपकम् ।
जलरूपमग्निरूपमाकाशरूपमीश्वरम् ॥
६१॥
वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्यरूपं
महत्प्रभुम् ।
आत्मनः स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया ।
भक्तजीवनमीशं च भक्तानुग्रहकातरम् ॥
६२॥
जो विषयों के भेद से बहुतेरे रूप
धारण करते हैं, जल, अग्नि,
आकाश, वायु, चन्द्रमा और
सूर्य जिनके स्वरूप हैं, जो ईश्वर एवं महात्माओं के प्रभु
हैं और लीलापूर्वक अपना पद देने की शक्ति रखते हैं, जो
भक्तों के जीवन हैं तथा भक्तों पर कृपा करने के लिये कातर हो उठते हैं, उन ईश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं
स्तौमि तं प्रभुम् ।
अपरिच्छिन्नमीशानमहो वाङ्मनसोः परम्
॥ ६३॥
व्याघ्रचर्माम्बरधरं वृषभस्थं
दिगम्बरम् ।
त्रिशूलपट्टिशधरं सम्मितं
चन्द्रशेखरम् ॥ ६४॥
वेद भी जिनका स्तवन करने में असमर्थ
हैं,
जो देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं हैं
तथा मन और वाणी की पहुँच से परे हैं, उन परमेश्वर प्रभु की
मैं क्या स्तुति करूँगा! जो बाघम्बरधारी अथवा दिगम्बर हैं, बैल
पर सवार हो त्रिशूल और पट्टिश धारण करते हैं, उन मन्द
मुस्कान की आभा से सुशोभित मुख वाले भगवान चन्द्रशेखर को मैं प्रणाम करता हूँ।
इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाणः
सुसंयतः ।
प्रणमत् शङ्करं भक्त्या दुर्वासाश्च
मुनीश्वरः॥ ६५॥
यों कहकर बाणासुर प्रतिदिन
संयमपूर्वक रहकर स्वतराज से भगवान की स्तुति करता था और भक्तिभाव से शंकर जी के
चरणों में मस्तक झुकाता था। मुनीश्वर दुर्वासा भी ऐसा ही करते थे।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे स्तवराजोऽयमूनविंशोऽध्यायः ॥
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