कालिका पुराण अध्याय ४३
कालिका पुराण
अध्याय ४३ में पार्वती के तप का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ४३
Kalika puran chapter 43
कालिकापुराणम्
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः पार्वतीतपवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४३
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ
देवमुनिर्या हिमवन्मन्दिरं तदा ।
नियोजितो
बलभिदा नारदः कामगः परम् ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- इन्द्र द्वारा भेजे हुये, इच्छानुसार गति वाले, श्रेष्ठ, देवर्षि नारद तब हिमालय के निवास स्थान पर पधारे ॥ १ ॥
स गतः
पूजितस्तेन धरेशेन महात्मना ।
तं समुत्सृज्य
रहसि कालीं तामाससाद ह ।।२।।
जाने के बाद
उस महात्मा - हिमालय द्वारा पूजित होकर वे उन्हें छोड़कर,
एकान्त स्थान में जहाँ काली उपस्थित थीं,
उनके निकट पहुँचे ।। २ ।।
आसाद्य कालीं
स मुनिः सम्बोध्य ज्ञानशालिनीम् ।
उवाचेदं
वचस्तथ्यं सर्वेषां जगतां हितम् ॥३॥
ज्ञानमयी काली
के पास पहुँचकर उन्हें सम्बोधित कर उन मुनि ने सभी प्राणियों के हित को ध्यान में
रखते हुये, ये तथ्यपूर्ण वचन कहे ॥ ३ ॥
।। नारद उवाच
।।
शृणु कालि वचो
मह्यं सत्यं तदवधारय ।
सेवित: स
महादेवस्त्वयेह तपसा विना ॥४॥
नारद बोले- हे
कालि ! मेरे सत्य वचनों को सुनो और सुनकर उन्हें धारण करो । अभी तुम्हारे द्वारा
बिना तपस्या के ही वे महादेव सेवित हुये हैं ॥ ४ ॥
अनुरक्तोऽपि
तेन त्वां महादेवो विसृष्टवान् ।
त्वामृते
शङ्करो नान्यां द्वितीयां संग्रहीष्यति ।। ५ ।।
उनसे अनुरक्त
रहने पर भी तुम्हें महादेव ने छोड़ दिया, किन्तु तुम्हारे अतिरिक्त वे किसी अन्य स्त्री का संग्रह
नहीं करेंगे ॥ ५ ॥
त्वं चापि
नान्यं दयितं ग्रहीष्यसि विनेश्वरम् ।
तस्मात् त्वं तपसा
युक्ता चिरमाराधयेश्वरम् ॥६॥
तुम भी शिव के
बिना किसी अन्य पुरुष को पति के रूप में ग्रहण नहीं करोगी । इसलिये तुम तपस्या में
निरत होकर चिरकाल तक शिव की आराधना करो ॥ ६ ॥
तपसा
संस्कृतां त्वां तु स द्वितीयां करिष्यति ।
मन्त्रोऽयं
तस्य सुभगे शृणु त्वं येन सोऽचिरात् ।।७।।
आराधितस्ते
प्रत्यक्षो भविष्यति महेश्वरः ।
ॐ नमः
शिवायेति च सर्वदा शङ्करप्रियः ॥८॥
तपस्या से
संस्कृत हुई तुम्हें वे अपनी (सती के बाद की) द्वितीय पत्नी बनावेंगे । हे सुन्दरी
! उनका मन्त्र “ॐ नमः शिवाय" उन्हें हमेशा प्रिय है, जिससे आराधना किये जाने पर वे,
महेश्वर शीघ्र प्रत्यक्ष हो जायेंगे ।। ७-८ ।।
चिन्तयन्ती तु
तद्रूपं नियमस्था षडक्षरम् ।
मन्त्रं जप त्वं
गिरिजे तेन तुष्टो भवेद्धरः ॥९॥
हे गिरिजा ! उनके
उसी रूप का चिन्तन करती हुयी उपर्युक्त षडक्षर मन्त्र का नियमपूर्वक जप करो,
जिससे शिव प्रसन्न हो जायेंगे ।।९।।
एवमुक्ता तदा
काली नारदेन महात्मना ।
कर्तव्यमनुमेने
सा हितं तथ्यञ्च तद्वचः ।।१०।।
तब महात्मा नारद
द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर, उस काली ने उस वचन को करने योग्य,
हितकारक एवं तथ्यपूर्ण माना ॥ १० ॥
अनुमान्य
तपस्तप्तुं तदा कालीञ्च नारदः ।
स्वर्गं जगाम
तस्याश्च निश्चिताभून्मतिव्रते ।। ११ ।।
तब नारद काली
को तपस्या करने के लिए मनाकर स्वर्ग को चले गये तथा उन काली की व्रत में निश्चित
मति हो गयी ॥ ११ ॥
अथ याते
देवमुनौ काली सासाद्य मेनकाम् ।
तपः श्रद्धां समाचख्ये
चात्मनो हरसङ्गमे ।।१२।।
देवमुनि नारद
के चले जाने पर माता मेनका के निकट पहुँचकर, उस काली ने शिव के सङ्गम हेतु तपस्या के प्रति अपनी श्रद्धा
का उल्लेख किया ।। १२ ।।
।। काल्युवाच
।।
तपस्तप्तुं गमिष्यामि
मातः प्राप्तुं महेश्वरम् ।
अनुजानीहि मां
गन्तुं तपसेऽद्य तपोवनम् ।। १३ ।।
काली बोलीं-
हे माता ! मैं शिव को प्राप्त करने के लिए तपस्या करने जाऊँगी। आप मुझे आज तपस्या
के लिए तपोवन जाने की आज्ञा दीजिये ।। १३ ।।
तपः करणयत्नं मे
पितुरावेदय द्रुतम् ।
यावन्न दह्ये जननि
भूतेशविरहाग्निना ।। १४ ।।
हे माता ! शिव
के विरह की अग्नि में जब तक मैं जल न जाऊँ, तुम शीघ्र ही पिता से मेरी तपस्या करने की चेष्टा का निवेदन
करो ।। १४ ।।
इति तस्या वचः
श्रुत्वा मेनका शोककर्शिता ।
आलिंग्य
स्वसुतामूचे मा तपः कुरु वल्लभे ।।१५।।
मृदुदेहासि
पुत्रि त्वं मा तपो याहि कर्कशम् ।
तपः सोढुं
मुनेर्गात्रं शक्तं ते न कलेवरम् ।। १६ ।
उनके इन वचनों
को सुनकर मेनका, शोक से पीड़ित हो, अपनी पुत्री का आलिङ्गन कर, हे प्रिये ! हे पुत्री ! तुम तपस्या मत करो;
क्योंकि तुम कोमल शरीर वाली हो,
तपस्या जैसे कठोर कार्य हेतु मत जाओ । मुनियों का शरीर ही
तपस्या हेतु समर्थ होता है न कि तुम्हारा कोमल शरीर समर्थ है ।। १५-१६ ।।
वनवासश्च ते
पुत्रि नेष्टः शत्रुगणैरपि ।
तस्मात् त्वं
सम्परित्यज्य वनवासोद्भवं तपः ।
आत्मनो
ह्यनुरूपेण तपस्तत् कुरु यद्धितम् ।।१७।।
हे पुत्री !
वनवास तो तुम्हारे शत्रुओं के लिए भी अभीष्ट नहीं है । अत: तुम वनवासपूर्वक तपस्या
के विचार को छोड़कर अपने अनुरूप जो हितकारक तपस्या हो उसे करो ॥ १७ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
मातुः सा वचनं
श्रुत्वा गिरिजा दीनमानसा ।
इत्यूचे च
तंदा वाक्यं तपोयत्नपरा प्रसूम् ।। १८ ।।
मा निषेधय मां
यास्ये तपसेऽद्य तपोवनम् ।
प्रच्छन्नमपि यास्यामि
नानुज्ञाताप्यहं त्वया ।।१९।।
मार्कण्डेय
बोले- माता के वचन को सुनकर, गिरिजा, दुःखीमन से तपस्या हेतु प्रयत्नशील हो,
माता से ये वाक्य बोलीं कि मुझे मत रोको। मैं आज ही में
तपस्या के लिए जाऊँगी। यदि आपसे आज्ञा न मिली तो मैं छुपकर भी चली जाऊँगी ।। १८-१९
॥
।। मेनकोवाच
।।
गृहेषु देवाः
सततं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
तस्माद् गृहे
पुत्रि देवानर्चय त्वं यथेप्सितान् ।।२०।।
मेनका बोली-
हे पुत्रि ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता घरों में ही निरन्तर निवास करते हैं।
इसलिए अपनी इच्छानुसार, उन देवताओं की घर में ही पूजाकरो ॥ २० ॥
स्त्रीणां
तपोवनगतिर्न श्रुता स्वामिना विना ।
तस्मान्न युज्यते
पुत्रि तपोयात्रा वनं प्रति ।। २१ । ।
स्त्रियों की
पति के बिना तपोवन में जाने की बात नहीं सुनीं गयी है। इसलिए हे पुत्रि ! तपस्या
हेतु तुम्हारी वनयात्रा, उचित नहीं जान पड़ती ॥ २१ ॥
यतो निरस्ता
तपसे वनं गन्तुं च मेनया ।
उमेति तेन
सोमेति नाम प्राप तदा सती ।। २२ ।।
मेनका के
द्वारा उमा कहकर तपस्या हेतु वन जाने की बात निरस्त की गयी । इसी से तभी से उन सती
पार्वती ने उमा नाम प्राप्त किया ।। २२ ॥
अवज्ञाय तदा
मातुर्वचनं हिमवत्सुता ।
सखीभ्यां ज्ञापयामास
पितरं तपसोद्यमम् ।। २३ ।।
तब माता के
वचनों की अवहेलना कर हिमालय की पुत्री, पार्वती ने सखियों के माध्यम से अपने तपस्या सम्बन्धी उद्यम
की जानकारी पिता को दी ।। २३ ।।
स तु ज्ञात्वा
गिरिपतिस्तपसे चरितोद्यमम् ।
दुहितुश्चानुमेने
च नातिहृष्टमना इव ।। २४ ।।
उन पर्वतों के
राजा ने,
तपस्या के लिए अपनी पुत्री के आचरण एवं चेष्टाओं को जानकर,
बिना प्रसन्न मन के ही अनुमति प्रदान कर दिया ।। २४ ।।
सानुज्ञाप्य तदा
तातं यत्र दग्धो मनोभवः ।
शम्भुना प्रययौ
तत्र गङ्गावतरणं प्रति ।। २५ ।।
तब पिता की
अनुज्ञा प्राप्त कर, पार्वती, उस गङ्गावतरण क्षेत्र को गयीं,
जहाँ भगवान शङ्कर ने कामदेव को भस्म कर दिया था ।। २५ ।।
गङ्गावतरणं
नाम प्रस्थो हिमवतः स च ।
हरशून्योऽथ
ददृशे काल्या तच्चिन्तया तदा ।। २६ ।।
उस समय
गङ्गावतरण नामक हिमालय का वह शिखर, उन्हीं की चिन्ता में निमग्न, काली द्वारा शिवशून्य देखा गया ।। २६ ।
यत्र स्थित्वा
पुरा शम्भुर्ध्यानवानभवद् भृशम् ।
तत्र क्षणं तु
सा स्थित्वा बभूव विरहार्दिता ।। २७ ।।
जिस स्थान पर
पहले बहुत समय तक शिव ने ध्यान धारण किया था वहीं क्षणभर स्थित हो,
वह देवी विरह से पीड़ित हो गयीं ॥ २७ ॥
हा हरेति
क्षणं तत्र रोदमाना गिरेः सुता ।
विललापातिदुःखार्ता
चिन्ताशोकसमन्विता ।। २८ ।।
उस समय
पर्वतनन्दिनी पार्वती, किसी क्षण चिन्ता और शोक से भरकर,
अत्यन्त दुःखी हो, हो हर ऐसा कहकर रोने तथा विलाप करने लगतीं ॥ २८ ॥
क्षणं विलप्य
सा काली स्मृत्वा पूर्वोद्भवं तदा ।
हार्दं हरस्य
सा मोहमवाप कमलेक्षणा ।। २९ ।।
उन काली ने
क्षणभर विलाप किया तथा पहले उत्पन्न, शिव के हृदयगत भावों का स्मरण कर,
वे कमल के समान सुन्दर आँखोंवाली,
देवी, मोह (मूर्छा) को प्राप्त हो गयीं ।। २९ ।।
ततश्चिरेण सा
मोहं धैर्यात् संस्तभ्य भामिनी ।
नियमायाभवत्तत्र
दीक्षिता हिमवत्- सुता ।। ३० ।।
तब बहुत समय
बाद,
अपने मोह को धैर्यपूर्वक नियन्त्रित कर,
हिमालय की कन्या, वहाँ नियमों के लिए दीक्षित हुई ।। ३० ।।
प्रथमं
नियमस्तस्या बभूव फलभोजनम् ।
चर्या
पञ्चातपा चिन्ता शाम्भवी शाम्भवो जपः ।। ३१ ।।
उन्होंने पहले
फलाहार करने का, पञ्चाग्निसेवन, शिव का चिन्तन तथा शिव के ही जप का नियम लिया ।। ३१ ।।
कालिका पुराण अध्याय ४३- पार्वतीतपवर्णन
यज्ञियैर्दारुभिः
शुष्कैश्चतुर्दिक्षु चतुष्कृतम् ।
वह्निसंस्थापनं
ग्रीष्मे तीव्रांशुस्तत्र पञ्चमः ।।३२।
हस्तान्तरे चतुर्वह्नीन्
कृत्वा वैश्वानरेष्टिना ।
तन्मध्यस्था
सूर्यविम्बं वीक्षन्ती वल्कलांशुका ।
ग्रीष्मं
निन्ये वह्निमध्ये शिशिरे तोयवासिनी ।। ३३ ।।
ग्रीष्म ऋतु
में,
चार दिशाओं में सूखी हुयी यज्ञीयसमिधाओं द्वारा चार
अग्नियों की स्थापना करके वहाँ पाँचवें तीव्र किरणों वाले सूर्य को मान कर,
अपने से एक हाथ की दूरी पर, चारों अग्नियों की वैश्वानरयज्ञ की रीति से स्थापना कर,
वल्कलवस्त्र धारण कर उनके बीच में स्थित हो,
सूर्य के बिम्ब को देखती हुईं,
उन्होंने गर्मी तथा जल में निवास करते हुए,
शिशिर ऋतु बिता दिया ।। ३२-३३ ।।
प्रथमं
फलभोगेन द्वितीयं तोयभोजनम् ।
तृतीयं तु
स्वयम्पाति- वृक्षपल्लव- भोजनम् ।। ३४।।
क्रमेण तु तदा
पर्णं निरस्य हिमवत् सुता ।
निराहारव्रता
भूत्वा तपश्चरणखिन्निका ।। ३५ ।।
आहारे त्यक्तपर्णाभूद्यस्माद्धिमवतः
सुता ।
तेन
देवैरपर्णेति कथिता पृथिवीतले ।। ३६ ।।
पहले फलाहार,
तत्पश्चात् जलाहार, तपस्या के तीसरे क्रम में अपने आप गिरे हुये वृक्षों के
पत्तों का भोजन करते हुए, क्रमशः उन पत्तों को भी हिमालय की उन पुत्री ने छोड़ दिया ।
तब निराहारव्रतवाली होकर तपस्या के कारण, अत्यन्त क्षीणकाय हो गयीं । भोजन में हिमालय की कन्या ने
पत्तों को भी छोड़ दिया। इसलिए देवताओं द्वारा वे पृथ्वीतल पर अपर्णा नाम से
पुकारी गयीं ।। ३४-३६ ।।
पञ्चातपव्रतेनैव
तोयानाञ्च प्रवेशनैः ।। ३७।।
एकपादस्थिता
सा तु वसन्ते हिमवत्सुता ।
षडक्षरं
जपन्ती सा चिरं तेपे तपो महत् ।। ३८ ।।
पञ्चाग्निव्रत
तथा जल में प्रवेश करने और बसन्त ऋतु में एक पैर पर खड़ी हो,
हिमालयपुत्री पार्वती ने चिर काल तक “ॐ नमः शिवाय'' इस षडक्षरमन्त्र का जप करते हुये महान् तपस्या की ।। ३७-३८
।।
चीरवल्कलसंवीता
जटासङ्घातधारिणी ।
कृशाङ्गी
चिन्तने शक्ता जिगाय तपसा मुनीन् ।। ३९ ।।
वल्कलवस्त्र
तथा जटासमूहों को धारण कर उन्होंने दुर्बलकाय होते हुये शिव के चिन्तन में आसक्त
हो,
तपस्या में मुनियों को भी जीत लिया ।। ३९ ।।
तां तपश्चरणे
शक्तां ररक्ष शङ्करः स्वयम् ।
आप्यायति स्म
स तदा भयाद्रक्षति हर्षितः ॥४०॥
उनके तपस्या
में निरत रहने पर स्वयं भगवान् शङ्कर, उनकी रक्षा करते थे। वे प्रसन्न हो,
उन्हें बलप्रदान करते तथा भयों से उनकी रक्षा भी करते थे ।।
४० ॥
एवं
तस्यास्तपस्यन्त्याश्चिन्तयन्त्या महेश्वरम् ।
त्रीणि
वर्षसहस्राणि जग्मुः काल्यास्तपोवने ॥
४१ ।।
इस प्रकार उन
काली को शिव का चिन्तन करते तथा तपस्या करते, तपोवन में तीन हजारवर्ष व्यतीत हो गये ।। ४१ ।।
षट्त्रिवर्षसहस्राणि
संस्कृता वीक्षणात् स्वयम् ।
दैवेन विधिना
देवी हरयोग्या तथाभवत् ।।४२।।
छत्तीस हजार
वर्षों तक अपने ही देख-रेख में महादेव शिव द्वारा, स्वयं विधिपूर्वक संस्कारित किये जाने से देवी पार्वती,
शिव के योग्य हो गयीं ।। ४२ ।।
षट्त्रिवर्षसहस्रान्ते
यत्र तेपे तपो हरः ।
तत्र क्षणमथोषित्वा
चिन्तयामास भामिनी ॥४३॥
छत्तीस हजार
वर्ष बीत जाने पर भगवान शङ्कर ने जहाँ तपस्या किया था,
क्षणभर वहीं बैठकर देवी ने चिन्तन किया ॥ ४३ ॥
नियमस्थां महादेवः
किं मां जानाति नाधुना ।
येनाहं सुचिरं
तेन नानुज्ञाता तपोरता ।। ४४ ।।
क्या महादेव
मुझ,
नियमों में स्थित को, नहीं जानते ? चिरकाल तपस्या में संलग्न रहकर भी जिससे मैं उनकी अनुज्ञा
(कृपा) न प्राप्त कर सकी ? ॥ ४४ ॥
लोके
नास्त्यत्र गिरिशः किं तत्र मुनिभिः स्तुतः ।
सर्वज्ञः
सर्वगो देवो हरो देवैर्निगद्यते ।। ४५ ।।
मुनियों के
द्वारा स्तुति किये गये गिरीश (शिव) का इस लोक में क्या अस्तित्व नहीं है किन्तु
देवताओं द्वारा तो शिव, सब कुछ जानने वाले, सब जगह गमन करने वाले कहे जाते हैं ।। ४५ ।।
स सर्वगस्तु
सर्वज्ञः सर्वात्मा सर्वहृद्गतः ।
सर्वभूतिप्रदो
देवः सर्व भावनभावनः ।। ४६ ।।
वे सब जगह
गमनशील,
सब कुछ जानने वाले, सबके आत्मरूप, सबके हृदय में स्थित, सब प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करने वाले तथा सबकी भावनाओं को
जानने वाले देवता हैं ॥ ४६ ॥
सती च मेनका
माता यदि चाहं वृषध्वजे ।
सानुरक्ता
नचान्यस्मिन् स प्रसीदतु शङ्करः ।। ४७ ।।
यदि मेनका
माता का,
मेरी तथा सती का वृषध्वज शिव के अतिरिक्त अन्य किसी में
अनुराग न हो तो उपर्युक्त शङ्कर प्रसन्न होवें ।। ४७ ।।
यदि नारदवक्त्रोत्थो
मन्त्रोऽयं स्यात्षडक्षरः ।
यदि भक्त्या मया
जप्तं हरस्तेन प्रसीदतु ।।४८ ।।
यदि यह
षडाक्षरमन्त्र नारद के मुँह से निकला तथा मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक जपा गया हो तो
उस मन्त्र के जप से शिव प्रसन्न होवें ॥ ४८ ॥
सत्यं यदि
तपस्तप्तं सत्यं चाराधितो हरः ।
सत्यं भवेद्
यदि तपो हरस्तेन प्रसीदतु ।। ४९।।
यदि तपस्या
सच्चाई से की गयी हो, शिव की आराधना सच्ची हो, यदि तपस्या सार्थक होवे तो उससे भगवान् शङ्कर प्रसन्न होवें
॥ ४९ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवं
विचिन्तयन्ती सा वदातिष्ठद्धराश्रमे ।
अधोमुखी दीनवेशा
जटावल्कलमण्डिता ।। ५० ।।
मार्कण्डेय
बोले- इस प्रकार शिव के आश्रम में जब वे जटा और वल्कल से सुशोभित,
दीन वेश में नीचे मुँह किये सोच रही थीं ।। ५० ।।
तदैव ब्राह्मणः
कश्चिद् ब्रह्माचारी धृतव्रतः ।
कृष्णाजिनोत्तरीयेण
धृतदण्डकमण्डलुः ।।५१।।
उसी समय ब्रह्मचर्यव्रत
धारण करने वाला, कृष्णमृगचर्म का उत्तरीय और दण्ड तथा कमण्डलुधारी कोई ब्राह्मण,
वहाँ उपस्थित हुआ ।। ५१ ।।
ब्राह्मश्रिया
दीप्यमानः स्वर्ण गौरः सुशोभनः ।
जटाभिः परिवीताभिरुद्रिक्तस्तनुदेहभूत्
।
उपस्थितस्तदा
कालीं शम्भुर्ब्राह्मणरूपधृक् ।।५२।।
तब
ब्राह्मश्री से देदीप्यमान, सुवर्ण के समान सुन्दर घिरी हुई जटाओं से घिरे,
पतले शरीरधारी, ब्राह्मणरूप धारण कर, शिव स्वयं काली के सम्मुख उपस्थित हुये ।। ५२ ।।
आसाद्य प्रथमं
कालीं समाभाष्य तदा द्विजः ।
ज्ञातुं प्रत्यक्षतो
रागं श्रोतुमिच्छंश्च तद्वचः ।। ५३ ।।
वाग्मी
विचित्रवाक्येन पप्रच्छ गिरिजां तदा ।।५४।।
तब उन
ब्राह्मण वेशधारी शिव ने उनके प्रेम को प्रत्यक्ष रूप से जानने तथा उनके वचनों को
सुनने की इच्छा से, सर्वप्रथम काली के पास पहुँचकर बोलने में कुशल,
गिरिजा से विचित्र (रहस्यमय) वाक्यों द्वारा प्रश्न किया ।।
५३-५४ ॥
।। ब्राह्मण
उवाच ।।
कां त्वं
कस्यासि कल्याणि किमर्थं विजने वने ।
तपश्चरसि
दुर्धर्षं मुनिभिः प्रयतात्मभिः ॥५५॥
ब्राह्मण ने
कहा- हे कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो ? किसलिये इस निर्जनवन में नियतात्मा मुनियों के लिए भी कठिन,
यह तपस्या कर रही हो ? ।। ५५ ।।
न बाला त्वं
नापि वृद्धा तरुणी चातिशोभना ।
कथं पतिं
विनाभीक्ष्णं तपश्चरसि साम्प्रतम् ।। ५६ ।।
इस समय न तुम
बाला (बच्ची) हो, न वृद्धा हो, तुम तो अत्यन्त सुन्दरी युवती हो,
फिर बिना पति का दर्शन किये, क्यों तपस्या कर रही हो ? ॥ ५६ ॥
किंवा
तपस्विनी भद्रे कस्यचित् सहचारिणी ।
तपस्विनः स
पुष्पादि समाहर्तुं गतोऽन्यतः ।। ५७ ।।
हे भद्रे !
अथवा क्या तुम किसी की सहचारिणी तपस्विनी हो, और वह तपस्वी इस समय तुम्हें छोड़कर,
पुष्पादि लाने हेतु कहीं दूसरे स्थान पर चला गया है?
।। ५७ ।।
एतन्मम समाचक्ष्व
यदि गुह्यं भवेन्न ते ।
यदि ते हृदये
मन्युः कच्चिद्वसति सम्प्रति ।
तदाचक्ष्व
समर्थोऽस्मि तमहं चापि वारितुम् ।। ५८ ।।
यदि तुम्हारे
द्वारा गोपनीय न हो तो यह सब मुझसे बताओ । यदि तुम्हारे में कोई क्रोध (क्षोभ) है
तो भी मैं उसे दूर करने में समर्थ हूँ । तुम उसे भी बताओ ।। ५८ ।।
इत्युक्ता तेन
विप्रेण गिरिजाथ निजां सखीम् ।
तस्योत्तरप्रदानाय
कटाक्षेण न्ययोजयत् ।। ५९।।
उस ब्राह्मण
द्वारा ऐसा कहे जाने पर नेत्रों के सङ्केत से पार्वती ने अपनी सखी को,
उसे उत्तर देने के लिए, नियुक्त किया ।। ५९ ।।
सा सखी विजया
तस्या वचनाद् ब्राह्मणं तदा ।
प्रोवाचेदं
यथातथ्यं वीक्षन्ती गिरिजामुखम् ।।६० ।।
तब उस विजया
नाम की उनकी सखी ने गिरिजा के मुख को देखते हुए उनके वचनानुसार,
ब्राह्मण से ये तथ्यपूर्ण वचन कहे ॥ ६० ॥
।। विजयोवाच
।।
एतस्य गिरिराजस्य
तनयेयं द्विजोत्तम ।
ख्याता च
पार्वतीनाम्ना कालीति च सुशोभना । । ६१ ।।
विजया बोली-
ये पर्वतराज हिमालय की सुन्दरी कन्या हैं, जो काली और पार्वती नाम से प्रसिद्ध हैं ॥ ६१ ॥
ऊचे यन्न च
केनापि शङ्करं वृषभध्वजम् ।
वाञ्छन्ती
दयितं तीव्रं तपश्चरति वै पतिम् ।।६२।।
जो किसी से
कुछ नहीं बोलतीं तथा वृषभध्वज शिव को ही अपने पति के रूप में चाहती हुईं,
तीव्र तपस्या कर रही हैं ।। ६२ ।।
षट्त्रि
वर्षसहस्राणि तपस्तपति भामिनी ।
न शङ्करो गिरिसुतामद्याप्यभ्युपपद्यते
।।६३।।
छत्तीस हजार
वर्षों तक तपस्या करने के पश्चात् भी ये देवी पार्वती,
आज भी भगवान् शङ्कर को प्राप्त नहीं कर सकीं ।। ६३ ।
शङ्करो गिरिशो
देवः सर्वगः परमेश्वरः ।
इति स्म
गद्यते देवैर्मुनिभिश्च तपोधनैः ।।६४।।
जबकि
तपस्वियों, देवताओं और मुनियों द्वारा यह कहा जाता है कि महादेव,
शङ्कर जो गिरीश भी हैं, वे सर्वत्र गमन करने वाले परमेश्वर हैं ।। ६४ ।।
किमेनां स न
जानाति किं सानौ नास्ति वा गिरेः ।
इति
चिन्ताविषण्णेयमद्य नो लभते सुखम् ।।६५।।
वे क्या इसको
नहीं जानते ? या क्या वे इस समय हिमालय में नहीं है ? इन्हीं चिन्ताओं से पीड़ित हो,
ये सुख का अनुभव नहीं करती हैं ।। ६५ ।।
अप्रार्थितस्त्वमनया
दयसे यदि वा सुखम् ।
तदैनां
शङ्करेणाद्य त्वं सङ्गमय सुव्रत ।। ६६ ।।
हे सुन्दर
व्रतों वाले, ब्राह्मणदेव ! यदि इनके द्वारा बिना प्रार्थना किये ही आप दया करके इन्हें सुख
दे सकते हैं तो आज आप शङ्कर भगवान् इनका मिलन कराओ ।। ६६ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति तस्या वचः
श्रुत्वा ब्रह्मचारी तदा द्विजः ।
स्मयमान इदं
वाक्यं हेलयोवाच पार्वतीम् ।।६७ ।।
मार्कण्डेय
बोले- उस विजया की इन बातों को सुनकर ब्रह्मचारीवेशधारी उस ब्राह्मण ने मुस्कुराते
हुए किन्तु तिरस्कारपूर्वक, पार्वती से ये वचन कहे – ।। ६७ ।।
।। ब्राह्मण
उवाच ।।
अमोघदर्शनश्चास्मि
हरं चानयितुं क्षमः ।
किन्त्वेकं
निगदाम्यद्य निश्चितं मन्मतं शृणु ।। ६८ ।।
ब्राह्मण
बोले- हे देवि ! मेरा दर्शन अमोघ है (निष्फल नहीं जाता)। मैं शिव को भी लाने में
समर्थ हूँ किन्तु आज मैं तुमसे अपना एक निश्चित विचार रखता हूँ,
तुम उसे सुनो ॥ ६८ ॥
कालिका पुराण अध्याय ४३ शिव की व्याजस्तुति
जानाम्यहं महादेवं
तं वदामि शृणुष्व मे ।
वृषध्वजो
महादेवो भूतिलेपी जटाधरः ।।६९।।
मैं उस,
तुम्हारे आराध्य महादेव को जानता हूँ,
तुम्हें भी बता रहा हूँ, उसे सुनो- वे महादेव बैल चिह्नित ध्वजा वाले हैं,
वे जटाधारण किये रहते तथा भस्म पोते रहते हैं ।। ६९ ।।
व्याघ्रचर्मांशुकश्चैकः
संवीतो गजकृत्तिना ।
कपालधारी सर्पौघैः
सर्वगात्रेषु वेष्टितः ।।७०॥
बाघ के चमड़े
को वे वस्त्र के रूप में धारण करते हैं तथा हाथी के चमड़े को भी लपेटे रहते हैं ।
वे कपाल धारण करते हैं और सारे शरीर में सर्पों के समुदाय को लपेटे रहते हैं ।। ७०
।।
विषदग्धगलस्त्रयक्षो
विरूपाक्षो विभीषणः ।
अव्यक्तजन्मा
सततं गृहभोग्यविवर्जितः ।।७१।।
उनका गला विष
से जला हुआ है, उनके तीन भद्दे नेत्र हैं। वे देखने में भयानक हैं । उनके जन्म के विषय में
कोई ज्ञान नहीं है, वे कुल गोत्र रहित हैं, इस समय वे निरन्तर गृहभोग से रहित रहते हैं ॥ ७१ ॥
ज्ञातिभिर्बान्धवैर्हीनो
भक्ष्यभोज्यविवर्जितः ।
श्मशानवासी सततं
तत्सङ्गपरिवर्जितः ।। ७२ ।।
वे जाति
भाइयों से हीन, उनके खाने-पीने से रहित हैं तथा अपने स्वजनों के सङ्ग से रोके जाने के कारण
सदैव श्मशान में निवास करने वाले हैं ।। ७२ ।।
गर्जद्भिर्विकटैस्तीक्ष्णैर्भूतोघैः
परिवारितः ।
शृङ्गाररसहीनश्च
भार्यापुत्रविवर्जितः ।।७३।।
वे गर्जना
करते हुए भयानक, तीखे भूतों के समूह से सदैव घिरे रहते हैं। उनकी शृङ्गाररस में कोई रुचि नहीं
है,
न तो उनकी कोई स्त्री या पुत्र ही है ।। ७३ ।।
केन वा कारणेन
त्वं भर्तारं तं समीहसे ।
पूर्वं श्रुतं
मया चैव तस्यापरमिदं कृतम् ।।७४ ।।
ऐसी परिस्थिति
में किस कारण से तुम उन्हें अपना पति बनाना चाहती हो ? उनके अन्य कार्यों के विषय में पहले से ही मेरे द्वारा
बहुत कुछ सुना गया है ।। ७४ ।।
शृणु ते
निगदाम्यद्य यदि ते गृह्ण रोचते ।
दक्षस्य
दुहिता साध्वी सती वृषभवाहनम् ।। ७५ ।।
वव्रे पतिं
पुरा दैवात् सम्भोगपरिवर्जितम् ।
कपालिजायेति
सती दक्षेण परिवर्जिता ।। ७६ ।।
आज मैं तुमसे
कहता हूँ । सुनो यदि अच्छा लगे तो उसे ग्रहण करो। प्राचीन काल में दक्षप्रजापति की
सती नाम की एक साध्वी कन्या ने वृषवाहन शिव को पति के रूप में वरण किया था। दैववश
उसे शिव का संभोगसुख भी नहीं मिला तथा कपालधारी की पत्नी है,
इस हेतु, दक्ष द्वारा भी वह त्याग दी गयी ।। ७५-७६ ।।
यज्ञभागप्रदानाय
शम्भुश्चापि विवर्जितः ।
साथ
तेनापमानेन भृशं शोकाकुला सती ।
तत्याज स्वान्
प्रियान् प्राणांस्तया त्यक्तश्च शङ्करः ।।७७।।
शिव को
यज्ञभाग देने का निषेध कर दिया गया। तब इस अपमान से बहुत अधिक शोकाकुल हो उस सती
ने अपने प्रिय प्राणों को त्याग दिया था। इस प्रकार उसने भी शङ्कर का परित्याग कर
दिया ।। ७७ ।।
त्वं स्त्रीरत्नं
तव पिता राजा निखिलभूभृताम् ।
तथाविधं पतिं
कस्मादुग्रेण तपसेहसे ॥७८॥
तुम तो स्त्रियों
में रत्न के समान श्रेष्ठ हो, तुम्हारे पिता समस्त पर्वतों के राजा हैं,
तो भी इस प्रकार के पति को प्राप्त करने के लिए तुम उग्र तप
क्यों कर रही हो? ।। ७८ ।।
देवेन्द्रो वा
धनेशो वा पवनो वाप्यपांपतिः ।।७९।।
अग्निर्वाऽन्यः
सुरो वापि स्वर्वैद्यावश्विनावपि ।
विद्याधरो वा
गन्धर्वो नागो वा मानुषोऽथवा ॥८०॥
रूपयौवनसम्पन्नः
समस्तगुणसंयुतः ।
स ते योग्यः
पतिः श्रीमानुदारकुलसम्भवः ॥८१ ।।
तुम्हारे लिये
तो देवराज इन्द्र, धनपति कुबेर, पवनदेव या जल के देवता वरुण, अग्नि या अन्य कोई देवता या स्वर्ग के वैद्य,
अश्विनी कुमार, धनवान्, उदारकुल में उत्पन्न, रूप, यौवन आदि समस्त गुणों से सम्पन्न,
कोई भी विद्याधर, गन्धर्व, नाग या मनुष्य पति होने के योग्य है ।। ७९-८१ ।।
येन त्वं बहुरत्नौघ-
पूरितेऽनर्घविस्तृते ।
माल्यप्रवरसंयुक्ते
धूपचूर्णै: सुवासिते ।।८२।।
मृद्वास्तरणसंयुक्ते
विस्तृते सुमनोहरे ।
चारुप्रासादगर्भस्थे
जाम्बूनदविचित्रिते ।
शय्यातले
समासाद्य स योग्यस्ते भवेत् पतिः ।। ८३ ।।
जिसके द्वारा
तुम बहुत से रत्नों के समूह से भरे हुए अमूल्य विस्तृत,
श्रेष्ठ मालाओं से युक्त, धूप के चूर्णों से सुगन्धित, मुलायम बिछावन से युक्त, सुन्दर महल के भीतर स्थित, स्वर्ण से विशेष रूप से चित्रित,
शय्यातल, तुम्हें उपलब्ध हो, वह तुम्हारे योग्य पति होना चाहिये ।। ८२-८३ ।।
एवं
ज्ञात्वाऽद्य सुभगे यदि वाञ्छसि शङ्करम् ।
किं ते तपोभिः
सुतरामहं तं योजये त्वया ।। ८४ ।।
हे सुभगे !
यदि ऐसा जानकर भी तुम शङ्कर की ही इच्छा करती हो तो तुम्हें तपस्या करने की क्या
आवश्यकता है ? मैं तुम्हें शीघ्र उनसे मिला दूँगा ।। ८४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति श्रुत्वा
तदा काली ब्राह्मणस्योत्तरं तदा ।
मितं तथ्यं
जगादैनं ब्राह्मणं कोपसंयुता ।।८५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- जब काली ने ब्राह्मण के इस उत्तर को सुना तब वे क्रोध से भरकर,
उस ब्राह्मण के प्रति यह तथ्यपूर्ण तथा सीमित वचन बोलीं ॥।
८५ ।।
।। काल्युवाच
।।
न जानासि हरं
देवं त्वं जानामीति भाषसे ।
बहिर्यद्
दृश्यते तत्ते कथितं द्विजनन्दन ॥८६ ।।
काली बोलीं-
हे द्विजपुत्र ! तुम यह तो कहते हो कि मैं देवाधिदेव शिव को जानता हूँ,
किन्तु वस्तुतः तुम उन्हें नहीं जानते। बाहर से जो दिखायी
देता है,
अब तक तुमने वही कहा है ।। ८६ ।।
यस्य भावं न
जानन्ति सेन्द्रा ब्रह्मादयः सुराः ।
तस्य त्वं
विप्रतनय शिशुर्ज्ञास्यसि किं भवम् ।। ८७ ।।
जिन शिव के
भावों को देवराज इन्द्र के सहित ब्रह्मादि देवगण भी नहीं जानते,
उनको तुम ब्राह्मण बालक, जो अभी बच्चे हो, क्या जानो ? ।। ८७ ।।
यच्छुतं भवता
नीचवदनाद् भाषितं लघु ।
इतस्ततस्तु श्रुत्वैव
भाषसे त्वं न दृष्टवान् ।। ८८ ।।
जो तुम्हारे
द्वारा नीच लोगों के मुख से इधर-उधर कही जाती, छोटी बातें सुनी गयी हैं, उन्हें ही सुनकर तुमने कहा है । वे बातें तुम्हारे द्वारा
देखी नहीं गयी हैं ।। ८८ ।।
तस्मात्
त्वत्तो वरं नाहं वाञ्छये नापि वा पतिम् ।
अन्यद् वद न च
त्वत्तो वाञ्छये हरसङ्गमम् ।।८९।।
इसलिए तुमसे न
तो मैं वरदान चाहती हूँ और न पति ही पाना चाहती हूँ और कहो तो मैं तुम्हारे माध्यम
से शिव से मिलन भी नहीं चाहती ।। ८९ ।।
इत्युक्त्वा
गिरिजा विप्रमवलोक्य सखीमुखम् ।
इदमाह तदा
काली संशयारूढचेतना ।। ९० ।।
ब्राह्मण से
ऐसा कहकर फिर सखी के मुँह को देखकर संशयग्रस्त चित्त से गिरिजा,
काली ने कहा ॥ ९० ॥
महता
चिन्तनेनेह तपसाराधितो हरः ।
तन्ममाग्रे विप्रसुतो
निन्दितुं वाक्यमुक्तवान् ।
तदहं
चापनेष्यामि स्तुतिवाक्येन साम्प्रतम् ।।९१ ।।
मैंने महान्
चिन्तन और महती तपस्या से इस समय शिव की आराधना की थी । वैसी मुझ तपस्विनी के आगे
इस ब्राह्मणपुत्र ने उनकी निन्दाकारक वाक्य कहे।। ९१ ॥
महात्मनां च
यो निन्दां शृणोति कुरुतेऽथवा ।। ९२ ।।
तयोरागः समं
पूर्वं मया तातमुखाच्छ्रुतम् ।
तस्मात्तदपनेष्येऽहं
तन्निषेधय विप्रकम् ।। ९३ ।।
उसका समाधान
मैं इस समय स्तुति वाक्यों द्वारा करूंगी, क्योंकि मैंने पिता के मुँह से सुना है कि जो महात्माओं की
निन्दा करता है या सुनता है, दोनों का पाप समान ही होता है । उसका मैं निराकरण करूंगी
किन्तु तुम ब्राह्मण को रोको ।। ९२-९३ ॥
इत्युक्त्वा सा
सखीं काली शम्भुसङ्गतमानसा ।
अघंसंमार्जनायाशु
हरं स्तोतुमुपाक्रमत्
।। ९४ ।।
सखी से ऐसा
कहकर वे काली, शिव में अपने मन को समाहित कर उपर्युक्त पाप के समार्जन के लिए,
शीघ्र, शिव की स्तुति करने लगीं ।। ९४ ।।
कालिका पुराण अध्याय ४३ शिव स्तुति
।। काल्युवाच
।।
नमः शिवाय
शान्ताय कारणत्रयहेतवे ।
निवेदयामि
चात्मानं त्वं गतिः परमेश्वर ।। ९५ ।।
काली बोलीं-
शिव,
शान्त तथा सृष्टि-स्थिति एवं विनाश तीनों के हेतु को
नमस्कार है । हे परमेश्वर ! आप परम गति हो । अतः मैं अपने आपको तुम्हारे प्रति निवेदित
करती हूँ ।। ९५ ।।
विज्ञानसौभाग्यसुहृद्गताय
ते प्रपञ्चहीनाय हिरण्यबाहवे ।
नमोऽस्तु नारायणपद्मसम्भव-
प्रधानबीजाय जगद्धिताय ते । । ९६ ।।
सुहृदपुरुषों
द्वारा विज्ञान और परम सौभाग्य के फलस्वरूप जाने-जाने वाले, आपको नमस्कार है । आप प्रपञ्च से रहित,
हिरण्यबाहुरूप हैं, नारायण (विष्णु) एवं पद्मसम्भव (ब्रह्मा) के प्रधानबीज,
संसार के हितकारक, आपको नमस्कार है ।। ९६ ॥
इति स्तुवन्तीं
पुनरेव स द्विजस्तदा वचः किञ्चिदुदीरितुं पुनः ।
समीक्ष्य कालीमकरोत्
सयत्नकं बुद्ध्वा समाचष्ट सखीं गिरे: सुता ।।९७।।
तब इस प्रकार
से स्तुति करती हुई काली से पुनः उस ब्राह्मण द्वारा कुछ वचन कहने का प्रयत्न करते
देख और समझकर, पर्वतराजकन्या पार्वती ने अपनी सखी से आगे कहा ।। ९७ ।।
अयं द्विज:
किञ्चन वक्तुमिच्छत्युग्रं हरं चापि न संविदानः ।
निन्दन्नहि
प्राणहरीं हरस्य निन्दामहं श्रोतुमिह क्षमामि ।।१८।।
उग्र शिव के
सम्बन्ध में कुछ भी न जानते हुए भी यह ब्राह्मण, शिव की निन्दा करते हुये पुन: कुछ कहना चाहता है। मैं अपने
प्राणों को हरने वाली, इस शिव की निन्दा को, सुनने में समर्थ नहीं हूँ ।। ९८ ।।
यावद्
भूरिवचोऽस्याहं न शृणोम्यधुना सखि ।
गच्छामि तावद्
दूराय समुत्तिष्ठामि मत्प्रिये ।।९९ ।।
इसलिए हे मेरी
प्रिय सखी ! इस समय जहाँ इसकी बहुत-सी बातें न सुनायी दें उतनी दूर जाकर मैं अपना
निवास बनाती हूँ ।। ९९ ।।
इत्युक्त्वा
सा तया सख्या सहिता हिमवत्सुता ।
प्रतस्थेऽथ
समुत्थाय तमुत्सृज्य द्विजं हठात् ।। १०० ।।
ऐसा कहकर वह
हिमालयनन्दिनी, उस ब्राह्मण को बलपूर्वक छोड़कर उस सखी के सहित उठकर चल पड़ीं ।। १०० ।।
अथ शम्भुनिजं रूपमास्थाय
हिमवत्सुताम् ।
तं समुत्सृज्य
गच्छन्तीं हरः स्मेरमुखोऽन्वयात् ।। १०१ ।।
इसके बाद
शम्भु अपने यथार्थरूप को धारण कर, उस छोड़कर जाती हुई हिमालय की कन्या के पीछे मुस्कुराते हुए
चल पड़े ।। १०१ ।।
अहं हरो
महादेवो मां संस्तौषि न चाधुना ।
सम्मुखीभव हे
कालि समाश्वासय शाङ्करि ।। १०२ ।।
हे शङ्करपत्नी
! हे काली ! यह मैं शिव हूँ, महादेव हूँ, क्या तुम इस समय मेरी स्तुति नहीं करोगी?
मेरे सम्मुख हो मुझे समाश्वस्त करो ।। १०२ ॥
इत्युक्त्वा स
महादेवो गच्छन्त्याः पुरतो गतः ।
प्रसार्य
हस्तौ काल्यास्तु गतिं तस्या विरोधयन् ।। १०३ ।।
ऐसा कहकर
महादेव,
जाती हुई काली के सामने जाकर, दोनों हाथों को फैलाकर उसकी गति को रोकने लगे ।। १०३ ।।
सा वीक्ष्य
शम्भुवदनं तत्क्षणादभवद्धठात् ।
अधोमुखी तडिद्वातचकितेव
गिरे: सुता ।। १०४ ।।
शिव के मुख को
देखकर,
पर्वतपुत्री पार्वती, बिजली और वायु से अचम्भित हुई सी उसी समय हठपूर्वक नीचे मुख
वाली हो गयी ।। १०४ ।।
मन्दाक्षं
प्रीतिलज्जाभिः सा जडेव तदाभवत् ।
वक्तुं च
नाशकत् किञ्चिद्विवक्षुरपि भामिनी । । १०५ ।।
उस समय वे
प्रेम एवं लज्जा के कारण मन्ददृष्टि से जड़वत् हो गयीं । तथा वे देवी न कुछ बोल
सकीं,
न सोच ही सकीं ॥ १०५ ॥
मनोरथानां
सिद्ध्या तु सुधाभिरिव पूरितम् ।
शरीरमभवत्तस्या
मुदा पूर्णं द्विजोत्तमाः ।। १०६ ।।
हे
द्विजोत्तमों ! मनोरथों की सिद्धि से उनका शरीर अमृत से भरे हुए की भाँति आनन्द से
परिपूर्ण हो गया ।। १०६ ।।
षट्त्रिवर्षसहस्रैस्तु
तपः क्लेशमविन्दत ।
यत्तं क्षणात्
समुत्सृज्य सम्मोदमुदिताभवत् ।। १०७ ।।
छत्तीस हजार
वर्षों तक जिस तपस्याजन्य क्लेश का अनुभव किया था, उसे उसी क्षण से छोड़कर, वे आनन्द से आनन्दित हो उठीं ।। १०७ ।।
तां च वीक्ष्य
तथाभूतां प्रणयाद् वृषभध्वजः ।
कामेन
भस्मरूपेण गात्रस्थेन च मोहितः ।। १०८ ।।
अथ तां विरहोद्रिक्तः
समेत्य वृषभध्वजः ।
सम्बोधयन्निदं
चाटुवचनं प्रोक्तवान् मुदा ।। १०९ ।।
उन्हें इस
प्रकार देखकर, प्रेमवश एवं भस्मरूप में शरीर पर स्थित काम से मोहित हो,
वृषभध्वज शिव विरह से भरकर, उनके निकट जाकर, उन्हें सम्बोधित कर, प्रसन्नता से ये प्रिय वचन बोले –
।। १०८-१०९ ।
।। शिव उवाच
।।
न तु सुन्दरि
मां वक्तुं किञ्चनापि त्वमीहसे ।
तपः क्लेशं
स्मरन्ती किं मह्यं कुप्यसि साम्प्रतम् ।। ११० ।।
शिव बोले- हे
सुन्दरि ! क्या तुम मुझसे कुछ भी बात करना नहीं चाहती ?
अपनी तपस्या के कष्टों का स्मरण करती हुई क्या तुम आज भी मुझ
पर क्रोधित हो ॥ ११० ॥
अहं च
परितप्यामि त्वामृते सुभगे मम ।
समयाद् यत्
समारब्धं तपस्तप्तुं त्वया समम् ।। १११ । ।
सानुरक्तोऽथ
संस्कृत्य भविष्यामि त्वया प्रिये ।
अधुना समतीतो
मे यः कृतः समयो मया ।। ११२ ।।
हे सुभगे !
मैं भी तुम्हारे बिना दुःखी हो रहा हूँ । तुम्हारी तपस्या के साथ ही मेरा जो
अनुबन्ध आरम्भ हुआ था कि हे प्रिये ! तुम्हें संस्कारित करके ही तुम्हारे साथ
अनुरक्त हूँगा, वह इस समय बीत गया। मेरा अवसर पूर्ण हुआ ।। १११-११२ ।।
तपसे भवती
चापि तपसैव सुसंस्कृता ।
संचिन्तनेन जप्येन
तीव्रेण तपसा तदा ।
मूल्येन महता
क्रीतो दासोऽहं मां नियोजय ।। ११३ ।।
त्वदंगानां संस्करणे
जटानां च प्रसाधने ।
प्रमुच्य वल्कल
गात्राच्चार्वंशुकनिवेशने । । ११४ ।।
तपस्या में रत
न रहकर,
तपस्या से ही सुसंस्कृत हो, मेरे भलीभाँति चिन्तन से, मेरे मन्त्र के जप से तथा उस समय की गयी तपस्या का महान्
मूल्य देकर, मैं तुम्हारे द्वारा खरीदा हुआ, तुम्हारा सेवक हूँ । अब यथारुचि,
तुम्हारे (अपने) अङ्गों को संस्कारित करने,
जटाओं को सुधारने, शरीर से वल्कलों को हटाकर, सुन्दर वस्त्रों को स्थापित कराने में मुझे नियुक्त करो ।।
११३- ११४ ।।
हारनूपुरकेयूरकाच्यादिपरिधापने
।
द्रुतं नियोजय
शुभे यदि स्नेहोऽस्ति मादृशि ।। ११५ ।।
हे शुभे ! यदि
तुम्हें मेरे ही जैसा प्रेम हो तो, मुझे शीघ्र ही अपने हार, नूपुर, केयूर (बाजूबंद), करधनी आदि आभूषण पहिराने में नियोजित करो ।। ११५ ।।
निर्दग्धो
योमया कामो भस्मरूपेण मत्तनौ ।
स्थितो मां
प्रतिकृत्येव त्वद दग्धुमिच्छति ।। ११६ ।।
जो कामदेव
पहले मेरे द्वारा जला दिया गया था वही आज भस्म के रूप में मेरे शरीर पर स्थित हो,
मुझे अपना बदला लेते हुए तुम्हारे सामने जलाने की इच्छा रखता
है ।। ११६ ।।
तस्मादुद्धर
मां कामादग्नेरिव मनोहरे ।
त्वदङ्गामृत
दानेन प्रसीद दयिते मम ।। ११७ ।।
हे मन को हरने
वाली ! अपने अङ्गरूपी अमृत का दान कर, उस अग्नि के समान काम से मेरा उद्धार करो। हे मेरी प्रिये !
तुम प्रसन्न होओ ॥ ११७ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे पार्वतीतपोवर्णने त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में पार्वतीतपवर्णन नामक तिरालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥४३॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 44
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