श्रीराम विवाह शाखोच्चार

श्रीराम विवाह शाखोच्चार

भारत में वर-कन्या को साक्षात् लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमूर्ति माना जाता है, अतः हम भी कन्या को लक्ष्मी स्वरूपा श्रीजानकी जूं व वर को श्री रामजी जानकर श्री रामचन्द्र विवाह शाखोच्चार करें ।

श्रीराम विवाह शाखोच्चार

श्रीसीताराम विवाह शाखोच्चार

मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह हुआ था। तभी से इस पंचमी को भारत में विवाह पंचमी पर्वके रूप में मनाया जाता है।

रामचरितमानस में तुलसी दास जी ने इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है ।

लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।

नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥

जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।

जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥

भावार्थ:-वे श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश और नगर में होने वाली गान, नगाड़े और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड़ चली, जो चरण कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं॥

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।

मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥

करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।

ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥

भावार्थ:-जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गंगाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।

भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥

सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।

करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥

भावार्थ:-दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप महाराज जनकजी ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥

श्री रामचन्द्र विवाह शाखोच्चार

Shri Sita Ram Vivah shakhochar

श्री रामचन्द्र के विवाह का शाखोच्चार

श्री गणेश मनाय के शाखा करूं बखान ।

वर कन्या चिरंजीव हों कृपा करें भगवान ॥

जनकपुरी के राव हैं राजा जनक सुजान ।

कन्या व्याह रचाय के यह प्रण मन में ठान ॥

परशुराम के धनुष को जो कोई लेय उठाय ।

सीता जी उसको वरें कार्य सुफल हो जाय ॥

देश-देश के भूप सुन आये जनक के द्वार ।

धनुष बाण उठता नहीं सबने मानी हार ॥

नारद मुनि आये जभी राजा कीनो प्रश्न ।

सीता वर है कौन सा रामचन्द्र हरि विश्न ॥

विश्वामित्र लेकर चले लक्ष्मण श्रीभगवान ।

सब राजा देखें खड़े धनुष तोड़ दिया तान ।

फूलों की माला गले दीनी सीता डार ।

सब राजा घर कूं चले अपने मन में हार ॥

पंडित कूं बुलवाय के लग्न लिखौ शुभ वार ।

अनुराधा नक्षत्र घर और लिखा परिवार ॥

गौरी गायत्री सभी कुलवन्ती सब नार ।

मंगल गावें कुल वधू बरसत रंग अपार ॥

घोड़ों सुभग मँगाय कर कलंगी पाखर जीन ।

हीरे मोती का सेहरा मुकट धरौ परवीन ॥

चंवर करें सेवक खड़े दशरथ करें समान ।

चली बरात भगवान की फरकन लगे निशान ॥

जनकपुरी देखे खड़ी मन में खुशी अपार ।

आई बरात भगवान की शोभा अपरम्पार ॥

पंडित को बुलवाय कर कलश गणेश ले हाथ ।

सब राजा मिलने चले जनकराव के साथ ॥

राजा दशरथ से मिले जनक प्रीति कर जाय ।

दूल्हे की सेवल करी जनवासे बिठलाय ॥

लीक चुका राजा चले जनक राव के साथ ।

फेरों की त्यारी करी गुरु वशिष्ठ के हाथ ॥

सीता श्रीभगवान् को वेदी दिये बिठाय ।

वेद पढ़े धुनि लाय कर हो रहे जय जयकार ॥

गौरी गायत्री सभी कुलवन्ती सब नार ।

मृग नयनी दें सीठने शोभा अपरम्पार ॥

कन्या का संकल्प कर राजा जनक सुजान ।

गुरु वशिष्ठ बोले जभी कहें स्वस्ति भगवान ॥

कन्या ब्याह रचाय कर दियो वित्त सामान ।

स्वीकारो सब पंच मिल, कृपा करो भगवान ॥

।। इति श्रीरामचन्द्र के विवाह का शाखोच्चार ।।

श्रीसीताराम विवाह शाखोच्चार

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।

तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥

क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।

करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥

भावार्थ:-जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और भाँवरें होने लगीं॥

जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।

सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥

भावार्थ:-जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं॥

सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥

श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह (आनंद) ही उत्साह है, क्योंकि श्री रामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है॥

श्री सीताराम विवाह (श्रीरामचरितमानस)

जय श्री सीताराम

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