कालिका पुराण अध्याय ४५

कालिका पुराण अध्याय ४५                    

कालिका पुराण अध्याय ४५ में अर्धनारीश्वर चरित्र का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ४५

कालिका पुराण अध्याय ४५                           

Kalika puran chapter 45

कालिकापुराणम् पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः अर्धनारीश्वरचरितवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ४५                  

।। ऋषय ऊचुः ।

विचित्रमिदमाख्यानं ब्रह्मन् कालीहरागमम् ।

पुण्यं पापहरं नित्यं श्रुतिसौख्यप्रदं वरम् ।। १ ।।

ऋषिगण बोले- हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! काली एवं शिव के समागम का कहा गया यह प्रसङ्ग, अद्भुत, पवित्र, पापों को दूर करने वाला, शाश्वत, कानों को सुखप्रदान करने वाला, तथा श्रेष्ठ है ॥१॥

भूयः कथय शर्वस्य कालीतन्वार्धमुत्तमम् ।

कथं जहार गौरी वा कथम्भूताथ कालिका ॥२॥

केन वा कारणेनाशु कृष्णा गौरीत्वमागता ।

तन्न: कथय तत्त्वेन मुनिश्रेष्ठ द्विजोत्तम ।। ३ ।।

हे मुनि श्रेष्ठ, हे द्विजों में उत्तम ! पुनः कहिये कि काली ने शिव के उत्तम आधे शरीर को कैसे धारण किया ? या कालिका गौरी कैसे हुई ? किस कारण से कृष्णा ने गौरीत्व को प्राप्त किया ? वह सब हमसे तत्त्वरूप में कहिये ।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इदं तु महदाख्यानं कथयिष्यामि वोऽधुना ।

महर्षयस्तच्छृण्वन्तु तत्त्वेन शुभदं परम् ।।४।।

मार्कण्डेय बोले- हे महर्षियों! अब मैं आप सबसे इस अत्यन्त शुभदायक, महान् आख्यान को तत्वपूर्वक (पूर्णतः) कहूँगा, आप उसे तत्व से (गम्भीरता से) सुनें ॥४॥

एतदौर्व पुरा राजा सगरः पृष्टवान्मुनिम् ।

स तं यथा समाचष्ट तद्वोऽथ निगदाम्यहम् ॥५॥

प्राचीनकाल में इस प्रसङ्ग को राजा सगर ने और्वमुनि से पूछा था । उन्होंने इसे उस समय जिस रूप में उन राजा से कहा (बताया) था, अब मैं वही आप लोगों से कहता हूँ ॥ ५ ॥

पुराभूत् सोमवंशे च सगरो नाम पार्थिवः ।

स श्रीमान् बलवान् दक्षः सर्वशास्त्रार्थपारगः ॥६॥

प्राचीनकाल में चन्द्रवंश में एक सगर नाम के राजा हुये जो श्री (धन) से युक्त, बलवान्, चतुर तथा सभी शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारङ्गत थे ॥ ६ ॥

सोऽभूदेकरथेनैव जित्वा सर्वान् महीभुजः ।

सार्वभौमो नरपति: सर्वराजगुणैर्युतः ।।७।।

वे एक रथ से ही सभी राजाओं को जीतकर सभी राजोचित गुणों से युक्त होकर, सार्वभौम राजा हुये ॥ ७ ॥

तं प्राप्तराज्यं राजानं सगरं पार्थिवोत्तमम् ।

सभाजयितुमत्यर्थं मुनयः समुपागताः ।।८।।

राजाओं में श्रेष्ठ, उस राजा सगर के राज्य प्राप्त कर लेने पर उनका अत्यधिक समादर करने हेतु मुनिगण (उनके यहाँ) पधारे ॥८॥

प्राच्योदीच्या महात्मानो दाक्षिणात्यास्तथोत्तराः ।

मुनयो ब्राह्मणाश्चैव नृपं द्रष्टुं समागमन् ।। ९ ।।

उस समय पूर्वोत्तर, दक्षिण तथा उत्तर दिशाओं से मुनिगण, महात्मा लोग तथा ब्राह्मण वर्ग राजा को देखने के लिए आये ॥९॥

आगतेष्वथ सर्वेषु महात्मा ज्वलनोपमः ।

और्वो नाम मुनिः श्रीमानागतो नन्दितुं नृपम् ।। १० ।।

तत्पश्चात् उन सभी महात्माओं के आ जाने पर अग्नि के समान देदीप्यमान, श्री (शोभा) से युक्त, और्व नामक मुनि, राजा को प्रसन्न करने के लिए वहाँ पधारे ॥१०॥

तमागतं मुनिं दृष्ट्वा ज्वलन्तमिव पावकम् ।

सपर्यया महत्या तु सगरस्तमपूजयत् ।। ११ ।।

जलती हुई अग्नि के समान प्रकाशमान उस मुनि को आया हुआ देखकर, राजा सगर ने महती सेवापूर्वक उनका पूजन किया ॥ ११ ॥

पाद्यमाचमनीयं च दत्त्वैवार्धपुरोगमम् ।

निवेशयामास च तं मुनिश्रेष्ठं वरासने ।।१२।।

उन मुनिश्रेष्ठ को पहले पाद्य (पाद प्रक्षालन हेतु जल), आचमनीय, एवं अर्घ देकर उन्होंने उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बैठाया ।। १२ ।।

उवाच च महात्मानमौर्वं स सगरो नृपः ।

प्रणम्य च यथायोग्यं कुशलं तु इति द्विजम् ।।१३।।

राजा सगर ने द्विज, महात्मा, और्व को प्रणाम कर उनसे यथायोग्य कुशल-प्रश्न पूछा ।। १३ ।।

स च प्राह मुनिश्रेष्ठो नरराज सदा मम ।

सर्वत्र कुशलं त्वां तु द्रष्टुं कुशलमुत्सहे ।। १४ ।।

तब उन मुनिश्रेष्ठ ने कहा- हे नरराज! मेरा सदैव सब जगह कुशल है । मैं आपका कुशल देखने की कामना करता हूँ ॥१४॥

त्वत्तः कोन्योऽस्ति कुशली पृथिव्यां सर्वराजसु ।

य एकः सञ्जिगायाशु भवान् सकलपार्थिवान् ।। १५ ।।

पृथिवी पर सभी राजाओं में तुमसे अधिक कुशल कौन हैं ? अर्थात कोई नहीं है क्योंकि तुमने अकेले ही शीघ्रतापूर्वक सभी राजाओं को जीत लिया है ॥१५॥

कुशलं वर्धतां नित्यं तव राजवरोत्तम ।

यथा नीत्या सदाचारैः पृथिवीं शाधि भूपते ।। १६ ।।

हे श्रेष्ठ राजाओं में उत्तम ! तुम्हारी कुशलता जिससे नित्य बढ़ती रहे। ऐसी ही नीति से तुम सदाचारपूर्वक पृथ्वी का शासन करो ॥ १६ ॥

तव वृद्धौ जगद्वृद्धिर्वृद्धौ चेष्टां ततः कुरु ।

शुभ्रांशुवृद्धौ सततं सागरस्येव वर्धनम् ।। १७ ।।

तुम्हारी वृद्धि से ही जगत् की वृद्धि है अतः इसी दिशा में दृढ़तापूर्वक प्रयत्न करो क्योंकि चन्द्रमा के विकास से ही निरन्तर सागर की वृद्धि होती है ॥ १७ ॥

प्रथमं सद्गुणैरात्मा क्रियतां नृप योजनम् ।

ततः स्वभार्या महिषी क्रियतां तद्गुणैर्युता ।। १८ ।।

हे राजन् ! पहले अपने आपका सद्गुणों से संयोजन कीजिये, तत्पश्चात् अपनी पत्नी, महारानी को उन्हीं गुणों से युक्त कीजिये ॥१८॥

नित्या संयोजिता चेत् स्याद्वनिता स्वयमेव हि ।

स्वगुणेषु प्रवेक्ष्यन्ती महत्यपि धृतव्रता ।।१९।।

यदि स्त्री स्वयं ही नित्यगुणों में संयुक्त हो तो शम्भु में मन लगाये हुये महान् धैर्यव्रतधारिणी अपने गुणों में प्रवेश कर जाएगी ।। १९ ।।

श्रूयते हिमवत्पुत्री शम्भुसंगतमानसा ।

क्रियाभ्युपायैर्बहुभिः शम्भुना सा प्रयोजिता ॥२०॥

ततोऽतिमहता प्रेम्णा शङ्करस्याथ पार्वती ।

शरीरमर्धमहरत्तस्यैवानुमते सती ।। २१ ।।

सुना जाता है कि हिमालय की पुत्री पार्वती जिसका मन सदैव शिव में लगा रहता था। शिव के द्वारा बहुत सी क्रियाओं एवं उपायों द्वारा प्रायोजित की गईं। शिव पार्वती में बहुत अधिक प्रेम होने के कारण, उन्हीं की आज्ञा से सती पार्वती ने शिव के शरीर के आधे भाग को प्राप्त कर लिया ॥ २०-२१॥

अर्धनारीश्वरस्तेन तदा प्रभृति शङ्करः ।

अभवन् नृपशार्दूल नान्यां भार्यां गृहीतवान् ।। २२ ।।

हे राजाओं में शार्दूल के समान श्रेष्ठ ! तब से ही भगवान् शङ्कर अर्ध नारीश्वर हो गये तथा उन्होंने अन्य किसी को भी ग्रहण नहीं किया ॥ २२ ॥

तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र स्वजायामात्मनोत्तरे ।

गुणैः संयोजय लघु संयोजय ततः सुतम् ।। २३ ।।

हे राजेन्द्र ! इसलिए आप भी अपने श्रेष्ठ गुणों से शीघ्र ही अपनी पत्नी को युक्त करो, तत्पश्चात् अपने पुत्र को उससे कम गुणों से संयोजित करना ।।२३।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्यौर्वभाषितं श्रुत्वा सगरोऽपि मुदान्वितः ।

इदं मुनिमपृच्छत् स नृपतिः स्मितसन्ततः ।। २४ ।।

मार्कण्डेय बोले- और्वमुनि के इस कथन को सुनकर प्रसन्नतापूर्वक मुस्कुराते हुए, उस राजा सगर ने उन मुनि से इस प्रकार पूछा ॥२४॥

।। सगर उवाच ।।

कथं सा गिरिजा देवी कायार्धमहरत् सती ।

शङ्करस्य द्विजश्रेष्ठ तदहं श्रोतुमुत्सहे ।। २५ ।।

सगर बोले- हे द्विज श्रेष्ठ ! सती गिरिजा देवी ने कैसे शङ्कर के अर्धशरीर को धारण किया ? उसे मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ ।। २५ ।।

नीत्या यया वा योक्तव्या स्वात्मा भार्या सुतोऽथवा ।

तां नीतिं च सदाचारसंहितां श्रोतुमुत्सहे ।। २६ ।।

जिस नीति के द्वारा अपने को, अपनी पत्नी को या पुत्र को गुणों से युक्त किया सकता है, उस नीति को तथा सदाचारसंहिता को मैं सुनना चाहता हूँ ॥ २६ ॥

राजनीतिं सतां नीतिमन्येषां च कृतात्मनाम् ।

पृथक् पृथक् श्रोतुमिच्छुरहं त्वां नाथये द्विज ।। २७ ।।

हे द्विज ! राजनीति तथा कृतात्मा लोगों द्वारा दूसरों के प्रति अपनाई गई नीति को अलग-अलग सुनने का इच्छुक हो, मैं आप से प्रार्थना कर रहा हूँ ॥२७॥

यदि गुह्यमिदं ब्रह्मन्न तदा श्रोतुमुत्सहे ।

तथा नाज्ञापयामि त्वां श्रोतुमिच्छुश्च तत्समम् ।

कृपया कथनीयं चेत्तदा कथय तन्मुने ।। २८ ।।

हे मुनि ! हे ब्रह्मन् ! यदि यह (उपर्युक्त प्रश्न) गोपनीय न हो तो आपसे इसे सुनना चाहता हूँ । उन सबको सुनने की इच्छा रखने वाला मैं, ऐसा करने (सुनाने) के लिए आपको आज्ञा भी नहीं देता तथापि यदि कहने योग्य हो तो आप उसे कृपा करके कहिये ॥२८॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्येवं सगरेणोक्तमौर्वोऽपि द्विजसत्तम ।

प्रत्युवाच महात्मानं कृपालुस्तत्र भूपतौ ।। २९ ।।

मार्कण्डेय बोले- हे द्विजसत्तम! उस समय सगर के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर कृपालु और्वमुनि ने महान् आत्मा वाले, राजा को उत्तर देते हुए कहा ॥२९॥

।। और्व उवाच ।।

शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि यद् यत् पृष्टमिह त्वया ।

यथा हरस्य तन्वर्ध भूभृत्पुत्री पुराहरत् ।। ३० ।।

हे राजन् ! जो-जो आप द्वारा पूछा गया है, उसे मैं बताऊगाँ । आप उसे ध्यान से सुनो कि किस प्रकार पर्वतराज हिमालय की पुत्री, पार्वती ने प्राचीनकाल में शङ्कर के अर्धाङ्ग को ग्रहण किया ॥३०॥

यथा नीतिस्त्वया कार्या यत्र यत्र नृपोत्तम ।

सर्वेषां च सदाचारं क्रमाद् वक्ष्यामि तच्छृणु ।। ३१ ।।

हे राजाओं में उत्तम ! जहाँ-जहाँ तुम्हें जिस नीति का प्रयोग करना चाहिये उसे तथा सबके द्वारा आचरण करने योग्य सदाचार, मैं क्रमश: कहूँगा, उसे सुनो ॥ ३१॥

यदोढा हिमवत्पुत्री शङ्करेण महात्मना ।

कियन्तं स तदा कालं तत्र निन्ये समोमया ।। ३२ ।।

जब हिमालय की पुत्री, पार्वती का महात्मा शङ्कर से विवाह हो गया तो उन (शिव) ने उस समय वहीं, उन्ही उमा के साथ अपना कुछ समय व्यतीत किया ॥३२॥

रममाणस्तया सार्धं सानौ कुञ्जे दरीषु च ।

विजहार चिरं तत्र पार्वतीं मोदयन् हरः ।। ३३ ।।

उस समय, उन पार्वती के साथ पर्वत शिखरों पर, कुञ्जों में, गुफाओं में पार्वती को आनन्दित करते हुये भगवान शङ्कर ने बहुत समय तक बिहार किया ॥३३॥

अथ काले तु सम्प्राप्ते शम्भुः कैलासपर्वतम् ।

सगणो भार्यया सार्धमगच्छत्त्रिदिवोपमम् ॥३४॥

इसके बाद, समय आने पर शिव, अपने गणों एवं पत्नी सहित, स्वर्ग के समान श्रेष्ठ, अपने कैलाशपर्वत पर चले गये ॥३४॥

स तया क्रीडमानश्च त्यक्तध्यानात्मचिन्तनः ।

तद्वक्त्रचन्द्रे नेत्राणि चकोरानिव चाकरोत् ।। ३५ ।।

उनके साथ क्रीड़ा करते हुए वे अपने आत्मचिन्तनमय ध्यान को छोड़कर उनके मुखरूपी चन्द्रमा हेतु अपने दोनों नेत्रों को चकोर बनाये रहते थे अर्थात् एकटक पार्वती के मुख को ही देखा करते थे ॥३५॥

पुष्पाणि क्वचिदाहृत्य गिरिजां प्रति शङ्करः ।

सर्वाङ्गसङ्गिनीं मालां विदधेऽतिमनोहराम् ।। ३६ ।।

शङ्कर कभी पुष्पों को लाकर गिरिजा (पार्वती) के लिए अङ्गों की शोभा बढ़ाने वाली अत्यन्त सुन्दर माला की रचना करते ॥३६ ॥

कदाचिदादर्शतले युगपच्चात्मनो मुखम् ।

मुखं तथैवापर्णायाः वीक्षाञ्चक्रे वृषध्वजः ।। ३७।।

वृषध्वजशिव कभी दर्पण में एक साथ पावर्ती के सहित अपना मुँह देखते तो कभी उसी भाँति अपने सहित पार्वती का मुँह देखते ॥३७॥

कदाचिन्मृगनाभीनां विलेपैर्गन्धपत्रकम् ।

तस्या घनस्तनयुगे विलिलेख स्मरान्तकः ॥३८॥

स्मर (कामदेव) का अन्त करने वाले वे शिव, कभी मृग की नाभि से उत्पन्न, कस्तूरी नामक पदार्थ से युक्त चन्दन के लेप से उनके दोनों पुष्ट स्तनों पर चित्र बनाते थे ॥३८॥

गन्धसारविलेपेन तिलकान्यम्बिकातनौ ।

ललाटे चाकरोच्चारु चन्द्रवद्घनसन्धिषु ।। ३९ ।।

वे कभी अम्बिका (पार्वती) के शरीर और ललाट पर चन्दन के लेप से बादलों के बीच चन्द्रमा की भाँति सुन्दर चिन्हों का अङ्कन करते' ॥३९॥

उमानिर्याससंसक्तकेशपाशेषु चित्रकम् ।

चन्दनागुरुकस्तूरीकुंकुमस्य विलेपनैः ।। ४० ।।

चकार येन तस्यास्तु केशपाशो व्यराजत ।

नर्तनायावतीर्णस्य शिखिपुच्छस्य साम्यधृक् ।। ४१ ।।

चित्रक वृक्ष के रस (गोंद) से गुँथे, हुए उमा (पार्वती) के केशों को वे चन्दन, अगर, कस्तूरी और कुंकुम के विलेपन से जब चित्रित करते तो वे केशपाश, नाचने के लिए उद्यत, मोर के पखों की समानता रखते हुए शोभायमान होते थे ।।४०-४१।।

जाम्बूनदमयाञ् शुद्धान् कुण्डलाद्यान् मनोहरान् ।

अलङ्कारानुमा देहे समाकार्षीद् वृषध्वज: ।। ४२ ।।

वृषध्वज शिव, शुद्धस्वर्ण जाम्बूनद, के बने सुन्दर आभूषणों को पार्वती के अंगों पर सजाते थे ॥४२ ॥

तैर्जाम्बूनदसम्भूतैर्योजितैर्गिरिजातनुः।

विभाति जलदापूर्णे कालिकेव तडिद्गणैः ।।४३।।

उस समय स्वर्णिम आभूषणों से युक्त उन गिरिजा का शरीर, बिजलियों से परिपूर्ण, काले बादलों की भाँति सुशोभित होता था ।। ४३ ।।

सर्वैर्दिव्यैरलङ्कारैर्नानारत्नैः सदंशुकैः ।

सम्पूर्णमण्डिता काली सादृश्यं प्रकृतेर्दधौ ।। ४४ ।

उस समय, उत्तम वस्त्रों, अनेक रत्नों तथा सब प्रकार के दिव्य अलङ्कारों से पूर्णरूप में सजी हुई भगवती काली (पार्वती), पराप्रकृति की सौन्दर्यमयी समता को धारण करने लगीं ॥४४॥

एवं सदा सानुरागस्तस्यां शम्भुर्जगत्पतिः ।

जगद्धिताय चिक्रीड काल्या दयितया सह ।। ४५ ।।

जगत् के स्वामी भगवान् शिव, संसार के कल्याण हेतु, उस अपनी पत्नी काली के साथ, इस प्रकार से सदैव प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते रहे ॥ ४५ ॥

काली च जगतां माता महामाया जगन्मयी ।

योगनिद्रा जगद्बुद्धिर्विद्याविद्यात्मिकाखिला ।। ४६ ।।

प्रकृतिः परमामूर्तिः सर्गान्तस्थितिकारिणी ।

सम्मोह्य शङ्करं यत्नाज्जगतां च हितैषिणी ।

रेमे तेन समं देवी चन्द्रिकेव सुधांशुना ॥४७ ।।

जगत् की माता, महामाया, स्वयं जगत्स्वरूपा, योगनिद्रा, जगत की बुद्धि, विद्या और अविद्या, सबकी आत्मस्वरूपा, पराप्रकृति, सर्वश्रेष्ठ रूपवाली, सबकी सृष्टि-पालन और अन्त करने वाली तथा संसार का हित चाहने वाली, काली ने यत्नपूर्वक भगवान् शङ्कर को मोहित कर, उनके साथ उसी प्रकार रमण किया जैसे चन्द्रिका, सुधांशु (चन्द्रमा) के साथ करती है ॥४६-४७॥

अथैकदा स्मरहरः कैलासाग्रे सहोमया ।

रममाणो मुदा युक्तो ददृशेऽप्सरसः शुभाः ।।४८ ।।

रूपयौवनसम्पन्नाः सर्वलक्षणसंयुताः ।

तासां मध्यगता वेश्या उर्वशी च मनोहरा ।। ४९ ।। .

एक बार कैलाश के शिखर पर उमा के साथ प्रसन्नतापूर्वक रमण करते हुए, स्मरहर (कामारि भगवान् शङ्कर) ने रूपयौवन से सम्पन्न, सभी लक्ष्णों से युक्त, शुभदायिनी, सुन्दरी, अप्सराओं को तथा उनके बीच मन को हरण करने वाली उर्वशी नामक वैश्या (अप्सरा) को देखा ।।४८-४९ ॥

ता: सर्वा रक्तगौरांग्यः सर्वालङ्कारभूषिताः ।

मुनीनां च मनोऽत्यर्थं शक्ता मोहयितुं हठात् ।। ५० ।।

वे सभी लालिमायुक्ता, गोरे रङ्ग की, सभी अलङ्कारों से सुशोभित तथा मुनियों के भी मन को बरबस मोहने में समर्थ थीं ॥५०॥

ताः प्रणम्य हरं दृष्ट्वा गिरिजां च मनोरमाम् ।

अग्रे प्राञ्जलयस्तस्थुस्तद्भीतिनतमस्तकाः ।। ५१ ।

वे अप्सरायें हर (शिव) तथा सुन्दरी गिरिजा को देखकर उनके सम्मुख भय एवं विनम्रतावश हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं ॥ ५१ ॥

अथ प्राह तदा भर्गः पार्वतीमिदमद्भुतम् ।

तासां समक्षं तस्यां तु भाषितुं स्याद् यदप्रियम् ।। ५२ ।।

तब इसके बाद भर्ग (शिव) ने, उन अप्सराओं के सामने ही उन पार्वती से ये अद्भुत वचन कहे, जो अप्रिय भी थे ॥५२॥

।। भर्ग उवाच ।

कालि भिन्नाञ्जनश्यामे उर्वश्याद्यप्सरोगणैः ।

त्वयेह स्त्रीस्वभावेन संलापः क्रियतामिति ।। ५३ ।।

भर्ग (शिव) बोले- हे अञ्जन (काजल) के टुकड़े के समान काले रङ्ग वाली, काली ! स्त्री स्वभाववश तुम इस समय इन उर्वशी आदि (गौराङ्गी) अप्सराओं से संलाप (वार्तालाप) करो ॥५३॥

।। और्व उवाच ।।

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यथायोग्यं च सोर्वशी ।

अप्सरसः समाभाष्य विसृष्टा गिरिजा तया । । ५४ ।।

अथ सा क्रोधवशगा पार्वती भर्गभावितात् ।

काली भिन्नाञ्जनश्यामेत्युदिता ह्यभवत् क्षणात् ।। ५५ ।।

और्व बोले- उन शिव के इस वचन को सुनकर, उर्वशी सहित उन अप्सराओं के साथ यथोचित वार्तालाप कर, उन्हें अपने द्वारा विदाकर दिये जाने के बाद, क्षण भर में ही वह पार्वती (शिव द्वारा) काजल के टुकड़े के समान काली' कहे जाने से क्रोधित हो गई ।।५४-५५।।

सा चाप्सरसां पुरतो वर्णोद्देशविकत्थनम् ।

न सेहे मन्युना युक्ता गिरिजेन्दुकलाभृतः ।। ५६ ।।

अपने रंग को लक्ष्यकर, चन्द्रकला को धारण करने वाले, शिव की अप्सराओं के सम्मुख व्यंग्योक्ति को पार्वती, क्रोध से मुक्त होने के कारण सह न सकीं ॥ ५६ ॥

अथ सा रोषसंयुक्ता त्यक्त्वा वृषभवाहनम् ।

अपह्नुते शैलसानौ रोषापह्नुतिमागता ।। ५७ ।।

इसके बाद वे क्रोध से युक्त हो, अपने क्रोध को बिना प्रकट किये ही, वृष-वाहन शिव को छोड़ किसी अज्ञात शिखर पर चली गईं ॥ ५७ ॥

मार्गमाणोऽथ विरहव्याकुलो वृषवाहनः ।

नाससाद कियत्कालं पार्वतीं पर्वतोत्तमे ।।५८॥

तत्पश्चात् कुछ समय तक विरह से व्याकुल हो उस उत्तम पर्वत पर खोजते हुए भी वृषवाहन शङ्कर पार्वती को न प्राप्त कर सके ।। ५८ ।।

विरहव्याकुलं ज्ञात्वा स्वयं सा पार्वती हरम् ।

आत्मानं दर्शयामास गिरसानापह्नुते ।। ५९ ।।

तब शिव को विरह से व्याकुल जानकर, उन पार्वती ने स्वयं उन्हें गुप्त पर्वत पर अपने आपको दिखाया ।। ५९ ।।

तामासाद्य ततः शम्भुः किमर्थमभजः प्रिये ।

मानं मनोनुदं देवि विशीर्ण इव चाब्रवीत् ।। ६० ।।

तब उन्हें प्राप्तकर "हे प्रिये ! तुमने क्यों मुझे छोड़ दिया ? हे देवि ! अब तुम मन से मान को हटा दो, ऐसा शिव ने दीन की भाँति कहा ॥ ६० ॥

।। शिव उवाच ।।

भर्तुरागः पुरन्ध्रीणां मानग्रहणकारणम् ।

तद्विना ग्रहणात्तस्य भीरु प्राप्नोति वाच्यताम् ।।६१।।

शिव बोले- पति का प्रेम ही सौभाग्यवती स्त्रियों के मानग्रहण (रूठने) का कारण होता है। अनुराग के बिना वह रूठना, उससे डरने वाले के लिए केवल कथन मात्र ही रह जाता है।

तस्मात् किमर्थमकरो रोषं त्वं जलजानने ।

तदाचक्ष्व द्रुतं कान्ते मनो मे न प्रसीदति ।। ६२ ।।

अतः हे कमल के समान मुखवाली, हे प्रिये! तुम शीघ्र बताओ, अन्यथा मेरा मन प्रसन्न नहीं हो पा रहा है ॥६२॥

।। और्व उवाच ।।

इत्युक्त्वा शङ्करो देवीं तामालिङ्गितुमुद्यतः ।

काली तं वारयामास वचनं चाब्रवीदिदम् ।।६३।।

और्व मुनि बोले- ऐसा कह कर भगवान शङ्कर उन देवी का आलिङ्गन करने को उद्यत हो गये। तब काली ने उन्हें ऐसा करने से रोका और यह वचन कहा ॥६३ ॥

।। काल्युवाच ।।

न दृष्टपूर्वा किमहं येन भिन्नाञ्जनोपमा ।

क्रियते मयि भूतेश भवताप्सरसां पुरः ।। ६४ ।।

काली बोलीं- हे भूतों के स्वामी! क्या मैं आपके द्वारा पहले नहीं देखी गई थी, जो अप्सराओं के सामने आपके द्वारा मेरी तुलना काजल के टुकड़े से की गई ॥ ६४ ॥

जातिहीनं वृत्तिहीनं रूपहीनमदक्षिणम् ।

हीनांगमतिरिक्ताङ्गं तेन दोषेण नाक्षिपेत् ।। ६५ ।।

जाति की दृष्टि से हीन, जीविका से हीन, रूप से हीन (कुरूप), अदक्षिण(मूर्ख), अङ्गों से हीन, अतिरिक्त अंगोवाले को उसके दोष के कारण आक्षेप नहीं लगाना चाहिये ॥ ६५ ॥

इति ब्रह्मा पुरा प्राह वैदौघार्थावनिश्चयम् ।

तं चावमन्य भवता परिहासोऽभ्यभाष्यत ।। ६६ ।।

वेदों के समूह के अर्थ का निश्चय करते हुए प्राचीन काल में ब्रह्मा ने ऐसा कहा था। आप द्वारा, (ब्रह्मा के) उस कथन की अवमानना करते हुए परिहास में ऐसा कहा गया है ॥ ६६ ॥

यावन्न मे शरीरस्य भवित्री स्वर्णगौरता ।

न समेष्ये त्वया तावदिति सत्यं ब्रवीमि ते ।। ६७ ।।

अत: जब तक मेरे शरीर की स्वर्णिम गोराई नहीं हो जायेगी तबतक मैं आपको प्राप्त नहीं होऊँगी । यह मैं आपसे सच-सच बता रही हूँ ॥६७ ॥

शरीरगौरतां शम्भो न समेष्ये त्वया विना ।

तत्र मे शृणु सन्धाय आत्मनः शिरसा शपे ।। ६८ ।।

शम्भु ! शरीर की गोराई के विना मैं आपको प्राप्त नहीं हूँगी । इस लिए मेरी सुनें तो मेरे मिलाप के लिए आपको, अपने आपको माथा पीटकर कोसना होगा ॥६८॥

।। और्व उवाच ।।

इत्युक्त्वा सा तदा देवी तस्यैव पुरतो ययौ ।

महाकोषीप्रपाताख्यं हिमवत्सानुमुत्तमम् ।। ६९ ।।

और्व बोले- तब ऐसा कहकर देवी, उन (शिव) के सामने ही हिमालय के महाकोपीप्रपात नामक उत्तम शिखर पर चली गई ।। ६९ ।।

महादेवोऽपि तां भाव्यं ज्ञानेन कृतनिश्चयम् ।

अर्थं ज्ञात्वा तदापर्णां सर्वज्ञो नाप्यवारयत् ।। ७० ।।

अपने ज्ञान के द्वारा उसे होनी मानकर, सब कुछ जानने वाले, महादेव ने उस समय अपर्णा (पार्वती) को भी, उनके प्रयोजन को समझकर नहीं रोका ॥७० ॥

कालिका पुराण अध्याय ४५- कालीतपवर्णन

सा गत्वा पूर्ववत्तत्र शम्भुसङ्गतमानसा ।

शतमाराधयामास वर्षाणि वृषभध्वजम् ।। ७१ ।।

वे वहाँ जाकर शिव में अपना मन लगाकर पहले की ही भाँति सौ वर्षों तक भगवान शिव की आराधना कीं ॥ ७१ ॥

एकं पादं समुत्क्षिप्य वामेनाक्रम्य सा क्षितिम् ।

उत्तराभिमुखी भूत्वा निराहारा निरन्तरम् ।।७२।।

वे एक (दाहिना पैर उठाकर, दूसरे (बायें पैर से पृथिवी को आक्रान्तकर, उत्तरदिशा में मुँह किये हुए, निरन्तर, निराहार रहकर आराधना कीं ॥७२॥

वैयाघ्रचर्मवसना सोर्ध्वमूर्द्धानना सती ।

ज्योतिर्मयं परं शान्तं शिवं शिवकरं वरम् ।

आत्मस्वरूपतत्त्वज्ञा तत्त्वेनाराधयद्धरम् ।। ७३ ।।

व्याघ्र के चमड़े के बने हुए परिधान को धारण कर, ऊपर की ओर मुँह की हुई, आत्मस्वरूप के तत्व को जाने वाली, उन सती (काली) ने श्रेष्ठ, परम शान्तिकारक, ज्योतिर्मय, कल्याणकारी, शिव की तत्वपूर्वक (यथार्थ रूप से) आराधना किया ॥७३॥

तां चिन्तयन्तीं परमनिश्चलां तत्त्वमानसाम् ।

मेने मुनिगण: स्थाणुर्यो न जानाति तत्त्वतः ।।७४।।

एवं तस्यास्तपस्यन्त्या जग्मुर्वर्षाणि वै शताम् ।

अन्येषां च यथा शश्वदेकं नृपतिसत्तम ।।७५ ॥

जो मुनि उन्हें यथार्थ रूप में नहीं जानते थे, उन्होंने परम निश्चल हो, मन में तत्व का चिन्तन करती हुई, उनको काष्ठ ही माना । हे नृपसत्तम ! इस प्रकार (अन्यों की अपेक्षा निरन्तर अकेले ही ) ! तपस्या करते उनके एक सौ वर्ष व्यतीत हो गये ।।७४-७५ ।।

ततस्तां शतवर्षान्त शङ्करो योगतत्परः ।

आत्मानं दर्शयामास क्रमादेकं स सत्रयम् ।। ७६ ।।

तब सौवें वर्ष के अन्त में, योग में लगे हुए भगवान् शंकर ने उनको अपने तीनों रूपों को साथ-साथ और क्रमशः एक-एक करके दिखाया ॥ ७६ ॥

प्रथमं दर्शयामास ब्रह्माणं च हरिं ततः ।

ततस्तु शाम्भवं देहं ततस्तेषामथैकताम् ।। ७७ ।।

ज्योतिर्मयत्वं शुद्धत्वं सर्वेषां हेतुतां तथा ।।७८ ।।

उन्होंने पहले ब्रह्मा के रूप को दिखाया, तत्पश्चात विष्णु के रूप को तदनन्तर अपने शिवस्वरूप को दिखाया । इनके बाद उन तीनों रूपों की एकता, ज्योतिर्मयता, शुद्धत्ता और सबके कारणरूप का दर्शन कराया ।।७७-७८।।

ततस्तु शम्भुरूपं स दर्शयामास शङ्करः ।

योगनिद्रां महामायां योगिनीं कालिकाम्बिकाम् ।।७९।।

तब उन शंकर ने अपने शम्भुस्वरूप का पुनः दर्शन तथा योगनिद्रा, महामाया, योगिनी, अम्बिका, नामों वाली देवी का दर्शन कराया ।। ७९ ।।

प्रथमं दर्शयित्वा तु तस्याः प्रकृतिरूपताम् ।

पश्चात् सा पार्वतीत्येव क्रमात्तस्या अदर्शयत् ॥८०॥

इस क्रम में उन्होंने पहले उन अम्बिका के पराप्रकृतिरूप का दर्शन कराया तदनन्तर क्रमशः अनेक रूपों को दिखाते हुए वे ही पार्वती हैं, ऐसा उन पार्वती को दर्शन कराया ॥८०॥

तपसा सम्भृतेनाशु ज्ञानमासाद्य पार्वती ।

अन्तर्दृष्ट्या बहिर्दृष्ट्या तत्त्वं ज्ञात्वा यथातथम् ।। ८१ ।।

अपनी समस्त तपस्या से पार्वती ने शीघ्र ज्ञान प्राप्त कर, आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही दृष्टियों से यथार्थतत्व को जान लिया ॥ ८१ ॥

शम्भुं जगन्मयं मेने तथात्मानं जगन्मयीम् ।

ब्रह्मा विष्णुर्हरश्चापि ततः सर्वमिदं जगत् ॥८२॥

तब उन पार्वती ने शम्भु को जगन्मय एवं स्वयं को जगन्मयी माना, जिनसे समस्त जगत् और ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति हुई है ॥ ८२ ॥

अहं समस्तप्रकृतिर्योगनिद्रा तथा सती ।

इति ध्यानेन सा देवी प्राप्य ध्यानं तदात्यजत् ।

उन्मील्य नयनद्वन्द्वं बहिः शम्भुं ददर्श च ।। ८३ ।।

तब मैं ही समस्त प्रकृति, योगनिद्रा, और सती हूँ, यह तथ्य ध्यान द्वारा जानकर, उन देवी ने तपस्यागत ध्यान को छोड़ दिया और अपने दोनों नेत्रों को खोलने पर शम्भु को बाहर की ओर प्रत्यक्ष उपस्थित देखा ॥ ८३ ॥

सा दृष्ट्वा शङ्करं देवं देवदेवमुमापतिम् ।

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिर्यमिनं योगतत्परम् ।।८४।।

उस समय उन्होंने देवों के देव, उमापति, योग में तत्पर, भगवान् शंकर को देखा तथा उन सयंमीदेव की इच्छितवाणी से स्तुति की ॥ ८४ ॥

कालिका पुराण अध्याय ४५

अब इससे आगे श्लोक ८५ से ९९ में शिवस्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

शंकर स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ४५ 

।। और्व उवाच ॥

इति स्तुतो महादेवः सर्वभूतानुकम्पकः ।

प्रसन्नवदनः प्राह पार्वतीं प्रतिहर्षयन् ।। १०० ।।

और्व बोले- इस प्रकार स्तुति किये जाने पर, सभी प्राणियों पर अनुकम्पा करने वाले, महादेव, प्रसन्नवदन हो, पार्वती को प्रसन्न करते हुए बोले ॥ १०० ॥

।। ईश्वर उवाच ।।

प्रीतोऽस्मि देवि भद्रं ते वरं वरय वाञ्छितम् ।

तपसाप्यायितश्चाहं त्वया ब्रह्मा तथा हरिः ।। १०१ ।।

ईश्वर बोले-हे देवि ! मै प्रसन्न हूँ। तुम्हारा मङ्गल हो । अब अपना इच्छित वर माँगो । तुम्हारे द्वारा तपस्या से मुझे, ब्रह्मा और विष्णु को भी प्रसन्न कर लिया गया है ।

तपसा त्वत्समो नास्ति शीलेन च गुणेन च ।

त्वां विना न हि तृप्यामि प्रिये कुरु यथेप्सितम् ।। १०२ ।।

हे प्रिये ! इस समय तपस्या, गुण, शील में तुम्हारे समान कोई नहीं है । तुम्हारे बिना मुझे कोई तृप्त नहीं कर सकता अत: तुम अपना इच्छित सम्पन्न करो ॥ १०२ ॥

ततः सा मोहिता प्राह मायया हिमवत्सुता ।

जाम्बुनदाभगौरो मे देहो भवतु साम्प्रतम् ।

अनन्यकान्तस्त्वं चापि भूया मत्तो विना हर ।। १०३ ।।

तब उन माया से मोहित हो हिमालय की पुत्री ने कहा- हे हर ! "मेरा शरीर सोने के समान वर्ण का तत्काल हो जाय और आप भी मेरे अतिरिक्त किसी अन्य से प्यार करने वाले न होवें ॥ १०३ ॥

एवमुक्तो महादेवः पार्वत्या पार्वती ततः ।

आकाशगङ्गातोयौघे मज्जयामास भामिनीम् ।। १०४ ।।

तब पार्वती द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर महादेव ने तत्क्षण ही पर्वती को आकाशगंगा की जलराशि में स्नान कराया ॥ १०४ ॥

सा निमज्ज्य समुत्तीर्णा विद्युद्गौरी व्यजायत ।

सिताम्भोमध्यगा देवी शारदाभ्रे तडिद्यथा ।।१०५।

वे देवी, पार्वती, चाँदनी के जल में स्नान करने के पश्चात् बिजली की भाँति गोरी होकर शरदऋतु के बदलों के मध्य आकाशीय बिजली की भाँति सुशोभित हो उठीं ॥ १०५॥

शम्भुश्चाङ्गीचकराशु नाहं त्वत्तो विना प्रिये ।

मनसापि ग्रहीष्यामि नान्यां सत्यं ब्रवीमि ते ।। १०६ ।।

शिव ने भी उन्हें, हे प्रिये ! मैं तुम्हारे बिना किसी अन्य को मन से भी नहीं ग्रहण करूँगा। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ" ऐसा कहकर शीघ्र ही उन्हें स्वीकार कर लिया ॥ १०६ ॥

।। और्व उवाच ।।

अथ तोयात् समुत्तीर्णा पार्वती मोदसंयुता ।

तपः क्लेशपरित्यक्ता चन्द्रिकेव विधोर्यथा ।। १०७ ।।

तत्पश्चात् आकाशगङ्गा के जल से निकली और तपस्या के क्लेश से मुक्त हुई, पार्वती, चन्द्रमा की चाँदनी की भाँति प्रसन्न हो उठीं ॥ १०७॥

अथ तां पार्वतीं देवीमादाय वृषभध्वजः ।

जगाम शैलं कैलासं स्वमाश्रमपदं लघु ।। १०८ ।।

तब उन पार्वतीदेवी को लेकर भगवान् शङ्कर शीघ्र ही, कैलाशपर्वत पर स्थित, अपने निवास स्थान को चले गये ॥ १०८ ॥

तदा गत्वा हरो देवीमधिवास्य विभूष्य च ।

पूर्ववन्मोदयामास नर्महासकथादिभिः ।। १०९ ।।

तब भगवान् शङ्कर भी वहाँ देवी पार्वती को ले जाकर और बसाकर उन्हें विभूषित कर (भस्म से सजाकर), पहले की ही भाँति उन्हें नर्म (कामुक) तथा हास कथाओं से प्रसन्न किये ॥ १०९ ॥

सापि सौवर्णगौराङ्गी वीक्ष्य रूपं मनोहरम् ।

गृहीतसमयं शम्भुं प्राप्यातीव मुमोद ह ।। ११० ।।

उन पार्वती ने भी जो अब सोने के समान गौरवर्ण वाली हो गई थीं, अपने सुन्दररूप को देख तथा वचनबद्ध शिव को प्राप्त कर अत्यधिक प्रसन्नता को प्राप्त किया ॥ ११० ॥

एवं तयोस्तु शिवयोरन्योन्यरममाणयोः ।

जगाम सुचिरं कालं कैलासे पर्वतोत्तमे ।। १११ ।।

इस प्रकार उस उत्तम कैलास पर्वत पर उनके एवं शिव के परस्पर रमण करते हुए बहुत समय बीत गये ॥१११॥

अथैकदा महादेवसमीपे हिमवत्सुता ।

आसीना ददृशे तस्य स्वां छायामुरसि स्थिताम् ।। ११२ ।।

एक बार महादेव के समीप बैठी हुई हिमालय की पुत्री, पार्वती ने उनके हृदय में स्थित अपनी ही छाया को देखा ॥ ११२ ॥

स्फटिकाभ्रसमे स्वच्छे हृदि शम्भोर्मनोहरे ।

योगिज्ञानादर्शतले चार्वङ्गीं प्रतिबिम्बिताम् ।। ११३ ।।

आत्मच्छायां गिरिसुता वामभागे मनोहरे ।

ददर्श वनितारूपं स्मितवक्त्रां मनोहराम् ।। ११४।।

एक बार स्फटिक के बादल के समान, शिव के सुन्दर एवं स्वच्छ हृदय में, योगियों के आदर्शज्ञान तल में प्रतिबिम्बित, शिव के सुन्दर वामभाग में पत्नी के रूप में स्थित, मुस्कुराते मुखवाली, सुन्दर अंगोवाली, सुन्दरी, अपनी ही छाया को गिरिसुता, पार्वती ने देखा ।। ११३ ११४।।

भ्रान्त्या दृष्ट्याथ पार्वत्यास्तदा ज्ञानमजायत ।

कृतसत्योऽपि गिरिशः किमन्यां वनितां दधौ ।

मायया स्थापितां गात्रे वीक्षन्तीं कुटिलं च माम् ।। ११५ ।।

तब भ्रमपूर्ण दृष्टि के कारण, पार्वती को यह हुआ कि क्या शपथ के पश्चात् भी शिव ने किसी अन्य को अपनी पत्नी बना लिया है। जो माया से उनके शरीर में स्थित हो, अपनी कुटिल दृष्टि से मुझे देख रही है ।। ११५ ।।

इति तस्यास्तदा वक्त्रं मलिनं भ्रुकुटीयुतम् ।

बभूव वृषकेतुश्च श्याम उत्पातको यथा ।। ११६ ।।

ऐसा कहते ही उनका मुख काला पड़ गया, भौहें टेढ़ी हो गईं मानो उत्पात् का सूचक श्यामवर्ण का वह वृषकेतु हो ॥ ११६ ॥

सा दृष्ट्वाथ तदा छायां विष्णुमाया-विमोहिता ।

अपह्नुतं गिरे: शृङ्गं मानाद्रोषाद्विवेश ह ।। ११७ ।।

तब विष्णुमाया से विशेषरूप से मोहित होने के कारण, वे उस छाया को देखकर मान और रोषवश, अपह्नुत पर्वत के शिखर पर चली गईं ॥ ११७ ॥

अथ तां मार्गमाणस्तु शङ्करो विरहाकुलः ।

चिरादपह्नुतां देवीमाससाद ततो हरः ।।११८।।

इसके पश्चात् शिव भी विरह से व्याकुल हो उन्हें खोजते हुए बहुत देर बाद अपह्नुत पर्वत पर स्थित देवी के पास पहुँचे ।।११८।।

तामासाद्य महादेवो विवर्णवदनां प्रियाम् ।

उवाच रोषणे हेतुं ज्ञातुमिच्छुर्यथातथम् ।। ११९ ।।

उन विवर्णमुखी पत्नी को प्राप्त कर महादेव ने यथोचित रूप से उनके क्रोध का कारण जानने के लिये पूछा ॥ ११९ ॥

।। ईश्वर उवाच ।।

किमर्थस्त्वं वरारोहे मह्यं कुप्यसि कोपने ।

रोषहेतुमहं वक्तुं तवेच्छामीह वल्लभे ।। १२० ।।

ईश्वर (शिव) बोले- हे प्रिये, हे श्रेष्ठ जंघो वाली, हे क्रोधिता ! किसालिए तुम मुझसे रुष्ट हुई हो ? मैं इस समय, तुम्हारे क्रोध का कारण, तुम्हारे से ही सुनना चाहता हूँ ॥ १२० ॥

न तुभ्यमपराध्यामि वाचा वा मानसाथवा ।

कायेन वा कथं कोपं कर्तुमर्हसि भामिनि ।। १२१ ।।

हे भामिनी ! मैंने मन से, वचन से या शरीर से किसी प्रकार का भी तुम्हारे प्रति कोई अपराध नहीं किया है तो भी तुम क्यों क्रोधित हो रही हो ? ॥ १२१ ॥

।। देव्युवाच ।

समयेन मया पूर्वं तथा सम्प्रार्थितो भवान् ।

कथं तं परिहाय त्वमन्यां भार्यां समीहसे ।। १२२ ।।

देवी बोलीं- पहले मेरे द्वारा प्रार्थना किये जाने पर आपने वचन दिया था तो भी आप उसे छोड़कर अन्य स्त्री की आकांक्षा क्यों करते हैं ? ॥ १२२ ॥

प्रत्यक्षेण मया दृष्टा तव हृद्यन्तरे हर ।

चार्वङ्गी वनिता काचित्तोयनिर्यातभस्मनि ।। १२३ ।।

हे हर ! आपके जल से मुक्त, भस्म के बीच, हृदय के भीतर, प्रत्यक्षरूप से मैंने, सुन्दर अंगोवाली किसी स्त्री को देखा है ।। १२३ ।।

भवान् सर्वज्ञानमयः सर्वगः परमेश्वरः ।

तोषितो मे तपोव्रातैर्न तुष्टस्त्वं महेश्वर ।। १२४।।

तस्मादहं तपस्तप्तुं शश्वद्गन्तुं समुत्सहे ।

अनुजानीहि मां शम्भो मा विलम्बं वृथा कृथाः ।। १२५ ।।

हे महेश्वर ! आप सब कुछ जाननेवाले तथा सर्वत्र गमन करने वाले परमेश्वर हैं। अपने तपों के समुच्चय द्वारा आपको सन्तुष्ट करने के मेरे प्रयास किये जाने पर भी आप सन्तुष्ट नहीं हुए हैं । इसलिए मैं स्थायी रूप से तपस्या करने हेतु जाना चाहती हूँ अतः आप मेरा पीछा करके व्यर्थ विलम्ब न कीजिये ।। १२४ - १२५ ।।

इति श्रुत्वा वचस्तस्याः स्मितविस्तारिताननः ।

शङ्करः पार्वतीं प्राह सन्दिग्धामिव भामिनीम् ।। १२६ ।।

उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर विस्तार से मुँह खोले शिव, किञ्चित मुस्कुराते हुए, उस सन्देह से ग्रस्त, अपनी पत्नी पार्वती से बोले ॥ १२६॥

।। ईश्वर उवाच ।।

नाहमन्यां स्त्रियं वोढा नाहं समयभेदकः ।

तव मिथ्यामतिर्जाता मुग्धे मूढतयाधुना ।। १२७ ।।

ईश्वर बोले- हे मुग्धे ! मैंने न तो किसी अन्य स्त्री से विवाह किया है और न मैं अपने वचन को भंग करने वाला हूँ। इस समय मूखर्तावश तुम्हारी मिथ्या (भ्रमित) बुद्धि हो गयी है ॥ १२७ ॥

त्वमिच्छसि यदि श्रोतुं तत्र हेतुं च पार्वति ।

तदहं कथये तत्त्वं मानं मानिनि मा कृथाः ।। १२८ ।।

हे पार्वती ! यदि तुम उसका कारण जानना चाहती हो तो सुनो। मैं तुमसे उसे कहता हूँ । हे मानिनी ! मान, मत करो ।। १२८।।

मम वक्षसि विस्तीर्णे दर्पणस्वच्छभासिनि ।

तवैव वपुषश्छायाबिम्बितालोकिता त्वया ।। १२९ ।।

दर्पण के समान स्वच्छ प्रतीत होने वाले मेरे विस्तृत वक्षस्थल में, भासित होने वाली, अपने ही शरीर की उभरी बिम्बात्मक छाया ही तुम्हारे द्वारा देखी गयी है ।। १२९ ॥

इदानीमेव बुध्यस्व त्वामृते नास्ति सा मयि ।

नात्र मानस्त्वया कार्यों हृदयान्तरसंस्थिते ।। १३०।।

हे मेरे हृदय के अन्तर्गत स्थित प्रिये ! अब से यह भलीभांति जान लो कि तुम्हारे अतिरिक्त मेरे में वह दूसरी कोई नहीं है। अतः अब तुम्हें मान नहीं करना चाहिये ॥ १३० ॥

।। देव्युवाच ।।

मयि स्थितायां छायास्ति मामृते नास्ति सा पुनः ।

कथमेतन्मया ज्ञेयं तन्मे वद वृषध्वज ।। १३१ ।।

देवी बोली- हे वृषध्वजा वाले शिव ! तुम्हारे में जो छाया स्थित है, वह मेरे अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है। इसे मैं कैसे जानूँ, यह बताइये ॥१३१॥

।। ईश्वर उवाच ।।

गवाक्षाभ्यन्तरे स्थित्वा तज्जालेन मनोहरे ।

पश्य तोयौघनिर्यातभूतिलेपमुरो मम ।। १३२ ।।

तथा त्वं मण्डितं देहं वीक्ष्यादर्शतले पुनः ।

मद्धृदासन्नमासाद्य तादृक्छायां विलोकय ।। १३३॥

ईश्वर बोले- हे सुन्दरी ! खिड़की के भीतर खड़ी हो उसकी जाली से तुम समूह से युक्त विभूति से लिप्त मेरे हृदय को देखो तदनन्तर अपने सुसज्जित शरीर को पुनः दर्पण के तल में देखो तथा मेरे हृदय के आसन को प्राप्त की हुई, उसी छाया को देखो ।। १३२-१३३।।

यथा द्रक्ष्यसि देहे स्वं तत् कुरु त्वं तथा मम ।

आलोकय निजां छायां त्वां विना नास्ति तत् पुनः ।। १३४ ।।

उस समय जैसा तुम मेरे शरीर में देखती हो वैसा ही करो। तुम अपनी छाया को देखो। तुम्हारे विना मेरे लिये कोई दूसरी नहीं हैं ।। १३४ ॥

त्वमेव ज्ञास्यसि च्छायां मद्वक्षसि मनोहरे ।

ज्ञात्वा विसृज्यमानं मां त्वं चाप्युपपत्स्यसि ।। १३५ ।।

हे मनोहरे ! तब तुम स्वयं ही मेरे वक्षस्थल में स्थित छाया को जान जाओगी। इसे जानकर तुम मान छोड़कर, मेरे में अपने विश्वास को प्राप्त कर लोगी ।। १३५ ॥

।। और्व्व उवाच ।

एवमुक्ता हरेणाथ पार्वतीन्दुकलाभृतः ।

तोयैर्निर्धाव्य हृदयं स्वां छायां पुनरैक्षत ।। १३६ ।।

और्व बोले- चन्द्रकलाधारी शिव के द्वारा ऐसा कहे जाने पर पार्वती ने जल के समान भासित, उनके हृदय में अपनी छाया को पुनः देखा ॥ १३६ ॥

दृष्ट्वादर्शत वक्त्रं निजं देहं च पार्वती ।

आलोकयामास तदा शश्वच्छंकरवक्षसि ।। १३७।।

तदनन्तर पार्वती ने अपने शरीर एवं मुख मण्डल को दर्पण में देखकर पुनः उनके वक्षस्थल में स्थित देखा ॥१३७॥

यथा सा कुरुते देवी कापट्यं नेत्रविभ्रमम् ।

तथा सा कुरुते च्छाया करकम्पादिकं तथा ।। १३८ ।।

उस समय वे देवी जैसी कपटलीला या नेत्र भ्रमण कर रही थीं, वैसे ही वह छाया भी कर कम्पन आदि लीलाएँ कर रही थी ।। १३८ ।।

ततः पुनर्गवाक्षस्य जाले स्थित्वा हिमाद्रिजा ।

तथा व्यलोकयच्छम्भोर्हृदयं वीतभूतिकम् ।। १३९।।

तब फिर खिड़की के ओट से शिव के भस्मरहित हृदय में पार्वती ने अपनी छाया को देखा ।। १३९ ॥

तया तत्र तु पार्वत्या वृषभध्वजवक्षसि ।

न कापि दृष्टा वनिता दृष्टं जालस्य मण्डलम् ।। १४० ।।

उस समय पार्वती द्वारा वृषभध्वज शिव के वक्षस्थल में कोई स्त्री नहीं देखी गई, केवल खिड़की की जाली ही दिखाई दी ।। १४० ॥

एवं बहुविधैर्देवी तदोपायैस्तथेतरैः ।

निर्यातसंशया भूत्वा लज्जां प्राप वराङ्गना ।। १४१ ।।

तब इस प्रकार के और बहुत से अन्य उपायों द्वारा परीक्षा कर संशयरहित हो, श्रेष्ठ अंगोवाली, उन देवी ने लज्जा का अनुभव किया ।। १४१ ।।

तां लज्जितां गिरिसुतामीषद्धीतामधोमुखीम् ।

शम्भुरालिंग्य पाणिभ्यां मुखं चास्याश्चचुम्ब च ।

स तामाह महादेवो देवीमाश्वासयन् मुहुः ।। १४२ ।।

उस समय, उन लज्जित, कुछ भयभीत, नीचे मुख की हुई पार्वती का शिव ने हाथों से आलिंगन किया और उनके मुँह को भी चूम लिया तथा उन्हें बार-बार आश्वस्त करते हुए महादेव ने उनसे कहा ।। १४२ ।।

।। महादेव उवाच ॥

मा व्रीडस्व महाभागे भ्रान्तिः कस्य न जायते ।। १४३॥

मानस्त्वयि वरस्त्रीभिः कार्यः प्रेमकरो यतः ।

त्वयापि विरल: कार्यों मानो देवि न सर्वदा ।। १४४ । ।

महादेव बोले- हे देवि ! लज्जा मत करो। भ्रम किसे नहीं होता ? तुम्हारी जैसी श्रेष्ठ स्त्रियों द्वारा मान किया जाना ही चाहिये क्योंकि वह प्रेम बढ़ाने वाला होता है। तुम्हारे द्वारा भी कभी-कभी मान किया जाना चाहिये । सदैव नहीं ।। १४३-१४४ ।।

।। और्व उवाच ।।

इत्युक्ता देवदेवेन मैनाकसहजाम्बिका ।

शङ्करं प्रणयात् प्राह सूनृतं मधुरं वचः ।। १४५ ।।

और्व बोले- देव-देव महादेव द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर, मैनाक जिसके भाई थे, ऐसी अम्बिकादेवी ने प्रेमपूर्वक, ये सत्य एवं मधुर वचन कहे ॥१४५ ।।

।। देव्युवाच ।।

यथा तवाहं सततं छायेवानुगता हर ।

भवेयं साहचर्येण तथा मां कर्तुमर्हसि ।। १४६ ।।

देवी बोलीं- हे हर ! जिस प्रकार मैं सदैव तुम्हारे द्वारा अनुगमन की गई हूँ वैसे ही हम दोनों का निरन्तर साहचर्य भी रहे, वैसा कुछ मेरे प्रति आप करें ॥१४६॥

सर्वगात्रेण संस्पर्श नित्यालिङ्गनविभ्रमम् ।

अहमिच्छामि भवतस्तत्त्वं चेत् कर्तुमर्हसि ।।१४७।।

मैं अपने सम्पूर्ण शरीर से आपके सत् आलिंगनगत स्पर्शसुख का अनुभव करना चाहती हूँ । इस दृष्टि से आप यदि कुछ कर सकें तो करें ॥१४७॥

।। भगवानुवाच ।

रोचते तन्मह्यमपि यस्त्वमिच्छसि भामिनि ।

तत्रोपायमहं वक्ष्ये यदि शक्नोषि तं कुरु ।। १४८ ।।

भगवान् (शिव) बोले- हे भामिनी! जो तुम चाहती हो वही मुझे भी अच्छा लगता है। उसका उपाय मैं तुम्हे सुनाता हूँ, यदि कर सको तो उसे करो । ।। १४८ ।।

अर्धं मम गृहाण त्वं शरीरस्य मनोहरे ।

अर्धं भवतु मे नारी अथैवार्धं पुमानिति ।। १४९ ।।

हे मन को हरने वाली ! मेरे आधे शरीर को तुम ग्रहण करो। जिससे मेरे शरीर का आधा भाग नारी का तथा आधा पुरुष का हो जाय ॥ १४९ ॥

यदि त्वमपि शक्नोषि कर्तुं तदर्धमीदृशम् ।

तदाहं हरिष्यामि शरीरार्धं वरानने ।। १५० ।।

हे श्रेष्ठ मुखों वाली ! यदि तुम इस प्रकार से आधा-आधा कर सको तो मैं भी तुम्हारे शरीर के आधे भाग को ग्रहण कर लूँगा ।। १५० ।।

तवैवार्धं तथा नारी ह्यर्धं भवतु पूरुषः ।

विद्यते तत्र शक्तिर्मे त्वमनुज्ञातुमर्हसि ।। १५१ ।।

उस समय से ही तुम्हारा आधाभाग नारीरूप तथा आधा पुरुष रूप होवे । इसी रूप में मेरी शक्ति कार्य करे । ऐसी तुम आज्ञा दो ॥ १५१ ॥

।। देव्युवाच ।।

तवैवाहं हरिष्यामि शरीरार्धं वृषध्वज ।

किं त्वहं त्वेकमिच्छामि तच्चेत्त्वं कर्तुमिच्छसि ।। १५२ ।।

देवी बोलीं- हे वृषध्वज ! मैं आपके ही शरीर के आधे भाग को ग्रहण करूँगी किन्तु इस विषय में मेरी एक इच्छा है, यदि आप उसे पूरी कर सकें तो करें ।। १५२ ।।

यदाहमर्धं भवतो भूत्वा तिष्ठामि तावता ।

त्यजाम्यहं यदा तेऽर्धं सम्पूर्णं स्यात्तदा द्वयम् ।। १५३।।

जब मैं आधे शरीर की होकर तुम्हारे आधे शरीर को ग्रहण कर शेष आधे शरीर को छोड़ दूँ, उस समय दोनों के ही शरीर पूर्ण हो जायें ।। १५३ ।।

इत्यर्धभागहरणं भवेद्यदि यथेप्सितम् ।

तवैवाहं तदा शम्भो शरीरार्धं हराम्यहम् ।। १५४।।

हे शम्भु ! यदि इस प्रकार से शरीरार्ध के ग्रहण का काम, इच्छित रूप से होवे तो मैं आपके शरीर के आधे भाग को ग्रहण करूँ ।। १५४ ।।

।। ईश्वर उवाच ।।

एवमस्तु भवेन्नित्यं यथार्थं हर्तुमर्हसि ।

शरीरस्यार्धहरणं भूयस्तव यथेप्सितम् ।। १५५ ।।

ईश्वर बोले- ऐसा ही नित्य हो जिससे तुम मेरा आधा शरीर ग्रहण करो तथा तुम्हारा आधा शरीर पुनः इच्छित रूप से पूर्ण हो जायेगा ।। १५५।।

कालिका पुराण अध्याय ४५- अर्धनारीश्वर रूप की उत्पत्ति

।। और्व्व उवाच ।।

अथ गौरी तदा पूर्वमनुभूतं तपः स्थितौ ।

योगनिद्रास्वरूपं तदात्मनोऽचिन्तयद्धिया ।। १५६ ।।

और्व बोले- तब गौरी ने जैसा तपस्या करते समय पहले अनुभव किया था अपने हृदय में योगनिद्रा के स्वरूप का वैसा ही चिन्तन किया ॥ १५६ ॥

हरं प्रणम्य प्रथमं ब्रह्माणं च ततः परम् ।

ततस्त्रिजगतामीशं हरिं नारायणं प्रभुम् ।। १५७ ।।

इस क्रम में उन्होंने सर्वप्रथम शिव को, तब ब्रह्मा को तथा अन्त में त्रिलोकी के स्वामी नारायण, भगवान् विष्णु को प्रणाम किया ।। १५७ ॥

चिन्तयित्वा यदा तेषामेकतां सा जगन्मयी ।

आत्मानं योगनिद्रां च चिन्तयित्वा तपस्विनी ।। १५८ ।।

तब उन जगन्मयी, तपस्विनी, पार्वती ने उन तीनों की एकता का चिन्तन कर अपना एवं योग निद्रा का चिन्तन किया ॥ १५८ ॥

दक्षिणे स्वशरीरस्य भागार्धं शशभृद्भृतः ।

शरीरस्य तदा वाममतिप्रेम्णा निजं हरे ।। १५९ ।।

उसी समय अपने शरीर के दक्षिणी आधे भाग में शशिशेखर शिव के वाम भाग को बड़े प्रेम से धारण कर लिया।।१५९।।

हरोऽपि स्वशरीरार्धं गौरीकाये तदा स्वयम् ।

प्रेम्णा न्यवेशयत्तस्याश्चिकीर्षुः प्रियमद्भुतम् ।। १६० ।।

तब शिव ने भी अपने शरीर के आधे भाग को स्वयं पार्वती के शरीर में उनकी इच्छानुसार प्रेमपूर्वक स्थापित किया । यह अत्यन्त प्रिय एवं अद्भुत कार्य हुआ ।। १६० ।।

अथ स्थित्वा तदा भर्गः काल्या सह चिरं तदा ।

परित्यज्य शरीरार्धं पृथगेव बभौ रुचा ।। १६१।

त्पश्चात् शिव भी काली के साथ अपने अर्ध शरीर का परित्याग करके भी स्वतंत्र रूप से अलग-अलग पूर्ण शरीर से चिरकाल तक प्रेमपूर्वक रहे ।। १६१ ॥

काली भूत्वा स्वर्णगौरी शरीरार्द्ध च शङ्करम् ।

प्राप्तमोदा तदात्मानं सन्तुष्टा च जगन्मयी ।। १६२ ।।

उस समय जगन्मयी काली भी स्वर्णवर्ण की गौराङ्गी हो गईं तथा शिव के अर्द्धाङ्ग को प्राप्तकर, अपने आनन्द को प्राप्त कर सन्तुष्ट हुईं ॥ १६२ ॥

कालिका पुराण अध्याय ४५- शिव शक्ति सौन्दर्य वर्णन

एवं यदा शरीरार्धमादाय परमेश्वरी ।

रहस्ये तिष्ठति तदा राजतेऽतीव शोभना । । १६३ ।।

इस प्रकार वे परमेश्वरी जब शिव के अर्ध भाग को ग्रहणकर एकान्त में स्थित होती थीं। उस समय वे, बहुत सुन्दर लगती थीं ।। १६३ ।।

अर्द्धं धम्मिल्लसंयुक्तं जटाजूटार्द्धयोजितम् ।

एकस्मिन् श्रवणे भोगी भागे जाम्बूनदार्चितम् ।। १६४ ।।

कुण्डलं श्रवणेऽन्यस्मिन् शीर्षे तस्या व्यराजत ।

अर्द्धं मृगाक्षि चान्यार्द्धं वृषभाक्षि व्यजायत ।। १६५ ।।

वे आधेभाग में मृग के समान सुन्दर नेत्रों वाली तो आधेभाग में बैल के समान विशाल नेत्रों वाली थीं। उस समय उनका आधाभाग समलंकृत जूड़े से तो आधाभाग जटा-जूट से सुशोभित था । उनके एक कान में सांप का कुण्डल था तो दूसरे भाग में जाम्बूनद (सोने) के बने उत्तम कुण्डल उनके सिर की शोभा बढ़ा रहे थे ।। १६४- १६५ ।।

अर्द्धं स्थूलनसं चारु तिलपुष्पनसं परम् ।

दीर्घश्मश्रु तथैवार्द्धमर्द्धं श्मश्रुविवर्जितम् ।। १६६।।

उनकी नाक का आधा भाग स्थूल था तो आधा भाग तिल के पुष्प की भाँति सुन्दर था। आधे मुखमण्डल में लम्बी दाढ़ी-मूँछ थी तो आधाभाग उससे रहित था । १६६ ॥

आरक्तचारुदर्शनं रक्तौष्ठमेकतस्तथा ।

अपरं शुक्लविपुलं दीर्घाकृतिरदं परम् ।। १६७ ।।

एक ओर लाल ओठों सहित, लाल मसूड़ोंयुक्त, सुन्दरदाँत थे तो दूसरी ओर बड़े और लम्बे आकार वाले उत्तम श्वेतदाँत थे ॥१६७।।

अर्द्धनीलगलं चार्द्धमपरं हारसंयुतम् ।

अर्द्धं कंकणकेयूरयुक्तबाहु तथापरम् ।।१६८।।

नागकेयूरसंयुक्तं स्थूलबाहुनिरूर्मिकम् ।

अर्धं विलोलसुभुजं परिहस्तभुजं परम् ।। १६९ ।।

उनके गले का आधा भाग नीले रंग का था तो दूसरा आधा भाग हार से सुशोभित था। पहले आधेभाग में कङ्कण और केयूर युक्त बाहु था तो दूसरे में बिना अंगूठी का नागनिर्मित बाजूबन्द से युक्त स्थूल बाहु था। एक भाग, चञ्चल सुन्दर भुजाओंवाला तो दूसरा हाथी की सूंड़ के समान पुष्ट भुजाओंवाला था ।। १६८-१६९।।

एकत्र सोर्मिकाशाखा करस्यान्यत्र तां विना ।

एकस्तनं तु हृदयं रोमावल्यर्धसंयुतम् ।।१७० ।।

एक ओर हाथ की अंगुलियाँ अंगूठियों सहित थीं तो दूसरी ओर बिना अंगूठियों के, एक ओर स्तनयुक्त हृदय था तो दूसरी ओर का आधाभाग रोमावली युक्त था ।। १७० ।।

रम्भास्तम्भसमानोरू सुपार्ष्णि मृदुपादकम् ।

एकं तथापरं स्थूलं संहतोरुपदाम्बुजम् ।। १७१ ।।

एक ओर केले के खम्भे के समान जाँघ, सुन्दर ऍड़ी, तथा कोमल पैरों से युक्त था तो दूसरा स्थूल और ठोस जांघ, एवं पदकमलों से युक्त था ॥ १७१ ॥

एकं चारुमृदुस्थूलजघनं सुमनोहरम् ।

तथापरं दृढकटि संहतोर्द्धपदान्वयम् ।। १७२ ।।

एक भाग सुन्दर कोमल जघन (टखनों) से सुशोभित था तो दूसरा दृढ़कटि और ठोसपदान्वय से युक्त था।।१७२।।

एकं वैयाघ्रचर्मोद्ययुक्तं भूतिविलेपनम् ।

अपरं मृदु कौशेयवसनं चन्दनोक्षितम् ।। १७३ ।।

एक व्याघ्रचर्म-समूह तथा विभूति के लेप से सुशोभित था तो दूसरा कोमल, रेशमीवस्त्रों तथा चन्दन से शोभायमान था ॥ १७३॥

एवमर्द्धं तथा जातं योषिल्लक्षणसंयुतम् ।

अपरं बलवद् भूरि सुगूढं पुरुषाकृति ।। १७४।।

इस प्रकार उनका आधाभाग स्त्रियों के लक्षण से युक्त हो गया था तो दूसरा अत्यधिक बलवान्, सुन्दर ढंग से गूढ़पुरुषाकृति का था ।। १७४।।

एवमर्द्धं स्मररिपोर्जहार गिरिजा सती ।

हिताय सर्वजगतां कालिका कालिकोपमा ।। १७५ ।।

इस प्रकार कालीघटा के समान काली, सती, गिरिजा ने समस्त संसार के कल्याण के लिए कामदेव के शत्रु, शिव के आधेभाग को ग्रहण किया ।। १७५ ।।

तस्याः शरीरं राजेन्द्र हरतन्वर्द्धसंयुतम् ।

येनोपमेयं तत्रास्ति मार्गितं भुवनत्रये ।।१७६।।

हे राजेन्द्र ! शिव के अर्ध शरीर से युक्त उनके शरीर की जो उपमा है उसकी खोज, तीनों लोकों में रहती है ।। १७६ ।।

सन्तानः पारिजातो वा एकान्तविशदस्तरुः ।

अमोघया यथा वल्ल्या तौ चापि ययतुर्नहि ।। १७७ ।।

सन्तान या पारिजात का एक मात्र विशाल वृक्ष, अमोधबल्ली से युक्त होकर भी, दोनों उसकी उपमा को प्राप्त नहीं कर सकते ॥ १७७॥

बहुधा च पृथक् तेन तौ रेमाते नरेश्वर ।

अर्द्धनारीश्वरो भूत्वा स तु रेमे कदाचन ।। १७८ ।।

हे नरेश्वर ! अधिकांशतः वे दोनों अलग-अलग पूर्णकाय होकर रमण करते किन्तु कभी-कभी अर्धनारीश्वर रूप में भी रमण करते थे ॥१७८ ।।

इति यद्यपि भूतेशः स्वयं शक्नोति कालिकाम् ।

गौरीं कर्तुं तदा सर्वभूतकारणकारणः ।।१७९।।

इस प्रकार यद्यपि भूतनाथ शिव जो सभी प्राणियों के कारण के भी कारण हैं, स्वयं काली को गौरी बनाने में समर्थ थे ॥ १७९ ॥

तथापि तां गिरिसुतां संयोज्य विविधैः पुरा ।

तपस्ययोजयद् देव; क्रियोपायैरनेकशः ।। १८० ।।

तपोनिर्धूतसर्वाङ्गी पश्चाद् गौरीमथाकरोत् ।

अर्द्धं च प्रददौ तस्यै शरीरस्य महेश्वरः ।। १८१ ।।

तो भी उन पर्वतपुत्री पार्वती को उन महादेव ने पहले अनेक प्रकार की तपस्या तथा क्रियोपचारों में लगाया, तब तपस्या के प्रभाव से पापरहित हुई उन सम्पूर्ण अंगोवाली को, गौरी बनाया एवं महेश्वर ने उन्हें अपने शरीर का आधाभाग प्रदान किया ।।१८०-१८१ ।।

नैवास्य तत्त्वं जानन्ति शक्राद्याः सकलाः सुराः ।

शरीरार्द्धप्रदानस्य तपसे योजनस्य च ।। १८२।।

इस तपस्या में लगाये जाने तथा शिव द्वारा शरीरार्धदान के रहस्य को इन्द्रादि समस्त देवता भी नहीं जानते ॥ १८२ ॥

एतस्य तत्त्वं जानन्ति महात्मानो महाबलाः ।

नन्दी भृङ्गी महाकालो वेतालौ भैरवस्तथा ।। १८३ ।।

अङ्गभूता महेशस्य वीतभीतास्तपोधनाः ।

ये मानुषशरीरेण प्रापिरे तपसो बलात् ।

गणानामाधिपत्यं तु ते जानन्ति हरं परम् ।। १८४ ।।

इसके तत्व को नन्दी, भृङ्गी, महाकाल, वेताल तथा भैरव आदि महाबली, तपस्वी, निर्भय महात्मागण ही जानते हैं जो स्वयं महेश के अङ्गभूत ही हैं। जिन्होंने अपने तपस्या के श्रेष्ठ बल से मनुष्य शरीर से शिव के गणों का आधिपत्य प्राप्त कर लिया है ।।१८३-१८४ ।।

एवं सदा त्वया योज्याः सानुगा नृपसत्तम ।

वनिता सत्क्रियोपायैस्ततो भद्रमवाप्स्यसि ।। १८५ ।।

हे नृपसत्तम ! इसी प्रकार अपनी अनुगामिनी पत्नी को सत्कर्म में लगाना चाहिये, ऐसा करने से तुम कल्याण को प्राप्त करोगे ॥ १८५ ॥

य इदं शृणुयान्नित्यमद्भुतं पुण्यदायकम् ।

शिवयो: प्रीतिकरणं शरीरार्द्धग्रहं तथा ।। १८६ ।

गौरीत्वसाधनञ्चैव कालिकायाः शुभावहम् ।।१८७।।

जो इस अद्भुत, पुण्यदायक, शिव-शिवा के प्रीति कारक, शरीरार्ध के ग्रहण तथा कालिका के गौरीत्वसाधन के शुभदायक प्रसंग को नित्य सुनता है ।। १८६-८७॥

न तस्य विघ्ना जायन्ते स च पुण्यतमो मतः ।

दीर्घायुः स सुखी भूयात् पुत्रपौत्रसमन्वितः ।। १८८ ।।

उसके कार्यों में कोई विघ्न नहीं होता । वह पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ माना जाता है । वह दीर्घायु, सुखी तथा पुत्रपौत्र से युक्त होगा ।। १८८।।

सततं परिशृण्वानः शिवयोश्चरितं महत् ।

शिवलोकमवाप्नोति सुचिरं शिववल्लभः ।। १८९ ।।

शिव-शिवा के इस चरित्र को नित्य सुनने वाला, शिव का प्रिय होकर चिरकाल तक शिवलोक को प्राप्त करता है।।१८९।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणेऽर्द्धनारीश्वरचरिते पञ्चचत्वारिंशोध्यायः ॥ ४५ ॥

॥ श्रीकालिकापुराण का अर्धनारीश्वरचरित सम्बन्धी पैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ४५ ।।

कालिकापुराण का हिन्दीटीका युक्त कालिका-खण्ड सम्पूर्ण हुआ।

आगे जारी..........कालिका पुराण कालिकेय खण्ड अध्याय 46

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