लक्ष्मी कवच
श्रीहरि ने प्रसन्न होकर इन्द्र को यह लक्ष्मी कवच दिया था, जो कि ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड अध्याय 22 में वर्णित है। इसे सर्वैश्वर्यप्रद लक्ष्मी कवच के नाम से जाना जाता है। यह लक्ष्मी-कवच सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को देनेवाला, समस्त दुःखों का विनाशक व सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला है। यहाँ इस कवच का मूलपाठ सहित भावार्थ दिया जा रहा है।
सर्वैश्वर्यप्रद लक्ष्मी कवच
मधुसूदन उवाच ।
गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम् ।
परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम्
॥ १ ॥
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं विष्टपे च जलप्लुते
।
यद्धृत्वा जगतां श्रेष्ठः
सर्वैश्वर्ययुतो विधिः ॥ २ ॥
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुता
यतः ।
सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य
ऋषिर्विधिः ॥ ३ ॥
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं
पद्मालया वरा ।
सिद्ध्यैश्वर्यसुखेष्वेव विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ ४ ॥
यद्धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी
भवेत् ।
लक्ष्मी कवच मूलपाठ
मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु
हरिप्रिया ॥ ५ ॥
नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु
लोचने ।
केशान्केशवकान्ता च कपालं कमलालया ॥
६ ॥
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं
सम्पत्प्रदा सदा ।
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं
सदाऽवतु ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं पद्मालयायै स्वाहा
वक्षः सदाऽवतु ।
पातु श्रीर्मम कङ्कालं बाहुयुग्मं च
ते नमः ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ
पातु मे सन्ततं चिरम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा
पातु नितम्बकम् ॥ ९ ॥
ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा
सर्वाङ्गं पातु मे सदा ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै
स्वाहा मां पातु सर्वतः ॥ १०॥
लक्ष्मी कवच फलश्रुति
इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं
परम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं
परमाद्भुतम् ॥ ११॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं
धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स सर्वविजयी
भवेत् ॥ १२ ॥
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति
कदाचन ।
तस्यच्छायेव सततं सा च जन्मनि
जन्मनि ॥ १३ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं स
मन्दधीः ।
शतलक्षप्रजापेऽपि न मन्त्रः
सिद्धिदायकः ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे गणपतिखण्डे लक्ष्मीकवचं सम्पूर्ण: ॥
सर्वैश्वर्यप्रद लक्ष्मी कवच भावार्थ सहित
मधुसूदन उवाच ।
गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम् ।
परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम्
॥ 1॥
श्रीमधुसूदन बोले–
इन्द्र! (लक्ष्मी-प्राप्ति के लिये) तुम लक्ष्मी-कवच ग्रहण करो। यह
समस्त दुःखों का विनाशक, परम ऐश्वर्य का उत्पादक और सम्पूर्ण
शत्रुओं का मर्दन करने वाला है।
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं विष्टपे च
जलप्लुते ।
यद्धृत्वा जगतां श्रेष्ठः
सर्वैश्वर्ययुतो विधिः ॥ 2॥
पूर्वकाल में जब सारा संसार जलमग्न
हो गया था, उस समय मैंने इसे ब्रह्मा को
दिया था। जिसे धारण करके ब्रह्मा त्रिलोकी में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से
सम्पन्न हो गये थे।
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुता
यतः ।
सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य
ऋषिर्विधिः ॥ 3॥
इसी के धारण से सभी मनु लोग
सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के भागी हुए थे। देवराज! इस सर्वैश्वर्यप्रद कवच के ब्रह्मा
ऋषि हैं।
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं
पद्मालया वरा ।
सिद्ध्यैश्वर्यसुखेष्वेव विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ 4॥
पंक्ति छन्द है,
स्वयं पद्मालया लक्ष्मी देवी हैं और सिद्धैश्वर्यप्रद के जपों में
इसका विनियोग कहा गया है।
यद्धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी
भवेत् ।
मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु
हरिप्रिया ॥ 5॥
इस कवच के धारण करने से लोग सर्वत्र
विजयी होते हैं। पद्मा मेरे मस्तक की रक्षा करें। हरिप्रिया कण्ठ की रक्षा करें।
नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु
लोचने ।
केशान्केशवकान्ता च कपालं कमलालया ॥
6॥
लक्ष्मी नासिका की रक्षा करें। कमला
नेत्र की रक्षा करें। केशवकान्ता केशों की, कमलालया
कपाल की रक्षा करें।
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं
सम्पत्प्रदा सदा ।
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं
सदाऽवतु ॥ 7॥
जगज्जननी दोनों कपोलों की और
सम्पत्प्रदा सदा स्कन्ध की रक्षा करें। ‘ऊँ
श्री कमलवासिन्यै स्वाहा’ मेरे पृष्ठभाग का सदा पालन करे।
ॐ ह्रीं श्रीं पद्मालयायै स्वाहा
वक्षः सदाऽवतु ।
पातु श्रीर्मम कङ्कालं बाहुयुग्मं च
ते नमः ॥ 8॥
‘ऊँ श्री पद्मालयायै स्वाहा’
वक्षःस्थल को सदा सुरक्षित रखे। श्री देवी को नमस्कार है, वे मेरे कंकाल तथा दोनों भुजाओं को बचावें।
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ
पातु मे सन्ततं चिरम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा
पातु नितम्बकम् ॥ 9॥
‘ऊँ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः’
चिरकाल तक निरन्तर मेरे पैरों का पालन करे। ‘ऊँ
ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा’ नितम्ब भाग की रक्षा करे।
ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा
सर्वाङ्गं पातु मे सदा ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै
स्वाहा मां पातु सर्वतः ॥ 10॥
‘ऊँ श्री महालक्ष्म्यै स्वाहा’
मेरे सर्वांग की सदा रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं
क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा’ सब ओर से सदा मेरा पालन करे।
इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं
परम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं
परमाद्भुतम् ॥ 11॥
वत्स! इस प्रकार मैंने तुमसे इस
सर्वैश्वर्यप्रद नामक परमोत्कृष्ट कवच का वर्णन कर दिया। यह परम अद्भुत कवच
सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाला है।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं
धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स सर्वविजयी
भवेत् ॥ 12॥
जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की
अर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है,
वह सबको जीतने वाला हो जाता है।
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति
कदाचन ।
तस्यच्छायेव सततं सा च जन्मनि
जन्मनि ॥ 13॥
महालक्ष्मी कभी उसके घर का त्याग
नहीं करतीं; बल्कि प्रत्येक जन्म में छाया
की भाँति सदा उसके साथ लगी रहती हैं।
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं स
मन्दधीः ।
शतलक्षप्रजापेऽपि न मन्त्रः
सिद्धिदायकः ॥ 14॥
जो मन्दबुद्धि इस कवच को बिना जाने
ही लक्ष्मी की भक्ति करता है, उसे एक करोड़
जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे
गणपतिखण्डे लक्ष्मीकवचं सम्पूर्ण: ॥
॥ इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के गणपतिखण्ड का लक्ष्मी कवच पूर्ण हुआ॥
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